कुम्हार भारत, पाकिस्तान और नेपाल में पाया जाने वाला एक जाति या समुदाय है. इनका इतिहास अति प्राचीन और गौरवशाली है. मानव सभ्यता के विकास में कुम्हारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. कहा जाता है कि कला का जन्म कुम्हार के घर में ही हुआ है. इन्हें उच्च कोटि का शिल्पकार वर्ग माना गया है. सभ्यता के आरंभ में दैनिक उपयोग के सभी वस्तुओं का निर्माण कुम्हारों द्वारा ही किया जाता रहा है. पारंपरिक रूप से यह मिट्टी के बर्तन, खिलौना, सजावट के सामान और मूर्ति बनाने की कला से जुड़े रहे हैं. यह खुद को वैदिक भगवान प्रजापति का वंशज मानते हैं, इसीलिए ये प्रजापति के नाम से भी जाने जाते हैं. इन्हें प्रजापत, कुंभकार, कुंभार, कुमार, कुभार, भांडे आदि नामों से भी जाना जाता है. भांडे का प्रयोग पश्चिमी उड़ीसा और पूर्वी मध्य प्रदेश के कुम्हारों के कुछ उपजातियों लिए किया जाता है. कश्मीर घाटी में इन्हें कराल के नाम से जाना जाता है. अमृतसर में पाए जाने वाले कुछ कुम्हारों को कुलाल या कलाल कहा जाता है. कहा जाता है कि यह रावलपिंडी पाकिस्तान से आकर यहां बस गए. कुलाल शब्द का उल्लेख यजुर्वेद (16.27, 30.7) मे मिलता है,
कुम्हार किस कैटेगरी में आते हैं?
आरक्षण की व्यवस्था के अंतर्गत कुम्हार जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, पन्ना, सतना, टीकमगढ़, सीधी और शहडोल जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है; लेकिन राज्य के अन्य जिलों में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में सूचीबद्ध किया गया है. अलग-अलग राज्योंं में कुमार के अलग-अलग सरनेम है.
कुम्हार कहां पाए जाते हैं?
यह जाति भारत के सभी प्रांतों में पाई जाती है. हिंदू प्रजापति जाति मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में पाई जाती है. महाराष्ट्र में यह मुख्य रूप से पुणे, सातारा, सोलापुर, सांगली और कोल्हापुर जिलों में पाए जाते हैं.
कुम्हार शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
कुम्हार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “कुंभ”+”कार” से हुई है. “कुंभ” का अर्थ होता है घड़ा या कलश. “कार’ का अर्थ होता है निर्माण करने वाला बनाने वाला या कारीगर. इस तरह से कुम्हार का अर्थ है- “मिट्टी से बर्तन बनाने वाला”.
वैदिक मान्यताओं के अनुसार, कुम्हार की उत्पत्ति त्रिदेव यानी कि सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा, पालनहार भगवान विष्णु और संहार के अधिपति भगवान शिव से हुई है. सृष्टि के आरंभ में त्रिदेव को यज्ञ करने की इच्छा हुई. यज्ञ के लिए उन्हें मंगल कलश की आवश्यकता थी. तब प्रजापति ब्रह्मा ने एक मूर्तिकार कुम्हार को उत्पन्न किया और उसे मिट्टी का घड़ा यानी कलश बनाने का आदेश दिया. कुम्हार ने ब्रह्मा जी से कलश निर्माण के लिए सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराने की प्रार्थना की. जब भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र चाक के रूप में उपयोग करने के लिए दिया. शिव जी ने धुरी के रूप में प्रयोग करने के लिए अपना पिंडी दिया. ब्रह्मा जी ने धागा (जनेऊ), पानी के लिए कमंडल और चक्रेतिया दिया. इन सभी सामग्री और उपकरण की मदद से फिर कुम्हार ने मंगल कलश का निर्माण किया जिससे यज्ञ संपन्न हुआ.
हिंदू कुम्हार सृष्टि के रचयिता वैदिक प्रजापति (भगवान ब्रह्मा) के नाम पर खुद को सम्मानपूर्वक प्रजापति कहते हैं.
- कुम्हारों को उच्च कोटि का शिल्पकार माना जाता है.
- सभ्यता के आरंभ में कुम्हार ही दैनिक उपयोग की सभी वस्तुएं बनाते थे.
- कुम्हारों ने मिट्टी के बर्तन, खिलौने, सजावट के सामान, और मूर्तियां बनाई हैं.
- कुम्हारों को वैदिक देवता प्रजापति का वंशज माना जाता है.
- कुम्हारों को सृजनकर्ता और वंश वर्धक देवता माना जाता है.
- विवाह में गणपति की स्थापना से पहले कुम्हारों के घर जाकर चाक की पूजा की जाती है.
- भारत की सभी जातियों के लिए शादी में चाक-पूजन एक अहम रस्म है.
कुम्हारों की उत्पत्ति से जुड़ी एक दंतकथा:
- एक बार ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों के बीच गन्ना बांटा था.
- सभी पुत्रों ने अपना हिस्सा खा लिया, लेकिन कुम्हार भूल गया.
- कुम्हार ने गन्ने को मिट्टी के ढेर के पास रख दिया था.
- कुछ दिन बाद ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से गन्ने मांगे, तो कोई भी पुत्र गन्ना नहीं ला सका.
- कुम्हार ने ब्रह्मा जी को पूरा गन्ने का पौधा भेंट कर दिया.
राजस्थान में कुछ कुमारों/कुम्भारों ने कुमरावत सरनेम का प्रयोग किया जो बाद में कुमावत में तब्दील हो गया।
इसको समझने के लिये भाषा विज्ञान पर नजर डाले-
कुमावत शब्द की सन्धि विच्छेद करने पर पता चलता है ये शब्द कुमा + वत से बना है। यहां वत शब्द वत्स से बना है । वत्स का अर्थ होता है पुत्र या पुत्रवत शिष्य अर्थात अनुयायी। इसके लिये हम अन्य शब्दों पर विचार करते है-
निम्बावत अर्थात निम्बार्काचार्य के शिष्य
रामावत अर्थात रामानन्दाचार्य के शिष्य
शेखावत अर्थात शेखा जी के वंशज
लखावत अर्थात लाखा जी के वंशज
रांकावत अर्थात रांका जी के शिष्य या अनुयायी
इसी प्रकार कुमरावत/कुमावत का भी अर्थ होता है कुम्हार के वत्स या अनुयायी।
कुम्हार शब्द था फिर कुमावत शब्द का प्रयोग क्यों शुरू हुआ?
उसके पीछे मूल कारण यही है कि सामान्यतया पूरा समाज पिछड़ा रहा है और जब समाज का एक वर्ग तरक्की कर आगे बढा तो उसने स्वयं को अलग दर्शाने के लिये इस शब्द का प्रयोग शुरू किया। और अब यह व्यापक पैमाने में प्रयोग होता है। वैसे इतिहास में कुमावत शब्द का प्रयोग जयपुर के स्थापना (1728 ई) के समय से मिलता है। जयपुर शहर राजस्थान के समस्त शहरों में अपेक्षाकृत नया है।
सवाल यह भी किया जाता कि इतिहास में कुमावतों का युद्ध में भाग लेने का उल्लेख है। हाँ ,युद्ध में सभी जातियों की थोड़ी बहुत भागीदारी अवश्य होती थी और वे आवश्यकता होने पर अपना पराक्रम दिखा भी देते थे। युद्ध में कोई सैनिकों की सहायता करने वाले होते थे तो कोई दुन्दुभी बजाते कोई गीत गाते कोई हथियार पैने करते तो कोई भोजन बनाते। महाराणा प्रताप ने तो अपनी सेना में भीलों की भी भर्ती की थी। ये भी संभव है कि इस प्रकार युद्ध में भाग लेने वाले समाज बन्धु ने कुमावत शब्द का प्रयोग शुरू किया।
इतिहास में कुम्हारों की पुरानी जागीरों का वर्णन है तो सवाल यह है कि क्या कुम्हार राजपूत के वंशज है या क्षत्रिय है। इसका उत्तर ये हो सकता है की जागीर देना राजा की मर्जी पर था मेहरापर नगढ के रहता था|दुर्ग के निर्माण के समय दुर्ग ढह जाता तो ये उपाय बताया गया कि किसी जीवित व्यक्ति द्वारा नींव मे समाधि लिये जाने पर ये अभिशाप दूर होगा। तब पूरे राज्य में उद्घोषणा करवाई गई कि जो व्यक्ति अपनी जीवित समाधि देगा उसके वंशजों को जागीर दी जाएगी। तब केवल एक गरीब व्यक्ति आगे आया उसका नाम राजाराम मेघवाल था। तब महाराजा ने उसके परिवार जनों को एक जागीर दी तथा उसके नाम से एक समाधि स्थान (थान) किले में आज भी मौजूद है। चारणों को भी उनकी काव्य गीतों की रचनाओं से प्रसन्न हो खूब जागीरे दी गयी। अत: इसका उत्तर ये है कि जागीर होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वे राजपूत के वंशज थे। और क्षत्रिय वर्ण बहुत व्यापक है राजपूत तो उनके अंग मात्र है। कुम्हार जाती ने युद्ध में भाग लिया इसलिए क्षत्रिय तो कहला सकता है पर राजपूत नहीं। राजपूत तो व्यक्ति तभी कहलाता है जब वह किसी राजा की संतति हो। क्षत्रिय होने के लिए राजा का वंशज होना जरूरी नहीं होता।कर्म से व्यक्ति क्षत्रिय वैश्य या शुद्र होता है। कुम्हार/कुमार शिल्प कार्य करने के कारण वैश्य वर्ण में आता है। कुछ क्षत्रिय कर्म करते थे तो स्वयं को क्षत्रिय भी कहते है।
भाट और रावाें ने अपनी बहियों में अलग अलग कहानीयों के माध्यम से लगभग सभी जातियों को राजपूतों से जोडा है ताकि उन्हे परम दानी राजा के वंशज बता अधिक से अधिक दान दक्षिणा ले सके।
लेकिन कुमावत और कुम्हारों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि राजपूतो में ऐसी गोत्र नहीं होती जैसी उनकी है और जिस प्रकार कुमावत का रिश्ता कुमावत में होता है वैसे किसी राजपूत वंश में नहीं होता। अत: उनको भाट और रावों की झूठी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। राजपूतों मे कुम्भा नाम से कई राजा हुए है अत: हो सकता है उनके वंशज भी कुमावत लगाते रहे हो। पर अब कुम्हारों को कुमावत लगाते देख वे अपना मूल वंश जैसे सिसोदिया या राठौड़ या पंवार लगाना शुरू कर दिया होगा और वे रिश्ते भी अपने वंश के ही कुमावत से ना कर कच्छवाहो परिहारो से करते होंगे।
कुछ विचारक ये भी तर्क देते है कि हम बर्तन मटके नहीं बनाते और इनको बनाने वालों से उनका कोई संबंध कभी नहीं रहा। उन लोगों को समझना होगा कि आपके पुराने खेत और मकान जायदाद मे तो कुम्हार कुमार कुम्भार लिखा है तो वे तर्क देते है कि वे अज्ञानतावश खुद को कुम्हार कहते थे। यहां ये लोग भूल जाते है कि हमारे पूर्वज राव और भाट के हमारी तुलना में ज्यादा प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहते थे। अगर भाट कहते कि आप कुमावत हो तो वे कुमावत लगाते। और कुमावत शब्द का कुम्हारों द्वारा प्रयो्ग ज्यादा पुराना नहीं है। वर्तमान जयपुर की स्थापना के समय से ही प्रचलन में आया है और धीरे धीरे पूरे राजस्थान में कुम्हारों के मध्य लोकप्रिय हो रहा है। और रही बात मटके बनाने की तो हजार में से एक व्यक्ति ही मटका बनाता है। क्योंकि अगर सभी बनाते तो इतने बर्तन की खपत ही कहाँ होती। मिटटी के बर्कतनों की कम मांग के कारण कुम्हार जाति के लोग अब अन्य रोजगार अपना रहे हैं| । कुछ खेती करते कुछ भवन निर्माण करते कुछ पशुचराते कुछ बनजारो की तरह व्यापार करते तो कुछ बर्तन और मिट्टी की वस्तुए बनातें। खेतीकर, चेजारा और जटिया कुमार क्रमश: खेती करने वाले, भवन निर्माण और पशु चराने और उन का कार्य करने वाले कुम्हार को कहा जाता था।
