17.2.24

सोंधिया राजपूत जाति की उत्पत्ति और इतिहास

 

  हमारे देश की भगौलिक रचना कुछ इस प्रकार है कि जो स्वरुप आज दिखाई देता है देश आजाद होने और उसके पूर्व के काल में ऐसा नहीं था । प्राचीन काल में मगध, पाटली पुत्र, पंचनद, उत्कलप्रदेश जैसे नाम प्रचलित थे । मुगलों और अंग्रेजों के काल में मेवाड़, मालवा, सौंधवाड़, हाड़ोती, महाकौशल, बुंदेलखण्ड जैसे नाम अलग-अलग क्षेत्रों के लिए उपयोग किये जाते थे । देश आजाद होने के बाद आज उतरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे नाम प्रचलित है ।
हिन्दू धर्म में प्रचलित चार वर्णों में क्षत्रिय वर्ण प्रमुख है इस वर्ण में राजपूत जाति इस देश की सैनिक और शासक जाति रही । \
   जुझारू जाति होने के कारण युद्धप्रियता और देश एवं धर्म की रक्षा का भार राजपूतों पर रहा । मुस्लिम आक्रमणकारियों के भारत में आने के बाद राजपूतों को कहीं जीत तो कहीं हार का सामना करना पड़ा । कहीं राजपूत धर्म परिवर्तन द्वारा मुस्लिम धर्म को अंगीकार करने के लिए बाध्य हुए तो कहीं दूरस्थ क्षेत्र में जाकर बसने को मजबूर हुए । चूँकि मुस्लिम शासकों का दबाव दिल्ली एवं उसके आसपास ज्यादा रहा अतः स्वाभिमानी राजपूत अपनी आन की रक्षा के लिए दूरस्थ क्षेत्रों में जाकर बस गए । उस समय मालवा, मेवाड़ एवं हाड़ोती से लगा हुआ "सौंधवाड़" एक सुरक्षित क्षेत्र था जिस कारण दिल्ली एवं उसके आसपास से राजपूत यहां आकर बसे ।
   जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम आलोक के मतानुसार   मंदसौर, झालावाड़, उज्जैन, राजगढ़ आदि जिलों में फैला यह क्षेत्र सौंधवाड़ कहलाता है|। इस क्षेत्र में विभिन्न वंशो के राजपूत आकर बसे जिसमें चौहान, तंवर, पंवार, सोलंकी, गहलोत, परिहार, बघेला, बोराना, आदि प्रमुख है.16 वीं, 17 वीं शताब्दी में मेवाड़, मारवाड़ से इस क्षेत्र में चुण्डावत, राणावत, शक्तावत, भाटी, चौहान, राठोड़, झाला, सोलंकी, पंवार आदि राजपूत आकर बसना शुरू हुए । स्वयं के श्रेष्ठ होने की भावना के कारण अपनी अलग पहचान के लिए इन लोगों ने स्थानीय राजपूतों से दूरी बनाए रखने बाबत् पहले से बसे हुए राजपूतों को "सौंधवाड़" का राजपूत कहकर बुलाया जो कालान्तर में धीरे-धीरे "सौंधिया राजपूत" बन गया और बोलचाल की भाषा में "सौंधिया" के रूप में प्रचलित हो गया ।
सोंधिया राजस्थान और मध्य प्रदेश में 700 वर्षों से निवास कर रही राजपूत जाति  है|
सोंधिया छोटे किसानों का एक समुदाय हैं, |यह  एक वैष्णव हिंदू समुदाय हैं, और उनके कोई विशेष रीति-रिवाज नहीं हैं। सोंधिया को आमतौर पर पिछड़ी जाति श्रेणी से संबंधित माना जाता है।
   मप्र पिछड़ा आयोग की भोपाल में सुनवाई के दौरान सौंधिया राजपूत समाज के पदाधिकारियों ने समाज का पक्ष रखा। कहा कि पिछड़ा वर्ग की जातियों में सौंधिया राजपूत की जगह केवल सौंधिया लिखा है। सौंधिया के साथ राजपूत शब्द जोड़कर जाति को सौंधिया राजपूत किया जाए।
इस हेतु आयोग के समक्ष प्रदेशभर से आए समाजजन ने दस्तावेज पेश किए। समाज प्रदेश अध्यक्ष विधायक नारायण सिंह,


राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष विधायक चंदरसिंह सिसौदिया, प्रदेश अध्यक्ष डॉ. शंभूसिंह, जिलाध्यक्ष किशनसिंह पावटी, प्रदेश उपाध्यक्ष दिलीपसिंह तरनोद, युवा जिलाध्यक्ष दरबार अभयसिंह किलगारी, जिला प्रवक्ता डॉ भंवरसिंह, प्रदेश सचिव डॉ. भोपालसिंह और प्रदेश के पदाधिकारी माैजूद थे।
 

२०२३ के विधानसभा चुनाव में सुसनेर से  भैरो सिंग  पड़िहार बापू   निर्वाचित हुए हैं जो सोंधिया राजपूत समाज से आते हैं  
राजपूत कौन हैं और लोग उन्हें इतना प्रचारित क्यों करते हैं?
 राजपूत और ठाकुरों में क्या अंतर है?
राजपूत संघ है एक जिसमे 36 कुल के लोग शामिल है
“दस रवि से दस चन्द्र से, बारह ऋषिज प्रमाण,
चार हुतासन सों भये , कुल छत्तिस वंश प्रमाण
  मगर फिर घाल मेल हुआ 62 कुल हो गए इनको  क्षत्रिय  भी कहते है | शासक वर्ग के अच्छे बुरे सब कार्य का प्रचार होता है ठाकुर एक उपाधि है कोई संघ या जाती नही इसका प्रयोग लगभग सभी जातियॉ करती है |बिहार उत्तर प्रदेश में नाई जाती  भी  ठाकुर  सरनेम  का प्रयोग कराती है. तो राजस्थान में राजपूत भी  ठाकुर  कहलाते हैं. ,मध्य प्रदेश में घोषी अहीर(यादव) भी करते है  ठाकुर  सरनेम  उपयोग करते हैं. मगर सबसे पहले ब्राह्मणों ने प्रयोग किया था आज भी गुजरात बंगाल में ब्रह्मण  ठाकू कहलाते हैं.  राजपूत और ठाकुर में अंतर यहीं है कि राजपूत संघ जाती है . कुल मिलाकर  लोग ठाकुर कहलाने में गौरव  का अनुभव करते हैं ,
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