12.11.17

राजपूत जाति की उत्पत्ति का इतिहास:rajput jati itihas


   



 राजपूत उत्तर भारत का एक क्षत्रिय कुल माना जाता है।जो कि राजपुत्र का अपभ्रंश है। पुराने समय में आर्य जाति में केवल चार वर्णों की व्यवस्था थी। राजपूत काल में प्राचीन वर्ण व्यवस्था समाप्त हो गयी थी तथा वर्ण के स्थान पर कई जातियाँ व उप जातियाँ बन गईं थीं। उस समय में क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत सूर्यवंश और चंद्रवंश के राजघरानों का बहुत विस्तार हुआ। राजपूतों में मेवाड़ के महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान का नाम सबसे ऊंचा है।
    हर्षवर्धन के उपरान्त भारत मे कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो। इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे। इनके राजा राजपूत कहलाते थे तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है।
राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध मे इतिहास में दो मत प्रचलित हैं। कर्नल टोड व स्मिथ आदि के अनुसार राजपूत वह विदेशी जातियाँ है जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था। उच्च श्रेणी के विदेशी राजपूत कहलाए, चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट आबू पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी राजपूत वंश उत्पन्न हुये। इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारंपरिक घटना के रूप मे देखते हैं। दूसरी ओर गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत विदेशी नहीं है अपितु प्राचीन क्षत्रियों की ही संतान हैं। राजपूत युग की  वीरता व परा क्रम का भारतीय इतिहास मे अद्वितीय स्थान है।

  राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में उतने ही मत हैं जितने कि उसके विद्वान। जहाँ एक ओर कुछ विद्वान राजपूतों को विदेशी बताते हैं, वहीं दूसरे उन्हें देशी मानते हैं जबकि एक तीसरा मत उनकी देशी - विदेशी मिश्रित उत्पत्ति मानता है। परन्तु मतों के इस विवेचना  के पूर्व हम "राजपूत" शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार कर लेते हैं।