कुछ कहते है की मारू कुमार मतलब राजपूत। मारू मतलब राजपूत और कुमार मतलब राजकुमार।
– उनके लिये यह कहना है कि राजस्थान की संस्कृति पर कुछ पढे बिना पढे ऐसी बाते ही मन मे उठेगी। मारू मतलब मरू प्रदेश वासी। मारेचा मारू शब्द का ही परिवर्तित रूप है जो मरूप्रदेश के सिंध से जुड़े क्षेत्र के लोगो के लिये प्रयुक्त होता है। और कुमार मतलब हिन्दी में राजकुमार होता है पर जिस भाषा और संस्कृति पर ध्यान दोगे तो वास्तविकता समझ आयेगी। यहां की भाष्ाा में उच्चारण अलग अलग है। यहां हर बारह कोस बाद बोली बदलती है। राजस्थान मे ‘कुम्हार’ शब्द का उच्चारण कुम्हार कहीं नही होता। कुछ क्षेत्र में कुम्मार बोलते है और कुछ क्षेत्र में कुंभार अधिकतर कुमार ही बोलते है। दक्षिण्ा भारत में कुम्मारी, कुलाल शब्द कुम्हार जाति के लिये प्रयुक्त होता है।
प्रजापत और प्रजापति शब्द के अर्थ में कोई भेद नहीं। राजस्थानी भाषा में पति का उच्चारण पत के रूप में करते है। जैसे लखपति का लखपत, लक्ष्मीपति सिंघानिया का लक्ष्मीपत सिंघानिया। प्रजापति को राजस्थानी में प्रजापत कहते है। यह उपमा उसकी सृजनात्मक क्षमता देख कर दी गयी है। जिस प्रकार ब्रहृमा नश्वर सृष्टी की रचना करता है प्राणी का शरीर रज से बना है और वापस मिट्टि में विलीन हो जाता है वैसे है कुम्भकार मिट्टि के कणों से भिन्न भिन्न रचनाओं का सृजन करता है।
कुछ कहते है कि रहन सहन अलग अलग। और कुम्हार स्त्रियां नाक में आभूषण नही पहनती। तो इसके पीछे भी अलग अलग क्षेत्र के लोगो मे रहन सहन के स्तर में अन्तर होना ही मूल कारण है।
राजस्थान में कुम्हार जाति इस प्रकार उपजातियों में विभाजित है-
मारू – अर्थात मरू प्रदेश के कुम्हार
खेतीकर कुम्हार – अर्थात ये साथ में अंश कालिक खेती करते थे। चेजारा भी इनमें से ही है जो अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर भवन निर्माण करते थे। बारिस के मौसम में सभी जातियां खेती करती थी क्योंकि उस समय प्रति हेक्टेयर उत्पादन आज जितना नही होता था अत: लगभग सभी जातियां खेती करती थी। सर्दियों में मिट्टि की वस्तुए बनती थी।
बांडा कुम्हार _ ये केवल बर्तन और मटके बनाने का व्यवसाय ही करते थे। ये मूलत: पश्चिमी राजस्थान के नहीं होकर गुजरात और वनवासी क्षेत्र से आये हुए कुम्हार थे। इनका रहन सहन भी मारू कुम्हार से अलग था। ये दारू मांस का सेवन भी करते थे।
पुरबिये कुम्हार– ये पूरब दिशा से आने वाले कुम्हारों को कहा जाता है जैसे हाड़ौती क्षेत्र के कुम्हार पश्चिमी क्षेत्र में आते तो इनको पुरबिया कहते। ये भी दारू मांस का सेवन करते थे।
जटिया कुम्हार - ये अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर पशुपालन करते थे। ये पानी की अत्यंत कमी वाले क्षेत्र में रहते है वहां पानी और घास की कमी के कारण गाय और भैंस की जगह बकरी और भेड़ पालते है। और बकरी और भेड़ के बालों की वस्तुए बनाते थे। इनका रहन सहन भी पशुपालन व्यवसाय करने के कारण थोड़ा अलग हो गया था हालांकि ये भी मारू ही थे। इनका पहनावा राइका की तरह होता था।
मारू – अर्थात मरू प्रदेश के कुम्हार
खेतीकर कुम्हार – अर्थात ये साथ में अंश कालिक खेती करते थे। चेजारा भी इनमें से ही है जो अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर भवन निर्माण करते थे। बारिस के मौसम में सभी जातियां खेती करती थी क्योंकि उस समय प्रति हेक्टेयर उत्पादन आज जितना नही होता था अत: लगभग सभी जातियां खेती करती थी। सर्दियों में मिट्टि की वस्तुए बनती थी।
बांडा कुम्हार _ ये केवल बर्तन और मटके बनाने का व्यवसाय ही करते थे। ये मूलत: पश्चिमी राजस्थान के नहीं होकर गुजरात और वनवासी क्षेत्र से आये हुए कुम्हार थे। इनका रहन सहन भी मारू कुम्हार से अलग था। ये दारू मांस का सेवन भी करते थे।
पुरबिये कुम्हार– ये पूरब दिशा से आने वाले कुम्हारों को कहा जाता है जैसे हाड़ौती क्षेत्र के कुम्हार पश्चिमी क्षेत्र में आते तो इनको पुरबिया कहते। ये भी दारू मांस का सेवन करते थे।
जटिया कुम्हार - ये अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर पशुपालन करते थे। ये पानी की अत्यंत कमी वाले क्षेत्र में रहते है वहां पानी और घास की कमी के कारण गाय और भैंस की जगह बकरी और भेड़ पालते है। और बकरी और भेड़ के बालों की वस्तुए बनाते थे। इनका रहन सहन भी पशुपालन व्यवसाय करने के कारण थोड़ा अलग हो गया था हालांकि ये भी मारू ही थे। इनका पहनावा राइका की तरह होता था।
बाड़मेर और जैसलमेर में पानी और घास की कमी के कारण वंहा गावं में राजपूत भी भेड़ बकरी के बड़े बड़े झुण्ड रखते है।
रहन सहन अलग होने के कारण और दारू मांस का सेवन करने के कारण मारू अर्थात स्थानीय कुम्हार बांडा और पुरबियों के साथ रिश्ता नहीं करते थे।
