20.12.22

ईसाई धर्म की पूरी जानकारी : Isai dharm ki jankari

 




ईसाई धर्म से जुड़े महत्‍वपूर्ण तथ्‍य:
(1) ईसाई धर्म के संस्थापक हैं ईसा मसीह.
(2) ईसाई धर्म का प्रमुख ग्रंथ है- बाइबिल.
(3) ईसा मसीह का जन्म जेरूसलम के पास बैथलेहम में हुआ था.
(4) ईसा मसीह की माता का नाम मैरी और पिता का नाम जोसेफ था.
(5) ईसा मसीह ने अपने जीवन के 30 साल एक बढ़ई के रूप में बैथलेहम के पास नाजरेथ में बिताए.
(6) ईसाइयों में बहुत से समुदाय हैं मसलन कैथोलिक, प्रोटैस्टैंट, आर्थोडॉक्स, मॉरोनी, एवनजीलक.
(7) क्रिसमस यानी 25 दिसंबर को ईसा मसीह के जन्मदिन के उपलक्ष में मनाया जाता है.
(8) ईसा मसीह के पहले दो शिष्य थे पीटर और एंड्रयू.
(9) ईसा मसीह को सूली पर रोमन गवर्नर पोंटियस ने चढ़ाया था.
(10) ईसा मसीह को 33 ई. में सूली पर चढ़ाया गया था.
(11) ईसाई धर्म का सबसे पवित्र चिह्न क्रॉस है.
(12) ईसाई एकेश्वरवादी हैं, लेकिन वे ईश्वर को त्रीएक के रूप में समझते हैं- परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा.

‘ईसाई धर्म’ के प्रवर्तक ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) थे, जिनका जन्म रोमन साम्राज्य के गैलिली प्रान्त के नज़रथ नामक स्थान पर 6 ई. पू. में हुआ था।  उनके पिता जोजेफ़ एक बढ़ई थे तथा माता मेरी (मरियम) थीं। वे दोनों यहूदी थे। ईसाई शास्त्रों के अनुसार मेरी को उसके माता-पिता ने देवदासी के रूप में मन्दिर को समर्पित कर दिया था। ईसाई विश्वासों के अनुसार ईसा मसीह के मेरी के गर्भ में आगमन के समय मेरी कुँवारी थी। इसीलिए मेरी को ईसाई धर्मालम्बी ‘वर्जिन मेरी (कुँवारी मेरी) तथा ईसा मसीह को ईश्वरकृत दिव्य पुरुष मानते हैं।
 ईसा मसीह के जन्म के समय यहूदी लोग रोमन साम्राज्य के अधीन थे और उससे मुक्ति के लिए व्याकुल थे। उसी समय जॉन द बैप्टिस्ट नामक एक संत ने ज़ोर्डन घाटी में भविष्यवाणी की थी कि यहूदियों की मुक्ति के लिए ईश्वर शीघ्र ही एक मसीहा भेजने वाला है। उस समय ईसा की आयु अधिक नहीं थी, परन्तु कई वर्षों के एकान्तवास के पश्चात् उनमें कुछ विशिष्ट शक्तियों का संचार हुआ और उनके स्पर्श से अंधों को दृष्टि, गूंगों को वाणी तथा मृतकों को जीवन मिलने लगा। फलतः चारों ओर ईसा को प्रसिद्धि मिलने लगी। उन्होंने दीन दुखियों के प्रति प्रेम और सेवा का प्रचार किया।
 यरुसलम में उनके आगमन एवं निरन्तर बढ़ती जा रही लोकप्रियता से पुरातनपंथी पुरोहित तथा सत्ताधारी वर्ग सशंकित हो उठा और उन्हें झूठे आरोपों में फ़ँसाने का प्रयास किया। यहूदियों की धर्मसभा ने उन पर स्वयं को ईश्वर का पुत्र और मसीहा होने का दावा करने का आरोप लगाया और अन्ततः उन्हें सलीब (क्रॉस) पर लटका कर मृत्युदंड की सज़ा दी गई। परन्तु सलीब पर भी उन्होंने अपने विरुद्ध षड़यंत्र करने वालों के लिए ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उन्हें माफ़ करे, क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि वे क्या कर रहे हैं।
 ईसाई मानते हैं कि मृत्यु के तीसरे दिन ही ईसा मसीह पुनः जीवित हो उठे थे। ईसा मसीह के शिष्यों ने उनके द्वारा बताये गये मार्ग अर्थात् ईसाई धर्म का फ़िलीस्तीन में सर्वप्रथम प्रचार किया, जहाँ से वह रोम और फिर सारे यूरोप में फैला। वर्तमान में यह विश्व का सबसे अधिक अनुयायियों वाला धर्म है। ईसाई लोग ईश्वर को ‘पिता’ और मसीह को ‘ईश्वर पुत्र’ मानते हैं। ईश्वर, ईश्वर पुत्र ईसा मसीह और पवित्र आत्मा–ये तीनों ईसाई त्रयंक (ट्रिनीटी) माने जाते हैं।

ईसाई धर्म की जानकारी –

प्रथम मिशनरियों में से सबसे सफल थे संत पौलुस; उनकी यात्राओं का वर्णन तथा उनके पत्र बाईबिल के उत्तरार्ध में सुरक्षित हैं। उस समय अंतिओक (Antioch) रोमन साम्राज्य का तीसरा शहर था, ईस का उत्तराधिकारी संत पेत्रुस यहीं चले आए और उस केंद्र से संत पौलुस ने एशिया माइनर, मासेदोनिया तथा यूनान में ईसाई धर्म का प्रचार किया। बाद में राजधानी रोम ईसाई धर्म का प्रधान केंद्र बना। वहीं संत पेत्रुस (67 ई.) और संत पौलुस शहीद हो गए। बाइबिल का उत्तरार्ध प्रथम शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में लिखा गया।
 सन् 100 ई. तक भूमध्यसागर के सभी निकटवर्ती देशों और नगरों में, विशेषकर एशिया माइनर तथा उत्तर अफ्रीका में ईसाई समुदाय विद्यमान थे। तीसरी शताब्दी के अंत तक ईसाई धर्म विशाल रोमन साम्राज्य के सभी नगरों में फैल गया था; इसी समय फारस तथा दक्षिण रूस में भी बहुत से लोग ईसाई बन गए। इस सफलता के कई कारण हैं। एक तो उस समय लोगों में प्रबल धर्मजिज्ञासा थी, दूसरे ईसाई धर्म प्रत्येक मानव का महत्व सिखलाता था, चाहे वह दास अथवा स्त्री ही क्यों न हो। इसके अतिरिक्त ईसाइयों में जो भातृभाव था उससे लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
 द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् ईसाई संसार में चर्च की एकता के आंदोलन को अधिक महत्व दिया जाने लगा। फलस्वरूप खंडन-मंडन को छोड़कर बाइबिल में विद्यमान तत्वों के आधार पर चर्च के वास्तविक रूप को निर्धारित करने के प्रयास में इसपर अपेक्षाकृत अधिक बल दिया जाने लगा कि चर्च ईसा का आध्यात्मिक शरीर है। ईसा उसका शीर्ष है और सच्चे ईसाई उस शरीर के अंग हैं।

बाइबिल – Bible

ईसाई धर्म का पवित्र ग्रन्थ बाइबिल है, जिसके दो भाग ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट हैं। ईसाईयों का विश्वास है कि बाइबिल की रचना विभिन्न व्यक्तियों द्वारा 2000-2500 वर्ष पूर्व की गई थी। वास्तव में यह ग्रन्थ ई. पू. 9वीं शताब्दी से लेकर ईस्वी प्रथम शताब्दी के बीच लिखे गये 73 लेख शृंखलाओं का संकलन है, जिनमें से 46 ओल्ड टेस्टामेंट में और 27 न्यू टेस्टामेंट में संकलित हैं। जहाँ ओल्ड टेस्टामेंट में यहूदियों के इतिहास और विश्वासों का वर्णन है, वहीं न्यू टेस्टामेंट में ईसा मसीह के उपदेशों एवं जीवन का विवरण है।

