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24.6.21

ढोली(दमामी,नगारची ,बारेठ)) जाती का इतिहास:Dholi Caste

वीडिओ 



ढोली समुदाय खुद को गंधर्व देव की सन्तान मानते हैं. राजा-महाराजाओं के काल में युद्ध के दौरान रणभेरी बजाने वालों के तौर पर ये जाति अस्तित्व में आई और ढोल बजाने की वजह से इन्हें ढोली कहा जाने लगा|
दमामी समाज की उत्पति – यह जाति शुद्ध क्षत्रिय है जो तीन प्रकार से बनी है
1. प्रसन्नतापूर्वक
2,इनका राज्य छीन कर जबरदस्ती बनाये हुये ।
3,कुछ आपत्तिवश इनमे मिले हुये ।
 किन्तु अधिकांश खांपे इस समाज में वे है, जिनको भिन्न भिन्न राजाओं ने अपने भाईयों में से तथा संबंधित  राजपूतों में से जो रणकुशल नायक थे, चुन चुन कर बनाई है यह समाज राजस्थान में क्षेत्र अनुसार कई नामो से पुकारी जाती है । जैसे नगारची ,राणा ,बारोट और दमामी। 
 इस जाति का इतिहास भी सिवाय राजपूतों के संसार में कोई और नहीं जानता और न कोई धार्मिक पुस्तक में ही इनका उल्लेख है । इसका एकमात्र कारण यह है कि यह जाति प्राचीन नहीं बल्कि अर्वाचिन है । यह नई न्यात अर्थात् नवीन जाति कहलाती है किन्तु दुर्भाग्यवश राजपूतों की स्वार्थमयी विचित्र नीति ने और द्वेषियों के विरोध ने इनको इतना गिराया है कि आज आम जनता में इनकी प्रतिष्ठा  पहिले की तरह नहीं रही |
 इस जाति के लोगों को  बारहठ  भी कहते है । जिसका अर्थ द्वार पर हठ करने वाला है । रणधवल (दमामी-नगारची) समाज की प्राचीन उपाधि बारहठ ही है मगर संवत 1808 में जोधपुर महाराज बख्तसिंह जी ने यह पदवी चारण समाज को देदी । इसी कारण मारवाड़ में बारेठ चारण कहलाते है |शेष मेवाड़ ,हाड़ोती आदि स्थानों  में लोग  नगारची जाति को ही बारहठ कहते आ रहे है । सोलंकी और गौड़ क्षत्रियों के यहां पोलपात नगारची जाति को ही बारहठ  कहते है जो   दमामी राजपूत जाति ही है
राजपूताने में क्षत्रियों का कोई ऐसा छोटे से छोटा भी ठिकाना नहीं है जहां पर दमामी कौम के  एक दो घर नहीं हों  और इन लोगो के गुजारे के लिए माफ़ी की जमीन और राज्य में तथा प्रजा में लगाने नहीं हो । चारण जाति के लोग  खास खास ठिकानों में ही है । जिससे भी स्पष्ट सिद्ध है कि राजपूत जाति के वास्तविक पोलपात दमामी ही है 
डांगी- राव डांगी जी के वंशज ढोली कहलाये। राव डांगी जी के पास किसी प्रकार कि भूमी नहीँ थी व ईसने डूमन या ढोली जाती की लङकी से शादी की । उसकी सन्तान कही ढोली तो कहीँ डांगी नाम से बसते है। राव डांगी जी के वंशज ढोली कहलाये।
डॉ. दयाराम आलोक के अनुसार, ढोली जाति की उत्पत्ति डांगी जाति से नहीं हुई है, बल्कि यह एक अलग जाति है जो पीढ़ियों से चली आ रही है। ढोली जाति के लोग ढोल और नगाड़े बजाने का काम करते थे, इसलिए उन्हें ढोली या नगारसी कहा जाता था।डांगी जाति के एक व्यक्ति ने ढोली जाति की लड़की से शादी की, जिससे उनका वंश राजपूत से अलग हो गया और ढोली वंश बन गया। इस प्रकार, डांगी के वंशज राजपूतों से अलग हो गए, लेकिन उनके रिश्ते और नाते अभी भी बने रहे।उनके अनुसार, राजस्थान में राठौड़ राजपूतों के साथ-साथ ढोली जाति भी फैल गई। यह सिलसिला आज तक कायम है।यह जानकारी डॉ. दयाराम आलोक के शोध और अध्ययन पर आधारित है, जो जाति इतिहास के क्षेत्र में एक प्रमुख विद्वान हैं|
Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे