31.8.17

भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूरवज (मुसलमान कैसे बने)




इस्लाम 
में धर्मान्‍तरण के मुख्य कारण थे मृत्यु भय, परिवार को गुलाम बनाये जाने का भय, आर्थिक लोभ (पारितोषिक, पेन्शन, लूट का माल) धर्मान्‍तरित होने वालों के पैतृक धर्म में प्रचलित अन्धविश्वास और अंत में इस्लाम के प्रचारकों द्वारा किया गया प्रभावशाली प्रचार – (जाफर मक्की द्वारा 19 दिसम्बर, 1421 को लिखे गये एक पत्र से।
– इण्डिया आफिस हस्तलेख संख्या 1545
लेखक – पुरुषोत्तम

भूमिका
इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं कि लगभग ९५ प्रतिशत भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे। वह स्वधर्म को छोड़ कर कैसे मुसलमान हो गये? इस पर तीव्र विवाद है। अधिकां हिन्दू मानते हैं कि उनको तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया गया अर्थात्‌ वे स्वेच्छा से मुसलमान नहीं बने। मुसलमान इसका प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि इस्लाम का तो अर्थ ही शांति का धर्म है। बलात धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं है। यदि किसी ने ऐसा किया अथवा करता है तो यह इस्लाम की आत्मा के विरुद्ध निंदनीय कृत्य है। अधिकांश हिन्दू मुसलमान इस कारण बने कि उन्हें दम घुटाऊ धर्म की तुलना में समानता का संदेद्गा लेकर आने वाला इस्लाम उत्तम लगा।
वास्तविकता क्या है? यही इस छोटी सी पुस्तिका का विषय है। हमने अधिकतर मुस्लिम इतिहासकारों और मुस्लिम विद्वानों के उद्धरण देकर निषपक्ष भाव से यह पता लगाने की चेष्टा की है कि इन परस्पर विपरीत दावों में कितनी सत्यता है.

१. कितना सच-कितना झूठ

इस्लाम भारत में कैसे फैला, शांति पूर्वक अथवा तलवार के बल पर? जैसा कि हम आगे विस्तार से बतावेंगे कि इस्लाम का विश्व में (और भारत में भी) विस्तार दोनों प्रकार ही हुआ है। उसके शांति-पूर्वक फैलने के प्रमाण दक्षिणी-पूर्वी एशिया के, वे देश हैं जहाँ अब मुसलमान पर्याप्त और कहीं-कहीं बाहुल्य संखया में हैं; जैसे-इंडोनेशिया, मलाया इत्यादि। वहाँ मुस्लिम सेनाएँ कभी नहीं गईं। वह वृहत्तर भारत के अंग थे। भारत के उपनिवेश थे। उनका धर्म बौद्ध और हिन्दू था। किन्तु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम निःसंदेह तलवार के बल पर भी फैला। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इस्लाम में गैर-मुसलमानों का इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने से अधिक दूसरा कोई भी पुण्य कार्य नहीं है। इस कार्य में लगे लोगों द्वारा युद्ध में बलिदान हो जाने से अधिक प्रशंसनीय और स्वर्ग के द्वार खोलने का अन्य कोई दूसरा साधन नहीं है।
इस्लाम का अत्यावश्यक मिशन पूरे विश्व को इस्लाम में दीक्षित करना है-कुरान, हदीस, हिदाया और सिरातुन्नबी, जो इस्लाम के चार बुनियादी ग्रंथ हैं, मुसलमानों को इसके आदेश देते हैं। इसलिए मुसलमानों के मन में पृथ्वी पर कब्जा करने में कोई संशय नहीं रहा। हिदाया स्पष्ट रूप से काफिरों पर आक्रमण करने की अनुमति देता है, भले ही उनकी ओर से कोई उत्तेजनात्मक कार्यवाही न भी की गई हो। इस्लाम के प्रचार-प्रसार के धार्मिक कर्तव्य को लेकर तुर्की ने भारत पर आक्रमण में कोई अनैतिका नहीं देखी। उनकी दृष्टि में भारत में बिना हिंदुओं को पराजित ओर सम्पत्ति से वंचित किये, इस्लाम का प्रसार संभव नहीं था। इसलिए इस्लाम के प्रसार का अर्थ हो गया, ‘युद्ध और (हिंदुओं पर) विजय।'(१)
वास्तव में अंतर दृष्टिकोण का है। यह संभव है कि एक कार्य को हिन्दू जोर-जबरदस्ती समझते हों और मुसलमान उसे स्वेच्छा समझते हों अथवा उसे दयाजनित कृत्य समझते हों। पहले का उदाहरण मोपला विद्रोह के समय मुसलमान मोपलाओं द्वारा मालाबार में २०,००० हिन्दुओं के ‘बलात्‌ धर्मान्तरण’ पर मौलाना हसरत मोहानी द्वारा कांग्रेस की विषय समिति में की गई, वह विखयात टिप्पणी है जिसने गाँधी इत्यादि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं की जुबान पर ताले लगा दिये थे। उन्होंने कहा था-
”(मालाबार) दारुल हर्ब (शत्रु देश) हो गया था। मुस्लिमविद्रोहियों को शक (केवल शक) था कि हिन्दू उनके शत्रु अंग्रेजों से मिले हुए हैं। ऐसी दशा में यदि हिन्दुओं ने मृत्युदंड से बचने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया तो यह बलात्‌ धर्मान्तरण कहाँ हुआ? यह धर्म परिवर्तन तो स्वेच्छा से ही माना जायेगा।”(१क)
दूसरे दृष्टिकोण का उदाहरण, अब्दल रहमान अज्जम अपनी पुस्तक ”द एटरनल मैसेज ऑफ मौहम्मद” में प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है- ”जब मुसलमान मूर्ति पूजकों और बहुदेवतावादियों के विरुद्ध युद्ध करते हैं तो वह भी इस्लाम के मानव भ्रातृत्ववाद के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के अनुकूल ही होता है। मुसलमानों की दृष्टि में, देवी-देवताओं की पूजा से निकृष्ट विश्वास दूसरा नहीं है। मुसलमानों की आत्मा, बुद्धि और परिणति इस प्रकार के निकृष्ट विश्वासधारियों को अल्लाह के क्रोध से बचाने के साथ जुड़ी हुई है। जब मुसलमान इस प्रकार के लोगों को मानवता के नाते अपना बन्धु कुबूल करते हैं तो वे अल्लाह के कोप से उनको बचाने को अपना कर्तव्य समझकर उन्हें तब तक प्रताड़ित करते हैं, जब तब कि वे उन झूठे देवी देवताओं में विश्वास को त्यागकर मुसलमान न हो जायें। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास को त्यागकर मुसलमान हो जाने पर वे भी दूसरे मुसलमानों के समान व्यवहार के अधिकारी हो जाते हैं। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास करने वालों के विरुद्ध युद्ध करना इस कारण से एक दयाजनित कार्य है क्योंकि उससे समान भ्रातृत्ववाद को बल मिलता है।”(२)
कुरान में धर्म प्रचार के लिये बल प्रयोग के विरुद्ध कुछ आयते हैं किन्तु अनेक विशिष्ट मुस्लिम विद्वानों का यह भी कहना है कि काफिरों को कत्ल करने के आदेश देने वाली आयत (९ : ५) के अवतरण के पश्चात्‌ कुफ्र और काफिरों के प्रति किसी प्रकार की नम्रता अथवा सहनशीलता का उपदेश करने वाली तमाम आयतें रद्‌द कर दी गयी हैं।(३) शाहवली उल्लाह का कहना है कि इस्लाम की घोषणा के पश्चात्‌ बल प्रयोग, बल प्रयोग नहीं है। सैयद कुत्व का कहना है कि मानव मस्तिष्क और हदय को सीधे-सीधे प्रभावित करने से पहले यह आवश्यक हे कि वे परिस्थितियाँ, जो इसमें बाधा डालती हैं, बलपूर्वक हटा दी जायें।'(४) इस प्रकार वह भी बल प्रयोग को आवश्यक समझते हैं। जमाते इस्लामी के संस्थापक सैयद अबू आला मौदूदी बल प्रयोग को इसलिए उचित ठहराते हैं कि ”जो लोग ईद्गवरीय सृष्टि के नाज़ायज मालिक बन बैठे हैं और खुदा के बन्दों को अपना बंदा बना लेते हैं, वे अपने प्रभुत्व से,महज नसीहतों के आधार पर, अलग नहीं हो जाये करते- इसलिए मौमिन (मुसलमान) को मजबूरन जंग करना पड़ता है ताकि अल्लाह की हुकूमत (इस्लामी हुकूमत) की स्थापना के रास्ते में जो बाधा हो, उसे रास्ते से हटा दें।'(५) यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि इस्लाम के अनुसार पृथ्वी के वास्तविक अधिकारी अल्लाह, उसके रसूल मौहम्मद और उनके उत्तराधिकारी मुसलमान ही हैं।(६) इनके अतिरिक्त, जो भी गैर-मुस्लिम शासक हैं, वे मुसलमानों के राज्यापहरण के दोषी हैं। अपहरण की गई अपनी वस्तु को पुनः प्राप्त करने के लिये लड़ा जाने वाला युद्ध तो सुरक्षात्मक ही होता है।
१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि ”हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।(७)
अगले अध्यायों में हम इतिहास से यह बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों का इन विविध तरीकों से धर्म परिवर्तन किया गया।

२. आर्थिक लोभ

शासकों द्वारा स्वार्थ जनित मुस्लिम तुष्टिकरण
मौहम्मद साहब के जीवन काल से बहुत पहले से, अरब देशों का दक्षिणी-पूर्वी देशों से समुद्री मार्ग द्वारा भारत के मालाबार तट पर होते हुए बड़ा भारी व्यापार था। अरब नाविकों का समुद्र पर लगभग एकाधिकार था। मालाबार तट पर अरबों का भारत से कितना व्यापार होता था, वह केवल इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अरब देश से दस हजार (१०,०००) घोड़े प्रतिवर्ष भारत में आयत होते थे।(९) और इससे कहीं अधिक मूल्य का सामान लकड़ी, मसाले, रेशम इत्यादि निर्यात होते थे। स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के शासकों की आर्थिक सम्पन्नता इस व्यापार पर निर्भर थी। फलस्वरूप् भारतीय शासक इन अरब व्यापारियों और नाविकों को अनेक प्रकार से संतुष्ट रखने का प्रयास करते थे। मौहम्मद साहब के समय में ही पूरा अरब देद्गा मुसलमान हो गया, तो वहाँ से अरब व्यापारी मालाबार तट पर अपने नये मत का उत्साह और पैगम्बर द्वारा चाँद के दो टुकड़े कर देने जैसी चमत्कारिक कहानियाँ लेकर आये। वह भारत का अत्यन्त अवनति का काल था। न कोई केन्द्रीय शासन रह गया था और न कोई राष्ट्रीय धर्म। वैदिक धर्म का हास हो गया था और अनेकमत-मतान्तर, जिनका आधार अनेक प्रकार के देवी-देवताओं में विश्वास था, उत्पन्न हो गये थे। मूर्ति पूजा और छुआछूत का बोलबाला था। ऐसे अवनति काल में इस्लाम एकेश्वरवाद और समानता का संदेश लेकर समृद्ध व्यापारी के रूप में भारत में प्रविष्ट हुआ। मौहम्मद साहब की शिक्षाओं ने, जो एक चमत्कार किया है वह, यह है कि प्रत्येक मुसलमान इस्लाम का मिशनरी भी होता है और योद्धा भी। इसलिए जो अरब व्यापारी और नाविक दक्षिण भारत में आये उन्होंने इस्लाम का प्रचार प्रारंभ कर दिया। जिस भूमि पर सैकड़ों मत-मतान्तर हों और हजारों देवी-देवता पूजे जाते हों वहाँ किसी नये मत को जड़ जमाते देर नहीं लगती विशेष रूप से यदि उसके प्रचार करने वालों में पर्याप्त उत्साह हो ओर धन भी।
अवश्य ही इस प्रचार के फलस्वरूप हिन्दुओं के धर्मान्तरण के विरुद्ध कुछ प्रतिक्रिया भी हुई और अनेक स्थानों पर हिन्दू-मुस्लिम टकराव भी हुआ। क्योंकि शासकों की समृद्धि और ऐश्वर्य मुसलमान व्यापारियों पर निर्भर करता था, इसलिए इस प्रकार के टकराव में शासक उन्हीं का पक्ष लेते थे, और अनेक प्रकार से उनका तुष्टीकरण करते थे। फलस्वरूप् हिन्दुओं के धर्मान्तरण करने में बाधा उपस्थित करने वालों को शासन बर्दाश्त नहीं करता था। अपनी पुस्तक ‘इंडियन इस्लाम’ में टाइटस का कहना है कि ”हिन्दू शासक अरब व्यापारियों का बहुत ध्यान रखते थे क्योंकि उनके द्वारा उनको आर्थिक लाभ होता था और इस कारण हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन में कोई बाधा नहीं डाली जा सकती थी। केवल इतना ही नहीं, अत्यन्त निम्न जातियों से धर्मान्तरित हुए भारतीय मुसलमानों को भी शासन द्वारा वही सम्मान और सुविधाएँ दी जाती थीं जो इन अरब (मुसलमान) व्यापारियों को दी जाती थी।”(९) ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहासकार हदरीसों द्वारा बताया गया है कि ”अनिलवाड़ा में अरब व्यापारी बड़ी संखया में आते हैं और वहाँ के शासक और मंत्रियों द्वारा उनकी सम्मानपूर्वक आवभगत की जाती है और उन्हें सब प्रकार की सुविधा और सुरक्षा प्रदान की जाती है।”(१०) दूसरा मुसलमान इतिहासकार, मौहम्मद ऊफी लिखता है कि कैम्बे के मुसलमानों पर जब हिंदुओं ने हमला किया तो वहाँ के शासक सिद्धराज (१०९४-११४३ ई.) ने, न केवल अपनी प्रजा के उन हिंदुओं को दंड दिया अपितु उन मुसलमानों को एक मस्जिद बनाकर भेंद की।(११) एक शासक तो अपने मंत्रियों समेत अरब देश जाकर मुसलमान ही हो गया।(१२)