"राजपूत" शब्द की व्युत्पत्ति-

     डॉ० वी० एस स्मिथ की यह मान्यता है कि राजपूतोंकी आठवीं या नवीं शताब्दी में सहसा उत्पत्ति हुई, अनेक इतिहासकारों के शोध - निष्कर्षों पर यह बात निर्मूल सिद्ध होती है। जयनारायण आसोपा ने राजपूत शब्द की उत्पत्ति के स्रोत संदर्भों को आधार पर विवेचना करते हुए स्पष्ट किया है कि वैदिक कालीन 'राजपुत्र' 'राजन्य', या 'क्षत्रिय' वर्ग ही कालान्तर में राजपूत जाति में परिणत हो गया। 'राजपूत' शब्द वैदिक 'राजपुत्र' का ही अपभ्रंश शब्द है। ॠगवेद में 'कस्य धतधवस्ता भवथ: कस्य बानरा, राजपुत्रेव सवनाय गच्छद', यजुर्वेद में 'पश्वी राजपुत्रो गोपायति राजन्यों वै प्रजानामधिपति रायुध्रुंव आयुरेव गोपात्यथो क्षेत्रमेव गोवायते', तथा ॠगवेद में ही ''ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य कृत्य:'', के गहरे काले शब्द यह प्रकट करते हैं कि 'राजपुत्र' तथा 'राजन्य' समानार्थक रूप में प्रयुक्त हुए है । राजन्य 'क्षत्रिय' अर्थात् योद्धाओं के लिए प्रयुक्त होता था जो राज्य के अधिपति थे। 'मनस्मृति' में भी क्षत्रिय का यही अर्थ लिया गया है। 'शतपथ ब्राह्मण' में राजपुत्र, राजन्य तथा क्षत्रियों का पृथक रूप में उल्लेख मिलता है, ब्राह्मणकाल (१००० ई० पू०) से इनमें भेद किया जाना आरम्भ हो गया था।
    'महाभारत', 'तैत्रेय ब्राह्मण' तथा कालिदास की 'रघुवंश' काव्यकृति मे इन शब्दों का प्रयोग समानार्थक रूप में हुआ है। डॉ० गौरीशंकर प्रसाद ओझा ने 'राजपुत्र' शब्द का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र  , कालिदास के 'मालविकाग्निमित्र', अश्वघोष के 'सौंदरानंद' तथा बाणभ के 'हर्षचरित' एवं 'कादम्बरी' ग्रन्थों में विभिन्न अर्थों में किया जाना बतलाया है। कौटिल्य ने राजा के पुत्रों के लिए तथा कालिदास व अश्वघोष ने सामन्तों के पुत्रों के अर्थ में राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। ह्मवेनसांग ने यात्रा वर्णन में राजाओं को राजपुत्र के रूप में उल्लेख न कर उन्हें क्षत्रिय माना है। कल्हण की 'राजतरंगिनी' में राजपुत्र शब्द का प्रयोग भूस्वामियों के लिए किया गया है किन्तु उन्हें राजपूतों के ३६ वंशों से सम्बन्धित माना है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि १२वीं शताब्दी के आरंभ में राजपुत्र या राजपूत वंश एक जाति के रूप में अस्तित्व में आ गया था। महाभारत काल तक राजपुत्र, राजन्य तथा क्षत्रिय समानार्थक शब्द थे किन्तु बाद में राजपुत्र तथा क्षत्रियों में विभेद किया जाने लगा।
  सभी शासक 'राजन' कहलाते थे और उनके संबंधी 'राजपुत्र' प्राचीनकाल में कुछ शासक युनानी, शक एवं हूण विदेशी थे तथा कुछ शासक देश के ही क्षत्रिय जातियों के थे। इन देशी तथा विदेशी शासकों में परस्पर वैवाहिक संबंधों द्वारा विलयन की प्रक्रिया चल रही थी। शासकों तथा सामन्तों के वंशज राजपुत्र थे जो अपने राज्य विनष्ट होने के पश्चात् भी स्वयं को राजुपूत (राजपुत्र) नाम से पुकारने लगे।
   जाति  इतिहासविद  डॉ. दयाराम  आलोक के अनुसार राजपूत शब्द मूलत: 'राजपुत्र' का अपभ्रंश है जिसमें देशी तथा विदेशी शासकों का धर्म परिवर्तन द्वारा भारतीयकरण होने के बाद उनके परस्पर विलियन से या सम्मिश्रण से उत्पन्न राजपुत्र वर्ग में सम्मिलित हैं। विलियन की यह प्रक्रिया १२ वीं शताब्दी तक सम्पन्न हो चुकी थी। अत: विलयन के पूर्व राजपूत अर्थात् राजपुत्रों के मूल वंशों के आधार पर इनकी उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मत प्रचलित हो गये।   उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मतों का वर्गीकृत वर्णन नीचे दिया जा रहा है -अग्निवंशीय मत अपने वंश की उत्पत्ति देवताओं से मानने की प्राचीन परम्परा रही है; दैव उत्पत्ति से अपने वंश की श्रेष्ठता स्थापित करना एक मानवीय दुर्बलता तो है ही, इसे प्रतिष्ठा का एक सूचक भी माना जाता है। मिस्र के शासक - 'फराहो' - स्वयं को 'रा' (सूर्य) का पुत्र कहते थे और यूनानी शासक अपनी एकता बनाये रखने के लिए अपनी उत्पत्ति एक ही देवता से मानते थे। कुशाण शासक चीनी शासकों की भाँति 'देवपुत्र' की उपाधि धारण करते थे। भारत में भी कुछ लोग अपनी उत्पत्ति सूर्य, चन्द्र, अग्नि देवता से मानते थे। अग्निवंशीय मत भी सूर्य तथा चंद्रवंशीय के समान एक मिथक है। पार्टि ने सर्वप्रथम 'आग्नेय' जाति का उल्लेख महाकाव्यों और पुराणों में किया जाना बतलाया। मार्कण्डेय पुराण, महाभारत के वन पर्व तथा अनुशासन पर्व और रामायण के अयोद्धया काण्ड में आग्नेय जाति का उल्लेख किया गया है। पार्टि के अनुसार यह जाति 'कुरु क्षेत्र' के उत्तर में रहती थी। वी० एस० पाठक ने इन्हीं स्रोतों के आधार पर इस जाति का अधिवासन उत्तरीय भारत में बतलाया है, जो आगे चल कर ब्राह्मणों में परिणत हो गई। आसोपा ने मार्कण्डेय तथा विष्णु पुराण के आधार पर आग्नेय अर्थात् अग्नि से उत्पन्न जाति के पूर्वज 'अग्निधारा' (जिसके वंश में भरत नामक प्रतापी राजा हुआ) की 'मनु स्वयंभुव' से उत्पत्ति मानी जाती है। मनु स्वयंभुव 'मनु वैवस्वत' से भिन्न है। मनु वैवस्वत सूर्य वंशियों का पूर्वज था तथा 'इला' चंद्रवंशियों का पूर्वज था। ॠग्वेद में वर्णित भरतवंशी आग्नेय थे जो बाद में ब्राह्मण बने और वे चंद्रवंशीय दुष्यन्त के पुत्र भरत से संबंधित नहीं थे।
