19.4.24

हिन्दू धर्म मे दान का महत्व



*दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, ‍जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है।

*हिंदू धर्म में दान का बहुत बड़ा महत्व है. यह बात ऋग्वेद में भी उल्लेखित है कि दान करना किसी यज्ञ करने के बराबर माना जाता है. यानि जो यज्ञ करने के बाद फल की प्राप्ति होती है वहीं फल किसी को दान करने से भी मिलता है. दान करने से कई प्रकार के कष्ट तो दूर होते ही हैं साथ ही पापों से भी छुटकारा मिलता है.

*'दान-धर्मत परो धर्मो भत्नम नेहा विद्धते। ' सात्विक दान – किसी भी देश में जिस समय पर जिन चीजों की कमी हैं, उसे बिना किसी भी उम्मीद के जरूरतमंद लोगों को देना ही सात्विक दान है।

*कलयुग में सबसे बड़ा दान कौन सा है?

वैसे बड़ा दान कन्यादान को माना जाता है।जिसने अपने जीवन में एक कन्यादान कर लिया है वह सौ अश्वमेघ यज्ञ के बराबर पुण्य कमा लेता है।जो सात कर लेता है वह महापुण्यात्मा बन जाता है और जिसने इसी जीवन में १०० कन्यादान कर लिया है उसे फिर जीवन में किसी पुण्य कर्म को करने की ही आवश्यकता नहीं रहती है।

*हमारे पास जो कुछ भी है परमपिता परमात्मा का दिया हुआ है इसलिए हम कहाँ इस काबिल हैं कि दान कर सकें.
हम तो जो हमारे पास है उसे केवल दूसरों के साथ साँझा कर सकते हैं.

*दान के प्रकार तो मुझे नहीं पता, लेकिन कन्या दान सब से बड़ा दान माना जाता है के आप अपने कलेजे के टुकड़े को एक अनजान आदमी के हाथ में सोपत्ते है जिस से उसके कुल को एक पहेचान मिले, कुल आगे लेके जा सके और परिवार बस सके।

*हर व्यक्ति को अपने जीवन में एक बार किसी न किसी का कन्यादान अवश्य करना चाहिए।ऐसे व्यक्तियों की मदद के लिए जरूर आगे बढ़ें जो गरीबी के कारण अपनी बेटियों का विवाह नहीं कर पाते हैं।

*दान करने से व्यक्ति को संतुष्टि मिलती है। दान को पुण्य का काम माना जाता है। शास्त्रों में भी दान का बहुत महत्व बताया गया है। कहा जाता है कि दान करने से अक्षय पुण्य मिलता है। इतना ही नहीं दान करने से हमारे द्वारा किए गई जाने-अनजाने पापों में मिलने वाले फल नष्ट हो जाते हैं। दान के महत्व का वेदों और पुराणों में वर्णन किया गया है। कहा जाता है कि जिस व्यक्ति के हृदय में दया नहीं होती है वही दान नहीं कर सकता है।

दान का महत्व हर धर्म में महत्वपूर्ण है। यह एक कर्म है जो समाज, सृष्टि और परमेश्वर के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता है। ऋग्वेद में दान को कभी दुख नहीं पाने और कभी पाप नहीं घेरने वाला बताया गया है1। यज्ञ, दान, और तप को त्यागने योग्य नहीं माना जाता है, क्योंकि ये कर्म पावन होते हैं1। अथर्ववेद में भी दान की महत्वपूर्णता को बताया गया है

7.4.24

कोली, कोरी, कोल- भारतीय मूलनिवासी कबीले की उत्पत्ति और इतिहास






कोली समाज का इतिहास
पुरातन काल में भारत में रहने वाले लोग अपने शरीर पर जो कपड़ा पहनते थे, उसे बुनने का काम हिंदू जुलाहा और कोरी जाति के लोग करते थे, जिन्हें कबीरपंथी समाज भी कहा गया है. महान संत कबीरदास का एक दोहा है-

ज्यों कोरी रोजा बुने, नीरा आये छोर
ऐसी लिखा मीच का, दौरि सके तो दौर


इस दोहे में कोरी समाज का उल्लेख किया गया है और इसका अर्थ है जिस प्रकार कोरी धागे की चरखा चलाकर एक एक सूत पिरो कर कपड़ा बुनता है …..इत्यादि.
कबीरदास का जन्म 1398 में हुआ था इससे पता चलता है कि कम से कम 500 सालों से इस समाज का अस्तित्व रहा है और इनका काम कपड़ा बुनने का रहा है.

सूर्यवंशी राजा मांधाता से उत्पति

कोरी समाज के लोग अपने उत्पत्ति इससे कहीं ज्यादा पुराना बताते हैं, ये अपनी उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा मांधाता से मानते हैं. राजा मांधाता इक्ष्वाकु वंशी राजा थे, जो अयोध्या पर राज करते थे इसी इक्ष्वाकु वंश में आगे चलकर भगवान राम ने जन्म लिया था भगवान राम का जन्म लगभग 5000 साल पुरानी मानी जाती है और राजा मांधाता इनसे कई पीढ़ी पहले आए थे इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कोली समाज का इतिहास कितना पुराना है. राजा मांधाता परम प्रतापी राजा थे उनके समान धरती पर और कोई दूसरा राजा नहीं था उन्होंने महा शक्तिशाली रावण को भी हरा दिया था. कोली समाज के लोग राजा मांधाता को अपना इष्टदेव मानते हैं..

कोली शब्द की उत्पत्ति

भगवान गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था. उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी संभवतः कोली शब्द की उत्पत्ति इसी कोलीय वंश से हुई है.

कोली किस कैटेगरी में आते हैं?

भारत सरकार की आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है. दिल्ली,
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में इन्हें अनुसूचित जाति (scheduled caste) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. गुजरात, महाराष्ट्र और उड़ीसा में इन्हें अनुसूचित जनजाति (scheduled tribe) में शामिल किया गया है. मुख्य रूप से यह गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली,हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और जम्मू कश्मीर राज्यों में पाए जाते हैं. यह मुख्य रूप से हिंदू धर्म को मानते हैं. गुजरात में पटेल आदि जाती है जोकि पिछड़ा वर्ग ( Back Word)में आती है l गुजरात राजस्थान मैं राजपूत कोली पाए जाते हैं जो कि सामान्य श्रेणी ( General Category )मैं आते हैं l

