30.12.17

महान संस्कृत कवि भर्तृहरि का जीवन परिचय:kavi bharathari jevan parichay




 

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है।
जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे। इन्होंने सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा शृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका एक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के यह ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग और ह्वेनसांग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य थे। चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि 651 ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण की मृत्यु हुई थी। इस प्रकार इनका काल सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में उल्लेख होने से संकेत मिलता है कि इत्सिंग द्वारा वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे। महाराज भर्तृहरि निःसन्देह विक्रमसंवत की पहली सदी से पूर्व में उपस्थित थे। वे उज्जैन के अधिपति थे। उनके पिता महाराज गन्धर्वसेन बहुत योग्य शासक थे। उनके दो विवाह हुए। पहले से विवाह से महाराज भर्तृहरि

और दूसरे से महाराज विक्रमादित्य हुए थे। पिता की मृत्यु के बाद भर्तृहरि ने राजकार्य संभाला। विक्रम के सबल कन्धों पर शासनभार देकर वह निश्चिन्त हो गए। उनका जीवन कुछ विलासी हो गया था। वह असाधारण कवि और राजनीतिज्ञ थे। इसके साथ ही संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने अपने पाण्डित्य और नीतिज्ञता और काव्य ज्ञान का सदुपयोग शृंगार और नीतिपूर्ण रचना से साहित्य संवर्धन में किया।
   एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। वहाँ काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था।भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज ७ सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन को मार डाला जिससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा-तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूँ उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे दो। हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे।

रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूँ कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।
   भर्तृहरि ने वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलाने वाली अन्य किंवदन्तियां भी हैं जो उन्हें राजा तथा विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता बतलाती हैं। इनके ग्रंथों से ज्ञात होता है कि इन्हें ऐसी प्रियतमा से निराशा हुई थी जिसे ये बहुत प्रेम करते थे। नीति-शतक के प्रारम्भिक श्लोक में भी निराश प्रेम की झलक मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने प्रेम में धोखा खाने पर वैराग्य जीवन ग्रहण कर लिया था, जिसका विवरण इस प्रकार है। इस अनुश्रुति के अनुसार एक बार राजा भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आया तथा राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्हें एक अमर फल प्रदान किया। इस फल को खाकर राजा या कोई भी व्यक्ति अमर को सकता था। राजा ने इस फल को अपनी प्रिय

रानी पिंगला को खाने के लिए दे दिया, किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने एक प्रिय सेनानायक को दे दिया जिसका सम्बन्ध राजनर्तिकी से था। उसने भी फल को स्वयं न खाकर उसे उस राजनर्तिकी को दे दिया। इस प्रकार यह अमर फल राजनर्तिकी के पास पहुँच गया। फल को पाकर उस राजनर्तिकी ने इसे राजा को देने का विचार किया। वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा को फल अर्पित कर दिया। रानी पिंगला को दिया हुआ फल राजनर्तिकी से पाकर राजा आश्चर्यचकित रह गये तथा इसे उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा। राजनर्तिकी ने संक्षेप में राजा को सब कुछ बतला दिया। इस घटना का राजा के ऊपर अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने संसार की नश्वरता को जानकर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया और अपने छोटे भाई विक्रम को राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर वन में तपस्या करने चले गये। इनके तीनों ही शतक उत्कृष्टतम संस्कृत काव्य हैं। इनके अनेक पद्य व्यक्तिगत अनुभूति से अनुप्राणित हैं तथा उनमें आत्म-दर्शन का तत्त्व पूर्णरूपेण परिलक्षित होता है।
   अपने जीवन काल में उन्होंने शृंगार, नीति शास्त्रों की तो रचना की ही थी, अब उन्होंने वैराग्य शतक की रचना भी कर डाली और विषय वासनाओं की कटु आलोचना की। इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का परम प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय भी उनके महान पाण्डित्य का परिचायक है। वह शब्द विद्या के मौलिक आचार्य थे। शब्द शास्त्र ब्रह्मा का साक्षात् रुप है। अतएव वे शिवभक्त होने के साथ-साथ ब्रह्म रूपी शब्दभक्त भी थे। शब्द ब्रह्म का ही अर्थ रुप नानात्मक जगत-विवर्त है। योगीजन शब्द ब्रह्म से तादात्म्य हो जाने को ही मोक्ष मानते हैं। भर्तृहरि शब्द ब्रह्म के योगी थे। उनका वैराग्य दर्शन परमात्मा के साक्षात्कार का पर्याय है। सह कारण है कि आज भी शब्दो की दुनिया के रचनाकार सदा के अमर हो जाते है। भर्तृहरि एक महान् संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक ) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था, इसलिए इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी है। भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
    भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
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हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-

विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"

वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक

जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन

सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक

वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा

प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक

गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

घाघ कवि के दोहे -घाघ

मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक

27.12.17

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत:prachin bharateey itihas




प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में जानकारी मुख्यता चार स्त्रोतों से प्राप्त होती है ।
(1) धर्म ग्रंथ
(2) ऐतिहासिक ग्रंथ
(3) विदेशियों का विवरण
(4) पुरातत्व संबंधी साक्ष्य
धर्म ग्रंथ एवं ऐतिहासिक ग्रंथ से मिलनेवाली महत्वपूर्ण जानकारी
भारत का सबसे प्राचीन धर्म ग्रंथ वेद है जिसके संकलनकर्ता महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास को माना जाता है। वेद चार हैं
(1) ऋग्वेद
(2) यजुर्वेद
(3) सामवेद
(4) अर्थववेद
ऋग्वेद - ऋचाओ के क्रमबद्ध ज्ञान के संग्रह को ऋग्वेद कहा जाता है । इस में 10 मंडल 1028 सूक्त ( वाल खिल्य पाठ के 11 सूत्र सहित ) एवं 10462 ऋचाये है। इन ऋचाओ को पढ़ने वाले ऋषि को होतृ कहते हैं । इस वेद से आर्य के राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है ।
विश्वामित्र द्वारा रचित ऋग्वेद के तीसरे मंडल में सूर्य देवता सावित्री को समर्पित प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है।
नवे मंडल में देवता सोम का उल्लेख है इसके आठवें मंडल में हस्त लिखित रचनाओं को खिल कहा जाता है।
चतुष्वर्ण समाज की कल्पना का आदि स्रोत ऋग्वेद के दसवें मंडल में वर्णित पुरुष सूक्त है । जिसके अनुसार चार वर्ण बाम्हण , क्षत्रिय , सूद्र और वैश्य आदि पुरुष ब्रह्मा के क्रमश: मुख , भुजा, जंघा एवं चरणों से उत्पन्न हुए हैं ।
नोट- धर्मसूत्र चार प्रमुख जातियों की स्थितियों व्यवसाय एवं दायित्वों कर्तव्य तथा विशेष अधिकारों में स्पष्ट विभेद करता है।
वामन अवतार के 3 पगों के आख्यान का प्राचीनतम स्त्रोत ऋग्वेद है ।
ऋग्वेद में इंद्र के लिए 250 तथा अग्नि के लिए 200 ऋचाओ की रचना की गई है ।
प्राचीन इतिहास के साधन के रुप में वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के बाद शतपथ ब्राह्मण का स्थान है
यजुर्वेद - सस्वर पाठ के लिए मंत्र तथा बलि के समय अनुपालन के लिए नियमों का संकलन यजुर्वेद कहलाता है। इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं ।यह एक ऐसा वेद है जो गद्य एवं पद्य दोनों में है ।
शामवेद - यह गाए जा सकने वाली ऋचाओ का संकलन है ।इसके पाठकर्ता को उद्रातृ कहते हैं । इसे भारतीय संगीत का जनक माना जाता है ।
अथर्ववेद -अथर्व ऋषि द्वारा रचित इस वेद में रोग निवारण ,तंत्र मंत्र ,जादू टोना, शाप , वशीकरण आशीर्वाद ,की स्तुति , प्रयश्चित , औषधि , अनुसंधान विवाह ,प्रेम ,राजकर्म, मातृभूमि आदि से सम्बन्धित विषयों के संबंध में मंत्र तथा सामान्य मनुष्य के विचारों विश्वास है अंधविश्वास हो आदि का वर्णन है ।
इसमें सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है ।
सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद एवं सबसे बाद का वेद अथर्ववेद है ।
वेदों को भलीभांति समझने के लिए 6 वेदांगों की रचना हुई है। यह है -
(1) शिक्षा
(2) ज्योतिष
(3) कल्प
(4) व्याकरण
(5) निरुक्त
(6) छंद
भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे अच्छा क्रमबद्ध विवरण पुराणों में मिलता है ।इसके रचयिता लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं ।इनकी संख्या 18 है इसमें केवल पांच -मत्स्य, वायु, विष्णु ,ब्राह्मण एवं भागवत में ही राजाओं की वंशावली पाई जाती है पुराणों में मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन एवं प्रमाणित है।
अधिकतर पुराण सरल संस्कृत श्लोक में लिखे गए हैं। स्त्रियां तथा सूद्र जिन्हें वेद पढ़ने की अनुमति नहीं थी। वह पुराण सुन सकते थे पुराणों का पाठ पुजारी मंदिरों में किया करते थे ।
स्मृति ग्रंथों में सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक मनुस्मृति मानी जाती है यह शुंग काल का मानक ग्रंथ है ।
नारद स्मृति गुप्त युग के विषय में जानकारी प्रदान करता है ।
जातक में बुद्ध की पूर्व जन्म की कहानी वर्णित है ।
हीनयान का प्रमुख ग्रंथ कथावस्तु है ।जिसमें महात्मा बुद्ध का जीवन चरित्र का अनेक कथनको के साथ वर्णन है
जैन साहित्य को आगम कहा गया है जैन धर्म का प्रारंभिक इतिहास कल्पसूत्र से ज्ञात होता है ।
जैन ग्रंथ भगवती सूत्र में महावीर के जीवन मृत्यु के साथ अन्य स्म्कालिको के साथ उनके संबंधों का विवरण मिलता है ।
अर्थशास्त्र के लेखक चाणक्य हैं यह 15 वर्णों एवं 180 प्रकरणों में विभाजित है जिसमें मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है ।
संस्कृत साहित्य के ऐतिहासिक घटनाओं का क्रमबद्ध लिखने का सर्व प्रथम प्रयास कल्हण ने किया कल्हण द्वारा रचित पुस्तक राजतरंगिणी है ।जिसका संबंध कश्मीर की इतिहास से है ।
अरबों की सिंध विजय का वृतांत चचनामा (लेखक अली अहमद )में सुरक्षित है।
अष्टाध्यायी संस्कृत भाषा व्याकरण की प्रथम पुस्तक है इसके लेखक पाणिनि है । इससे मौर्य की पहले का इतिहास तथा मौर्य युगीन राजनीतिक अवस्था की जानकारी प्राप्त होती है ।
कात्यायन की गार्गी संहिता एक ज्योतिष ग्रंथ है फिर भी इससे भारत पर होने वाले यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है ।
पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे उनकी महाभाष्य से शुंगो के इतिहास का पता चलता है।
विदेशी यात्रियों के विवरणों से मिलने वाली जानकारी
(1) यूनानी - रोमन लेखक
टेटियस- यह ईरान का राजवैद्य था भारत के संबंध में इसका विवरण आश्चर्यजनक कहानियां से पर आधरित होने के कारण अविश्वसनीय है ।
हेरोडोटस - इसे इतिहास का पिता कहा जाता है जिसने अपनी पुस्तक हिस्टोरीका में पांचवी शताब्दी ईसापूर्व के भारत फारस संबंध का वर्णन किया है। परंतु इसका विवरण भी अनुसूचियों एवं अफवाहों पर आधारित है।
सिकंदर के साथ आने वाले लेखकों में- निर्याकस , आनेसिक्रटस, तथा आस्टियोबुलस के विवरण अधिक प्रमाणित एवं विश्वसनीय है ।
मेगास्थनीज यह सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था। जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था उसने अपनी पुस्तक इंडिका में मौर्य युगीन समाज की संस्कृति के विषय में लिखा ।
डाईमेकस यह सीरिया नरेश एंटीयोकस का राजदूत था जो बिंदुसार के दरबार में आया था ।इसका विवरण मौर्य युग से संबंधित है ।
डायोनिसिय- यह मिश्र नरेश टालमी का राजदूत था जो अशोक के दरबार में आया था ।
टालमी ने दूसरी शताब्दी में भारत का भूगोल नामक पुस्तक लिखी ।
प्लिनी -इसने सर्वप्रथम पहली शताब्दी में नेचुरल हिस्ट्री नामक पुस्तक लिखी इसमें भारतीय पशुओं पेड़ पौधों खनिज पदार्थो आदि के बारे में विवरण मिलता है।
पेरिप्लस ऑफ़ द इरिथ्रयन -इस पुस्तक के लेखक के बारे में जानकारी नहीं है यह लेखक करीब 80 ईसवी में हिन्द महासागर की यात्रा पर आया था उस समय के भारत के बंदरगाहों तथा व्यापारिक वस्तुओं के बारे में जानकारी दी गई है।
(2) चीनी लेखक -
फहीयान - यह चीनी यात्री गुप्त नरेश चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में आया था। इसने अपने विवरण में मध्य प्रदेश के समाज एवं संस्कृति के बारे में वर्णन किया है इसने मध्य प्रदेश की जनता को सुखी एवं समृद्ध बताया है
संयुगन -यह 518 ई वी में भारत आया जिसने अपने 3 वर्षों की यात्रा में बौद्ध धर्म की प्रतियां एकत्रित की।
ह्वेनसांग -यह हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया था वह 629 ईसवी में चीन से भारत के लिए प्रस्थान किया और लगभग 1 वर्ष की यात्रा के बाद सर्वप्रथम वह भारतीय राज्य कपीसा पहुंचा । भारत में 15 वर्षों तक ठहरकर 645 इस्वी में चीन लौट गया ।वह बिहार में नालंदा जिला में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने तथा भारत के बौद्ध ग्रंथ को एकत्रित कर ले जाने के लिए आया था इसका भ्रमण वृतांत सि-यू-की नाम से प्रसिद्ध है । जिसमें 138 देशों का विवरण मिलता है जिसने हर्ष कालीन समाज धर्म तथा राजनीति के बारे में वर्णन किया है। इसके अनुसार सिंध का राजा शुद्र था । ह्वेनसांग के अध्यन के समय नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे।
इत्सिंग - सातवीं शताब्दी के अंत में भारत आया उसने अपने विवरण में नालंदा विश्वविद्यालय विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा अपने समय के भारत का वर्णन किया।
अरवी लेखक
अलबरूनी यह मोहम्मद गजनबी के साथ भारत आया था अरबी में लिखी गई उसकी कृति किताब-उल-हिंद या तहकीक ए हिंद (भारत की खोज) आज भी इतिहासकारों के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है इस में राजपूत कालीन समाज धर्म रीति रिवाज राजनीति पर सुंदर प्रकाश डाला गया है ।
अन्य लेखक
तारा नाथ - यह एक तिब्बती लेखक था जिसने कन्ग्युर तथा तन्ग्युर नामक ग्रंथ की रचना की इनसे भी भारतीय इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है
मार्कोपोलो यह 13 वीं शताब्दी के अंत में पांड्य देश की यात्रा पर आया था इसका विवरण पांड्य इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है
पूरातत्व सम्बन्धी सक्ष्यो से मिलने वाली जानकारियां-
1400 इसवी पूर्व के अभिलेख बोगजकोई (एशिया माइनर )से वैदिक देवता मित्र ,अरुण, वरुण, इंद्र एवं नासत्य के नाम मिलते हैं ।
मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण यवन राजदूत होलियोडोरस के वेसनगर (विदिशा ) के गरुड़ स्तंभ लेख से प्राप्त होता है ।
सर्वप्रथम भारतवर्ष का जिक्र हाथीगुंफा अभिलेख में है।
सर्वप्रथम दुर्भिक्ष की जानकारी देने वाला अभिलेख सौहगौरा अभिलेख है ।
सर्वप्रथम भारत पर होने वाले हूण आक्रमण की जानकारी भीतरी स्तंभ लेख से प्राप्त होता है ।
सती प्रथा का पहला लिखित साक्ष्य एरण अभिलेख (शासक भानुगुप्त) से प्राप्त होती है।
रेशम बुनकर की श्रेणियों की जानकारी मंदसौर अभिलेख से प्राप्त होता है ।
अभिलेखों का अध्ययन की इपीग्राफी कहलाता है।
कश्मीर नवपाषाण पुरास्थल बुर्जहोम से गर्तआवास (गड्ढा घर )का साक्ष्य मिला है इसमें उतरने के लिए सीढ़ियां होती थी ।
प्राचीनतम सिक्को को आहत सिक्का कहा जाता है इसी को साहित्य में काषार्पण कहा गया है ।
सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखने का कार्य यवन शासकों ने किया।
समुद्रगुप्त की वीणा बजाती हुई मुद्रा वाले सिक्के से उसके संगीत प्रेमी होने का प्रमाण मिलता है ।
आरिकमेडू (पुदुच्चेरी के निकट )से रोम सिक्के प्राप्त हुए हैं। जो प्राचीन काल में भारत रोम व्यापार के द्योतक है ।


हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-

विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"

वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक

जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन

सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक

वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा

प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक

गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

घाघ कवि के दोहे -घाघ

मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक

4.12.17

वेदों की सम्पूर्ण जानकारी:Vedon ki sampoorn jankari




पाठ-1
वेद का परिचय एवं महत्त्व
वेद भारतीय   धर्म ,दर्शन और संस्कृति के मूल  आधार  हैं। 'वेद के अन्तर्गत अनेकों ग्रन्थ आते हैं जिनको ही 'वैदिक साहित्य कहा जाता है। वैदिक साहित्य को विश्व के प्राचीनतम साहित्य होने का गौरव प्राप्त है। भारतीयों के आचार-विचार, रहन-सहन, धर्म -कर्म को भली-भांति समझने के लिए वेद का ज्ञान परम आवश्यक है।   आधुनिक सन्दर्भ में भी ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत के रूप में वेद के  अध्ययन की महत्ता स्वीकार की जाती है।
1. 'वेद का अर्थ
'वेद शब्द ज्ञान अर्थ वाली विद धातु से घ×ा प्रत्यय लगकर बना है, इसलिए इसका शास्त्राीय अर्थ है 'ज्ञान। वेद वह ज्ञान-राशि है, जिससे विद्वान परमात्मा और जगत का स्वरूप जानते हैं। प्राचीन ऋषियों द्वारा अर्जित किये गये समस्त ज्ञान के संग्रहभूत ग्रन्थों को भी 'वेद ही कहते हैं। अत: 'वेद शब्द वैदिक ग्रन्थों में प्रतिपादित ज्ञान का वाचक होने के साथ ही सम्पूर्ण वैदिक  वांग्मय  का भी बोधक  व्याख्या के अनुसार 'वेद शब्द चार    धातुओं  से विभिन्न अथो± में बनता है:-
1. विद सत्तायाम, 2. विद ज्ञाने, 3. विद विचारणे, और 4. विद लाभे। इन अथो± का समन्वय करते हुए ऋक-प्रातिशाख्य की व्याख्या में विष्णुमित्रा ने वेद का अर्थ किया है-
विधन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते एभिर्धर्मादि-पुरुषार्था इति वेदा:।
अर्थात वेद का भावार्थ है-
(1) जिन ग्रन्थों से èार्म  पी पुरुषाथो± के असितत्व का बोèा होता है;
(2) जिन ग्रन्थों से इन चारों पुरुषाथो± का ज्ञान होता है;
(3) जिन ग्रन्थों से इन चारों पुरुषाथो± की प्रापित होती है;
(4) जिन ग्रन्थों में इन चारों पुरुषाथो± का विवेचन किया जाता है।
तात्पर्य है कि 'वेद पुरुषार्थ-चतुष्टय का विवेचन करने वाले ग्रन्थ हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद-भाष्य-भूमिका में 'वेद शब्द की व्याख्या में लिखा है-'जिनके द्वारा या जिनमें सारी सत्यविधाएं जानी जाती हैं, विधमान हैं या प्राप्त की जाती हंै, वे वेद हैं।
2. वेद की परिभाषा
वेद के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्य सायण के अनुसार वेद इष्ट-प्रापित और अनिष्ट-परिहार के अलौकिक उपाय को बताने वाले ग्रन्थ हैं-
इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयो: अलौकिकम उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेद:।
-तैत्तिरीयसंहिता, सायणभाष्यभूमिका
'वेद का 'वेदत्व इसी में है कि वे उस उपाय का ज्ञान कराते हैं, जिसको प्रत्यक्ष या अनुमान के द्वारा नहीं जाना जा सकता।
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुèयते।
एतं विदनित वेदेन तस्माद वेदस्य वेदता।।
-ऐतरेय ब्राह्राण, सायणभाष्यभूमिका
मनु ने वेद को पितरों, देवों तथा मनुष्यों का सनातन एवं सर्वदा विधमान रहने वाला चक्षु कहा है-
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षु: सनातनम।
-मनुस्मृति
वस्तुत: वेद सर्वज्ञानमय हैं। वे मानव मात्रा के कर्तव्य-बोèा का आèाार हैं। अलौकिक तत्त्वों के रहस्य को जानने में वेद की परम उपयोगिता है।
वेद की स्वरूपपरक एक परिभाषा है-
मन्त्राब्राह्राणात्मक: शब्दराशिर्वेद:।
तदनुसार वेद वह शब्दराशि है जिसमें मन्त्राों और ब्राह्राणवाक्यों का समन्वय होता है।
3. 'वेद के कुछ दूसरे नाम
वेद को 'श्रुति, 'निगम, 'त्रायी, 'छन्दस, 'आम्नाय, 'स्वाèयाय, 'ब्रह्रा आदि कुछ दूसरे नामों से भी जाना जाता है। वेद का ज्ञान गुरु-शिष्य-परम्परा से सुरक्षित रखा गया। गुरुमुख से सुनकर प्राप्त होने के कारण यह 'श्रुति कहलाया। सार्थक, सुसंगत और उत्तम अर्थ को बताने के कारण इसके लिए 'निगम नाम का प्रयोग हुआ। ऋक, यजुष और सामन-इन तीन रूपों में होने से वेद का एक नाम 'त्रायी प्रचलित हुआ। मनोभावों को आच्छन्न करने के कारण वेद को 'छन्दस नाम दिया गया। 'आम्नाय नाम वेद के प्रतिदिन के अभ्यास पर बल देता है। वेदों का भली-भांति प्रतिदिन अèययन किये जाने को महत्त्व देने से वेद को 'स्वाèयाय कहा गया। ब्रह्रा के सत, चित और आनन्द रूपों का प्रतिपादक होने से वेद को 'ब्रह्रा नाम से भी जाना जाता है।
4.वेद की अपौरुषेयता
वैदिक ज्ञान मन्त्राों में अभिव्यक्त हुआ है। इन मन्त्राों का वैदिक ऋषियों ने प्रथम बार तपोबल से दर्शन किया था, इसलिए परम्परा के अनुसार वे ऋषि मन्त्राæष्टा हैं, मन्त्राकर्ता नहीं। वैदिक मन्त्राों से ज्ञात होता है कि ऋषियों को अलौकिक सामथ्र्य प्राप्त था। उन्होंने दैवी प्रतिभा के सहारे अपने प्रातिभ चक्षुओं से वेद के मन्त्राों का दर्शन किया था। तभी निरुक्त में आचार्य यास्क का कथन है-
साक्षात्कृतèार्माण ऋषयो बभूवु:।
तपस्या में मग्न रहते हुए ऋषियों को यह ज्ञान हुआ, यह बात अनेक स्थलों पर कही गर्इ है। मनु का कथन है-
युगान्ते•न्तर्हितान मन्त्राान सेतिहासान्महर्षय:।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता: स्वयंभुवा:।।
अर्थात 'युग की समापित पर अदृश्य हुए मन्त्रा उनके इतिहास के साथ ब्रह्रादेव की आज्ञा से महान ऋषियों को उनके अपने तपोबल से पुन: प्राप्त हुए।
भारतीय दृषिटकोण के अनुसार किसी व्यकित विशेष ने वेदों की रचना नहीं की है। मन्त्राों के साथ जिन ऋषियों के नाम मिलते हैं वे इनके द्रष्टा हैं। ऋषियों ने वेद के ज्ञान को प्रकट भर किया है। ब्राह्राणग्रन्थों में परमेश्वर प्रजापति से वेदों की उत्पत्ति बतार्इ गर्इ है।
नाना दर्शनों ने वेद को अपौरुषेय, नित्य और स्वत: प्रमाण मानकर उनमें पूर्ण आस्था व्यक्त की है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में विराट पुरुष से ही वेदों की उत्पत्ति बतायी गयी है-
तस्माद यज्ञात्सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात यजुस्तस्मादजायत।।
-ऋग्वेद 10ध्90ध्8
वेद अपौरुषेय और स्वत: आविभर्ूत हैं; इसकी विवेचना में पूर्वमीमांसाकार जैमिनि की युकित है कि जो वस्तु जिसके द्वारा निर्मित होती है उसके साथ उसके कर्ता का स्मरण किया जाता है किन्तु वेद के कर्ता का आज तक किसी को स्मरण नहीं है।
वेद को भारतीय परम्परा में स्वत: प्रमाण माना जाता है। भारतीय मनीषा के अनुसार वेद सर्वथा नित्य है-'अनादिनिधना नित्या वाक।
5. वैदिक मन्त्रा के ऋषि, देवता और छन्द
वेद के मन्त्राों के अर्थ को सम्यक रूप से समझने के लिए उनके ऋषि, देवता और छन्द को जानना आवश्यक समझा जाता है। जैसा ऊपर कहा गया, मन्त्राों के साक्षात्कार करने वाले 'ऋषि कहलाते हैं। 'ऋषि शब्द दर्शनार्थक ऋष èाातु से निष्पन्न हुआ है। मन्त्राों के साथ प्राय: उसके द्रष्टा ऋषियों के नामों का उल्लेख किया गया है। मन्त्रा में जिनसे स्तुतियां की गर्इ हैं वे देवता हैं। एक परिभाषा के अनुसार 'जिसका वाक्य है वह ऋषि है और जिसके विषय में कहा गया है वह देवता है। देवता ही देव हैं जो दानशील, चमकनेवाले, चमकाने वाले या फिर धुस्थान में रहने वाले हैें। यास्क ने देवताओं को तीन स्थानों में बांटा है-धुस्थानीय देवता जैसे सूर्य आदि, अन्तरिक्षस्थानीय देवता जैसे इन्द्र, वायु आदि, और पृथिवी-स्थानीय देवता जैसे अगिन आदि। मन्त्रा के छन्द को जानना उसके सही उच्चारण के लिए आवश्यक है। वैदिक छन्द की विशेषता है कि वे अक्षर गणना पर नियत रहते हैं। मन्त्रा को किस कार्य के लिए पढ़ना चाहिएµउसे विनियोग कहते हैंं। इन चारों केे महत्त्व पर कात्यायन महर्षि का कथन है कि जो व्यकित ऋषि, देवता, छन्द और विनियोग के ज्ञान के बिना मन्त्रा का अèययन-अèयापन, यजन-याजन करता है उसका कार्य निष्फल होता है। विनियोग को यदि छोड़ भी दिया जाए, तब भी इतना तो निशिचत है कि ऋषि, छन्द और देवता का समुचित ज्ञान वेदमन्त्रा के अर्थ को समझने में सहायक होने से उपयोगीहै।
6.वेद के संरक्षण के उपाय
वेद की सुरक्षा श्रुति-परम्परा से हुर्इ है। वेद के उच्चारण में कोर्इ अन्तर न आए और मन्त्रा की क्षति भी न हो इसके लिए अनेक उपाय अपनाए गये थे। इन उपायों को विकृतियां कहते हैं। इनमें मन्त्राों के पदों को घुमा फिराकर अनेक तरह से उच्चारित किया जाता था। ये विकृतियां आठ हैं। इनके नाम हैं-जटा, माला, शिखा, रेखा, èवज, दण्ड, रथ और घन। इनमें घनपाठ सबसे कठिन होता है।
इन आठ विकृतियों के अतिरिक्त तीन पाठ और हैं-संहितपाठ, पदपाठ और क्रमपाठ। संहितापाठ में मन्त्रा अपने मूल रूप में रहता है और पदपाठ में मन्त्रा के प्रत्येक पद को अलग अलग करके पढ़ा जाता है।
इन पाठों के फलस्वरूप हजारों वषो± के बाद भी आज वेदमन्त्रा अपने मूलरूप में विधमान हैं।
7. वैदिक साहित्य का वर्गीकरण
वैदिक वा³मय अत्यèािक विशाल है। इसके अन्तर्गत सहस्रों ग्रन्थ समाविष्ट हैं। सामान्य रूप से उनको दो भागों में रखा जा सकता है-(1) वेद और (2) वेदा³ग। 'वेद का लक्षण किया जाता है-
मन्त्राब्राह्राणयोर्वेदनामèोयम।
तदनुसार मन्त्रा और ब्राह्राण-दोनों का नाम वेद है। जिनमें देवताओं की स्तुतियां हैं, वे 'मन्त्रा कहलाते हैं और जिनमें यज्ञ की विविèा क्रियाओं का वर्णन है, वे ग्रन्थ 'ब्राह्राण कहलाते हैं। इस परिभाषा से ब्राह्राण के तीन भाग हैं-(1) ब्राह्राण, (2) आरण्यक, और (3) उपनिषद।
सुविèाा के अनसार 'वेद को चार भागों में बांटा जाता है-(1) मन्त्रा-संहिताएं, (2) ब्राह्राण-ग्रन्थ,(3) आरण्यक-ग्रन्थ, (4) उपनिषद-ग्रन्थ।
वास्तव में वेदरूप ज्ञान एक है। स्वरूप-भेद से वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन चारों वेदों के अन्तर्गत मन्त्रासंहिता, ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद नाम से चार प्रकार के एक या अनेक ग्रन्थ आते हैं। वैदिक वा³मय के परिशिष्ट के रूप में दूसरा भाग वेदा³ग साहित्य है। जिसके अन्तर्गत भी छह भागों में सैंकड़ों ग्रन्थ हैं। इस प्रकार वैदिक वा³मय एक विपुल साहित्य का नाम है। इस तालिका द्वारा उसके रूप को संक्षेप में समझा जा सकता है।
(1) वेद (संक्षेप में)
वेद मन्त्रासंहिता ब्राह्राण-ग्रन्थ आरण्यक उपनिषद
1. ऋग्वेद ऋग्वेद-संहिता ऐतरेय ब्राह्राण ऐतरेय आरण्यक ऐतरेय उपनिषद
2. यजुर्वेद (1) शुक्ल-यजुर्वेद-संहिता शतपथ ब्राह्राण बृहदारण्यक र्इशावास्य उपनिषद
(2) कृष्ण-यजुर्वेद-संहिता तैत्तिरीय ब्राह्राण तैत्तिरीय आरण्यक तैत्तिरीय उपनिषद
3. सामवेद सामवेद-संहिता प×चविंश ब्राह्राण तलवकार आरण्यक छान्दोग्य उपनिषद
4. अथर्ववेद अथर्ववेद-संहिता गोपथ ब्राह्राण - मुण्डक उपनिषद
