12.9.17

सोलंकी वंश की कुलदेवी खीमज माता की जानकारी




                                                 

भीनमल की खीमज माता
सोलंकी वंश की कुलदेवी
सोलंकी वंश की कुलदेवी श्री खींवज माता हैं। पूर्व नाम क्षेमकरी माता से ही नाम धीरे-धीरे लोकभाषा में क्षेमजा, खेमज, खींमेल और खींवज हुआ है। आध शकित 'क्षेमकरी नवदुर्गाओं में से एक हैं जो अपने भक्तों को सब प्रकार के कष्टों से मुक्त करती हैं। अत: शुभ करने से इस माता का नाम 'शुभंकरी भी हैं यह माता विधुत संदृश है। इस माता के स्वरूप का वणर््न इस प्रकार है - इसके शरीर का रंग अंधकार की तरह गहरा काला है। इसके सिर के केश बिखरे हुए हैं। इनके गले में विधुत संदृश चमकीली माला है। इन तीनों नेत्रों से विधुत की ज्योति चमकती रहती है ये गधे की सवारी करती हैं ऊपर उठने वाले हाथ में चमकती तलवार है उसके नीचे वाले हथ में वरमुद्रा है जिससे भक्तों को अभीष्ट वर देती हैं। बायें हाथ में जलती हुर्इ मशाल है और उसके नीचे वाले बायें हाथ में अभय मुद्रा हैं जिससे अपने सवकों को अभयदान करती हैं तथा अपने भक्तों को सब प्रकार के कष्टों से मुक्त करती हैं माता सदैव शुभ फल ही देने वाली है। अतएव शुभकरने से इसका एक नाम शुभंकरी भी हैं। खींवज माता के राजस्थान में कर्इ मंदिर हैं। सोलंकी कुल गौत्रीय राजपूतों की यह कुलदेवी है। वैसे इस माता की मान्यता सभी जातियों में हैं खींवज माता का प्रमुख मंदिर कठौती गांव में है जो डीडवाना से पशिचम में 33 किमी तथा नागौर से पूर्व में 63 किमी हैं। माता का मंदिर एक टीले पर अवसिथत है। क्षेमंकरी माता का एक मंदिर इन्द्रगढ (कोटा-बूंदी) स्टेशन से 5 मील दूरी पर भी है। यहां माता का विशला मंदिर हैं तथा नवरात्रों में मेला लगता है। क्षेमंकरी माता का अन्य मंदिर बसंतपुर के पास पहाड़ी पर है। भीनमाल में भी क्षेमंकरी माता का भव्य मंदिर था। ओसिया में भी सचिचयाय माता के मंदिर में अन्य माताओं के मंदिरों के साथ-साथ क्षेमंकरी माता का मंदिर हैं एक मंदिर झीलवाड़ा राजसमन्द में भी है। राजस्थान से बाहर गुजरात प्रांत के रूपनगर में भी एक सुप्रसिद्ध मंदिर है।
सोलंकी वंश के गौत्र प्रवरादि :-
वंश ृ - अगिनवंश (पहले चन्द्रवँशी)
गौत्र - वशिष्ठ, भारद्वाज
प्रवर तीन - भारद्वाज, बार्हस्पत्य, अंगिरस
वेद - यजुर्वेद
शाखा - मध्यनिदनी
सूत्र - पारस्कर ग्रहासूत्र
इष्टदेव - विष्णु
कुलदेवी - चण्डी, काली, खींवज
नदी - सरस्वती
धर्म - वैष्णव
गादी - अणहिलवाड़ा पाटन
उत्पत्ति - आबू पर्वत
मूल पुरुष - चालुक्यदेव
इष्टदेवी - बहुचरजी
निशान - पीला
राव - लूतापड़ा
घोड़ा - जर्द
ढोली - बहल
शिखापद - दाहिना
दशहरा पूजन - खांडा