चर्च (Church)

चर्च (Church) शब्द यूनानी विशेषण का अपभ्रंश है जिसका शाब्दिक अर्थ है “प्रभु का”। वास्तव में चर्च (और गिरजा भी) दो अर्थों में प्रयुक्त है; एक तो प्रभु का भवन अर्थात् गिरजाघर तथा दूसरा, ईसाइयों का संगठन। चर्च के अतिरिक्त ‘कलीसिया’ शब्द भी चलता है। यह यूनानी बाइबिल के ‘एक्लेसिया’ शब्द का विकृत रूप है; बाइबिल में इसका अर्थ है – किसी स्थानविशेष अथवा विश्व भर के ईसाइयों का समुदाय। बाद में यह शब्द गिरजाघर के लिये भी प्रयुक्त होने लगा।

सम्प्रदाय– 

यद्यपि ईसाई धर्म के अनेक सम्प्रदाय हैं, परन्तु उनमें दो सर्वप्रमुख हैं—
1). रोमन कैथोलिक चर्च–इसे ‘अपोस्टोलिक चर्च’ भी कहते हैं। यह सम्प्रदाय यह विश्वास करता है कि वेटिकन स्थित पोप ईसा मसीह का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी है और इस रूप में वह ईसाईयत का धर्माधिकारी है। अतः धर्म, आचार एवं संस्कार के विषय में उसका निर्णय अन्तिम माना जाता है। पोप का चुनाव वेटिकन के सिस्टीन गिरजे में इस सम्प्रदाय के श्रेष्ठ पादरियों (कार्डिनलों) द्वारा गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है।
2). प्रोटेस्टैंट–15-16वीं शताब्दी तक पोप की शक्ति अवर्णनीय रूप से बढ़ गई थी और उसका धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सभी मामलों में हस्तक्षेप बढ़ गया था। पोप की इसी शक्ति को 14वीं शताब्दी में जॉन बाइक्लिफ़ ने और फिर मार्टिन लूथर (जर्मनी में) ने चुनौती दी, जिससे एक नवीन सुधारवादी ईसाई सम्प्रदाय-प्रोटेस्टैंट का जन्म हुआ, जो कि अधिक उदारवादी दृष्टिकोण रखते हैं।
ईसाई धर्म पवित्र आत्मा में विश्वास करता है और मानता है कि पवित्र आत्मा जीवन देने वाला भगवान है। वह पिता और पुत्र से बाहर आता है, और पिता और पुत्र के साथ पूजा और सम्मान किया जाता है। मान लें कि पवित्र आत्मा द्वारा दिया गया नया जीवन पुनर्जन्म ले सकता है। पुनर्जन्म पिता के चुनाव, पुत्र की छुड़ौती, और पवित्र आत्मा के नवीकरण में भी दिखाई देता है।
ईसाईयों का विकास चर्च से अविभाज्य है। चर्च को सभी सम्मानित लोगों की मां कहा जाता है। यह पवित्र और पवित्र है, और यह सार्वभौमिक और सार्वभौमिक भी है। चर्च एक निश्चित स्थान तक सीमित नहीं है, लेकिन पूरी दुनिया में फैल गया है। चर्च ईश्वर और उसके विश्वास की स्वीकृति के कारण एकजुट हो जाता है।
ईसाई मानते हैं कि मसीह में कोई मौत नहीं है, केवल शाश्वत खुशी है। अनन्त जीवन भगवान प्रभु में हमेशा के लिए भगवान द्वारा चुना और संरक्षित किया जाता है। यह भगवान की पसंद है, भगवान की पसंद और आरक्षण के कारण, यीशु मसीह की छुड़ौती ने पवित्र आत्मा से नया जीवन प्राप्त किया है।
ईसाई धर्म ईश्वर से प्यार करने के रूप में अपने सच्चाई और कोर के विश्वास को जोड़ता है (आपको भगवान से प्यार करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए - अपने भगवान) और अपने प्रेमी को अपने आप के रूप में (बदला लेने के लिए, न ही अपने लोगों को दोष देना, बल्कि दूसरों को अपने आप से प्यार करना) सबसे मौलिक सिद्धांतों में से एक प्यार के कानून को सबसे बड़ा कानून मानना है।
प्यार में गिरना भी नए नियम में मुख्य आदेश बन जाता है, और मानता है कि यह आध्यात्मिक सच्चा प्यार और पवित्र एकाग्रता मसीह यीशु में अवशोषित है, और इसलिए इसे प्यार का धर्म भी कहा जाता है।
ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म और इस्लाम को तीन प्रमुख धर्म भी कहा जाता है। हालांकि, ईसाई धर्म पैमाने और प्रभाव दोनों के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। ईसाई धर्म के मानव विकास के इतिहास में हमेशा एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अपरिवर्तनीय महत्वपूर्ण भूमिका और दूरगामी प्रभाव पड़ा है। अब तक, जापान को छोड़कर प्रमुख विकसित देशों, ईसाई संस्कृति का प्रभुत्व वाले देश हैं। विशेष रूप से यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका, एशिया और ओशिनिया में, ईसाई धर्म ने मानव सभ्यता के सभी पहलुओं को आकार दिया है, भले ही राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और कलात्मक।

भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश – 

जाति  इतिहासविद  डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार  भारत में ईसाई धर्म का प्रचार संत टॉमस ने प्रथम शताब्दी में चेन्नई में आकर किया था। किंवदंतियों के मुताबिक, ईसा के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस ईस्वी सन 52 में पहुंचे थे। कहते हैं कि उन्होंने उस काल में सर्वप्रथम कुछ ब्राह्मणों को ईसाई बनाया था। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को धर्मान्तरित किया था। इसके बाद बड़े पैमाने पर भारत में ईसाई धर्म ने तब पांव पसारे जब मदर टेरेसा ने भारत आकर अपनी सेवाएं दी। इसके आलावा अंग्रेजों का शासन प्रारंभ हुआ था तब भी ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ था।

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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 

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18.12.22

चंद्र वंशी खाती समाज का इतिहास :Chandravanshi Khati Samaj ki jankari



  चंद्रवंशी खाती समाज श्री पुत्र सहस्त्रबाहु के पुत्र है । समाज के इष्टदेव भगवान जगदीश है , कुलदेवी महागौरी अष्टमी है , कुलदेव भैरव देव और आराध्या देव भोले शंकर है । खाती समाज भगवान परशुराम जी के आशीर्वाद से उत्त्पन्न जाती है .।इस जाती के लोग सुन्दर और गोर वर्ण अर्थात ‘गोरे ’आते है । क्षत्रिय खाती समाज जम्मू कश्मीर के अभेपुर और नभेपुर के मूल निवासी है आज भी चंद्रवंशी लोग हिमालय क्षेत्र में केसर की खेती करते है । समाज के लिए दोहे प्रसिद्द है ”उत्तर देसी पटक मूलः ,नभर नाभयपुर रे ,चन्द्रवंश सेवा करी ,शंकर सदा सहाय” और ”चंद्रवंशम गोकुलनंदम जयति ”भगवान जगदीश के लिए ।
समाज १२०० वर्ष पहले से ही कश्मीर से पलायन करने लग गया था और भारत के अन्य राज्यों में बसने लग गया था । समकालीन राजा के आदेश से समाज को राज छोड़ना पड़ा था। खाती समाज के लोग बहुत ही धनि और संपन्न थे , उच्च शिक्षा को महत्व दिया जाता था ।
जम्मू कश्मीर के अलाउद्दीन ख़िलजी ने १३०५ में मालवा और मध्य भारत में विजय प्राप्त की |  चन्द्रवंशी खाती समाज के सैनिक भी सैना का संचालन करते थे विजय से खुश होकर ख़िलजी ने समाज को मालवा पर राज करने को कहा परन्तु समाज के वरिष्ठ लोगो ने सोच विचार कर जमींदारी और खेती करने का निश्चय किया. इस तरह कश्मीर से आने के बाद ३५ वर्ष तक समाज मांडवगढ़ में रहा इसके बाद आगे बढ़कर महेश्वर जिसे महिष्मति पूरी कहते थे वहां आकर रहने लगे महेश्वर चंद्रवंशी खाती समाज के पूर्वज सहस्त्रार्जुन की राजधानी था आज भी महेश्वर में सहस्त्रबाहु का विशाल मंदिर बना है जिसका सञ्चालन कलचुरि समाज करता है।
४५ वर्षो तक रहने के बाद वहाँ से इंदौर, उज्जैन, देवास, धार, रतलाम, सीहोर, भोपाल , सांवेर आदि जिलो में बसते चले गए और खाती पटेल कहलाये । मालवा में खाती समाज के पूर्वजो ने ४४४ गाँव बसाये जिनकी पटेली की दसियाते भी उनके नाम रही।
खाती समाज का गौरव पूर्ण इतिहास रहा है । समाज के कुल १०५ गोत्र है जिसमे से ८४ गोत्र मध्यप्रदेश में है और मध्यप्रदेश के १६ जिलो में है और १२५० गाँवों में निवास करते है । मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी उज्जैन में चंद्रवंशी खाती समाज के इष्ट देव जगदीश का भव्य प्राचीन मंदिर है जहा हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितिय को भगवान की रथयात्रा निकलती है समाज जन और भक्तजन अपने हाथो से रथ खींचकर भगवान को नगर भ्रमण करवाते है |
चन्द्रवंश या सोमवंश के राजा कीर्तिवीर्य बहुत ही धर्मात्मा हुआ करते थे । उनके पुत्र का नाम सहस्त्रबाहु या सहस्त्रार्जुन रखा गया, सोमवंश के वंशज थे इसलिए राजवंशी खत्री कहलाए ।सहस्त्रार्जुन ने नावों खंडो का राज्य पाने के लिए भगवान रूद्र दत्त का ताप किया और ५०० युगों तक तप किया इस से प्रभावित होकर भगवान शंकर ने उन्हें १ हज़ार भुजा और ५०० मस्तक दिए । उसके बाद उनका सहस्त्रबाहु अर्थात सौ भुजा वाला नाम पड़ा । 
 महेश्वर समाज के पूर्वज सहस्त्रार्जुन की राजधानी रहा जहा ८५००० सालो तक राज्य किया । महेश्वर के निकट सहस्त्रार्जुन ने नर्मदा नदी को अपनी हज़ार भुजाओं के बल से रोकना चाहा परन्तु माँ नर्मदे उसकी हज़ार भुजाओं को चीरती हुई आगे निकल गई इसलिए उस स्थान को सहस्त्रधारा के नाम से जाना जाने लगा जहा आज भी १००० धाराएं अलग अलग दिखाई देती है ।
सहस्त्रार्जुन के लिए दोहा प्रसिद्द है
”नानूनम कीर्तिविरस्य गतिम् यास्यन्ति पार्थिवः ! यज्ञेर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रयेण श्रुतेन च !
अर्थात सहस्त्रबाहु की बराबरी यज्ञ, दान, तप, विनय और विद्या में आज तक कोई राजा नहीं कर सका ।
एक दिन देवो पर विजय प्राप्त करने के बाद विश्व विजेता रावण ने अर्जुन पर आक्रमण कर दिया परन्तु सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंधी बना लिया और रावण द्वारा क्षमा मांगने पर महीनो बाद छोड़ा फिर भगवान नारायण विष्णु के छटवे अंश ने परशुराम जी का अवतार धारण किया और सहस्त्रबाहु का घमंड चूर किया । इस युद्ध स्थल में १०५ पुत्रों को उनकी माता लेकर कुलगुरु की शरण में गई । राजा श्री जनक राय जी ने रक्षा का वचन दिया और १०५ भाइयों को क्षत्रिय से खत्री कहकर अपने पास रख लिया और ब्राह्मण वर्ण अपना कर सत्य सनातन धर्म पर चलने का वादा किया । १०५ भाइयों के नाम से उनका वंश चला और खाती समाज के १०५ गोत्र हुए | चन्द्रवंश की १०५ शाखाये पुरे भारत में राजवंशी खत्री भी कहलाते है । देश में समाज की जनसँख्या २ करोड़ से अधिक मप्र में जनसँख्या । ५० लाख भारत के राज्यों में । समाज दिल्ही, हरयाणा, पंजाब, जम्मू कश्मीर, राजस्थान,उत्तर प्रदेश,हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम आदि ….
  विदेशो में समाज नेपाल, तजफिस्टन, चिली, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा और थाईलैंड में है । चंद्रवंशी क्षत्रिय खाती समाज के इष्टदेव भगवान जगन्नाथ है।जो साधना के देदीप्यमान नक्षत्र है जिनका सत्संग और दर्शन तो दूर नाम मात्र से ही जीवन सफल हो जाता है।
हिन्दू धर्म के चारधाम में एक धाम जगन्नाथपुरी उड़ीसा में है और खाती समाज का भव्य पुरातन व बहुत ही सुन्दर मंदिर पतित पावनि माँ क्षिप्रा के तट पर है ।
जाति इतिहासकार डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार  भगवान महाकाल की नगरी अवंतिकापुरी उज्जैन देश की केवल एक मात्र नगरी है जहा संस्कार और संस्कृति का प्रवाह सालभर होता रहता है।यहाँ पर डग डग पर धर्म और पग पग पर संस्कृति मौजूद है ।
खाती समाज का एक महापर्व भगवान जगदीश की रथयात्रा है इस अवसर पर समाज के इष्टदेव भगवान जगन्नाथ पालकी रथ पर विराजते है और नगर भ्रमण करते है ।हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल २ को निकलती है ।इस दिन उज्जैन जगन्नाथपुरी सा दिखाई पड़ता है । भगवान जगन्नाथ भाई बलभद्र , बहिन सुभद्रा की मूर्तियों का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है और मंदिर की विद्युत सज्जा की जाती है ।
लाखो हज़ारो भक्तजन भगवान के रथ को खींचकर धन्य मानते है । इस पर्व को लेकर समाज में बहुत उत्साह रहता है भक्तो का सैलाब धार्मिक राजधानी की और बढ़ता है।
इस अवसर पर मंदिर में रातभर विभिन्न मंडलियों द्वारा भजन किये जाते है । रथ के साथ बैंडबाजे ऊंट, हाथी, घोड़े, ढोलक की ताल, अखाड़े,डीजे, झांकिया रथयात्रा की शोभा बढाती है और इस तरह भगवान की शाही यात्रा उज्जैन घूमकर पुनः मंदिर पहुचती है मंदिर में सामूहिक भोज भंडारा भी खाती समाज द्वारा किया जाता है जो भगवान का प्रसाद माना जाता है फिर महा आरती के साथ पुनः भगवान मंदिर में विराजते है कहते है इस दिन भगवान् अपनी प्रजा को देखने के लिए मंदिर से निकलते है जो भी भक्त भगवान् तक नहीं पहुंच सका भगवान खुद उसे दर्शन देने निकलते है ।
महाभारत का युद्ध के बाद भगवान कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ रथ में बैठकर द्वारिका पूरी जाते है और गोपिया उनके रथ को खींचती है ।
जगन्नाथ पूरी में भगवान के रथ को राजा सोने की झाड़ू से रथ को भखरते अर्थात सफाई करते थे उस समय केवल नेपाल के और पूरी के राजा जो की चंद्रवंशी थे वे ही केवल मंदिर की मूर्तियों को छू सकते थे क्योंकि वे चन्द्र कुल अर्थात चन्द्रवंश से थे ।
जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार खाती समाज की कुलदेवी महागौरी है जो दुर्गाजी का आठवा रूप है ।इसे समाज की शक्ति उपासना का पर्व माना जाता है ।महिनो पहले से ही गौरी माँ की पूजन की तैयारिया शुरू हो जाती है । देश विदेश से लोग अष्टमी पूजन के लिए घर आ जाते है इस उत्सव को विशेष महत्व दिया जाता है भगवान वेदव्यास जी ने कहा है की ”है माता तू स्मरण मंत्र से ही भयो का विनाश कर देती है। ” माता महागौरी की पूजा गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेध से की जाती है ममता, समता और क्षमता की त्रिवेणी का नाम माँ है | पुत्र कुपुत्र हो सकता है माता कुमाता नहीं पूजा के अंत में क्षमा मांगी जाती है।
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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 



धोबी ,रजक जाती का इतिहास:Dhobi jati ka Itihas



धोबी समाज का जन्म मूलनिवासियों मे हुआ था । ऐसा कहा जाता है कि जब भारत पर आर्यों का आक्रमण हुआ इससे पहले धोबी समाज खेती , पशुपालन ही किया करते थे । भारतीय हिंदू ग्रंथ में भी धोबी समाज के बारे में बताया गया है । भारत देश में कई जाति के लोग निवास करते हैं उन्ही जातियों में एक धोबी समाज भी निवास करती है ।

रजक समाज का इतिहास संक्षिप्त मे

रजक समाज भारत के मूलनीवासी समुदायो मे से एक है और इसका जन्म भी मूलनीवासीयो से ही हुआ है. रजक समाज के लोग अन्य मूलनीवासीयो की तरह बराबरी मे भरोसा करने वाले लोग थे और वे सब बिना भेदभाव के मिलजुलकर रहते थे.
रजक समाज के लोग भारत देश के विभिन्न प्रांतो मे आर्यो के आक्रमण से पहले से रहते चले आ रहे हैं . आर्य आक्रमण से पहले रजक समाज के लोग अन्य मूलनीवासीयो की तरह खेती और पशु पालन का कम किया करते थे लेकिन आर्यो ने अपने बेहतर हथियारो और घोड़ो के बल पे भारत के मूलनीवासीयो को अपना घर बार खेती बड़ी छोड़ कर जंगल मे रहने के लिए मजबूर कर दिया. स्वाभिमानी मूलनीवासीयो ने सेकडो सालो तक आर्यो से हार नही मानी और वे अपने पशु धन और खेती के लिए आर्यो से लड़ते रहे. आर्यो ने उन्हे राक्षस, दैत्या, दानव इत्याति नाम दिए और उनकी पराजय की झूठी कहानिया लिखी जो आज ब्राह्मण धरम के ग्रंथ बन गये है.
मूलनीवासीयो और आर्यो की लड़ाई सेकडो सालो तक चलती रही और धीरे धीरे आर्यो को यह समझ आने लगा की लड़ाई कर के मूलनीवासीयो को हराया नही जा सकता इसलिए उन्होने अंधविशवास का सहारा लिया और देवी देवताओ के नाम पर मूलनीवासीयो को डरना शुरू कर दिया. भोले भले लोग कपटी ब्राह्मानो की चाल को ना समझ सके और धीरे धीरे उनके झाँसे मे आगये .
 
 ब्राह्मनो ने मन घड़ंत कहानिया बनाई और सब लोगो मे फैला दी. सालो तक मूल नीवासी इस झूठ को समझकर इस से बचते रहे लेकिन जब झूठ भी सालो तक बोला जाए तो वो सही लगने लगता है इसी तरह मूल नीवासीयो को भी भरोसा होने लगा ब्राह्मानो के भगवान पर. ब्राह्मानो ने मूल नीवासीयो के देवताओ को झूठा कहा और उन्हे डरा डरा कर ब्राह्मानो के देवताओ को मानने के लिए राज़ी कर लिया.
  भोले भले मूल नीवासी एक बार जहाँ चालक ब्राह्मानो की बातो मे आ गए तो फिर ब्रह्मनो ने धीरी धीरे खुद को भगवान के बराबर और मूलनीवासीयो को जानवर के बराबर बताकर उन्हे जर जर ज़िंदगी जीने पर मजबूर कर दिया. इस तरह मूलनीवासी आर्य ब्राह्मानो के गुलाम बन कर रह गये.
ब्राह्मणों ने मूलनीवासीयो मे फुट डालने के लिए और हमेशा के लिए उन्हे दबाकर रखने के लिए जाती प्रथा को शुरू किया और अपने हिसाब से अपने हित के लिए सारे काम मूलनिवासियो मे बाँट दिए और उनमे उच नीच का भाव भर दिया ताकि वे खुद एक दूसरे से उपर नीचे के लिए लड़ते रहे और ब्राह्मण राज करते रहे. यह आज तक चला आ रहा है.
 जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार रजक समाज का जन्म उन मूल निवासियो से हुआ जिन्हे लोगो को पाप मुक्त करने का काम मिला . शुरूवात मे यह काम बड़ा सम्मान जनक था. लोग अपनी शुद्धि और मुक्ति के लिए रजक समाज के लोगो के घर जाते और फिर उन्हे घर का पानी छिड़क कर पवित्र एवम पाप मुक्त कर दिया जाता. लेकिन धीरे धीरे इस से रजक समाज की इज़्ज़त बढ़ने लगी और फिर ब्राह्मानो को लगा की उनसे ग़लती हो गई है. इसलिए उन्होने रजक समाज के लोगो का तिरस्कार करना शुरू कर दिया, झूठी कहानिया लिख कर और लोगो को भड़का भड़का के सदियो बाद उन्हे पाप मुक्ति दाता से कपड़े धोने वाला बनाकर रख दिया.
लेकिन आज सभी मूलनीवासीयो की तरह रजक समाज के लोग भी पढ़ लिख गये है और ब्राह्मानो की चाल को समझ गये है . वे ये समझ गये है की वे किसी से कम नही है और कुछ भी कर सकते है. जो काम उन्हे बेइज़्ज़त करने के लिए उनपर थोपा गया था आज वो काम छोड़कर डाक्टर इंजिनियर कलेक्टर बन रहे है. वे ब्राह्मानो की चाल को समझ गये है की किस तरह मंदिर भगवान के नाम पर उनसे काम कराया जाता रहा , उन्हे अपमानित किया जाता रहा, अब वे और अपमान नही सहने वाले. सम्मान से जीना हर इंसान का हक़ है और वे ये हक लेकर रहेंगे.
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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 