कोली की उपजातियां

कोली जाति अनेक उप जातियों में विभाजित है, जिनमें प्रमुख हैं-ठाकोर, महादेव, चुवालिया, पटेल, कोतवाल बारिया, खांट, घेडिया, घराला, सोन, तलपड़ा, पाटनवाढीया, महावर, माहौर, टोकरे और सुच्चा इनके प्रमुख गोत्र है-आंग्रे, बनकपाल, चिहवे, थोरात, शांडिल्य, कश्यप और जालिया यह हिंदी, गुजराती, कन्नड़ और मराठी भाषा बोलते हैं.
मुगलों और अंग्रेजों ने भी लोहा माना कोली ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण जाति है. इस जाति ने कई विद्रोहो और लड़ाईयों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया है. जब गुजरात पर मुगलों का शासन हुआ तो उन्हें सबसे पहले कोली के कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा. गुजरात के कोली मुगलों के खिलाफ थे. उन्होंने मुगलों के खिलाफ हथियार उठा लिया और मुगलों को नाक में दम कर दिया था. मुगल बादशाह औरंगजेब को भी गुजरात पर शासन करने के दौरान कोली के कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा. 1830 में कोली जागीरदारों ने अंग्रेजो के खिलाफ हथियार उठा लिया और कई वर्षों तक कड़ी टक्कर देते रहे. कोली जागीरदारों के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा. 1857 में भी कोली जाति के जागीरदारों ने अंग्रेजो के खिलाफ भयंकर विद्रोह किया था.

कोली समाज की वर्तमान स्थिति

कोली, जिसे कोरी भी कहा जाता है, भारत के मध्य और पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले कई उपसमूहों वाली जाति है, कोली का सबसे बड़ा समूह महाराष्ट्र राज्य में रहता है, खासकर मुंबई और गुजरात राज्य में ब्रिटिश राज्य से लेकर आज तक कोली समाज अलग- अलग राज्यों में रहकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं. कुछ राज्यों में कोली समाज जुलाहे का कार्य करते हैं तो कुछ राज्यों में उनके द्वारा और भी कई कार्य किए जाते हैं.

कोली समाज के प्रमुख व्यक्ति

रामनाथ कोविन्द (जन्म-1 अक्टूबर 1945): रामनाथ कोविन्द एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने भारत गणराज्य के 14वें राष्ट्रपति के रूप में सेवा दी।
कान्होजी आंग्रे (1669-4 जुलाई 1729) मराठा साम्राज्य की नौसेना के प्रथम सेनानायक,
झलकारी बाई (22 नवंबर 1830-4 अप्रैल 1857): स्वतंत्रता सेनानी, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल और रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति
तानाजी मालुसरे (मृत्यु- 4 फरवरी 1670): छत्रपति शिवाजी महाराज के मराठा सेना में सूबेदार सरदार, सिंहगढ़ के युद्ध में अपनी भूमिका के लिए प्रसिद्ध
महाराजा यशवंतराव मार्तंडराव मुकने उर्फ महाराजा पतंगसाह मुकने (11 दिसंबर 1917 4 जून 1978): भारत के महाराष्ट्र के पालघर जिले में स्थित जव्हार (Jawhar) रियासत के अंतिम कोली महाराजा और राजनेता.
राजेश चुडासमा (जन्म 10 अप्रैल 1982): गुजरात के जूनागढ़ गिर सोमनाथ लोकसभा सीट से सांसद,
देवजीभाई गोविंदभाई फतेपारा (जन्म- 20 नवंबर 1958) गुजरात के सुरेंद्रनगर लोकसभा सीट से सांसद,
भारती शियाल (जन्म 1 सितंबर 2014): गुजरात के भावनगर लोकसभा सीट से सांसद
भानु प्रताप सिंह वर्मा (जन्म 15 जुलाई 1957): उत्तर प्रदेश के के जालौन लोकसभा सीट से सांसद, भारत सरकार में लघु, कुटीर और मध्यम उपक्रमकोली, कोरी, कोल- भारतीय मूलनिवासी कबीलेपठानकोट से मेरे एक अनजाने मित्र (जो इस बीच पुराने मित्र हो चुके हैं) प्रीतम भगत ने मोबाइल पर बताया कि बुद्ध की माता कोली (कोरी) समुदाय से थीं. मेरी दिलचस्पी बढ़ी. इस बात की खोज करते हुए नेट पर एक ऐसे आलेख तक पहुँचा जो कोली समुदाय के बारे में था. इस आलेख की शुरुआत एक जाने-पहचाने वाक्य से हुई थी कि - ‘हम कौन हैं? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ मैं यहाँ उक्त आलेख के कुछ अंश ही दे रहा हूँ. पूरा आलेख कोली समुदाय के इतिहास का बढ़िय़ा लेखा-जोखा देता है.यह देखने वाली बात है कि कोली समुदाय भी अपना इतिहास सिंधुघाटी सभ्यता के उसी ज़माने में ढूँढता है जहाँ आज के लगभग सभी वंचित समुदाय पहुँचते हैं. इससे इतिहास समझी जाने वाली उस पौराणिक कथा का गुब्बारा फट जाता है कि तथाकथित असुरों, राक्षसों (सिंधुघाटी सभ्यता के मूलनिवासियों) और सुरों (जो यूरेशिया से वाया ईरान यहाँ आए थे) के बीच कोई सौहार्दपूर्ण समझौता हुआ था. यह वास्तव में एक लंबे युद्ध और संघर्ष के बाद की भीषण त्रासदी थी जो भारत में ग़ुलामी प्रथा की सच्चाई कहती है.ऐसी पौराणिक कहानियाँ हैं जो संकेत करती हैं कि सुरों ने असुरों को गुलाम बना लिया था. ये वही गुलाम लोग हैं जो विभिन्न जातियाँ में बाँट दिए गए थे और वे जातिप्रथा (श्रमिकों/कमेरों का वर्गीकरण) समाप्त करने के लिए आज तक संघर्षशील हैं. जातिप्रथा का अर्थ ही यही है कि किसी की जाति जानों और उसे उठने से रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगा दो. इन्हें अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ कहा जाता है. इन्हें मानवाधिकारों के बारे में जानकारी कम ही है. यह तथ्य है कि भारत के मूलनिवासी गुलाम बना लिए गए थे और सदियों से वे अमानवीय स्थितियों में रहने के लिए मजबूर किए गए हैं. इनकी अधिकतर आबादी गाँवों में रहती है. अगडी जातियाँ शेष विश्व को भारत की ऐसी तस्वीर दिखाती हैं मानो भारत से गुलामी मिट गई है. समता आ गई है. छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है आदि. लेकिन यह सच्चाई से बहुत है. दुनिया तथ्यों को जानती-समझती है.इस बीच एक ब्लॉगर डोरोथी ने अपने एक कमेंट के द्वारा बताया था कि पूर्वी भारत की कोल जनजाति भी अपना उद्गम सिंधुघाटी सभ्यता को मानती है. इस बारे में मुझे एक लिंक मिला- ‘दि इंडियन इनसाइक्लोपीडिया’ जिसे इस कोली, कोरी और कोल भारत के मूलनिवासी हैं. आर्यों (ब्राह्मणों) से पहले वे इस भूमि पर बस चुके थे. जब मूलनिासी युद्ध में हार गए तब आगे चल कर उन्हें अलग-अलग नाम और व्यवसाय दिए गए. उन्हें अलग-अलग जाति कहा गया. उनसे शिक्षा का अधिकार छीन लिया गया. आज देश में लोकतंत्र होने के बावजूद ये अभी इतने अशिक्षित और इतने दबाव में रहे हैं कि अपनी सामाजिक और राजनीतिक एकता और सत्ता में भागीदारी के बारे में बड़ी सोच तक नहीं पहुँच पाए हैं.ख़ैर! मेघवाल, बुनकर, मेघ, भगत, जुलाहा, अंसारी, पंजाब के कबीरपंथी आदि समुदायों की भाँति कोली और कोरी भी पारंपरिक रूप से जुलाहे हैं. सरकारी नीतियों और औद्योगीकरण के कारण इनका वह पारंपरिक व्यवसाय तबाह हो चुका है और वे आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी एक बड़ी आबादी गरीबी और कुपोषण की शिकार है. इन्हें बहुत कम वेतन पर रोज़गार दिया जाता है. बेगार (Forced labor) के तौर पर कार्य करना इनके लिए कोई नई बात नहीं है. (कोल शब्द अफ़्रीकी मूल का माना जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि कोली शब्द कोल से ही बना है). ख़ैर, आप इस आलेख के अंश पढ़ना जारी रखें और इन विश्वसनीय तथा प्यारे कोली/कोरी लोगों के बारे में जाने.(विशेष नोट - इस आलेख में कुछ मिथकीय पात्रों के नाम है जैसे - वाल्मीकि, राम आदि जिनका अस्तित्व ऐतिहासिक दृष्टि से विवादित है. कुछ अन्य बातें भी हैं जिन्हें इतिहास की नई खोजों और पुरातत्व की कसौटी पर कसने की आवश्यकता है. इसके बावजूद यह आलेख पठनीय है.)




