26.9.22

मेघवंश,चमार समाज की जानकारी:Meghvansh ,Chamar ka itihas





आर्यों का एक घुमन्तु कबीला था. वे भी पशुपालन के लिए नए चरागाहों की खोज में घूमते रहते थे. उन्हें भारत के सिंधु घाटी क्षेत्र की विकसित सभ्यता का पता चला. यह कृषि भूमि सम्पदा से भरपूर थी. यहाँ पर राजऋषि मेघऋषि की एक विकसित सभ्यता थी. आर्यों ने भारत के शान्ति-प्रेमी, मूलनिवासी, सिंधु सभ्यता के शासकों को हराकर उन्हें बेघर कर दिया. ‘मेघवंश’ भी टुकड़ों में बँट गया. वे भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से पहचाने जाने लगे. उनके साथ सामाजिक अन्याय होने लगे. उनकी स्थिति त्रासदीदायक और शोचनीय हो गई.
सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश राजऋषि ‘वृत्र’ के अधिकार में था. जिस प्रकार महादेव को आर्य लोग पार्वती के रिश्ते से पहले महासुर (महाअसुर) कहते थे, उसी प्रकार ये ‘वृत्र’ को भी ‘वृत्रासुर’ नाम से पुकारते थे. महाभारत के आदि पर्व में भीष्म ने ‘वृत्र’ को अनेक गुणों, कीर्ति, शौर्य, धार्मिकता और ज्ञान-विज्ञान का स्वामी माना है.
नाग (असुर) मूलत: शिव उपासक बताए गए हैं. लाल प्रद्युम्न सिंह ने ‘नागवंश का इतिहास’ में बताया है कि नागवंशियों को उनकी उत्तम योग्यताओं, गुणवत्ता, व्यवहार व कार्यशैली के कारण देवों का दर्जा दिया गया है. वे वास्तुकला आदि में निपुण थे. नागवंशियों का सम्पूर्ण भारत पर राज्य था. वंशावली बढ़ने से उनके अलग-अलग स्थानीय वंश हुए तथा बाद में अधिकतर ने वैष्णव धर्म अपना लिया एवं शिव को भी वैष्णव धर्म का देवता मान लिया गया.
अनेक विद्वान सुर तथा असुर को एक ही पिता की संतान होने की बात स्वीकार नहीं करते. प्रह्लाद का पिता असुर (अनार्य) वंश का राजा हिरण्यकश्यप सुरों (आर्यों) का सैद्धान्तिक विरोधी था. हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद ने वैष्णव विचारधारा को अपनाया. उसके वीरोचन का पुत्र राजा महाबली (असुर-अनार्य) वंशावली का शासक था. केरल राज्य में ट्रिक्करा –(Trikkara) उसकी राजधानी थी. राजा महाबली बड़ा धार्मिक राजा था. उसके राज्य में कोई भी ऊँच-नीच नहीं था. अपने दादा प्रह्लाद की भांति वह भी विष्णु का भक्त था. लेकिन उसे अपने पूर्वजों के साथ आर्यों द्वारा किए गए कपट का ज्ञान था. उसने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण सिन्धु क्षेत्र पर अधिकार करके सौ अश्वमेघ यज्ञ किए (सौ लड़ाइयाँ जीतीं). आर्य (सुर) उससे मन ही मन घृणा करते थे. उसी मेघवंशीय असुर महाराजा महाबली के कुल के इन मेघवालों को ‘बलाई’ भी कहा जाता है.
इन्द्र ने छलकपट से मेघऋषि वृत्रासुर की हत्या की. (ऋग्वेद् के अनुसार) इन्द्र चारों ओर से पापों में घिर गया. जिनमें एक ‘ब्रह्म-हत्या’ का भी था. सम्भवत: इसी कारण लोग वृत्र को ‘ब्राह्मण’ या ‘ब्रह्मा’ का पुत्र समझते हैं.
