17.10.17

गायत्री उत्पत्ति की कथा





पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
गायत्री वह शक्ति केन्द्र है जिसके अंतर्गत विश्व के सभी दैविक, दैहिक, भौतिक छोटे-बड़े शक्ति तत्व अपनी-अपनी क्षमता और सीमा के अनुसार संसार के विभिन्न कार्यों का सम्पादन करते हैं। इन्हीं का नाम देवता है। ये ईश्वरीय सत्ता के अंतर्गत उसी के अंश रूपी इकाइयाँ हैं जो सृष्टि संचालन के विशाल कार्यक्रम में अपना कार्य भाग करते रहते हैं। जिस प्रकार एक शासन-तंत्र के अंतर्गत अनेकों अधिकारी अपनी-अपनी जिम्मेदारी निबाहते हुए सरकार का कार्य संचालन करते हैं, जिस प्रकार एक मशीन के अनेकों पुर्जे अपने-अपने स्थान पर अपने-अपने क्रिया कलापों को जारी रखते हुए उस मशीन की प्रक्रिया सफल बनाते हैं, उसी प्रकार यह देव तत्व भी ईश्वरीय सृष्टि व्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की विधि व्यवस्था का सम्पादन करते हैं।
गायत्री एक सरकार एवं मशीन के सदृश है जिसके अंग प्रत्यंगों के रूप में सभी देवता गुँथे हुए हैं। गायत्री के तीन अक्षर सत, रज, तम, तीन तत्वों के प्रतीक हैं। इन्हीं को स्थिति के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश-सरस्वती, लक्ष्मी, काली कहते हैं। इन्हीं तीन श्रेणियों में विश्व की सभी स्थूल एवं सूक्ष्म शक्तियों की गणना होती हैं। जितनी भी शुभ-अशुभ, उपयोगी अनुपयोगी, शान्ति-अशाँति की प्रक्रियाएं दृष्टिगोचर होती हैं वे इन्हीं सत, रज, तम तत्वों के अंतर्गत हैं और यह तीन तत्व गायत्री के तीन चरण हैं। इस प्रकार समस्त शक्ति तत्वों का मूल आधार गायत्री ही ठहरती है।
ब्रह्मा, इस विशाल सृष्टि का मूल कारण तो अवश्य है पर स्वभावतः साक्षी दृष्टा के रूप में स्थित रहता हुआ स्वयं अपने आप में निष्क्रिय है। उसकी ‘गतिशीलता’ ही वह तत्व है जिसके द्वारा जगत के स्थूल और सूक्ष्म विभिन्न कार्यक्रम सम्पन्न होते हैं। इस गतिशीलता को ही प्रकृति, माया, चेतना, ब्रह्मपत्नी आदि नामों से पुकारा गया है। यही गायत्री है।
परमात्मा की कार्यकर्त्री देव शक्ति
सृष्टि का आरम्भ करते हुए परमात्मा ने अपने भीतर से जो शक्ति तत्व प्रादुर्भूत किया और सृष्टि संचालन की सार व्यवस्था उसे सौंप कर स्वयं निश्चित हो गया। इस प्रकार वह ब्रह्म निर्लिप्त, निरधिष्ठ, निरवद्य एवं अव्यय बना रहा और संसार का सारा कार्य उस प्रादुर्भूत शक्ति तत्व के द्वारा संचालित होने लगा। इस रहस्य का उद्घाटन निम्न प्रमाणों में होता है।
देवीह्यकोऽग्र आसीत्। सैव जगदण्डमसृजत्...... तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजी जनत्...... सर्वमजी जनत्.....सैषा पराशक्तिः।
-वृहवृचोपनिषद
सृष्टि के आरम्भ में वह एक ही देवी शक्ति थी। उसी ने यह ब्रह्माण्ड बनाया। उसी से ब्रह्मा उपजे। उसी ने विष्णु, रुद्र उत्पन्न किये। सब कुछ उसी से उत्पन्न हुआ। ऐसी है वह पराशक्ति।
निर्दोषो निरधिष्ठेयो निरवद्यसनातनः।
सर्वकार्यकरी साहं विष्णोरव्यय रुपिणः॥
-लक्ष्मीतंत्र
वह ब्रह्म तो निर्दोष, निरधिष्ठ, निरवद्य, सनातन अव्यय है। उनकी सर्व कार्यकारिणी शक्ति तो मैं ही हूँ।
इस महाशक्ति की सर्व व्यापकता का, सभी पदार्थों की अधिष्ठात्री विभूति, एवं सभी हलचल की मूल प्रेरिका होने का वर्णन अनेक ग्रन्थों में मिलता है। देखिए-
स्वं भूमि सर्व भूतानाँ प्राणः प्राणवताँ तथा। धीः श्रीः कान्तिः क्षमा शान्ति श्रद्धा मेधा धृतिः स्मृतिः स्व मुद्गीथेऽघ्धं मात्रासि गायत्री व्याहृति स्तथा। -
देवी. भा. 1-5
तुम्हीं सब प्राणियों को धारण करने वाली भूमि हो। प्राणवानों में प्राण हो। तुम्हीं धी, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेधा, घृति, स्मृति हो तुम ही ओंकार की अर्धयात्रा उद्गीथ हो, तुम ही गायत्री व्याहृति हो।
पूषार्यम मरुत्वाँश्च ऋषयोऽपि मुनीश्वराः। पितरोनागयक्षाश्च् गन्धर्वाप्सरसा गणाः॥
ऋगयजु सामवेदाश्च अथर्वांिगरसानि च।
त्वमेव पञ्च भूतानि तत्वानि जगदीश्वरि॥
ब्राह्यी सरस्वती सन्ध्या तुरीया त्वं महेश्वरी।
त्वमेव सर्व शास्त्राणि त्वमेव सर्व संहिता।
पुराणानि च तंत्राणि महागम मतानि च॥
तत्सद् ब्रह्म स्वरूपा त्वं किञ्चित्सद सदात्मिका। परात्वरेशी गायत्री नमस्ते मातरम्यिके॥
-वशिष्ठ संहिता
पूषा, अर्यमा, मरुत, ऋषि, मुनीश्वर, पितर, नाग, यज्ञ, गंधर्व, अप्सरा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, अंगिरस, पंचभूत, ब्राह्मी, सरस्वती एवं संध्या -हे महेश्वरी तुम ही हो। सर्व शास्त्र, संहिता, पुराण, तंत्र, आगम, निगम तथा और भी जो कुछ इस संसार में है सो हे ब्रह्मरूपिणी, पराशक्ति गायत्री तुम ही हो। हे माता तुम्हें प्रणाम है।
आदित्य देवा गन्धर्वा मनुष्याः पितरो सुराः तेषाँ सर्व भूतानाँ माता मेदिनी माता मही सावित्री गायत्री जगत्युर्वी पृथ्वी बहुला विद्या भूता।
-नारायणोपनिषद्
अर्थात्-देव, गंधर्व, मनुष्य, पितर, असुर इनका मूल कारण अदिति अविनाशी तत्व है। वह अदिति सब भूतों की माता मोदिनी और माता सही है। उसी विशाल गायत्री के गर्भ में विश्व के सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।
परमात्मास्तु या लोके ब्रह्मशक्ति र्विराजते।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्री त्यमिधीयते।
अर्थात्- सब लोकों में विद्यमान जो सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति है वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं सतोगुणी प्रकृति में निवास करती है। यह चेतन शक्ति गायत्री ही हैं।
अहं रुद्रोभिर्वसुभिञ्चराम्यहमादित्यैरुत विश्व देवैः। अहं मित्रावरुणोभाविभर्ग्य हमिन्द्राग्नी अहिमश्वि नोभा।
- ऋग्वेद 8।7।11
मैं ही रुद्र, वसु, आदित्य और विश्वेदेवों में विचरण करती हूँ। मैं ही मित्र, वरुण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों का रूप धारण करती हूँ।
मया से अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितिय ई श्रृणोत्युक्तम्। अमन्त वो माँ त उप क्षियन्ति श्रधि श्रुत श्रद्धि वं ते वदामि।
यह विश्व मुझ से ही जीवित है। मेरे द्वारा ही उसे अन्न मिलता है। मेरी शक्ति से ही वह बोलता और सुनता है। जो मेरी उपेक्षा करता है वह नष्ट हो जाता है। श्रद्धावानों, सुनो। यह सब मैं तुम्हारे ही कल्याण के लिए कहती हूँ।
विभूतियों का भण्डागार
इस महाशक्ति का विस्तार अत्यन्त व्यापक है जब समस्त सृष्टि की अगणित प्रक्रियाओं का संचालन उसी के द्वारा होता है तो कितने प्रकार की शक्तियाँ उसके अंतर्गत काम करती होंगी, इसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। पर मनुष्य सीमित है। उसकी आवश्यकतायें एवं आशंकायें भी सीमित हैं, जिन वस्तुओं को प्राप्त करके उसका व्यक्तित्व निखर उठता है एवं मन उल्लसित हो जाता है वे विभूतियाँ भी सीमित हैं। यह सीमित वस्तुएं गायत्री का एक बहुत छोटा अंशमात्र है। मनुष्यों में जो कुछ प्रशंसनीय एवं आकर्षक विशेषतायें दिखाई पड़ती है उन सबको उस महाशक्ति को छोटा सा प्रसाद हो समझना चाहिए। मानव शरीर में वह शक्ति किन प्रमुख रूपों में अधिष्ठित है इसका परिचय देते हुए माता स्वयं कहती है :-