३. मृत्यु का भय और परिवार की गुलामी

‘इस्लाम का जन्म जिस वातावरण में हुआ था वहाँ तलवार की सर्वोच्च कानून था और है।मुसलमानों में तलवार आज भी बहुतायत से दृष्टिगोचर होती है। यदि इस्लाम का अर्थ सचमुच में ही ‘शांति’ है तो तलवार को म्यान में बंद करना होगा।’ (महात्मा गाँधी : यंग इंडिया, ३० सित; १९२७)
जहाँ दक्षिण भारत में इस्लाम, शासकों के आर्थिक लोभ के कारण एवं मुस्लिम व्यापारियों के शांतिपूर्ण प्रयासों द्वारा पैर पसार रहा था, वहीं उत्तर भारत में वह अरब, अफगानी, तूरानी, ईरानी, मंगोल और मुगल इत्यादि मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा कुरान और तलवार का विकल्प लेकर प्रविष्ट हुआ। इन आक्रान्ताओं ने अनगिनत मंदिर तोड़े, उनके स्थान पर मस्जिद, मकबरे, और खानकाहें बनाए। उन मस्जिदों की सीढ़ियों पर उन उपसाय मूर्तियों के खंडित टुकड़ों को बिछाया जिससे वह हिन्दुओं की आँखों के सामने सदैव मुसलमानों के जूतों से रगड़ी जाकर अपमानित हों और हिन्दू प्रत्यक्ष देखें कि उन बेजान मूर्तियों में मुसलमानों का प्रतिकार करने की कोई शक्ति नहीं है। उन्होंने मंदिरों और हिन्दू प्रजा से, जो स्वर्ण और रत्न, लूटे उनकी मात्रा मुस्लिम इतिहासकार सैकड़ों और सहस्त्रों मनों में देते हैं। जिन हिन्दुओं का इस्लाम स्वीकार करने से इनकार करने पर वध किया गया, उनकी संखया कभी-कभी लाखों में दी गई है और उनमें से जो अवयस्क बच्चे और स्त्रियाँ गुलाम बनाकर विषय-वासना के शिकार बने, उनकी संखया सहस्त्रों में दी गई है। इस्लाम के अनुसार, उनमें से ४/५ भाग को भारत में ही आक्रमणकारियों और उसके सैनिकों में बाँट दिये जाते थे और शेष १/५ को, शासकों अथवा खलीफा इत्यादि को भेंट में भेज दिये जाते थे और सहस्त्रों की संखया में वह विदेशों में भेड़ बकरियों की तरह गुलामों की मंडियों में बेंच दिये जाते थे। स्वयं दिल्ली में भी इस प्रकार की मंडियाँ लगती थीं। भारत की उस समय की आबादी केवल दस-बारह करोड़ रही होगी। ऐसी दशा में लाखों हिन्दुओं के कत्ल और हजारों के गुलाम बनाये जाने से समस्त भारत के हिन्दुओं पर कैसा आतंक छाया होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
मुसलमानों के उन हिन्दू-पूर्वजों का चरित्र कैसा था? अल-इदरीसी नामक मुस्लिम इतिहासकार के अनुसार ‘न्याय करना उनका स्वभाव है। वह न्याय से कभी परामुख नहीं होते। इनकी विश्वसनीयता, ईमानदारी और अपनी वचनबद्धता को हर सूरत में निभाने की प्रवृति विश्व विखयात है। उनके इन गुणों की खयाति के कारण सम्पूर्ण विश्व के व्यापारी उनसे व्यापार करने आते हैं।(१३)
अलबेरुनी के अनुसार, जो महमूद गजनवी के साथ भारत आया था, अरब विद्वान, बौद्ध भिक्षुओं और हिन्दू पंडितों के चरणों मे बैठकर दर्शन्, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, रसायन और दूसरे विषयों की शिक्षा लेते थे। खलीफा मंसूर (७४५-७६) के उत्साह के कारण अनेक हिन्दू विद्वान उसके दरबार में पहुँच गये थे। ७७१ ई. में सिन्धी हिन्दुओं के एक शिष्ट मंडल ने उसको अनेक ग्रंथ भेंट किये थे। ब्रह्‌म सिद्धांत और ज्योतिष संबंधी दूसरे ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भारतीय विद्वानों की सहायता से इब्राहीम-अल-फाजरी द्वारा बगदाद में किया गया था। बगदाद के खलीफा हारु-अल-रशीद के बरमक मंत्रियों (मूल संस्कृत पर प्रमुख) के परिवार जो बौद्ध धर्म त्यागकर, मुसलमान हो गये थे, निरन्तर अरबी विद्वानों को भारत में द्गिाक्षा प्राप्त करने के लिये भेजते थे और हिन्दू विद्वानों को बगदाद आने को आमंत्रित करते थे। एक बार जब खलीफा हारु-अल-रशीद एक ऐसे रोग से ग्रस्त हो गये, जो स्थानीय हकीमों की समझ में नहीं आया, तो उन्होंने हिन्दू वैद्यों को भारत से बुलवाया। मनका नामक हिन्दू वैद्य ने उनको ठीक कर दिया। मनका बगदाद में ही बस गया। वह बरमकों के अस्पताल से संबंद्ध हो गया और उसने अनेक हिन्दू ग्रंथों का फारसी और अरबी में अनुवाद किया। इब्न धन और सलीह, जो धनपति और भोला नामक हिन्दुओं के वंशज थे, बगदाद के अस्पतालों में अधीक्षक नियुक्त किये गये थे। चरक, सुश्रुत के अष्टांग हदय निदान और सिद्ध योग का तथा स्त्री रोगों, विष, उनके उतार की दवाइयों, दवाइयों के गुण दोष, नशे की वस्तुओं, स्नायु रोगों संबंधी अनेक रोगों से संबंधित हिन्दू ग्रंथों का वहाँ खलीफा द्वारा पहलवी और अरबी भाषा में अनुवाद कराया गया, जिससे गणित और चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान मुसलमानों में फैला। (के.एस.लाल-लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया, पृ. ३५-३६)। फिर भी इस्लाम इस विज्ञान युक्त संस्कृति को ‘जहालिया’ अर्थात्‌ मूर्खतापूर्ण संस्कृति मानता है और उसको नष्ट कर देना ही उसका ध्येय रहा है क्योंकि उनका दोष यह था कि वे मुसलमान नहीं थे। इस्लाम के बंदों के लिये उनका यह पाप उन्हें सब प्रकार से प्रताड़ित करने, वध करने, लूटने और गुलाम बनाने के लिये काफी था।
मुस्लिम इतिहासकारों ने इन कत्लों और बधिक आक्रमणकारियों द्वारा वध किये गये लोगों के सिरों की मीनार बनाकर देखने पर आनंदित होने के दृश्यों के अनेक प्रशंसात्मक वर्णन किये हैं। कभी-कभी स्वयं आक्रमणकारियों और सुल्तानों द्वारा लिखित अपनी जीवनियों में उन्होंने इन बर्बरताओं पर अत्यंत हर्ष और आत्मिक संतोष प्रकट करते हुए अल्लाह को धन्यवाद दिया है कि उनके द्वारा इस्लाम की सेवा का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा सिद्ध हो सका।
इन बर्बरताओं के ये प्रशंसात्मक वर्णन, जिनके कुछ मूल हस्तलेख आज भी उपलब्ध हैं, उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष आधुनिक, इतिहासकारों के गले की हड्‌डी बन गये हैं, जो इन ऐतिहासिक तथ्यों को हिन्दू-मुस्लिम एकता की मृग मरीचिका को वास्तविक सिद्ध करने के उनके प्रयासों में बाधा समझते हैं। इस उद्‌देश्य से वह इस क्रूरता को हिन्दुओं से छिपाने के लिये झूँठी कहानियों के तानों-बानों की चादरें बुनते हैं। परन्तु ये क्रूरता के ढ़ेर इतने विशाल हैं कि जो छिपाये नहीं छिपते हैं।
दुर्भाग्यवश भारतीय शासकों का चिंतन आज भी वहीं है जो ७वीं द्गाताब्दी में दक्षिण में इस्लाम के प्रवेश के समय वहाँ के हिंदू शासकों का था। यदि उन दिनों खाड़ी देशों से व्यापार द्वारा आर्थिक लाभ का लोभ था तो अब मुस्लिम वोटों की सहायता से प्रांतों और केंद्र में सत्ता प्राप्त करने और सत्ता में बने रहने का लोभ है। यह लोभ साधारण नहीं है। जिस प्रकार करोड़ों और अरबों रुपये के घोटाले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं, जिस प्रकार के मुगलिया ठाठ से हमारे ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष’ नेता रहते हैं, वह तो अच्छे-अच्छे ऋषि मुनियों के मन को भी डिगा सकते हैं। इसलिये भारतीय बच्चों को दूषित इतिहास पढ़ाने पर शासन बल देता है। एन.सी.ई.आर.टी. ने, जो सरकारी और सरकार द्वारा सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के लेखन और प्रकाशन पर नियंत्रण रखने वाला केंद्रीय शासन का संस्थान है, लेखकों और प्रकाशकों के ‘पथ प्रदर्शन’ के लिये सुझाव दिये हैं। इन सुझावों का संक्षिप्त विवरण नई दिल्ली जनवरी १७, १९७२ के इंडियन एक्सप्रेस में दिया गया है। कहा गया है कि ‘उद्‌देश्य यह है कि अवांछित इतिहास और भाषा की ऐसी पुस्तकों को पाठ्‌य पुस्तकों में से हटा दिया जाये जिनसे राष्ट्रीय एकता निर्माण में और सामाजिक संगठन के विकसित होने में बाधा पड़ती है-२० राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों ने एन.सी.ई.आर.टी. के सुझावों के तहत कार्य प्रारंभ भी कर दिया है। पश्चिमी बंगाल के बोर्ड ऑफ सेकेन्ड्री एजुकेद्गान द्वारा २९ अप्रैल १९७२ को जो अधिसूचना स्कूलों और प्रकाशकों के लिए जारी की गई उसमें भारत में मुस्लिम राज्य के विषय में कुछ ‘शुद्धियाँ’ करने को कहा गया है जैसे कि महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने का वास्तविक उद्‌देश्य, औरंगजेब की हिन्दुओं के प्रति नीति इत्यादि। सुझावों में विशेष रूप से कहा गया है कि ‘मुस्लिम शासन की आलोचना न की जाये। मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा मंदिरों के विध्वंस का नाम न लिया जाये। ‘इस्लाम में बलात्‌ धर्मान्तरण के वर्णन पाठ्‌य पुस्तकों से निकाल दिये जायें।(१४)
तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ हिन्दू शासकों और इतिहासकारों द्वारा इतिहास को झुठलाने के इन प्रभावी प्रयासों के फलस्वरूप सरकारी और सभी हिन्दू स्कूलों में शिक्षा प्राप्त हिन्दुओं की नई पीढ़ियाँ एक नितांत झूठ ऐतिहासिक दृष्टिकोण को सत्य मान बैठी हैं कि ‘इस्लाम गैर-मुसलमानों के प्रति प्रेम औरसहिद्गणुता के आदेद्गा देता है। भारत पर आक्रमण करने वाले मौहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मौहम्मद गौरी, तैमूर, बाबर, अब्दाली इत्यादि मुसलमानों का ध्येय लूटपाट करना था, इस्लाम का प्रचार-प्रसार नहीं था। उनके कृत्यों से इस्लाम का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिये। ये लोग अपनी हिन्दू प्रजा के प्रति दयालु और प्रजावत्सल थे। कभी-कभी उनके मंदिरों को दान देते थे। उन्हें देखकर प्रसन्न होते थे।’ जबकि वास्तविकता यह है कि हिन्दुओं के प्रति उनके उस प्रकार के क्रूर आचरण का कारण उन सबके मन में अपने धर्म-इस्लाम के प्रति अपूर्व सम्मान और धर्मनिष्ठा थी ओर इस्लाम के प्रति धर्मनिष्ठता का अर्थ केवल इस्लाम के प्रति प्रेम ही नहीं है, सभी गैर-इस्लामी धर्मों, दर्शनों और विश्वासों के प्रति घृणा करना भी है।(१५)
मुस्लिम धार्मिक विद्वान्‌ उनको इसी कारण परम आदर की दृष्टि से इस्लाम के ध्वजारोहक के रूप में देखते हैं और अपने बच्चों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा देते हैं।
जहाँ एक ओर, हिन्दुओं की भावी पीढ़ियों को वास्तविकता से दूर रखकर भ्रमित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत में स्वतंत्रता के पश्चात्‌ खड़े किये गये, लगभग ४० हजार मदरसों और ८ लाख मकतवों, में मुस्लिम बच्चों को गैर-इस्लाम से घृणा करना, और इन लुटेरों को इस्लाम के महापुरुष और उनके शासन को, अकबर के कुफ्र को प्रोत्साहन देने वाले शासन से बेहतर बताया जा रहा है। फिर इसमें आश्चर्य की क्या बात है कि भारत सरकार के एक मंत्री (गुलाम नबी आजाद) को कहना पड़ा कि- ‘कश्मीर में जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों ने देश के धर्म निरपेक्ष ढाँचे को बहुत हानि पहुँचाई है।…….घाटी के नौजवानों का बन्दूक की संस्कृति से परिचय करा दिया है।'(१६)
मंत्री जी के वक्तव्य से यह भ्रम हो सकता है कि उनका आरोप केवल जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों के लिये ही सत्य है, दूसरों के लिये नहीं। किन्तु डॉ. मुशीरुल हक, जो न केवल स्वयं मदरसा शिक्षा प्राप्त हैं, अपितु विदेशी विश्व-विद्यालयों के भी विद्वान हैं के अनुसार ‘सभी मदरसों में पाठ्‌यचर्या, पाठ्‌य-पुस्तकें, पाठ्‌यनीति अकादमिक तथा धार्मिक शिक्षण एक जैसा ही है।'(१७) यह भिन्न हो भी नहीं सकता क्योंकि बुनियादी पुस्तकें कुरान, हदीस इत्यादि एक ही हैं।
अफगानिस्तान में मदरसों में शिक्षा पा रहे सशस्त्र विद्यार्थियों (तालिबान) द्वारा गृह युद्ध में कूदकर जिस प्रकार अपेक्षाकृत उदारवादी मुस्लिम शासकों के दाँत खट्‌टे कर दिये गये, उससे उड्‌डयन मंत्री के उपरोक्त उद्धत वक्तव्य को बल मिलता है। यह तालिबान कट्‌टरवादी (शुद्ध) इस्लाम की स्थापना के लिये समर्पित अनुशासनबद्ध जिहादी सेनाओं के समर्पित योद्धा हैं। उनका उपयोग किसी समय भी इस रूप् में किया जा सकता है। चाहे अफगानिस्तान हो या काश्मीर अथवा कोई दूसरा देश।
इस प्रारंभिक विश्लेषण के पश्चात्‌ आइये देखें कि भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों को किस प्रकार शासकों द्वारा तलवार की नोक पर धर्मपरिवर्तन पर मजबूर होना पड़ा। उनके साथ क्या घटा? वह कैसा आतंक था? अथवा किस प्रकार उनके विश्वास के भोलेपन का लाभ उठाकर उनका धर्म परिवर्तन आक्रामकों एवं शासकों द्वारा किया गया।
४. मुस्लिम आक्रामकों और शासकों द्वारा हिन्दुओं का बलात्‌ धर्म परिवर्तन
०१. मौहम्मद बिन कासिम (७१२ ई.)
०२ सुबुक्तगीन (९७७-९९७)
०३. महमूद गजनवी (९९७-१०३०)
०४. सोमनाथ का पतन (१०२५)
०५. मौहम्मद गौरी (११७३-१२०६)
०६. कुतुबुद्‌दीन ऐबक (१२०६-१२१०)
०७. सुल्तान इल्तुतमिश (१२१०-१२३६)
०८. खिलजी सुल्तान (१२९०-१३१६)
०९. तुगलक सुल्तान
१०. तैमूर शैतान
११. दूसरे सुल्तान
१२. अलीशाह (१४१३-१४२०)
१३. बाबर (१५१९-१५३०)
१४. शेरशाह सूरी (१५४०-१५४५)
१५. हुमायूँ (१५२०-१५५६)
१६. अकबर महान (१५५६-१६०५)
१७. जहाँगीर (१६०५-१६२७)
१८. औरंगजेब (१६५८-१७०७)
१९. शाहजहां (१६२७-१६५८)
०१. मौहम्मद बिन कासिम (७१२ ई.)