प्रसिद्ध इतिहासकार के.पी. जायसवाल ने मेघवंश राजाओं को चेदीवंश का माना है. ‘भारत अंधकार युगीन इतिहास (सन् 150 ई. से 350 ई. तक)’ में वे लिखते हैं, ‘ये लोग मेघ कहलाते थे. ये लोग उड़ीसा तथा कलिंग के उन्हीं चेदियों के वंशज थे, जो खारवेल के वंशधर थे और अपने साम्राज्य काल में ‘महामेघ’ कहलाते थे. भारत के पूर्व में जैन धर्म फैलाने का श्रेय खारवेल को जाता है. कलिंग राजा जैन धर्म के अनुयायी थे, उनका वैष्णव धर्म से विरोध था. अत: वैष्णव धर्मी राजा अशोक ने उस पर आक्रमण किया इसका दूसरा कारण समुद्री मार्ग पर कब्जा भी था. इसे ‘कलिंग युद्ध’ के नाम से जाना जाता है. युद्ध में एक लाख से अधिक लोग मारे जाने से व्यथित अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और अहिंसा पर जोर देकर बौद्ध धर्म को अन्य देशों तक फैलाया.
कालांतर में भारत की कई प्राचीन वीर और जुझारू राजवंशीय जातियों का इतिहास लोप हो गया. कइयों को कमीण, कारू जातियों में परिणत कर दिया गया. कइयों का अस्तित्व ही समाप्त प्राय: हो गया.
कुछ लोग समझते हैं कि ‘चमार’ शब्द चमड़े का काम करने वाली जातियों से जुड़ा है और उसी से इतनी घृणा पैदा हुई है. आज बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में यह कार्य हो रहा है और सवर्ण लोग भी कर रहे हैं.
कुछ विद्वानों का मत है कि ‘चंवर’ से ‘चमार’ शब्द की उत्पत्ति हुई है. संभवत: ‘चंवर’ शब्द का विकास ‘चार्वाक’ से हुआ है. इसका तात्पर्य कि जो ‘चार्वाक धर्म’ को मानते हैं, वे ‘चंवर’ हैं. यह धर्म वैष्णव धर्म में विश्वास नहीं करता. यह समानता का पाठ पढ़ाता है तथा झूठे आडम्बरों की पोल खोलता है. चंवर, चामुण्डराय, हिरण्यकश्यप, महाबलि, कपिलासुर, जालंधर, विषु, विदुवर्तन आदि भी ‘चार्वाक धर्म’ को मानने वाले शासक हुए हैं.
प्रतिबंधों के कारण चाहे ‘चमार-समाज’ अकेला पड़ गया, फिर भी वह अपनी शासन व्यवस्था के लिए किसी का मोहताज नहीं रहा और न ही किसी को अपने ऊपर हावी होने दिया. इस समाज का अध्ययन एवं सर्वे करने से पता चलता है कि इसने ब्राह्मणों की मनुस्मृति के कानून-विधान की परवाह नहीं की. वह इन अमानवीय विधानों की धज्जियाँ उड़ाता रहा, चाहे उसे कितनी ही मुसीबतों का सामना क्यों न करना पड़ा हो. ब्राह्मण वर्ग ने जैसे ‘सवर्ण समाज’ की रचना की, वैसे ही चमार वर्ग ने भी ‘चमार आत्मनिर्भर समाज’ गठित किया. भक्तिकाल में रूढ़िवादिता पर चोट के कारण एक ओर दलितों में अधिकार चेतना जागृत हुई तो दूसरी ओर उनके व रूढ़िवादियों के बीच जातीय कटुता को बढ़ावा मिला.
‘चमार’ जाति को अत्यंत अस्पृश्य व नीच बनाने का श्रेय हिंदी शब्द-कोषकारों को जाता है. संस्कृत के शब्द-कोष ग्रथों में ‘चमार’ को नीच जाति नहीं कहा गया था. इस देश में झगड़ा केवल आर्य और अनार्य का है. सिंधु निवासी आडंबरों व अंधविश्वासों में भरोसा नहीं करते थे, उन्हें आर्यों ने मारा. बौद्ध धर्म ने जाति-प्रथा को तोड़कर समानता सिखाई तो बौद्धों को मारा गया. शूद्रों द्वारा अपने अधिकारों की माँग किए जाने पर उनको इतना प्रताड़ित किया जाने लगा. विदेशी आक्रमणकारियों को सवर्णों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता रहा. आश्चर्य की बात है कि रूढ़िवादी सवर्ण लोगों द्वारा हिन्दू धर्म में होते हुए भी यहाँ के मूलनिवासियों (शूद्र-दलितों) को अभी तक शूद्र, अछूत, अग्राह्य व अनावश्यक समझा जाता है. वे इन्हें छोड़ना भी नहीं चाहते. क्योंकि ये उनकी आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन के मूल स्तम्भ हैं.
अंग्रेजों ने यहाँ फैले अंधविश्वासों और कुप्रथाओं का अंत करना शुरू किया. इससे दलितों को पढ़ने व रोजगार का अवसर मिला, जिससे उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ. आर्य समाज का जब खूब प्रचार-प्रसार हुआ तो बहुत से लोगों ने ‘आर्य’ लगाकर जाति नाम बदला. आजकल लोगों द्वारा अपने नाम के पीछे ‘भारती’ लगाने का रिवाज़ सा चल पड़ा है. पंजाब में आदिधर्म द्वारा यह प्रचार किया गया कि हम इस देश के आदिनिवासी (मूलनिवासी) हैं. सुधारवादी आन्दोलनों में यह निर्णय लिया गया कि ‘चमार’ शब्द से समाज को पग-पग पर अपमान झेलना पड़ता है, इसलिए ‘चमार’ जैसे अपमानजनक जाति सूचक शब्द से छुटकारा दिलाया जाए.
राजस्थान और गुजरात में स्वामी गोकुलदास जी ‘मेघवंश’ नाम से समाज को एक सूत्र में संगाठित कर रहे थे. इन्होंने समाज को एक नाम देने के लिए सन् 1935 में ‘मेघवंश इतिहास’ नामक पुस्तक लिखी. इसका संशोधित संस्करण 1960 में प्रकाशित हुआ. राजस्थान और दिल्ली में आचार्य स्वामी गरीबदास जी ने मेघवाल, बलाई, भांबी आदि मूलत: कपड़े बनाने का कार्य करने वाली जाति को ‘सूत्रकार’ नाम से संगठित किया. उन्होंने ‘अखिल भारतीय सूत्रकार महासभा’ का गठन कर समाज को बेगार मुक्त करने का एक पुरजोर आन्दोलन छेड़ दिया. पहले सूत्रकार आन्दोलन से मेघवाल समाज का सामाजिक स्तर बढ़ा.
भारत रत्न बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडर ने सभी दलित जातियों को एक झण्डे के नीचे इकट्ठा होने का आह्वान किया. उन्होंने प्राचीन धर्म ‘बौद्ध धर्म’ को पुनर्जीवित किया. उसे नई शक्ति और नई दिशा दी. उन्होंने भारत की हजारों अस्पृश्य जातियों में बंटे दलितों को मात्र एक ‘अनुसूचित जाति’ में, सैकड़ों जनजातियों को एक ‘अनुसूचित जनजाति’ में तथा अनेक पिछड़ी जातियों को एक ओ.बी.सी. (अन्य पिछड़ी जाति) में संगठित कर दिया.
तीन दशक पहले राजस्थान के हाड़ोती और झालावाड़ जिले में समाज के लोगों ने अपने को केवल ‘मेघवाल’ घोषित कर दिया और अपने भू-राजस्व रिकार्ड ठीक करा लिए. झुंझुनू में एक सम्मेलन में शेखावटी, खेतड़ी, झुंझुनू, फतेहपुर आदि के स्वजातीय भाईयों ने घोषणा कर दी कि ‘गर्व से कहो हम मेघवाल- हैं’. यहाँ भी ‘मेघवाल’ जाति के प्रमाण-पत्र बनवाकर भू-राजस्व रिकार्ड ठीक करा लिए. अलवर जिले में भी मुहिम चली तथा वहाँ भी ‘मेघवाल’ नाम से जाति प्रमाण-पत्र बनवा लिए. हरियाणा की ‘चमार महासभा’ की नारनौल इकाई ने भी अपने को ‘मेघवाल’ घोषित कर दिया है. कुरुक्षेत्र, रेवाड़ी व दिल्ली में भी ‘मेघवाल’ घोषित कर दिया है.
रूढ़िवादी हिन्दुओं की घृणा, दमन, शोषण एवं अत्याचारों से बचने के लिए दलित लोग समय-समय पर ‘जाति’ व ‘धर्म’ बदलते रहे हैं. परन्तु रूढ़िवादियों ने इन्हें ‘चमार’ ही कहा. अनगिनत प्रयास किए, पर पुछल्ला लगा ही रहा.
संगठन बल और सत्ताबल से सभी भय खाते हैं. आज जो जाति एकजुट हुई है, वही सफल रही है. अतः आज समय आ गया है कि इस वर्ग की सभी जातियाँ अपनी उपजातियाँ, आपस के वर्ग भेद को मिटाकर पुन: अपने मूल ‘मेघवाल’ नाम को स्वीकारें और अपनी ‘जाति पहचान’ को संगठित, सुदृढ़ और अखण्ड बनाए रखने के लिए अब ‘मेघवाल’ नाम के नीचे एक हो जाएं. मेघवालों में आपस में यदि कोई समाजबंधु विभेद पूछना भी चाहे तो कह सकते हैं, मैं ‘जाटव मेघवाल’ हूँ, मैं ‘बैरवा मेघवाल’ हूँ, मैं ‘बुनकर मेघवाल’ हूँ मैं ‘बलाई मेघवाल’ हूँ, इत्यादि. इसके बाद साल-छ: महीनों में यह विभेद भी समाप्त हो जाएगा. आपसी भेदभाव भुलाकर रोटी-बेटी का व्यवहार शुरू करें. जब अन्य जातियों के लोग मेघवालों के शिक्षित बच्चों के साथ अपने बच्चों की शादी बिना किसी हिचकिचाहट के कर रहे हैं तो हम छोटी-छोटी उपजातियों में भेदभाव नहीं रखें तो अपनी एकता बनी रहेगी. मिथ्या भ्रम व भेदभाव की निद्रा से जागें.
इसके लिए सुझाव है कि ‘विश्व मेघवाल परिषद्’ या ‘अन्तर्राष्ट्रीय मेघवाल परिषद्’ नाम की एक प्रतिनिधि संस्था गाठित की जाए. भारत देश की सभी मेघवंशीय उपजातियाँ छोटे-बड़े का भेद भुलाकर आपसी सहयोग का एक समझौता कर सकती हैं.
हमें सुनिश्चित करना है कि हम केवल नौकरी की तलाश में न रहकर, व्यापार (बिज़नेस) की ओर भी ध्यान दें. यह शाश्वत सत्य है कि जिसने भी समय के साथ स्थान परिवर्तन किया, बाहर जाकर खाने-कमाने की कोशिश की, वे सम्पन्न हो गए. शहरों में जाकर भी धंधा कर सकते हैं. दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ हम कुछ भी हासिल कर सकते हैं.
नाम बदलने के साथ-साथ हमें सामाजिक बुराईयों से, रूढ़ियों से भी निजात पानी होगी. हम मृत्यु-भोज पर हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं, जो पाप है. अनेक देवी-देवताओं के मंदिरों में माथा टेकने से अच्छा है कि घर पर माँ-बाप की सेवा करें.
धर्मभीरूता को त्यागकर नए सवेरे की ओर बढ़ो! आज विज्ञान का युग है. हमने लिए अच्छा है कि हम विज्ञान सम्मत धर्म अपनाएं

-मेघवंश: एक सिंहावलोकन मेघवंश: एक सिंहावलोकन लेखक: आर.पी. सिंह, आई.पी.एस.
पुस्तक सार
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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 



16.9.22

ओढ़ राजपूत समाज का इतिहास और जानकारी :odha Rajput samaj

 

इस जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा सगर के वंशज राजा ओड से है। ऐतिहासिक ग्रंथों एवं प्राचीन पौराणिक ग्रंथों के अनुसार राजा ओड ने दक्षिण दिशा में ओड देश की स्थापना करके राज्य किया गया था और तभी से राजा ओड की जाति संतान ओड राजपूत के नाम से विख्यात हुई। ओड देश का यह राज्य वर्तमान में ओडिशा राज्य के नाम से विख्यात है। सूर्यवंशी राजा ओड सगर वंशी थे और इसी वंश में राजा सगर के वंशजों के उद्धार के लिए राजा भागीरथ द्वारा गंगा मां को धरती पर अवतरण करने व् अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त कराने के कारण इस जाति के लोग भागीरथ वंशी ओड राजपूत के नाम से जाने गये। । पाठकगण कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए राजा सगर के वंशजों की कहानी से भली-भांति अवगत होंगे। यह वंश काफी प्राचीन है और पूरे भारतवर्ष में फैला हुआ है।  सूर्यवंशी राजा भागीरथ के वंशज राजा ओड ने अपने नाम से ओड राज्य की स्थापना की थी जो कालांतर में ओड, ओड्र, ओड़ व् आद्र राज्य के नाम से विख्यात हुई। वंश की 3 शाखाएं हैं जो निम्नवत है। महाभारत युद्ध के पश्चात भागीरथ वंशी ओड राजपूत की शाखा गंगा वंश के नाम से प्रसिद्ध हुई। राजा भागीरथ द्वारा अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा मां को पृथ्वी पर अवतरण करने के कारण ओड राजपूत की यह शाखा गंगा वंशी राजपूत के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस वंश के अंतिम राजा भीम अनंग देव ने ओड राज्य में राजा ओड द्वारा निर्मित जगन्नाथ जी भगवान के मंदिर को बहुत बड़े भूभाग में पूर्ण भव्यता के साथ निर्मित कराया गया। इस मंदिर के बारे में पाठकों को बता दें कि रामायण के उत्तराखंड में भगवान श्रीराम ने विभीषण को भगवान जगन्नाथ जी को इक्ष्वाकु वंश का कुल देवता बताया है। पुराणों में जगन्नाथ जी भगवान का मंदिर ओड राज्य में स्थित होना बताया गया है। ओड राज्य में गंगा वंशी राजाओं का राज्य 15वी शताब्दी तक मिलता है। राजा भीम अनंग देव के पश्चातओड राज्य ओडिशा पर मुगल शासकों का आधिपत्य होना इतिहास है लिखा हुआ मिलता है। ओड देश ओडिशा पर मुगल शासकों का अधिपत्य हो जाने के पश्चातओड राजपूतों द्वारा ओड राज्य ओडिशा को छोड़कर राजस्थान के लिए प्रस्थान किया गया इसका वर्णन हम आगे अध्याय में प्रस्तुत करते हैं। ओड देश ओडिशा पर मुगल शासकों का राज्य स्थापित हो जाने के पश्चातओड राजपूतों के द्वारा ओड देश ओडिसा राज्य को त्यागकर राजस्थान के लिए प्रस्थान किया गया और तब राजस्थान के कुंभलगढ़ परगने में ओडा गांव की स्थापना ओड राजपूतों के द्वारा की गई और तब ओड राजपूत गहलोत वंश की शाखा के रूप में प्रतिष्ठित हुए। मेवाड़ के अनेक राजाओं के साथ ओड राजपूतों का युद्ध में प्रतिभाग करना पाया गया है। मेवाड़ के राणा महाराणा प्रताप के समय में महाराणा के साथ लाखों की संख्या में ओड राजपूत उनके साथ युद्ध करते थे। इतिहास मैं मेवाड़ के राणा महाराणा प्रताप के साथ ओड राजपूत सैनिक पिंड बनाकर मुगलों से युद्ध किया करते थे। इनके इस प्रकार युद्ध करने के कारण ओड राजपूत की शाखा पिंडारा प्रसिद्ध हुई। महाराणा प्रताप के बाद राणा राजसिंह जब मेवाड़ की गद्दी पर बैठे तब राणा प्रताप के बाद राणा राजसिंह ही एक ऐसे राजा हुए जिन्होंने मुगलों से डटकर युद्ध किया। ऐतिहासिक ग्रंथों में लिखा है कि राणा राजसिंह का निधन कुंभलगढ़ के गांव ओड़ा में हुआ। ओड राजपूतों की शाखा पिंडारा का वर्णन हम अगले अध्याय में करेंगे। ओड राज्य का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इतिहास में इस वंश की तीन शाखाओं का वर्णन मिलता है। 1 गंगा वंश 2 पिंडारा 3 ओड बेलदार। ओड राजपूत की इन तीनों शाखाओं का वर्णन इतिहास व ग्रंथों मैं मिलता है। राजा ओड के राज्य का वर्णन महाभारत काल के समय मैं भी मिलता है। महाभारत के समय में भारत वर्ष के समस्त राजाओं की बुलाई गई बैठक मैं राजा ओड की उपस्थिति ओड राजवंश की उपस्थित एवं उन्नति को दर्शाती है। जाति इतिहासकार डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार महाभारत युद्ध के पश्चात राजपूतों के बहुत सारे वंशों की समाप्ति का भी उल्लेख मिलता है। महाभारत का युद्ध इतना भयंकर था कि इसमें अनेकों राजवंशों को हानि उठानी पड़ी थी और कई सारे राज वंश इस युद्ध के पश्चात विलुप्त होने के कगार पर आ गए थे।

  जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम आलोक के मतानुसार ओड अथवा ओढ़ क्षत्रिय हिन्दू जाति है। ये चक्रवर्ती सम्राट महाराज सगर के वंशज माना जाता है। ये क्षत्रिय जाति मूल रूप से उड़ीशा से है तथा इस जाति के राजा महाराज ओड़ ने सैकड़ों वर्षों तक पूर्वोत्तर भारत (अर्थात् आर्यावर्त) में शासन किया। कुछ समय बाद उनका युद्ध फिरोज़ शाह तुगलक के साथ हुआ और कुछ अपनों की गद्दारी के करण उनकी इस युद्ध में परजाय हुई। ओद राजपूतों को वहाँ से स्थानान्तरण करना पड़ा और इनका बहुत सारा इतिहास जला दिया गया। वर्तमान समय में ओड़ राजपूत पाकिस्तान, भारत तथा विश्व के काई देशो में निवास करते हैं।

ओड राजपूत समाज की उत्पति

इस अध्याय में ओड जाति की उत्पत्ति के बारे में वर्णन करेंगे। इस जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा सगर के वंशज राजा ओड़ से है। ऐतिहासिक ग्रंथों एवं प्राचीन पौराणिक ग्रंथों के अनुसार राजा ओड्र ने दक्षिण दिशा में ओड देश की स्थापना करके राज्य किया गया था और तभी से राजा ओड की जाति संतान ओड़ राजपूत के नाम से विख्यात हुई। ओड देश का यह राज्य वर्तमान में ओडिशा राज्य के नाम से विख्यात है। सूर्यवंशी राजा ओड सगरवंशी थे और इसी वंश में राजा सगर के वंशजों के उद्धार के लिए राजा भागीरथ द्वारा गंगा मां को धरती पर अवतरण करने व अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त कराने से के कारण इस जाति के लोग भागीरथ वंशी ओड राजपूत के नाम से जाने गये। पाठकगण कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुए राजा सगर के वंशजों की कहानी से भली भांति अवगत होंगे। यह वंश काफी प्राचीन है और पूरे भारतवर्ष में फैला हुआ है। सूर्यवंशी राजा भागीरथ के वंशज राजा ओड ने अपने नाम से ओड राज्य की स्थापना की थी जो कालांतर में ओड, ओड्डू, ओड्र व आद्र राजा के नाम से विख्यात हुई। वंश की 3 शाखाएं है जो निम्नवत है। महाभारत युद्ध के पश्चात भागीरथ वंशी ओड राजपूत की शाखा गंगा वंश के नाम से प्रसिद्ध हुई। राजा भागीरथ द्वारा अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा मां को पृथ्वी पर अवतरण करने के कारण ओड राजपूत की यह शाखा गंगा वंशी राजपूत के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस वंश के अंतिम राजा भीम अनंग देव ने ओड राज्य में राजा ओह द्वारा निर्मित जगन्नाथ जी भगवान के मंदिर को बहुत बड़े भूभाग में पूर्ण भव्यता के साथ निर्मित कराया गया। इस मंदिर के बारे में पाठकों को बता दें कि रामायण के उत्तराखंड में भगवान श्रीराम ने विभीषण को भगवान जगनाथ जी को इक्वाकु वंश का कुल देवता बताया है। पुराणों में जगन्नाथ जी भगवान का मंदिर ओड राज्य में स्थित होना बताया गया है। ओड राज्य में गंगा वंशी राजाओं का राज्य 15वीं शताब्दी तक मिलता है। राजा भीम अनंग देव के पश्चात ओड राज्य ओडिशा पर मुगल शासकों का आधिपत्य होना इतिहास है लिखा हुआ मिलता है। ओड देश ओडिशा पर मुगल शासकों का अधिपत्य हो जाने के पश्चात ओड़ राजपूतों द्वारा ओड राज्य (ओडिशा) को छोड़कर राजस्थान के लिए प्रस्थान किया गया ओड देश ओडिशा पर मुगल शासकों का राज्य स्थापित हो जाने के पश्चात ओड राजपूतों के द्वारा ओड देश ओडिसा राज्य को त्यागकर राजस्थान के लिए प्रस्थान किया गया और तब राजस्थान के कुंभलगढ़ परगने में ओडा गांव की स्थापना ओड राजपूतों के द्वारा की गई और तब ओड राजपूत गहलोत वंश की शाखा के रूप में प्रतिष्ठित हुए। मेवाड़ के अनेक राजाओं के साथ ओड राजपूतों का युद्ध में प्रतिभाग करना पाया गया है। मेवाड़ के राणा महाराणा प्रताप सिंह के समय में महाराणा के साथ लाखों की संख्या में ओड राजपूत उनके साथ युद्ध करते थे।

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भारत के  मन्दिरों और मुक्ति धाम हेतु शामगढ़ के समाजसेवी  द्वारा दान की विस्तृत श्रृंखला 




6.9.22

मुक्ति धाम शामगढ़/मंदसौर जिले के अंत्येष्टि सेवा केंद्र/दामोदर पथरी हॉस्पिटल द्वारा 51 हजार नकद और ४ सिमेन्ट बेंच दान

शामगढ़ के मुक्तिधाम का विडियो





दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ द्वारा मुक्तिधाम शामगढ़ हेतु बेंच व्यवस्था



मंदसौर,झालावाड़ ,आगर,नीमच,रतलाम जिलों के


मन्दिरों,गौशालाओं ,मुक्ति धाम हेतु

साहित्य मनीषी

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

अभिनव दान -अनुष्ठान 

साथियों,

शामगढ़ नगर अपने दानशील व्यक्तियों के लिए जाना जाता रहा है| शिव हनुमान मंदिर,मुक्तिधाम ,गायत्री शक्तिपीठ आदि संस्थानों के जीर्णोद्धार और कायाकल्प के लिए यहाँ के नागरिकों ने मुक्तहस्त दान समर्पित किया है|
परमात्मा की असीम अनुकंपा और कुलदेवी माँ नागणेचिया के आशीर्वाद और प्रेरणा से डॉ.दयारामजी आलोक द्वारा आगर,मंदसौर,झालावाड़ ,कोटा ,झाबुआ जिलों के चयनित मंदिरों और मुक्तिधाम में निर्माण/विकास / बैठने हेतु सीमेंट बेंचें/ दान देने का अनुष्ठान प्रारम्भ किया है|
मैं एक सेवानिवृत्त अध्यापक हूँ और अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने का संकल्प लिया है| इसमे वो राशि भी शामिल रहेगी जो मुझे google कंपनी से नियमित प्राप्त होती रहती है| खुलासा कर दूँ कि मेरी 5 वेबसाईट हैं और google उन पर विज्ञापन प्रकाशित करता है| विज्ञापन से होने वाली आय का 68% मुझे मिलता है| यह दान राशि और सीमेंट बेंचें पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं|


@Dr.DayaramAalok जिले के प्रमुख नगर शामगढ़ का मुक्तिधाम सुवासरा रोड पर रेल्वे ब्रिज के पास स्थित है| बड़ा ही खूबसूरत मुक्तिधाम है पूरे परिसर मे पेड़ पौधों की हरियाली मन को सुकून देती है| अंतिम यात्रा मे सम्मिलित लोगों को अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य मे लपेट लेता है है यह मुक्तिधाम| इस शव दाह स्थल मे निर्माण और विकास कार्यों को गति देने के लिए साहित्य मनीषी,समाज सेवी डॉ.दयाराम जी आलोक 9926524852 के आदर्शो से प्रेरित पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर ,दामोदर पथरी हास्पिटल शामगढ़ द्वारा 51 हजार रुपये का दान दिया गया और श्रद्धांजलि हाल के पिलर पर शिलालेख चस्पा किया गया|