15.12.22

भारत पाक विभाजन की पूरी कहानी :Bhatrat pak vibhajan ki kahani




भारत के विभाजन के प्रमुख कारण और परिस्थियों की जानकारी (क्रमबद्ध रूप में) |

भारत का विभाजन दो राष्ट्रों के सिद्धांत के तहत ब्रिटिश भारत के प्रेसीडेंसी और प्रांतों का विभाजन था, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय उपनिवेश को दो स्वतंत्र प्रभुत्व, भारत और पाकिस्तान में गठित किया गया. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ने 14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को ब्रिटिश राज का अंत करते हुए ब्रिटिश भारत का विभाजन किया. भारत और पाकिस्तान कानूनी रूप से दो स्व-शासित देशों के रूप में उभरे. हिंदू और मुस्लिम प्रमुखताओं के आधार पर तीन प्रांतों बंगाल, असम और पंजाब को विभाजित किया गया था, जिसके कारण 14 मिलियन से अधिक लोगों को विस्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ था, जो कि एक शरणार्थी संकट, बड़े पैमाने पर हिंसा, हत्याओं और धार्मिक रेखाओं पर विघटन का मार्ग था. भारत का डोमिनियन 1950 में भारत गणराज्य में बदल गया था, जबकि पाकिस्तान का डोमिनियन प्रशासनिक रूप से पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में विभाजित हो गया था, जो 1956 में पाकिस्तान का इस्लामी गणराज्य बन गया. पूर्वी पाकिस्तान बाद में 1971 में इस संघ से अलग होकर बांग्लादेश बना.
 भारत के विभाजन के कारण और परिस्थितियाँ (Reasons and Circumstances of Partition of India)
परिस्थितियाँ और घटनाएँ जो भारत के विभाजन की ओर अग्रसर थी.
बंगाल का विभाजन
1905 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने रानी विक्टोरिया को अलग बंगाल बनाने के लिए कहा. हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं था कि 70 मिलियन की आबादी के साथ, बंगाल का प्रशासन करना धीरे-धीरे मुश्किल हो रहा था, हालांकि इस तरह के विभाजन के पीछे वास्तविक उद्देश्य राजनीतिक था क्योंकि ब्रिटिश को युद्ध की आशंका थी अगर बंगाली हिंदू और मुस्लिम हाथ मिला लें. जैसा कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में दिखाई दे रहा था. अंग्रेज बंगाल को कमजोर करना चाहते थे जिसे भारतीय राष्ट्रवाद का मुख्य केंद्र माना जाता था. कर्जन ने 19 जुलाई, 1905 को बंगाल को विभाजित करने के निर्णय की घोषणा की. बंगाल-विभाजन 16 अक्टूबर 1905 से प्रभावी हुआ तदनुसार, बंगाल प्रेसीडेंसी ब्रिटिश भारत का सबसे बड़ा प्रशासनिक उपखंड दो भागों में बंट गया. बड़े पैमाने पर हिंदूओं को पश्चिमी क्षेत्रों में विस्थापित किया गया था, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल राज्य में रहते हैं. ओडिशा, बिहार और झारखंड, पूर्वी बंगाल और असम के मुस्लिम बड़े पैमाने पर पूर्वी क्षेत्र में बस गए. इस तरह से बंगाल को विभाजित करके, अंग्रेजों ने न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बंगाली प्रभाव पर लगाम लगाने का प्रयास किया.
विभाजन को दोनों समुदाय द्वारा समर्थन नहीं किया गया, जिन्होंने इसे “विभाजन और शासन” नीति के रूप में मान्यता दी. इस दौरान बंगाल भर में सहज और छिटपुट विरोध प्रदर्शन हुए. विरोध प्रदर्शन ने स्वदेशी (“भारतीय खरीदें”) आंदोलन को आकार दिया. लोगों ने ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार किया, विभाजन विरोधी आंदोलन के नेताओं ने भारतीय वस्तुओं का उपयोग करने का संकल्प लिया, विदेशी सामानों की दुकानों पर पाबंदी लगा दी गई. पश्चिमी उत्पादों को आग में फेंक दिया गया और आयातित चीनी का भी बहिष्कार किया गया. विभाजन-विरोधी आंदोलन के नेताओं ने बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखित एक बंगाली कविता के शीर्षक ‘वंदे मातरम’ का इस्तेमाल नारे के रूप में किया. रवींद्रनाथ टैगोर की कविता से एक गीत तैयार किया गया था. कांग्रेस कार्य समिति ने बाद में (अक्टूबर 1937 में) गीत के पहले दो छंदों को भारत के राष्ट्रीय गान के रूप में अपनाया. 
सार्वजनिक इमारतों पर बमबारी की गई, सशस्त्र डकैतियों को अनजान दिया गया और ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या नौजवानों के समूह द्वारा की गई. जल्द ही नारा और विद्रोह देशव्यापी ध्यान का आकर्षण बन गया.
दूसरी ओर मुस्लिम समाज ने 1906 में नए वायसराय लॉर्ड मिंटो से मुलाकात की और मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों के साथ-साथ उनके लिए आनुपातिक विधायी प्रतिनिधित्व भी मांगा. उन्होंने दिसंबर 1906 में ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग राजनीतिक दल की स्थापना की, जिसकी मेजबानी नवाब सर ख्वाजा सलीमुल्लाह ने की थी और ढाका नवाब परिवार के आधिकारिक निवास अहसन मंज़िल में आयोजित किया था. लॉर्ड हार्डिंग ने बाद में राजनीतिक विरोधों के साथ-साथ बंगालियों की भावना को शांत करने के लिए 12 दिसंबर 1911 को बंगाल के दो हिस्सों को फिर से एकजुट किया.
प्रथम विश्व युद्ध
प्रथम विश्व युद्ध (28 जुलाई 1914 – 11 नवंबर 1918) के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना का योगदान अपार था, जिसमें यूरोप, भूमध्य और मध्य पूर्व में प्रमुख सैन्य गतिविधि क्षेत्रों में बड़ी संख्या में स्वतंत्र ब्रिगेड और डिवीजनों की भागीदारी शामिल थी. हजारों भारतीय सैनिकों की मौत सहित युद्ध में भारतीय सैनिकों की भागीदारी की खबर दुनिया भर में अखबारों और रेडियो के माध्यम से पहुंच रही है. 1920 में भारत लीग ऑफ नेशंस के संस्थापक सदस्यों में से एक बन गया, जिसका मुख्य मिशन विश्व शांति बनाए रखना था. भारत ने एंटवर्प में 1920 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में “लेस इंड्स एंगलाइस” (ब्रिटिश भारत) के नाम से भाग लिया. भारतीय नेता 19 वीं सदी के अंत से भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए दबाव बढ़ा रहे थे. उन्होंने भारत में सरकार से बड़ी भूमिका की मांग की.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना के योगदान के बाद, रूढ़िवादी ब्रिटिश राजनीतिक नेताओं ने भी संवैधानिक परिवर्तन की आवश्यकता को स्वीकार करना शुरू कर दिया ताकि ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की सरकार में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाई जा सके.
लखनऊ संधि
लखनऊ में दिसंबर 1916 में मुस्लिम लीग और कांग्रेस द्वारा एक संयुक्त सत्र आयोजित किया गया था जिसमें लखनऊ समझौते के रूप में एक प्रसिद्ध समझौता हुआ था. भारतीय स्वायत्तता की मांग के अनुसरण में, दोनों पक्ष समझौते के माध्यम से प्रांतीय विधानसभाओं में धार्मिक अल्पसंख्यकों के अनुपात में उच्च प्रतिनिधित्व की अनुमति देने पर सहमत हुए. इस समझौते को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना गया क्योंकि इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किए और हिंदू मुस्लिम एकता की आशा की एक किरण प्रज्वलित की.
भारत सरकार अधिनियम 1919 (Government of India Act 1919)
भारत सरकार अधिनियम 1919 युनाइटेड किंगडम के संसद द्वारा पारित एक विधान था जिसे ‘मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार’ के नाम से भी जाना जाता है. इसे 23 दिसंबर 1919 को रॉयल असेंटेंट प्राप्त हुआ. मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं, इस अधिनियम में वाइसराय लॉर्ड चेम्स्फोर्ड और भारत के राज्य सचिव एडविन मोंटेगू की रिपोर्ट में सुधारों को शामिल किया गया था.
इसने प्रमुख प्रांतों के लिए एक द्वंद्व की शुरुआत की. जहां सरकार के कुछ क्षेत्रों का नियंत्रण “हस्तांतरित सूची” (जैसे कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य) स्थानीय सरकार के पर्यवेक्षण में शामिल थी, ऐसे प्रत्येक प्रांत में मंत्रियों की सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाएगा जो प्रांतीय परिषद को जवाबदेह होंगे.
सरकार के अन्य क्षेत्रों जैसे विदेशी मामलों, रक्षा और संचार (जिसे ‘आरक्षित सूची’ में शामिल किया था) को वायसराय द्वारा नियंत्रित किया जाएगा. इस अधिनियम ने भारतीयों के नागरिक सेवा में प्रवेश के साथ-साथ सैन्य अधिकारी कोर में आसान और आरक्षित सीटें दोनों अधिवासित यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाई, मुस्लिम और सिखों के लिए “सांप्रदायिक” के सिद्धांत “मिंटो-मॉर्ले सुधारों” की पुष्टि की. हालाँकि प्रांतों के लिए जिम्मेदार मंत्रियों को सत्ता का केवल आंशिक हस्तांतरण प्रदान किया गया था और ऐसे क्षेत्रों में धन पर नियंत्रण अभी भी ब्रिटिश आधिकारिकता के हाथों में था.
दो-राष्ट्र सिद्धांत 
पाकिस्तान का निर्माण दो-राष्ट्र सिद्धांत के सिद्धांत पर आधारित था जो पाकिस्तान आंदोलन के संस्थापक सिद्धांतों में से एक था. दो-राष्ट्र की विचारधारा के अनुसार, भारतीय हिंदू और मुसलमान दो विशिष्ट राष्ट्र हैं, जो भाषा और जातीयता सहित अपनी विशिष्ट क्षेत्र-वार समानता के बावजूद और भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों को एकजुट करने वाली प्राथमिक पहचान और कारक उनका धर्म है. इस प्रकार सिद्धांत ने भारत के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए एक अलग मातृभूमि की वकालत की जहां वे इस्लाम को प्रमुख धर्म के रूप में देख सकते हैं. वकील और राजनेता मुहम्मद अली जिन्ना, जो अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के नेता बने रहे और भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
कई हिंदू राष्ट्रवादी संगठन भी सिद्धांत से प्रभावित थे. उन्हें प्रेरित करने वाले अलग-अलग कारणों में भारत से पूरे मुस्लिम समुदाय को बाहर निकालना कानूनी रूप से, भारत में एक हिंदू राज्य की स्थापना. इस्लाम में धर्मांतरण को प्रतिबंधित करना और भारतीय मुसलमानों के बीच हिंदू धर्म में रूपांतरण के लिए शुद्धि का आयोजन करना शामिल था.
भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक लाला लाजपत राय जो अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के गठन के बाद ब्रिटिश राज में हिंदू समुदाय के अधिकारों की रक्षा करने के लिए हिंदू महासभा के नेता बने रहे, पहले हिंदू समर्थकों में से एक थे. उन्होंने 14 दिसंबर 1924 को भारतीय अंग्रेजी भाषा के दैनिक समाचार पत्र “द ट्रिब्यून” में विवादास्पद रूप से लिखा, भारत को एक हिंदू राज्य और एक मुस्लिम में स्पष्ट विभाजन की मांग की. सिद्धांत की व्याख्याएं विविध हैं. जबकि एक ने मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों से पूरे हिंदू समुदाय को हटाने की वकालत करने की वकालत की और इसके विपरीत, एक अन्य व्याख्या संप्रभु स्वायत्तता के लिए की गई जहां इस तरह के हस्तांतरण की आवश्यकता नहीं थी और हिंदू और मुस्लिम सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, हालांकि भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों के लिए एकांत अधिकार शामिल था.
भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935)
भारत सरकार अधिनियम अगस्त 1935 में शुरू में पारित किया गया था. अधिनियम के महत्वपूर्ण पहलुओं में 1919 अधिनियम की अराजकता प्रणाली को समाप्त करना और केंद्र में ब्रिटिश भारतीय प्रांतों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करने और राजशाही का परिचय देना शामिल था. एक संघीय न्यायालय “फेडरेशन ऑफ इंडिया” की स्थापना की. स्थापना का प्रावधान भारतीय परिषद की घोषणा करते हुए सलाहकार परिषद की शुरूआत, प्रत्यक्ष चुनाव शुरू करना, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के साधन प्रदान करना था. 
1936-37 की सर्दियों के दौरान आंशिक रूप से प्रांतों का पुनर्गठन और प्रांतीय चुनाव ब्रिटिश भारत में हुए थे. जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आठ में से आठ प्रांतों में सत्ता में आई थी, जबकि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग किसी भी प्रांत में सरकार बनाने में असफल रही थी. हालांकि चुनी हुई सरकारों का गठन अधिकांश रियासतों में संभव नहीं हो सका क्योंकि राजकुमारों की अवहेलना होती थी. हालाँकि कांग्रेस ने यह सुनिश्चित किया कि धार्मिक मामले आर्थिक और सामाजिक मामलों की तुलना में भारतीयों के लिए अधिक महत्व नहीं रखते हैं, लेकिन कुछ घटनाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में पार्टी को धीरे-धीरे मुस्लिम जनता से अलग कर दिया. ऐसी ही एक घटना में यूपी के नवगठित प्रांतीय प्रशासन ने गाय के संरक्षण के साथ-साथ हिंदी के प्रयोग को भी बढ़ावा दिया. मुस्लिम लीग द्वारा मुस्लिमों की स्थिति का आकलन करने के लिए कांग्रेस द्वारा शासित प्रांतों में जांच की गई. मुसलमानों को धीरे-धीरे चिंता होने लगी कि भविष्य में वे स्वतंत्र भारत में हिंदु कांग्रेस सरकार के अधीन अन्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे.
द्वितीय विश्व युद्ध
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद, भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने सितंबर 1939 में एक घोषणा की कि भारत जर्मनी के साथ युद्ध में था. उन्होंने भारतीय लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों से सलाह के बिना इस तरह के एक महत्वपूर्ण निर्णय की घोषणा की. वायसराय की इस तरह की कार्रवाई के विरोध में अक्टूबर और नवंबर 1939 में कांग्रेस के मंत्रालयों ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन मुस्लिम लीग (जो राज्य के संरक्षण में चल रही थी) ने कांग्रेस के प्रभुत्व, “उद्धार दिवस” ​​से उत्सव का आयोजन किया और अपने युद्ध के प्रयास में ब्रिटेन का समर्थन किया. लिनलिथगो द्वारा जिन्ना को गांधी के समान दर्जा दिया गया था जबकि कांग्रेस को “हिंदू संगठन” के रूप में चिह्नित किया गया था.
लाहौर संकल्प (Lahore Resolution)
22 मार्च से 24 मार्च तक 1940 में तीन दिवसीय वार्षिक सत्र मुस्लिम लीग द्वारा आयोजित किया गया था. एक औपचारिक राजनीतिक वक्तव्य जो लाहौर संकल्प के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिसे “पाकिस्तान संकल्प” के रूप में भी जाना जाता है, मुस्लिम लीग द्वारा अपने वार्षिक सत्र के अंतिम दिन अपनाया गया था. संकल्प में ब्रिटिश भारत के पूर्वी और उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राज्यों की परिकल्पना की गई थी, जहां आवश्यक क्षेत्रीय समायोजन करने के बाद समुदाय संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक था और यह भी उल्लेख किया था कि इस प्रकार गठित घटक स्वायत्त और संप्रभु होना चाहिए.
अगस्त 1940 में लिनलिथगो ने प्रस्ताव किया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत को डोमिनियन का दर्जा दिया जाए. अपने युद्ध प्रयासों में सभी भारतीय समुदायों और पार्टियों से समर्थन प्राप्त करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने उस वर्ष ‘प्रस्ताव’ के रूप में एक प्रस्ताव भी प्रसिद्ध किया. इसने वायसराय की कार्यकारी परिषद के विस्तार का वादा किया. जिसमें अधिक भारतीयों को शामिल करना, सलाहकार युद्ध परिषद की स्थापना करना, युद्ध के बाद अपने स्वयं के संविधान को बनाने के लिए भारतीयों के अधिकार की मान्यता और अल्पसंख्यकों के विचारों को ध्यान में रखना शामिल था. हालांकि इस प्रस्ताव को उस वर्ष सितंबर में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने अस्वीकार कर दिया था. क्योंकि यह किसी तरह से मुस्लिम लीग को वीटो शक्ति प्रदान कर रहा था जबकि बाद में इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि पाकिस्तान की स्थापना के लिए इसमें कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया गया था. सविनय अवज्ञा आंदोलन को फिर से कांग्रेस द्वारा पुनर्जीवित किया गया. 
भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement)