इस्लामी सेनाओं का पहला प्रवेश सिन्ध में, १७ वर्षीय मौहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में ७११-१२ ई. में हुआ। प्रारंभिक विजय के पश्चात उसने ईराक के गवर्नर हज्जाज को अपने पत्र में लिखा-‘दाहिर का भतीजा, उसके योद्धा और मुखय-मुखय अधिकारी कत्ल कर दिये गयेहैं। हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया है, अन्यथा कत्ल कर दिया गया है। मूर्ति-मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। अजान दी जाती है।’ (१)
वहीं मुस्लिम इतिहासकार आगे लिखता है- ‘मौहम्मद बिन कासिम ने रिवाड़ी का दुर्ग विजय कर लिया। वह वहाँ दो-तीन दिन ठहरा। दुर्ग में मौजूद ६००० हिन्दू योद्धा वध कर दिये गये, उनकी पत्नियाँ, बच्चे, नौकर-चाकर सब कैद कर लिये (दास बना लिये गये)। यह संखया लगभग ३० हजार थी। इनमें दाहिर की भानजी समेत ३० अधिकारियों की पुत्रियाँ भी थीं।(२)

विश्वासघात

बहमनाबाद के पतन के विषय में ‘चचनामे’ का मुस्लिम इतिहासकार लिखता है कि बहमनाबाद से मौका बिसाया (बौद्ध) के साथ कुछ लोग आकर मौहम्मद-बिन-कासिम से मिले। मौका ने उससे कहा, ‘यह (बहमनाबाद) दुर्ग देश का सर्वश्रेष्ठ दुर्ग है। यदि तुम्हारा इस पर अधिकार हो जाये तो तुम पूर्ण सिन्ध के शासक बन जाओगे। तुम्हारा भय सब ओर व्याप्त हो जायेगा और लोग दाहिर के वंशजों का साथ छोड़ देंगे। बदले में उन्होंने अपने जीवन और (बौद्ध) मत की सुरक्षा की माँग की। दाहिर ने उनकी शर्तें मान ली। इकरारनामे के अनुसार जब मुस्लिम सेना ने दुर्ग पर आक्रमण किया तो ये लोग कुछ समय के लिये दिखाने मात्र के वास्ते लड़े और फिर शीघ्र ही दुर्ग का द्वार खुला छोड़कर भाग गये। विश्वासघात द्वारा बहमनाबाद के दुर्ग पर बिना युद्ध किये ही मुस्लिम सेना का कब्जा हो गया।(३)
बहमनाबाद में सभी हिन्दू सैनिकों का वध कर दिया गया। उनके ३० वर्ष की आयु से कम के सभी परिवारीजनों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। दाहिर की दो पुत्रियों को गुलामों के साथ खलीफा को भेंट स्वरूप भेज दिया गया। कहा जाता है कि ६००० लोगों का वध किया गया किन्तु कुछ कहते हैं कि यह संखया १६००० थी। ‘अलविलादरी’ के अनुसार २६०००(४)। मुल्तान में भी६,००० व्यक्ति वध किये गये। उनके सभी रिश्तेदार गुलाम बना लिये गये।(५) अन्ततः सिन्ध् में मुसलमानों ने न बौद्धों को बखशा, न हिन्दुओं को।

०२ सुबुक्तगीन (९७७-९९७)

अल उतबी नामक मुस्लिम इतिहासकार द्वारा लिखित ‘तारिखे यामिनी’ के अनुसार-‘सुल्तान ने उस (जयपाल) के राज्य पर धावा बोलने के अपने इरादे रूपी तलवार की धार को तेज किया जिससे कि वह उसको इस्लाम अस्वीकारने की गंदगी से मुक्त कर सके। अमीर लत्रगान की ओर बढ़ा जो कि एक शक्तिशाली और सम्पदा से भरपूर विखयात नगर है। उसे विजयकर, उसके आस-पास के सभी क्षेत्रों में, जहाँ हिन्दू निवास करते थे, आग लगा दी गई। वहाँ के सभी मूर्ति-मंदिर तोड़कर वहाँ मस्जिदें बना दी गईं। उसकी विजय यात्रा चलती रही और सुल्तान उन (मूर्ति-पूजा से) प्रदूषित भाग्यहीन लोगों का कत्ल कर मुसलमानों को संतुष्ट करता रहा। इस भयानक कत्ल करने के पश्चात्‌ सुल्तान और उसके मित्रों के हाथ लूट के माल को गिनते-गिनते सुन्न हो गये। विजय यात्रा समाप्त होने पर सुल्तान ने लौट कर जब इस्लाम द्वारा अर्जित विजय का वर्णन किया तो छोटे बड़े सभी सुन-सुन कर आत्म विभोर हो गये और अल्लाह को धन्यवाद देने लगे। (६)
०३. महमूद गजनवी (९९७-१०३०)
भारत पर आक्रमण प्रारंभ करने से पहले, इस २० वर्षीय सुल्तान ने यह धार्मिक शपथ ली कि वह प्रति वर्ष भारत पर आक्रमण करता रहेगा, जब तक कि वह देश मूर्ति और बहुदेवता पूजा से मुक्त होकर इस्लाम स्वीकार न कर ले। अल उतबी इस सुल्तान की भारत विजय के विषय में लिखता है-‘अपने सैनिकों को शस्त्रास्त्र बाँट कर अल्लाह से मार्ग दर्शन और शक्ति की आस लगाये सुल्तान ने भारत की ओर प्रस्थान किया। पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचकर उसने उस नगर के बाहर अपने डेरे गाड़ दिये।(७)
मुसलमानों को अल्लाह के शत्रु काफिरों से बदला लेते दोपहर हो गयी। इसमें १५००० काफिर मारे गये और पृथ्वी पर दरी की भाँति बिछ गये जहाँ वह जंगली पशुओं और पक्षियों का भोजन बन गये। जयपाल के गले से जो हार मिला उसका मूल्य २ लाख दीनार था। उसके दूसरे रिद्गतेदारों और युद्ध में मारे गये लोगों की तलाद्गाी से ४ लाख दीनार का धन मिला। इसके अतिरिक्त अल्लाह ने अपने मित्रों को ५ लाख सुन्दर गुलाम स्त्रियाँ और पुरुष भी बखशो। (८)
कहा जाता है कि पेशावर के पास वाये-हिन्द पर आक्रमण के समय (१००१-३) महमूद ने महाराज जयपाल और उसके १५ मुखय सरदारों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया था। सुखपाल की भाँति इनमें से कुछ मृत्यु के भय से मुसलमान हो गये। भेरा में, सिवाय उनके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, सभी निवासी कत्ल कर दिये गये। स्पष्ट है कि इस प्रकार धर्म परिवर्तन करने वालों की संखया काफी रही होगी।(९)
मुल्तान में बड़ी संखया में लोग मुसलमान हो गये। जब महमूद ने नवासा शाह पर (सुखपाल का धर्मान्तरण के बाद का नाम) आक्रमण किया तो उतवी के अनुसार महमूद द्वारा धर्मान्तरण के जोद्गा का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। (अनेक स्थानों पर महमूद द्वारा धर्मान्तरण के लिये देखे-उतबी की पुस्तक ‘किताबें यामिनी’ का अनुवाद जेम्स रेनाल्ड्‌स द्वारा पृ. ४५१, ४५२, ४५५, ४६०, ४६२, ४६३ ई. डी-२, पृ-२७, ३०, ३३, ४०, ४२, ४३, ४८, ४९ परिशिष्ट पृ. ४३४-७८(१०)) काश्मीर घाटी में भी बहुत से काफिरों को मुसलमान बनाया गया और उस देश में इस्लाम फैलाकर वह गजनी लौट गया।(११)
उतबी के अनुसार जहाँ भी महमूद जाता था, वहीं वह निवासियों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करता था। इस बलात्‌ धर्म परिवर्तन अथवा मृत्यु का चारों ओर इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि अनेक शासक बिना युद्ध किये ही उसके आने का समाचार सुनकर भाग खड़े होते थे। भीमपाल द्वारा चाँद राय को भागने की सलाह देने का यही कारण था कि कहीं राय महमूद के हाथ पड़कर बलात्‌ मुसलमान न बना लिया जाये जैसा कि भीमपाल के चाचा और दूसरे रिश्तेदारों के साथ हुआ था।(१२)
१०२३ ई. में किरात, नूर, लौहकोट और लाहौर पर हुए चौदहवें आक्रमण के समय किरात के शासक ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसकी देखा-देखी दूसरे बहुत से लोग मुसलमान हो गये। निजामुद्‌दीन के अनुसार देश के इस भाग में इस्लाम शांतिपूर्वक भी फैल रहा था, और बलपूर्वक भी।(१३) सुल्तान महमूद कुरान का विद्वान था और उसकी उत्तम परिभाषा कर लेता था।(१३क) इसलिये यह कहना कि उसका कोई कार्य इस्लाम विरुद्ध था, झूठा है।

राष्ट्रीय चुनौती

हिन्दुओं ने इस पराजय को राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लिया। अगले आक्रमण के समय जयपाल के पुत्र आनंद पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। फरिश्ता लिखता है कि ३०,००० खोकर राजपूतों ने जो नंगे पैरों और नंगे सिर लड़ते थे, सुल्तान की सेना में घुस कर थोड़े से समय में ही तीन-चार हजार मुसलमानों को काट कर रख दिया। सुल्तान युद्ध बंद कर वापिस जाने की सोच ही रहा था कि आनंद पाल का हाथी अपने ऊपर नेपथा के अग्नि गोले के गिरने से भाग खड़ा हुआ। हिन्दू सेना भी उसके पीछे भाग खड़ी हुई।(१४)

सराय (नारदीन) का विध्वंस

सुल्तान ने (कुछ समय ठहरकर) फिर हिन्द पर आक्रमण करने का इरादा किया। अपनी घुड़सवार सेना को लेकर वह हिन्द के मध्य तक पहुँच गया। वहाँ उसने ऐसे-ऐसे शासकों को पराजित किया जिन्होंने आज तक किसी अन्य व्यक्ति के आदेशों का पालन करना नहीं सीखा था। सुल्तानने उनकी मूर्तियाँ तोड़ डाली और उन दुष्टों को तलवार के घाट उतार दिया। उसने इन शासकों के नेता से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। अल्लाह के मित्रों ने प्रत्येक पहाड़ी और वादी को काफिरों के खून से रंग दिया और अल्लाह ने उनको घोड़े, हाथियों और बड़ी भारी संपत्ति बखशी। (१५)

नंदना की लूट

जब सुल्तान ने हिंद की मूर्ति पूजा से मुक्त कर द्गाुद्ध कर दिया और उनके मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें बना दीं, तब उसने हिन्द की राजधानी पर आक्रमण की ठानी जिससे वहाँ के मूर्तिपूजक निवासियों को अल्लाह की एकता में विश्वास न करने के कारण दंडित करे। १०१३ ई. में एक अंधेरी रात्रि को उसने एक बड़ी सेना के साथ प्रस्थान किया।(१६)
(विजय के पश्चात्‌) सुल्तान लूट का भारी सामान ढ़ोती अपनी सेना के पीछे-पीछे चलता हुआ, वापिस लौटा। गुलाम तो इतने थे कि गजनी की गुलाम-मंडी में उनके भाव बहुत गिर गये। अपने (भारत) देश में अति प्रतिष्ठा प्राप्त लोग साधारण दुकानदारों के गुलाम होकर पतित हो गये। किन्तु यह तो अल्लाह की महानता है कि जो अपने महजब को प्रतिष्ठित करता है और मूति-पूजा को अपमानित करता है।(१७)

थानेसर में कत्ले आम

थानेसर का शासक मूर्ति-पूजा में घोर विश्वास करता था और अल्लाह (इस्लाम) को स्वीकार करने को किसी प्रकार भी तैयार नहीं था। सुल्तान ने (उसके राज्य से) मूर्ति पूजा को समाप्त करने के लिये अपने बहादुर सैनिकों के साथ कूच किया। काफिरों के खून से, नदी लाल हो गई और उसका पानी पीने योग्य नहीं रहा। यदि सूर्य न डूब गया होता तो और अधिक शत्रु मारे जाते। अल्लाह की कृपा से विजय प्राप्त हुई जिसने इस्लाम को सदैव-सदैव के लिये सभी दूसरे मत-मतान्तरों से श्रेष्ठ स्थापित किया है, भले ही मूर्ति पूजक उसके विरुद्ध कितना ही विद्रोह क्यों न करें। सुल्तान, इतना लूट का माल लेकर लौटा जिसका कि हिसाब लगाना असंभव है। स्तुति अल्लाह की जो सारे जगत का रक्षक है कि वह इस्लाम और मुसलमानों को इतना सम्मान बख्शता है।(१८)
अस्नी पर आक्रमण
जब चन्देल को सुल्तान के आक्रमण का समाचार मिला तो डर के मारे उसके प्राण सूख गये। उसके सामने साक्षात मृत्यु मुँह बाये खड़ी थी। सिवाय भागने के उसके पास दूसरा विकल्प नहीं था। सुल्तान ने आदेश दिया कि उसके पाँच दुर्गों की बुनियाद तक खोद डाली जाये। वहाँ के निवासियों को उनके मल्बे में दबा दिया अथवा गुलाम बना लिया गया।चन्देल के भाग जाने के कारण सुल्तान ने निराश होकर अपनी सेना को चान्द राय पर आक्रमण करने का आदेश दिया जो हिन्द के महान शासकों में से एक है और सरसावा दुर्ग में निवास करता है।(१९)

सरसावा (सहारनपुर) में भयानक रक्तपात

सुल्तान ने अपने अत्यंत धार्मिक सैनिकों को इकट्‌ठा किया और द्गात्रु पर तुरन्त आक्रमण करने के आदेश दिये। फलस्वरूप बड़ी संखया में हिन्दू मारे गये अथवा बंदी बना लिये गये। मुसलमानों ने लूट की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जब तक कि कत्ल करते-करते उनका मन नहीं भर गया। उसके बाद ही उन्होंने मुर्दों की तलाशी लेनी प्रारंभ की जो तीन दिन तक चली। लूट में सोना, चाँदी, माणिक, सच्चे मोती, जो हाथ आये जिनका मूल्य लगभग ३०,०००० (तीस लाख) दिरहम रहा होगा। गुलामों की संखया का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक को २ से लेकर १० दिरहम तक में बेचा गया। द्गोष को गजनी ले जाया गया। दूर-दूर के देशों से व्यापारी उनको खरीदने आये। मवाराउन-नहर ईराक, खुरासान आदि मुस्लिम देश इन गुलामों से पट गये। गोरे, काले, अमीर, गरीब दासता की समान जंजीरों में बँधकर एक हो गये।(२०)

०४. सोमनाथ का पतन (१०२५)

अल-काजवीनी के अनुसार ‘जब महमूद सोमनाथ के विध्वंस के इरादे से भारत गया तो उसका विचार यही था कि (इतने बड़े उपसाय देवता के टूटने पर) हिन्दू (मूर्ति पूजा के विश्वास को त्यागकर) मुसलमान हो जायेंगे।(२१)
दिसम्बर १०२५ में सोमनाथ का पतना हुआ। हिन्दुओं ने महमूद से कहा कि वह जितना धन लेना चाहे ले ले, परन्तु मूर्ति को न तोड़े। महमूद ने कहा कि वह इतिहास में मूर्ति-भंजक के नाम से विखयात होना चाहता है, मूर्ति व्यापारी के नाम से नहीं। महमूद का यह ऐतिहासिक उत्तर ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि सोमनाथ के मंदिर को विध्वंस करने का उद्‌देश्य धार्मिक था, लोभ नहीं।
मूर्ति तोड़ दी गई। दो करोड़ (२०,०००,०००) दिरहम की लूट हाथ लगी, पचास हजार (५००००) हिन्दू कत्ल कर दिये गये।(२१क)
लूट में मिले हीरे, जवाहरातों, सच्चे मोतियों की, जिनमें कुछ अनार के बराबर थे, गजनी में प्रदर्शनी लगाई गई जिसको देखकर वहाँ के नागरिकों और दूसरे देशों के राजदूतों की आँखें फैल गई।(२२)

०५. मौहम्मद गौरी (११७३-१२०६)

हसन निजामी के ‘ताजुल मआसिर’ के अनुसार इस्लाम की सेना को पूरी तरह सुसज्जित कर विजय और शक्ति की पताकाओं को उड़ाता अल्लाह की सहायता पर भरोसा कर उस (मौहम्मद गौरी) ने हिन्दुस्तान की ओर प्रस्थान किया।(२३)
मुस्लिम सेना ने पूर्ण विजय प्राप्त की। एक लाख नीच हिन्दू नरक सिधार गये (कत्ल कर दिये गये)। इस विजय के पश्चात्‌ इस्लामी सेना अजमेर की ओर बढ़ी-वहाँ इतना लूट का माल मिला कि लगता था कि पहाड़ों और समुद्रों ने अपने गुप्त खजानें खोल दिये हों। सुल्तान जब अजमेर में ठहरा तो उसने वहाँ के मूर्ति-मंदिरों की बुनियादों तक को खुदावा डाला और उनके स्थान पर मस्जिदें और मदरसें बना दिये, जहाँ इस्लाम और शरियत की शिक्षा दी जा सके।(२४)
फरिश्ता के अनुसार मौहम्मद गौरी द्वारा ४ लाख ‘खोकर’ और ‘तिराहिया’ हिन्दुओं को इस्लाम ग्रहण कराया गया।(२५)
इब्ल-अल-असीर के द्वारा बनारस के हिन्दुओं का भयानक कत्ले आम हुआ। बच्चों और स्त्रियों को छोड़कर और कोई नहीं बखद्गाा गया।(२६) स्पष्ट है कि सब स्त्री और बच्चे गुलाम और मुसलमान बना लिये गये।

०६. कुतुबुद्‌दीन ऐबक (१२०६-१२१०)

सुल्तान ने कोहरान दुर्ग और समाना का शासन, कुतुबद्‌दीन को सौंप दिया।…..उसने अपनी तलवार से हिन्द को मूर्ति-पूजा और बहुदेवतावाद की गंदगी से मुक्त कर दिया।अपनी शक्ति और निर्भयता से एक मंदिर भी ध्वस्त करने से नहीं छोड़ा।(२७)
कतुबुद्‌दीन ने दिल्ली में प्रवेश किया। नगर और उसके आस-पास के क्षेत्रों से मूर्तियाँ और मूर्ति पूजा तिरोहित हो गई और मूर्तियों के गर्भगृहों पर मुसलमानों के लिये मस्जिदें बना दी गई।(२८)
‘११९४ ई. में कोल (अलीगढ़) विजय के पश्चात दुर्ग के हिन्दुओं में उन बुद्धिमान्‌ लोगों को छोड़कर जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, शेष को कत्ल कर दिया गया।’ (२९)
११९५ ई. में जब गुजरात के राजा भीम पर आक्रमण हुआ तो बीस हजार (२०,०००) हिन्दू कैदी, मुसलमान बनाये गये।(३०)
इब्न अल-असीर का कहना है कि कुतुबद्‌दीन ऐबक ने हिन्द के अनेक सूबों पर आक्रमण किये। (हर बार उसने कत्ले-आम किये और लूट का बहुत-सा सामान और कैदी लेकर लौटा।)

बनारस का विध्वंस

वहाँ से शाही सेना बनारस की ओर चल पड़ी जो हिन्द देश का हदय स्थान है। बनारस में लगभग १००० मंदिरों को तोड़ कर उनके स्थान पर मस्जिदें खड़ी की गईं। इस्लाम और शरियत स्थापित किये गये और उनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया।

गुजरात में प्रवेश

११९७ ई. में विश्व विजयी खुसरु अजमेर से नहर वाले के राय को नष्ट करने के इरादे से पूर्ण सैन्य बल के साथ चल पड़ा। प्रातःकाल से दोपहर तक भयंकर युद्ध हुआ। मूर्तिक-पूजकों और नरक गामियों की सेना युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ी हुई। उनके अधिकांश नेता युद्ध में काम आये। लगभग पचास हजार (५०,०००) हिन्दुओं को कत्ल कर दिया गया। बीस हजार (२,००००) से अधिक गुलाम बना लिये गये। २० हाथी और अनगिनत हथियार विजेताओं के हाथ लगे। ऐसा लगता था कि सम्पूर्ण विश्व के शासकों के कोषागार उनको प्राप्त हो गये हैं।

कालिंजर का पतन

कालिंजर का विखयात दुर्ग जो अपनी मजबूती के लिये सिकन्दर की दीवार की भाँति विखयात था, जीत लिया गया। मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया।……….मूर्ति पूजा का नामोनिशान मिटा दिया गया।………. ५०,००० हिन्दुओं के गले में गुलामी के पट्‌टे डाल दिये गये। हिन्दुओं की मृत देहों से मैदान काला दिखाई देने लगा। हाथी, पशु और बेशुमार हथियार लूट में हाथ आये।(३३)
फखरुद्‌दीन मुबारक शाह के अनुसार १२०२ ई. में कालिंजर में पचास हजार (५०,०००) कैदी पकड़े गये। निश्चय ही जैसे-सिंध की अरब विजय के पश्चात हुआ, इन सब को, जो पकड़कर गुलाम बनाये गये, इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। फरिश्ता तो साफ़-साफ़ लिखता है कि कालिंजर पर कब्जा हो जाने पर पचास हजार (५०,०००) गुलामों को इस्लाम में दीक्षित किया गया।(३४) फलस्वरूप साधारण सिपाही अथवा गृहस्थ के पास भी कई-कई गुलाम हो गये।(३५)

दिल्ली का शुद्धिकरण

सुल्तान दिल्ली लौट आया।……….तब उसने उन मूर्ति-मंदिरों का नामोनिशान मिटा दिया, जिनके मस्तक आकाश को छूते थे।……… इस्लाम के सूर्य का प्रकाश दूर-दूर के मूर्ति-पूजक क्षेत्रों पर पहुँचने लगा।(३६)
इसी समय कुतुबद्‌दीन ऐबक के सिपहसालार मौहम्मद बखितयार खिलजी इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित करने पूर्वी भारत में घूम रहे थे। सन्‌ १२०० ई. में इन्होंने बिहार के नितांत असुरक्षित विश्वविद्यालय उदन्तरी पर आक्रमण कर वहाँ के बौद्ध बिहार में रहने वाले भिक्षुओं को कत्ल कर दिया। सन्‌ १२०२ ई. में उन्होंने सहसा ही नदिया पर आक्रमण कर दिया। बदायुनीं की ‘मुतखबत-तवारीख’ के अनुसार ‘अतुल संपत्ति और धन मुसलमानों के हाथ लगा। बखितयार ने पूजा स्थल और मूर्ति-मंदिरों को तोड़कर, उनके स्थान पर मस्जिदें और खानकाहें स्थापित कर दिये।(३७) ऐबक के पद्गचात्‌ शम्शुद्दीन् इल्तुतमिश का काल आया।

०७. सुल्तान इल्तुतमिश (१२१०-१२३६)

१२३१ ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और बड़ी संखया में लोगों को गुलाम बनाया। उसके द्वारा पकड़े और गुलाम बनाये गये महाराजाओं के परिवारीजनों की गिनती देना संभव नहीं है। (३८)
अवध में चंदेल वंश के त्रैलोक्य वर्मन के विरुद्ध युद्ध में विजयी होने पर ‘काफिरों के सभी बच्चे, पत्नियाँ और परिवारीजन विजयी सुल्तान के हाथ पड़े। १२५३ ई. में रणथम्भौर में और १२५९ में हरियाणा और शिवालिक पहाड़ों में कम्पिल, पटियाली और भोजपुर में यही कहानी दोहराई गई। (३९)
हिन्दू आसानी से इस्लाम ग्रहण नहीं करते थे क्योंकि अल-बेरुनी के अनुसार हिन्दू यह समझते थे कि उनके धर्म से बेहतर दूसरा धर्म नहीं है और उनकी संस्कृति और विज्ञान से बढ़कर कोई दूसरी संस्कृति और विज्ञान नहीं है।(४०) दूसरा कारण यह था जैसा कि इल्तुतमिश को उसके वजीर निजामुल मुल्क जुनैदी ने बताया था ‘इस समय हिन्दुस्तान में मुसलमान दाल में नमक के बराबर हैं। अगर जोर जबरदस्ती की गयी तो वे सब संगठित हो सकते हैं और मुसलमानों को उनको दबाना संभव नहीं होगा। जब कुछ वर्षों के बाद राजधानी में और नगरों में मुस्लिम संखया बढ़ जाये और मुस्लिम सेना भी अधिक हो जाये, उस समय हिन्दुओं को इस्लाम और तलवार में से एक का विकल्प देना संभव होगा।'(४१) डॉ. के.एस. लाल के अनुसार, यह स्थिति तेरहवीं शताब्दी के बाद हो गयी थी और इसलिये बलात्‌ धर्मान्तरण का कार्य तेहरवीं शताब्दी के पश्चात्‌ शीघ्र गति से चला।
इल्तुतमिश ने भी भारत के इस्लामीकरण में पूरा योगदान दिया। सन्‌ १२३४ ई. में मालवा पर आक्रमण हुआ। वहाँ पर विदिशा का प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिया गया। बदायुनी लिखता है : ‘६०० वर्ष पुराने इस महाकाल के मंदिर को नष्ट कर दिया गया। उसकी बुनियाद तक खुदवा कर राय विक्रमाजीत की प्रतिमा तोड़ डाली गयी। वह वहाँ से पीतल की कुछ प्रतिमाएँ उठा लाया। उनको पुरानी दिल्ली की मस्जिद के दरवाजों और सीढ़ियों पर डालकर लोगों को उन पर चलने का आदेश दिया।(४२) ५०० वर्षों के मुस्लिम आक्रमणों ने हिन्दुओं को इतना दरिद्र बना दिया था कि मंदिरों में सोने की मूर्तियों के स्थान पर पीतल की मूर्तियाँ रखी जाने लगी थीं। किन्तु अभी तो अत्याचार और भी बढ़ने थे।
इल्तुतमिश के पश्चात्‌ बलबन (१२६५-१२८७) का राज्य आया। रुहेलखण्ड के कटिहार क्षेत्र केराजपूतों के प्रदेश ने कभी मुसलमानों की सत्ता स्वीकार नहीं की थी। सन्‌ १२८४ ई. में बलबन ने गंगा पार कर इस क्षेत्र पर आक्रमण किया। बदायुनी के अनुसार ‘दिल्ली छोड़ने के दो दिन बाद वह कटिहार पहुँचा। ७ वर्ष के ऊपर के सभी पुरुषों को कत्ल कर दिया गया। शेष स्त्री-पुरुष सभी गुलाम बना लिये गये।’

०८. खिलजी सुल्तान (१२९०-१३१६)

जब जलालुद्‌दीन खिलजी ने (१२९०-१२९६) रणथम्भौर पर चढ़ाई की तो रास्ते में झौन नामक स्थान पर उसने वहाँ के हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर दिया। उनकी खंडित मूर्तियों को जामा मस्जिद, दिल्ली, की सीढ़ियों पर डालने के लिए भेज दिया गया जिससे वह मुसलमानों द्वारा सदैव पददलित होती रहें।(४४)
किन्तु इसी जलालुद्‌दीन ने, मलिक छज्जू मुस्लिम विद्रोही को कत्ल करने से, यह कहकर इंकार कर दिया कि ‘वह एक मुसलमान का वध करने से अपनी सिहांसन छोड़ना बेहतर समझता है।'(४५) दया और भातृभाव केवल मुसलमानों के लिये है। काफिर के लिये नहीं।(४६)
अलाउद्‌दीन खिलजी (१२९६-१३१६) जो जलालुद्‌दीन का भतीजा और दामाद भी था, और जिसका पालन पोण भी जलालुद्‌दीन ने पुत्रवत किया था, धोखे से, वृद्ध सुल्तान का वध कर दिल्ली की गद्‌दी पर बैठा। हिन्दुओं से लूटे हुए धन को दोनों हाथों से लुटा कर उसने जलालुद्‌दीन के विश्वस्त सरदारों को खरीद लिया अथवा कत्ल कर, दिया। जब उसकी गद्‌दी सुरक्षित हो गई तो उसका काफिरों (हिन्दुओं) के दमन और मूर्तियों को खंडित करने का धार्मिक उन्माद जोर मारने लगा। १२९७ ई. में उसने अपने भ्राता मलिक मुइजुद्‌दीन और राज्य के मुखय आधार नसरत खाँ को, जो एक उदार और बुद्धिमान योद्धा था, गुजरात में कैम्बे (खम्भात) पर, जो आबादी और संपत्ति में भारत का विखयात नगर था, आक्रमण के लिये भेजा। चौदह हजार (१४,०००) घुड़सवार और बीस हजार (२०,०००) पैदल सैनिक उनके साथ थे।(४७)
मंजिल पर मंजिल पार करते उन्होंने खम्भात पहुँच कर प्रातःकाल ही उसे घेर लिया, जब वहाँ के काफिर निवासी सोये हुए थे। उनीदे नागरिकों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ। भगदड़ में माताओं की गोद से बच्चे गिर पड़े। मुसलमान सैनिकों ने इस्लाम की खातिर उस अपवित्र भूमि में क्रूरतापूर्वक चारों ओर मारना काटना प्रारंभ कर दिया। रक्त की नदियाँ बह गई। उन्होंने इतना सोना और चाँदी लूटा जो कल्पना के बाहर है और अनगिनत हीरे, जवाहरात, सच्चे मोती, लाल औरपन्ने इत्यादि। अनेक प्रकार के छपे, रंगीन, जरीदार रेशमी और सूती कपड़े।(४८)
‘उन्होंने बीस हजार (२०,०००) सुंदर युवतियों को और अनगिनत अल्पायु लड़के-लड़कियों को पकड़ लिया। संक्षेप में कहें तो उन्होंने उस प्रदेश में भीषण तबाही मचा दी। वहाँ के निवासियों का वध कर दिया उनके बच्चों को पकड़ ले गये। मंदिर वीरान हो गये। सहस्त्रों मूर्तियाँ तोड़ डाली गयीं। इनमें सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण सोमनाथ की मूर्ति थी। उसके टुकड़े दिल्ली लाकर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बिछा दिये गये जिससे प्रजा इस शानदार विजय के परिणामों को देखे और याद करे। (४९)
रणथम्भौर पर आक्रमण के लिये अलाउद्‌दीन ने स्वयं प्रस्थान किया। जुलाई १३०१ ई. में विजय प्राप्त हुई। किले के अंदर तमाम स्त्रियाँ जौहर कर चिता में प्रवेश कर गईं। उसके बाद पुरुष तलवार लेकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े और कत्ल कर दिये गये। सभी देवी देवताओं के मंदिर ध्वस्त कर दिये गये। (४९क)
अलाउद्‌दीन खिलजी ने दिल्ली में कुतुबमीनार से भी बड़ी मीनार बनाने का इरादा किया तो पत्थरों के लिए हिन्दुओं के मंदिरों को तुड़वा दिया गया। उस स्थान पर उन मंदिरों के पत्थरों से ही’कव्बतुल इस्लाम मस्जिद’ का निर्माण भी किया जो आज भी शासन द्वारा सुरक्षित राष्ट्रीय स्मारकों के रूप में मौजूद है।
उज्जैन में भी सभी मंदिर और मूर्तियों का यही हाल हुआ। मालवा की विजय पर हर्ष प्रकट करते हुए खुसरो लिखता है कि ‘वहाँ की भूमि हिन्दुओं के खून से तर हो गई।’ (५०)
चित्तौड़ के आक्रमण में अमीर खुसरो के अनुसार इस सुल्तान ने ३,००० (तीन हजार) हिन्दुओं को कत्ल करवाया। (५१)
‘जो वयस्क पुरुष इस्लाम स्वीकार करने से इंकार करते थे, उनको कत्ल कर देना और द्गोष सबको, स्त्रियों और बच्चों समेत, गुलाम बना लेना साधारण नियम था। अलाउद्‌दीन खिलजी के ५०,००० (पचास हजार) गुलाम थे जिनमें अधिकांद्गा बच्चे थे। फीरोज तुगलक के एक लाख अस्सी हजार (१,८०,०००) गुलाम थे।’ (५२)
अलाउद्‌दीन खिलजी के समय, जियाउद्‌दीन बर्नी की दिल्ली का गुलाम मंडली के विषय में की गई टिप्पणी है कि आये दिन मंडी में नये-नये गुलामों की टोलियाँ बिकने आती थीं। (५३) दिल्ली अकेली ऐसी मंडी नहीं थी। भारत और विदेशों में ऐसी गुलाम मंडियों की भरमार थी, जहाँ गुलाम स्त्री, पुरुष और बच्चे भेड़ बकरियों की भाँति बेचे और खरीदे जाते थे।
अलाउद्‌दीन खिलजी ही क्यों, अकबर को छोड़कर, सम्पूर्ण मुस्लिम काल में, जो हिन्दू कैदी पकड़ लिये जाते थे, उनमें से जो मुसलमान बनने से इन्कार करते थे, उन्हें बध कर दिया जाता था अथवा गुलाम बनाकर निम्न कोटि के कामों (पाखाना साफ करना इत्यादि) पर लगा दिया जाता था। शेष गुलामों को सेना ओर शासकों के बीच बाँट दिया जाता था। फालतू गुलाम मंडियों में बेंच दिये जाते थे।
जिन लोगों ने अमेरिका में गुलामों की दुर्दशा पर लिखा, विश्व विखयात उपन्यास ‘टाम काका की कुटिया’ पढ़ा होगा, उन्हें स्वप्न में भी यह विचार नहीं आया होगा कि भारत में उनके पूर्वजों के साथ भी वही पशुवत व्यवहार हुआ है। गुलामों की मंडियों में बिकने वाले परिवारी जनों के एक-दूसरे से बिछड़ने के सहस्त्रों हदय विदारक दृश्य प्रतिदिन ही देखने को मिलते रहे होंगे। पिता कहीं जा रहा है, तो पुत्र कहीं; माता कहीं और युवा पुत्री कहीं किसी के विषय भोग की जीवित लाश बनकर, जो मन भर जाने पर, उसे कहीं और बेच देगा।
मुस्लिमों का हिन्दू राजा से विश्वासघात
जब मलिक काफूर ने मालाबार पर आक्रमण किया तो वहाँ के यहाँ राजा के लगभग बीस हजार (२०,०००)मुस्लिम सैनिक थे जो लम्बे समय से दक्षिण भारत में रह रहे थे, अपने राजा से विश्वासघात कर मुस्लिम सेना में जा मिले।(५४)
विद्गव इतिहास मुस्लिम सेनाओं द्वारा अपने गैर-मुस्लिम शासकों का साथ छोड़कर मुस्लिम आक्रांताओं से जा मिलने की अनेक घटनाओं से भरा पड़ा है। दाहिर की मुस्लिम सेना हो या विजयनगर की, अथवा १९४८ में काश्मीर की या काबुल में रूस की, उनका वह व्यवहार सामान्य है और इसके विपरीत केवल अपवाद हैं। कारण यह है कि इस्लाम एक मुसलमान को दूसरे मुसलमान का रक्त बहाने से अति कठोरतापूर्वक मना करता है।
गुजरात में १३१६ ई. में, मुस्लिम राज्य हो गया। उसका शासक वजीहउल मुल्क धर्मान्तरित राजपूत मुस्लिम था। इस वंश ने वहाँ इस्लाम फैलाने का भयंकर प्रयास किया। अहमदशाह (१४११-१४४२ ई.) ने बहुत लोगों का धर्मान्तरण किया। १४१४ ई. में इसने हिन्दुओं पर जिजिया कर लगाया और इतनी सखती से उसकी वसूली की कि बहुत से लोग मुसलमान हो गये। यह जिजिया अकबर के काल (१५७३) तक जारी रहा। अहमदशाह की प्रत्येक विजय के बाद धर्मान्तरण का बोलबाला होता था। १४६९ ई. में सोरठ पर हमला किया गया और राजा के यह कहने पर कि वह राज्य कर लगातार समय से देता रहा है, महमूद बेगरा ने (१४५८-१५११) उत्तर दिया कि ‘वह राज्य करने के लिये आया है और न लूट के लिये। वह तो सोरठ में इस्लाम स्थापित करने आया है। राजा एक वर्ष तक मुकाबला करता रहा, किन्तु अन्त में उसे इस्लमा स्वीकार करना पड़ा और उसे ‘खानेजहाँ’ का खिताब मिला।(५५) उसके साथ अवश्य ही अनगिनत लोगों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा होगा। १४७३ ई. में द्वारिका पर आक्रमण के समय इसी प्रकार के धर्मान्तरण हुए। चम्पानेर पर आक्रमण के समय उसके राजपूत राजा पतई ने वीरतापूर्वक युद्ध किया, किन्तु पराजित हो गये। उसने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया और बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी गयी।(५६) १४८६ ई. में उसके पुत्र को मुसलमान बनना पड़ा और उसे ‘निजामुल मुल्क’ का खिताब दिया गया। डॉ. सतीद्गा सी. मिश्रा के अनुसार जिन्होंने कि गुजरात के इतिहास का गहन अध्ययन किया है, मुस्लिम आक्रमणकारियों की दो ही माँगे होती थीं: भूमि और स्त्रियाँ और अधिकतर वे इन दोनों को ही बलात छीन लेते थे।(५८)

०९. तुगलक सुल्तान

खिलजी वंश के पतन के पश्चात्‌ तुगलकों-
ग्यासुद्‌दीन तुगलक (१३२०-२५) मौहम्मद बिन तुगलक (१३२५-१३५१ ई.) एवं फ़िरोज शाह तुगलक(१३५१-१३८८) का राज्य आया।
फ़िरोज तुगलक ने जब जाजनगर (उड़ीसा) पर हमला किया तो वह राज शेखर के पुत्र को पकड़ने में सफल हो गया। उसने उसको मुसलमान बनाकर उसका नाम शकर रखा।(६२)
सुल्तान फ़िरोज तुगलक अपनी जीवनी ‘फतुहाल-ए-फिरोजशाही’ में लिखता है-‘मैं प्रजा को इस्लाम स्वीकारने के लिये उत्साहित करता था। मैंने घोषणा कर दी थी कि इस्लाम स्वीकार करने वाले पर लगा जिजिया माफ़ कर दिया जायेगा।
यह सूचना जब लोगों तक पहुँची तो लोग बड़ी संखया में मुसलमान बनने लगे। इस प्रकार आज के दिन तक वह चहुँ ओर से चले आ रहे हैं। इस्लाम ग्रहण करने पर उनका जिजिया माफ कर दिया जाता है और उन्हें खिलअत तथा दूसरी वस्तुएँ भेंट दी जाती है।(६२)
१३६० ई. में फिरोज़शाह तुगलक ने जगन्नाथपुरी के मंदिर को ध्वस्त किया। अपनी आत्मकथा में यह सुल्तान हिन्दू प्रजा के विरुद्ध अपने अत्याचारों का वर्णन करते हुए लिखता है-‘जगन्नाथ की मूर्ति तोड़ दी गयी और पृथ्वी पर फेंक कर अपमानित की गई। दूसरी मूर्ति खोद डाली गई और जगन्नाथ की मूर्ति के साथ मस्जिदों के सामने सुन्नियों के मार्ग में डाल दी गई जिससे वह मुस्लिमों के जूतों के नीचे रगड़ी जाती रहें।'(६३)
इस सुल्तान के आदेश थे कि जिस स्थान को भी विजय किया जाये, वहाँ जो भी कैदी पकड़े जाये; उनमें से छाँटकर सर्वोत्तम सुल्तान की सेवा के लिये भेज दिये जायें। शीघ्र ही उसके पास १८०००० (एक लाख अस्सी हजार) गुलाम हो गये।(६३क)
‘उड़ीसा के मंदिरों को तोड़कर फिरोजशाह ने समुद्र में एक टापू पर आक्रमण किया। वहाँ जाजनगर से भागकर एक लाख शरणार्थी स्त्री-बच्चे इकट्‌ठे हो गये थे। इस्लाम के तलवारबाजों ने टापू को काफिरों के रक्त का प्याला बना दिया। गर्भवती स्त्रियों, बच्चों को पकड़-पकड़कर सिपाहियों का गुलाम बना दिया गया।'(६४)
नगर कोट कांगड़ा में ज्वालामुखी मंदिर का यही हाल हुआ। फरिश्ता के अनुसार मूर्ति के टुकड़ों को गाय के गोश्त के साथ तोबड़ों में भरकर ब्राहमणों की गर्दनों से लटका दिया गया। मुखय मूर्ति बतौर विजय चिन्ह के मदीना भेज दी गई। (६८)
मौहम्मद-बिन-हामिद खानी की पुस्तक ‘तारीखे मौहमदी’ के अनुसार फीरोज तुगलक के पुत्र नसीरुद्‌दीन महमूद ने राम सुमेर पर आक्रमण करते समय सोचा कि यदि मैं सेना को सीधे-सीधे आक्रमण के आदेश दे दूँगा तो सैनिक क्षेत्र में एक भी हिन्दू को जीवित नहीं छोड़ेंगे। यदिमैं धीरे-धीरे आगे बढूँगा तो कदाचित वे इस्लाम स्वीकार करने को राजी हो जायेंगे। (६६)
मालवा में १४५४ ई. में सुल्तान महमूद ने हाड़ा राजपूतों पर आक्रमण किया तो उसने अनेकों का वध कर दिया और उनके परिवारों को गुलाम बनाकर माँडू भेज दिया। (६७)
ग्सासुद्‌दीन (१४६९-१५००) का हरम हिन्दू जमींदारों और राजाओं की सुंदर गुलाम पुत्रियों से भरा हुआ था। इनकी संखया निजामुद्‌दीन के अनुसार १६००० (सोलह हजार) और फरिद्गता के अनुसार १०,००० (दस हजार) थी। इनकी देखभाल के लिये सहस्त्रों गुलाम रहे होंगे। (६९)

दक्खन

प्रथम बहमनी सुल्तान अलाउद्‌दीन बहमन शाह (१३४७-१३५८) ने उत्तरी कर्नाटक के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण किया। लूट में मंदिरों में नाचने वाली १००० (एक हजार) हिन्दू स्त्रियाँ हाथ आई। (६९)
१४०६ में सुल्तान ताजुद्‌दीन फ़िरोज़ (१३९७-१४२२) ने विजयनगर के विरुद्ध युद्ध में वहाँ से ६०,००० (साठ हजार) किद्गाोरों और बच्चों को पकड़ कर गुलाम बनाया। द्गाांति स्थापित होने पर बुक्का राजा ने दूसरी भेंटों के अतिरिक्त गाने नाचने में निपुण २००० (दो हजार) लड़के-लड़कियाँ भेंट में दिये। (७०)
उसका उत्तराधिकारी अहमद वली (१४२२-३६)विजयनगर को एक ओर से दूसरी ओर तक लोगों का कत्ले-आम करता, स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बनाता, रौंद रहा था। सभी गुलाम मुसलमान बना लिये जाते थे। (७१)
सुल्तान अलाउद्‌दीन (१४३६-४८) ने अपने हरम में १००० (एक हजार) स्त्रियाँ इकट्‌ठी कर ली थीं।(७२)
जब हम सोचते हैं कि बहमनी सुल्तानों और विजयनगर में लगभग १५० वर्ष तक युद्ध होता रहा तो कितने कत्ल हुये, कितनी स्त्रियाँ और बच्चे गुलाम बनाये गये और कितनों का बलात्‌ धर्मान्तरण किया, गया उसका हिसाब लगाना कठिन हो जाता है। (७३)

बंगाल

‘बंगाल के डरपोक लोगों को तलवार के बल पर १३वीं-१४वीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर मुसलमान बनाने का श्रेय (इस्लाम के) जोशीले सिपाहियों को जाता है जिन्होंने पूर्वी सीमाओं तक घने जंगलों में पैठ कर वहाँ इस्लाम के झंडे गाड़ दिये। लोकोक्ति के अनुसार, इनमें सबसे अधिक सफल थे; आदम शहीद, शाह जलाल मौहम्मद और कर्मफरमा साहब। सिलहट के शाह जलाल द्वारा बड़े पैमाने पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। इस्माइल द्गााह गाजी ने हिन्दू राजा को पराजित कर बड़ी संखया में हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया (७३क) इन नामों के साथ जुड़े ‘गाजी’ (हिन्दुओंको कत्ल करने वाला) और ‘शहीद’ (धर्म युद्ध में हिन्दुओं द्वारा मारे जाने वाला) शब्द से ही उनके उत्साह का अनुमान किया जा सकता है।
‘१९०१ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार अनेक स्थानों पर हिन्दुओं पर भीद्गाण अत्याचार किये गये। लोकगाथाओं के अनुसार मौहम्मद इस्माइल शाह ‘गाजी’ ने हुगली के हिन्दू राजा को पराजित कर दिया और लोगों का बलात्‌ धर्मान्तरण किया। (७४)
इसी रिपोर्ट के अनुसार मुर्शिद कुली खाँ का नियम था कि जो भी किसान अथवा जमींदार लगान न दे सके उसको परिवार सहित मुसलमान होना पड़ता था। (७५)

१०. तैमूर शैतान

१३९९ ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी ‘तुजुके तैमुरी’ में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है ‘ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।’ वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है।
‘हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें। (७६)
काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि ‘थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में १०,००० (दस हजार) लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया। (७७)
दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। ‘सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि ‘जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।’ और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया।पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।’ (७९)

दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संखया एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-
‘इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजककाफिर कत्ल कर दिये गये- (७८)
तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संखया में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं।
उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिये।
‘तुजुके तैमुरी’ बताती है कि ‘उनमें से बहुत से हिन्दुओं ने तलवारें निकाल लीं और विरोध किया। जहाँपनाह और सीरी से पुरानी देहली तक विद्रोहाग्नि की लपटें फैल गई। हिन्दुओं ने अपने घरों में लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों को उसमें भस्म कर युद्ध करने के लिए निकल पड़े और मारे गये। उस पूरे दिन वृहस्पतिवार को और अगले दिन शुक्रवार की सुबह मेरी तमाम सेना शहर में घुस गई और सिवाय कत्ल करने, लूटने और बंदी बनाने के उसे कुछ और नहीं सूझा। द्गानिवार १७ तारीख भी इसी प्रकार व्यतीत हुई और लूट इतनी हुई कि हर सिपाही के भाग में ८० से १०० बंदी आये जिनमें आदमी और बच्चे सभी थे। फौज में ऐसा कोई व्यक्ति न था जिसको २० से कम गुलाम मिले हों। लूट का दूसरा सामान भी अतुलित था-लाल, हीरे,मोती, दूसरे जवाहरात, अद्गारफियाँ, सोने, चाँदी के सिक्के, सोने, चाँदी के बर्तन, रेशम और जरीदार कपड़े। स्त्रियों के सोने चाँदी के गहनों की कोई गिनती संभव नहीं थी। सैयदों, उलेमाओं और दूसरे मुसलमानों के घरों को छोड़कर शेष सभी नगर ध्वस्त कर दिया गया।’ (७९)दया और भ्रातृत्व केवल मुसलमानों के लिये है। (७९क)

११. दूसरे सुल्तान

दिल्ली के सुल्तानों की हिन्दू प्रजा पर अत्याचारों में यदि कोई कमी रह गई थी तो सूबों के मुस्लिम गवर्नर उसे पूरी कर देते थे।
सन्‌ १३९२ में गुजरात के सूबेदार मुजफ्फरशाह ने नवनिर्मित सोमनाथ के मंदिर को तुड़वा दिया और उसके स्थान पर मस्जिद बनवाई। बहुत से हिन्दू मारे गये। हिन्दुओं ने फिर नया मंदिर बनाया। १४०१ ई. में मुजफ्फर फिर आया। मंदिर तोड़कर दूसरी मस्जिद बनाई गई। सन १४०१ ई. में उसके पोते अहमद ने, जो उसके बाद गद्‌दी पर बैठा था, एक दरोगा इसी काम के लिए नियुक्त किया कि वह गुजरात के सभी मंदिरों को ध्वस्त कर डाले। हिन्दू मंदिर बनाते रहते थे, और मुसलमान तोड़ते रहते थे।
सन्‌ १४१५ ई. में अहमद ने सिद्धपुर पर आक्रमण किया। रुद्र महालय की मूर्ति तोड़कर उस मंदिर के स्थान पर मस्जिद खड़ी की। सन्‌ १४१५ ई. में गुजरात के सुल्तान महमूद बघरा ने इन सभी से बाजी मार ली। उसके अधीन जूनागढ़ का राजा मंदालिका था जिसने कभी भी सुल्तान को निश्चित कर देने में ढील नहीं की थी। फिर भी सन्‌ १४६९ ई. में बघरा ने जूनागढ़ पर आक्रमण कर दिया। जब मंदालिका ने उससे कहा कि वह अपना निश्चित कर नियमित रूप से देता रहा है तो उसने उत्तर दिया कि उसे धन प्राप्ति में इतनी रुचि नहीं है जितनी कि इस्लाम के प्रसार में है। मंदालिका को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया।(८०) सन्‌ १४७२ ई. में महमूद ने द्वारिका पर आक्रमण किया। मंदिर तोड़ा और शहर लूटा। चंपानेर का शासक जयसिंह और उसका मंत्री इस्लाम कुबूल न करने पर कत्ल कर दिये गये।(७१)
बंगाल के इलियास शाह ने (सन्‌ १३३१-७९) नेपाल पर आक्रमण कर स्वयम्भूनाथ का मंदिर ध्वस्त किया।(८२) उड़ीसा में बहुत से मंदिर तुड़वाये और लूटपाट की।
गुलबर्ग और बीदर के बहमनी सुल्तान प्रति वर्ष एक लाख हिन्दू पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का वध करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे। दक्षिण भारत के अनेक मंदिर उनके द्वारा ध्वस्त कर दिये गये।(८३)
इस प्रकार के खुले अत्याचारों से उत्पन्न भयानक आतंक से कितने हिन्दू शीघ्रतिशीघ्र मुसलमान हो गये होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

काश्मीर का इस्लामीकरण

(स्रोतः एन.के. जुत्शी द्वारा लिखित ‘सुल्तान जैनुल आब्दीन आफ काश मीर’
काद्गमीर का प्रभावी इस्लामीकरण सुहादेव (१३०१-१३२० ई.) के राज्य काल से प्रारंभ हुआ।
भारतवर्ष ने सदैव उत्पीड़ित द्गारणार्थियों को द्गारण दी है। धर्म के नाम पर कभी आगन्तुकों से भेद-भाव नहीं किया। पारसियों और यहूदियों ने हिन्दू भारत के इस आतिथ्य का दुरूपयोग नहीं किया। परन्तु मुसलमानों ने समय पड़ने पर इस्लाम की काफिर और कुफ्र विरोधी नीति के कारण एक दो अपवादों को छोड़ कर सदैव ऐसी नीति अपनाई जिससे भारत में इस्लाम की विजय हो और कुफ्र का नाद्गा। काश्मीर भी इस नीति का शिकार बना।
१३१३ ई. में शाहमीर नामक एक मुसलमान सपरिवार काश्मीर में आकर बसा। शाहमीर को हिन्दू राजा ने अपनी सेवा में नियुक्त कर उसे अंदर कोट का चार्ज सौंप दिया। लगता है कि यह परिवार पहले हिन्दू था।
इसी समय में जब काद्गमीर पर दुलाचा नामक मंगोल का भयानक आक्रमण हो चुका था, लद्‌दाख के एक बौद्ध राजकुमार रिनछाना ने लद्‌दाख से आकर अस्त-व्यस्त काद्गमीर पर कब्जा कर लिया। राजासुहादेव भय के मारे किद्गतवार भाग गया। रिनछाना ने काश्मीर में शांति स्थापित कर दी।
बौद्ध रिनछाना हिन्दू बहुत काश्मीर के हिन्दू प्रजाजनों से अच्छे संबंध बनाने के लिये हिन्दू मत स्वीकार करना चाहता था, परन्तु देव स्वामी नामक मुखय पुरोहित के विरोध के कारण यह संभव नहीं हो सका। हिन्दुओं से निराश होकर मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिये उसने शाहमीर के समझाने-बुझाने से इस्लाम ग्रहण कर लिया।
रिनछाना की मृत्यु के पश्चात अनेक षडयंत्र रच कर शाहमीर ने गद्‌दी हथिया ली और सुल्तान शम्सुद्‌दीन के नाम से १३३१ ई. में सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठते ही उसने काश्मीर में सुन्नी मुस्लिम सिद्धांतों का प्रचार प्रारंभ कर दिया। १३४२ ई. में शम्सुद्‌दीन की मृत्यु हो गई और उसके दोनों पुत्रों में झगड़े प्रारंभ हो गये। बड़े पुत्र जमशेद ने १३४२ से १३४४ तक राज्य किया और १३४४ में उसका छोटा भाई अलीशेर सुल्तान अलाउद्‌दीन के नाम से राज्य सिंहासन पर बैठा। उसने काश्मीर में गिरते नैतिक चरित्र की रोकथाम की, अनेक नये क्षेत्र वियज किये। १३५५ ई. में सुल्तान अलाउद्‌दीन की मृत्यु के पश्चात्‌, उसका पुत्र सुल्तान शिहाबुद्‌दीन (१३५५-१३७३ ई.) गद्‌दी पर बैठा। द्गिाहाबुद्‌दीन ने दंगा फसाद करने वालों को सखती से कुचल दिया।
सुल्तान शिहाबुद्‌दीन की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका भाई हिन्दाल सुल्तान कुतुबुद्‌दीन के नाम से गद्‌दी पर बैठा।
अब तक अनेक विदेशों से भाग कर आये सैयदों ने काश्मीर में शरण ले ली थी। उन्होंने मुगलों तथा तैमूर के आतंक एवं उत्पीड़न के कारण काद्गमीर में प्रवेश किया था। उस समय फारस, ईराक, तुर्किस्तान, अफ़गानिस्तान और भारत में अराजकता थी। काश्मीर में शांति थी। हिन्दू राज्यकाल में धार्मिक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों में निरपेक्ष नीति के कारण वे काश्मीर में आबाद हो गये। उन्होंने अपने और साथियों को बुलाया। सैयदों की संखया बढ़ती गयी।
सैयद राजनीति में सक्रिय भाग लेते थे। वे सुल्तानों से विवाह संबंधी बनाकर, काश्मीर के कुलीन समाज में उच्चे स्थान प्राप्त करते गये। उनका प्रभाव बढ़ता गया। उन्होंने सुल्तानों पर नियंत्रण प्रारंभ किया। विदेशी सैयदों के प्रभाव एवं प्रोत्साहन पर हिन्दुओं पर अत्याचार हुए। उन्हें मुसलमान बनाने की सुनिद्गिचत योजना बनायी गई। सैयदों ने इसमें सक्रिय भाग लिया। सभी साधनों का प्रयोग काश्मीर के इस्लामीकरण में किया गया।
फलस्वरूप सुल्तान कुत्बुद्‌दीन (१३७३-१३८९) के राज्य काल में इस्लाम का बहुत प्रसार हुआ। इसके समय में ही सैयद अली हमदानी नामी सूफी ईरान से वहाँ आया। इसके प्रभाव में आकर सुल्तान ने हिन्दुओं के धर्मान्तरण में बड़ी रुचि ली। सादात लिखित ‘बुलबुलशाह’ के अनुसार इस सूफी के प्रभाव से ३७००० (सैंतीस हजार) हिन्दू मुसलमान बने।
कुत्बुद्‌दीन के पुत्र सिकन्दर बुतशिकन ने (१३८९-१४१३) विदेशी सूफी मीर अली हमदानी, सहभट्‌ट सैयदों तथा मूसा रैना ने इराक देशीय मीर शमशुद्‌दीन की प्रेरणा पर हिन्दुओं पर अत्याचार एवं उत्पीड़न किया। सिकन्दर बुतशिकन के समय समस्त प्रतिमाएँ भंग कर दी गयी थी। हिन्दू जबर्दस्ती मुसलमान बना लिये गये थे। इस सुल्तान के विषय में कल्हण ‘राज तरंगिणी’ में लिखता है :
‘सुल्तान अपने तमाम राजसी कर्तव्यों को भुलाकर दिन रात मूर्तियों तोड़ने का आनंद उठाता रहता था। उसने मार्तण्ड, विद्गणु, ईशन, चक्रवर्ती और त्रिपुरेश्वर की मूर्तियाँ तोड़ डाली। कोई भी बन, ग्राम, नगर तथा महानगर ऐसा न था जहाँ तुरुश्क और उसके मंत्री सुहा ने देव मंदिर तोड़ने से छोड़ दिये हों।’ सुहा हिन्दू था जो मुसलमान हो गया था।
सिकन्दर के पश्चात्‌ उसका पुत्र मीरखां अली शाह के नाम से गद्‌दी पर बैठा।

१२. अलीशाह (१४१३-१४२०)

सिकन्दर के प्रधानमंत्री सुहा ने इस सुल्तान के समय ब्राहमणों पर फिर अत्याचार प्रारंभ कर दिये। उनके धार्मिक अनुष्ठान और शोभा यात्राओं पर पाबंदी लगा दी। ब्राहम्ण इतने दरिद्र हो गये कि उनको कुत्तों की तरह भोजन के लिए दर-दर भटकना पड़ने लगा। अपने धर्म की रक्षा और अत्याचार से बचने के लिए बहुतों ने काश्मीर से भागने के प्रयास किये।
कहा गया है कि काश्मीर में केवल ११ (ग्यारह) ब्राहम्ण परिवार ही बच पाये जो राज्य सहमति के अभाव में भाग नहीं सके। उनमें से बहुतों ने आग में कूदकर, विष द्वारा, व फांसी लगाकर अथवा पहाड़ से कूदकर आत्महत्या कर ली। सुहा का कहना था कि वह तो केवल इस्लाम के प्रति अपनी कर्तव्य निभा रहा था।

१३. बाबर (१५१९-१५३०)

मुसलमान बादशाहों में बाबर का नाम भारत में उसके द्वारा सबसे स्थायी मुगल साम्राज्य स्थापित करने का श्रेय प्राप्त होने के कारण प्रसिद्ध रहा है। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के कारण यह नाम बच्चे-बच्चे की जुबान पर है। मुसलमानों के लिए तो उनके धर्मानुसार जितना ही काफिर-कुश कोई सुल्तान रहा हो उतना ही अधिक उनकी श्रद्धा और आदर का पात्र होगा। किन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि हमारे कुछ आधुनिक विद्वान भी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण पत्र पाने की होड़ में उसे एक धर्मनिरपेक्ष और हिन्दू तथा हिन्दू मंदिरों के प्रति सहानुभूति रखने वाला मजहबी कट्‌टरता से ऊपर सहदय बादशाह प्रमाणित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाते फिरते हैं।
ऐसे विद्वानों का दुर्भाग्य है कि बाबर स्वरचित ‘तुजुके बाबरी’ में अपनी जीवन और विचारों का लेखा-जोखा छोड़ गया है। उसके जीवन-चरित्र में अयोध्या काल के कुछ पृष्ठ नहीं मिलते। हिन्दुओं में पढ़ने-पढ़ाने का प्रचलन कम है। इसलिये उनकी अज्ञानता का लाभ उठाकर कुछ भी कहा जा सकता है। उसका आत्म चरित्र ‘तुजुके बाबरी’ जिसका बेवरिज द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद भारत में सहज ही उपलब्ध है, बाबर के जीवन का प्रमाणिक ग्रंथ है-
स्वयं अपने कथन के अनुसार बाबर भारत में हिंदुओं की लाशों के पहाड़ लगाकर हर्षातिरेक से गुनगुना उठता है-
निकृष्ट और पतित हिन्दुओं का वध कर,
गोली और पत्थरों से बना दिये मृत देहों के पर्वत,
गजों के ढेर जैसे विशाल।
और प्रत्येक पर्वत से बहती रक्त की धाराएँ। हमारे सैनिकों के तीरों से भयभीत,
पलायन कर छिप गये कुन्जों और कंदराओं में।
इस्लाम के हित घूमता फिरा मैं बनों में,
हिन्दू और काफिरों से युद्ध की खोज में।
इच्छा थी बनूँगा इस्लाम का शहीद मैं
उपकार उस खुदा का बन गया ‘गाज़ी’।
यह कोरी कवि कल्पना नहीं है। वह अपने प्रत्येक युद्ध के पश्चात्‌ हिन्दू युद्धबंदियों के सिरें एक-एक कर काटे जाने का रोमांचक दृश्य शराब की चुस्कियों के बीच देखता है। फिर उन सिरों की मीनारें खड़ी करवाता है। वह लिखता है कि एक बार उसे अपना डेरा तीन बार ऊँचे स्थान पर ले जाना पड़ा, क्योंकि भूमि पर खून ही खून भर गया था। बाबर का दुर्भाग्य था कि उसके पूर्व के सुल्तानों ने उसके तोड़ने के लिए बहुत मंदिर छोड़े ही नहीं थे। सोने की मूर्तियां का स्थान पहले पीतल और फिर पत्थर की मूर्तियों ने ले लिया था।
बाबर को भारत भूमि इतनी शुष्क और अप्रिय लगती थी कि उसने मृत्योपरान्त वहाँ दफन होना भी पसंद नहीं किया। अफ़गानिस्तान में उसका टूटा-फूटा मकबरा है। कहा जाता है कि मुस्लिम देश अफगानिस्तान के मुसलमान बाबर को एक विदेशी लुटेरा समझकर उसके मकबरे का रखरखाव नहीं करवाते। उनके लिए वह आदर का पात्र नहीं है। वह फरगना का रहने वाला दुष्ट विदेशी था जिसने उनके देश को पद-दलित किया था। अरब में सड़क चौड़ी करने के लिए मस्जिदें हटा दी गयीं है। किन्तु भारत के मुसलमान, पठानों, अरबों जैसे दूसरी श्रेणी के मुसलमान नहीं है। वह विदेशी आक्रमणकारियों बाबर, मौहम्मद बिन-कासिम, गौरी, गजनवी इत्यादि लुटेरों को और औरंगजेब जैसे साम्प्रदायिक बादशाह को गौरव प्रदान करते हैं और उनके द्वारा मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदों व दरगाहों को इस्लाम की काफिरों पर विजय और हिन्दू अपमान के स्मृति चिन्ह बनाये, रखना चाहते हैं जिससे हिन्दू अतीत में दीनदारों द्वारा प्रदरशित इस्लाम की कुव्वत को न भूल जायें। और हम हिन्दू, कानून में विश्वास करने वाले, सुसंस्कृत, उदार, धर्मनिरपेक्ष, भले लोग प्रमाणित होना पसंद करते हैं। इसलिए हमारी सरकार इन लोदियों, मुगलों, पठानों, खिलजियों और गुलामों के मकबरों के रखरखाव पर करोड़ों रुपया, जो वह मुखयतया हिन्दुओं से वसूलती है, प्रतिवर्ष खर्च करती है और उन बर्बर आक्रान्ताओं द्वारा अपने मंदिरों को अपवित्र और तोड़कर उनके स्थान पर बनाई गई मस्जिदों को इस देश की संस्कृति की धरोहर बताकर फौज पुलिस बिठाकर उनकी रक्षा करती है। संसार में क्या कोई ऐसा आत्म सम्मानहीन दूसरा देश और समाज देखने को मिलेगा?

१४. शेरशाह सूरी (१५४०-१५४५)

यह सत्य है कि यह बादशाह विशेष रूप से हिन्दुओं पर अत्याचार करने के लिए नहीं निकलता था किन्तु अवसर पड़ने पर उसका व्यवहार इस विषय में दूसरे मुस्लिम सुल्तानों से भिन्न नहीं था। अवसर आने पर उसने इस्लाम को शिकायत का मौका नहीं दिया।
द्गोख नुरुल हक ‘जुवादुतुल-तवारीख’ में कहता है कि ९५० हिजरी में पूरनमल रायसेन दुर्ग का स्वामी था। उसके हरम में १००० स्त्रियाँ थीं। उनमें कुछ मुसलमान भी थीं। शेर खाँ ने इस पर मुसलमानी क्षोभ के कारण दुर्ग को विजय करने का निश्चय किया। किन्तु जब कुछ समय तक यह संभव न हो सका तो पूरनमल के साथ संधि कर ली। उसके पश्चात्‌ उसके पूरे कैम्प को (जो संधि के कारण बेखबर था) हाथियों द्वारा घेर लिया गया। राजपूतों ने अपनी स्त्रियों और बच्चों को आग में झोंक दिया और प्रत्येक पुरुष युद्ध करते मारा गया। (७६)

१५. हुमायूँ (१५२०-१५५६)

हुमायूँ को शेरशाह सूरी ने अपदस्थ कर दिया। वह भारत में जान बचाता घूम रहा था। उसके अपने भाई और मुसलमान सरकारें उसके विरोधी हो रहे थे। उसकठिन समय में उसको कालिंजर-पति जैसे कुछ हिन्दू राजाओं ने सहायता दी। मुसलमान इतिहासकार लिखते हैं कि ‘बादशाह ने गुजरात के नवाब सुल्तान बहादुर पर आक्रमण करने की ठानी।……..जब हुमायूँ वहाँ पहुँचा तो सुल्तान चित्तौड़ पर घेरा डाले पड़ा था। हुमायूँ के आक्रमण के समाचार सुन युद्ध की सभा विचार विमर्श के लिए सुल्तान द्वारा बुलाई गई। बहुत से अफसरों ने तुरन्त घेरा उठाकर हुमायूँ का सामना करने की सलाह दी। किन्तु सदर खाँ ने, जो उमराओं का सदर था, कहा कि (चित्तौड़) में हम काफिरों से युद्ध कर रहे हैं। ऐसे समय में यदि कोई मुसलमान बादशाह हम पर आक्रमण कर दे तो उस पर इस्लाम के विरुद्ध कुफ्र को सहायता देने का पाप लगेगा। उसके माथे पर कलंक कयामत के दिन तक लगा रहेगा। इसलिये बादशाह हम पर आक्रमण नहीं करेगा। आप चित्तौड़ के विरुद्ध युद्ध जारी रखिये। जब हुमायूँ को पता लगा तो वह मार्ग में ही सारंगपुर में ठहर गया। सुल्तान बहादुर ने चित्तौड़ फतह कर लिया। उसके पश्चात हुमायूँ ने उससे युद्ध किया। (८७)
हुमायूँ जैसा बादशाह भी, जो उन दिनों हिन्दू राजाओं के रहमों-करम पर जीवित था, हिन्दुओं के विरुद्ध, मुसलमान शत्रुओं को सहायता देने से बाज नहीं आया। प्रो. एस. आर. शर्मा अपनी पुस्तक ‘क्रीसेंट इन इंडिया’ में इस घटना को हुमायूँ की मूर्खता बताते हैं। यह उसकी मूर्खता नहीं थी। उसकी धार्मिक मजबूरी थी।
भारत के कुछ धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार और विद्वान यह प्रचार करते हैं कि महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण केवल लूटपाट के लिए किये थे। यह धार्मिक युद्ध नहीं थे। प्रमाण स्वरूप वह कहते हैं कि उसने स्वयं खलीफा पर आक्रमण करने की धमकी दी। यदि वह धर्मान्ध व्यक्ति होता तो खलीफा पर आक्रमण करने की बात सोच भी नहीं सकता था।
हुमायूँ के उपरोक्त व्यवहार से उनके इस तर्क का समुचित उत्तर मिल जाता है। दो मुस्लिम शासकों के पारम्परिक मन मुटाव का यह अर्थ नहीं है कि वह काफिरों के प्रति भी धर्मनिरपेक्ष थे अथवा काफिरों के विरुद्ध युद्ध करना धार्मिक कर्तव्य नहीं समझते थे। उनमें आपस में कितना ही विरोध हो, कितना ही युद्ध होता हो, काफिरों के विरुद्ध युद्ध अथवा काफिर कुशी करने, उनकी संस्कृति को मिटाने में वह सब एक हैं ‘क्योंकि यह उनका धार्मिक कर्तव्य है।’
सर सैयद अहमद की पुस्तक ‘अथारुये सनादीद’ से हुमायूँ की इस्लामी प्रतिबद्धता का दूसरा प्रमाण मिलता है। वह लिखत हैं कि ‘नदी के किनारे जहानाबाद नगर के उत्तर पूर्व में एक घाट है। इसके विषय में कहा जाता है कि सम्राट युधिद्गठर ने यहाँ यज्ञ किया था। उस स्थान पर हिन्दुओं ने एक विशाल छत्री (मंदिर) का निर्माण किया था। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हुमायूँ ने उस छत्री (मंदिर) को तुड़वाकर उसके स्थान पर नीली छत्री (मस्जिद) का निर्माण करवा दिया।'(८८)
क्या वास्तव में मुस्लिम विद्वान महमूद गजनवी को लुटेरा मात्र समझते हैं? या इस्लाम का मिशनरी मान कर उस पर गर्व करते हैं? ताज एण्ड कम्पनी, ३१५१ तुर्कमान गेट दिल्ली, ने मुस्लिम बच्चों के लिये प्रोफेसर फजल अहमद द्वारा लिखित ‘हीरोज ऑफ इस्लाम’ नामक एक पुस्तकों की श्रृंखला प्रकाशित की हैं। इसमें महमूद गजनवी को ‘भारत के हदय तक इस्लाम का ध्वज पहुँचाने के लिए’ उसके मुस्लिम मिशनरी उत्साह की प्रशंसा के पुल बाँधे गये हैं। उत्सुक पाठकों को पूरी सीरीज पढ़नी चाहिए। उसमें इस्लाम के दूसरे आदर्श पुरुष, मौहम्मद बिन कासिम, टीपू सुल्तान और औरंगजेब हैं, अकबर, दारा और जैनुल-आबदीन नहीं।

१६. अकबर महान (१५५६-१६०५)

अकबर का शासन भी इसी इस्लामी उन्माद से प्रारंभ हुआ। किन्तु धीरे-धीरे उसकी समझ में यह बात आ गई कि भारत में चैन से राज्य करना है तो मुसलमान अमीरों का भरोसा छोड़कर हिन्दुओं का, विशेष रूप से राजपूतों का, सहयोग और मित्रता प्राप्त करनी होगी। जहाँ मुसलमान अमीर अपने स्वार्थवश होकर शासन के विरुद्ध मंत्रणा करते रहते थे, राजपूतों के शौर्य और स्वामिभक्ति पर अकबर मुग्ध हो गया था। किन्तु यह बाद की बात है। १५६८ ई. में, अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। अबुल फजल अपने ‘अकबरनामे’ में इस घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं-‘दुर्ग में राजपूत योद्धा थे किन्तु लगभग ४०,००० (चालीस हज़ार) ग्रामीण थे जो केवल युद्ध देखने और वहाँ पर दूसरे काम के लिए एकत्रित थे। विजय के पश्चात्‌ प्रातःकाल से दोपहर तक महायोद्धा अकबर की तेजस्विता में ये अभागे लोग भस्म होते रहे। लगभग सभी आदमी कत्ल कर दिये गये। (७१)
यह क्रूरता और सभ्य लोगों के युद्ध नियमों का उल्लंघन, अकबर के माथे पर कलंक है जो कभी नहीं छूटा। छूटेगा भी नहीं।
अकबर ने राजपूतों से विवाह संबंध बनाने के प्रयत्न किये क्योंकि इस रिश्ते से ही वह उन्हें स्थायी रूप से अपनी ओर मिला सकता था। किन्तु राजपूत तो आपस में छोटे बड़े वर्गों में बंटे थे। उच्च वंश के राजपूत नीचे वंश के राजपूत को अपनी बेटी नहीं देते थे, फिर तुर्क को कैसे दें?
अकबर ने राजपूतों से कहा भी वह बादशाह है, और अपने देश से बहुत दूर है। इसलिये न तो वहाँ से शहजादियों को विवाह कर ला सकता है और न अपनी शहजादियों को वहाँ ब्याह सकता है। इसलिये आप लोग, जो यहाँ राजा हैं, हमारी शहजादियाँ लें और हमें अपनी शहजादियाँ दें। किन्तु राजपूत, मुगल शहजादियाँ लेने को, अपने धर्म खो देने के भय से, तैयार नहीं हुए। कभी भय और कभी लोभ से, अपनी बेटियाँ मुगलों को देने को मजबूर हो गये। अकबर के काल में ही कम से कम ३९ (उन्तालीस) राजकुमारियाँ शाही खानदान में ब्याही जा चुकी थीं। १२ अकबर को, १७ शहजदा सलीम को, छः दानियाल को, दो मुराद को और एक सलीम के पुत्र खुसरो को। (९०क)

१७. जहाँगीर (१६०५-१६२७)

किन्तु जहाँगीर ने गद्‌दी प्राप्त करते ही अपने पिता अकबर महान की नीतियाँ बदल डालीं। वह आलसी, क्रूर और अत्यधिक शराबखोरी, अफीमखोरी जैसे दुर्व्यसनों में लिप्त था।
जहाँगीर की परिस्थितियों और उसकी प्रकृति ने, उसे मुल्लाओं की गोद में जा बैठने के लिए मजबूर किया। उसने सिक्खों के गुरु अर्जुन सिंह का क्रूरतापूर्वक वध करवाया।कांगड़ा के हिन्दू दुर्ग पर विजय प्राप्त करने पर उसने वहाँ के मंदिर में गाय कटवा कर उसको अपवित्र किया। वह अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहाँगीरी’ में इन क्रूर कर्मों पर गर्व करता है।(९१)

१८. औरंगजेब (१६५८-१७०७)

इस बादशाह के हिन्दुओं पर अत्याचारों पर एक अलग ही पुस्तक लिखी जा सकती है। नमूने के तौर पर उसके कुछ कारनामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं :अनेक लोग, जो मुसलमान बनने को तैयार नहीं हुए, नौकरी से निकाल दिये गये। नामदेव को इस्लाम ग्रहण करने पर ४०० का कमाण्डर बना दिया गया और अमरोहे के राजा किशनदास के पोते द्गिावसिंह को इस्लाम स्वीकार करने पर इम्तियाज गढ़ का मुशरिफ बना दिया गया। ‘समाचार पत्रों में नेकराम के धर्मान्तरण का जो राजा बना दिया गया और दिलावर का, जो १०००० का कमाण्डर बना दिया गया का वर्णन है।(१७) के.एस. लाल अपनी पुस्तक ‘इंडियन मुस्लिम व्हू आर दे’ में अनेकों उदाहरण देकर सिद्ध करते हैं कि इस प्रकार के लोभ के कारण और जिजिया कर से बचने के लिये बड़ी संखया में हिन्दुओं का धर्मान्तरण हुआ।
हिन्दूगृहस्थों और रजवाड़ों की लड़कियाँ, किस प्रकार बलात्‌ उठाकर गुलाम रखैल बना ली जाती थी, उसका एक उदाहरण मनुक्की की आँखों देखा अनुभव है। वह नाचने वाली लड़कियों की एक लम्बी सूची देता है जैसे – हीरा बाई, सुन्दर बाई, नैन ज्योति बाई, चंचल बाई, अफसरा बाई, खुशहाल बाई, केसा बाई, गुलाल, चम्पा, चमेली, एलौनी, मधुमति, कोयल, मेंहदी, मोती, किशमिश, पिस्ता, इत्यादि। वह कहता है कि ये सभी नाम हिन्दू हैं और साधारणतया वे हिन्दू हैं जिनको बचपन में विद्रोही हिन्दू राजाओं के घरानों में से बलात उठा लिया गया था। नाम हिन्दू जरूर है, अब पर वे सब मुसलमान हैं।(९७क)
मराठों के जंजीरा के दुर्ग को जीतने के बाद सिद्‌दी याकूब ने उसके अंदर की सेना को सुरक्षा का वचन दिया था। ७०० व्यक्ति जब बाहर आ गये तो उसने सब पुरुषों को कत्ल कर दिया। परन्तु स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बनाकर उनके मुसलमान बनने पर मजबूर किया।(९७ख)
औरंगजेब के गद्‌दी पर आते ही लोभ और बल प्रयोग द्वारा धर्मान्तरण ने भीषण रूप धारण किया। अप्रैल १६६७ में चार हिन्दू कानूनगो बरखास्त किये गये। मुसलमान हो जाने पर वापिस ले लिये गये। औरंगजेब कीघोषित नीति थी ‘कानूनगो बशर्ते इस्लाम’ अर्थात्‌ मुसलमान बनने पर कानूनगोई।(९९)
पंजाब से बंगाल तक, अनेक मुस्लिम परिवारों में ऐसे नियुक्ति पत्र अब भी विद्यमान हैं जिनसे यह नीति स्पष्ट सिद्ध होती है। नियुक्तियों और पदोन्नतियों दोनों के द्वारा इस्लाम स्वीकार करने का प्रलोभन दिया जाता था।(१००)
सन्‌ १६४८ ई. में जब वह शहजादा था, गुजरात में सीताराम जौहरी द्वारा बनवाया गया चिन्तामणि मंदिर उसने तुड़वाया। उसके स्थान पर ‘कुव्वतुल इस्लाम’ मस्जिद बनवाई गई और वहाँ एक गार्य कुर्बान की गई। (१०१)
सन्‌ १६४८ ई. में मीर जुमला को कूच बिहार भेजा गया। उसने वहाँ के तमाम मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बना दी।(१०२)
सन्‌ १६६६ ई. में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर मथुरा में दारा द्वारा लगाई गई पत्थर की जाली हटाने का आदेश दिया-‘इस्लाम में मंदिर को देखना भी पाप है और इस दारा ने मंदिर में जाली लगवाई?'(१०३)
सन्‌ १६६९ ई. में ठट्‌टा, मुल्तान और बनारस में पाठशालाएँ और मंदिर तोड़ने के आदेश दिये। काशी में विद्गवनाथ का मंदिर तोड़ा गया और उसके स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया।(१०४)
सन्‌ १६७० ई. में कृष्णजन्मभूमि मंदिर, मथुरा, तोड़ा गया। उस पर मस्जिद बनाई गई। मूर्तियाँ जहाँनारा मस्जिद, आगरा, की सीढ़ियों पर बिछा दी गई।(१०५)
सोरों में रामचंद्र जी का मंदिर, गोंडा में देवी पाटन का मंदिर, उज्जैन के समस्त मंदिर, मेदनीपुर बंगाल के समस्त मंदिर, तोड़े गये।(१०६)
सन्‌ १६७२ ई. में हजारों सतनामी कत्ल कर दिये गये। गुरु तेग बहादुर का काद्गमीर के ब्राहम्णों के बलात्‌ धर्म परिवर्तन का विरोध करने के कारण वध करवाया गया।(१०७)
सन्‌ १६७९ ई. में हिन्दुओं पर जिजिया कर फिर लगा दिया गया जो अकबर ने माफ़ कर दिया था। दिल्ली में जिजिया के विरोध में प्रार्थना करने वालों को हाथी से कुचलवाया गया। खंडेला में मंदिर तुड़वाये गये।(१०८)
जोधपुर से मंदिरों की टूटी मूर्तियों से भरी कई गाड़ियाँ दिल्ली लाई गईं और उनको मस्जिदों की सीढ़ियों पर बिछाने के आदेश दिये गये।(१०९)
सन्‌ १६८० ई. में ‘उदयपुर के मंदिरों को नष्ट किया गया। १७२ मंदिरों को तोड़ने की सूचना दरबार में आई। ६२ मंदिर चित्तौड़ में तोड़े गये। ६६ मंदिर अम्बेर में तोड़े गये। सोमेद्गवर का मंदिर मेवाड़ में तोड़ा गया। सतारा में खांडेराव का मंदिर तुड़वायागया।'(११०)
सन्‌ १६९० ई. में एलौरा, त्रयम्वकेद्गवर, नरसिंहपुर एवं पंढारपुर के मंदिर तुड़वाये गये।(१११)
सन्‌ १६९८ ई. में बीजापुर के मंदिर ध्वस्त किये गये। उन पर मस्जिदें बनाई गई।(११२)
प्रो. मौहम्मद हबीब के अनुसार १३३० ई. में मंगोलों ने आक्रमण किया। पूरी काद्गमीर घाटी में उन्होंने आग लगाने बलात्कार और कत्ल करने जैसे कार्य किये। राजा और ब्राहम्ण (द्गिाक्षक) तो भाग गये। परन्तु साधारण नागरिक, जो रह गये, दूसरा कोई विकल्प न देखकर धीरे-धीरे मुसलमान हो गये।(११३)
इस प्रकार युद्ध से कैदी प्राप्त होते थे। कैदी गुलाम और फिर मुसलमान बना लिये जाते थे। नये मुसलमान दूसरे हिन्दुओं की लूट, बलात्कार और बलात्‌ धर्मान्तरण में उत्साहपूर्वक लग जाते थे क्योंकि वह अपने समाज द्वारा घृणित समझे जाने लगते थे।
मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा दी गई उपरोक्त घटनाओं के विवरण को पढ़कर जिनके अनेक बार वे प्रत्यक्ष दद्गर्ाी थे, किसी भी मनुष्य का मन अपने अभागे हिन्दू पूर्वजों के प्रति द्रवित होकर करुणा से भर जाना स्वाभाविक है। हमारे धर्मनिरपेक्ष शासकों द्वारा बहुधा प्रद्गांसित धर्मनिरपेक्ष अमीर खुसरो अपनी मसनवी में लिखता है-
जहाँ राकदीम आमद ई रस्मो पेश :
कि हिन्दू बुवद सैदे तुर्का हमेश।
अर्जी बेह मदॅ निस्बते तुर्की हिन्दू
कि तुर्कस्त चूँ शो र, हिन्दू चु आहू।
जे रस्मे कि रफतस्त चर्खे रवां रा
बुजूद अज पये तुर्क शुदं हिन्दुऑरा।
कि तुर्कस्त गालिब बरेशां चूँ कोशद
कि हम गीरदोहम खरद फरोशद।
अर्थात्‌ ‘संसार का यह नियम अनादिकाल से चला आ रहा है कि हिन्दू सदा तुर्कों का द्गिाकार रहा है।
तुर्क और हिन्दू का संबंध इससे बेहतर नहीं कहा जा सकता है कि तुर्क सिंह के समान है और हिन्दू हिरन के समान।
आकाश की गर्दिश से यह परम्परा बनी हुई है कि हिन्दुओं का अस्तित्व तुर्कों के लिये ही है।
क्योंकि तुर्क हमेशा गालिब होता है और यदि वह जरा भी प्रयत्न करें तो हिन्दू को जब चाहे पकड़े, खरीदे या बेचे।’
यह संसार का अद्‌भुत आद्गचर्य ही है कि इस्लाम के जिस आतंक से पूरा मध्य पूर्व और मध्य एद्गिाया कुछ दशाब्दियों में ही मुसलमान हो गया वह १००० वर्द्गा तक पूरा बल लगाकर भारत की आबादी के केवल १/५ भाग ही धर्म परिवर्तन कर सका।
इन बलात्‌ धर्म परिवर्तित लोगों में कुछ ऐसे भी थे जो अपनी संतानों के नाम एक लिखित अथवा अलिखित पैगाम छोड़ गये-‘हमने स्वेच्छा सेअपने धर्म का त्याग नहीं किया है। यदि कभी ऐसा समय आवे जब तुम फिर अपने धर्म में वापिस जा सको तो देर मत लगाना। हमारे ऊपर किये गये अत्याचारों को भी भुलाना मत।’
बताया जाता है कि जम्मू में तो एक ऐसा परिवार है जिसके पास ताम्र पत्र पर खुदा यह पैगाम आज भी सुरक्षित है। किन्तु हिन्दू समाज उन लाखों उत्पीड़ित लोगों की आत्माओं की आकांक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहा है। काद्गमीर के ब्रहाम्णों जैसे अनेक दृद्गटांत है जहाँ हिन्दूओं ने उन पूर्वकाल के बलात्‌ धर्मान्तरित बंधुओं के वंशजों को लेने के प्रद्गन पर आत्म हत्या करने की भी धमकी दे डाली और उनकी वापसी असंभव बना दी और हमारे इस धर्मनिरपेक्ष शासन को तो देखो जो मुस्लिम द्यशासकों के इन कुकृत्यों को छिपाना और झुठलाना एक राष्ट्रीय कर्तव्य समझता है।
राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में विद्गनोई संप्रदाय के अनेक परिवार रहते हैं। इस सम्प्रदाय के लोगों की धार्मिक प्रतिबद्धता है कि हरे वृक्ष न काटे जाये और किसी भी जीवधारी का वध न किया जाये। राजस्थान में इस प्रकार की अनेक घटनाएँ हैं, जब एक-एक वृक्ष को काटने से बचाने के लिये पूरा परिवार बलिदान हो गया।सऊदी अरब के कुछ विद्गिाद्गट आगुन्तकों को ग्रेट बस्टर्ड नामक पक्षी का राजस्थान में द्गिाकार करने की जब भारत सरकार द्वारा अनुमति दी गई तो इन विद्गनोइयों के तीव्र विरोध के कारण यह प्रोग्राम रद्‌द हो गया था। वह विद्गनोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत जाम्भी जी की समाधि पर बनी छतरी पर मुस्लिम काल में लोधी मुस्लिम सुल्तानों द्वारा अधिकार कर लिया गया था। अकबर जैसे उदार बादशाह से जब फरियाद की गई तो उसने भी इन पाँच शर्तों पर यह छतरी विद्गनोई सम्प्रदाय को वापिस की-
१. मुर्दा गाड़ो,
२. चोटी न रखो,
३. जनेऊ धारण न करो,
४. दाढ़ी रखो,
५. विद्गणु के नाम लेते समय विस्मिल्लाह बोलो।
विद्गनोइयों ने मजबूरी की दशा में यह सब स्वीकार कर लिया। धीरे-धीरे जैसा कि अकबर को
अभिद्गट था, विद्गनोई दो तीन सौ वर्ष में मुसलमान अधिक, हिन्दू कम दिखाई देने लगे। हिन्दुओं के लिये वह अछूत हो गये। परन्तु उन्होंने अपनी मजबूरी को भुलाया नहीं। आर्य समाज के जन्म के तुरंत बाद ही उन्होंने उसे अपना लिया। बिजनौर जनपद के मौहम्मदपुर देवमल ग्राम के द्गोख परिवार और नगीना के विद्गनोई सराय के विद्गनोई इसके उदाहरणहैं।

१९. शाहजहां (१६२७-१६५८)

शाहजहाँ के आते-आते मुगल सन पुराने मुसलमानी ढर्रे पर चल पड़ा था। उसके इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी क’बादशाहनामे’ के अनुसार शाहजहाँ के ध्यान में यह बात लाई गई कि पिछले शासन में बहुत से मूर्ति मंदिरों का निर्माण प्रारंभ किया गया था किन्तु कुफ्र के गढ़ बनारस में बहुत से मंदिरों का निर्माण पूरा नहीं हुआ था। काफिर उनको पूरा करना चाहते थे। धर्म के रक्षक बादशाह सलामत ने आदेश दिया कि बनारस और उसके पूरे साम्राज्य में तमाम नये मंदिर ध्वस्त कर दिये जायें। इलाहाबाद के सूबे से सूचना आई कि बनारस में ७६ (छिहत्तर)मंदिर गिरा दिये गये हैं। यह घटना सन्‌ १६३३ ई. की है।
सन्‌ १६३४ ई. में शाहजहाँ के सैनिकों ने बुन्देलखंड के राजा जुझारदेव की-जो जहाँगीर के कृपा पात्रों में था-रानियों,दो पुत्रों, एक पौत्र और एक भाई को पकड़कर शाहजहाँ के पास भेजा। शाहजहाँ ने दुर्गाभान और दुर्जनसाल नामक अवयस्क एक पुत्र और पौत्रको बलात्‌ मुसलमान बनवाया। एक वयस्क पुत्र उदयभान और भाई श्यामदेव का, इस्लाम स्वीकार न करने के कारण, वध करवा दिया। रानियों को हरम में भेज दिया गया।(९२) (गुलामी के लिये अथवा व्यभिचार के लिये)
इस मुस्लिम व्यवहार के विपरीत दुर्गादास राठौर ने औरंगजेब की पौत्री सफीयुतुन्निसा और पौत्र बुलन्दअखतर को जिन्हें औरंगजेब का पुत्र शाहजहाँ का पौत्र शाहजादा अकबर उसके संरक्षण में छोड़ गया था, नियमानुसार इस्लाम की शिक्षा दिलाकर,सम्मानपूर्वक औरंगजेब को १३ वर्ष के बाद जब वह जवान हो गये थे, वापिस कर दिया।(९३) यह इस्लाम और हिन्दू धर्म की शिक्षा के कारण हुआ। यह दो ऐतिहासिक उदाहरण हिन्दू और मुसलमान मानसिकता के अंतर पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त हैं।
अकबर ने उन किसानों के परिवारों को गुलाम बनाने और बेंचने पर प्रतिबंध लगा दिया था,जो सरकारी लगान समय से नहीं दे पाये थे। शाहजहाँ ने इस प्रथा को फिर चालू कर दिया। किसानों को लगान देने के लिये अपनी स्त्रियों और बच्चों को बेचने पर मजबूर किया जाने लगा।(९४)
 मनुक्की के अनुसार ‘किसानों को बलात्‌ पकड़ कर (गुलामी में) बेंचने के लिये मंडियों और मेलों में ले जाया जाता था। उनकी अभागी स्त्रियाँ अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिये रुदन करती चली जातीं थीं।(९८)
काजबीनी के अनुसार शाहजहाँ के आदेश थे कि ‘इन हिन्दू गुलामों को हिन्दुओं के हाथ न बेचा जाये।'(९६) मुसलमान मालिकों के पास गुलामों का अन्ततः मुसलमान हो जाना निश्चित था।