अशोक महान कोरी कबीले से थे

कोली 


“एक समय आता है जब हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूछता है, ‘मैं कौन हूँ? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे? उनकी बड़े कार्य क्या थे और उनके सुख-दुख क्या थे?’ ये और अन्य कई मूलभूत सवाल हैं जिनके बारे में हमें उत्तर पाना होता है ताकि हम अपने मूल को पहचान सकें.

भारत के मूलनिवासी कबीलों के बारे में अध्ययन करते हुए हमारे विद्वानों ने अति प्राचीन रिकार्ड और दस्तावेज़ – वेद, पुराण, विभिन्न भाषाओं के महाकाव्य, कई पुरातात्विक रिकार्ड और नोट्स और कई अन्य प्रकाशन देखे हैं.
इतिहास और एंथ्रपॉलॉजी के विद्यार्थियों ने प्रागैतिहासिक (Pre-historic) और भारत के स्थापित इतिहास में भारत के इस प्राचीन कबीले का चमकता अतीत पाया है और लगातार चल रही खोज में और भी बहुत कुछ मिल रहा है.
यह आलेख गुजराती में लिखे मुख्यतः तीन प्रकाशनों पर आधारित है.

 ‘भारत का एक प्राचीन कबीला – कोली कबीले का इतिहास’ –

 इस पुस्तक का संपादन श्री बचूभाई पीतांबर कंबेद ने किया था और भावनगर के श्री तालपोड़ा कोली समुदाय ने प्रकाशित किया था (पहला संस्करण 1961 और दूसरा संस्करण 1981), 1979 में ‘बॉम्बे समाचार’ में प्रकाशित श्री रामजी भाई संतोला का एक आलेख और डॉ. अर्जुन पटेल द्वारा 1989 में लिखा एक विस्तृत आलेख जो उन्होंने 1989 में हुए अंतर्राष्ट्रीय कोली सम्मेलन में प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया था.



भगवान वाल्मीकि और उनकी रामायण

प्राचीनतम राजा मन्धाता, एक सर्वोपरि और सार्वभौमिक राजा था जिसका प्रताप भारत में सर्वत्र था और जिसके शौर्य और यज्ञों की कथाएँ मोहंजो दाड़ो (मोहन जोदड़ो) के शिलालेखों पर अंकित हैं, वे इसी कबीले के थे. प्राचीनतम और पूज्य ऋषि वाल्मीकि जिन्होंने रामायण लिखी वे इसी कबीले से थे. महाराष्ट्र राज्य में आज भी रामायण को कोली वाल्मीकि रामायण कहा जाता है. रामायण की शिक्षाएँ भारतीय संस्कृति का आधार हैं.



ईश बुद्ध

भगवान बुद्ध की पत्नी कोली कबीले से थी. महान राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उसके कुल के राजा कोली कबीले के थे. संत कबीर, जो पेशे से जुलाहे थे, के कई भजनों में लिखा है- “कहत कबीर कोरी”, उन्होंने स्वयं को कोरी कहा है. सौराष्ट्र के भक्तराज भदूरदास और भक्तराज वलराम, जूनागढ़ के गिरनारी संत वेलनाथजी, भक्तराज जोबनपगी, संत श्री कोया भगत, संत धुधालीनाथ, मदन भगत, संत कंजीस्वामी जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के थे, ये सभी कोली कबीले के थे. उनके जीवन और ख्याति के बारे में 'मुंबई समाचार', 'नूतन गुजरात', 'परमार्थ' आदि में छपे आलेखों से जानकारी मिलती है.
महाराष्ट्र राज्य में शिवाजी के प्रधान सेनापति और कई अन्य सेनापति इसी कबीले के थे. ‘A History of the Marathas’ (मराठा इतिहास) मुख्यतः मवालियों और कोलियों से भरी शिवाजी की सेना का शौर्य गर्वपूर्वक कहता है. शिवाजी का सेनापति तानाजी राव मूलसरे जिसे शिवाजी हमेशा ‘मेरा शेर’ कहा करते थे, एक कोली था. जब तानाजी ‘कोडना गढ़’ को जीतने के लिए लड़ी लड़ाई में शहीद हुआ तो शिवाजी ने उसकी स्मृति में उस किले का नाम बदल कर ‘सिंहाढ़’ रख दिया.
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्रम में बहुत सी कोली महिला योद्धाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनमें एक उसकी बहुत करीबी साथी थी जिसका नाम झलकारी बाई था. इस प्रकार कोली समाज ने देश और दुनिया को महान बेटे और बेटियाँ दी हैं जिनकी शिक्षाओं का सार्वभौमिक महत्व और प्रासंगिकता आज आधुनिक जीवन में भी है.

हमारे प्राचीन राजा मन्धाता की कथा



ओंकारनाथेश्वर में मन्धाता मंदिर

कहा जाता है कि श्री राम का जन्म मन्धाता के बाद 25वीं पीढ़ी में हुआ था. एक अन्य राजा ईक्ष्वाकु सूर्यवंश के कोली राजाओं में हुए हैं अतः मन्धाता और श्रीराम ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से हैं. बाद में यह वंश नौ उप समूहों में बँट गया, और सभी अपना मूल क्षत्रिय जाति में बताते थे. इनके नाम हैं: मल्ला, जनक, विदेही, कोलिए, मोर्या, लिच्छवी, जनत्री, वाज्जी और शाक्य.
पुरातात्विक जानकारी को यदि साथ मिला कर देखें तो पता चलता है कि मन्धाता ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे और उसके उत्तराधिकारियों को ‘सूर्यवंशी कोली राजा’ के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि वे बहादुर, लब्ध प्रतिष्ठ और न्यायप्रिय शासक थे. बौध साहित्य में असंख्य संदर्भ हैं जिससे इसकी प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता. मन्धाता के उत्तराधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और हमारे प्राचीन वेद, महाकाव्य और अन्य अवशेष उनकी युद्धकला और राज्य प्रशासन में उनके महत्वपूर्ण योगदान का उल्लेख करते हैं. हमारी प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में उन्हें कुल्या, कुलिए, कोली सर्प, कोलिक, कौल आदि कहा गया है.

प्रारंभिक इतिहास – बुद्ध के बाद

वर्ष 566 ई.पू. के दौरान, जब हिंदू धर्म निर्दयी हो चुका था और पूर्णतः पतित हो चुका था, तब राजकुमार गौतम जिसे बाद में विश्व ने बुद्ध (the enlightened one) के रूप में जाना, का जन्म उत्तर-पश्चिमी भारत में हिमायलन घाटी में रोहिणी नदी के किनारे हुआ. ईश बुद्ध की माता महामाया एक कोली राजकुमारी थीं.
ईश बुद्ध की शिक्षा को ऊँची जाति के हिंदुओं के निहित स्वार्थ के लिए ख़तरे के तौर पर देखा गया. शीघ्र ही बुद्ध की शिक्षाओं को भारत से पूरी तरह बाहर कर दिया गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि कोली साम्राज्यों का बुद्ध से संबंध और प्रेम होने के कारण उन्हें सबसे अधिक अत्याचार सहना पड़ा. यद्पि अधिकतर लोगों ने बौध शिक्षा को नहीं अपनाया था लेकिन अन्य ने उन्हें दूर किया और शासकों ने भी उनकी उपेक्षा की.

ईश बुद्ध के 2000 वर्ष बाद


इस संघर्ष ने कोली साम्राज्यों को बहुत हानि पहुँचाई होगी. ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत ही क्लिष्ट हिंदू समाज में पदच्युति के बाद कभी बहुत शक्तिशाली रहा यह कबीला, जो बहुत परिश्रमी, कुशल, निष्ठावान्, आत्मनिर्भर साथ ही आसानी से भड़क कर युद्ध पर उतारू होने वाला था, अपनी केंद्रीय स्थिति खो बैठा. एक समाज जिसने अपनी देवी मुंबा देवी के नाम से मुंबई की स्थापना और निर्माण किया उसे आज राजनीतिक और शिक्षा की प्रभावी स्थिति में आना कठिन हो गया है. अब तो कई शताब्दियों से अन्य कबीलों ने इसे नीची नज़र से देखा और इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव इस समस्त क्षत्रिय समुदाय को तबाह करने वाला था.


वर्तमान




महाराष्ट्र के कोली मछुआरे

आज के भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कोली पाए जाते हैं और क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव के कारण उनके नाम तनिक परिवर्तित हो गए हैं. कुछ मुख्य समूह इस प्रकार हैं: कोली क्षत्रिय, कोली राजा, कोली राजपूत, कोली सूर्यवंशी, नागरकोली, गोंडाकोली, कोली महादेव, कोली पटोल, कोली ठाकोर, बवराया, थारकर्ड़ा, पथानवाडिया, मइन कोली, कोयेरी, मन्धाता पटेल आदि.
भारत के मूलनिवासी कबीले के तौर पर खुले कृषि भू-भागों और समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहने को पसंद करने वाला यह क्लैन्ज़मन है. आज के कोली कई कबीलाई अंतर्विवाहों से हैं. अनुमान लगाया गया है कि जनगणना में 1040 से भी अधिक उप-समूह हैं जिन्हें एक मुश्त रूप से कोली कहा जाता है. हिंदू होने के अतिरिक्त इन अधिकांश समूहों में सामान्य कुछ नहीं है, और कि ऊँची जाति के हिंदुओं यह स्वीकार करते हैं कि कोली स्पर्श से वे भ्रष्ट नहीं होते और शुद्ध वंश के कोली मुखियाओं की क्षत्रिय राजपूतों से अलग पहचान करना कठिन है जिनके साथ उनके नियमित अंतर्विवाह होते हैं.

गुजरात के कोली 


लेखक द्वय अंथोवन और डॉ. विल्सन मानते हैं कि गुजरात में मूलरूप से बसने वाले कोली और आदिवासी भील थे. रायबहादुर हाथीभाई देसाई पुष्टि करते हैं कि यह 600 वर्ष पूर्व शासक वनराज के समय में था. गुजराती जनसंख्या में बिल्कुल अलग जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले या तो वैदिक हैं या द्रविडियन हैं. इनमें नागर ब्रह्मण, भाटिया, भडेला, कोली, राबरी, मीणा, भंगी, डुबला, नैकडा, और मच्छी खारवा कबीले हैं. मूलतः पर्शिया से आए पारसी बहुत बाद में आए. शेष आबादी मूलनिवासी भीलों की है.




गुजरात के भील



डाँडी मार्च

जब बापू (एम.के. गाँधी) 9 जनवरी 1920 को दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उनके साथ वहाँ जो लोग थे वे भी लौट आए. बापू को हमारे लोगों के चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी थी. इसलिए जब 1930 के डाँडी मार्च के स्थान का निर्णय करने का समय आया तो डाँडी को चुना जाना अचानक नहीं हुआ क्योंकि उस समय कई विकल्प थे और अन्य स्वार्थी पक्षों का दबाव भी था. बापू किसी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करने में हमारे लोगों के साहस और गहरी समझ से संतुष्ट थे. और यह प्रमाणित भी हो गया.


निष्कर्ष

अपनी वर्तमान स्थिति के लिए हम उच्च जातिओं पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. इतिहास में यह होता आया है कि कभी शक्तिशाली रहे लोग पतन को प्रात हुए और पूरी तरह अदृश्य हो गए या अकिंचन बना दिए गए. इस संसार में जहाँ ‘योग्ययतम की जीत’ का नियम है वहाँ लोगों को महान प्रयास करने होते हैं और कुर्बानियाँ देनी होती हैं ताकि वे बुद्धिमान नेतृत्व में एक हों और फिर से इतिहास लिखना शुरू करें.
हमारे पास हज़ारों स्नातक और व्यवसायी हैं, उच्च योग्यता वाले डॉक्टर, डेंटिस्ट, वकील और कुशल टेक्नोक्रैट हैं जो भारत और अन्य देशों में रह रहे हैं. वे सभी अपनी कुशलता का प्रयोग पैसा बनाने और भौतिक पदार्थों और अन्य छोटे सुखों के लिए कर रहे प्रतीत होते हैं. भौतिक सुविधाएँ आवश्यक हैं परंतु हमारी प्राथमिकता अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा को बचाने की भी अवश्य होनी चाहिए.
हमारी वर्तमान पीढ़ी के संपन्न लोग स्वयं को अपने समाज के मशालची के तौर पर देखें और ऐसे सभी प्रयास करें कि आपसी संवाद स्थापित हो, एकता हो और अपने अतीत के गौरव को पुनः प्राप्त करने की ज़बरदस्त शक्ति बना जाए. अब यह हमारे लिए चुनौती है.

6.4.24

वाल्मीकि समाज की उत्पत्ति और इतिहास /history of Valmiki Samaj



इस समुदाय का नाम महर्षि वाल्मीकि के नाम पर पड़ा है। ये लोग स्वयं को संस्कृत में 'रामायण' और 'योग वशिष्ठ' जैसे ग्रंथों के रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के वंशज बताते हैं। यह महर्षि वाल्मीकि को अपना गुरु और ईश्वर का अवतार मानते हैं।
वाल्मीकि (Valmiki) भारत में पाया जाने वाला एक जाति या संप्रदाय है. वाल्मीकि शब्द का प्रयोग पूरे भारत में विभिन्न समुदायों द्वारा किया जाता है, जो खुद को रामायण के रचयिता भगवान वाल्मीकि के वंशज होने का दावा करते हैं. यह एक मार्शल जातीय समुदाय है, पारंपरिक रूप से इनका कार्य युद्ध करना रहा है. भारत के विभिन्न राज्यों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे-नायक, बोया, मेहतर, आदि. यह पूरे भारत में व्यापक रूप से पाए जाते हैं. उत्तरी भारत और दक्षिण भारत के राज्यों में पाए जाते हैं. उत्तरी भारत के राज्यों में इन्हें अनुसूचित जाति (Scheduled Caste, SC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.आइये जानते हैं वाल्मीकि समाज का इतिहास, वाल्मीकि जाति की उत्पति कैसे हुई?

वाल्मीकि समाज का इतिहास

उत्तर भारत में पाए जाने वाले इस समुदाय के लोग पारंपरिक रूप से सीवेज क्लीनर और स्वच्छता कर्मी के रूप में कार्य करते आए हैं. ऐतिहासिक रूप से इन्हें जातिगत भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. हालांकि, शिक्षा और रोजगार के आधुनिक अवसरों का लाभ उठाकर अब यह अपने परंपरागत कार्य को छोड़कर अन्य पेशा भी अपनाने लगे हैं. इससे इनकी समाजिक स्थिति में सुधार हुई है.

वाल्मीकि समाज की जनसंख्या


2001 की जनगणना के अनुसार, पंजाब में यह अनुसूचित जाति की आबादी का 11.2% थे‌ और दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में यह दूसरी सबसे अधिक आबादी वाली अनुसूचित जाति थी. 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश मेें अनुसूचित जाति की कुल आबादी 13,19,241 दर्ज की गई थी.

दक्षिण भारत के वाल्मीकि समाज

दक्षिण भारत में बोया या बेदार नायक समाज के लोग अपनी पहचान बताने के लिए वाल्मीकि शब्द का प्रयोग करते हैं. आंध्र प्रदेश में इन्हें बोया वाल्मीकि या वाल्मीकि के नाम से जाना जाता है.‌ बोया या बेदार नायक पारंपरिक रूप से एक शिकारी और मार्शल जाति है. आंध्र प्रदेश में यह मुख्य रूप से अनंतपुर, कुरनूल और कडप्पा जिलों में केंद्रित हैं. कर्नाटक में यह मुख्य रूप से बेलारी, रायचूर और चित्रदुर्ग जिलों में पाए जाते हैं. आंध्र प्रदेश में पहले इन्हें पिछड़ी जाति में शामिल किया गया था, लेकिन अब इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. तमिलनाडु में इन्हें सबसे पिछड़ी जाति (Most Backward Caste, MBC), जबकि कर्नाटक में अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है.

वाल्मीकि समाज किस धर्म को मानते हैं?

यह मुख्य रूप से हिंदू धर्म को मानते हैं. पंजाब में निवास करने वाले कुछ वाल्मीकि सिख धर्म के अनुयाई हैं

वाल्मीकि समाज की उत्पति

जाति इतिहासकार डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार इस समुदाय या संप्रदाय का नाम महर्षि वाल्मीकि के नाम पर पड़ा है.इस समुदाय या संप्रदाय के सदस्य संस्कृत रामायण और योग वशिष्ठ जैसे ग्रंथों के रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के वंशज होने का दावा करते हैं. यह महर्षि वाल्मीकि को अपना गुरु और ईश्वर का अवतार मानते हैं.

क्या ब्राह्मण और क्षात्रिय थे वाल्मीकि?

हिन्दू समाज में लगभग 6500 जातियाँ है। 12वी शताब्दी के पहले सफाई कर्म या चर्म कर्म का उल्लेख नही मिलता है। शुद्र और अनुसूचित जाति मे फर्क है, हिंदू जाति पहले भी चार वर्णों में बंटी हुई थी पर कोई जाति अछूत नही थी।
दलित वर्ग का उदय विदेशी आक्रांता तुर्क, मुस्लिम , और मुगलकाल मे हुई । कुछ काम एसा है कि कोई नही करना चाहेगा और सिर पर मैला ढोना, ये तो बिल्कुल भी कोई नही चाहेगा। यह काम जबरदस्ती कराया हुआ लगता है। अब सवाल है कि जबरदस्ती किसने कराया कुछ सेकुलर लोग तर्क देते हैं कि यह ब्राह्मणों ने कराया।
हमारे भारत में घर में शौचालय होने का कभी कोई concept ही नही था। ब्राह्मण तो खासकर इसे अत्यंत ही अपवित्र समझते थे। आज भी बहुत से ब्राह्मण घर में शौचालय होने के सख्त विरोधी है। घर में शौचालय होने का प्रचलन मुस्लिम आगमन के बाद हुआ। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत को जी भर के लूटा मुगल तो यहीं बस गए । लाखों का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराया गया जिन लोगों ने नहीं माना उन्हें मार डाला गया या असहनीय यातनाएं दी गई. सबसे ज्यादा मार क्षत्रियों और ब्राह्मणों को झेलना पड़ा उन्हें हिंदू धर्म छोड़ने के लिए विवश किया गया. नहीं करने पर जबरदस्ती उन्हें ऐसे कामों के लिए विवश किया गया जो बिल्कुल ही करने योग्य नहीं था. इन्हीं में से एक था सिर पर मैला ढोना गंदगी की सफाई करना. मुस्लिमों ने जबरदस्ती क्षत्रियों ब्राह्मणों को इसके लिए मजबूर किया. उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा बल्कि इस अपवित्र काम करने के लिए राजी हो गए. इससे यह कह सकते हैं कि अपने धर्म के लिए उन्होंने बहुत बड़ी कुर्बानी दिया. इस समाज को प्रखर देशभक्ति धर्मपरायणता, हिंदू समाज रक्षक की भूमिका एवं त्याग बलिदान के लिए उचित स्थान मिलना चाहिए. उत्तर भारत में वाल्मीकि, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में सुदर्शन और मखियार गुजरात में रूखी पंजाब में मजहबी सिक्ख के नाम से जाने वाल्मकी समाज के बारे में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने लिखा है वर्तमान शूद्र और वैदिक काल में शूद्र दोनों अलग-अलग है. यह सारी जानकारी डॉक्टर विजय सोनकर शास्त्री के किताब हिंदू वाल्मीकि जातिसे ली गई है. घरों में शौचालय का निर्माण उस समय शुरू हुआ जब हजारों की संख्या में बनाई गई बेगमें घर से बाहर जाने पर अपने यौन सुख के लिए सुरक्षाकर्मियों से संपर्क करने लग गए. शुरुआत में शौचालय का सफाई नौकरों से कराया गया बाद में युद्ध बंदी हिंदू ब्राह्मणों और क्षत्रियों से कराया गया. वर्तमान वाल्मीकि जाति में ब्राह्मण के अनेक. गोत्र पाए जाते हैं. शरीर से हष्ट पुष्ट वाल्मीकि समाज के लोग एक कुशल योद्धा जाति है. धीरे -धीरे वाल्मीकि समाज शिक्षा से वंचित रह गए क्योंकि उन्हे अछूत समझा जाने लगा था। ये लोग अलग बस्ती में रहने लगे और हजारों वर्ष के अंदर दलित बन गए.

रामायण लिखने वाला वाल्मीकि कौन था?

वाल्मीकि, संस्कृत रामायण के प्रसिद्ध रचयिता हैं जो आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने संस्कृत मे रामायण की रचना की। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्री राम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य व कर्तव्य से, परिचित करवाता है
वाल्मीकि समाज मैं हांडाला गोत्र की कुलदेवी बलीकालका माता दिल्ली में जिन का स्थान गांव दिचाऊ कलां नजफगढ़ नई दिमहर्षि वाल्मीकि का जन्म भृगु गोत्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वाल्मीकि प्रचेता (जिसे सुमाली के नाम से भी जाना जाता है) नामक ब्राह्मण के दसवें पुत्र थे। उनके माता-पिता ने रत्नाकर नाम दिया था।

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27.3.24

गोस्वामी समाज की उत्पत्ति और जानकारी ,Goswami community history




गोस्वामी समाज केवल एक जाति नही बल्कि एक सम्प्रदाय है एक ऐसा पंथ जो सदैव से ही भगवान महादेव की आराधना को अपना प्रथम कर्तव्य मानते हुए सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करता है।
अनादिकाल से शैव ब्रह्मणों का ये सम्प्रदाय पठन पाठन, योग व अनेकों प्रकार के शोध के कार्य मे व्यस्त रहता था। कुछ जानकारों के अनुसार इस पंथ का उदय आदिगुरू शंकराचार्य जी के समय हुआ था। जबकि अगर गहनता से अध्यन करें तो पता चलता है ये पंथ अनादिकाल से भगवान महादेव की सेवा मे गणों के रूप मे विधमान है।
समय समय पर स्वंय भगवान महादेव ने इस पंथ की पद भ्रष्ट होने व अपने कर्तव्य से विमुखता को रोकने के लिए गुरु दत्तात्रेय, आदि गुरु शंकराचार्य के रूप मे अवतार लिया। व शैव ब्रह्मणों को धर्म रक्षा के लिए प्रेरित किया। धर्मरक्षक सन्यासियों का ये सम्प्रदाय दो भाग मे विभाजित हो गया. गृहस्ती और सन्यासी जो साधु गृहस्त जीवन मे आ गए वह गृहस्थ जीवन मे भी अपनी परम्परा अपने उपनामों से जुड़े रहे।
ऐसा नही है की सभी गोस्वामी शैव है वैष्णव सम्प्रदाय मे भी गोस्वामी होते है
आज हम केवल शैव ब्रह्मणों व दशनामी गोस्वामी पर चर्चा कर रहे है जिनको प्रमुख दश नामों से जाना जाता है जिनमें गिरी,पुरी,भारती,सरस्वती,सागर, अरण्य,तीर्थ,वन,आश्रम, व पर्वत हैं।
गोस्वामी समाज पंच देव उपासक एवं शिव को इष्ट मानने वाले ब्राह्मणों का समाज है आदि गुरु शंकराचार्य जी जो आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व यानी ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व अवतरित हुए थे उन्होंने बौद्ध धर्म मे धर्मांतरण कर रहे सनातनी लोगों को बचाने के लिए विद्वान ब्राह्मणों को साथ लेकर स्मार्त मत तथा अद्वैत वेदांत का प्रचार किया और बौद्ध मत को भारत से उखाड़ फेका और सनातन हिंदू धर्म का पुनरुद्धार किया।
जो ब्राह्मण भगवान आदि शंकराचार्य जी के द्वारा सन्यास लेकर परंपरा मे आए उनसे गुरु शिष्य सन्यास परंपरा चली जिसे नाद परंपरा कहा गया तथा जो ब्राह्मण ग्रहस्थ रहते हुए मत का प्रचार कर रहे थे उनसे गोस्वामी ब्राह्मण या दशनामी ब्राह्मण परंपरा चली इसे बिंदु परंपरा कहा गया, यही गृहस्थ ब्राह्मण गोस्वामी ब्राह्मण समाज के नाम से जानी जाती है।
इसमें कुल दश तरह के उपनाम होते है जिनमे गिरि, पुरी, भारती, पर्वत,सरस्वती,सागर, वन, अरण्य, आश्रम एवं तीर्थ शामिल है गोस्वामी शीर्षक का मतलब गौ अर्थात पांचो इन्द्रयाँ स्वामी अर्थात नियंत्रण रखने वाला। इस प्रकार गोस्वामी का अर्थ पांचो इन्द्रयों को वस में रखने वाला होता हैं।
यह समाज सम्पूर्ण भारत समेत नेपाल पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में फैला है सर्वाधिक गोस्वामी ब्राह्मण समाज के लोग राजस्थान,मध्यप्रदेश,गुजरात,उत्तराखंड,उड़ीसा,पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश बिहार एवं नेपाल और बांग्लादेश में रहते है ।
आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व आदि गुरु शंकराचार्य ने धर्म की हानि रोकने के लिए इस सम्प्रदाय को 10 भागों में विभाजित कर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मरक्षार्थ हेतु भेज दिया। जिन संन्यासियों ने पहाड़ियों एवं पर्वतीय क्षेत्रों में प्रस्थान किया, वे गिरी एवं पर्वत और जिन्हें जंगली इलाकों में भेजा, उन्हें वन एवं अरण्य नाम दिया गया। जो संन्यासी सरस्वती नदी के किनारे धर्म प्रचार कर रहे थे, वे सरस्वती और जो जगन्नाथपुरी के क्षेत्र में प्रचार कर रहे थे, वे पुरी कहलाए। जो समुद्री तटों पर गए, वे सागर और जो तीर्थस्थल पर प्रचार कर रहे थे, वे तीर्थ कहलाए। जिन्हें मठ व आश्रम सौंपे गए, वे आश्रम और जो धार्मिक नगरी भारती में प्रचार कर रहे थे, वे भारती कहलाए।
इन सन्यासियों ने तपस्या के बल से अपनी पांचों इन्द्रियों को वश में कर लिया था इसलिए इन्हें गोस्वामी कहा गया। गो का एक अर्थ इन्द्रियां होता है और स्वामी का अर्थ उनको वश में करने वाला होता है। गोस्वामी अर्थातः पांचों इन्द्रियों को वश में रखने वाला।
इन साधुओं को भिन्न उपाधियां दी जाती हैं। इसमें महामंडलेश्वर, श्रीमहंत, महंत, एवं आचार्य आदि होते है। नागा साधु भी इस ही परम्परा मे आते है नागाओं को शंकराचार्य की सेना भी कहा जाता है नागा साधु को शस्त्र चलाने मे पारंगत हासिल है वे दिगम्बर होते है। नागाओं को समझने के लिए पहले गोस्वामी संप्रदाय को समझना बहुत जरूरी है।ये शिव को इष्ट मानकर शिव के साथ अन्य चार देव यानी कुल पांच देवों के उपासक होते है। ये तीन काल संध्या एवं शिव का पूजन करते है अतः ये स्मार्त ब्राह्मण माने जाते है।यह लोग स्मार्त यानी पंच देव उपासक होते हैं । इनके मुख्य कार्य शिवकथा, भागवतकथा, देवीभागवत आदि होते हैं। भारत नेपाल बांग्लादेश मे सैकड़ों पौराणिक मंदिर समेत हजारों बड़े बड़े प्रसिद्ध मंदिरों के महंत पुजारी गोस्वामी ब्राह्मण हैं और सिर्फ भारत ही नहीं इस्लामिक देश पाकिस्तान के प्रसिद्ध एवं पौराणिक मंदिरों मे भी गोस्वामी ब्राह्मण ही महंत हैं जिनमे बलूचिस्तान का हिंगलाज शक्तिपीठ एवं सिंध के चार मंदिर शामिल हैं.
दशनामी गोस्वामी पंथ विज्ञान के आधार पर धर्म का प्रचार प्रसार करते है। शैव व वैष्णव सम्प्रदाय के महान संतों ने आयुर्वेद, योग, ज्योतिष आदि विषय पर शोध कर जनमानस को लाभांवित कराया। दशनामी पंथ मठों व आश्रमों की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के कार्य मे निपुण है। वर्तमान मे इनका प्रमुख कार्य शिव मंदिरों मे पूजा करना, धर्म उपदेश देना व धर्म का प्रचार प्रसार करना होता है
दशनामी सम्प्रदाय मे कुल 52 गोत्रों होते है। जिन्हे मढ़ी भी कहा जाता है गिरियों की कुल 27 मढ़ी, पुरियों की कुल 16, भारतीयों की कुल 4 मढ़ी, वनों की कुल 4 मढ़ी, व लामा गुरु की 1 मढ़ी है।
गिरि :1.ऋद्धिनाथी, 2.संजानाथी,
3.दुर्गानाथी, 4.ब्रह्मांडनाथी, 5.बैकुंठनाथी, 6.ब्रह्मनाथी, 7. रामदत्ती, 8. श्रृयभृंगनाथी, 9.ज्ञाननाथी,10.माननाथी,11. बलभद्रनाथी,
12. अपारनाथी, 13. पाटम्बरनाथी, 14.सागरबोदला, 15. ओंकारी, 16.सिंह श्याम यति, 17.चंदननाथी, 18.नागेंद्रनाथी, 19.सहजनाथी, 20.मोहननाथी,21.बालेंद्रनाथी, 22. रुद्रनाथी, 23.कुमुस्थनाथी, 24.परमानंदी, 25.सागरनाथी, 26.बाघनाथी, 27. रतननाथी,
वन: 1.श्याम सुंदर वन, 2. गंगा वन व बलभद्र वन, 3 गोपाल वन व शंखधारी वन, 4. भगवंत वन व रामचंद्र वन,
लामा: 1 वेदगिरि लामा मढ़ी।
पुरी:1.केवल पुरी, 2.अचिंत्य पुरी, 3.मथुरा पुरी, 4.माधव पुरी, 5.हृषिकेश पुरी, 6.जगदेव पुरी, 7.रामचंद्र पुरी, 8.व्यंकट पुरी,
9.श्याम सुंदर पुरी,10.जड़भरत पुरी, 11.गंगा दर्याव पुरी,12.सिंह दर्याव पुरी,13. भगवान पुरी,14.भगवंत पुरी,15. सहज पुरी,16.मेघनाथ पुरी।
भारती:1.नृसिंह भारती, 2.मनमुकुंद भारती, 3.विश्वम्भर भारती, 4.मनमहेश भारती।
इस सम्प्रदाय के लोग एक दूसरे का सम्बोधन "ओम नमो नारायण" व "हर हर महादेव" से करते है।सनातन धर्म में इनकी "गुरुजी" महराज जी के रूप में प्रसिद्धि हैं। वेद पुराण में इनको गोSशर्यु, वैदिक ब्राह्मण, तपोधन ब्राह्मण, शिरोजन्मा ब्राह्मण, शिरज ब्राह्मण आदि नाम से जाना जाता है।
गोस्वामी ब्राह्मण प्रायः गेरुआ (भगवा रंग)वस्त्र पहनते और गले में 108 रुद्राक्षों की माला पहनते हैं तथा ललाट पर चंदन या राख से त्रिपुंड धारण करते हैं, ये लोग शिखा एवं जनेऊ धारण करते हैं, दशनाम गोस्वामी ब्राह्मणों से लोग 'ॐ नमो नारायण' बोलकर अभिवादन करते है।
इनके अलाबा गोस्वामी उपाधि अनेक ब्रह्मण भी धारण करते हैं जिनमे तैलंग ब्राह्मण और वैष्णव प्रमुख हैं।

25.3.24

श्री राधा कृष्णा मंदिर गुराडिया कलां /दामोदर हॉस्पिटल शामगढ़ द्वारा बेंच व्यवस्था/ झालावाड जिले के हिन्दू मंदिर

  श्री राधा कृष्णा  मंदिर गुराडिया कलां  हेतु 

दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़  द्वारा 

सीमेंट की बेंचें भेंट 

गुराडिया कलां के राधा कृष्णा  मंदिर का विडियो 



मंदसौर,झालावाड़ ,आगर,नीमच,रतलाम,झाबुआ जिलों के

मन्दिरों,गौशालाओं ,मुक्ति धाम हेतु


साहित्य मनीषी


डॉ.दयाराम जी आलोक




शामगढ़ का

अभिनव  दान-अनुष्ठान


साथियों,

शामगढ़ नगर अपने दानशील व्यक्तियों के लिए जाना जाता रहा है| शिव हनुमान मंदिर,मुक्तिधाम ,गायत्री शक्तिपीठ आदि संस्थानों के जीर्णोद्धार और कायाकल्प के लिए यहाँ के नागरिकों ने मुक्तहस्त दान समर्पित किया है|
परमात्मा की असीम अनुकंपा और कुलदेवी माँ नागणेचिया के आशीर्वाद और प्रेरणा से डॉ.दयारामजी आलोक द्वारा आगर,मंदसौर,झालावाड़ ,कोटा ,झाबुआ जिलों के चयनित मंदिरों और मुक्तिधाम में निर्माण/विकास / बैठने हेतु सीमेंट बेंचें/ दान देने का अनुष्ठान प्रारम्भ किया है|
मैं एक सेवानिवृत्त अध्यापक हूँ और अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने का संकल्प लिया है| इसमे वो राशि भी शामिल रहेगी जो मुझे google कंपनी से नियमित प्राप्त होती रहती है| खुलासा कर दूँ कि मेरी ६  वेबसाईट हैं और google उन पर विज्ञापन प्रकाशित करता है| विज्ञापन से होने वाली आय का 68% मुझे मिलता है| यह दान राशि और सीमेंट बेंचें पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं|


     My You Tube Channel address :


राधाकृष्णा मंदिर में दामोदर हॉस्पिटल की बेंच लगीं विडियो 



राधा कृष्ण मंदिर के शुभचिंतक 

श्यामदास जी बैरागी  गुराडीया कलां (पुजारी)

गोविन्द जी बैरागी ७७२६९-२१६५४ 

शंकर सिंग जी सोलंकी  सालारिया  ९८२८९-१२४१३

दान पट्टी  फिट करने वाले  मिस्त्री विष्णु जी विश्वकर्मा  

27.2.24

गायत्री शक्ति पीठ सुवासरा //मंदसौर जिले के देवालय //डॉ.आलोक जी का ११ हजार का दान

गायत्री शक्ति पीठ सुवासरा  को

समाज सेवी डॉ.दयाराम आलोक  द्वारा 

११ हजार रूपये का नकद दान 

गायत्री शक्ति पीठ सुवासरा का विडियो डॉ.आलोक की आवाज 


गायत्री शक्ति पीठ सुवासरा में दान पट्टी लगी


मंदसौर,झालावाड़ ,आगर,नीमच,रतलाम,झाबुआ जिलों के

मन्दिरों,गौशालाओं ,मुक्ति धाम हेतु


साहित्य मनीषी


डॉ.दयाराम जी आलोक




शामगढ़ का

अभिनव  दान-अनुष्ठान


साथियों,

शामगढ़ नगर अपने दानशील व्यक्तियों के लिए जाना जाता रहा है| शिव हनुमान मंदिर,मुक्तिधाम ,गायत्री शक्तिपीठ आदि संस्थानों के जीर्णोद्धार और कायाकल्प के लिए यहाँ के नागरिकों ने मुक्तहस्त दान समर्पित किया है|
परमात्मा की असीम अनुकंपा और कुलदेवी माँ नागणेचिया के आशीर्वाद और प्रेरणा से डॉ.दयारामजी आलोक द्वारा आगर,मंदसौर,झालावाड़ ,कोटा ,झाबुआ जिलों के चयनित मंदिरों और मुक्तिधाम में निर्माण/विकास / बैठने हेतु सीमेंट बेंचें/ दान देने का अनुष्ठान प्रारम्भ किया है|
मैं एक सेवानिवृत्त अध्यापक हूँ और अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने का संकल्प लिया है| इसमे वो राशि भी शामिल रहेगी जो मुझे google कंपनी से नियमित प्राप्त होती रहती है| खुलासा कर दूँ कि मेरी ६  वेबसाईट हैं और google उन पर विज्ञापन प्रकाशित करता है| विज्ञापन से होने वाली आय का 68% मुझे मिलता है| यह दान राशि और सीमेंट बेंचें पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं|


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गायत्री शक्ति पीठ सुवासरा  हेतु 
11 हजार नकद  दान 

 गायत्री शक्ति पीठ  सुवासरा के शुभ चिन्तक 

अर्जुनलाल जी चौहान- 89894-11420 का सुझाव 

लक्ष्मी नारायण जी टेलर ९४०६६-५७६१५ का सहयोग 

समिति के अध्यक्ष गैंदालाल जी टेलर हैं

गायत्री ट्रस्ट के वर्तमान पदाधिकारी निम्न हैं-

मुख्य ट्रस्टी सुनील जी मान्दलिया हैं,संयोजक लक्ष्मी नारायण जी परमार टेलर हैं. गेंदमल टेलर ट्रस्टी हैं. कोषाध्यक्ष राजेंद्र जी चौधरी हैं .


डॉ.अनिल कुमार दामोदर आत्मज  डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852 ,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656 द्वारा सुवासरा गायत्री मंदिर हेतु दान सम्पन्न सन २०२२