   आसोपा की मान्यता है कि अग्निवंश की मान्यता मथुरा की कपोल कल्पना मात्र नहीं है बल्कि यह महाभारत तथा पुराणों के युग तक प्राचीन है। 'अग्निजया' शब्द अग्नि से उत्पन्न वंश का द्योतक है। कृष्ण स्वामी अयंगर ने दूसरी शताब्दी के तमिल भाषा के ग्रन्थ 'पुर्नानुरु' में एक सामन्त की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बतलाई गई है। डी० सी० सरकार ने महाराष्ट्र के नानदेद जिले से प्राप्त अक उत्कीर्ण लेख में (जो ११वीं शताब्दी का है) अग्निवंश का उल्लेख पाया है। पद्मगुप्त के ग्रन्थ 'नवशशांक - चरित' (९७४ - १००० ई०) में परमार शासक को आबू पर्वत पर वशिष्ट के अग्निकुण्ड से उत्पन्न माना है तथा परमारों के परवर्ती सभी लेखों में अग्निवंशी होने का उल्लेख है। नीलकंठ शास्री को अग्निवंश का प्रमाण दक्षिण भारत के एक शासक कुलोतुंग तृतीय (११७८ - १२१६ ई०) के शिलालेख से मिलता है। चंदवरदायी द्वारा १२वीं शताब्दी के अन्त में रचित ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' में चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, चहमान तथा परमार राजपूतों की उत्पत्ति आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से बतलाई है, किन्तु इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थल पर इन्हीं राजपूतों को "रवि - शशि जाधव वंशी" कहा है।
अग्निवंशीय उत्पत्ति के स्रोतों की समीक्षा द्वारा इस मत से संबंधित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पद्मगुप्त ने परमारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बतलाते हुअ इन्हें 'ब्रह्म - क्षेत्र' भी माना है। बी० एम० राऊ ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कि वशिष्ट के वंशज परमार क्षत्रियों को (जिनके पूर्वज पहले ब्राह्मण थे किन्तु बौद्ध बन गये थे) पवित्र अग्निकुण्ड से पवित्र किया। ओझा ने 'ब्रह्मक्षत्र' की व्याख्या करते हुए कहा है कि जो शासक ब्रह्मत्तव और क्षत्रीय दोनों गुण धारण करते थे उनके लिए 'ब्रह्मक्षत्र' कहा जाता था। डॉ० दशरथ शर्मा का मत है कि परमार पहले ब्राह्मण थे किन्तु धर्म की रक्षार्थ क्षत्रिय बन गये। इसके पूर्व भी श्री शुंग, सातवाहन, कदम्ब तथा पल्लव शासक ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय कहलाये। ओझा ने अग्निवंशी मत की एक अन्य व्याख्या की है। परमार वंश के प्रथम शासक 'धूम्रराज' का एक उत्कीर्ण लेख में उल्लेख है। अत:'धूम्र' अर्थात् अग्नि से निकले हुए धुएँ से धूम्रराज की अग्निवंशी उत्पत्ति मानी गई। किन्तु अन्य अग्निवंशी राजपूतों ने इस मत को मान्यता नहीं दी है। आसोपा का मत है कि परमार ब्राह्मण से क्षत्रिय बने।
   मंडौर के प्रतिहार ब्राह्मण हरिश्चन्द्र के वंशज तथा कन्नौज के प्रतिहार लक्ष्मण के वंशज कहे जाते हैं। अत: प्रतिहार भी ब्राह्मण से क्षत्रिय बने। चहमानों का पूर्वज सामन्त बिजोलिया लेख के अनुसार विप्र था। चालुक्य भी अभिलेखों के आधार पर ब्राहम्णों के वंशज थे। इस प्रकार 'पृथवीराज रासो' में उल्लिखित सभी चार राजपूत वंश ब्राह्मण से क्षत्रिय बने। अग्निवंशी कहने का तात्पर्य था कि अग्निकुण्ड से उनकी शुद्धि की गई। ये ब्राह्मण अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति बनाये रखने के लिए अग्निवंशी राजपूत कहलाये।
    डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने चन्दवरदाई के 'पृथवीराज रासो' वर्णित अग्निकुण्ड से उत्पन्न चार राजपूत वंशों के प्रकरण को मात्र कवि की कल्पना माना है। भाटों, मुहतों, नेणसी और सूर्यमल्ल मिश्र ने इस मत का काफी प्रचार किया किन्तु १६वीं शताब्दी के अभिलेखों व साहित्यिक ग्रन्थों से यह प्रमाणित होता हे कि इन चार राजवंशों में से तीन - प्रतिहार, चौहान व परमार सूर्यवंशी तथा (चालुक्य) चन्द्रवंशी थे। डॉ० दशरथ शर्मा ने भी अग्निवंश मत को भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र बतलाया है। डॉ० ईश्वरीप्रसाद इसे तथ्य रहित बतलाते हुए लिखते हैं कि ब्राह्मणों का एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है। कुक इस मत के सम्बंध में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अग्निवंशी कहने का तात्पर्य है कि विदेशी तथा देशी शासकों को अग्नि से पवित्र कर राजपूत जाति में सम्मिल्लित किया गया। जे० एन० आसोपा का पूर्व उल्लिखित मत भी विचारणीय है कि ब्राह्मण जो क्षत्रिय बने थे अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति को बनाये रखने के लिए राजपूत कहलाये।