(2) वेदा³ग
1. शिक्षा 2. कल्प 3.व्याकरण
4. निरुक्त 5. छन्द 6. ज्योतिष
वण्र्य विषय की दृषिट से समस्त वैदिक वा³मय को दो भागों में बांटा जाता है: 1. कर्मकाण्ड, और 2. ज्ञानकाण्ड। वैदिक संहिताओं और ब्राह्राणग्रन्थों को कर्मकाण्ड के अन्तर्गत रखा जाता है क्योंकि इसमें विविèा यज्ञों के कर्मकाण्ड की पूरी प्रक्रिया दी गयी है। संहिताओं में कर्मकाण्ड के मन्त्रा हैं और ब्राह्राणग्रन्थों में उसकी विस्तृत व्याख्या। ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत आरण्यक ग्रन्थ और उपनिषदें हैं। आरण्यकों में जहां यज्ञिय क्रियाकलाप की दार्शनिक व्याख्याएं मिलती हैं, वही उपनिषदों का तो मुख्य विषय ही आèयातिमक विवेचन है।
चारों वेदों के अनुसार यज्ञ में चार ऋतिवज होते हैं-होता, अध्वर्यु, उदगाता और ब्रह्राा। होता ऋग्वेद का ऋतिवज है जो ऋग्वेद के मन्त्राों का पाठ करता है। अध्वर्यु यजुर्वेद का ऋतिवज है जो यज्ञ की प्रक्रिया करवाता है। उदगाता सामवेद का ऋतिवज है अत: सामवेद के मन्त्राों का पाठ वही करता है। ब्रह्राा यज्ञ का अधिष्ठाता है, वह यज्ञ का संचालन करता है। ऋग्वेद के एक मन्त्रा (10ध्71ध्11) में इन चारों ऋतिवजों के कामों का उल्लेख किया गया है।
पुराणों के आèाार पर ज्ञात होता है कि पितामह ब्रह्राा की आज्ञा से 'वेदव्यास ने वैदिक संहिताओं को अनेक खण्डों में बांटा था और विविèा मन्त्राों को विषय के अनुसार क्रमबद्ध किया था। वेद का विभाजन करने के कारण ही इन्हें कृष्ण द्वैपायन व्यास कहा जाने लगा।
8.वेद का काल-निèर्ाारण
वेद के कालनिèर्ाारण के सम्बन्èा में मनीषियों में अत्यèािक मतभेद हैं। इतने अèािक मतभेद शायद ही संसार के किसी अन्य ग्रन्थ या साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्èा में हों, जितने वेद के काल को लेकर हैं। प्राचीन भारतीय विद्वान वेद को अनादि और अपौरुषेय मानते थे और उनके अनुयायी अब भी ऐसा ही मानते हैं कि वेदों का न कोर्इ रचयिता है और न कोर्इ समय। एक मत में ब्रह्राा के चार मुखों से चार वेदों की रचना हुर्इ है। अत: प्राचीन भारतीय मत में चारों वेद समानरूप से प्राचीन हैं और उनमें पौर्वापर्य नहीं है।
वेद को अत्यèािक प्राचीनकाल का मानकर भी भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने उनके रचनाकाल पर तरह-तरह से विचार किया है, जिनमें से कुछ मुख्य मत उल्लेखनीय हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में वेदों का आविर्भाव परमात्मा से हुआ है, इसलिए वेद सृषिट के आरम्भ से हैं। अविनाशचन्द्र दास ने ऋग्वेद के भूगोल और भूगर्भ-सम्बन्èाी अन्त:साक्ष्य के आèाार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 25 हजार वर्ष र्इ0 पूर्व बताया है। बालगंगाèार तिलक ने ज्योतिष गणना को आèाार बनाकर ऋग्वेद का समय 6000 र्इ0 पूर्व से लेकर 4000 र्इ0 पूर्व तक निशिचत किया है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने ज्योतिष के आèाार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 3500 र्इ0 पूर्व बताया है। पाश्चात्य विद्वान याकोबी ने èा्रुवतारा को लक्ष्य बनाकर ज्योतिष के आèाार पर ही ऋग्वेद का समय 4500र्इ0 पूर्व माना है। विण्टरनिटज़ ने मिटानी शिलालेख के प्रमाण पर ऋग्वेद का समय 2500 र्इ0 पूर्व ठहराया है, तो मैक्समूलर ने बुद्ध को आèाार बनाकर ऋग्वेद को 1200 र्इ0 पूर्व का बताया है। इस प्रकार वेद के काल को लेकर अनेक मत प्राप्त हैं, परन्तु पुष्ट प्रमाणों के अभाव में किसी भी निष्कर्ष पर निशिचत रूप से पहुंचना सम्भव नहीं है। केवल व्यावहारिक दृषिट से वैदिक वा³मय के संकलन को रामायण, महाभारत और महात्मा बुद्ध आदि से पूर्व विधमान होने के कारण लगभग चार हजार वर्ष र्इ0 पूर्व से लेकर एक हजार वर्ष र्इ0 पूर्व के मèय में अवश्य रखा जा सकता है।
9. वेद-व्याख्या की परम्परा
वेद के गूढ़ अर्था±े को स्पष्ट करने के लिए प्राचीन काल से ही मनीषियों ने अनेक प्रयास किये। वेद के भाष्यकारों की लम्बी परम्परा है। इसके प्रथम प्रमुख आचार्य यास्क माने जा सकते हैं जिन्होंने 'निरुक्त नामक वेदा³ग लिखा। इस ग्रन्थ में यास्क ने अपने समय में प्रचलित अनेक व्याख्या-पद्धतियों का उल्लेख किया है। ऋग्वेद के मèययुगीन भाष्यकारों में स्कन्दस्वामी, उदगीथ, माधव, वेंकटमाèाव और सायण उल्लेखनीय हैं। सायण ने अट्टारह वैदिक ग्रन्थों पर भाष्य लिखा जो उपलब्èा होता है। वेद के अर्थ समझने में ये भाष्य अत्यन्त उपयोगीहै।
यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट और महीèार का विशेष महत्त्व है। माधव, भरतस्वामी और गुणविष्णु के नाम सामवेद के भाष्यकारों के रूप में याद किये जाते हैं।
आèाुनिक भारतीय वेद भाष्यकारों में महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम अग्रगण्य हैं जिन्होंने वेदार्थ को एक नयी दिशा दी और वेदों के अध्ययन पर जोर दिया। योगिप्रवर श्री अरविन्द ने अपने मौलिक दृषिटकोण से वेद के अर्थ और व्याख्या का प्रवर्तन किया। श्रीपाद दामोदार सातवलेकर ने सुबोèा भाष्य लिखे। पाश्चात्य विद्वानों ने वेद के अर्थ और अèययन में रुचि दिखार्इ और अंग्रेजी, जर्मन और फ्रैंच में वैदिक ग्रन्थों के सम्पादन, अनुवाद और समीक्षाकार्य किये। वेदों पर कार्य करने वाले महत्त्वपूर्ण पाश्चात्य विद्वानों के नाम हैं-राथ, मैक्समूलर, हाँग, वेबर, कीथ, मैकडानल, ग्रासमान, हिलेब्राण्ट, हिवटनी, ब्लूमफील्ड, विलसन और गि्रफिथ।
10. वेदों का महत्त्व
वेद का महत्त्व अनेक दृषिटयों से माना जाता है। वेद तो हिन्दू èार्म और भारतीय संस्कृति की आèाारशिला हैं। भारतीय जनमानस में र्इश्वरीय ज्ञान के रूप में वेदों में परम आस्था देखी जाती है। पारम्परिक मत में 'आसितक वह है जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास रखता है, और 'नासितक वह है जो वेद की निन्दा करता है।
(क) èाार्मिक महत्त्व - भारतीय èार्म, संस्कृति और चिन्तन में वेद को अत्यèािक गौरवपूर्ण पद प्राप्त है। हिन्दुओं के समस्त आचार-विचार, èार्म-कर्म का आèाार वेद हंै। वेद की महत्ता èाार्मिक दृषिट से सर्वोपरि है। मनु ने कहा भी है-वेदो•खिलो èार्ममूलम।
èार्म के जिज्ञासुओं के लिए वेद परम प्रमाण हैं। वे èार्म के मूल तत्त्वों को जानने का एकमात्रा साèान हैं। वस्तुत: वेद समस्त èामो± के श्रेष्ठ तत्त्वों से संवलित हैं इसलिए मनु ने इनको èार्ममात्रा का मूल स्रोत कहा है-
य: कशिचत कस्यचिदèार्मो मनुना परिकीर्तित:।
स सर्वो•भिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि स:।।
मनु ने साथ ही वेद को देवों, पितरों और मनुष्यों सभी का 'सनातन चक्षु कहा है।
यज्ञ, संस्कार, वर्णाश्रम-व्यवस्था, पुरुषार्थ-चतुष्टय, तीन ऋण, प×च महायज्ञ आदि सभी मुख्य èाार्मिक सिद्धान्तों का निरूपण वेद में प्राप्त होता है।
(ख) दार्शनिक महत्त्व - सभी 'आसितक दर्शनों का आदिस्रोत वेद ही हैं। वेद की सहायता से भारतीय दर्शनों के विकास को समझा जा सकता है। उपनिषद ग्रन्थ समस्त आèयातिमक और दार्शनिक विचारों के मुख्य स्रोत माने जाते हैं। विश्ेाषकर वेदान्त एवं सांख्य दर्शन के प्रèाान ग्रन्थ वेद (उपनिषद) ही हैें। वेद के गौरव को बढ़ाने के लिए मीमांसा दर्शन का आविर्भाव हुआ है।
(ग) सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक महत्त्व - भारतवर्ष के अनेक सामाजिक,
राजनैतिक और सांस्कृतिक सिद्धान्त और विश्वास वेद पर ही प्रतिषिठत हैं। मानवमात्रा के कर्तव्यबोèा के लिए सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ वेद हैं। इनमें गुरु, शिष्य, पिता-पुत्रा, पति-पत्नी, माता-पिता, समाज और व्यकित, राष्ट्र और राष्ट्रीयता, विश्व-बन्èाुत्व, परोपकार, दान, दया, अतिथि-सत्कार आदि का विस्तृत प्रतिपादन मिलता है।
प्राचीन भारत के समाज, सभ्यता और संस्कृति की जानकारी के लिए वेदाèययन अनिवार्य है। तत्कालीन व्यवसाय, उधोग-èांèो, वाणिज्य, शिल्प आदि की जानकारी के अतिरिक्त समाज के विभिन्न वगो± के कर्तव्यों और विशेषताओं के विवरण वेद में प्राप्त होते हैं।
राजा, राज्य, सभा, समिति, शासन-प्रणाली, शासन के सिद्धान्त आदि की जानकारी भी वेदों में उपलब्èा होती है, जिससे प्राचीन भारत के राजनैतिक चिन्तन और व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
(घ) ऐतिहासिक महत्त्व - वेद भारतीय इतिहास के प्रारमिभक काल का उदघाटन करने में सहायक हैं। इनमें भारतीय इतिहास और भौगोलिक विवरण ही नहीं, अपितु यदु, तुर्वश आदि जनसमूहों के विवरण भी मिलते हैं। गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री आदि नदियों के नाम तत्कालीन भूगोल का परिचय देते हैं, तो 'दाशराज्ञ युद्व के उल्लेख को ऐतिहासिक महत्त्व दिया जाता है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि कर्इ विद्वान वेद के गंभीर अर्थ को èयान में रखकर वेद में इतिहास ढूंढ़ने को अनुचित और असंगत बताते हैं।
(³) भाषावैज्ञानिक महत्त्व - वेद का महत्त्व भाषाशास्त्राीय अèययन की दृषिट से भी कम नहीं, क्योंकि ये प्राचीनतम भाषा की जानकारी देते हैं। वैदिक भाषा की लौकिक संस्कृत भाषा से तुलना करने पर अनेक भाषापरक रोचक तथ्य प्रकाश में आते हैं।
निरुक्त और प्रातिशाख्य ग्र्रंथों में èवनि, पद, वाक्य और अर्थ-सभी इकार्इयों की दृषिट से भाषा का विशद विश्लेषण किया गया है।
(च) साहितियक और काव्यशास्त्राीय महत्त्व - वेद का साहितियक महत्त्व सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है। वेद के मन्त्राों में अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का यथास्थान प्रयोग हुआ है। उषादेवी के सूक्त उत्कृष्ट काव्य के उदाहरण माने जाते हैं। महाकाव्य, नाटक, गध, कथा, गीतिकाव्य आदि साहितियक विèााओं का उदगम वेद से दिखार्इ देता है।
(छ) शास्त्राीय और वैज्ञानिक महत्त्व - वेद सभी ज्ञान-विज्ञान का आदि स्रोत है; इसलिए यह स्वाभाविक है कि वेद में दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्रा, समाजशास्त्रा, मनोविज्ञान, गणित, जीवविज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, आयुर्विज्ञान, भौतिकी, पर्यावरण आदि विभिन्न विèााओं और संगीत, नृत्य, चित्राकला आदि सभी कलाओं की सामग्री विकीर्ण रूप में प्राप्त हो। इसी तथ्य को èयान में रखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेद को सभी सत्यविधाओं से युक्त बताया है। मनु ने भी 'सर्वज्ञानमयो हि स: कहकर वेदों की इस महत्ता पर प्रकाश डाला है। कुछ विद्वानों के अनुसार वैज्ञानिक दृषिट से यदि वेदों का अèययन किया जाये तो वेद मन्त्राों में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के संकेत प्राप्त होते हैं।
वेद की महत्ता के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट बात यही है कि भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन का भव्य प्रासाद वेद की आèाारशिला पर ही प्रतिषिठत हुआ है। इसलिए प्रारम्भ से ही शिक्षा और ज्ञानार्जन के अन्तर्गत वेदाèययन की उपयोगिता एकमत से स्वीकार की गर्इ है।

