ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को सुनार/स्वर्णकार समुदाय को लेकर कुछ चिंता है। जब तक आपके पास उचित शोध और डेटा न हो, तब तक आप समाज की स्थिति का अंदाजा नहीं लगा सकते। हाँ, ज़्यादातर राज्यों में सुनार OBC के अंतर्गत आता है, इसका मुख्य कारण आर्थिक गिरावट है, कुछ राज्यों में इसे सामान्य श्रेणी में भी रखा गया है, गोल्ड कंट्रोल एक्ट 1962 और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ है। समाज के अलग-अलग वर्गों/वर्ण के लोगों के इस पेशेवर समुदाय में शामिल होने के कारण सामाजिक स्थिति अलग-अलग होती है। इसमें उच्च मांग और मूल्य वाला पेशा शामिल है।
यदि आप वास्तव में स्थिति को समझना चाहते हैं तो सर्राफा बाजार में जाइए और गिनिए कि कितनी दुकानें व्यापारी समुदाय के अलावा अन्य लोगों ने ली हैं, विशेष रूप से 2,3 स्तरीय शहरों में।
यदि आप गांवों या शहरों में जाएंगे तो आप लोगों से पूछेंगे कि वे केवल आभूषण और धन उधार देने के लिए सुनार की दुकान के बारे में ही जानते हैं।
इस समुदाय में कई सेठ, साहूकार हैं जो ब्याज पर पैसा देते हैं और हर जगह खरीद-बिक्री में शामिल होते हैं। यहां तक कि विभिन्न समूहों के बनिया और खत्री सुनार उत्तर भारत में शोरूम चलाने के बाद भी तीसरे स्थान पर हैं।
कायस्थ और ब्राह्मण इस व्यवसाय में बहुत ही असाधारण हैं, वह भी बहुत छोटे स्तर पर।
यदि आप केवल उन गरीब सुनारों को ही ध्यान में रख रहे हैं, जो अपनी निम्न आर्थिक स्थिति के कारण दूसरों की दुकानों पर काम करते हैं, तो ऐसा होगा कि आप मजदूर वर्ग और उच्च जाति समूह के अन्य छोटे सड़क विक्रेताओं को भी इसमें शामिल कर रहे हैं। वहां भी वे अपने कौशल के कारण बेहतर हैं, वे बेरोजगार नहीं हैं।
हां, इस समुदाय का शैक्षणिक रूप से पिछड़ा दर्जा है और यह पारंपरिक व्यवसाय पर केंद्रित है, लेकिन इस हिस्से में तेजी से सुधार हो रहा है।
सरकार को इस कला और लोगों की सुरक्षा और आसान सुविधाओं के लिए कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि यह कला विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है। जटिल नीतियों और सरकारी हितों की कमी के कारण लोग इस पेशे से पीड़ित हैं और इसे छोड़ रहे हैं।
इस समुदाय के लोग अब अन्य लाभदायक व्यवसायों में प्रवेश कर रहे हैं, शिक्षित हो रहे हैं, नौकरियां चुन रहे हैं, क्योंकि इसमें बड़ी मात्रा में कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होती है।
उन्हें कभी भी अछूत नहीं माना गया और भारतीय राज्य के बहुसंख्यकों ने उन्हें ऊंची जाति का दर्जा दिया। फिर भी उनकी संपत्ति, रहन-सहन, आभूषण, पहनावा चर्चा का विषय बना हुआ है और दूसरों ने भी उन्हें अपनाया है।
और अगर आप महाराष्ट्र के ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में बात करते हैं तो यह निश्चित बिंदु पर हो सकता है और एक और विचार यह था कि सुबह में सुनार को देखना पैसे की हानि की तरह था। जो लोग उच्च और अन्य ओबीसी जातियों के बीच एक दूसरे के लिए संकेत देते हैं।
नाना शंकर सेठ को मुंबई का निर्माता माना जाता है और महाराष्ट्र के इतिहास में सबसे बड़ा दानदाता स्वर्णकार समाज से ही था।
आज भी हम सोने के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं और यह सोना बनाने वाले के माध्यम से ही आता है। मध्य युग में यह सबसे धनी जाति थी, लेकिन सोने पर नियंत्रण अधिनियम और बिक्री और खरीद पर नियंत्रण के कारण वे बहुत प्रभावित हुए और उन्हें उन व्यापारी/दलाल समुदायों पर निर्भर होना पड़ा जो उस समय शैक्षिक रूप से आगे थे।
अब वे अच्छे अनुपात में सुधार कर रहे हैं और स्वर्ण आभूषणों के विनिर्माण और व्यापार में हॉलमार्क आदि जैसे बहुविध दायित्वों को पूरा कर रहे हैं।