सूर्य तथा चंद्रवंशीय मत-

   अग्निवंशी राजपूतों के समान ही अपनी दैव उत्पत्ति मानते हुए राजपूत वंशों ने स्वयं को सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी होने की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। डॉ० ओझा अग्निवंशी मत का खण्डन करते हुए राजपूतों को सूर्य और चंद्रवंशीय मानते हैं। इसके प्रमाण स्वरुप शिलालेखों व ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि नाथ लेख (९७१ ई०) आरपूर लेख (१२८५ ई०), आबू शिलालेख (१४२८ ई०) तथा श्रृंगी के लेख में गुहिल वंशी राजपूतों को रघुकूल (सूर्यवंश) से उत्पन्न माना है। पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य और सुजान चरित्र में चौहानों को क्षत्रिय माना है। वंशावली लेखकों ने राठौरों को सूर्यवंशी और यादवों, भाटियों एवं चंद्रावती के चौहानों को चंद्रवंशी माना है। इन प्रमाणों के आधार पर डॉ० ओझा राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों के वंशज मानते हैं।
  डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने इस मत को सभी राजपूतों की उत्पत्ति के लिए स्वीकार करना आपत्तिजनक माना है क्योंकि राजपूतों को सूर्यवंशी बतलाते हुए उनका वंशक्रम इक्ष्वाकु से जोड़ दिया गया है जो प्रथम सूर्यवंशी राजा था। बल्कि सूर्यवंशी और चंद्रवंशी समर्थक भाटों ने तो राजपूतों का संबंध इन्द्र, पद्मनाथ, विष्णु आदि से बताते बुए काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है। इन मतों के समर्थक किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाये। अत: डॉ० गोपीनाथ शर्मा यह मानते हैं कि इस मत का एक ही उपयोग दिखाई देता है कि ११वीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया, क्योंकि इन्होंने क्षात्र - धर्म के अनुसार विदेशी आक्रमणों का सामना सफलतापूर्वक किया। आगे चलकर यह मत लोकप्रिय हो गया और तभी से इसको मान्यता प्रदान की जाने लगी।
    जयनारायण ओसापा ने सूर्य तथा चंद्रवंशी मिथक का विश्लेषण करते हुए यह मान्यता प्रकट की है कि सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी मूलत: आर्यों के दो दल थे जो भारत आये। पहला दल मध्य एशिया की जैक्सर्टीज तथा दूसरा दल उसी प्रदेश की इली नदियों से चलकर भारत में प्रविष्ट हुआ। महाभारत तथा पुराणों में सर्वप्रथम राजपूतों की सूर्य तथा चंद्र से उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। पार्टि की यह मान्यता है कि सूर्यवंशी क्षत्रिय द्रविड़ थे और चंद्रवंशी क्षत्रिय प्रयाग में शासक थे। सी०वी० वैद्य इसे अस्वीकार करते हैं। वैंडीदाउ के आधार पर वैद्य यह मानते हैं कि सुदूर उत्तरी देशों से आर्यों की एक शाका ने भारत में प्रवेश किया और वे सप्त सिंधु में बस गये। वैद्य ने भारत की जनगणना रिपोर्ट (१९२१) के आधार पर कहा है कि आर्यों का पहला दल उत्तरी भारत में आये जिनकी प्रतिनिधि भाषाएँ राजस्थानी, पंजाबी, पहाड़ी तथा पूर्वी हिन्दी है। आर्यों का दूसरा दल उत्तरी भारत में प्रवेश कर दक्षिण से जबलपुर, दक्षिण - पश्चिम में काठियावाड़ तथा उत्तर - पूर्व में नेपाल तक पहुँच गया। ये दो आर्यों के दल ही महाभारत काल के सूर्य व चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाने लगे। वैद्य की मान्यता है कि मनु स्वयंभुव वंशज भरत ॠग्वेद में वर्णित भारत जाति है जो महाकाव्य काल में सूर्यवंशी कहलाये। यह आर्यों का पहला दल था। दूसरे दल में ॠग्वेद वर्णित यदु, तुर्वस, अनुस, द्रहयु तथा पुरु वर्ग के लोग थे जो चंद्रवंशी कहलाये।
