8.5.21

कंजर जन जाति की जानकारी:Kanjar caste history



 प्राचीन काल की एक संकर जाति । विशेष—इसकी उत्पत्ति शौचकी स्त्री और शौंडिक पुरुष से मानी गई है और इसका काम गाना बजाना बतलाया गया है । ३. मनु के अनुसार क्षत्रियों की एक जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रात्य क्षत्रियों से मानी जाती है । संपूर्ण उत्तर भारत की ग्राम्य और नगरीय जनसंख्या में छितराए कंजर जनजाति ऐसे कबीला हैं, जिनके कुछ समुदाय अपराध करना अपना मूल पेशा मानते हैं। माना जाता है कि कंजर अपराध करने से पहले ईश्वर का आशीर्वाद लेते हैं, जिसे पाती मांगना कहा जाता है। संगठित अपराधियों के सबसे क्रूर कबीलों में से एक कंजर प्रदेश के जिलों को पहले इलाकों में बांटते हैं। परिवार व रिश्तेदारों को मिलाकर तैयार की गई गैंग दीपावली की रात तांत्रिक अनुष्ठान करने के बाद घर से निकलती है। ठंड के मौसम में लूटपाट करने के बाद बसंत पंचमी से पहले घरों को लौट जाते हैं। 
 इतिहास विद् डा. रत्नाकर शुक्ल बताते हैं कि कंजरों तथा सांसिया,हाबूरा, बेरिया, भाट, नट, बंजारा, जोगी और बहेलिया आदि अन्य घुमक्कड़ कबीलों से कंजरों के बीच पर्याप्त सांस्कृतिक समानता मिलती है। एक ¨कवदंती के अनुसार कंजर दिव्य पूर्वज'मान'गुरु की संतान हैं। मान अपनी पत्नी नथिया कंजरिन के साथ जंगल में रहता था।  समाजशास्त्री डा. विद्याधर के मुताबिक इन कबीलों के पुरूष व घर की महिलाएं मिलकर अवैध शराब बनाती हैं। जिसे घर के पुरुष कबीले और कबीले के बाहर बेचते हैं। रोजाना रात को इस जाति की औरत और पुरुष दोनों ही साथ में शराब भी पीते हैं। पुलिस से बचने के लिए यह अपने घरों में सुरक्षा के काफी प्रबंध रखते हैं। भागने के लिए पीछे की तरफ खिड़की जरूर होती है परंतु चौखट पर दरवाजे नहीं होते हैं।
  
जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम आलोक के मतानुसार कंजर जाति के लोग हनुमान और चौथ माता की पूजा करते हैं। कंजरों की कबीला पंचायत शक्तिशाली और सर्वमान्य सभा है। सभ्य समाज की दृष्टि से पेशेवर अपराधी माने जाने वाले कंजरों में भी कबीलाई नियमों के उल्लंघन पर कड़ी सजा मिलती है।
  कंजर एक घुमक्कड़ कबीला है जो सम्पूर्ण उत्तर भारत की ग्राम्य और नागरकि जनसंख्या में छितराया हुआ है। ये संभवत: द्रविड़ मूल के हैं। ' कंजर ' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत 'कानन-चर' से हुई भी बताई जाती है। वैसे भाषा, नाम, संस्कृति आदि में उत्तर भारतीय प्रवृत्तियाँ कंजरों में इतनी बलवती हैं कि उनका मूल द्रविड़ मानना वैज्ञानिक नहीं जान पड़ता। कंजरों तथा साँसिया, हाबूरा, बेरिया, भाट, नट, बंजारा, जोगी और बहेलिया आदि अन्य घुमक्कड़ कबीलों में पर्याप्त सांस्कृतिक समानता मिलती है। एक किंवदंती के अनुसार कंजर दिव्य पूर्वज 'मान' गुरु की संतान हैं। मान अपनी पत्नी नथिया कंजरिन के साथ जंगल में रहता था। मान गुरु के पुरावृत्त को ऐतिहासिकता का पुट भी दिया गया है, जैसा उस आख्यान से विदित है जिसमें मान दिल्ली सुल्तान के दरबार में शाही पहलवान को कुश्ती मेंरों का कबीली संगठन विषम है। वे बहुत से अंतिर्विवाही (एंडोगैमस) विभागों और बहिर्विवाही (एक्सोगैमस) उपविभागों के नाम 1891 की जनगणना में दर्ज किए गए 106 कंजर उपविभागों के नाम हिंदू और छह के नाम मुसलमानी थे। कंजरों का विभाजन पेशेवर विभागों में हुआ है, जैसा उनके जल्लाद, कूँचबंद, पथरकट, दाछबंद आदि विभागीय नामों से स्पष्ट होता है। कंजरों में वयस्क विवाह प्रचलन है। यद्यपि स्त्रियों को विवाहपूर्व यौन स्वच्छंदता पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है, तथापि विवाह के पश्चात्‌ उनसे पूर्ण पति व्रता  की अपेक्षा की जाती है। स्त्रीं एवं पुरुष दोनों के विवाहेतर यौन संबंध हेय समझे जाते हैं और दंडस्वरूप वंचित पति को अधिकार होता है कि वह अपराधी पुरुष की न केवल संपत्ति वरन संतान भी हस्तगत कर ले। विवाह वधू मूल्य देकर होता है। रकम का भुगतान दो किस्तों में होता है, एक विवाह के समय और दूसरी संतोनात्पत्ति के पश्चात्‌। परंपरागत विवाहों के अतिरिक्त पलायन विवाह (मैरिज बाई एलोपमेंट) का भी चलन है। अज्ञातवास से लौटने पर युग्म पूरे गाँव को भोज पर आमंत्रिक कर वैध पति-पत्नी का पद प्राप्त कर सकता है। विधवा विवाह संभव है और विधवा अधिकतर अपने अविवाहित देवर से ब्याही जाती है।
  पेशेवर नामधारी होने पर भी कंजरों ने किसी व्यवसाय विशेष को नहीं अपनाया। कुछ समय पूर्व तक ये यजमानी करते थे और गाँव वालों का मनोरंजन करने के बदले धन और मवेशियों के रूप में वार्षिक दान पाते थे। प्रत्येक कंजर परिवार की यजमानी में कुछ गाँव आते थे जहाँ वे उत्सव और विशेष अवसरों पर नाच गाकर गाँववालों का मनोरंजन करते थे। इनमें से कुछ परिवार गाँव की, मीना और अन्य जातियों के परंपरागत भाट और वंशावली संग्रहकर्ता का काम करते थे। कुछ कंजर स्त्रियाँ भीख माँगने के साथ-साथ वेश्यावृत्ति भी करती थीं। किंतु वर्तमान कंजर अपने परंपरागत धंधों को छोड़ आर्थिक दृष्टि से अधिक लाभदायक पेशों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं।
वेशभूषा में कंजर अन्य ग्रामीण समुदायों के सदृश होते हैं। समय के साथ साथ दूसरो की तरह इनकी वेशभूषा भी बदल रही हैं|इनकी स्त्रियाँ मुसलमान स्त्रियों की भाँति लहँगे की बजाया लंबा कुरता और पाजामा पहनती हैं। खान-पान में ये कबीले जौ, बाजरे, कन्द, मूल, फल से लेकर छिपकली,बिल्ली गिरगिट और मेढ़क का मांस तक खाते हैं। छिपकली, साँडा, साँप और गिद्ध की खाल से विशेष प्रकार का तेल निकालकर ये उसे दु:साध्य रोगों की दवा कहकर बेचते हैं। भीख माँगनेवाली कंजर स्त्रियाँ प्राय: संभ्रांत कृषक महिलाओं को अपनी बातों फँसाकर बाँझपन तथा अन्य स्त्री रोगों की दवा बेचती हैं और हाथ देखकर भाग्य बताती हैं।
 कंजरों की कबीली पंचायत शक्तिशाली और सर्वमान्य सभा है। सभ्य समाज की दृष्टि से पेशेवर अपराधी माने जानेवाले कंजरों में भी कबीली नियमों के उल्लंघन की कड़ी सजा मिलती है। अपराध स्वीकृति के निराले और यातना पूर्ण ढंग अपनाए जाते हैं। कंजर कबीली देवी-देवताओं के साथ हिन्दू देवी देवताओं की भी मनौती करते हैं। विपत्ति पड़ने पर कबीली देवता 'अलमुंदी' और 'आसपाल' के क्रोध-शमन-हेतु बकरे, सुअर और मुर्गे की बलि दी जाती है। संपूर्ण भारत में एक गांव ऐसा है जहां पर इस घुमंतू जाति को स्थायी तौर पर बसाया गया है, यह ऐतिहासिक कार्य ग्राम पंचायत उमरिया, तहसील राठ जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश में लोधी समाज के बड़े जमींदार रघुवर दयाल लोधी व उनके पुत्र बृजेन्द्र सिंह उमरिया द्वारा आज से अस्सी वर्ष पूर्व किया गया था।आज भी वहां सैकड़ों कुंचबदिया परिवार स्थायी तौर पर निवास कर रहे हैं।
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