मारू कुम्हार दारू मांस का सेवन नहीं करती थे अत: इनका सामाजिक स्तर अन्य पिछड़ी जातियों से बहुत उंचा होता था। अगर कहीं बड़े स्तर पर भोजन बनाना होता तो ब्राहमण ना होने पर कुम्हार को ही वरीयता दी जाती थी। इसीलिए आज भी पश्चिमी राजस्थान में हलवाई का अधिकतर कार्य कुम्हार और ब्राहमण जाति ही करती है।
पूराने समय में आवगमन के साधन कम होने से केवल इतनी दूरी के गांव तक रिश्ता करते थे कि सुबह दुल्हन की विदाई हो और शाम को बारात वापिस अपने गांव पहुंच जाये। इसलिये 20 से 40 किलोमीटर की त्रिज्या के क्षेत्र को स्थानीय बोली मे पट्टी कहते थे। वे केवल अपनी पट्टी में ही रिश्ता करते थे। परन्तु आज आवागमन के उन्नत साधन विकसित होने से दूरी कोई मायने नहीं रखती।
कुछ बंधु हास्यास्पद कुतर्क भी करते है जैसे- कुम्हार कभी इतनी बड़ी तादाद में नहीं रहते की गांव के गांव बस जाये। जोधपुर शहर के पास ही गांव है नान्दड़ी। इसे नान्दीवाल गौत्र के कुम्हारो ने बसाया था। आज भी वहां बड़ी संख्या कुम्हारों की है। एक और गांव है झालामण्ड। वह भी कुम्हार बहुल आबादी का गांव है। ऐसे कई गांव है। पूर्वी राजस्थान में भी है। रूपबास भी ऐसा ही गांव है। ये ऐसा कुतर्क है जो केवल अनजान व्यक्ति ही दे सकता है जो कुपमण्डुक की तरह केवल एक जगह रहा हो। अौर कुम्हार जो मटके बनाते है वे कभी अकेले नहीं रहते। उनकी नियाव जहां मटके आग में पकाये जाते है, वहां सभी कुम्हारों के मटके साथ में पकते है और उस न्याव पर गांव का जागीरदार कर भी लगाता था।
कुछ लोग एक और हास्यास्पद तर्क देते है कि कुम्हार कारू जाति होने से लगान नहीं देते थे। ये भी इन लो्गों की अज्ञानता और पिछड़ापन और घटिया सोच दर्शाता है। ये भूल जाते है कि कुम्भ निर्माण एक शिल्पकला है। कुमार/कुम्भार ना केवल मिट्टी से कुम्भ का निर्माण करता है वरन अन्य वस्तु भी बनाता है। जैसे ईन्ट मूर्तियां और खिलौन एवं अन्य सजावटी उत्पाद। अत: कुम्भकार शिल्पकार वर्ग में आता ही नहीं वरन शिल्पकार वर्ग का जनक माना जाता है। मिट्टी के उत्पाद मुख्यतया सर्दियों मे बनाये जाते थे। और मानसून में तो लगभग सभी जातियों कृषि कार्य करती थी। और जो कृषि करते थे उनको लगान देना पड़ता था। सिर्फ ब्राह्मण से लगान नहीं लिया जाता था। और रही बात कुम्हारों को शादी ब्याह में नेग देने की बात तो नेग केवल उसी कुम्हार को दिया जाता है जिसके घर में चाक होती है और जिसे पूजा जाना होता है। विवाह के अवसर पर चाक पूजन की अनिवार्य रस्म होती है। चाक से सृजन होता है और विवाह से वंश वृद्धि होती है अत: चाक को मंगलकारी माना जाता है। इसी चाक की वजह से कुम्हार को नेग मिलता है बदले में कुम्हार पवित्र कलश देता है। जो कुम्हार बर्तन बनाते थे वे सामूहिक तौर पर उनको न्याव में पकाते थे, और उस न्याव में जागीरदार कर लगाता था।
एक और तर्क है कि रहन सहन अलग होना। राजस्थान में जहां हर 12 कोस बाद बोली बदल जाती है तो उसके पीछे रहन सहन और संस्कृति का अलग होना ही है। राजस्थान के हर राजवंश की भी पगड़ी अलग तरीके की होती थी। हर राज्य की बोली अलग अलग होती थी रहन सहन अलग अलग होता था। तो इसका असर सभी जातियों पर दिखना ही था। लेकिन आज कल के लोगो को तो ये भी नहीं मालुम की उनकी परदादी और परदादा किस तरह के वस्त्र धारण करते थे। आजकल तो उस तरह के वस्त्र ही बड़ी मुस्किल से मिलते है। जोधपुर नागौर की तरफ के क्षेत्र में जाट और कुमार जाति की महिलायें हरा और उसमें लाल और गुलाबी लाइन और चोकड़ी की डिजाइन का मोटा खादी की तरह का कपड़े (स्थानीय भाषा में ‘साड़ी’) से बना घाघरा और उपर कुर्ती कांचली कमीज आदि पहनती थी। पुरूष धोती कुरता पहनते थे और हरी पीली सफेद केसरीया और चुनरी का साफा पहनते थे। वही बाड़मेर की तरफ पुरूष लाल रंग की पगड़ी और अंगरखी और धोती पहनते थे जो राईका जाति के पुरूषों के समान होती थी। धोती और पगड़ी बांधने के तरीके में भी अन्तर था।
कुमारो/कुम्भारों की जनसंख्या अधिक होने के कारण ज्यादातर ने कई पीढियों पूर्व अन्य व्यवसाय अपना लिया। कोई खेती करने लगे कोई चूने से चूनाई और भित्ति चित्र का निर्माण करते। वर्तमान में भी नये नये स्वरोजगार में लिप्त हैं।
अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग कथायें प्रचलित है। कहीं पर शिव पार्वति विवाह की घटना, कहीं पर राणा कुम्भा का स्थापत्य प्रेम, ताे कहीं पर संत कुबाजी को लेकर तो कहीं संत गरवाजी को लेकर कथायें प्रचलित है।
कुछ बन्धुओं का ये भी तर्क है कि हम दूसरें राज्य में सामान्य श्रेणी में आते है इसलिए क्षत्रिय है और कुम्हार चूंकि अन्य पिछड़ा वर्ग में आता है अत: हम अलग जाति के है। उन बन्धुओं को मेरा सुझाव है कि अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित नियम पढे। ऐसा इसलिए होता है कि एक राज्य के अ.पि.व. दूसरे राज्य में जाने पर सामान्य श्रेणी में शामिल होते है। आप कभी दूसरे राज्य की भर्ती परीक्षा में केवल सामान्य श्रेणी में ही भाग ले सकते है। अब कुमावत शब्द की उत्पति राजस्थान में हुई है और राजस्थान से ही कुमावत सरनेम लगाने वाले लोग देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर बसे है। दूसरे राज्य के इतिहास में इस शब्द के बारे में ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं होने कारण और उनको स्थानीय ना मानकर राजस्थानी माना जाने के कारण अपिव श्रेणी में नहीं रखा गया। जब कि यहीं से जाकर अन्य राज्य में, जंहा कुम्हार प्रजापति शब्द प्रचलित है, बसने वाले लोग जाे स्वयं को कुम्हार कहते थे प्रशासनिक मिली भगत से स्वयं को स्थानीय बताकर अपिव श्रेणी का और जिस राज्य में अनुसूचित जाति में हैं वहां अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र बनवा लिया। हालांकि वंहा बस गये फिर भी वंहा के स्थानीय लोगो से रिश्ता नहीं करते।
कुछ बन्धु राजपूत महासभा की पुस्तक का हवाला देते हुए कहते है कि कुमावत कछवाहा राजपूत वंश की एक खाप है। जैसे नाथावत या खंगारोत। यहां में यही कहुंगा कि बिल्कुल कुमावत कछवाहा वंश की एक खाप हो सकती है लेकिन खाप होने पर कुमावत का रिश्ता कुमावत से ना होकर अन्य राजपूत वंश से होगा। जैसे किसी नाथावत का विवाह नाथावत से नहीं होता वैसे ही कुमावत का विवाह कुमावत से नहीं होगा। लेकिन जब कुमावत जाति हो तो कुमावत से रिश्ता हो सकता है अत: जो समाज बन्धु राजपूत समाज की पुस्तक का हवाला देते हैं उन्हे अपनी बुद्धि का थोड़ा इस्तेमाल करना चाहिए।
कुछ बन्धु मरदुशुमारी (जनगणना, census) का हवाला देते है। उनके लिये फिर यही कहना चाहुंगा कि जनगणना में वही आंकड़े होते है जो लोग देते है। अब तक पश्चिमी राजस्थान के लोग कुम्हार लिखवाते आये है और अगली गणना में कुमावत लिखवाते है तो वही लिखा जायेगा जो लिखवायेंगे। जनगणना में जैन पंथ के लोग धर्म हिन्दू लिखवाते आये है। इसलिये जनगणना से पूर्व जैन समाज के लोग कहते भी है कि जनगणना के समय धर्म जैन लिखवाना है हिन्दू नहीं। कुमावत शब्द का प्रचलन देखा देखी ही शुरू हुआ है। पहले 17 वी सदी में एक ने लगाया बाद में देखा देखी दूसरे भी लगाते गये। और अभी भी देखा देखी लगाते जा रहे है।
कुछ बंधु यह तर्क देते हैं कि मारू कुम्हारों में राजपूती नख होते है अत: जरूर राजपूतों से कनेक्शन है और उनका कहना है कि नखों के आधार पर भाटों की बात सही प्रतीत होती है कि हमारे पूर्वज राजपूत थे, किसी कारणवश उन्होने शिल्प कार्य कुम्भकला को अपनाया था। मेरा उन बंधुओं के लिये इतना ही कहना है कि कुम्हार कुमावत राजकुम्हार सभी शिल्पी जातियां है ना कि सेवा करने वाली जातियां, इनमें रिश्तें करते समय गोत्र ही देखी जाती रही है, और चार गौत्र ही टाली जाती रही है। सेवा करने वाली जातियां अपने राजा के वंश के अनुरूप स्वयं का वंश बताती है। अकाल दुर्भिक्ष के समय मेहनत मजदूरी जो भी मिले वो कार्य करने से व्यक्ति की जाति का स्वरूप नहीं बदलता, शिल्पी जातियां सेवा करने वाली जातियों मे तब्दील नहीं हो जाती। अत: मेरा बन्धुओं से विनम्र अनुरोध है कि राजपूती नख जैसी बातों को भूल कर स्वाभिमानी शिल्पियों की तरह केवल गोत्र ही बतायें। सेवा करने वाली जातियों के पास गोत्र नही होती केवल नख होता है।
रहन सहन अलग होने के कारण और दारू मांस का सेवन करने के कारण मारू अर्थात स्थानीय कुम्हार बांडा और पुरबियों के साथ रिश्ता नहीं करते थे।
मारू कुम्हार दारू मांस का सेवन नहीं करती थे अत: इनका सामाजिक स्तर अन्य पिछड़ी जातियों से बहुत उंचा होता था। अगर कहीं बड़े स्तर पर भोजन बनाना होता तो ब्राहमण ना होने पर कुम्हार को ही वरीयता दी जाती थी। इसीलिए आज भी पश्चिमी राजस्थान में हलवाई का अधिकतर कार्य कुम्हार और ब्राहमण जाति ही करती है।
पूराने समय में आवगमन के साधन कम होने से केवल इतनी दूरी के गांव तक रिश्ता करते थे कि सुबह दुल्हन की विदाई हो और शाम को बारात वापिस अपने गांव पहुंच जाये। इसलिये 20 से 40 किलोमीटर की त्रिज्या के क्षेत्र को स्थानीय बोली मे पट्टी कहते थे। वे केवल अपनी पट्टी में ही रिश्ता करते थे। परन्तु आज आवागमन के उन्नत साधन विकसित होने से दूरी कोई मायने नहीं रखती।
कुछ बंधु हास्यास्पद कुतर्क भी करते है जैसे- कुम्हार कभी इतनी बड़ी तादाद में नहीं रहते की गांव के गांव बस जाये। जोधपुर शहर के पास ही गांव है नान्दड़ी। इसे नान्दीवाल गौत्र के कुम्हारो ने बसाया था। आज भी वहां बड़ी संख्या कुम्हारों की है। एक और गांव है झालामण्ड। वह भी कुम्हार बहुल आबादी का गांव है। ऐसे कई गांव है। पूर्वी राजस्थान में भी है। रूपबास भी ऐसा ही गांव है। ये ऐसा कुतर्क है जो केवल अनजान व्यक्ति ही दे सकता है जो कुपमण्डुक की तरह केवल एक जगह रहा हो। अौर कुम्हार जो मटके बनाते है वे कभी अकेले नहीं रहते। उनकी नियाव जहां मटके आग में पकाये जाते है, वहां सभी कुम्हारों के मटके साथ में पकते है और उस न्याव पर गांव का जागीरदार कर भी लगाता था।
कुछ लोग एक और हास्यास्पद तर्क देते है कि कुम्हार कारू जाति होने से लगान नहीं देते थे। ये भी इन लो्गों की अज्ञानता और पिछड़ापन और घटिया सोच दर्शाता है। ये भूल जाते है कि कुम्भ निर्माण एक शिल्पकला है। कुमार/कुम्भार ना केवल मिट्टी से कुम्भ का निर्माण करता है वरन अन्य वस्तु भी बनाता है। जैसे ईन्ट मूर्तियां और खिलौन एवं अन्य सजावटी उत्पाद। अत: कुम्भकार शिल्पकार वर्ग में आता ही नहीं वरन शिल्पकार वर्ग का जनक माना जाता है। मिट्टी के उत्पाद मुख्यतया सर्दियों मे बनाये जाते थे। और मानसून में तो लगभग सभी जातियों कृषि कार्य करती थी। और जो कृषि करते थे उनको लगान देना पड़ता था। सिर्फ ब्राह्मण से लगान नहीं लिया जाता था। और रही बात कुम्हारों को शादी ब्याह में नेग देने की बात तो नेग केवल उसी कुम्हार को दिया जाता है जिसके घर में चाक होती है और जिसे पूजा जाना होता है। विवाह के अवसर पर चाक पूजन की अनिवार्य रस्म होती है। चाक से सृजन होता है और विवाह से वंश वृद्धि होती है अत: चाक को मंगलकारी माना जाता है। इसी चाक की वजह से कुम्हार को नेग मिलता है बदले में कुम्हार पवित्र कलश देता है। जो कुम्हार बर्तन बनाते थे वे सामूहिक तौर पर उनको न्याव में पकाते थे, और उस न्याव में जागीरदार कर लगाता था।
एक और तर्क है कि रहन सहन अलग होना। राजस्थान में जहां हर 12 कोस बाद बोली बदल जाती है तो उसके पीछे रहन सहन और संस्कृति का अलग होना ही है। राजस्थान के हर राजवंश की भी पगड़ी अलग तरीके की होती थी। हर राज्य की बोली अलग अलग होती थी रहन सहन अलग अलग होता था। तो इसका असर सभी जातियों पर दिखना ही था। लेकिन आज कल के लोगो को तो ये भी नहीं मालुम की उनकी परदादी और परदादा किस तरह के वस्त्र धारण करते थे। आजकल तो उस तरह के वस्त्र ही बड़ी मुस्किल से मिलते है। जोधपुर नागौर की तरफ के क्षेत्र में जाट और कुमार जाति की महिलायें हरा और उसमें लाल और गुलाबी लाइन और चोकड़ी की डिजाइन का मोटा खादी की तरह का कपड़े (स्थानीय भाषा में ‘साड़ी’) से बना घाघरा और उपर कुर्ती कांचली कमीज आदि पहनती थी। पुरूष धोती कुरता पहनते थे और हरी पीली सफेद केसरीया और चुनरी का साफा पहनते थे। वही बाड़मेर की तरफ पुरूष लाल रंग की पगड़ी और अंगरखी और धोती पहनते थे जो राईका जाति के पुरूषों के समान होती थी। धोती और पगड़ी बांधने के तरीके में भी अन्तर था।
कुमारो/कुम्भारों की जनसंख्या अधिक होने के कारण ज्यादातर ने कई पीढियों पूर्व अन्य व्यवसाय अपना लिया। कोई खेती करने लगे कोई चूने से चूनाई और भित्ति चित्र का निर्माण करते। वर्तमान में भी नये नये स्वरोजगार में लिप्त हैं।
अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग कथायें प्रचलित है। कहीं पर शिव पार्वति विवाह की घटना, कहीं पर राणा कुम्भा का स्थापत्य प्रेम, ताे कहीं पर संत कुबाजी को लेकर तो कहीं संत गरवाजी को लेकर कथायें प्रचलित है।
कुछ बन्धुओं का ये भी तर्क है कि हम दूसरें राज्य में सामान्य श्रेणी में आते है इसलिए क्षत्रिय है और कुम्हार चूंकि अन्य पिछड़ा वर्ग में आता है अत: हम अलग जाति के है। उन बन्धुओं को मेरा सुझाव है कि अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित नियम पढे। ऐसा इसलिए होता है कि एक राज्य के अ.पि.व. दूसरे राज्य में जाने पर सामान्य श्रेणी में शामिल होते है। आप कभी दूसरे राज्य की भर्ती परीक्षा में केवल सामान्य श्रेणी में ही भाग ले सकते है। अब कुमावत शब्द की उत्पति राजस्थान में हुई है और राजस्थान से ही कुमावत सरनेम लगाने वाले लोग देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर बसे है। दूसरे राज्य के इतिहास में इस शब्द के बारे में ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं होने कारण और उनको स्थानीय ना मानकर राजस्थानी माना जाने के कारण अपिव श्रेणी में नहीं रखा गया। जब कि यहीं से जाकर अन्य राज्य में, जंहा कुम्हार प्रजापति शब्द प्रचलित है, बसने वाले लोग जाे स्वयं को कुम्हार कहते थे प्रशासनिक मिली भगत से स्वयं को स्थानीय बताकर अपिव श्रेणी का और जिस राज्य में अनुसूचित जाति में हैं वहां अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र बनवा लिया। हालांकि वंहा बस गये फिर भी वंहा के स्थानीय लोगो से रिश्ता नहीं करते।
कुछ बन्धु राजपूत महासभा की पुस्तक का हवाला देते हुए कहते है कि कुमावत कछवाहा राजपूत वंश की एक खाप है। जैसे नाथावत या खंगारोत। यहां में यही कहुंगा कि बिल्कुल कुमावत कछवाहा वंश की एक खाप हो सकती है लेकिन खाप होने पर कुमावत का रिश्ता कुमावत से ना होकर अन्य राजपूत वंश से होगा। जैसे किसी नाथावत का विवाह नाथावत से नहीं होता वैसे ही कुमावत का विवाह कुमावत से नहीं होगा। लेकिन जब कुमावत जाति हो तो कुमावत से रिश्ता हो सकता है अत: जो समाज बन्धु राजपूत समाज की पुस्तक का हवाला देते हैं उन्हे अपनी बुद्धि का थोड़ा इस्तेमाल करना चाहिए।
कुछ बन्धु मरदुशुमारी (जनगणना, census) का हवाला देते है। उनके लिये फिर यही कहना चाहुंगा कि जनगणना में वही आंकड़े होते है जो लोग देते है। अब तक पश्चिमी राजस्थान के लोग कुम्हार लिखवाते आये है और अगली गणना में कुमावत लिखवाते है तो वही लिखा जायेगा जो लिखवायेंगे। जनगणना में जैन पंथ के लोग धर्म हिन्दू लिखवाते आये है। इसलिये जनगणना से पूर्व जैन समाज के लोग कहते भी है कि जनगणना के समय धर्म जैन लिखवाना है हिन्दू नहीं। कुमावत शब्द का प्रचलन देखा देखी ही शुरू हुआ है। पहले 17 वी सदी में एक ने लगाया बाद में देखा देखी दूसरे भी लगाते गये। और अभी भी देखा देखी लगाते जा रहे है।
कुछ बंधु यह तर्क देते हैं कि मारू कुम्हारों में राजपूती नख होते है अत: जरूर राजपूतों से कनेक्शन है और उनका कहना है कि नखों के आधार पर भाटों की बात सही प्रतीत होती है कि हमारे पूर्वज राजपूत थे, किसी कारणवश उन्होने शिल्प कार्य कुम्भकला को अपनाया था। मेरा उन बंधुओं के लिये इतना ही कहना है कि कुम्हार कुमावत राजकुम्हार सभी शिल्पी जातियां है ना कि सेवा करने वाली जातियां, इनमें रिश्तें करते समय गोत्र ही देखी जाती रही है, और चार गौत्र ही टाली जाती रही है। सेवा करने वाली जातियां अपने राजा के वंश के अनुरूप स्वयं का वंश बताती है। अकाल दुर्भिक्ष के समय मेहनत मजदूरी जो भी मिले वो कार्य करने से व्यक्ति की जाति का स्वरूप नहीं बदलता, शिल्पी जातियां सेवा करने वाली जातियों मे तब्दील नहीं हो जाती। अत: मेरा बन्धुओं से विनम्र अनुरोध है कि राजपूती नख जैसी बातों को भूल कर स्वाभिमानी शिल्पियों की तरह केवल गोत्र ही बतायें। सेवा करने वाली जातियों के पास गोत्र नही होती केवल नख होता है।
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प्रजापति (कुम्हार)जाती का इतिहास
कुम्हार भारत, पाकिस्तान और नेपाल में पाया जाने वाला एक जाति या समुदाय है. इनका इतिहास अति प्राचीन और गौरवशाली है. मानव सभ्यता के विकास में कुम्हारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. कहा जाता है कि कला का जन्म कुम्हार के घर में ही हुआ है. इन्हें उच्च कोटि का शिल्पकार वर्ग माना गया है. सभ्यता के आरंभ में दैनिक उपयोग के सभी वस्तुओं का निर्माण कुम्हारों द्वारा ही किया जाता रहा है. पारंपरिक रूप से यह मिट्टी के बर्तन, खिलौना, सजावट के सामान और मूर्ति बनाने की कला से जुड़े रहे हैं. यह खुद को वैदिक भगवान प्रजापति का वंशज मानते हैं, इसीलिए ये प्रजापति के नाम से भी जाने जाते हैं. इन्हें प्रजापत, कुंभकार, कुंभार, कुमार, कुभार, भांडे आदि नामों से भी जाना जाता है. भांडे का प्रयोग पश्चिमी उड़ीसा और पूर्वी मध्य प्रदेश के कुम्हारों के कुछ उपजातियों लिए किया जाता है. कश्मीर घाटी में इन्हें कराल के नाम से जाना जाता है. अमृतसर में पाए जाने वाले कुछ कुम्हारों को कुलाल या कलाल कहा जाता है. कहा जाता है कि यह रावलपिंडी पाकिस्तान से आकर यहां बस गए. कुलाल शब्द का उल्लेख यजुर्वेद (16.27, 30.7) मे मिलता है,
कुम्हार किस कैटेगरी में आते हैं?
आरक्षण की व्यवस्था के अंतर्गत कुम्हार जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, पन्ना, सतना, टीकमगढ़, सीधी और शहडोल जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है; लेकिन राज्य के अन्य जिलों में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में सूचीबद्ध किया गया है. अलग-अलग राज्योंं में कुमार के अलग-अलग सरनेम है.
कुम्हार किस कैटेगरी में आते हैं?
आरक्षण की व्यवस्था के अंतर्गत कुम्हार जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है.मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, पन्ना, सतना, टीकमगढ़, सीधी और शहडोल जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है; लेकिन राज्य के अन्य जिलों में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में सूचीबद्ध किया गया है. अलग-अलग राज्योंं में कुमार के अलग-अलग सरनेम है.
इतिहास में कुम्हारों की पुरानी जागीरों का वर्णन है तो सवाल यह है कि क्या कुम्हार राजपूत के वंशज है या क्षत्रिय है। इसका उत्तर ये है कि जागीर होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वे राजपूत के वंशज थे। और क्षत्रिय वर्ण बहुत व्यापक है राजपूत तो उनके अंग मात्र है। कुम्हार जाती ने युद्ध में भाग लिया इसलिए क्षत्रिय तो कहला सकता है पर राजपूत नहीं। राजपूत तो व्यक्ति तभी कहलाता है जब वह किसी राजा की संतति हो। क्षत्रिय होने के लिए राजा का वंशज होना जरूरी नहीं होता।
भाट और रावाें ने अपनी बहियों में अलग अलग कहानीयों के माध्यम से लगभग सभी जातियों को राजपूतों से जोडा है ताकि उन्हे परम दानी राजा के वंशज बता अधिक से अधिक दान दक्षिणा ले सके।
राजस्थान में कुम्हार जाति इस प्रकार उपजातियों में विभाजित है-
मारू – अर्थात मरू प्रदेश के कुम्हार
खेतीकर कुम्हार – अर्थात ये साथ में अंश कालिक खेती करते थे। चेजारा भी इनमें से ही है जो अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर भवन निर्माण करते थे। बारिस के मौसम में सभी जातियां खेती करती थी क्योंकि उस समय प्रति हेक्टेयर उत्पादन आज जितना नही होता था अत: लगभग सभी जातियां खेती करती थी। सर्दियों में मिट्टि की वस्तुए बनती थी।
बांडा कुम्हार _ ये केवल बर्तन और मटके बनाने का व्यवसाय ही करते थे। ये मूलत: पश्चिमी राजस्थान के नहीं होकर गुजरात और वनवासी क्षेत्र से आये हुए कुम्हार थे। इनका रहन सहन भी मारू कुम्हार से अलग था। ये दारू मांस का सेवन भी करते थे।
पुरबिये कुम्हार– ये पूरब दिशा से आने वाले कुम्हारों को कहा जाता है जैसे हाड़ौती क्षेत्र के कुम्हार पश्चिमी क्षेत्र में आते तो इनको पुरबिया कहते। ये भी दारू मांस का सेवन करते थे।
जटिया कुम्हार - ये अंशकालिक व्यवसाय के तौर पर पशुपालन करते थे। ये पानी की अत्यंत कमी वाले क्षेत्र में रहते है वहां पानी और घास की कमी के कारण गाय और भैंस की जगह बकरी और भेड़ पालते है। और बकरी और भेड़ के बालों की वस्तुए बनाते थे। इनका रहन सहन भी पशुपालन व्यवसाय करने के कारण थोड़ा अलग हो गया था हालांकि ये भी मारू ही थे। इनका पहनावा राइका की तरह होता था।
कुम्हार कहां पाए जाते हैं?
यह जाति भारत के सभी प्रांतों में पाई जाती है. हिंदू प्रजापति जाति मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में पाई जाती है. महाराष्ट्र में यह मुख्य रूप से पुणे, सातारा, सोलापुर, सांगली और कोल्हापुर जिलों में पाए जाते हैं.
कुम्हार शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
कुम्हार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “कुंभ”+”कार” से हुई है. “कुंभ” का अर्थ होता है घड़ा या कलश. “कार’ का अर्थ होता है निर्माण करने वाला बनाने वाला या कारीगर. इस तरह से कुम्हार का अर्थ है- “मिट्टी से बर्तन बनाने वाला”.
वैदिक मान्यताओं के अनुसार, कुम्हार की उत्पत्ति त्रिदेव यानी कि सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा, पालनहार भगवान विष्णु और संहार के अधिपति भगवान शिव से हुई है. सृष्टि के आरंभ में त्रिदेव को यज्ञ करने की इच्छा हुई. यज्ञ के लिए उन्हें मंगल कलश की आवश्यकता थी. तब प्रजापति ब्रह्मा ने एक मूर्तिकार कुम्हार को उत्पन्न किया और उसे मिट्टी का घड़ा यानी कलश बनाने का आदेश दिया. कुम्हार ने ब्रह्मा जी से कलश निर्माण के लिए सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराने की प्रार्थना की. जब भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र चाक के रूप में उपयोग करने के लिए दिया. शिव जी ने धुरी के रूप में प्रयोग करने के लिए अपना पिंडी दिया. ब्रह्मा जी ने धागा (जनेऊ), पानी के लिए कमंडल और चक्रेतिया दिया. इन सभी सामग्री और उपकरण की मदद से फिर कुम्हार ने मंगल कलश का निर्माण किया जिससे यज्ञ संपन्न हुआ.
हिंदू कुम्हार सृष्टि के रचयिता वैदिक प्रजापति (भगवान ब्रह्मा) के नाम पर खुद को सम्मानपूर्वक प्रजापति कहते हैं.
प्राचीन हिंदू शास्त्र के अनुसार, कुम्हार जाति की उत्पत्ति मिश्रित विवाह से हुई है. ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, कुंभकार की उत्पत्ति ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से हुई है. सर मोनियर विलियम्स ने अपने संस्कृत शब्दकोश में कुम्हार जाति को ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता की संतान के रूप में वर्णित किया है.
कुम्हारों को उच्च कोटि का शिल्पकार माना जाता है.
सभ्यता के आरंभ में कुम्हार ही दैनिक उपयोग की सभी वस्तुएं बनाते थे.
कुम्हारों ने मिट्टी के बर्तन, खिलौने, सजावट के सामान, और मूर्तियां बनाई हैं.
कुम्हारों को वैदिक देवता प्रजापति का वंशज माना जाता है.
कुम्हारों को सृजनकर्ता और वंश वर्धक देवता माना जाता है.
विवाह में गणपति की स्थापना से पहले कुम्हारों के घर जाकर चाक की पूजा की जाती है.
कुम्हारों की उत्पत्ति से जुड़ी एक दंतकथा:
एक बार ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों के बीच गन्ना बांटा था.
सभी पुत्रों ने अपना हिस्सा खा लिया, लेकिन कुम्हार भूल गया.
कुम्हार ने गन्ने को मिट्टी के ढेर के पास रख दिया था.
कुछ दिन बाद ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से गन्ने मांगे, तो कोई भी पुत्र गन्ना नहीं ला सका.
कुम्हार ने ब्रह्मा जी को पूरा गन्ने का पौधा भेंट कर दिया.
कुम्हार समाज की कुल देवी श्रीयादे माता है|
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हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-
विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"
वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल
उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक
जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन
सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक
वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी
किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा
प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक
गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन
सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
जंगल गाथा -अशोक चक्रधर
मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर
सूरदास के पद
रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक
घाघ कवि के दोहे -घाघ
मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी
बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक
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