   आसोपा, वैद्य की उपर्युक्त मान्यता को भाषायी आधार पर स्वीकार नहीं करते तथा वे ॠग्वेद के भारत तथा मनु स्वयंभुव के वंशज भरत को एक वर्ग का नहीं मानते। सूर्यवंशी इक्ष्वाकु राजा मनु वैवस्तव का पुत्र था, न कि मनु स्वयंभुव का। वैवस्तव का अर्थ सूर्य है जिसके वंशज इक्ष्वाकु कहलाये। वेदों में वर्णित 'इक्ष्वाकु' आर्यों के प्रथम दल के सूर्यवंसी थे तथा 'अइल' आर्यों के दूसरे दल के चंदवर्ंशी थे। आसोपा ने 'इक्ष्वाकु' तथा 'अइल' के मूल अधिवासन स्थल की खोज करते हुए कहा है कि महाभारत व हरिवंश पुराण में वर्णित 'इक्षुमति' नदी कुरुक्षेत्र में थी। रामायण में भी इसका उल्लेख है। स्ट्रैबो ने भी व्यास और यमुना नदियों के बीच एक नदी इमेसस (इक्षुमति) का उल्लेख किया है जिसे यूनानी मिनेन्डर ने पार किया था। इससे प्रतीत होता है कि आर्यों की इक्ष्वाकु शाखा 'इक्षुमति' नदी के तटों पर बस गई थी। मध्य एशिया में जैक्सर्टीज नदी में आनेवाले इन आर्यों ने भारत में कुरुक्षेत्र प्रदेश की नदी का नाम भी जैक्सर्टीज का भारतीय रूप इक्षुमति रख दिया तथा स्वयं इक्ष्वाकु कहलाये। इनका शासन इक्ष्वाकु मनु वैवस्तव (सूर्य) का पुत्र था। इसके कारण ही सूर्यवंशी मत का प्रचलन हुआ।
 महाभारत, हरिवंश तथा विष्णु पुराण में पंजाब की नदी 'इरा' का उल्लेख है जो अब 'रावी' के नाम से पुकारा जाती है। रामायण के अयोध्या काण्ड में वर्णन है कि भरत ने कैकेय प्रदेश से आते हुए शतद्रु के तट पर 'अइल' राज्य को पार किया। इससे स्पष्ट होता है कि 'अइल" आर्यों की दूसरी शाखा का अधिकार क्षेत्र 'इरा' (रावी) तथा "शतद्रु' (सतलज) नदियों के मध्य था। मध्य एशिया में, जहाँ से आर्य भारत आये, जैक्सर्टीज (इक्ष्वाकु) नदी के उत्तर में एक ओर नदी 'इली' थी। इली नदी से भारत आने वाली दूसरी शाखा के आर्य 'अइल' थे जो चन्द्रवंशी कहलाये। रुस में उत्खनन द्वारा भी आर्यों के अवशेष इस 'इली' नदी के तट पर मिले हैं। मध्य एशिया के यू - ची 'चन्द्रमा के लोग' इली नदी के तट पर बसे थे। इससे प्रतीत होता है कि जब ये लोग भारत आये थे तो स्वयं को चंद्रवंशी कहने लगे। आसोपा की मान्यता है कि इक्ष्वाकु मनु वैवस्तव से संबंधित थे। ये आर्य थे जो जैक्सर्टीज से होते हुए इक्षुमति को पार करके भारत में पूर्व की ओर चले गये। अइल भी जो सोम ॠषि तथा बुद्ध के वंशज थे, आर्य थे। ये इली व इरा नदी के तट पर रहते थे जिन्होंने यह नाम अन्य स्थानों तथा नदियों को भी दिया जहाँ वेगये। भारत की इरावती नदी तथा लंका का प्राचीन नाम इला भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं। अत: आसोपा की मान्यता है कि सूर्यवंशी व चंद्रवंशी क्षत्रिय आर्यों की वे दो शाखआएँ थीं जो मध्य एशिया से भारत आईं। एक शाखा वहाँ की जैक्सर्टीज नदी तच पर तथा दूसरी शाखा वहाँ की इली नदी के तट से भारत आईं।
विदेशी वंश का मत
    पिछले दोनों मतों के विपरीत इतिहासकार कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक और सिथियन बताया है। इसके प्रमाण में वे राजपूतों में प्रचलित ऐसे रीति - रिवाजों का उल्लेख करते हैं जो शक जाति के रीति - रिवाजों से साम्य रखते हैं। सूर्य की पूजा, सती प्रथा, अश्वमेघ यज्ञ, मद्यपान, शस्रों और घोड़ों की पूजा तथा तातारी और शकों की पुरानी कथाओं का पुराणों की कथाओं से साम्य रखना ऐसे तथ्य हैं जो राजपूतो की विदेशी उत्पत्ति प्रकट करते है। डॉ० स्मिथ ने भी शक, यूचि, गुर्जर व हूण विदेशी जातियों का भारत में धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बन जाना स्वीकार किया है और इन विदेशी जातियों के राज्य स्थापित हो जाने पर उससे राजपूतों की उत्पत्ति मानी है। राजपूतों ने एपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु स्वयं को चन्द्र या सूर्यवंशी कहना प्रारम्भ किया। कर्नल टॉड की पुस्तक का सम्पादन करने वाले विलियम कुक भी इस मत का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि वैदिक कालीन क्षत्रियों एवं मध्यकालीन राजपूतों की अवधि का अन्तराल इतना अधिक है कि दोनों के सम्बन्ध मूलवंश - क्रम से संबंधित करना संभव नहीं है। शक, सिथियन, हूण आदि विदेशी जातियाँ हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश - रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अत: उन्हें महाभारत तथा रामायण काल के क्षत्रियों से संबंधित कर दिया गया और सूर्य तथा चंद्रवंशी माना गया।
    डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने विदेशी उत्पत्ति को अस्वीकार किया है। जिन रीति - रिवाजों के आधार पर राजपूतों और शकों का साम्य किया गया है वे रीति - रिवाज वैदिक काल तथा पौराणिक काल में भी भारत में विद्यमान थे। डॉ० ओझा ने अभिलेखों के आधार पर तथ्य प्रकट किया है कि मौर्य और नन्दवंश के पतन के बाद भी सातवीं सदी तक क्षत्रियों का अस्तित्व था। द्वितीय शताब्दी के राजा खारवेल के उदयगिरी - लेख में 'कुसंब जाति के क्षत्रियों' का उल्लेख है, इसी अवधि के नासिक की पाण्डव गुहा लेख में 'उत्तम भाद्रक्षत्रियों' का वर्णन है, गिरिनार पर्वत -लेख में 'यौधेयों' को क्षत्रिय कहा गया है तथा तीसरी सदी के नागार्जुन कोंड - लेख में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का उल्लेख है।
    यद्यपि डॉ० ओझा के विदेशी मत के विपक्ष में ये तर्क महत्वपूर्ण हैं किन्तु जो विदेशी भारत में आकर बस गये, उनका भारतीय समाज में विलनीकरण कैसे हुआ, यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है। डॉ० गोपीनाथ शर्मा का मत है - 'इस प्रश्न को हल करने में हमें यही युक्ति सहायक होगी कि इन विदेशियों के यहाँ आने पर पुरानी सामाजिक व्यवस्था में अवश्य हेर - फेर हुआ।
   डॉ० स्मिथ, कुक से सहमत होते हुए यह मानते हैं कि पृथ्वीराज रासो में जिन चार राजपूत वंशों की अग्निकुण्ड से उत्पत्ति बतलाई गई है, वे सभी विदेशी थे जिनको अग्नि द्वारा पवित्र कर राजपूत बनाया गया। दक्षिण के राजपूतों की उत्पत्ति तक गौड़, भार, कोल आदि जन - जातियों से मानते हैं। डॉ० आर० भण्डारकर प्रतिहारों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हुए अन्य अग्निवंशीय राजपूतों को भी विदेशी उत्पत्ति का कहते हैं। नीलकण्ठ शास्री विदेशियों के अग्नि द्वारा पवित्रीकरण के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं क्योंकि पृथ्वीराज रासो से पूर्व भी इसका प्रमाण तमिल काव्य 'पुरनानूर' में मिलता है। बागची गुर्जरों को मध्य एशिया की जाति वुसुन अथवा 'गुसुर 'मानते हैं क्योंकि तीसरी शताब्दी के अबोटाबाद - लेख में 'गुशुर 'जाति का उल्लेख है। जैकेसन ने सर्वप्रथम गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है। पंजाब तथा खानदेश के गुर्जरों के उपनाम पँवार तथा चौहान पाये जाते हैं। यदि प्रतिहार व सोलंकी स्वयं गुर्जर न भी हों तो वे उस विदेशी दल में भारत आये जिसका नेतृत्व गुर्जर कर रहे थे।
    सी० वी० वैद्य विदेशी उत्पत्ति को अस्वीकार करते हुए राजपूतों की वैदिक आर्यों से उत्पत्ति मानते हैं। इसके लिये वे पहला तर्क देते हैं कि केवल वैदिक आर्यों की संतान ही अपने धर्म की रक्षार्थ विदेशी आक्रांकाओं से युद्ध कर सकते थे। दूसरा तर्क यह है कि राजपूतों की सूर्य अवं चंद्रवंशीय होने की परम्परा उन्हें उन दो तथ्यों आर्यों के दलों का वंशज सिद्ध करता है जिन्होंने मध्य एशिया से भारत में प्रवेश किया। तीसरा तर्क १९०१ में हुई भारत की जनगणना से राजपूतों का आर्य वंश का होना प्रकट होता है।
   डॉ० गौरीशंकर ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति संबंधी उपर्युक्त देशी व विदेशी मतों में सामन्जस्य स्थापित करते हुए कहा है कि राजपूत वैदिक क्षत्रियों के वंशज थे तथा जिन विदेशी जातियों - सिथियन, कुषाण, हूण, आदि का भारतीयकरण हुआ, वे भी मध्य एशिया की आर्य जाति के ही वंशज थे। यह मत टॉड तथा वैद्य के विरोधी मतों में सामन्जस्य कर देता है। डॉ० दशरथ शर्मा ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत की समस्त जनता युद्ध - प्रिय जातियाँ स्वयं को क्षत्रिय होने का अधिकार रखती थीं। आसोपा ने भी इस मत का समर्थन किया है जो तर्कसम्मत प्रतीत होता है।

गुर्जर वंश का मत=

    विदेशी वंश के मत के संदर्भ में यह व्यक्त किया जा चुका है कि कुछ विद्वान राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति गुर्जर होना मानते हैं। राजौर शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। गुर्जर कनिष्क के समय भारत आये और गुप्तकाल में सामन्त रूप में रहे। जैक्सन ने भी गुर्जरों 'हूणों' के साथ भारत अभियान पर आये 'खजर' जाति का माना है। आसोपा का मत है कि गुर्जरों ने छठी शताब्दी में राजस्थान तथा गुजरात में राज्य स्थापित कर लिये थे। ह्मवेनसांग ने इस प्रदेश को 'कुच -लो' अर्थात् गुजरात कहा है। बाणभ के ग्रन्थ 'हर्षचरित' में गुर्जर देश का उल्लेख है। अरब यात्री गुर्जरों को 'जुर्ज' कहते थे। नागौर जिले में दधिमाता मंदिर के शिलालेख में गुर्जर प्रदेश का उल्लेख है जो वहाँ की जोजरी नदी के कारण इस नाम से पुकारा गया है। ये साक्ष्य प्रकट करते हैं कि गुर्जर राजस्थान व गुजरात में निवास करते थे। किन्तु डॉ० गोपीनाथ शर्मा तथा डॉ० ओझा 'गुर्जर' शब्द का अर्थ प्रदेश विशेष मानते हैं शिलालेखों में इस प्रदेश के शासक को 'गुर्जरेश्वर 'या 'गुर्जर' कहा गया है।
डॉ० सत्यप्रकाश राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति गुर्जर से मानना स्वीकार नहीं करते क्योंकि गुर्जर विदेशी नहीं थे और ह्मवेनसांग ने भी गुर्जर को क्षत्रिय माना है। गुर्जर प्रतिहारों के शिलालेखों में भी उन्होंने भारतीय आर्यों की संतान माना है। अत: निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुर्जर भारतीय थे और वे भारतीय क्षत्रिय वंश से संबंधित थे।