और अलग-अलग वर्णों की स्थिति के पीछे तथ्य यह है कि कुछ स्थानों पर क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण, विश्वकर्मा या शुद्ध सुनार अलग-अलग मूल के हैं। यह मुसलमानों और अंग्रेजों के आक्रमण के कारण हुआ, जहाँ इन वर्णों के लोगों ने अच्छी आय या जीवनयापन के लिए इस पेशे को अपनाया। अतीत में उच्च स्थिति के केवल 2 मापदंड थे सोना और ज़मीन, इसलिए बहुत से लोग लाभ कमाने और आभूषण निर्माण व्यवसाय के लिए इस पेशे में प्रवेश कर रहे थे, जिस पर अतीत में सुनारों का एकाधिकार था।
उनके अपने कुल, गोत्र, आल्हा हैं जो अलग-अलग वर्ण व्यवस्था के उनके संबंध को दर्शाते हैं। वे तब तक आपस में विवाह नहीं करते जब तक कि उनका कोई खास समूह न हो।
न्यारिहा (जो वास्तव में सुनार की दुकानों पर बर्तन धोने का काम करते थे) का दर्जा निम्न था क्योंकि वे बड़े सुनारों के यहां नौकर थे और कुछ राज्यों में सुनार की अनुसूचित जाति की स्थिति का उपयोग करके उन्होंने कुछ मरम्मत का काम सीखा था।
लोगों को अपना समूह चुनने की स्वतंत्रता है और विचार के लिए उनकी तुलना की जाती है तथा एक लोकतांत्रिक निकाय है जो संवैधानिक अधिकारों के बावजूद लोगों के विश्वास, संस्कृति, संस्कार और रीति-रिवाजों के अधिकार को सुरक्षित रखता है, जहां सभी भारतीय समान हैं।
1. देशवाली-मारवाड़ से बहुत वर्ष पहले दिल्ली एवं उत्तरप्रदेश में बसते है।
2. छेनगरिया
3. पछादे- मुख्यत: दिल्ली एवं उत्तरप्रदेश में निवास करते है। देशवालियों से रस्म रिवाज, खानपान न मिलने के कारण बेटी व्यवहार नहीं है।
4. निमाड़ी- मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में बसते हैं।
5. वनजारी- आंध्रप्रदेश एवं आसपास के क्षेत्रों में बसते हैं। ये लोग बन्जारों का काम करते हैं एवं उन्हीं के साथ घुमक्क्ड़ जीवन बिताते हैं।
6. पजाबी- हमारे इन बन्धुओं में पंजाब के पहरावे के अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं है।
7. भागलपुरी- बिहार के भागलपुर क्षेत्र में निवास करते हैं।
8. मारवाड़ी- मारवाड़ (राजस्थान) से धीरे धीरे देश के विभिन्न प्रान्तों में जाकर बस गये हैं। अपने को मारवाड़ी ही कहते हैं।
9. ढ़ूढाडी- राजस्थान की जयपुर रियासत के निवासी।
10. शेखावटी- राजस्थान के बीकानेर से लगा क्षेत्र शेखावटी कहलाता है। यहां बसने वाले बन्धु शेखावटी कहलाते हैं।
11. मालवी- मारवाड़ तथा मेवाड़ से आकर मालवा में बस गये।
12. माहोर- मथुरा, आगरा, करोली आदि स्थानों पर इस नाम से सुनार बन्धु बसते हैं।
वे वैष्णव धर्म का पालन करते हैं, और उनमें से कई स्वामीनारायण संप्रदाय से संबंधित हैं।
मैढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज श्री महाराजा अजमीढ़जी को अपना पितृ-पुरुष (आदि पुरुष) मानती है। वैसे ऐतिहासिक जानकारी जो विभिन्न रुपों में विभिन्न जगहों पर उपलब्ध हुई है उसके आधार पर मैढ़ क्षत्रिय अपनी वंशबेल को भगवान विष्णु से जुड़ा हुआ पाते हैं। कहा गया है कि भगवान विष्णु के नाभि-कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी से अत्री और अत्रीजी की शुभ दृष्टि से चंद्र-सोम हुए। चंद्रवंश की 28वीं पीढ़ी में अजमीढ़जी पैदा हुए। महाराजा अजमीढ़जी का जन्म त्रेतायुग के अन्त में हुआ था। उनके दादा महाराजा श्रीहस्ति थे जिन्होंने प्रसिद्ध हस्तिनापुर बसाया था। महाराजा हस्ति के पुत्र विकुंठन एवं दशाह राजकुमारी महारानी सुदेवा के गर्भ से महाराजा अजमीढ़जी का जन्म हुआ। इनके अनेक भाईयों में से पुरुमीढ़ और द्विमीढ़ विशेष प्रसिद्ध हुए। द्विमीढ़जी के वंश में मर्णान, कृतिमान, सत्य और धृति आदि प्रसिद्ध राजा हुए। पुरुमीढ़जी के कोई संतान नहीं हुई। महाराज अजमीढ़ की दो रानियां थी सुमित और नलिनी। इनके चार पुत्र हुए बृहदिषु, ॠष, प्रियमेव और नील । इस प्रकार महाराजा अजमीढ़जी का वंश वृद्धिगत होता गया, अलग-अलग पुत्रों-पौत्र,प्रपोत्रों के नाम से गोत्र उपगोत्र चलते गये। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अभी के अजमेर के आसपास का क्षेत्र मैढ़ावर्त के नाम से महाराजा अजमीढ़जी ने राज्य के रुप में स्थापित क्या और वहां और कल्याणकारी कार्य किये।