अहं बुद्धि रहं श्रीश्च् धृतिः कीर्तिः स्मृतिस्तथा।
श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा॥
कान्तिः शान्तिः पिपासा च निद्रा तन्द्रा जरा जरा। 

विद्याविद्या स्पृहा वाँछा शक्ति श्चाशक्ति रेवच॥
वसा मज्जा च त्वक चाहं दृष्टिर्वागनृता ऋता।
परामध्या च पश्यन्ती नाडयेऽहं विविधाश्च् याः॥
किं नाहं पश्य संसारे मद्वियुक्तं किमस्ति हि।
सर्वमेवाहभित्येव निश्च्यं विद्धि पद्मज।
मैं क्या नहीं हूँ? इस संसार में मेरे सिवाय और कुछ नहीं है। बुद्धि, श्री, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शाँति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, वांछा, शक्ति, वसा, मज्जा, त्वचा, दृष्टि, असत और संत वाणी, परा, मध्यमा, पश्यन्ती, नाड़ी संस्थान आदि निश्चय ही सब कुछ मैं हूँ।
अहमेक स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः। यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृर्षिं तं सुमेधा।
मैं तत्वज्ञान का उपदेश करती हूँ। मैं जिसे चाहती हूँ उसे समुन्नत करती हूँ, उसे सुबुद्धि देती हूँ ऋषि बनाती हूँ और ब्रह्मपद प्रदान करती हूँ।
रहस्यों का जानना आवश्यक है
गायत्री तत्व के सूक्ष्म रहस्यों को जानने के उपरान्त ही उसकी उपासना वास्तविक रूप में होना संभव है। उसके मर्म विज्ञान को समझो बिना साधारण रीति से जो उपासना क्रम चलाया जाता है, उसका परिणाम तो होता है पर उसकी मात्रा स्वल्प ही होती है। उपासना का समुचित सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए इस विज्ञान के रहस्यों को समझना और उनका अनुशीलन करना आवश्यक है। मनुष्य की आत्मा पर चढ़े हुए मल, विक्षेप आवरणों को हटाने के लिए जैसी तीव्र साधना एवं गहन निष्ठा की आवश्यकता है उसको उपलब्ध करने के गायत्री के तत्वज्ञान को समझना चाहिए।
शतपथ ब्राह्मण में एक आख्यायिका आती है जिसमें यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि पुरोहित गायत्री के मर्म से वंचित रहने के कारण साधारण उपासना करते रहने पर भी समुचित परिणाम प्राप्त न कर सका। आख्यायिका इस प्रकार है :-
एतर्द्धव तज्जनको द्यैदेही बुडिल माश्वतं राश्वि भुवाच यन्नु हो तदगायत्री विदव्रू था ऽअथकथœहस्ती भूतोव्वह सीति मुखंहास्या सम्राशन विवाञ्चकरेति हो वाच। तस्या ऽग्निरेव मुखं यदि हवाऽअपि वह्विवाग्ना वभ्यादघति सर्वमेव तत्सन्द हत्येव वœ है वैव विद्यद्यपि वह्विव सर्व मेव सत्संरसा शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः संभवति। -शतपथ
अर्थात्-”राजा जनक का पूर्व जन्म का पुरोहित बुडिल अनुचित दान लेने के पाप से मर कर हाथी बन गया। किन्तु राजा जनक ने विज्ञान तप किया और उसके फल से वह पुनः राजा हुआ। राजा ने हाथी को उसके पूर्व जन्म का स्मरण दिलाते हुए कहा-आप तो पूर्व जन्म में कहा करते थे कि मैं गायत्री का ज्ञाता हूँ। फिर अब हाथी बन कर क्यों बोझ ढोते हो? हाथी ने कहा मैं पूर्व जन्म में गायत्री का मुख नहीं समझ पाया था इसीलिये मेरे पाप नष्ट न हो सके।”
“गायत्री का प्रधान अंग मुख अग्नि ही है जैसे जो ईंधन डाले जाते हैं उन्हें अग्नि भस्म कर देती है वैसे ही गायत्री का मुख जानने वाले आत्मा अग्नि मुख होकर पापों से छुटकारा प्राप्त कर अजर अमर हो जाता है।”