8 अगस्त 1942 को द्वितीय विश्व युद्ध के बीच प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के बॉम्बे सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन या भारत अगस्त आंदोलन शुरू किया और ब्रिटिश राज को समाप्त करने की मांग की भारत में बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में भारत छोड़ो भाषण देते समय गांधी ने करो या मरो का नारा दिया. इसके बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया गया. कुछ ही घंटों में अंग्रेजों ने कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को किसी भी मुकदमे में कैद कर दिया और उनमें से अधिकांश को युद्ध के अंत तक जेल में रखा और उन्हें जनता से अलग कर दिया जबकि मुस्लिम लीग ने स्वतंत्र रूप से अपना संदेश फैलाया.
1946 के चुनाव (1946 elections)
यूनाइटेड किंगडम के नए प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली जिन्होंने वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता के मुद्दे का समर्थन किया. उन्होंने पद संभालने के बाद इस विषय को सर्वोच्च प्राथमिकता दी. जनवरी 1946 से भारत में कई विद्रोह टूट गए, जिसने केवल अकेली सरकार को स्वतंत्रता के मुद्दे पर तेजी लाने के लिए प्रेरित किया. 1946 के प्रारंभ में भारत में चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस को 11 प्रांतों में से 8 में जीत मिली और अधिकांश हिंदुओं के लिए कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के वैध उत्तराधिकारी के रूप में उभरी. मुस्लिम वोट और प्रांतीय विधानसभाओं में अधिकांश आरक्षित मुस्लिम सीटों को मुस्लिम लीग ने सेंट्रल असेंबली की सभी मुस्लिम सीटों पर जीत हासिल की. जिन्ना ने मुस्लिम लीग की इस सफलता की व्याख्या मुसलमानों की एक अलग राज्य की लोकप्रिय माँग के रूप में की.

डायरेक्ट एक्शन डे (Direct Action Day)

कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक समझौते पर आने में विफल रहे. ब्रिटिश राज से भारतीय नेतृत्व को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए एक कैबिनेट मिशन योजना अंग्रेजों द्वारा तैयार की गई थी. इसने एकजुट भारत को संरक्षित करने का प्रस्ताव रखा जो कांग्रेस द्वारा भी वांछित था. हालांकि, मुस्लिम लीग द्वारा एक वैकल्पिक योजना बनाई गई थी जिसमें ब्रिटिश भारत के विभाजन को हिंदू बहुल भारत में और मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान को शामिल किया गया था, जिसे कांग्रेस ने पूरी तरह से खारिज कर दिया था. इस तरह की अस्वीकृति के विरोध में, मुस्लिम लीग द्वारा 16 अगस्त 1946 को एक सामान्य हड़ताल की योजना बनाई गई थी, जिसे कांग्रेस और अंग्रेजों दोनों के लिए मुसलमानों के पूर्ण प्रदर्शन के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ कहा गया. जिसे ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स के रूप में भी जाना जाता है. ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ ब्रिटिश भारत के इतिहास में इस समय तक के सबसे खराब सांप्रदायिक दंगों का गवाह था. मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच बंगाल प्रांत के कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) शहर में व्यापक सांप्रदायिक दंगे हुए. इस दिन ने ‘द वीक ऑफ द लॉन्ग नाइफ्स’ की भी शुरुआत की. घरों में महिलाओं और बच्चों पर हमले से सड़कों पर जो क्रूरता बढ़ी, वह तीन दिनों तक जारी रही, जिसमें हजारों हिंदू और मुसलमान मारे गए. हालांकि घटनाओं के ऐसे मोड़ से हैरान, कांग्रेस-नीत अंतरिम सरकार को उस साल सितंबर में जवाहरलाल नेहरू के साथ एकजुट भारत के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया गया था. धीरे-धीरे सांप्रदायिक हिंसा फैल गई और संयुक्त प्रांत में बंगाल, बिहार, रावलपिंडी और गढ़मुक्तेश्वर में नोआखली में अपनी छाप छोड़ी.

माउंटबेटन प्लान (Mountbatten Plan)

विभाजन को अपरिहार्य के रूप में देखने वाले पहले कांग्रेस नेताओं में से एक वल्लभभाई पटेल भी थे. उन्होंने मुस्लिम लीग के मंत्रियों को सरकार में शामिल करने के लिए जिन्ना के प्रत्यक्ष कार्य अभियान को भी बंद कर दिया. उन्होंने दिसंबर 1946 से जनवरी 1947 तक मुस्लिम-बहुसंख्यक प्रांतों से बाहर बने पाकिस्तान के विषय पर सिविल सेवक वी. पी. मेनन के साथ काम किया. पटेल द्वारा सुझाए गए विचारों को भारतीय जनता से काफी समर्थन प्राप्त किया.
लॉर्ड लुईस माउंटबेटन को क्लेमेंट एटली ने 20 फरवरी 1947 को भारत के अंतिम वायसराय के रूप में नियुक्त किया था और 30 जून 1948 तक स्वतंत्र भारत में ब्रिटिश भारत के संक्रमण की निगरानी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. उन्हें भारत के विभाजन को बनाए रखने से बचने का निर्देश दिया गया था. भारत को स्वायत्तता हस्तांतरित करके एकजुट किया गया और बदलती हुई परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने की सलाह दी गई ताकि ब्रिटिशों को कम से कम प्रतिष्ठित नुकसान के साथ बाहर निकाला जा सके. सांप्रदायिक स्थिति को भांपने के बाद माउंटबेटन ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि विभाजन सत्ता के त्वरित और क्रमिक हस्तांतरण के लिए एकमात्र विकल्प था और देरी से गृह युद्ध शुरू हो सकता है. 3 जून 1947 को, उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक योजना की घोषणा की जिसे ‘माउंटबेटन प्लान’ के नाम से भी जाना जाता है और साथ ही 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता की तारीख दी. इस योजना में बंगाल और पंजाब के मुस्लिम बहुल प्रांतों का विभाजन शामिल था. भारत और पाकिस्तान के दो अलग-अलग प्रभुत्वों में ब्रिटिश भारत का वास्तविक विभाजन. हिंदू और सिख बहुमत वाले क्षेत्रों को नए भारत को सौंपा गया था, जबकि मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों को नए राज्य पाकिस्तान के लिए सौंपा गया था. पटेल ने इस योजना से सहमत होने के लिए नेहरू और अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ अपनी बात रखी और उनकी पैरवी की.  हालाँकि गांधी तब भी विभाजन के खिलाफ थे, कांग्रेस ने योजना को मंजूरी दे दी और पटेल ने विभाजन परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए सार्वजनिक संपत्ति के विभाजन का पर्यवेक्षण किया. पाकिस्तान ने भारतीय सेना के एक तिहाई छह में से दो प्रमुख महानगरीय शहरों में से दो और भारतीय रेलवे लाइनों के दो-पाँचवें हिस्से में प्रवेश किया. पटेल और नेहरू ने भी भारतीय मंत्रिपरिषद का चयन किया. दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने भी इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी क्योंकि एक अलग राज्य के लिए उनकी मांग पूरी हो गई थी. सिखों का प्रतिनिधित्व करने वाले मास्टर तारा सिंह और दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले बी. आर. अम्बेडकर सहित अन्य लोगों ने भी इस योजना को मंजूरी दी.