सुनार (वैकल्पिक सोनार या स्वर्णकार) भारत के स्वर्णकार समाज से सम्बन्धित जाति है जिनका मुख्य व्यवसाय स्वर्ण धातु से भाँति-भाँति के कलात्मक आभूषण बनाना, खेती करना तथा सात प्रकार के शुद्ध व्यापार करना है। यद्यपि यह समाज मुख्य रूप से हिन्दू को मानने वाला है लेकिन इस जाति का एक विशेष कुलपूजा स्थान है। सुनार अपने पूर्वजों के धार्मिक स्थान की कुलपूजा करते है। यह जाति हिन्दूस्तान की मूलनिवासी जाति है। मूलत: ये सभी क्षत्रिय वर्ण में आते हैं इसलिये ये क्षत्रिय सुनार भी कहलाते हैं। आज भी यह समाज इस जाति को क्षत्रिय सुनार कहने में गर्व महसूस करता हैं।
शब्द की व्युत्पत्ति
सुनार शब्द मूलत: संस्कृत भाषा के स्वर्णकार का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है स्वर्ण अथवा सोने की धातु या सोने जैसी फसल का उत्पादन करने वाला। यह क्षत्रिय जाति है जो अन्याय तथा अत्याचार के विरूद्ध लड़ती है। इस जाति में अनेक महापुरूषों ने जन्म लिया है। यह इतिहास की वीर तथा महान् जाति है।प्रारम्भ में निश्चित ही इस प्रकार की निर्माण कला के कुछ जानकार रहे होंगे जिन्हें वैदिक काल में स्वर्णकार कहा जाता होगा। बाद में पुश्त-दर-पुश्त यह काम करते हुए उनकी एक जाति ही बन गयी जो आम बोलचाल की भाषा में सुनार कहलायी। जैसे-जैसे युग बदला इस जाति के व्यवसाय को अन्य वर्ण के लोगों ने भी अपना लिया और वे भी स्वर्णकार हो गये। सुनार शाकाहारी,सुँदर,चरित्रवान,साहसी तथा पूरक शक्ति से सिद्ध होता है। जबकि स्वर्णकार दुर्भाग्यवश किसी अन्य जाति का भी हो सकता है। अन्य जाति का व्यक्ति सुनार जाति में उसी प्रकार पहचाना जाएगा जैसे हँसो में अन्य पक्षी पहचाना जाता है। गुणो से ही जाति की पहचान होती है। जाति से ही गुणो का परिचय मिलता है।
इतिहास
लोकमानस में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार सुनार जाति के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि त्रेता युग में परशुराम ने जब एक-एक करके क्षत्रियों का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया तो दो राजपूत भाइयों को एक सारस्वत ब्राह्मण ने बचा लिया और कुछ समय के लिए दोनों को मैढ़ बता दिया जिनमें से एक ने स्वर्ण धातु से आभूषण बनाने का काम सीख लिया और सुनार बन गया और दूसरा भाई खतरे को भाँप कर खत्री बन गया और आपस में रोटी बेटी का सम्बन्ध भी न रखा ताकि किसी को यह बात कानों-कान पता लग सके कि दोनों ही क्षत्रिय हैं।आज इन्हें मैढ़ राजपूत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये वही राजपूत है जिन्होंने स्वर्ण आभूषणों का कार्य अपने पुश्तैनी धंधे के रूप में चुना है।
लेकिन आगे चलकर गाँव में रहने वाले कुछ सुनारों ने भी आभूषण बनाने का पुश्तैनी धन्धा छोड़ दिया और वे खेती करने लगे।
वर्ग-भेद
अन्य हिन्दू जातियों की तरह सुनारों में भी वर्ग-भेद पाया जाता है। इनमें अल्ल का रिवाज़ इतना प्राचीन है कि जिसकी कोई थाह नहीं।ये निम्न 3 वर्गों में विभाजित है,जैसे 4,13,और सवा लाख.
मैढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज श्री महाराजा अजमीढ़जी को अपना पितृ-पुरुष (आदि पुरुष) मानती है। वैसे ऐतिहासिक जानकारी जो विभिन्न रुपों में विभिन्न जगहों पर उपलब्ध हुई है उसके आधार पर मैढ़ क्षत्रिय अपनी वंशबेल को भगवान विष्णु से जुड़ा हुआ पाते हैं। कहा गया है कि भगवान विष्णु के नाभि-कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी से अत्री और अत्रीजी की शुभ दृष्टि से चंद्र-सोम हुए। चंद्रवंश की 28वीं पीढ़ी में अजमीढ़जी पैदा हुए। महाराजा अजमीढ़जी का जन्म त्रेतायुग के अन्त में हुआ था। उनके दादा महाराजा श्रीहस्ति थे जिन्होंने प्रसिद्ध