गायत्री के जिस मुख को ऊपर की पंक्तियों में वर्णन है वह उसका प्रवेश द्वार-आरम्भिक ज्ञान है। जिस प्रकार भोजन को पेट में पहुँचाने के लिए मुख ही उसका प्रारम्भिक प्रवेश द्वार होता है उसी प्रकार उपासना का मुख यह है कि उपास्य के बारे में आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया जाय? यह ज्ञान ग्रन्थों के स्वाध्याय द्वारा एवं उस विद्या के विशेषज्ञों के सत्संग से जाना जा सकता है। यह दोनों ही माध्यम प्रत्येक सच्चे जिज्ञासु को अनिवार्यतः अपनाने चाहिए।
गायत्री ज्ञान-विज्ञान की महत्ता बताते हुए उपनिषद्कार ने बताया है कि ज्ञानपूर्वक की हुई उपासना से आत्मा में सन्निहित दिव्य तत्वों का विकास होता है और इस जीवन तथा संसार में जो कुछ प्राप्त होने योग्य है वह सभी कुछ उसे प्राप्त हो जाता है।
यो ह वा एवं चित् स ब्रह्म वित्पुण्याँ च कीर्ति लभते सुरभींश्च् गन्वान्। सोऽपहत पाप्मानन्ताँ श्रिय मश्नुतेय एवं वेद, यश्चौवं विद्वानेवमेत वेदानाँ मातरं सावित्री सम्पदभुपनिषद मुपास्त इति ब्राह्मणम्।
- गायत्री उपनिषद्
जो इस प्रकार वेदमाता गायत्री को जान लेता है वह ब्रह्मवित्, पुण्य, कीर्ति एवं दिव्य गन्धों को प्राप्त करता है और निष्पाप होकर श्रेय का अधिकारी बनता है
तीन चरणों की अनन्त सामर्थ्य
गायत्री को त्रिपदा कहा गया है, उसके तीन चरण हैं। इनमें से प्रत्येक चरण तीन लोकान्तरों तक फैला हुआ है। उसके माध्यम से आत्मा की गति केवल इसी लोक तक सीमित नहीं रहती वरन् वह अन्य लोकों तक अपना क्षेत्र विस्तृत कर सकता है और वहाँ उपलब्ध साधनों से लाभान्वित हो सकता है।
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टा व क्षराण्यष्टाक्षर हवा एवं गायत्र्यै पद मेतदुहैवास्या एतत्सयावेदतेषु लोकेषु तावद्धि जर्यात योऽस्याएतदेवं पदं वेद।
वृहदारण्यक 5।14।1
भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है सो तीनों लोकों को जीत लेता है।
जिस प्रकार बाह्य जगत में अनेकों लोक हैं उसी प्रकार इस शरीर के भीतर भी सप्त प्राण, षट्चक्र ग्रन्थियाँ, उपत्यिकाएं मौजूद हैं। साधारण मनुष्यों में यह प्रसुप्त अवस्था में अज्ञात पड़े रहते हैं, पर जब गायत्री उपासना द्वारा जागृत आत्मा इन अविज्ञात शक्ति केन्द्रों को झकझोरता है तो वे भी जागृत हो जाती हैं और उनके भीतर जो आश्चर्यजनक तत्व भरे पड़े हैं वे स्पष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार वैज्ञानिक लोग, इस ब्रह्माण्ड में बाह्य जगत में व्याप्त अनेक शक्तियों को ढूँढ़ते और उनका उपयोग करते हैं उसी प्रकार आत्म विज्ञानी साधक पिण्ड में देह में अंतर्जगत में सन्निहित तत्वों का साक्षात्कार करके उनकी दिव्य शक्तियों से लाभान्वित होते हैं। आत्म-दर्शन ब्रह्म साक्षात्कार एवं स्वर्ग लोक की प्राप्ति उनके लिए सरल हो जाती है। इस मार्ग में सफलता प्राप्त करने वाले अपनी परम्परा को आगे जारी रखने वाले कोई तेजस्वी उत्तराधिकारी भी अपने पीछे के लिए छोड़ जाते हैं।
तेवाएते पञ्च ब्रह्म पुरुषा स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपालस्य एतानेकं पञ्च ब्रह्म पुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपाल वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्ग लोकम्। - छांदोग्य. 3।13।6
हृदय चैतन्य ज्योति गायत्री रूप ब्रह्म के प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच द्वारपाल हैं। इनको वश में करे। जिससे हृदय स्थित गायत्री स्वरूप ब्रह्मा की प्राप्ति हो। इस प्रकार उपासना करने वाला स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है और उसके कुल में वीर पुत्र या शिष्य उत्पन्न होता है
गायत्री का व्याख्या विस्तार
गायत्री महामंत्र के 24 अक्षरों में इतना ज्ञान विज्ञान भरा हुआ है कि उसका अन्वेषण करने से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। ब्रह्माजी ने गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया। महर्षि वाल्मीक ने अपनी वाल्मीक रामायण की रचना करते हुए एक-एक हजार श्लोकों के बाद क्रमशः गायत्री के एक-एक अक्षर से आरम्भ होने वाले श्लोक बनाये। इस प्रकार वाल्मीक रामायण में प्रत्येक एक हजार श्लोकों के बाद गायत्री के एक अक्षर का सम्पुट लगा हुआ है। महर्षि वाल्मीक गायत्री के महत्व को जानते थे उन्होंने अपने महाकाव्य में इस प्रकार का सम्पुट लगाकर अपने ग्रन्थ की महत्ता में और भी अधिक अभिवृद्धि कर ली।
श्रीमद्भागवत पुराण की भी गायत्री महामन्त्र की व्याख्या स्वरूप ही रचना हुई। श्रीहरि टीका में इस रहस्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है।
सत्यं परं धीमहि-तं धीमहि इति गायत्र्या प्रारम्भेण गायत्र्याख्या ब्रह्मविद्या रूपभेत्पुराण इति। - श्री धरी
वेद व्यास जी ने गायत्री प्रतिपाद्य सत्यं परं धीमहि तत्व में ही भागवत का प्रारम्भ मूल है। गायत्री के ही दो अक्षरों की व्याख्या में एक-एक स्कंध बनाकर 12 स्कंध पूरे किये हैं।
देवी भागवत पुराण के संबंध में भी यही मान्यता है कि उसकी रचना गायत्री मंत्र के अक्षरों में निहित तत्वों का उद्घाटन करने के लिए ही की गई है। मत्स्य पुराण में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है।
यत्राधिकृत्य गायत्रीं वर्ण्यन्ते धर्म विस्तरः। वृत्रासुरवधोपेतं तद् भागवत मुच्यते।
मत्स्य पुराण 53। 20
जिसमें गायत्री के माध्यम से धर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन है। जिसमें वृत्तासुर वध का वृत्तांत है, वह भागवत ही कही जाती है।
देवी भागवत पुराण का आरम्भ गायत्री के रहस्योद्घान के रूप में ही होता है
ॐ सर्व चैतन्य रूपाँ तामाद्याँ विद्याँ च धीमहि। बुद्धिर्योनः प्रचोदयात्।
-देवी भागवत
जो आदि अन्त रहित, सर्व चैतन्य स्वरूप वाली, ब्रह्म विद्या स्वरूपिणी आदि शक्ति है उसका हम ध्यान करते हैं। वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।
देवी भागवत, बारहवें स्कंध के अन्त में समाप्ति का श्लोक भी गायत्री तत्व के संपुट के साथ पूर्ण हुआ है।
सच्चिदानन्द रूपाँ ताँ गायत्री प्रतिपिदताम्।
नमामि ह्नीं मयीं देवी धियो योनः प्रचोदयात्।
उन ह्नीं मयी सच्चिदानन्द स्वरूपा गायत्री शक्ति को प्रणाम है। वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।
चारों वेद, वाल्मीक रामायण, श्रीमद्भागवत देवी भागवत ही नहीं न जाने कितने बड़े ज्ञान के भण्डार का प्रणयन-गायत्री के आधार पर हुआ वस्तुतः भारतीय धर्म को सारा ज्ञान-विज्ञान गायत्री रूपी सूर्य के सामने छोटे बड़े ग्रह उपग्रहों के रूप में भ्रमण करता है।
मंगलमयी मधु विद्या
वृहदारण्यक उपनिषद् में जिस मधु विद्या का विस्तारपूर्वक वर्णन कि या गया है उसका सम्बन्ध गायत्री से ही है। जिस प्रकार पारस मणि के स्पर्श से लोहे के टुकड़ों का ढेर भी सोना हो जाता है। उसी प्रकार इस संसार की अनेकों कड़ुई, कुरूप, कष्टदायक, प्रतिकूल वस्तुएँ तथा परिस्थितियों की उसके लिये मधुर, सौंदर्ययुक्त, सुखदायक व अनुकूल बन जाती है।
गायत्री के तीनों चरण समस्त सृष्टि को अपने लिए आनन्दपूर्ण मधुमय बना देने की शक्ति से परिपूर्ण है। नदियों को जल पूर्ण, समुद्र को रत्न पूर्ण और औषधि वनस्पतियों को जीवनी शक्ति से परिपूर्ण गायत्री का प्रथम चरण बनाता है। रात्रि और दिन किसी प्रकृति विपरीतता से तूफान, भूचाल अतिवृष्टि शीतोष्ण की अधिकता जैसी विकृतियों से बचकर हितकर वातावरण से आनन्दमय से पृथ्वी के परमाणु पर्याप्त मात्रा में अन्न, धातु, खनिज, रस, रत्न आदि प्रदान करते रहें तथा द्युलोक की मंगलमयी किरणें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहें ऐसी शक्ति गायत्री के दूसरे चरण में है। गायत्री का तीसरा चरण सूर्य की उत्पादक प्रेरक एवं विकासोन्मुख शक्तियों को नियंत्रित एवं आवश्यक मात्रा में पृथ्वी पर आह्वान करता है। न तो सूर्य की शक्ति किरणें पृथ्वी पर इतनी अधिक आयें कि ताप से जीवन रस जले और न उसकी इतनी न्यूनता हो कि विकास क्रम में बाधा पड़े। चूंकि वनस्पतियाँ जीव जन्तु एवं जड़-चेतन सभी अपना जीवन तत्व सूर्य से प्राप्त करते हैं। मानव प्राणी की चेतना एवं विशेष प्राण क्षमता भी सूर्य पर ही अवलम्बित है। इस विश्व प्रसविता-सविता पर गायत्री का तीसरा चरण नियंत्रण स्थापित करता है, इसलिये सृष्टि के समस्त संतुलन को गायत्री शक्ति के आधार पर स्थिर रख सकना संभव हो सकता है।
गायत्री में आध्यात्म तत्व तो प्रधान-रूप से है ही, वह आत्मबल और अंतर्जगत की अगणित सूक्ष्म शक्तियों को विकसित करके मनुष्य को इस पृथ्वी तल को देवता तो बना ही सकता है, साथ ही स्थूल सृष्टि में काम करने वाली सभी भौतिक शक्तियों पर भी उसका नियंत्रण है। इस विकास को प्राचीन काल में जब आत्मदर्शी लोग जानते थे तब वे इस संसार की ही नहीं अन्य लोकों की स्थिति भी शान्तिमय, मधुरिमा से पूर्ण बनाये रख सकने में समर्थ थे। भारतवर्ष का यही महान विज्ञान किसी समय उसे अत्याधिक ऊँची सम्मानास्पद स्थिति में रखे हुए था। आज इसी को खोकर हम मणिहीन सर्प की तरह दीन-हीन एवं परमुखापेक्षी बने हुए है। गायत्री में सन्निहित मधु विद्या का उपनिषदों का वर्णन इस प्रकार है :-
तत्सवितुर्वरेण्यम्। मधु वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। भूः स्वाहा भर्गो देवस्य धीमहि। मधुनक्त मतोषसो मधुमत्यार्थिव रजः। मधुद्यौरस्तु नः पिता। भुवः स्वाहा। धियो योनः प्रचोदयात्। मधु मान्नो वनस्पतिमधु मा œ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः। स्वः स्वाहा। सर्वाश्च मधुमती रहभेवेद œ सर्वभूयाँसं भूर्भुवः स्वः स्वाहा।
-वृहदारण्यक 6। 3 । 6
-(तत्सवितुर्वरेण्यं) मधुर वायु चले, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियाँ हमारे लिये सुखदायक हों।
-(भर्गो देवस्य धीमहि) रात्रि और दिन हमारे लिये सुखकारी हों, पृथ्वी की रज हमारे लिये मंगलमय हो। भू-लोक हमें सुख प्रदान करे।
-(धियो योनः प्रचोदयात्) वनस्पतियाँ हमारे लिए रसमयी हो। सूर्य हमारे लिये सुखप्रद हो। उसकी रश्मियाँ हमारे लिये कल्याणकारी हों। सब हमारे लिये सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊँ।
अंतर्जगत के गुप्त तत्व
मनुष्य के अंतर्जगत में तो विलक्षण शक्तियाँ भरी हुई है, उनका जागरण भी गायत्री महामंत्र द्वारा ही संभव है। इस महामंत्र का एक-एक अक्षर शक्ति बीज है। इन शक्ति बीजों के स्पर्श से शरीर में अवस्थित प्रधान षटचक्रों एवं अठारह उपचक्रों का इस प्रकार कुल 24 चक्रों का जागरण गायत्री उपासना से होता है। इन रत्न भण्डार सरीखे चक्र उपचक्रों में से प्रत्येक में ये शक्तियाँ और सिद्धियाँ भरी हुई हैं जिन्हें प्राचीन काल में ऋषि मुनि प्राप्त करके अपने को ईश्वरीय तत्वों का अधिकारी-उत्तराधिकारी बनाये हुए थे। इसका प्रमाण इस प्रकार मिलता है :-
चतुर्विशाँक्षरी विद्या पर तत्व विनिर्मिता।
तत्कारात् यातकार पर्यन्त शब्द ब्रह्मत्वरूपिणी।
-गायत्री तत्र
अर्थात्-’तत्’ शब्द से लेकर प्रचोदयात् शब्द पर्यन्त 24 अक्षरों वाली गायत्री पर तत्व अर्थात् पराविद्या से ओत-प्रोत है।
गायत्री के 24 अक्षरों में से प्रत्येक अक्षर शरीर में काम करने वाले प्रधान तत्वों में से एक-एक का प्रतिनिधि है। महामंत्र के 24 अक्षर किन-किन 24 महातत्त्वों से संबंधित है इसका वर्णन निम्न प्रमाण में देखिये :-
कर्मन्द्रियाणि पंचैव पंच बुद्धीन्द्रियाणि च।

पंच पंचेन्द्रियार्थश्य भूतानाँचैव पंचकम्॥ मनोबुद्धिस्तथात्माच अव्यक्तं च यदुत्तमम्। चतुविशत्यथैतानि गायत्र्या अक्षराणितु।
-योगी याज्ञवलक्य
अर्थात्- पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच तत्व, पाँच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, आत्मा तथा परमात्मा यह चौबीस शक्तियाँ गायत्री के चौबीस अक्षरों में समाई हुई है।
यद्यपि यह शक्ति निराकार है, फिर भी उससे सम्बन्ध स्थापित करने आकर्षित करने अपने अन्दर धारण करने के लिये जो उपासना की जाती है वह निराकार रूप में संभव नहीं इसलिये उसके रूप की कल्पना करनी पड़ती है।
अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य निगुर्णस्य गुणात्मनः।
उपासकानाँ सिद्धयथं ब्रह्मणों रूप कल्पना।
ब्रह्म अचिन्त्य, अप्रमेय, निर्गुण, गुणात्मा है उसका चिन्तन ध्यान संभव नहीं, इसलिए उपासकों की सफलता के लिये रूप कल्पना की गई।
परमात्मा तथा उसकी इस प्रधान शक्ति को लिंग भेद में विभाजित नहीं किया जा सकता। वह नर है न नारी परन्तु इतना अवश्य है कि उसे जिस रूप में जिस भाव से माना जाय उसी के अनुरूप वह सामने उपस्थित होते हैं। भक्त की भावना के ढाँचे में वह महाशक्ति भी मिट्टी की तरह आसानी से बदल जाती है और तदनुसार अपने आस्तित्व का परिचय देती है। भगवान को भक्त अपनी अभिरुचि के अनुसार माता, पिता, बन्धु, सखा, पति, पुत्र आदि जो चाहे सो मान सकता है और उसी के अनुसार उनको प्रत्युत्तर देते अनुभव कर सकता है।
इस संसार में माता का स्नेह एवं वात्सल्य सबसे उत्कृष्ट होता है इसलिए अन्य सम्बन्ध स्थापित करने की अपेक्षा उस ईश्वरीय सत्ता को माता के भाव से मानना मातृ संबंध स्थापित करना, अधिक उत्तम है। इस मान्यता के कारण वह शक्ति भी माता के अनुरूप स्नेह एवं वात्सल्यता के साथ हमारे सामने आ उपस्थित होती है। भगवान को माता के रूप में प्राप्त करना भक्त के लिए सबसे अधिक आनन्ददायक सौभाग्य हो सकता है। इसलिए गायत्री को माता के रूप में माना गया है और उसी रूप में उसकी पूजा होती है।
गायत्री माता को नारी रूप में देखने की प्रतिक्रिया होती है नारी मात्र को गायत्री माता का स्वरूप समझना। स्त्री जाति में मातृ भावना की स्थापना होकर साधक जब गायत्री की छवि को एक युवा नारी के रूप में सामने रखकर उसके चरणों पर अपना शुद्ध मातृ भाव समर्पित करता है तो यही अभ्यास धीरे ही दृढ़ होता हुआ इस स्थिति को जा पहुँचता है कि कोई स्त्री चाहे वह रूपवती या तरुणी ही क्यों न हो गायत्री माता की प्रतीक ही दिखाई पड़ने लगती है। यह मातृ बुद्धि प्राप्त होना एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक सफलता है।
नारी के प्रति पूज्य भावना
गायत्री उपासना से नारी मात्र के प्रति पवित्र भाव बढ़ते हैं और उसके प्रति श्रेष्ठ व्यवहार करने की इच्छा स्वभावतः होती है। ऐसी भावना वाले व्यक्ति नारी सम्मान के-नारी पूजा के-प्रबल समर्थक होते हैं। यह समर्थन समाज में सुख शान्ति एवं प्रगति के लिए नितान्त आवश्यक है। शास्त्रों में भी इसका समर्थन है :-
जगदन्वम्वामयं पश्य स्त्रीमात्रमविशेषतः।
नारी मात्र की जगदम्बा का स्तरूप माने।
स्त्रीणाँ निन्दाँ प्रहारंच कौटिल्यंचाप्रियं बचः।
आत्मनो हितमान्विच्छन्देवी भक्तो विवर्जयेत्॥
अपना कल्याण चाहने वाला माता का उपासक स्त्रियों की निन्दा न करे, न उन्हें मारे, न उनसे छल करे। न उनका जी दुखाये।
यत्रनारयस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्र नार्यो न पूज्यन्ते श्मशानं तन्नवै गृहम्।
जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ नारी का तिरस्कार होता है, वह घर निश्चय ही श्मशान है।
गायत्री उपासक की नारी जाति के प्रति, गायत्री माता की ही भावना रहती है, उन्हें वह परम पूज्य दृष्टि में देखता है ऐसी स्थिति में वासनात्मक कुविचार तो उसके पास तक नहीं फटकते :-
विद्या समस्तास्तवदेविभेदाः
स्त्रिय समस्तासक लाजगस्तु।
त्वैयकया पूरितमम्वयैतत्
कास्ते स्तुतिः स्तव्यपराषरोक्तिः
इस संसार में सम्पूर्ण परा अपरा विद्याएं आपका ही भेद है। मेरे संसार की समस्त नारियाँ आपका ही रूप है।
पिता से माता अधिक उदार
भक्त की कोमल भावनाएं तो यहाँ तक मानती है कि न्यायकारी पिता यदि हमारे किन्हीं अपराधों से कुपित होकर दंड व्यवस्था करेंगे तो माता अपनी करुणा से द्रवित होकर उस दण्ड में बचा लेंगी। बचा ही नहीं लेंगी वरन् परमपिता को धमका भी देंगी कि ‘मेरे भक्त को दुख क्यों देते हैं संसार में पूर्ण निर्दोष कौन है? जब सभी दोषी हैं, जब आप सभी पर दया करते हैं, उदारता और क्षमा का व्यवहार करते हैं तो मेरे भक्तों के प्रति वैसा उदार व्यवहार क्यों न करोगे? भक्त मानता है कि जब माता इस प्रकार अपना पक्ष लेगी तो फिर उनको सिफारिश पर पिता को झुकना ही पड़ेगा। इन भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति देखिये :-
पितेवत्वत्प्रेयाञ्जननि परिपूर्णागसिजने।
हितस्त्रोती वृत्या भवति च कदाचित्कलुषधीः।
किमेतन्नार्दोषः व इहजगतीति त्वमुचितैः।
रुपायै र्विस्मार्य स्वजनयसि माता तदसिनः।
-पराशर भट्ट
परम पिता परमात्मा जब अपराधी जीव पर पिता के समान कुपित हो जाते हैं तब आप ही उन्हें समझाती हो कि ‘यह क्या करते हो? इस संसार में पूर्ण निर्दोष कौन है’ उनका क्रोध शान्त कर आप ही उनमें दया उपजाती हैं। इसलिये आप ही हमारी दयामयी माता हैं।
परम पिता से महिमामयी माता अधिक उदार अधिक करुणापूर्ण अधिक वात्सल्य युक्त हैं, इसका एक उदाहरण कवि ने रामचन्द्र और जानकी की तुलना का बहुत ही सुन्दर किया है।
मातर्मैथिलि राक्षसी स्त्वयि तदैवार्द्रापराधास्त्वया।
रक्षन्त्या पवनात्माजल्लघु तरा रामस्व गोष्ठी कृता।
काकं तेच विभीषणं शरणभित्युक्ति क्षमौ रक्षतः।
सा न स्सान्द्र महागस सुखयतु क्षान्तिस्तवा कस्मिकी।
रामचन्द्रजी ने, शरण आने पर ही काक और विभीषण की रक्षा की। इसमें उनका क्या बड़ा गौरव है। जानकी जी की महानता देखो, उनने अपराध करने वाली राक्षसियों को बिना कोई प्रार्थना किये ही दण्ड देने को उद्यत हनुमान जी से छुड़ा दिया। जानकी जी की करुणा रामचन्द्रजी की अपेक्षा कहीं बड़ी है।
यह तो हुई भक्त की भावना और कवि की अनुभूति। पर तत्वतः भी गायत्री उपासना माता की गोद का सेवन करने और उसकी पयपान करने के समान सब प्रकार मंगलमय ही है।
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