विभाजन और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (Partition and Indian Independence Act of 1947)

18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित किया. इस अधिनियम ने भारत और पाकिस्तान के दो नए स्वतंत्र प्रभुत्वों में ब्रिटिश भारत के विभाजन का नेतृत्व किया और रियासतों पर अंग्रेजों का आधिपत्य त्याग दिया. पाकिस्तान का स्वतंत्र संघीय प्रभुत्व जिसमें दो एन्क्लेव, पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान (आधुनिक पाकिस्तान) शामिल हैं, भारत द्वारा भौगोलिक रूप से अलग किए गए. 14 अगस्त 1947 को मुहम्मद अली जिन्ना इसके पहले जनरल के रूप में अस्तित्व में आए. उस वर्ष 15 अगस्त को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस में भारत एक स्वतंत्र प्रभुत्व बन गया और जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, जबकि माउंटबेटन देश के पहले गवर्नर जनरल बने. महात्मा गांधी राष्ट्रपिता, ने विभाजन के दौरान कलकत्ता में रहने का फैसला किया, जहां उन्होंने सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए प्रयास किया, उपवास और कताई रखकर स्वतंत्रता दिवस बिताने की कसम खाई और नए प्रवासियों के साथ काम किया.

रेडक्लिफ रेखा (Radcliffe Line)

भारत और पाकिस्तान के बीच बाउंड्री सीमांकन लाइन, रेडक्लिफ रेखा के नाम से प्रसिद्ध, जिसका नाम इसके वास्तुकार सर सिरिल रेडक्लिफ के नाम पर 17 अगस्त, 1947 को प्रकाशित किया गया था. वर्तमान में लाइन के पश्चिमी हिस्से में भारत-पाकिस्तान सीमा को दर्शाया गया है, जबकि इसकी पूर्वी तरफ दर्शाया गया है. इसके बाद पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की सदस्यता के लिए आवेदन किया जिसे उस वर्ष 30 सितंबर को महासभा द्वारा स्वीकार कर लिया गया था. भारत, 1945 से संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थापक सदस्य, प्रभुत्व का दर्जा प्राप्त करने के बाद भी अंतर सरकारी संगठन का सदस्य बना रहा.
भारत और पाकिस्तान के बीच हिंसा (Violence between India and Pakistan)
रेडक्लिफ रेखा की घोषणा जिसमें बंगाल और पंजाब प्रांतों का विभाजन शामिल था. बाद में तीव्र सांप्रदायिक हिंसा और जनसंख्या हस्तांतरण की भयावह अवधि थी, जो कि किसी भी भारतीय नेता ने नहीं देखी थी. जैसा कि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, नरसंहार की भयावह प्रवृत्ति के साथ हिंसा की भयावह और बर्बर घटनाओं में पीड़ितों के उत्परिवर्तन शामिल थे, जिनमें उनके अंगों और जननांगों को काटना, गर्भवती महिलाओं को बेदखल करना, ईंट की दीवारों के खिलाफ बच्चों के सिर को मारना और शवों का प्रदर्शन शामिल था.

विशाल जनसंख्या हस्तांतरण और विस्थापन (Massive population transfer and displacement)

भारत और पाकिस्तान के दर्दनाक विभाजन में विशाल जनसंख्या आदान-प्रदान शामिल थे. लाखों लोगों को अपनी मातृभूमि से उखाड़ फेंका गया था और उन्हें अपने सभी गुणों और सामानों को रातोंरात पीछे छोड़ना पड़ा और पैदल यात्रा करना पड़ा, बैलगाड़ी की रेलगाड़ियाँ और जो भी नई ज़मीन का वादा किया. जो उनके लिए एक नया जीवन और घर था. सूत्रों के अनुसार विभाजन के बाद भारत में 330 मिलियन, पूर्वी पाकिस्तान में 30 मिलियन और पश्चिमी पाकिस्तान में 30 मिलियन लोग थे.  पंजाब में पश्चिम से विस्थापितों की अधिकतम संख्या (लगभग 11.2 मिलियन) थी. जबकि 4.7 मिलियन हिंदू और सिख भारत से पश्चिम पाकिस्तान चले गए, 6.5 मिलियन मुसलमान भारत से पश्चिम पाकिस्तान चले गए. पूर्वी हिस्से में 0.7 मिलियन मुस्लिम पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए और 2.6 मिलियन हिंदू पूर्वी पाकिस्तान से भारत में चले गए. 1931 और 1951 की जनगणना द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि पंजाब की सीमा पर बड़े पैमाने पर स्थानांतरण के दौरान लगभग 2.23 मिलियन लोग लापता हो गए, जिसमें 1.26 मिलियन लापता मुसलमान शामिल थे, जो पश्चिमी भारत छोड़ने के बाद पाकिस्तान नहीं पहुंचे और इसी तरह 0.84 मिलियन लोग लापता हिंदु / सिख थे.

शरणार्थियों का निपटान (Settlement of Refugees)

भारत और पाकिस्तान दोनों को शरणार्थियों को फिर से बसाने में कई साल लग गए. भारत में शरणार्थियों को शुरुआत में किंग्सवे कैंप में सैन्य बैरकों, लाल किला और पुराना किला जैसे ऐतिहासिक स्थानों जैसे विभिन्न सैन्य स्थलों में आश्रय दिया गया था. शरणार्थियों को फिर से बसाने के लिए, भारत सरकार ने बाद में कई निर्माण परियोजनाएं शुरू कीं, जिसके कारण दिल्ली में पंजाबी बाग, लाजपत नगर और राजिंदर नगर जैसी आवासीय कॉलोनियों का निर्माण हुआ. भारत सरकार शिक्षा, रोजगार और शरणार्थियों के लिए अन्य अवसरों का प्रावधान करने के लिए भारत भर में कई योजनाओं के साथ आई. 1947 में ब्रिटिश भारत के हिंसक विभाजन ने भारत और पाकिस्तान के बीच एक मजबूत, जटिल और बड़े पैमाने पर शत्रुतापूर्ण संबंध विकसित किया जो आज तक कायम है|

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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 



पाटीदार जाति की जानकारी

साहित्यमनीषी डॉ.दयाराम आलोक से इंटरव्यू

गायत्री शक्तिपीठ शामगढ़ मे बालकों को पुरुष्कार वितरण

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ढोली(दमामी,नगारची ,बारेठ)) जाती का इतिहास

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सुभाषचंद्र बोस की जीवनी और अनमोल वचन

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हिन्दी व्याकरण , विलोम शब्द (विपरीतार्थक शब्द)

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महान संस्कृत कवि भर्तृहरि का जीवन परिचय

तुलसी चालीसा