हस्तिनापुर बसाया था। महाराजा हस्ति के पुत्र विकुंठन एवं दशाह राजकुमारी महारानी सुदेवा के गर्भ से महाराजा अजमीढ़जी का जन्म हुआ। इनके अनेक भाईयों में से पुरुमीढ़ और द्विमीढ़ विशेष प्रसिद्ध हुए। द्विमीढ़जी के वंश में मर्णान, कृतिमान, सत्य और धृति आदि प्रसिद्ध राजा हुए। पुरुमीढ़जी के कोई संतान नहीं हुई। महाराज अजमीढ़ की दो रानियां थी सुमित और नलिनी। इनके चार पुत्र हुए बृहदिषु, ॠष, प्रियमेव और नील । इस प्रकार महाराजा अजमीढ़जी का वंश वृद्धिगत होता गया, अलग-अलग पुत्रों-पौत्र,प्रपोत्रों के नाम से गोत्र उपगोत्र चलते गये। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अभी के अजमेर के आसपास का क्षेत्र मैढ़ावर्त के नाम से महाराजा अजमीढ़जी ने राज्य के रुप में स्थापित क्या और वहां और कल्याणकारी कार्य किये।
सुनार (वैकल्पिक सोनार या स्वर्णकार) भारत के स्वर्णकार समाज से सम्बन्धित जाति है जिनका मुख्य व्यवसाय स्वर्ण धातु से भाँति-भाँति के कलात्मक आभूषण बनाना, खेती करना तथा सात प्रकार के शुद्ध व्यापार करना है। यद्यपि यह समाज मुख्य रूप से हिन्दू को मानने वाला है लेकिन इस जाति का एक विशेष कुलपूजा स्थान है। सुनार अपने पूर्वजों के धार्मिक स्थान की कुलपूजा करते है। यह जाति हिन्दूस्तान की मूलनिवासी जाति है। मूलत: ये सभी क्षत्रिय वर्ण में आते हैं इसलिये ये क्षत्रिय सुनार भी कहलाते हैं। आज भी यह समाज इस जाति को क्षत्रिय सुनार कहने में गर्व महसूस करता हैं।
शब्द की व्युत्पत्ति
सुनार शब्द मूलत: संस्कृत भाषा के स्वर्णकार का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है स्वर्ण अथवा सोने की धातु या सोने जैसी फसल का उत्पादन करने वाला। यह क्षत्रिय जाति है जो अन्याय तथा अत्याचार के विरूद्ध लड़ती है। इस जाति में अनेक महापुरूषों ने जन्म लिया है। यह इतिहास की वीर तथा महान् जाति है।प्रारम्भ में निश्चित ही इस प्रकार की निर्माण कला के कुछ जानकार रहे होंगे जिन्हें वैदिक काल में स्वर्णकार कहा जाता होगा। बाद में पुश्त-दर-पुश्त यह काम करते हुए उनकी एक जाति ही बन गयी जो आम बोलचाल की भाषा में सुनार कहलायी। जैसे-जैसे युग बदला इस जाति के व्यवसाय को अन्य वर्ण के लोगों ने भी अपना लिया और वे भी स्वर्णकार हो गये। सुनार शाकाहारी,सुँदर,चरित्रवान,साहसी तथा पूरक शक्ति से सिद्ध होता है। जबकि स्वर्णकार दुर्भाग्यवश किसी अन्य जाति का भी हो सकता है। अन्य जाति का व्यक्ति सुनार जाति में उसी प्रकार पहचाना जाएगा जैसे हँसो में अन्य पक्षी पहचाना जाता है। गुणो से ही जाति की पहचान होती है। जाति से ही गुणो का परिचय मिलता है।
इतिहास
लोकमानस में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार सुनार जाति के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि त्रेता युग में परशुराम ने जब एक-एक करके क्षत्रियों का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया तो दो राजपूत भाइयों को एक सारस्वत ब्राह्मण ने बचा लिया और कुछ समय के लिए दोनों को मैढ़ बता दिया जिनमें से एक ने स्वर्ण धातु से आभूषण बनाने का काम सीख लिया और सुनार बन गया और दूसरा भाई खतरे को भाँप कर खत्री बन गया और आपस में रोटी बेटी का सम्बन्ध भी न रखा ताकि किसी को यह बात कानों-कान पता लग सके कि दोनों ही क्षत्रिय हैं।आज इन्हें मैढ़ राजपूत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये वही राजपूत है जिन्होंने स्वर्ण आभूषणों का कार्य अपने पुश्तैनी धंधे के रूप में चुना है।
लेकिन आगे चलकर गाँव में रहने वाले कुछ सुनारों ने भी आभूषण बनाने का पुश्तैनी धन्धा छोड़ दिया और वे खेती करने लगे।
वर्ग-भेद
अन्य हिन्दू जातियों की तरह सुनारों में भी वर्ग-भेद पाया जाता है। इनमें अल्ल का रिवाज़ इतना प्राचीन है कि जिसकी कोई थाह नहीं।ये निम्न 3 वर्गों में विभाजित है,जैसे 4,13,और सवा लाख.