     क्षेमाचर्या क्षेमंकारी देवी जिसे स्थानीय भाषाओं में क्षेमज, खीमज, खींवज आदि नामों से भी पुकारा व जाना जाता है। इस देवी का प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर राजस्थान के भीनमाल कस्बे से लगभग तीन किलोमीटर भीनमाल खारा मार्ग पर स्थित एक डेढ़ सौ फुट ऊँची पहाड़ी की शीर्ष छोटी पर बना हुआ है। मंदिर तक पहुँचने हेतु पक्की सीढियाँ बनी हुई है। भीनमाल की इस देवी को आदि देवी के नाम से भी जाना जाता है। भीनमाल के अतिरिक्त भी इस देवी के कई स्थानों पर प्राचीन मंदिर बने है जिनमें नागौर जिले में डीडवाना से 33 किलोमीटर दूर कठौती गांव में, कोटा बूंदी रेल्वे स्टेशन के नजदीक इंद्रगढ़ में व सिरोही जालोर सीमा पर बसंतपुर नामक जगह पर जोधपुर के पास ओसियां आदि प्रसिद्ध है। सोलंकी राजपूत राजवंश इस देवी की अपनी कुलदेवी के रूप में उपासना करता है|
देवी उपासना करने वाले भक्तों को दृढविश्वास है कि खीमज माता की उपासना करने से माता जल, अग्नि, जंगली जानवरों, शत्रु, भूत-प्रेत आदि से रक्षा करती है और इन कारणों से होने वाले भय का निवारण करती है। इसी तरह के शुभ फल देने के चलते भक्तगण देवी माँ को शंभुकरी भी कहते है। दुर्गा सप्तशती के एक श्लोक अनुसार-“पन्थानाम सुपथारू रक्षेन्मार्ग श्रेमकरी” अर्थात् मार्गों की रक्षा कर पथ को सुपथ बनाने वाली देवी क्षेमकरी देवी दुर्गा का ही अवतार है।
जनश्रुतियों के अनुसार किसी समय उस क्षेत्र में उत्तमौजा नामक एक दैत्य रहता था। जो रात्री के समय बड़ा आतंक मचाता था। राहगीरों को लूटने, मारने के साथ ही वह स्थानीय निवासियों के पशुओं को मार डालता, जलाशयों में मरे हुए मवेशी डालकर पानी दूषित कर देता, पेड़ पौधों को उखाड़ फैंकता, उसके आतंक से क्षेत्रवासी आतंकित थे। उससे मुक्ति पाने हेतु क्षेत्र के निवासी ब्राह्मणों के साथ ऋषि गौतम के आश्रम में सहायता हेतु पहुंचे और उस दैत्य के आतंक से बचाने हेतु ऋषि गौतम से याचना की। ऋषि ने उनकी याचना, प्रार्थना पर सावित्री मंत्र से अग्नि प्रज्ज्वलित की, जिसमें से देवी क्षेमकरी प्रकट हुई। ऋषि गौतम की प्रार्थना पर देवी ने क्षेत्रवासियों को उस दैत्य के आतंक से मुक्ति दिलाने हेतु पहाड़ को उखाड़कर उस दैत्य उत्तमौजा के ऊपर रख दिया। कहा जाता है कि उस दैत्य को वरदान मिला हुआ था वह कि किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मरेगा। अतः देवी ने उसे पहाड़ के नीचे दबा दिया। लेकिन क्षेत्रवासी इतने से संतुष्ट नहीं थे, उन्हें दैत्य की पहाड़ के नीचे से निकल आने आशंका थी, सो क्षेत्रवासियों ने देवी से प्रार्थना की कि वह उस पर्वत पर बैठ जाये जहाँ वर्तमान में देवी का मंदिर बना हुआ है तथा उस पहाड़ी के नीचे नीचे दैत्य दबा हुआ है।
देवी की प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर वर्तमान में जो प्रतिमा लगी है वह 1935 में स्थापित की गई है, जो चार भुजाओं से युक्त है। इन भुजाओं में अमर ज्योति, चक्र, त्रिशूल तथा खांडा धारण किया हुआ है। मंदिर के सामने व पीछे विश्राम शाला बनी हुई है। मंदिर में नगाड़े रखे होने के साथ भारी घंटा लगा है। मंदिर का प्रवेश द्वार मध्यकालीन वास्तुकला से सुसज्जित भव्य व सुन्दर दिखाई देता है। मंदिर में स्थापित देवी प्रतिमा के दार्इं और काला भैरव व गणेश जी तथा बाईं तरफ गोरा भैरूं और अम्बाजी की प्रतिमाएं स्थापित है। आसन पीठ के बीच में सूर्य भगवान विराजित है।
नागौर जिले के डीडवाना से 33 कि.मी. की दूरी पर कठौती गॉव में माता खीमज का एक मंदिर और बना है। यह मंदिर भी एक ऊँचे टीले पर निर्मित है ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में यहा मंदिर था जो कालांतर में भूमिगत हो गया। वर्तमान मंदिर में माता की मूर्ति के स्तम्भ’ के रूप से मालुम चलता है कि यह मंदिर सन् 935 वर्ष पूर्व निर्मित हुआ था। मंदिर में स्तंभ उत्तकीर्ण माता की मूर्ति चतुर्भुज है। दाहिने हाथ में त्रिशूल एवं खड़ग है, तथा बायें हाथ में कमल एवं मुग्दर है, मूर्ति के पीछे पंचमुखी सर्प का छत्र है तथा त्रिशूल है।
क्षेंमकरी माता का एक मंदिर इंद्रगढ (कोटा-बूंदी ) स्टेशन से 5 मील की दूरी पर भी बना है। यहां पर माता का विशाल मेला लगता है। क्षेंमकरी माता का अन्य मंदिर बसंतपुर के पास पहाडी पर है, बसंतपुर एक प्राचीन स्थान है, जिसका विशेष ऐतिहासिक महत्व है। सिरोही, जालोर और मेवाड की सीमा पर स्थित यह कस्बा पर्वत मालाओ से आवृत्त है। इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 682 में हुआ था। इस मंदिर का जीर्णोद्वार सिरोही के देवड़ा शासकों द्वारा करवाया गया था। एक मंदिर भीलवाड़ा जिला के राजसमंद में भी है। राजस्थान से बाहर गुजरात के रूपनगर में भी माता का मंदिर होने की जानकारी मिली है।
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