2 पाठ-2 वेद की मन्त्रा-संहिताएं
पाठ-2
वेद की मन्त्रा-संहिताएं
वैदिक वा³मय में प्राचीनता और महत्ता की दृषिट से सर्वप्रथम वेद की संहिताओं को लिया जाता है। चारों वेदों की अपनी अपनी संहिताएं हैं। माना जाता है कि प्रारम्भ में सभी वेद-मन्त्रा एक साथ थे, अनन्तर वेदव्यास ने एकस्थ वेद को अèययन की दृषिट से कठिन समझ कर उन मन्त्राों को अलग-अलग संहिताओं में संकलित कर दिया।
यास्क ने 'मननात मन्त्रा: कहकर मन्त्रा शब्द की व्युत्पति दी है। तदनुसार जिनमें मनन होता है वह 'मन्त्रा कहलाता है। जिन के द्वारा यज्ञ-यागों का अनुष्ठान किया जाता है और जिनमें देवताओं की स्तुतियां होती हैं, उन्हें 'मन्त्रा नाम से पुकारते हैें। मन्त्रा तीन प्रकार के हैं-ऋक, यजुष और सामन। ये क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्राों के नाम हैं। इन मन्त्राों के समूह को प्राय: 'सूक्त कहते हैं। संहिता शब्द का अर्थ है-संकलन या संग्रह। कहा ही जाता है-'संहन्यन्ते एकत्राीक्रियन्ते मन्त्राा: सूक्तानि वा अस्यां सा संहिता, अर्थात जिसमें सूक्तों या मन्त्राों का संग्रह या एकत्राीकरण किया गया हो, वह ग्रन्थ संहिता है। इस नियम से चारों वेदों के मन्त्रा की अपनी अपनी संहिताएं उपलब्èा होती हैं; उनको ही उस वेद की मन्त्रा-संहिता कहते हैं। यथा, ऋग्वेद की ऋग्वेदसंहिता, यजुर्वेद की यजुर्वेदसंहिता (दो भाग), सामवेद की सामवेदसंहिता और अथर्ववेद की अथर्ववेदसंहिता। इस पाठ में चारों वेदों की पांच संहिताओं के स्वरूप और महत्त्व का विवेचन किया जा रहा है।
(1) ऋग्वेद-संहिता

चारों वेदों में प्रथम स्थान ऋग्वेद को प्राप्त है। ऋग्वेद को विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक वा³मय में ऋग्वेद को परम पूजनीय माना जाता है और वसन्त पूजा आदि के अवसर पर सर्वप्रथम वेदपाठ ऋग्वेद से ही प्रारम्भ किया जाता है। पुरुषसूक्त में आदि पुरुष से उत्पन्न वेदमन्त्राों में सर्वप्रथम 'ऋक को गिनाया गया है।
1. ऋक का अर्थ - ऋग्वेद की संहिता को 'ऋकसंहिता कहते हैं। वस्तुत: 'ऋक का अर्थ है-'स्तुतिपरक मन्त्रा और 'संहिता का अभिप्राय संकलन से है। अत: ऋचाओं के संकलन का नाम 'ऋकसंहिता है। ऋक की परिभाषा दी जाती है-'ऋच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति 'ऋक अर्थात जिससे देवताओं की स्तुति हो उसे 'ऋक कहते हैें। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार छन्दों में बंèाी रचना को 'ऋक नाम दिया जाता है। ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋक को ब्रह्रा, वाक, प्राण, अमृत आदि कहा गया है जिसका तात्पर्य यही है कि ऋग्वेद के मन्त्रा ब्रह्रा की प्रापित कराने वाले, वाक की प्रापित कराने वाले, प्राण या तेज की प्रापित कराने वाले और अमरत्व के साèान हंै। सामान्य रूप से इससे ऋग्वेद के मन्त्राों की महिमा का ग्रहण किया जाना चाहिए।
2. ऋग्वेद की शाखाएं - पत×जलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की कदाचित 21 शाखाएं थीं। इनमें से 'चरणव्यूह नामक ग्रन्थ में उल्लखित ये पांच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं-शाकल, वाष्कल, आश्वलायनी, शांखायनी और माण्डूकायनी। सम्प्रति ऋग्वेद की एक शाकल शाखा की संहिता ही प्राप्त होती है। यह संहिता कर्इ दृषिटयों से अत्यèािक महत्त्वपूर्ण है।
3. ऋग्वेद की संहिता का महत्त्व - सम्पूर्ण वैदिक वा³मय का प्राचीनतम ग्रन्थ होने के कारण इस (शाकल) संहिता को विश्वसाहित्य का प्रथम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। चारों वेदों की संहिताओं की तुलना में यह सबसे बड़ी संहिता है। एक विशालकाय वैदिक ग्रन्थ के रूप में यह अदभुत और विविèा ज्ञान का स्रोत है। भाव, भाषा और छन्द की दृषिट से भी यह अत्यन्त प्राचीन है। इसमें अèािकांश देव इन्द्र, विष्णु, मरुत आदि प्राकृतिक तत्त्वों के प्रतिनिèाि हैं। ये पंचतत्त्वों-अगिन, वायु, आदि तथा मेघ, विधुत, सूर्य आदि का प्रतिनिèाित्व करते हैं। सभी वेदों और ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋग्वेद या इसकी संहिता का ही नाम सर्वप्रथम गिनाया जाता है। फिर अनेक विषयों की व्यापक चर्चा करने के कारण इस संहिता का वण्र्यविषयपरक महत्त्व भी स्वीकार किया जाता है।

4. ऋग्वेद संहिता का विभाजन - ऋग्वेद की संहिता ऋचाओं का संग्रह है। ऋकसंहिता का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है-(1) अष्टक-क्रम और (2) मण्डल-क्रम। अष्टक क्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण संहिता आठ अष्टकों में विभाजित है और प्रत्येक अष्टक में आठ अèयाय हैे। अèयाय वगो± में विभाजित हैं और वर्ग के अन्तर्गत ऋचाएं हैं। कुल अèयायों की संख्या 64 और वगो± की संख्या 2006 हैें।
मण्डल-क्रम में सम्पूर्ण संहिता में दस मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डल में कर्इ अनुवाक, प्रत्येक अनुवाक में कर्इ सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कर्इ मन्त्रा हैं। तदनुसार ऋग्वेद-संहिता में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10552 मन्त्रा हैें।
इस प्रकार ऋग्वेद की मन्त्रा-संहिता के विभाजन की एक सुन्दर और निशिचत व्यवस्था प्राप्त होती है।
5. ऋग्वेद-संहिता के ऋषि - ऋग्वेद-संहिता के मन्त्राद्रष्टा ़ऋषियों पर यदि èयान दिया जाए, तो हम पाते हैं कि दूसरे से सातवें मण्डल के अन्तर्गत समाविष्ट मन्त्रा किसी एक ऋषि के द्वारा ही साक्षात्कार किये गये हैें। इसीलिए ये मण्डल वंशमंडल कहलाते हैं। इन मण्डलों को दूसरे मण्डलों की तुलना में प्राचीन माना जाता है। यधपि कर्इ विद्वान इस मत से असहमत भी हैं। आठवें मण्डल में कण्व, भृगु आदि कुछ परिवारों के मन्त्रा संकलित हैं। पहले और दसवें मण्डल में सूक्त-संख्या समान हैं। दोनों में 191 सूक्त ही हैं। इन दोनों मण्डलों की उल्लेखयोग्य विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किये गये मन्त्राों का संकलन किया गया है। पहले और दसवें मण्डल में विभिन्न विषयों के सूक्त हैं। प्राय: विद्वान इन दोनों मण्डलों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन मानते हैं। नवां मण्डल भी कुछ विशेष महत्त्व लिये हुए है। इसमें सोम देवता के समस्त मन्त्राों को संकलित किया गया है। इसीलिए इसका दूसरा प्रचलित नाम है-पवमान मण्डल।
सुविèाा के लिए ऋग्वेद की संहिता के मण्डल, सूक्तसंख्या और ऋषिनामों का विवरण एक तालिका में दिया जा रहा है-
मण्डल सूक्त संख्या ऋषि नाम
1. 191 मèाुच्छन्दा:, मेधातिथि, दीर्घतमा:, अगस्त्य, गोतम, पराशर आदि।

2. 43 गृत्समद एवं उनके वंशज

3. 62 विश्वामित्रा एवं उनके वंशज

4. 58 वामदेव एवं उनके वंशज

5. 87 अत्रि एवं उनके वंशज

6. 75 भरद्वाज एवं उनके वंशज

7. 104 वशिष्ठ एवं उनके वंशज

8. 103 कण्व, भृगु, अंगिरा एवं उनके वंशज

9. 114 ऋषिगण, विषय-पवमान सोम

10. 191 त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी इन्द्राणी, शची आदि।

इन मन्त्राों के द्रष्टा-ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्रा, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, भृगु और अंगिरा प्रमुख हैं। कर्इ वैदिक नारियां भी मन्त्राों की द्रष्टा रही हैें। प्रमुख ऋषिकाओं के रूप में वाक आम्भृणी, सूर्या सावित्राी, सार्पराज्ञी, यमी वैवस्वती, उर्वशी, लोपामुद्रा, घोषा आदि के नाम उल्लेखनीय हैें।

6.ऋग्वेद संहिता के छन्द - इस संहिता के कुल 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें भी प्रमुख छन्द सात हैं। ये हैं-

1. गायत्राी - 24 अक्षर

2. उषिणक - 28 अक्षर

3. अनुष्टप - 32 अक्षर

4. बृहती - 36 अक्षर

5. प³कित - 40 अक्षर

6. त्रिष्दुप - 44 अक्षर

7. जगती - 48 अक्षर

इनमें भी इन चार छन्दों के मन्त्राों की संख्या इस संहिता में सबसे अधिक पार्इ जाती है-त्रिष्टुप, गायत्राी, जगती और अनुष्टुप।

7. ऋग्वेद संहिता का वण्र्य-विषय - ऋग्वेद में आयो± की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था तथा संस्थाओं का विवरण है। इसमें उनके दार्शनिक, आèयातिमक कलात्मक तथा वैज्ञानिक विचारों का समावेश भी है। वेदकालीन ऋषियों के जीवन में देवताओं और देव-आराèाना को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद का प्रत्येक मन्त्रा किसी न किसी देवता से सम्बद्ध है। यथार्थ में देवता से तात्पर्य वण्र्य विषय का है। तभी छुरा और ऊखल जैसी वस्तुएं भी देवता है। अक्ष और कृषि भी देवता हैं।

ऋग्वेद की संहिता में देवस्तुति की प्रधानता है। अगिन, इन्द्र, मरुत, उषा, सोम, अशिवनौ आदि नाना देवताओं की कर्इ-कर्इ सूक्तों में स्तुतियां की गर्इ हैं। सबसे अधिक सूक्त इन्द्र देवता की स्तुति में कहे गये हैं और उसके बाद संख्या की दृषिट से अगिन के सूक्तों का स्थान है। अत: इन्द्र और अगिन वैदिक आयो± के प्रèाान देवता प्रतीत होते हैं। कुछ सूक्तों में मित्राावरुणा, इन्द्रवायू, धावापृथिवी जैसे युगल देवताओं की स्तुतियां हैं। अनेक देवगण जैसे आदित्य, मरुत, रुद्र, विश्वेदेवा आदि भी मन्त्राों में स्तवनीय हैं। देवियों में उषा और अदिति का स्थान अग्रगण्य है।

ऋकसंहिता में देवस्तुतियों के अतिरिक्त कुछ दूसरे विषयों पर भी सूक्त हैं, जैसे जुआरी की दुर्दशा का चित्राण करने वाला 'अक्षसूक्त, वाणी और ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला 'ज्ञानसूक्त, यम और यमी के संवाद को प्रस्तुत करने वाला 'यमयमी-संवादसूक्त, पुरूरवा और उर्वशी की बातचीत पर प्रकाश डालने वाला 'पुरूरवाउर्वशी-संवादसूक्त आदि।

विषय की गम्भीरता को दर्शाने वाले सूक्तों में दार्शनिक सूक्तों को गिना जा सकता है, जैसे पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, नासदीयसूक्त आदि। इनमें सृषिट-उत्पत्ति और उसके मूलकारण को लेकर गूढ़ दार्शनिक विवेचन किया गया है। औषèािसूक्त में नाना प्रकार की औषèाियों के रूप, रंग और प्रभाव का विवरण है।

8. ऋग्वेद संहिता के कुछ प्रमुख सूक्त - ऋग्वेद-संहिता के सूक्तों को वण्र्य विषय और शैली के आधार पर प्राय: इस प्रकार विभाजित किया जाता है-

(1) देवस्तुतिपरकसूक्त

(2) दार्शनिक सूक्त

(3) लौकिक सूक्त

(4) संवाद सूक्त

(5) आख्यान सूक्त आदि।

कुछ प्रमुख सूक्त, जो अत्यधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस संहिता के व्यापक विषय पर प्रकाश डालता है।

(1) पुरुष सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल का 90 संख्यक सूक्त 'पुरुषसूक्त कहलाता है क्योंकि इसका देवता पुरुष है। इसमें पुरुष के विराट रूप का वर्णन है और उससे होने वाली सृषिट की विस्तार से चर्चा की गयी है। इस पुरुष को हजारों सिर, हजारों पैरों आदि से युक्त बताया गया है। इसी से विश्व के विविèा अंग और चारों वेदों की उत्पत्ति कही गयी है। सर्वप्रथम चार वणो± के नामों का उल्लेख ऋग्वेद के इसी सूक्त में मिलता है। यह सूक्त उदात्तभावना, दार्शनिक विचार और रूपकात्मक शैली के लिए अति प्रसिद्ध है।

(2) नासदीय सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 129वें सूक्त को 'नासदीय सूक्त या 'भाववृत्तम सूक्त कहते हैं। इसमें सृषिट की उत्पत्ति की पूर्व अवस्था का चित्राण है और यह खोजने का यत्न किया गया है कि जब कुछ नहीं था तब क्या था। तब न सत था, न असत, न रात्रि थी, न दिन था; बस तमस से घिरा हुआ तमस था। फिर सर्वप्रथम उस एक तत्त्व में 'काम उत्पन्न हुआ और उसका यही संकल्प सृषिट के नाना रूपों में अभिव्यक्त हो गया। पर अन्त में सन्देह किया गया है कि वह परम व्योम में बैठने वाला एक अध्यक्ष भी इस सबको जानता है या नहीं। अथवा यदि जानता है तो वही जानता है और दूसरा कौन जानेगा?

(3) हिरण्यगर्भ सूक्त - इस संहिता के दशम मण्डल के 121वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है। नौ मन्त्राों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्रा में 'कस्मै देवाय हविषा विèोम कहकर यह बात दोहरार्इ गयी है कि ऐसे महनीय हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराèाना करेंं? हमारे लिए तो यह 'क संज्ञक प्रजापति ही सर्वाèािक पूजनीय है। इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। हिरण्यगर्भ ही सृषिट का नियामक और èार्ता है।

(4) संज्ञान सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 191वें संख्यक सूक्त को संज्ञान सूक्त कहते हैं। इसमें कुल 8 मन्त्रा हैं, पर ऋग्वेद का यह अनितम मन्त्रा अपने उदात्त विचारों और सांमनस्य के सन्देश के कारण मानवीय समानता का आदर्श माना जाता है। हम मिलकर चले, मिलकर बोलें, हमारे हृदयों में समानता और एकता हो-यह कामना किसी भी समाज या संगठन के लिए एकता का सूत्रा है।

(5) अक्ष सूक्त - ऋग्वेद के दशम मण्डल के 34वें सूक्त को 'अक्ष सूक्त कहते हैं। यह एक लौकिक सूक्त है। इसमें कुल 14 मन्त्रा हैं। अक्ष क्रीड़ा की निन्दा करना और परिश्रम का उपदेश देना-इस सूक्त का सार है। एक निराश जुआरी की दुर्दशा का मार्मिक चित्राण इसमें दिया गया है जो घर और पत्नी की दुर्दशा को समझकर भी जुए के वशीभूत होकर अपने को उसके आकर्षण से रोक नहीं पाता है और फिर सबका अपमान सहता है और अपना सर्वनाश कर लेता है। अन्त में, सविता देवता से उसे नित्य परिश्रम करने और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।

(6) विवाह सूक्त - ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 85वें सूक्त को विवाहसूक्त नाम से जाना जाता है। अथर्ववेद में भी विवाह के दो सूक्त हैं। इस सूक्त में सूर्य की पुत्राी 'सूर्या तथा सोम के विवाह का वर्णन है। अशिवनी कुमार इस विवाह में सहयोगी का कार्य करते हैं। यहां स्त्राी के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है। उसे सास-ससुर की सेवा करने का उपदेश दिया गया है। परिवार का हित करना उसका कर्तव्य है। साथ ही स्त्राी को गृहस्वामिनी, गृहपत्नी और साम्राज्ञी कहा गया है। अत: स्त्राी को परिवार में आदरणीय बताया गया है।

(7) कुछ मुख्य आख्यानसूक्त - ऋग्वेदसंहिता में कर्इ सूक्तों में कथा जैसी शैली मिलती है और उपदेश या रोचकता उसका उíेश्य प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख सूक्त जिनमें आख्यान की प्रतीति होती है इस प्रकार हैं-श्वावाश्र सूक्त (5ध्61), मण्डूक सूक्त (7ध्103), इन्द्रवृत्रा सूक्त (1ध्80ए 2ध्12), विष्णु का त्रिविक्रम (1ध्154); सोम सूर्या विवाह (10ध्85)। वैदिक आख्यानों के गूढ़ार्थ की व्याख्या विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से की जाती है।

(8) कुछ मुख्य संवादसूक्त - वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अèािक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मèय वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है प्राय: संवादसूक्त कहलाते हैं। कुछ प्रमुख संवाद सूक्त इस प्रकार हैं-

पुरूरवा-उर्वशी- संवाद ऋ. 10/95

यम-यमी-संवाद ऋ. 10/10

सरमा-पणि-संवाद ऋ. 10/108

विश्वामित्रा-नदी- संवाद ऋ. 3/33

वशिष्ठ-सुदास- संवाद ऋ. 7/83

अगस्त्य-लोपामुæा -संवाद ऋ. 1/179

इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि -संवाद कं. 10/86

संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्रा व्यकित मानना सम्भव नहीं है। इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विèााओं की उत्पत्ति हुर्इ है। इसके अतिरिक्त, आप्रीसूक्त, दानस्तुतिसूक्त, आदि कुछ दूसरे सूक्त भी अपनी शैली और विषय के कारण पृथक रूप से उलिलखित किये जाते हैं।

इस प्रकार ऋग्वेद की संहिता वैदिक देवताओं की स्तुतियों के अतिरिक्त दर्शन, लौकिक ज्ञान, पर्यावरण, विज्ञान, कथनोपकथन आदि अवान्तर विषयों पर भी प्रकाश डालने वाला प्राचीनतम आर्ष ग्रन्थ है। èाार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और दार्शनिक दृषिट से अत्यन्त सारगर्भित सामग्री को प्रस्तुत करने के साथ-साथ यह साहितियक और काव्य-शास्त्राीय दृषिट से भी विशिष्ट तथ्यों को उपस्थापित करने वाला महनीय ग्रन्थरत्न है।
(2) यजुर्वेद-संहिता
यजुर्वेद का यज्ञ के कर्मकाण्ड से सीèाा सम्बन्èा है। यज्ञ में अèवर्यु नामक ऋतिवज यजुर्वेद का प्रतिनिèाित्व करता है। इसलिए इस वेद को 'अèवर्युवेद भी कहते हैं। वैदिक कर्मकाण्ड का मुख्य आèाार यजुर्वेद है। यज्ञप्रèाान होने के कारण यजुर्वेद को चारों वेदों में भित्तिस्थानीय माना जाता है। इसलिए यजुर्वेद सबमें मुख्य है।
1. यजुष का अर्थ - यजुर्वेद की संहिता में 'यजुषों का संग्रह है। यज्ञसम्बन्èाी मन्त्राों को 'यजुष कहते हैं- 'यजुर्यजते:; जिनका उपयोग अèवर्यु ऋतिवज यज्ञ के अवसर पर करता है। गीति और पध से रहित मन्त्राात्मक रचना को भी 'यजुष कहते हैं-गधात्मको यजु:।
गधात्मक यजुष को अन्यत्रा ऋक और साम से भिन्न प्रकार के मन्त्रा बताया गया है-अनियताक्षरावसानो यजु:। इसका तात्पर्य है कि सभी गधात्मक मन्त्रा यजुष की कोटि में आते हैं। एक दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार जिन मन्त्राों से यज्ञ किया जाता है उनको यजुष कहते हैं-इज्यते•नेनेति यजु:।
ब्राह्राणग्रन्थों में यजुर्वेद को कभी विष्णु, कभी प्राण, कभी मन, कभी अन्तरिक्ष और कभी तेज कहा गया है-ये विवरण यजुर्वेद की महिमा का प्रतिपादन करते हैें।
2. यजुर्वेद के दो भाग-शुक्ल एवं कृष्ण। यजुर्वेद मुख्यतया दो भागों में विभक्त हैं-
1. शुक्ल यजुर्वेद,
2. कृष्ण यजुर्वेद।
इनके नामकरण के विषय में एक कथा पुराणों में दी गर्इ है। वेदव्यास ने पहले यजुर्वेद को अपने शिष्य वैशम्पायन को सिखलाया; जिन्होंने इसे याज्ञवल्क्य ऋषि को पढ़ाया। किसी कारण गुरु अपने शिष्य से रुष्ट हो गये और पढ़ार्इ गर्इ विधा को उनसे वापस मांगने लगे। याज्ञवल्क्य ने पठित-यजुषों का वमन कर दिया। तब दूसरे शिष्यों ने तित्तिर का रूप èाारण करके उसे चुग लिया। यही कृष्ण यजुर्वेद हुआ। फिर याज्ञवल्क्य ने सूर्य की आराèाना करके नवीन यजुषों को प्रकट किया। वही शुक्ल यजुर्वेद हुआ। इन दोनों के रूप में महान अन्तर है। आदित्य-सम्प्रदाय का प्रतिनिèाि शुक्ल यजुर्वेद है और ब्रह्रा-सम्प्रदाय का प्रतिनिèाि कृष्ण यजुर्वेद है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्राों का संग्रह है, जिनमें विनियोग-वाक्य नहीं है। कृष्ण यजुर्वेद में गधात्मक विनियोगों का मिश्रण है। गध और पध की इसी मिलावट के कारण उसको 'कृष्ण कहते हैं।
3. यजुर्वेद की शाखाएँ - महर्षि पत×जलि ने यजुर्वेद की 100 शाखाएं बतार्इ हैं। कूर्मपुराण में भी यजुर्वेद की 100 शाखाओं का उल्लेख है। परन्तु 'चरणव्यूह ग्रन्थ में यजुर्वेद की 86 शाखाओं का वर्णन हुआ है और वहां उनका विभाजन भी किया गया है। इन शाखाओं की संख्या क्रमश: कम होती गयी। अनेक लेखकों के नाम भी लुप्त हो गये। सम्प्रति यजुर्वेद की केवल छह शाखाएं उपलब्èा होती हैं; जिनमें दो शुक्ल यजुर्वेद की हैं और चार कृष्ण यजुर्वेद की हैं।
4. शुक्ल यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं, जिनकी एक-एक संहिता उपलब्èा होती है-
1. वाजसनेयी संहिता
2. काण्व संहिता
शुक्ल यजुर्वेद की प्रमुख मन्त्रासंहिता 'वाजसनेयी संहिता के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि सूर्य ने 'वाजी का रूप èाारण करके इसका उपदेश दिया था। इनमें 40 अèयाय हैं और 1975 मन्त्रा हैं, जिनमें विशेष रूप से यज्ञों का वर्णन है। दर्श, पौर्णमास, अगिनहोत्रा, चातुर्मास्य, शतरुदि्रय, अश्वमेèा आदि के वर्णन और उनके विशिष्ट मन्त्राों का निर्देश शुक्ल यजुर्वेद का मुख्य विषय है। इसको 'माèयनिदन संहिता भी कहते हैं। इस का प्रचार उत्तर भारत में अèािक है। इसको सामान्य रूप से शुक्ल यजुर्वेदसंहिता नाम से जाना जाता है। इस संहिता का 40वां अèयाय र्इशावास्य उपनिषद के नाम से अत्यन्तप्रसिद्धहै।
काण्वसंहिता में भी 40 अèयाय हैं पर मन्त्राों की संख्या 2086 है। अत: वाजसनेयी संहिता से इसमें 111 मन्त्रा अèािक हैें। इसके मन्त्राों के क्रम में भी अन्तर है। इसके मन्त्रा गध और पध दोनों में हैं। महर्षि कण्व इस शाखा के प्रवर्तक हैं। आजकल काण्व शाखा की इस संहिता का प्रचलन अèािकतर महाराष्ट्र में ही है। काण्व संहिता के प्रथम 25 अèयायों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण महायज्ञों के मन्त्रा हैं। दर्शपूर्णमास, पिण्डपितृयज्ञ, नित्य अगिनकर्म, अगिनप्रतिष्ठा, अगिनहोत्रा कर्म, चातुर्मास्य कर्म आदि के मन्त्रा इसमें संगृहीत हैं। सोमयाग, पशुयाग, वाजपेययाग का विèाान और उनके मन्त्राों के विवरण इस संहिता में विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। 31वें अèयाय में 'पुरुषमेèा का वर्णन है तो 32वें से 34वें अèयायों में 'सर्वमेèा के मन्त्रा हैं। 40वां अèयाय र्इशावास्योपनिषद है जो सब उपनिषदों काआèाारहै।
शुक्ल यजुर्वेद की दोनों संहिताओं की विषयवस्तु प्राय: एक सी ही है। स्पष्ट है कि इनमें वर्णित यज्ञों का विशेष उíेश्य है। कुछ स्वर्गप्रापित के लिए है, तो कुछ मोक्षप्रापित के लिए। कुछ का उíेश्य राजा की श्रीवृद्धि है तो कुछ का उíेश्य ब्रह्राचारी की मेèाावृद्धि और तेजसिवता की वृद्धि है। महत्त्वपूर्ण बात है कि यजुर्वेद की ये संहिताएं आèयातिमक और दार्शनिक महत्त्व के सूक्तों के लिए अति प्रसिद्ध है जिनमें शिवसंकल्प सूक्त और रुद्राèयाय का विशेष स्थान है।
5. कृष्ण यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद के मुख्य अन्तर का आèाार यही है कि जहां
शुक्लयजुर्वेदसंहिता में केवल मन्त्राभाग हैं, वहीं कृष्णयजुर्वेद में मन्त्राों के साथ उनकी व्याख्या और विनियोग आदि भी वर्णित हैं।
सम्प्रति कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएं मिलती हैं, जिनकी संहिताएं उपलब्èा हैं-
1. तैत्तिरीय संहिता
2. मैत्राायणी संहिता
3. काठक संहिता
4. कपिष्ठल कठ संहिता।
इन सबमें तैत्तिरीय संहिता प्रèाान है, जिसमें सात काण्ड हैं। यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा सवा±गपूर्ण है, क्योंकि इसकी संहिता ही नहीं, ब्राह्राण, आरण्यक, उपनिषद, श्रौत्रासूत्रा आदि सभी प्राप्त होते हैं। इसका विषय विविèा याग और उनके अनुष्ठान ही हैेंं। इसमें मन्त्रा और व्याख्या भाग समिमलित रूप से प्राप्त होता है। मैत्राायणी और काठक संहिताएं तैत्तिरीय से मिलती हुर्इ सी हैं और इनमें यजुर्वेद के यागादि का ही वर्णन हुआ है। काठक संहिता का दूसरा नाम कठ संहिता भी है क्योंकि यह कठ शाखा की संहिता है। कपिष्ठल कठ संहिता अभी तक आèाी ही उपलब्èा है और लाहौर से उतनी ही प्रकाशित हुर्इ है। कृष्णयजुर्वेद में भी यज्ञों का ही वर्णन हुआ है, यधपि इनका क्रम शुक्लयजुर्वेद से कि×चित भिन्न है। कृष्ण यजुर्वेद की चारों संहिताओं में प्राय: स्वरूप की एकता है और विविèा यागों में प्रयुक्त मन्त्राों में भी बहुत समानता है। इसका कारण स्पष्ट है कि ये शाखाएं वस्तुत: एक यजुर्वेद की ही शाखाएं हैं।
6. यजुर्वेद का महत्त्व - यजुर्वेद अत्यन्त उपकारक वेद हैें। इसका महत्त्व इसके प्रार्थना मन्त्राों में है जो कुछ गधात्मक है और कुछ पधात्मक। इन मन्त्राों में भकित का स्रोत दिखायी देता है। जैसे यह मन्त्रा सर्वमंगल भावना को प्रस्तुत करता है-'इस यज्ञ से आयु की वृद्धि हो, इससे प्राणवायु बढ़े, चक्षु ठीक हो, कर्ण ठीक हो, पृष्ठभाग की वृद्धि हो (वाज. 9ध्21)।
इसी प्रकार मन के शुभ संकल्प की प्रार्थना बड़ी ही सारगर्भित और पे्ररणा देने वाली है-'जो मन विशेष और सामान्य ज्ञान का साèान है, जो èौर्य रूप है, जो प्राणियों के भीतर अमर ज्योति है, जिसके बिना कोर्इ काम नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो èाृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरममृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
-वाज. 34ध्3
यजुर्वेद के कुछ अèयाय भावगाम्भीर्य के कारण विशेष महत्त्व के हैं।
(3) सामदेव-संहिता
वेदत्रायी में सामवेद का स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण है। श्रीमदभगवदगीता में श्रीकृष्ण ने-वेदानां सामवेदो•सिम कहकर स्वयं को सभी वेदों में 'सामवेद बताया है। मनु के अनुसार सामवेद का सम्बन्èा सूर्य से है। शतपथ ब्राह्राण के अनुसार बिना सामों के यज्ञानुष्ठान सम्पन्न नहीं हो सकता। सामवेद का ऋतिवज उदगाता है इसलिए इस वेद का दूसरा नाम 'उदगातृवेद भी है।
1. सामन का अर्थ - 'सामन की संहिता 'सामवेदसंहिता है। सामन का अर्थ है-'गान। ऋग्वेद के मन्त्रा ही जब विशेष गान-पद्धति से गाये जाते हैं, तब उनको 'सामन कहते हैं। अत: सामन का अर्थ है-गीतियुक्त मन्त्रा। साम के लिए गीतियुक्त होना आवश्यक है।
पूर्वमीमांसा में गीति को ही साम कहा गया है-'गीतिषु सामाख्या।
ऋग्वेद और सामवेद का अन्योन्याश्रित सम्बन्èा है। गीतियुक्त ऋचा ही साम हो जाती है-इस भाव को अथर्ववेद, ऐतरेयब्राह्राण, बृहदारण्यक उपनिषद, छान्दोग्य उपनिषद आदि में अनेक तरह से कहा गया है। तात्पर्य यही है कि साम ऋचा पर आश्रित है।
जब तीन वेदों की बात की जाती है तब सामवेद को तीसरे स्थान पर रखते हैं। जैसे कि शतपथ ब्राह्राण ;11ध्5ध्8ध्3द्ध में वर्णन है-तीन वेद हुए, अगिन से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य में सामवेद।
2. सामवेद का स्वरूप - सामवेद गायन का वेद है। ऋचाएं ही गायी जाती हैं, इसलिए सम्पूर्ण सामवेद में अèािकांश ऋचाएं ही हैं। इनकी संख्या 1771 है। केवल 99 ऋचाएं ऐसी हैं, जो ऋग्वेद की संंहिता में नहीं मिलती है। जिनमें से पांच पुनरुक्त हैें। सामवेद की पूरी मन्त्रा संख्या 1875 है। इसलिए सामवेद की संहिता की स्वतन्त्रा सत्ता नहीं के बराबर है और कहा जाता है-ऋचि अèयूढं साम गीयते अर्थात ऋक पर आश्रित साम गाये जाते हैं। यज्ञ में उदगाता ऋतिवज ही इन सामों का गान करता है।
सामवेद के दो मुख्य भाग हैं-1. पूर्वार्चिक, और 2. उत्तरार्चिक। आर्चिक का शाबिदक अर्थ है-ऋचाओं का संकलन या समूह। पूर्वार्चिक में चार काण्ड-आग्नेय, ऐन्द्र, पावमान तथा आरण्यकाण्ड और महानाम्नी आर्चिक हैें। आग्नेय काण्ड का देवता अगिन, ऐन्द्र काण्ड का देवता इन्द्र, पावमान काण्ड का देवता सोम, आरण्य काण्ड का देवता इन्द्र, अगिन और सोम, तथा महानाम्नी आर्चिक का देवता इन्द्र है। सामवेद के पूर्वार्चिक में 6 अèयाय और 650 मन्त्रा हैं। उत्तरार्चिक में 21 अध्याय और 1225 मन्त्रा हैं। उत्तरार्चिक में कुल 400 सूक्त हैं। सामवेद के अèािकांश मन्त्रा ऋग्वेद के अष्टम और नवम मण्डल से लिये गये हैं।
पुराणों में सामवेद के प्रचार-प्रसार की विस्तृत परम्परा प्राप्त होती है। महर्षि व्यास ने अपने शिष्यों में से जैमिनि को सामवेद की शिक्षा प्रदान की थी। जैमिनि की शिष्य परम्परा में तीन शिष्य मुख्य थे-सुमन्तु, सुत्वान और सुकर्मा। इनमें सुकर्मा ने सर्वाèािक सामगान प्रचार किया।
यह कहा जाता है कि सामवेद ऋग्वेद पर आश्रित है अत: इसकी स्वतन्त्रा सत्ता नहीं है। परन्तु अनेक कारणों से शास्त्राों में सामवेद की स्वतन्त्रा सत्ता स्वीकार की गयी है।
दोनों संहिताओं की स्वरांकन-पद्धति पूरी तरह से पृथक-पृथक प्रकार की है। दोनों संहिताओं के ऋतिवज भिन्न-भिन्न हैं। सायण आदि भाष्यकारों ने सामवेद को स्वतन्त्रा वेद माना है और उस पर स्वतन्त्रा भाष्य भी लिखा है। विशेष बात यह है कि दोनों संहिताओं में मौलिक अन्तर है। ऋग्वेद का मुख्य कार्य देव स्तुति है तो सामवेद का संगीत। अत: यह भी सम्भव है कि सामवेद की स्वतन्त्रा सत्ता पर सन्देह करना मात्रा एक भ्रानित हो।
3. सामवेद की शाखाएं - पत×जलि ने सामवेद की एक सह़स्र शाखाओं की बात की है, किन्तु इसकी पुषिट नहीं होती है। सम्प्रति केवल तीन शाखाओं की संहिताएं ही उपलब्èा हैं-राणायनीय, कौथुमीय और जैमिनीय। श्री सातवलेकर ने सामवेद की राणायनीय और कौथुमीय शाखाओं को प्रकाशित किया है। वस्तुत: दोनों शाखाओं में मौलिक अन्तर नहीं के बराबर है।
(क) राणायनीय शाखा - राणायनीय शाखा और कौथुमीय शाखा के मन्त्राों तथा उनके क्रम में कोर्इ भेद नहीं है। केवल गणना की विèाि में अन्तर है। राणायनीय शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्थप्रपाठक, दशति और मन्त्रा के रूप में है। पाठभेद और कुछ उच्चारण भेद अवश्य है। इस शाखा का विशेष प्रचार दक्षिण भारत में रहा है।
(ख) कौथुमीय शाखा - संहिता की दृषिट से यह शाखा राणायनीय शाखा से भिन्न नहीं है। दोनों के मन्त्रा और उनका क्रम समान है, केवल गणना पद्धति का अन्तर है। इस शाखा का विभाजन अèयाय, खण्ड और मन्त्रा के रूप में है। कौथुमीय शाखा की ही एक शाखा ताण्डय है, जिसका विशालकाय ब्राह्राण ताण्डयमहाब्राह्राण कहलाता है। सामवेद की कौथुमीय शाखा का अèािक प्रचार उत्तर भारत में रहा है।
(ग) जैमिनीय शाखा - सामवेद की जैमिनीय शाखा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शाखा मानी जाती है।
डाñ रघुवीर ने इसका प्रकाशन लाहौर से किया था। जैमिनीय शाखा में 1687 मन्त्रा हैं। इसमें ऐसे कर्इ मन्त्रा हैं जो कौथुमीय शाखा में उपलब्èा नहीं हैं। मन्त्राों की संख्या की दृषिट से जैमिनीय शाखा कौथुमीय शाखा से कुछ छोटी है, तथापि सामगान की दृषिट से यह अèािक समृद्ध है। इस शाखा का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इसकी संहिता, ब्राह्राण, श्रौतसूत्रा और गृáसूत्रा सभी उपलब्èा होतेहैं।
4. सामवेद का महत्त्व - सामवेद का महत्त्व कर्इ दृषिटयों से हैं-
(1) प्राचीन याज्ञिकों में सामगान का बहुत महत्त्व है। माना जाता है कि बिना सामों के यज्ञानुष्ठान सम्पन्न नहीं होता है।
(2) सामवेदसंहिता का मूलतत्त्व ओंकार है। इसे ही प्रणव और ओम कहते हैं।
(3) बृहददेवता के अनुसार जो साम जानता है वह वेद का रहस्य जानता है।
(4) अथर्ववेद के अनुसार साम परब्रह्रा का लोेम है-'सामानि यस्य लोमानि।
(5) छान्दोग्योपनिषद में ऋचाओं का सार सामवेद को बताया गया है।
(6) सामवेद गीतिमय या संगीत का वेद है। संगीत का उदगम सामवेद से ही माना जाता है।
(7) सामवेद में सोम, सोमरस, सोमयाग का विशेष महत्त्व है। इसलिए इसे सोमप्रèाान वेद भी कहते हैं। आèयातिमक दृषिट से सोम शिव, आनन्द या ब्रह्रातत्त्व है जिसे प्राप्त करने का साèान उपासना है। भकित और संगीत द्वारा उसकी सिद्धि होती है।
(8) सामवेद में ज्ञान, कर्म और भकित का सुन्दर समन्वय है। पावमान काण्ड सम्पूर्ण भगवदभकित द्वारा आनन्द-प्रापित का वर्णन करता है। सामवेद में उपासना की प्रèाानता है।
(4) अथर्ववेद-संहिता
वैदिक मन्त्रा-संहिताओं में 'अथर्ववेद-संहिता का विशेष महत्त्व है। इसको प्राय: चतुर्थ वेद कहते हैें। चतुर्थ कहकर वास्तव में उसे वेदत्रायी से अलग दिखाया जाता है, किन्तु वेदार्थ की दृषिट से वह अन्य वेदों की तुलना में किसी प्रकार हेय नहीं है। इसका सम्बन्èा यज्ञ के विशेष ऋतिवज 'ब्रह्राा से है। ऋग्वेद आदि तीनों वेद आमुषिमक (पारलौकिक) फल देने वाले हैं, जबकि अथर्ववेद ऐहिक (सांसारिक) फल देने के साथ-साथ आमुषिमक (पारलौकिक) फल भी देता है। इस जीवन को सुखी और दु:खविहीन बनाने के लिए साèानों का विèाान इस में हैं। यह वेद ऋग्वेद के दार्शनिक विचारों को और अèािक विकसित तथा प्रौढ़ रूप में प्रस्तुत करता है। शानित और पुषिट कमो± का सम्पादन इसी वेद से होता है। अथर्ववेद का महत्त्व इसलिए भी स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसमें प्रथम बार पृथिवी को 'माता कहा गया है।
1. अथर्ववेद के नाम - अथर्ववेद को ब्रह्रादेव, भैषज्यवेद, अंगिरावेद, अथर्वा³िगरस वेद, महीवेद, छत्रावेद आदि नामों से भी जाना जाता है। 'अथर्वन शब्द का अर्थ है-गतिहीन या सिथरता से युक्त योग। अत: इसमें चित्तवृत्तियों के निरोèारूपी योग का उपदेश है। यह नाम अथर्ववेद की आèयातिमकता पर प्रकाश डालता है। इस वेद में ऋषि 'अथर्वा के मन्त्रा सर्वाèािक हैं, सम्भव है इसलिए इस आèाार पर इसका नाम 'अथर्ववेद पड़ा हो। इसमें प्राप्त पृथिवीसूक्त के कारण इसे 'महीवेद कहते हैं। ब्रह्रा द्वारा दृष्ट मन्त्राों की अèािकता होने से इसका नाम 'ब्रह्रावेद है। चिकित्सा और औषèाियों के विपुल मन्त्राों के कारण इसे 'भैषज्यवेद की संज्ञा दी गयी है। इसमें अ³िगरा ऋषि और उनके वंशजों के मन्त्राों का संग्रह होने से इसे 'आंगिरस वेद भी कहा गया है। यहां राजाओं और क्षत्रियों के कर्तव्यों का विशेष रूप से वर्णन प्राप्त होने से इसे 'क्षत्रावेद कहा जाता है।
2. अथर्ववेद की शाखाएं - पत×जलि ने महाभाष्य में और शौनक ने चरणव्यूह में अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख किया है। नवèाा आथर्र्वणो वेद:-पत×जलि की प्रसिद्ध उकित है। ये नौ शाखाएंहैं-
1. पैप्पल, 2. दान्त, 3. प्रदान्त, 4. स्नात, 5. सौत्रा, 6. ब्रह्रादावन, 7. शौनक, 8. देवदर्शनी और 9. चारणविधा।
आचार्य सायण ने कुछ भिन्न नामों का उल्लेख किया है, जिनको अèािकतर विद्वान स्वीकार करते हैं। वे नाम हैं-1. पैप्पलाद, 2. तौद, 3. मौद, 4. शौनकीय, 5. जाजल, 6. जलद, 7. ब्रह्रावद, 8. देवदर्श, 9. चारणवैध।
सम्प्रति अथर्ववेद की दो शाखाएं ही मिलती हैं-शौनक और पैप्पलाद।
(क) शौनकीय शाखा - आजकल प्रचलित अथर्ववेद संहिता शौनक शाखा की है। इसमें 20 काण्ड, 730 सूक्त और 5987 मन्त्रा हैं। इसका 17वां काण्ड सबसे छोटा है। अथर्ववेद में यजुर्वेद की तरह कुछ भाग गध में है। पूरा 15वां और 16वां काण्ड गध मेें है और अन्य काण्डों में लगभग 30 सूक्त गधमय हैं। शौनक शाखा की अथर्ववेद संहिता का सर्वप्रथम प्रकाशन 1856 र्इ. में हिवटनी ने किया था। यह शाखा ऋषि शौनक के नाम से है।
(ख) पैप्पलाद शाखा - इस शाखा की संहिता पैप्पलाद संहिता कहलाती है। इसे ब्लूमफील्ड ने सबसे पहले 1901 र्इ. में अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया था। यह संहिता अपूर्ण ही प्राप्त होती है। प्रतीत होता है कि पत×जलि के समय पैप्पलाद शाखा का प्रचलन था क्योंकि उन्होंने 'शं नो देवीरभिष्टय इत्यादि मन्त्रा को प्रथम मन्त्रा के रूप में दिया है। शौनक शाखा में यह मन्त्रा प्रथम काण्ड के छठे सूक्त का प्रथम मन्त्रा है। यह शाखा ऋषि पैप्पलाद के नाम से है।
3. अथर्ववेद की परवर्तिता - पाश्चात्य विद्वान और कुछ भारतीय विद्वान मानते हैं कि अथर्ववेद की संहिता अन्य वेदों की संहिताओं की अपेक्षा परवर्ती है। इस विषय में विद्वानों द्वारा कुछ तर्क दिये जाते हैें।
अथर्ववेद को मन्त्राों की रचना, संहिताकरण, नामकरण आदि के आèाार पर अपेक्षाकृत परवर्ती माना जाता है। इस मान्यता का सबसे बड़ा आèाार यह है कि 'वेदत्रायी की प्रचलित èाारणा में प्रारमिभक तीन वेद ही समाविष्ट किये जाते हैं। फिर ऋग्वेद और यजुर्वेद में स्पष्ट रूप से अथर्ववेद का उल्लेख नहीं है। अन्य वेदों की विषय-वस्तु भी इससे भिन्न है। इसकी भाषा भी अपेक्षाकृत अर्वाचीन प्रतीत होती है। अथर्ववेद का संकलन भी विशेष है। कहीं पर मन्त्राों की संख्या के आèाार पर काण्डों का विभाजन है तो कहीं पर विषय के आèाार पर।
4. अथर्ववेद के उपवेद - गोपथ ब्राह्राण में पांच उपवेदों का उल्लेख है। ये हैं-
(1) सर्पवेद

(2) पिशाचवेद

(3) असुरवेद

(4) इतिहासवेद

(5) पुराणवेद
अथर्ववेद सम्बद्ध उपवेदों के विषय प्राय: उनके नाम पर आèाारित है और प्रकट करते हैं कि अथर्ववेद एक व्यापक वेद हैं।
5. अथर्ववेद का वण्र्य-विषय - प्रो. ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद का पूरा नाम 'अथर्वा³िगरस वेद स्वीकार किया है और इसके प्रतिपाध़ की विवेचना शीर्षकों में की है जिससे उसके सूक्तों के वण्र्यविषय का स्पष्टीकरण सरलता से हो जाता है, जैसे-
1. भैषज्याणि अर्थात रोगों और दानवों से मुकित की प्रार्थनाएं
2. आयुष्याणि अर्थात दीर्घायु एवं स्वास्थ्य के लिए प्रार्थनाएं
3. अभिचारकाणि अर्थात राक्षसों, अभिचारकों एवं शत्राुओं के प्रतिकूल आचार
4. स्त्राीकर्माणि अर्थात स्त्राीविषयक अभिचार
5. सांमनस्यानि अर्थात सांमनस्य प्राप्त करने वाले अभिचार
6. राजकर्माणि अर्थात राज्यविषयक अभिचार
7. ब्राह्राण्याणि अर्थात ब्राह्राणों के हित में प्रार्थनाएं
8. पौषिटकाणि अर्थात सम्पन्नता-प्रापित और भय से मुकित के अभिचार
9. प्रायशिचत्तानि अर्थात पाप और दुष्कर्म के लिए प्रायशिचत्त विषयक अभिचार
10. सृषिटविषयक और आèयातिमक सूक्त
11. याज्ञिक एवं सामान्य सूक्त
12. वैयकितक (विवाह, परिव्राजक-प्रशंसा, अन्त्येषिट आदि) विषयों का विवेचन करने वाले सूक्त (काण्ड 13-18)
13. बीसवां काण्ड
14. कुन्ताप सूक्त (बीसवें काण्ड का कुछ अंश)।
इस प्रकार अथर्ववेद-संहिता विविèा विषयों पर वैविèयपूर्ण विचारों को प्रस्तुत करती है। इसमें कुछ ब्रहमविधाविषयक सूक्त, जैसे केनसूक्त, स्कम्भसूक्त, ज्येष्ठब्रह्रासूक्त, उचिछष्टसूक्त आदि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, जिनमें अत्यन्त चारुता के साथ ब्रह्राविधा के रहस्यों का वर्णन किया गया है और जिनके कारण ही यह वह 'ब्रह्रावेद कहलाता है। अèयात्मविषयक सूक्तों में 'प्राणसूक्त प्रसिद्ध है। ब्रह्राचर्याश्रमविषयक सूक्तों में ब्रह्राचर्यसूक्त, मेखलासूक्त, मेèाासूक्त और श्रद्धामेèाासूक्त उल्लेखनीय हैं। भूमिसूक्त में मातृभूमि की मनोरम कल्पना की गर्इ है। 15वें काण्ड में व्रात्यसूक्तों में वानप्रस्थ और संन्यास का दिग्दर्शन मिलता है।
6. अथर्ववेद का महत्त्व - अथर्ववेद में आयुर्वेद का विस्तृत विवेचन हुआ है। इसमें अपामार्ग, पिप्पली, रोहिणी, पृशिनवर्णी आदि औषèाियों का वर्णन, उन्मत्ता, कास, कुष्ठ, ज्वर, क्लीबत्व, गण्डमाला, हृदयरोग, कामला आदि रोगों की चिकित्सा एवं सर्पविष आदि विषों के दूरीकरण के विवरण आयुष्यवर्èान आदि के लिए किये गये हैें।
राजा के निर्वाचन, राज्याभिषेक, राजनीति, राष्ट्रसमृद्धि, शत्राुविजय आदि के विस्तृत वर्णन इस संहिता में हैं। कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, मणिèाारण, स्वसित, अभ्युदय आदि विविèा विषयों पर प्रकाश डालकर यह संहिता वस्तुत: ज्ञान का एक विशाल भण्डार सी प्रतीत होती है।
अथर्ववेद एक ऐसा आकर ग्रन्थ है जिसमें दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और आभिचारिक विषयों का गंभीर प्रतिपादन हुआ है और जिससे इस संहिता का महत्त्व स्वत: ही पुष्ट होता है।

3 पाठ-3 वेद के ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद ग्रन्थ




पाठ-3

वेद के ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद ग्रन्थ

वैदिक संहिताओं के अनन्तर वेद के तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं-ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद। इन ग्रन्थों का सीधा सम्बन्ध अपने वेद से होता है, जैसे ऋग्वेद के ब्राह्राण, ऋग्वेद के आरण्यक और ऋग्वेद के उपनिषदों के साथ ऋग्वेद का संहिता ग्रन्थ मिलकर भारतीय परम्परा के अनुसार 'ऋग्वेद कहलाता है। इस अध्याय में ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद ग्रन्थों के स्वरूप, महत्त्व आदि का परिचय दिया जा रहा है।

(1) ब्राह्राण ग्रन्थ

1. 'ब्राह्राण शब्द का अर्थ

वेद का सर्वमान्य लक्षण है-'मन्त्राब्राह्राणात्मको वेद:'। जैमिनि के अनुसार मन्त्रा भाग के अतिरिक्त शेष वेद-भाग ब्राह्राण हैं-'शेषे ब्राह्राणशब्द:। सायण ने भी यही लक्षण स्वीकार किया है। वेद भाग को बताने वाला 'ब्राह्राण शब्द नपुंसक लि³ में है। ग्रन्थ के अर्थ में 'ब्राह्राण शब्द का प्रयोग सबसे पहले तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। व्युत्पति की दृषिट से यह शब्द 'ब्रह्रान शब्द में 'अण प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है। 'ब्रह्रा शब्द के दो अर्थ हैं-मन्त्रा तथा यज्ञ। इस तरह ब्राह्राण वे ग्रन्थ हैं जिनमें याज्ञिक दृषिट से मन्त्राों की विनियोगपरक व्याख्या की गयी है। संक्षेप में मन्त्राों के व्याख्या ग्रन्थ 'ब्राह्राण हैें।

2.संहिता और ब्राह्राण का भेद

संहिता ग्रंथों और ब्राह्राण ग्रंथों में स्वरूप और विषय का भेद है। स्वरूप की दृषिट से संहिता ग्रन्थ अधिकतर छन्दोब) हैं, जबकि ब्राह्राण ग्रन्थ सर्वथा गधात्मक है। विषय की दृषिट से भी दोनों में अन्तर है। ऋग्वेद में देवस्तुतियों की प्रधानता है, यजुर्वेद में विविध यागों का वर्णन है। अथर्ववेद में रोगनिवारण, शत्राुनाशन आदि विषय हंै। परन्तु ब्राह्राणग्रन्थों का मुख्य विषय है-विधि। यज्ञ कब और कहां किया जाए, यज्ञ के अधिकारी कौन हैं? यज्ञ के आवश्यक साधन और सामग्री क्या हैं? इस प्रकार के यज्ञपरक विवेचन इनमें होते हैं। संहिताग्रन्थ स्तुति-प्रèाान हैंं तो ब्राह्राणग्रन्थ विधिप्रधान। भाव के अतिरिक्त भाषा की दृषिट से भी दोनों में भेद हैं। वेदों की अपेक्षा ब्राह्राणों की भाषा सरल और प्रसादगुण युक्त है। इसमें समास आदि के कम प्रयोग हुए हैं।

संहिता और ब्राह्राण अलग-अलग हैं पर दोनों का अटूट सम्बन्ध है। मन्त्राों का कर्मकाण्ड में विनियोग होता है और ब्राह्राण मन्त्राों के विनियोग की विधि बतलाते हैं। प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्राण ग्रन्थ होते हैं, जो अपनी संहिता के मन्त्राों के यज्ञों में विनियोग आदि पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। इनमें यथास्थान आख्यान आदि देकर शैली को रोचक बनाया गया है। ब्राह्राण ग्रन्थों की वैदिक भाषा पर लौकिक संस्कृत का किंचित प्रभाव दिखार्इ देता है। ब्राह्राण ग्रन्थों के रचयिताओं को आचार्य कहते हैैं। कुछ विशेष आचायो± के नाम हैं-कौषीतकि, भरद्वाज, शांखायन, ऐतरेय, वाष्कल, शाकल, गाग्र्य, शौनक और आश्वलायन।

3. ब्राह्राण ग्रन्थों का विवेच्य विषय

ब्राह्राण ग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञकर्म का विधान है। अगिनहोत्रा से लेकर विधीयमान समस्त यागों का निरूपण ब्राह्राण ग्रन्थों में मिलता है। अगिनहोत्रा, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयाग इत्यादि यागों के निरूपण के साथ-साथ सत्रा आदि और काम्य यागों का वर्णन भी ब्राह्राण ग्रन्थों में प्राप्त होता है। यज्ञ का विधान कब हो? कैसे हो? किन किन साधनों से हो? इस प्रकार अनेक यज्ञकर्म विषयक प्रश्नों का समाधान इन ग्रन्थों में है। इन विभागों को ही 'विधि कहते हैं। मीमांसादर्शन के भाष्य में शबरस्वामी ने इन्हीं विषयों को कुछ विस्तार से दस भागों में विभाजित किया है-

हेतुर्निर्वचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधि:।

परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारण-कल्पना।।

उपमानं दशैेते तु विधयो ब्राह्राणस्य वै।।

ये दश विषय हैं-

(1) हेतु-यज्ञ में कोर्इ कार्य क्यों किया जाता है उसका कारण बताना।

(2) निर्वचन-शब्दों की निरुकित बताना।

(3) निन्दा-यज्ञ में निषि) कमो± की निन्दा।

(4) प्रशंसा-यज्ञ में विहित कायो± की प्रशंसा करना।

(5) संशय-कियी यज्ञिय कर्म के विषय में कोर्इ सन्देह हो तो उसका निवारण करना।

(6) विधि-यज्ञिय क्रिया कलाप की पूरी विधि का निरूपण करना।

(7) परक्रिया-परार्थ क्रिया या परोपकार अथवा जनहित के कायो± का निर्देश करना।

(8) पुराकल्प-यज्ञ की विभिन्न विधियों के समर्थन में किसी प्राचीन आख्यान या ऐतिहासिक घटना का वर्णन करना।

(9) व्यवधारणकल्पना-परिसिथति के अनुसार कार्य की व्यवस्था करना।

(10) उपमान-कोर्इ उपमा या उदाहरण द्वारा विवेच्य विषय की पुषिट करना।

संक्षेप में यज्ञप्रक्रिया और उससे सम्ब) विषयों का प्रतिपादन ही ब्राह्राणों का विवेच्य विषय है। यज्ञ-मीमांसा के मुख्य दो भेद होते हैं-विधि और अर्थवाद।