इनकी प्रमुख अल्लों के नाम भी विचित्र हैं जैसे ,परसेटहा, ग्वारे,भटेल,मदबरिया,महिलबार,नागवंशी,छिबहा, नरबरिया,अखिलहा,जडिया, सड़िया, धेबला पितरिया, बंगरमौआ, पलिया, झंकखर, भड़ेले, कदीमी, नेगपुरिया, सन्तानपुरिया, देखालन्तिया, मुण्डहा, भुइगइयाँ, समुहिया, चिल्लिया, कटारिया, नौबस्तवाल, व शाहपुरिया.सुरजनवार , खजवाणिया.डसाणिया,मायछ.लावट .कड़ैल.दैवाल.ढल्ला.कुकरा.डांवर.मौसूण.जौड़ा . जवडा. माहर. रोडा. बुटण.तित्तवारि.भदलिया. भोमा. अग्रोयाआदि-आदि। अल्ल का अर्थ निकास या जिस स्थान से इनके पुरखे निकल कर आये और दूसरी जगह जाकर बस गये थे आज तक ऐसा माना जाता है।
मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज की कुलदेवियाँ,,,,कुलदेवी उपासक सामाजिक गोत्र,,,,
मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज की कुलदेवियाँ
कुलदेवी उपासक सामाजिक गोत्र

1. अन्नपूर्णा माता –
मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज की कुलदेवियाँ
कुलदेवी उपासक सामाजिक गोत्र
1. अन्नपूर्णा माता –
खराड़ा,
गंगसिया,
चुवाणा,
भढ़ाढरा,
महीचाल,
रावणसेरा,
रुगलेचा
2. अमणाय माता –
गंगसिया,
चुवाणा,
भढ़ाढरा,
महीचाल,
रावणसेरा,
रुगलेचा
2. अमणाय माता –
कुझेरा,
खीचाणा,
लाखणिया,
घोड़वाल,
सरवाल,
परवला
खीचाणा,
लाखणिया,
घोड़वाल,
सरवाल,
परवला
3. अम्बिका माता –
कुचेवा,
नाठीवाला
4. आसापुरा माता –
4. आसापुरा माता –
अदहके,
अत्रपुरा,
कुडेरिया,
खत्री आसापुरा,
जालोतिया,
टुकड़ा,
ठीकरिया,
तेहड़वा, जोहड़,
नरवरिया,
बड़बेचा,
बाजरजुड़ा,
सिंद,
संभरवाल,
मोडक़ा,
मरान,
भरीवाल,
चौहान
5. कैवाय माता –
अत्रपुरा,
कुडेरिया,
खत्री आसापुरा,
जालोतिया,
टुकड़ा,
ठीकरिया,
तेहड़वा, जोहड़,
नरवरिया,
बड़बेचा,
बाजरजुड़ा,
सिंद,
संभरवाल,
मोडक़ा,
मरान,
भरीवाल,
चौहान
5. कैवाय माता –
कीटमणा,
ढोलवा,
बानरा,
मसाणिया,
सींठावत
6. कंकाली माता –
ढोलवा,
बानरा,
मसाणिया,
6. कंकाली माता –
अधेरे,
कजलोया,
डोलीवाल,
बंहराण,
भदलास
7. कालिका माता –
ककराणा,
कांटा,
कुचवाल,
केकाण,
घोसलिया,
छापरवाल,
झोजा,
डोरे,
भीवां,
मथुरिया,
मुदाकलस
8. काली माता –
बनाफरा
9. कोटासीण माता –
कजलोया,
डोलीवाल,
बंहराण,
भदलास
ककराणा,
कांटा,
कुचवाल,
केकाण,
घोसलिया,
छापरवाल,
झोजा,
डोरे,
भीवां,
मथुरिया,
मुदाकलस
बनाफरा
गनीवाल,
जांगड़ा,
ढीया,
बामलवा,
संखवाया,
सहदेवड़ा,
संवरा
10. खींवजा माता –
जांगड़ा,
ढीया,
बामलवा,
संखवाया,
सहदेवड़ा,
संवरा
रावहेड़ा,
हरसिया
11. चण्डी माता –
हरसिया
11. चण्डी माता –
जांगला,
झुंडा,
डीडवाण,
रजवास,
सूबा
12. चामुण्डा माता –
झुंडा,
डीडवाण,
रजवास,
सूबा
उजीणा,
जोड़ा,
झाट,
टांक,
झींगा,
कुचोरा,
ढोमा,
तूणवार,
धूपड़,
बदलिया,
बागा,
भमेशा,
मुलतान,
लुद्र,
गढ़वाल,
गोगड़,
चावड़ा,
चांवडिया,
जागलवा,
झीगा,
डांवर,
सेडूंत
13. चक्रसीण माता –
जोड़ा,
झाट,
टांक,
झींगा,
कुचोरा,
ढोमा,
तूणवार,
धूपड़,
बदलिया,
बागा,
भमेशा,
मुलतान,
लुद्र,
गढ़वाल,
गोगड़,
चावड़ा,
चांवडिया,
जागलवा,
झीगा,
डांवर,
सेडूंत
13. चक्रसीण माता –
चतराणा,
धरना,
पंचमऊ,
पातीघोष,
मोडीवाल,
सीडा
14. चिडाय माता –
धरना,
पंचमऊ,
पातीघोष,
मोडीवाल,
सीडा
14. चिडाय माता –
खीवाण जांटलीवाल,
बडग़ोता,
हरदेवाण
15. ज्वालामुखी माता –
बडग़ोता,
हरदेवाण
15. ज्वालामुखी माता –
कड़ेल,
खलबलिया,
छापरड़ा,
जलभटिया,
देसवाल,
बड़सोला,
बाबेरवाल,
मघरान,
सतरावल,
सत्रावला,
सीगड़,
सुरता,
सेडा,
हरमोरा
16. जमवाय माता –
खलबलिया,
छापरड़ा,
जलभटिया,
देसवाल,
बड़सोला,
बाबेरवाल,
मघरान,
सतरावल,
सत्रावला,
सीगड़,
सुरता,
सेडा,
हरमोरा
कछवाहा,
कठातला,
खंडारा,
पाडीवाल,
बीजवा,
सहीवाल,
आमोरा,
गधरावा,
धूपा,
रावठडिय़ा
17. जालपा माता –
कठातला,
खंडारा,
पाडीवाल,
बीजवा,
सहीवाल,
आमोरा,
गधरावा,
धूपा,
रावठडिय़ा
आगेचाल,
कालबा,
खेजड़वाल,
गदवाहा,
ठाकुर,
बंसीवाल,
बूट्टण,
सणवाल
18. जीणमाता –
कालबा,
खेजड़वाल,
गदवाहा,
ठाकुर,
बंसीवाल,
बूट्टण,
सणवाल
18. जीणमाता –
तोषावड़,
19. तुलजा माता –
19. तुलजा माता –
गजोरा,
रुदकी
20. दधिमथी माता –
रुदकी
अलदायण,
अलवाण,
अहिके,
उदावत,
कटलस,
कपूरे,
करोबटन,
कलनह,
काछवा,
कुक्कस,
खोर,
माहरीवाल
21. नवदुर्गा माता –
अलवाण,
अहिके,
उदावत,
कटलस,
कपूरे,
करोबटन,
कलनह,
काछवा,
कुक्कस,
खोर,
माहरीवाल
21. नवदुर्गा माता –
टाकड़ा,
नरवला,
नाबला,
भालस
22. नागणेचा माता –
नरवला,
नाबला,
भालस
22. नागणेचा माता –
दगरवाल,
धुडिय़ा,
सीहरा,
सीरोटा
23. पण्डाय (पण्डवाय) माता –
धुडिय़ा,
सीहरा,
सीरोटा
23. पण्डाय (पण्डवाय) माता –
रगल,
रुणवाल,
पांडस
24. पद्मावती माता –
रुणवाल,
पांडस
कोरवा,
जोखाटिया,
बच्छस,
बठोठा,
लूमरा
25. पाढराय माता –
जोखाटिया,
बच्छस,
बठोठा,
लूमरा
25. पाढराय माता –
अचला
26. पीपलाज माता –
26. पीपलाज माता –
खजवानिया,
परवाल,
मुकारा
27. बीजासण माता –
परवाल,
मुकारा
27. बीजासण माता –
अदोक ,
बीजासण,
मंगला,
मोडकड़ा,
मोडाण,
सेरने
28. भद्रकालिका माता –
बीजासण,
मंगला,
मोडकड़ा,
मोडाण,
सेरने
28. भद्रकालिका माता –
नारनोली
29. मुरटासीण माता –
29. मुरटासीण माता –
जाड़ा,
ढल्ला,
बनाथिया,
मांडण,
मौसूण,
रोडा
30. लखसीण माता –
ढल्ला,
बनाथिया,
मांडण,
मौसूण,
रोडा
30. लखसीण माता –
अजवाल,
अजोरा,
अडानिया,
छाहरावा,
झुण्डवा,
डीगडवाल,
तेहड़ा,
परवलिया,
बगे,
राजोरिया,
लंकावाल,
सही,
सुकलास,
हाबोरा
31. ललावती माता –
अजोरा,
अडानिया,
छाहरावा,
झुण्डवा,
डीगडवाल,
तेहड़ा,
परवलिया,
बगे,
राजोरिया,
लंकावाल,
सही,
सुकलास,
हाबोरा
31. ललावती माता –
कुकसा,
खरगसा,
खरा,
पतरावल,
भानु,
सीडवा,
हेर
32. सवकालिका माता –
खरगसा,
खरा,
पतरावल,
भानु,
सीडवा,
हेर
32. सवकालिका माता –
ढल्लीवाल,
बामला,
भंवर,
रूडवाल,
रोजीवाल,
लदेरा,
सकट
33. सम्भराय माता –
बामला,
भंवर,
रूडवाल,
रोजीवाल,
लदेरा,
सकट
33. सम्भराय माता –
अडवाल,
खड़ानिया,
खीपल,
गुगरिया,
तवरीलिया,
दुरोलिया,
पसगांगण,
भमूरिया
34. संचाय माता –
खड़ानिया,
खीपल,
गुगरिया,
तवरीलिया,
दुरोलिया,
पसगांगण,
भमूरिया
डोसाणा
35. सुदर्शनमाता –
35. सुदर्शनमाता –
मलिंडा
यह विवरण विभिन्न समाजों की प्रतिनिधि संस्थाओं तथा लेखकों द्वारा संकलित एवं प्रकाशित सामग्री पर आधारित है। इसके बारे में प्रबुद्धजनों की सम्मति एवं सुझाव सादर आमन्त्रित हैं।
अग्रोया और कडेल –
मैढ क्षत्रिय जाती मे कडेल गोत्र के सदस्य बहुसंख्य है बडवों (बहीभाटों) द्वारा पता चला है की तुंवर वंश के राजा शालिवाहन अनंगपाल के पुत्र विरहपाल के पुत्र भोज हुए । भोज को दो पुत्र हुए भावडाजी और वीरुजी । भावडाजी के वंशज अग्रोहा (जिला हिसार – हरीयाणा) मे देहली से आकर बसे, उनकी खांप का नाम उक्त ग्राम अग्रोहा के नाम पर अग्रोया पडा । इसलिए कडेल व अग्रोया, भावडाजी व वीरुजी की संतान होने के कारण भाई भाई है ।
वीरुजी के पुत्र किलणणी से कडेल खांप चली, यह परीवार बहुत बढा , अब समस्त भारत मे मैढ क्षत्रिय जाती मे कडेलों का बाहुल्य है । इन्होने अजमेर के निकट कडेल ग्राम बसाया, लेकीन अब वहां सारडीवाल गौत्र के मैढ बंधु है । मारवाड मे मुण्डवे के पास कडलाणी ग्राम है और मुण्डवे मे कडेलों का ही बाहुल्य है । मारवाड मुण्डवे के कडेल बंधु कहते है की कडलाणी ही कडेलों का उदगम स्थान है ।
वीरुजी के पुत्र किलणणी से कडेल खांप चली, यह परीवार बहुत बढा , अब समस्त भारत मे मैढ क्षत्रिय जाती मे कडेलों का बाहुल्य है । इन्होने अजमेर के निकट कडेल ग्राम बसाया, लेकीन अब वहां सारडीवाल गौत्र के मैढ बंधु है । मारवाड मे मुण्डवे के पास कडलाणी ग्राम है और मुण्डवे मे कडेलों का ही बाहुल्य है । मारवाड मुण्डवे के कडेल बंधु कहते है की कडलाणी ही कडेलों का उदगम स्थान है ।
कुल्थिया –
लगभग 750 वर्ष पुर्व कोल्हपुर पाटण के राजा अणहन्तराम सांखला हुए, उनकी पांचवी पिढी मे कुल्थवाहन राजा हुए जिनकी सन्तान कुल्थिया कहलाई, नवाबी के समय यह लोग फतहपुर ( सीकर सेखावाटी ) मे बारुद बनाने का कार्य करता थे, करलाडी के ठाकुर के पास भी कुल्थिया खांप के व्यक्ति रहे वहाँ भी वे बारुद बनाने का कार्य करते थे 6 मे से 3 भाई रतनगढ, एक मण्डाणा,एक नोहर व एक सुजानगढ गये । लगभग 470 वर्ष पुर्व सुजानगढ वालों ने स्वर्णकारी का काम सीखा, जो भाई सुजानगढ गये उनका नाम कोटणसी था ।
जांगलवा –
इनका निकास स्थान जांगलु बताया गया है, जांगलुदेश (बिकानेर) मे पंवारो का राज्य था. उसी पंवार वंश के सांखला शाखा ने जांगलु (बिकानेर) के नाम पर जांगलवा खांप बनी, कुल्थिया भी इसी परिवार की एक खांप है ।
जौडा –
इस खांप के दो नख है एक चौहान , दुसरा सोलंकी, मामा चौहान था और भांजा सोलंकी, चौहानो की कुलदावी चामुंडा और राजधानी सांभर थी, सोलंकीयों की माता ब्राम्हणी और राजधानी नानोर थी, अब चौहान जौडा और सोलंकी जौडा दोनो खांपो का एक नाम होने के कारण नखभेद भुलाकर एक खांप के रुप मे है । जौडो और जवडा एक ही है ।
तुहणगर – तुणगर –
राजस्थान के करौली जिल्हे मे त्योहनगढ है उसी ग्राम के नाम पर त्योहनगढीया, त्योहनगर, तुणगर, कहलाए इस खांप के व्यक्ति त्योहनगढ से चलकर मांडुगढ बैराड होते हुए डेरा बसे, इस परीवार मे रतनजी डांवर की पुत्री नाली ब्याही थी जो अपने पती के स्वर्गवास हो जाने पर पाली (मारवाड) मे सती हो गई, अत: इनकी सती नाली, पाली मे पुजा जाती है और इनकी देवी चामुण्डा जो डॉंवरो की भी देवी है खण्डेले मे है ।<
डॉँवर – मोयल वंशीय राजा माधवदानजी छापर चुरु (राजस्थान) के राजा थे, उनके पुत्रों ने सोने चांदी का काम सीखा, उनमे से छमरजी से छमा, छाजडजी से छपरडा, छापुजी से छपरवाल, छायडजी से छायरा, और छाहरना धर्मसी से धुपड और सबसे छोटे पुत्र डांवाजी से डॉंवर खांप चली । डावाजी छापर से खण्डेला मे बसे । खण्डेले मे डांवाजी के स्वाभिमानी पौत्र रामसिंहजी ने खण्डेले के राजा द्वारा अपनी माता को कहे गए अपशब्द सुनकर उस राजा का वध कर दिया और फिर अपनी सुरक्षा के लिए खण्डेला छोडकर रातों रात अपने परीवार सहीत बख्तावरपुरा (इस्लामपुर के निकट ग्राम मे ) जा बसे, जब खण्डेले पे नवाब ने चढाई की तब खण्डेले के युवराज ने श्री रामसिंहजी का पता लगाकर उनसे सहायता मांगी, श्री रामसिंहजी ने अपने नौ पुत्रौं को खण्डेले के रक्षार्थ युध्द मे भेज दिये । युध्द समाप्ती पर वे खण्डेले से विदा लेकर पृथक पृथक स्थानों पर चले गये । कोइ इस्लामपुर (बगड रतन शहर ) कोई उदयपुर (चिराणा) कोई गुढा (महेन्द्र गढ) कोई खंडार मुन्दुयाड, गोआ (जि. नागौर ) आदी स्थानो पर गये । इस्लामपुर जानेवाले का परीवार फतहपुर (सीकर) और राजस्थान मारवाड मे भी खुब फला फुला, बादशाहपुर जानेवाले का परीवार भी बहुत बढा ।
सोनालिया (सोंधालिया) –
इनके पुरखों का नाम संधुजी था, उन्हों के नाम पर इस खांप का नाम सोंधालिया पडा, अब यह लोग अपने आप को सोनालिया भी कहते है । इनका निकास सांभर, वंश चौहान, देवी जीणमाता है . पिलानी और मण्डरेले मे इनके बहुत घर है ।
नारनौली –
महाराजा अर्नगपाल सन 1186 से पहिले अपने दोहीते पृथ्वीराज चौहान (अजमेर) को राज काज सौंप कर तीर्थ यात्रा को गए, वापीस लौटने पर पृथ्वीराज ने अपने नाना को अपना राज नही संभालने दिया, फलत: वे पृथ्वीराज से दु:खी होकर अपने पुरोहीत के पास तोरा वाटो (जयपुर) गये फिर उन्होने पाटन (जिल्ह झालरा पाटन) पर शासन किया, उनके पुत्रों में से अनेको ने वहा स्वर्णकार्य सिखा, सुगन्ध नाम के उनके वंशज ने नारनोल मे निवास किया तब उनकी संतान नारनौली कहलाई, नारनौली खांपवाले अपने पुर्वज सुगन्ध के नाम पर अपने को सुगन्ध भी बतलाते है । इस खांप की पुत्र वधु मक्खनलालजी की पत्नी सावित्री खलबल्या कोटडी मे सती हुई ।
मौसुण –
जायल ( मारवाड) मे खींची राजपुतों का बाहुल्य था इस परीवार में गींदाजी नामक प्ररखा हुआ जिसके बारह पुत्रों ने पृथक – पृथक व्यवसाय अपनाये इनकी खांप मौसुण, मसावन, मसौन, व मसाण कहलाती है । इस खांप का पितृ श्रीधर पुरोहीत खांदल्या, डाढी मोडा, तथा ग्राम खाचरजी बावडी (जायल मारवाड ) है ।
बेनाथिया –
इनके पुर्वज भी जायल के ही खींची राज घराने के है, इनकी देवी मुरटासीण ( आसापुरा ) अग्नीवंश खींची चौहान है, प्रथम ग्राम जायल (नागौर) राजस्थान है । वहां वहां से संवत 1200 के पुर्व (पृथ्वीराज चौहान के शासन काल मे ) अजमेर आये , फिर ये अजमेर से मांडल, मांडल से कुसिथल गये, 1462 मे कुसिथल मे श्रवणजी बेनाथिया की पत्नी वीरांबाई मिरीण्डीया कुसिथल मे सती हुयी वहां आज भी सती की समाधी है । और उसी कुसीथल के निकट सुग्रीव ग्राम मे बेनाथियों के घर है । उसके पश्चात 1699 में केवलरामजी पुन: अजमेर आकर बस गये । बेनाथियों के अनेक परीवार अजमेर, माण्डल, उदयपुर, नाथद्वारा, चिताम्बा, प्रतापगढ, टोंक, टोडा, मुम्बई, इन्दोर, कोटा, बुंदी आदी स्थानोंपर है । इनके पुर्वज बिना हथियार (बना हथियार) से भी महान युध्द किये इसी कारण इनकी खांप बेनाथिया, बनाथिया, बिनाथिया हुई ।
सोलिवाल –
राजा मलैसी कछवाहें के वंशजो ने भिन्न भिन्न काम करके उनमे रतनाजी के रंगलीजी ने सोने, चांदी का काम सिखा उनकी सन्तान सोलिवाल कहलाई । इनके परीवार मे एक बहु अजमेर मे सती हुयी, जिसकी समाधी आज भी अजमेर है ।
आगेचाल –
ये चावल नख के है इनका निकास कोट करोड नामक उजडे हुए खेडे का है जो भिवानी के पास है ।
ढल्ला – ढल्ला, ढाबरवाल, ढोया, ढोलणा एक ही वंश जोइया क्षत्री नख के है। मारवाड जिला नागौर के भकरी ग्राम मे भी ढल्लों के कई परीवार है । पंजाब, हरीयाणा व दिल्ली में भी ढल्लों के अनेक परीवार है ।
ढल्ला – ढल्ला, ढाबरवाल, ढोया, ढोलणा एक ही वंश जोइया क्षत्री नख के है। मारवाड जिला नागौर के भकरी ग्राम मे भी ढल्लों के कई परीवार है । पंजाब, हरीयाणा व दिल्ली में भी ढल्लों के अनेक परीवार है ।
महायछ –
यह खांप भी कोट मरोड से निकली है, वैसे मारवाड व हाडोती मे और पंजाब, हरीयाणा, देहली में भी महायछ खांप वालों के परीवार है ।
स्वर्णकारों के गोत्र यह प्रमाणित करते हैं कि वे अमुक ऋषि के वंशज हैं और नुखें यह घोषित करती हैं कि अमुकस्थान, अमुक राजवंश गुरू या पुरोहित से सम्बद्धता है।
याने गोत्र वंश का सूचक है और नुख विशेष पहचान की|
स्वर्णकारों के गोत्र यह प्रमाणित करते हैं कि वे अमुक ऋषि के वंशज हैं और नुखें यह घोषित करती हैं कि अमुकस्थान, अमुक राजवंश गुरू या पुरोहित से सम्बद्धता है।
याने गोत्र वंश का सूचक है और नुख विशेष पहचान की|
*************