ब्राह्मणवंशीय मत-

   बिजोलिया - शिलालेख में वासुदेव (चहमान) के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स - गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है। राजशेखर ब्राह्मण का विवाह राजकुमारी अवन्ति सुन्दरी से होना भी चौहानों का ब्राह्मणवंशीय होना प्रकट करता है। 'कायमखाँ रासो' में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बतलाई गई है जो जमदग्नि गोत्र में था। इस तथ्य का साक्ष्य सुण्चा तथा आबू अभिलेख है। डॉ० भण्डारकर का मत है कि गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से थी।
     डॉ० ओझा तथा वैद्य इस ब्राह्मणवंशीय मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि 'द्विज ब्रह्माक्षत्री', 'विप्र' आदि शब्दों का प्रयोग राजपूतों को क्षत्रिय जाति की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिए। डॉ० गोपीनाथ शर्मा कुम्भलगढ़ - प्रशस्ति के आधार पर गुहिलवंशीय राजपूतों को ब्राह्मण वंशीय माना है। चाटसू अभिलेख में गुहिल भर्तृभ को 'ब्रह्मक्षत्री' इसलिये कहा गया है कि उसे ब्राह्मण संज्ञा से क्षत्रित्व प्राप्त हुआ। पहले भी कण्व तथा शुंग ब्राह्मणवंशीय क्षत्रिय शासक हुए हैं।

वैदिक आर्य वंश का मत-

    सूर्य तथा चंद्रवंशीय मतों के संदर्भ में यह विवेचन किया जा चुका है कि राजपूत वैदिक आर्यों की दो शाखाओं ने भारत में कुछ कालान्तर में प्रवेश किया। डॉ० ओसापा का मत है कि आर्यों की ये दो शाखआओं मध्य एशिया से भारत आईं। मध्य एशिया में इनके निवास - स्थल दो नदियों जैक्सर्टीज (इक्ष्वाकु) तथा इली के तट पर स्थित थे। इक्ष्वाकु से आने वाले चंद्रवंशीय क्षत्रिय कहलाये। रामायण, महाभारत, हरिवंश तथा विष्णु पुराणों के आधार पर यह तथ्य प्रकट होता है चीनी स्रोतों तथा रुस में हुए उत्खनन द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है।
इस मत के आधार पर पश्चिमोत्तर प्रदेश से भारत में प्रवेश करने वाले आर्यों के समान अन्य विदेशी भी मूलत: आर्यवंशी प्रतीत होते हैं। भारत में ये विदेशी जातियाँ भी राज्य स्थापित कर राजपूत जाति के रूप में संगठित हो वैदिक आर्यों के क्षत्रिय वंश से अपना संबंध सूर्य तथा चंद्रवंशी बनकर स्थापित करने लगे।

निष्कर्ष-

   राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी उपर्युक्त मता - विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत जाति में देशी क्षत्रिय तथा विदेशी, शक, पह्मलव, हूण आदि भी भारत में राज्य स्थापितकर 'राजपुत्र' बन इसमें सम्मिलित हो गये। डॉ० गोपीनाथ शर्मा की व्याख्यानुसार जिस तरह शक, पह्मलव, हूण आदि विदेशी यहाँ आए और जिस तरह इनका विलीनीकरण भारतीय समाज में हुआ, इसकी साक्षी इतिहास है। ये लोग लाखों की संख्या में थे। पराजित होने पर इनका यहाँ बस जाना प्रामाणिक है। ऐसी अवस्था में उसका किसी न किसी जाति से मिलना स्वाभाविक था। उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील होने से अपने में मिलाया। इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी, जो यकायक क्षात्र - धर्म से सुसज्जित होकर प्रकाश में आ गई और शकादिकों का अस्तित्व समाप्त हो गया। यह स्थिति सामाजिक उथल - पुथल की पोषक है। हरिया देवी नामक हूण कन्या का विवाह गुहिलवंशी अल्लट के साथ होना, जो कि सं० १०३४ के शक्तिकुमार शिलालेख से स्पष्ट है इस सामंजस्य का अकाट्य प्रमाण है जब सभी राजसत्ता ऐसी जाति के हाथ आ गई तो ब्राह्मणों ने भी उन्हें क्षत्रिय की संज्ञा दी। उनकी राजनैेतिक स्थिती ने उन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा प्रदान की जिसे लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे। इस सम्बन्ध में इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि सम्भवत: सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ एक वंशों ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये रखा हो।

Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे

कोई टिप्पणी नहीं: