उत्पत्ति के सिद्धांत -
खानाबदोश मूल:
एक सिद्धांत यह बताता है कि बांछड़ा समुदाय मूल रूप से राजस्थान के खानाबदोश थे।
ब्रिटिश काल से संबंध:
एक अनुमान के अनुसार, ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा बांछड़ा समुदाय को नीमच में तैनात सैनिकों के मनोरंजन के लिए लाया गया था। धीरे-धीरे, वे मंदसौर और रतलाम जैसे अन्य जिलों में फैल गए।
बांछड़ा समाज पिछले कई दशकों से नीमच-मंदसौर (मध्य प्रदेश) में परंपरा के नाम पर यौनकर्म (सेक्सवर्क) पर जीवन यापन कर रहा है। इस समाज की लड़कियां यौनकर्मी बन जाती हैं। यहां लड़कियां बाहर से नहीं आती, ना बांछड़ा परिवार कोठा चलाता है।
यहां तो बेटियां परिवार में जन्म लेती हैं और परिवार में बड़ी होती हैं। जन्म लेने और बड़े होने के क्रम में परिवार की बेटियां कब यौनकर्मी बन जाती हैं, यह बेटियों को भी नहीं पता लेकिन यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
नीमच और मंदसौर में बांछड़ा समुदाय के दर्जनों मोहल्ले हैं और दर्जनों मोहल्लों में दर्जन-दर्जन भर घर। घरों से पुरूष नदारद, आप उन घरों में दिन में जाएं, चाहें रात में। परिवार में महिलाएं ही मिलेंगी। बांछड़ा परिवारों को लगता है कि घर में किसी अन्य पुरुष को पाकर आने वाले अतिथि सहज नहीं रहते। जब उन्हें पता चलता है कि वह जिसके साथ बैठने जा रहा है, उसका पति बाहर खाट पर बीड़ी पी रहा है तो कौन सा अतिथि बांछड़ा के दरवाजे पर रुकेगा? वो मानते हैं 'अतिथि हमारे लिए देवता हैं। उनसे ही हमारा घर चलता है। हमारा पेट भरता है।
नीमच को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि बांछड़ा अंग्रेजों के समय में राजस्थान से नीमच लाए गए थे। उन दिनों जो अंग्रेज अपनी पत्नियों के साथ भारत नहीं आए थे, वे भारतीय महिलाओं का शारीरिक शोषण करते थे। इस स्थिति को देखकर स्थानीय राजा आहत हुए। उसके बाद ही राज्य में बांछड़ा परिवारों को लाने का निर्णय लिया गया।
वैसे तो भारतीय समाज में आज भी बेटी को बोझ समझा जाता हो, लेकिन बांछड़ा समुदाय में बेटी पैदा होने पर जश्न मनाया जाता है। बेटी के जन्म की खूब धूम होती है क्योंकि ये बेटी बड़ी होकर कमाई का ज़रिया बनती है.. चलो कहीं तो बेटियां आगे हैं (शर्मनाक)। इस समुदाय में यदि कोई लड़का शादी करना चाहे तो उसे दहेज़ में 15 लाख रुपए देना अनिवार्य है। इस वजह से बांछड़ा समुदाय के अधिकांश लड़के कुंवारे ही रह जाते हैं।
बाछड़ा समुदाय में बाप अपनी बेटियों की शादी करवाने की जगह उनसे गलत काम करवाता है. जब बेटी की उम्र ढल जाती है और ग्राहक आना बंद हो जाते हैं तो यही पिता इन बेटियों को अपनी संपत्ति से बेदखल कर देता है. इसके बाद बेचारी महिलाएं दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाती हैं. लेकिन यह समाज अपनी इच्छा से ऐसा नहीं बना। इसे ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ऐसा बनने पर मजबूर किया गया। क्या अब स्वतंत्र भारत में इतने बड़े समुदाय को यौनकर्म के दलदल से बाहर नहीं निकाला जा सकता? अगर किसी कुप्रथा का जन्म हो सकता है तो उसका अंत भी किया जा सकता है। उसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। उम्मीद करनी चाहिए कि शीघ्र ही बांछड़ा समाज में मजबूरी वश आई यह बुराई भी सदा के लिए समाप्त हो जाएगी।