21.1.20

कायस्थ समाज की कुलदेवियाँ:kayasth caste kuldevi


 

कायस्थ जाति का वर्णन चातुर्वर्ण व्यवस्था में नहीं आता है। इस कारण विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इनको विभिन्न वर्णों में बताया है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बंगाल के कायस्थों को शूद्र बतलाया तो पटना व इलाहाबाद के उच्च न्यायालयों ने इन्हें द्विजों में माना है। कायस्थ शब्द का उल्लेख विष्णु धर्म सूत्र में मिलता है। इसमें कहा गया है कि कायस्थ राजसभा में लेखन कार्य हेतु नियुक्त किये जाते थे। प्रारम्भ में कायस्थ व्यवसाय-प्रधान वर्ग था लेकिन बाद में कायस्थों का संगठन एक जाति के रूप में विकसित हो गया। कायस्थ वर्ग परम्परागत लिपिकों अथवा लेखकों का वर्ग था।
 जाति इतिहासकार डॉ . दयाराम आलोक के मतानुसार कायस्थ जाति अपनी वंशोत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त से मानते हैं। चित्रगुप्त ने दो विवाह किए। प्रथम विवाह धर्मशर्मा ऋषि की पुत्री ऐरावती के साथ किया जिनसे चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण, जितेन्द्री नाम के आठ पुत्र हुए। दूसरा विवाह मनु की पुत्री दक्षिणा के साथ हुआ। दक्षिणा से भानू, विमान, बुद्धिमान, वीर्यमान नाम के चार पुत्र हुए। इन बारह पुत्रों के वंश में क्रम से 12 शाखायें कायस्थों की अलग-अलग क्षेत्रों में रहने से हो गई, जो इस प्रकार है- 
1. माथुर
 2. श्रीवास्तव 
3. सूर्यध्वज 
4. निगम 
5. भटनागर 
6. सक्सेना 
7. गौड़ 
8. अम्बष्ठ 
9. वाल्मिकी 
10. अष्टाना 
11. कुलश्रेष्ठ 
12. कर्ण ।
शाखाएं
नंदिनी-पुत्र

भानु
भानुप्रथम पुत्र भानु कहलाये जिनका राशि नाम धर्मध्वज था| चित्रगुप्त जी ने श्रीभानु को श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ था एवं देवदत्त और घनश्याम नामक दो पुत्रों हुए। देवदत्त को कश्मीर एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव २ वर्गों में विभाजित हैं – खर एवं दूसर। इनके वंशज आगे चलकर कुछ विभागों में विभाजित हुए जिन्हें अल कहा जाता है। श्रीवास्तवों की अल इस प्रकार हैं – वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया,रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन, इत्यादि।
विभानूद्वितीय पुत्र विभानु हुए जिनका राशि नाम श्यामसुंदर था। इनका विवाह मालती से हुआ। चित्रगुप्त जी ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इन्होंने अपने नाना सूर्यदेव के नाम से अपने वंशजों के लिये सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाने का अधिकार एवं सूर्यध्वज नाम दिया। अंततः वह मगध में आकर बसे।
विश्वभानूतृतीय पुत्र विश्वभानु हुए जिनका राशि नाम दीनदयाल था और ये देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ एवं इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा भाग नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया जहां तपस्या करते हुए उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढंक गया था, अतः इनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। इनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। वर्तमान में इनके वंशज गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं , उनको “वल्लभी कायस्थ” भी कहा जाता है।
वीर्यभानूचौथे पुत्र वीर्यभानु का राशि नाम माधवराव था और इनका विवाह देवी सिंघध्वनि से हुआ था। ये देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। चित्रगुप्त जी ने वीर्यभानु को आदिस्थान (आधिस्थान या आधिष्ठान) क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इनके वंशजों ने आधिष्ठान नाम से अष्ठाना नाम लिया एवं रामनगर (वाराणसी) के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। वर्तमान में अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान , चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या है। ये ५ अल में विभाजित हैं।
ऐरावती-पुत्र
चारुऐरावती के प्रथम पुत्र का नाम चारु था एवं ये गुरु मथुरे के शिष्य थे तथा इनका राशि नाम धुरंधर था। इनका विवाह नागपुत्री पंकजाक्षी से हुआ एवं ये दुर्गा के भक्त थे। चित्रगुप्त जी ने चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था अतः इनके वंशज माथुर नाम से जाने गये। तत्कालीन मथुरा राक्षसों के अधीन था और वे वेदों को नहीं मानते थे। चारु ने उनको हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात् इन्होंने आर्यावर्त के अन्य भागों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण किये। वर्तमान माथुर ३ वर्गों में विभाजित हैं -देहलवी,खचौली एवं गुजरात के कच्छी एवं इनकी ८४ अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया,दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया,रानोरिया इत्यादि। एक मान्यता अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की वर्तमान में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे।
सुचारुद्वितीय पुत्र सुचारु गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। ये देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने सुचारू को गौड़ देश में राज्य स्थापित करने भेजा था एवं इनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ।इनके वंशज गौड़ कहलाये एवं ये ५ वर्गों में विभाजित हैं: – खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी, वदनयुनि। गौड़ कायस्थों को ३२ अल में बांटा गया है। गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त राजा हुए थे। चित्रतृतीय पुत्र चित्र हुए जिन्हें चित्राख्य भी कहा जाता है, गुरू भट के शिष्य थे, अतः भटनागर कहलाये। इनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था तथा ये देवी जयंती की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इन क्ष्त्रों के नाम भी इन्हिं के नाम पर पड़े हैं। इन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए।इनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए एवं ८४ अल में विभाजित हैं, इनकी कुछ अल इस प्रकार हैं- डसानिया, टकसालिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया,बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है।
मतिभानचतुर्थ पुत्र मतिमान हुए जिन्हें हस्तीवर्ण भी कहा जाता है। इनका विवाह देवी कोकलेश में हुआ एवं ये देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। ये शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सक्सेना कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। वर्तमान में ये कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह,इटावा, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं| सक्सेना लोग खरे और दूसर में विभाजित हैं और इस समुदाय में १०६ अल हैं, जिनमें से कुछ अल इस प्रकार हैं- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि|
हिमवान
पांचवें पुत्र हिमवान हुए जिनका राशि नाम सरंधर था उनका विवाह भुजंगाक्षी से हुआ। ये अम्बा माता की अराधना करते थे तथा चित्रगुप्त जी के अनुसार गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। हिमवान के पांच पुत्र हुए: नागसेन, गयासेन, गयादत्त, रतनमूल और देवधर। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। इनमें नागसेन के २४ अल, गयासेन के ३५ अल, गयादत्त के ८५ अल, रतनमूल के २५ अल तथा देवधर के २१ अल हैं। कालाम्तर में ये पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। मान्यता अनुसार अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए “खास घर” प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी प्रयोग किये जाते हैं। ये “खास घर” वे हैं जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे। इनमें से कुछ घरों के नाम हैं- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर,कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार,नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार,देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार,करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार, आदि।
चित्रचारुछठवें पुत्र का नाम चित्रचारु था जिनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। ये देवी दुर्गा की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र (सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। वर्तमान में ये कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं,महोबा में रहते हैं एवं ४३ अल में विभाजित हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी,चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि।
चित्रचरणसातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र (वर्तमाआन कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण ३६० अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
चारुणअंतिम या आठवें पुत्र चारुण थे जो अतिन्द्रिय भी कहलाते थे। इनका राशि नाम सदानंद है और उन्होंने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने अतिन्द्रिय को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से सर्वाधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाले थे। इन्हें ‘धर्मात्मा’ और ‘पंडित’ नाम से भी जाना गया और स्वभाव से धुनी थे। इनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए तथा आधुनिक काल में ये मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, एटा, इटावा और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव – बंगाल में पाए जाते हैं |
राजस्थान में माथुर कायस्थ अधिक आबाद है। इन्हें पंचोली भी कहा जाता है। ‘कायस्थ जगत’ नामक पत्रिका में माथुर (कायस्थ) वर्ग की 84 शाखाओं का नामोल्लेख कुलदेवियों के साथ मिलता है, जो इस प्रकार है-



         Kuldevi List of Kayastha Samaj कायस्थ जाति के गोत्र एवं कुलदेवियां 


सं.कुलदेवीशाखाएं
1.
जीवण माताबनावरिया (झांमरिया), टाक, नाग, ताहानपुरा, गऊहेरा
2.
बटवासन मातासाढ़ मेहंता (भीवांणी), अतरोलिया, तनोलिया, टीकाधर
3.
मंगलविनायकीसहांरिया (मानक भण्डारी)
4.
पीपलासन मातानैपालिया (मुन्शी), घुरू, धूहू
5.
यमुना माताराजोरिया, कुस्या
6.
ककरासण माताएंदला (नारनोलिया)
7.
भांणभासकरछार छोलिया
8.
अंजनी माताशिकरवाल, सेवाल्या, विदेवा (बैद)
9.
कुलक्षामिणी मातानौहरिया (लवारिया)
10.
बीजाक्षण मातासांवलेरिया, कुलहल्या, जलेश्वरिया
11.
राजराजेश्वरी माताजोचबा
12.
श्रीगुगरासण मातासिरभी
13.
हुलहुल माताकामिया (गाडरिया), कटारमला, कौटेचा, गडनिया, सौभारिया, महाबनी, नाग पूजा हुसैनिया
14.
चामुण्डा माताचोबिसा (कोल्ली), जाजोरिया, मोहांणी, मगोडरिया,पासोदिया (पासीहया)
15.
आशापुरा माताककरानिया, गलगोटिया, दिल्लीवाल, करना, धनोरिया, गुवालैरिया, कीलटौल्या
16.
श्रीसाउलमातासीसोल्या (मनाजीतवाल), ध्रुबास
17.
श्रीपाण्डवराय मातानौसरिया (मेड़तवाल), बकनोलिया, भांडासरिया
18.
श्रीदेहुलमातातबकलिया
19.
श्री जगन्नामाताकुरसोल्या
20.
नारायणी मातावरणी (खोजा)
21.
कमलेश्वरी माताहेलकिया
22.
पुरसोत्मामातासिरोड़िया
23.
कमलासन मातासादकिया, छोलगुर
24.
महिषमर्दिनीमहिषासुरिया
25.
द्रावड़ी हीरायनकटारिया
26.
लक्ष्मीमाताकलोल्या, आंबला
27.
योगाशिणी माताचन्देरीवाल
28.
चण्डिका मातापत्थर चट्टा, छांगरिया
29.
जयन्ती मातामासी मुरदा
30.
सोनवाय माताअभीगत, टंकसाली
31.
कणवाय मातामाछर
32.
पाड़मुखी माताकबांणिया
33.
हर्षशीलि मातातैनगरा
34.
इंद्राशिणी माताधोलमुखा (गोड़ा)
35.
विश्वेश्वरी मातामथाया
36.
अम्बा माताधीपला
37.
ज्वालामुखी माताहोदकसिया
38.
शारदा माताबकनिया
39.
अर्बुदा माताकवड़ीपुरिया (बकहुपुरा)
40.
कुण्डासण मातासींमारा
41.
पाडाय मातामाखरपुरिया, पुनहारा
42.
हींगुलाद मातासरपारा
43.
प्राणेश्वरी मातालोहिया
44.
बेछराय मातासिणहारिया
45.
सांवली मातावरण्या (बरनोल्या)
46.
लक्ष्मीया हलड़आसौरिया (आसुरिय)
47.
पहाड़ाय माताफूलफगरसूहा (नोहगणा)

इसके अलावा भटनागर, सक्सेना और श्रीवास्तव की कुलदेवियों का भी उल्लेख मिलता है।
कायस्थ शाखागोत्रकुलदेवी
भटनागर
सठजयन्ती माता
सक्सेना
हंसशाकम्भरी माता
श्रीवास्तव
हर्षलक्ष्मी माता


जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के  मतानुसार नवरात्रि का उपवास आसोज एवं चैत्र के महीने में कायस्थ कुल के स्त्री एवं पुरुष सम्मिलित रूप से करते हैं। वे अपनी-अपनी कुलदेवियों की पूजा अर्चना दोनों प्रकार के भोज अर्पित कर करते हैं। वैसे हर माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को देवी की पूजा होती है। जो जीवण माता के रूप में मानी जाती है। कायस्थों के विभिन्न शाखाओं के वंशधारी वैवाहिक अवसरों पर भी कुलदेवी का मनन करते हैं। विवाह होने के उपरान्त नवदम्पत्ति को सबसे पहले कुलदेवी की जात देने ले जाया जाता है। जिससे उनका नव जीवन सफल और कठिनाइयों से मुक्त रहे।
कायस्थों की जोधपुर स्थित विभिन्न शाखाओं की कुलदेवियों में जीवणमाता मंदिर (मंडोर), बाला त्रिपुरा सुंदरी (नयाबास), राजराजेश्वरी माता (छीपाबाड़ी), मातेश्वरी श्री पाण्डवराय (फुलेराव), नायकी माता (अखेराज जी का तालाब) आदि के मन्दिर समाज में बड़े ही प्रसिद्ध हैं।

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