30.3.25

चमार जाति का पराक्रमी इतिहास :मेघवाल ,मेघवंश ,जाटव का अंतर :गोत्र की जानकारी

               

                          चमार जाति का इतिहास


    मित्रों ,भारत मे जाति व्यवस्था वैदिक काल से ही अस्तित्व मे है | जाति इतिहास के विडिओ की शृंखला मे आज" चमार ,मेघवाल,मेघवंश,जाटव जाति के इतिहास  और गोत्र " विषय   पर चर्चा करेंगे 
  चमार जाति का इतिहास एक जटिल और विविध विषय है, जो भारत के सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक इतिहास से जुड़ा है। चमार शब्द का प्रयोग आमतौर पर दलित समुदाय के लिए किया जाता है, और ऐतिहासिक रूप से उन्हें चमड़े के काम से जोड़ा गया है। हालांकि, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चमारों का पारंपरिक व्यवसाय "चमड़ा"से जुड़ा होना एक आधुनिक अवधारणा है और वे ऐतिहासिक रूप से कृषक थे।
चमार जाति के इतिहास को समझने के लिए, निम्नलिखित पहलुओं पर विचार करना महत्वपूर्ण है:
चमार समुदाय का गौरवशाली इतिहास रहा है, जिसमें वीरता, धार्मिकता और सामाजिक योगदान शामिल हैं। चमार समुदाय के लोग, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से दलितों में गिना जाता था, ने वीरता और बहादुरी के कई कार्य किए हैं, जैसे कि चमार रेजिमेंट का गठन और द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़ाई|

उत्पत्ति और नामकरण:

चमार शब्द संस्कृत शब्द "चर्मकार" से लिया गया है, जिसका अर्थ है "चमड़ा" कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह शब्द मध्यकाल में अस्तित्व में आया, जबकि कुछ का मानना है कि यह प्राचीन काल से चला आ रहा है।

पारंपरिक व्यवसाय:

चमारों का पारंपरिक व्यवसाय चमड़े का काम, जैसे कि चमड़ा और जूते बनाना, रहा है। हालांकि, आधुनिक समय में, चमार समुदाय के कई लोग विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए हैं, जिनमें कृषि, मजदूरी, और सरकारी नौकरियां शामिल हैं।

सामाजिक स्थिति:

ऐतिहासिक रूप से, चमारों को भारतीय समाज में "अछूत" माना जाता था और उन्हें कई सामाजिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था। उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर जाने, शिक्षा प्राप्त करने, और उच्च जाति के लोगों के साथ सामाजिक संपर्क स्थापित करने से वंचित रखा जाता था।

आधुनिक परिवर्तन:




20वीं सदी में, डॉ. बी.आर. अंबेडकर के नेतृत्व में चमार समुदाय ने सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष किया। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप, चमारों को अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता दी गई और उन्हें शिक्षा, रोजगार, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में कुछ अधिकार प्राप्त हुए।

सांस्कृतिक प्रभाव:

चमार समुदाय का भारतीय संस्कृति और कला पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। संत रविदास, एक प्रसिद्ध 16वीं सदी के कवि-संत, चमार समुदाय से थे और उन्होंने सामाजिक समानता और भक्ति के विचारों को बढ़ावा दिया।
आज, चमार समुदाय भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक शक्ति है। वे शिक्षा, रोजगार, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और वे भारतीय समाज में समानता और न्याय के लिए एक महत्वपूर्ण आवाज बने हुए हैं।

महान संत रविदास /रैदास 
  


चमार जाति के गोत्र 

  चमार जाति में कई गोत्र पाए जाते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं: जाटव, अहिरवार, रैदास, कुरील, धुसिया, दोहरे, भारती, सागर, कर्दम, आनंद, चंद्र रामदसिया, और रविदासिया. इसके अलावा, चमार जाति में कुछ अन्य गोत्र भी पाए जाते हैं जैसे कि बैन्स, बस्सन, कलसी, अंगुराल, घई, और थापा. कुछ चमार समुदाय के लोग अपने गोत्र को उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं.

चमार की कुल देवी कौन है -



माता परमेश्वरी चमार जाति की कुल देवी हैं। इनका दूसरा नाम देवी चमरिया हैं।

चमार जाति मे उपजातियाँ -

चमार जाति में 150 से अधिक उपजातियाँ हैं. ये उपजातियाँ विभिन्न क्षेत्रों और व्यवसायों के आधार पर विभाजित हैं, लेकिन सभी चमार समुदाय का हिस्सा मानी जाती हैं.

कुछ प्रमुख चमार उपजातियाँ हैं:
अहिरवार:
यह उपजाति उत्तर भारत में पाई जाती है और इसे सूर्यवंशी या जाटव के नाम से भी जाना जाता है.

जाटव:
यह भी उत्तर भारत में पाई जाने वाली एक प्रमुख उपजाति है.

रेगर:
यह उपजाति राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों में पाई जाती है.

बैरागी:
यह उपजाति भी राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों में पाई जाती है.

धुसिया:
यह उपजाति उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में पाई जाती है.

मेघवाल:
यह उपजाति राजस्थान में पाई जाती है और कुछ लोग इसे चमार जाति का हिस्सा मानते हैं.

जाटव जाति के गोत्र



जाटव जाति में कई गोत्र पाए जाते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं: भारद्वाज, गौतम, कश्यप, मिश्रा, वशिष्ठ, शांडिल्य, और अत्रि. ये गोत्र जाटवों की सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं और विवाह जैसे सामाजिक अनुष्ठानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं

मेघवंशी और चमार मे अंतर -

मेघवंशी और चमार, दोनों ही भारत में पाई जाने वाली जातियाँ हैं, लेकिन दोनों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर हैं। मेघवंशी, जिन्हें मेघवाल भी कहा जाता है, पारंपरिक रूप से बुनकर और किसान रहे हैं, जबकि चमार मुख्य रूप से चमड़े के काम से जुड़े रहे हैं।




मेघवंशी की जानकारी :
उत्पत्ति:
मेघवंशी समुदाय को मेघ ऋषि का वंशज माना जाता है और वे बादल और वर्षा के उपासक हैं।

पारंपरिक व्यवसाय:
इनका पारंपरिक व्यवसाय बुनाई और खेती रहा है।

सामाजिक स्थिति:

मेघवाल समुदाय को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है और वे सामाजिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक संगठित हैं।

उपजातियां:
मेघवाल समुदाय में कई उपजातियां हैं, जैसे जाटव, बैरवा, जटिया, मारू, आदि।
मेघवाल और मेघवंशी में अंतर-

मेघवाल और मेघवंश दोनों शब्द एक ही समुदाय को दर्शाते हैं, लेकिन 'मेघवाल' एक जाति या समुदाय का नाम है, जबकि 'मेघवंश' उस समुदाय के वंश या कुल को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में, मेघवाल एक जाति है, और मेघवंश उस जाति का वंश है।





मेघवाल जाति के गोत्र -

मेघवाल जाति में कई गोत्र पाए जाते हैं। कुछ प्रमुख गोत्रों में आठोड़िया, आयच, आसोपिया, आडान्या, अर्टवाल, ओलावट, आंढ़ोद, आशरम, चौहान, राठौर, परिहार, परमार, सोलंकी, ब्रेजवाल, बुनकर मरीचि, अत्री, अगस्त, भारद्वाज, मतंग, धनेश्वर, महाचंद, जोगचंद, जोगपाल, मेघपाल, गर्वा और जयपाल शामिल हैं

चमार और जाटव मे अंतर -

चमार और जाटव दोनों ही भारत में दलित समुदाय से संबंधित जातियाँ हैं, लेकिन जाटव को चमार जाति की एक उपजाति माना जाता है। चमार एक व्यापक शब्द है जो कई उपजातियों को समाहित करता है, जिनमें से एक जाटव भी है




मेघवाल और चमार  मे अंतर -

मेघवालों का सामाजिक स्तर चमारों और भंगियों से ऊँचा माना जाता है । यह सामाजिक पदानुक्रम इनकी  कहानियों में भी प्रतिबिंबित होता है। मेघवालों के संदर्भ में, अधिकांश लोगों का मानना ​​है कि अस्पृश्यता और निचली जाति का दर्जा उनके व्यवसाय और उनकी खान-पान की आदतों से आया है।

Disclaimer: इस content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे


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शिव तांडव स्तोत्र




शिव तांडव स्तोत्र 



शिव तांडव स्तोत्र


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥


जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥

धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥


जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥5॥


ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥6॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥


नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥8॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥9॥


अगर्व सर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥11॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रव्रितिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम ॥12॥

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥13॥


निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः ॥14॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥15॥


इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥16॥

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

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29.3.25

बीते समय मे केमिकल इंजिनीयर रहे लोनिया समाज का गौरवशाली इतिहास | History of Noniya samaj


 




   नून का व्यापार करने वाले नोनिया, पहले के जमाने के कैमिकल इंजीनियर थे जो नमक, शोरा, तेजाब गंधक आदि बनाने के काम में माहिर थे। लोनिया संस्कृत शब्द ‘लवण’ से आया हैl लवण से लोन /नोन/नून हुआ और लोन से लोनिया , नून से नोनिया हो गया। लवण को हिन्दी में नमक कहते हैं।
 जाति इतिहासकार डॉ. दयाराम आलोक के मुताबिक नोनिया जाति नमक, खाड़ी और शोरा के खोजकर्ता और निर्माता जाति है जो किसी काल खंड में नमक बना कर देश ही नहीं दुनिया को अपना नमक खिलाने का काम करती थी। तोप और बंदूक के आविष्कार के शुरूआती दिनों में इनके द्वारा बनाये जानेवाले एक विस्फोटक पदार्थ शोरा के बल पर ही दुनियां में शासन करना संभव था। पहले भारतवर्ष में नमक, खाड़ी और शोरा के कुटिर उद्योग पर नोनिया समाज का ही एकाधिकार था, क्योंकि इसको बनाने की विधि इन्हें ही पता था। रेह (नमकीन मिट्टी) से यह तीनों पदार्थ कैसे बनेगा यह नोनिया लोगों को ही पता था। इसलिए प्राचीन काल में नमक बनाने वाली नोनिया जाति इस देश की आर्थिक तौर पर सबसे सम्पन्न जाति हुआ करती थी।
  देश 1947 में क्रूर अंग्रेजी शासन से मुक्त हुआ। यह आजादी कई आंदोलनों और कुर्बानियों के बाद मिला था। अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह करने की शुरुआत नोनिया समाज को जाता है जिसे इतिहास ने अनदेखा कर दिया है। यह विद्रोह 1700-1800 ईस्वी के बीच अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हुआ था। बिहार के हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया शोरा उत्पादन का प्रमुख केन्द्र था। शोरे के इकट्‍ठे करने एवं तैयार करने का काम नोनिया करते थे। अंग्रेजों का नमक और शोरा पर एकाधिकार होते ही अब नमक और शोरा बनाने वाली जाति नोनिया का शोषण प्रारम्भ हो गया। जो शोरा नोनिया लोग पहले डच, पुर्तगाली और फ्रांसीसी व्यापारीयों को अपनी इच्छा से अच्छी कीमतो पर बेचा किया करते थे उसे अब अंग्रेजों ने अपने शासन और सत्ता के बल पर जबरदस्ती औने पौने दामों में खरीदना/लुटना शुरू कर दिया। नोनिया जाति के लोग अंग्रेजों के शोषण पूर्ण व्यवहार से बहुत दुखी और तंग थे।
  अंग्रेज सरकारने नमक बनाने के 5 लाख परवाने रद कर दिए थे । नोनिया चौहान समुदाय ने इसका कडा विरोध किया  लेकिन अंग्रेज  शासन  ने न्याय नहीं किया  फलस्वरूप  नोनिया  समाज  के लोग दाने दाने को मोहताज हो गए।मजबूरन दूसरे जमीदारो,बडे किसानो और ठेकेदारों के यहाँ मजदूरी करने को बाध्य होना पडा। कडी धूप मे मजदूरी एवम पोषक आहार की कमी के कारण  यह क्षत्रिय  नोनिया चौहान  समुदाय कमजोर और श्यामवर्ण होता गया।

जनकधारी सिंह नोनिया समुदाय के महापुरुष :

बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बिहार के नोनिया समाज के भीष्म पितामह एवं अन्य पिछड़ी जातियों के अग्रदूत स्वर्गीय जनकधारी सिंह का जन्म 14 जनवरी 1914 में बिहार प्रांत के पटना जिले के दनियावा गांव के एक सम्पन्न नोनिया परिवार में हुआ था । स्कूली शिक्षा के बाद जब वे थोड़ा होशियार हुए तो उस समय देश की आजादी के लिए संघर्ष करने का दौर चल रहा था, जिससे ये अछुते नहीं रहे बल्कि अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की लड़ाई में भी सक्रिय भूमिका निभाई।
  बिना अंजाम को जाने मुकुटधारी प्रसाद चौहान ने अंग्रेजों के खिलाफ हल्ला बोल दिया वही बुद्धू नोनिया जिन्होंने सुखधारी सिंह चौहान के नेतृत्व में अंग्रेजो के खिलाफ जंग छेड़ी| पुरे सूबे के अवाम को एकजुट कर लड़ने को प्रोत्साहित किया तब अंग्रेजों ने कैद कर कई जुल्म ढाहे और अधीनता स्वीकार करने को कहा| तरह तरह के प्रलोभन दिए पर उनके इरादों और देश भक्ति को हिला नहीं सके और तेल से खौल खौलते तेल में उन्हें डाल दिया और वो वीर गति को प्राप्त हो गए| ऐस ही कई वीर सपूत हैं जो इतिहास के पन्नो में खो गए और हम उनके बलिदान को भी भुला गए|
  इस जाति के लोगों के उपनाम आमतौर पर देश के किस हिस्से से हैं, इस पर निर्भर करते हैं। वे 'चौहान', 'प्रसाद', 'मेहतो', 'नूनिया', 'सिंह चौहान', 'जमेदार', 'लोनिया', 'बेलदार'  सरनेम का इस्तेमाल करते हैं। अगर महिलाएं अपने पति का उपनाम इस्तेमाल नहीं करती हैं, तो वे आमतौर पर अपने उपनाम में 'देवी' लगाती हैं।
नोनिया समाज के लोग उत्तर प्रदेश और बिहार के आस-पास के इलाकों में रहते हैं.
राज्य सरकारों ने नोनिया समाज को मल्लाह, बिंद, और बेलदार समुदायों के साथ अत्यंत पिछड़ा वर्ग में शामिल किया है.
नोनिया  मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से मे बसते हैं और इस जाति का एक बड़ा वर्ग  ब्रिटिश राज काल में तीन पीढ़ियों से "चौहान राजपूत" बन गया था।
  कहा जाता है कि वे उत्तर प्रदेश में 1.5 मिलियन से अधिक हैं और कहा जाता है कि वे राजस्थान में सांभर नमक झील क्षेत्र से पलायन कर गए थे। वे लखनऊ, कानपुर, फर्रुखाबाद, राय बरेली, सीतापुर, लखीमपुर, आजमगढ़, वाराणसी, देवरिया, गोंडा, गोरखपुर, गाजीपुर और जौनपुर के उपजाऊ मध्य और पूर्वी जिलों में रहते हैं। ये जिले उच्च अपराध दर के लिए जाने जाते हैं। वे बिहार में भी रहते हैं और पश्चिम बंगाल में कम संख्या में, जहाँ वे संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध हैं। यह स्थिति उन्हें कई फायदे देती है।
   नोनिया समाज के अध्यक्ष  अशोक प्रसादजी  ने  सरकार के समक्ष  निम्न मांगें रखी हैं और आग्रह किया है कि  मांगे शीघ्र पूरी की जाए  और नोनिया समाज को सम्मान और अधिकार दें। 
* हमारी आबादी के हिसाब से सरकार में भागीदारी सुनिश्चित हो 
* नोनिया ,बिन्द ,बेलदार को राज्य सरकार द्वारा ST की सुविधा प्रदान करें 
*) नोनिया समाज का इतिहास एवं महापुरुषों के बारे में राज्य शिक्षा बोर्ड के द्वारा इतिहास के विषय में पढ़ाया जाए * नोनिया समाज के आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के स्नातक स्नाकोत्तर शिक्षा प्राप्ति के लिए निशुल्क व्यवस्था की जाए एवं छात्रावास की व्यवस्था की जाए 
*नोनिया समाज के पैतृक पेशा मिट्टी से नमक, सोडा कड़ी बनाने की पारंपरिक व्यवस्था को आधुनिकरण  अनुसंधान केंद्र खोला जाए और इसे नोनिया समाज के लिए आरक्षित किया जाए

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क्या जान बूझकर श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध मे नहीं बचाए अभिमन्यु के प्राण?




   महाभारत की कथा में वीर योद्धाओं में एक बड़ा नाम अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का है. अभिमन्यु ने जन्म लेने से पहले ही चक्रव्यूह में प्रवेश करने का ज्ञान प्राप्त कर लिया था लेकिन बाहर आने का मार्ग न जानने के कारण उसकी मृत्यु हो गई. अधिकांश लोग इसे ही पूरा सच मानते हैं लेकिन अभिमन्यु की मृत्यु के पीछे एक विशेष कारण था जिसकी वजह से भगवान श्री कृष्ण ने भी अभिमन्यु के प्राणों की रक्षा नहीं की थी.

जन्म से पहले ही तय थी अभिमन्यु की उम्र

अभिमन्यु के जन्म से पहले ही उसके पिता ने मृत्यु की उम्र तय कर दी थी. आपको जानकर हैरानी होगी कि अभिमन्यु के पिता अर्जुन नहीं बल्कि चंद्रदेव थे. चंद्रदेव के पुत्र प्रेम के कारण ही अभिमन्यु कम उम्र लेकर पैदा हुए थे. दरअसल, चंद्रदेव के बेटे वर्चा का जन्म अर्जुन के बेटे अभिमन्यु के रूप में हुआ था. इसका उल्लेख महाभारत में मिलता है.

अभिमन्यु थें इस देवता का रूप

अभिमन्यु महाभारत कथा के वीर योद्धाओं में से एक थें. अभिमन्यु हर व्यक्ति के लिए एक प्रेरणा है, इस योद्धा ने महाभारत के युद्ध में अकेले एक पूरे दिन उन सभी योद्धाओं को रोक कर रखा था, जो अकेले कई सेना के बराबर थे. और यही कारण है कि, युद्ध पर लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए. भगवान कृष्ण ये सब खड़े होकर देखते रहे. लेकिन आपको बता दें कि यह सब एक उद्देश्य को पूरा करने के लिए किया गया था.
जब धर्म की रक्षा के लिए देवताओं ने धरती पर अवतार लिया तब अभिमन्यु के रूप में चंद्रमा के पुत्र वर्चा ने जन्म लिया था, वर्चा को भेजते समय चंद्रमा ने देवताओं से कहा, मैं अपने प्राणों से प्यारे पुत्र को नहीं दे सकता परंतु इस काम से पीछे हटना भी उचित नहीं जान पड़ता, इसलिए वर्चा मनुष्य तो बनेगा परंतु अधिक दिनों तक नहीं रहेगा, भगवान इंद्र के अंश नरावतार होगा, जो भगवान श्रीकृष्ण से मित्रता करेगा अर्थात अर्जुन, मेरा पुत्र अर्जुन का ही पुत्र होगा.

चंद्रदेव के बेटे थे अभिमन्यु

जब धर्म की स्थापना करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतार लेने वाले थे तब सभी देवी-देवताओं ने भगवान की लीला देखने के लिए किसी ना किसी अवतार में धरती पर आने का फैसला किया. कई देवी-देवता मनुष्य बनकर धरती पर जन्मे, तो कई ने अपने अंश या अपने पुत्रों को धरती पर भेजा दिया. जैसा- सूर्य के बेटे कर्ण, इंद्र के बेटे अर्जुन. लेकिन चंद्र देव पीछे रह गए थे. उनसे कहा गया कि वो अपने पुत्र ‘वर्चा’ को पृथ्वी पर आने की आज्ञा दें. लेकिन चंद्र देव अपने पुत्र  वरचा  बहुत प्रेम करते थे और उससे दूर नहीं सह सकते.

शर्त पर विवश हुए भगवान

वर्चा ने धरती पर अभिमन्यु के रूप में जन्म लिया। अभिमन्यु अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र था। महज 16 साल की उम्र में उसने महाभारत का युद्ध लड़ा और वीरगति को प्राप्त हुए। अभिमन्यु ने इतने कम उम्र में कौरवों की सेना में तबाही मचा दी थी। अभिमन्यु को मारने के लिए कौरव नीचता पर उतर आये और युद्ध के नियम को ताक पर रख दिया गया। अभिमन्यु ने युद्ध के दौरान दुर्योधन के बेटे लक्ष्मण, बृहदबाला, शल्यपुत्रों जैसे बड़े-बड़े योद्धाओं को मार गिराया। युद्ध के 13 वें दिन अभिमन्यु को भी छलपूर्वक चक्रव्यूह में बुलाकर मार दिया गया। चंद्रमा की शर्त पर भगवान विवश थे, इस कारण वो अभिमन्यु को बचाने नहीं गए।

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