वाचस्पति मिश्र ने 'ब्राह्राणग्रन्थों के चार प्रयोजन बताए हैं-

(1) निर्वचन-शब्दों की निरुकित करना।

(2) विनियोग-कौन सा मन्त्रा किस कार्य के लिए है उसका निर्देश करना।

(3) प्रतिष्ठान-यज्ञ में प्रत्येक विधि का महत्त्व, करने के लाभ, न करने की हानियां आदि।

(4) विधि-यज्ञ और उसकी प्रक्रिया का विस्तृत विवरण करना।

यज्ञ-विधान के अतिरिक्त ब्राह्राण ग्रन्थों में आध्यातिमक और दार्शनिक मीमांसाएं भी मिलती हैं। यहां यज्ञ केवल कर्मकाण्ड ही नहीं सृषिट-विधा का भी प्रतीक है। यज्ञ को ब्रह्राप्रापित का साधन माना गया है।

4. ब्राह्राण ग्रन्थों का महत्त्व

ब्राह्राणग्रन्थों को वैदिक वा³मय का विशाल ज्ञान कोश माना जाता है। समग्र मूल्यांकन करने पर इनमें इतिहास, धर्म, संस्कृति, प्राचीन विज्ञान, सृषिट-प्रक्रिया, आचारदर्शन, भाषाशास्त्रा आदि के महत्त्वपूर्ण तत्त्व प्राप्त होते हैं। शबरस्वामी, मेधातिथि, वाचस्पति मिश्र, उवट, सायण आदि प्राचीन आचायो± ने मन्त्रा-संहिताओं के साथ ब्राह्राणग्रन्थों को भी वेदरूप स्वीकार किया है। आधुनिक युग में स्वामी दयानन्द सरस्वती और कुछ दूसरे वैदिक विद्वानों ने ब्राह्राण को 'वेद व्याख्यान ग्रन्थ माना है। ब्राह्राणों के व्यापक प्रतिपाध को ध्यान में रखकर इनके महत्त्व को निम्नलिखित आधारों पर स्वीकार किया जाता है-

(1) विविध यज्ञों के विधिविधानों का विस्तृत विवरण इनमें हुआ है।

(2) इनमें अनेक निर्वचन प्राप्त होते हैं जो निरुक्तशास्त्रा का आधार हैं।

(3) ब्राह्राण ग्रन्थों में आख्यान मिलते हैं जिनका विस्तार परवर्ती साहित्य में हुआ है।

(4) ब्राह्राणों में अध्यात्म की प्रतिष्ठा है। इससे ही बाद में उपनिषदों का विकास हुआ है।

(5) सामवेद के ब्राह्राणग्रन्थों में संगीतशास्त्रा के सूत्रा मिलते हैं।

(6) ब्राह्राणग्रन्थों में वैज्ञानिक तथ्यों की बीज रूप में प्रापित होती है।

(7) कृषि, वाणिज्य, रेखागणित, नीतिशास्त्रा, आचारशास्त्रा, मनोविज्ञान आदि अनेक शास्त्राों का पूर्वरूप इनमें मिलता है।

(8) ब्राह्राणों में भारत के प्राचीन शहरों, नदियों आदि के नाम मिलते हैं जिससे इनका भौगोलिक महत्त्व स्थापित होता है।

5.ब्राह्राण ग्रन्थों का विभाजन

आज अनेक ब्राह्राणग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनको वेदानुसार इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-

(अ) ऋग्वेदीय ब्राह्राण - 1. ऐतरेय ब्राह्राण, 2. कौषीतकि ब्राह्राण (या शांखायन ब्राह्राण)

(आ) शुक्लयजुर्वेदीय ब्राह्राण - 3. शतपथ ब्राह्राण

(इ) कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्राण - 4. तैत्तिरीय ब्राह्राण

(र्इ) सामवेदीय ब्राह्राण - 5. पंचविंश ब्राह्राण, 6. षडविंश ब्राह्राण, 7. सामविधान ब्राह्राण, 8. आर्षेय ब्राह्राण, 9. दैवत ब्राह्राण, 10. छान्दोग्य ब्राह्राण,

11. संहितोपनिषद ब्राह्राण, 12. वंश ब्राह्राण, 13. जैमिनीय ब्राह्राण

(उ) अथर्ववेदीय ब्राह्राण - 14. गोपथ ब्राह्राण।

6. प्रमुख ब्राह्राण ग्रन्थों का परिचय

(क) ऐतरेय ब्राह्राण - ऋग्वेद का प्रधान ब्राह्राण 'ऐतरेय है। ऋग्वेद के गुá तत्त्वों का विवेचन इस ब्राह्राण ग्रन्थ में प्राप्त किया जा सकता है। इस ब्राह्राणग्रन्थ का प्रणेता ऋषि ऐतरेय महीदास को माना जाता है। सायण आचार्य द्वारा दी गर्इ आख्यायिका के अनुसार महिदास की माता का नाम 'इतरा था इसलिए इनको 'ऐतरेय नाम की प्रसि)ि मिली। सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्राण में चालीस अध्याय हैं। प्रत्येक पांच अध्यायों को मिलाकर एक 'पंचिका निष्पन्न होती है, जिनकी कुल संख्या इस ग्रन्थ में आठ हैं। अध्याय का अवान्तर विभाजन खण्डों में है। इस ब्राह्राण ग्रन्थ में कुल 285 खण्ड हैं।

ऋग्वेद होता नामक ऋतिवज के कार्य-कलापों का वर्णन करता है। अत: इस ब्राह्राण में सोमयागों के होता-विषयक पक्ष की विशेष मीमांसा की गयी है। होता-मण्डल में सात ऋतिवज होते हैं-होता, मैत्राावरुण, ब्राह्राणच्छंसी, नेष्टा, पोता, अच्छावाक और आग्नीध्र। ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों में ऋग्वेद के मन्त्राों का पाठ करते हैं।

ऐतरेय ब्राह्राण में अगिनष्टोम याग, गवामयन याग, सोमयाग, अगिनहोत्रा, राजसूय यज्ञ आदि का विशेष वर्णन प्राप्त होता है। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृषिट से भी इस ग्रन्थ का महत्त्व है क्योंकि इसमें 'ऐन्द्र महाभिषेक और चक्रवर्ती नरेशों के महाभिषेक का वर्णन है। प्राचीन शासन-प्रणालियों की जानकारी भी यत्रा तत्रा मिलती है। कुछ शासनों के नाम भी दिये गये हैं-साम्राज्य, भौज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, राज्य आदि। राजा के कर्तव्य, अतिथि-सत्कार का महत्त्व और यज्ञ की महिमा ऐतरेय ब्राह्राण से प्रतिपादित होती है। इस ब्राह्राणग्रन्थ में शुन: शेप उपाख्यान प्राप्त होता है जो 'चरैवेति चरैवेति की शिक्षा के लिए अति प्रसि) है।

(ख) शतपथ ब्राह्राण-शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्राणग्रन्थ 'शतपथ सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। इसमें 100 अध्याय होने से इसका यह नाम पड़ा है। जिनमें दर्शपौर्णमास, अगिनहोत्रा, चातुर्मास्य, वाजपेय, राजसूय, अगिनरहस्य, अश्वमेध, पुरुषमेध आदि यागों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। इसके रचयिता वाजसनि के पुत्रा याज्ञवल्क्य माने जाते हैं। वाजसनि के पुत्रा होने से इन्हें 'वाजसनेय कहा जाता है।

महाभारत के शानितपर्व के अनुसार सूर्य से वरदान प्राप्त करके याज्ञवल्क्य ने परिशिष्ट सहित शतपथ ब्राह्राण की रचना की और उसे अपने 100 शिष्यों को पढ़ाया।

शतपथ ब्राह्राण माध्यनिदन और काण्व दोनों शाखाओं में उपलब्ध होता है। माध्यनिदन में 100 अध्याय हैं और काण्व में 104 अध्याय। माध्यनिदन शतपथ ब्राह्राण में 14 काण्ड, 100 अध्याय, 438 ब्राह्राण और 7624 कणिडकाएं हैं। इसके 14 काण्डों में क्रमश: प्रतिपादित मुख्य विषयों को इस प्रकार देखा जा सकता है-

काण्ड 1 - दर्श और पूर्णमास याग

काण्ड 2 - अगिनहोत्रा, पिण्डपितृयज्ञ, चातुर्मास्य आदि।

काण्ड 3 और 4 - सोमयाग।

काण्ड 5 - वाजपेय और राजसूय यज्ञ।

काण्ड 6 - सृषिट-उत्पत्ति, चयन-निरूपण।

काण्ड 7 और 8 - चयन-निरूपण और वेदिनिर्माण।

काण्ड 9 - चयननिरूपण, शतरुæयि होम आदि।

काण्ड 10 - चयननिरूपण, वेदियों का निर्माण।

काण्ड 11 - दर्शपूर्णमास, दाक्षायण यज्ञ, उपनयन, पंच महायज्ञ, स्वाध्याय-विवेचन आदि।

काण्ड 12 - द्वादशाह, संवत्सर सत्रा, ज्योतिष्टोम, सौत्राामणि, प्रायशिचत्त।

काण्ड 13 - अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध, दशरात्रा, पितृमेध।

काण्ड 14 - प्रवग्र्ययाग, ब्रह्राविधा, बृहदारण्यक उपनिषद।

काण्व शतपथ ब्राह्राण में माध्यनिदन शतपथ ब्राह्राण से कुछ क्रम-विन्यास में अन्तर दिखायी देता है। यधपि विषय विवेचन लगभग समान है। इसमें 17 काण्ड, 104 अध्याय, 435 ब्राह्राण और 6806 कणिडकाएं हैं।

शतपथ ब्राह्राण का महत्त्व कर्इ दृषिटयों से आंका जाता है। इसमें यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म घोषित किया गया है। यज्ञ की आध्यातिमक और प्रतीकात्मक व्याख्याएं भी यहां की गयी हैं। प्राचीन भारत के भूगोल, इतिहास, शासन-प्रणाली आदि की भरपूर जानकारी इन ग्रन्थों में उपलब्ध है। अनेक पौराणिक राजाओं और वंशों के नाम यहां मिलते हैं-यथा-जनमेजय, भीमसेन, उग्रसेन, भरत, शकुन्तला, शतानीक, धृतराष्ट्र आदि। इस ब्राह्राण्रगन्थ में ऐसे अनेक आख्यान मिलते हैं जिनका बाद में विस्तार हुआ है जैसे-मनु और श्र)ा का आख्यान, जलप्लावन और मत्स्य की कथा, इन्द्र-वृत्रा-यु), नमुचि और वृत्रा की कथा, पुरूरवा और उर्वशी का आख्यान।

सृषिट-उत्पत्ति का विस्तृत विवरण भी शतपथ ब्राह्राण का एक महत्त्वपूर्ण विषय है।

(ग) तैत्तिरीय ब्राह्राण - कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्राण तैत्तिरीय ब्राह्राण के नाम से प्रसि) है। इसके रचयिता वैशम्पायन के शिष्य आचार्य तित्तिरि है। तित्तिरि ही तैत्तिरीय संहिता के भी प्रणेता ऋषि है। यह ब्राह्राण सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध होता है। शतपथ ब्राह्राण की तरह इसका पाठ भी सस्वर है। यह इसकी प्राचीनता का धोतक है। सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन काण्डों में विभाजित हैं। प्रथम दो काण्डों में आठ-आठ अध्याय अथवा प्रपाठक हैं, जबकि तृतीय काण्ड में 12 अध्याय या प्रपाठक हैं।

इस ब्राह्राणग्रन्थ का विषय अत्यन्त व्यापक है। इसमें अन्याधान, गवामयन, वाजपेय, नक्षत्रोषिट, राजसूय, अगिनहोत्रा, उपहोम, सौत्राामणी, पुरुषमेध आदि का विस्तृत विवेचन है। सोमयागों के अतिरिक्त इसमें इषिटयों और पशुयागों की भी विशद विवेचना मिलती है।

तैत्तिरीय ब्राह्राण के प्रसि) आख्यानों में 'इन्द्र-भरद्वाज-संवाद, मनु और इडा की कथा, नचिकेता का उपाख्यान उल्लेखनीय हैं। सृषिट, यज्ञ और नक्षत्रा विषयक आख्यान भी पर्याप्त संख्या में यहां प्राप्त होते हैं।

(घ) सामवेदीय ब्राह्राण - अन्य वेदों के ब्राह्राणों की तुलना में सामवेद के ब्राह्राणों की संख्या अधिक हैं। सामवेद के आठ ब्राह्राण आज उपलब्ध होते हैं जिनका सायण ने भी उल्लेख किया है-

1. ताण्डय ब्राह्राण (पंचविंश)

2. षडविंश

3. सामविधान

4. आर्षेय

5. देवताध्याय

6. उपनिषद (मन्त्रा ब्राह्राण और छान्दोग्य उपनिषद)

7. संहितोपनिषद

8. वंश ब्राह्राण

ये कौथुम और राणायनीय शाखाओं से सम्ब) हैं। जैमिनीय शाखा से सम्ब) तीन ब्राह्राण हैं-

1. जैमिनीय ब्राह्राण

2. जैमिनीय आर्षेय ब्राह्राण

3. जैमिनीय उपनिषद ब्राह्राण

उपयर्ुक्त 8 ब्राह्राणों में से प्रथम और द्वितीय अर्थात ताण्डय और षडविंश को ही पूर्ण ब्राह्राण का स्थान प्राप्त है। शेष सामविधान आदि को 'अनुब्राह्राण कहा जाता है।

(³) गोपथ ब्राह्राण - अथर्ववेद का एकमात्रा ब्राह्राण गोपथ ब्राह्राण है। इसके रचयिता गोपथ ऋषि माने जाते हैं। इसके दो भाग हैं-पूर्व गोपथ और उत्तर गोपथ। दोनों भागों में 11 प्रपाठक हैं। प्रत्येक प्रपाठक कणिडकाओं में विभक्त है। पूर्वगोपथ में 135 और उत्तर गोपथ में 123 कणिडकाएं हैं। गोपथ ब्राह्राण का विवेच्य विषय भी अन्य ब्राह्राणों की तरह याज्ञिक प्रक्रियाओं को स्पष्ट करना है। ग्रन्थ के पूर्वभाग में ओम की महिमा का विस्तृत विवरण है। गायत्राी मन्त्रा के विषय में मौदगल्य और मैत्रोय के संवाद महत्त्वपूर्ण हैंं। ब्रह्राचर्य का महत्त्व, ऋतिवजों की दीक्षा का विवेचन, यज्ञ-प्रक्रिया के वैज्ञानिक रहस्य, यज्ञ के देवता और उनके फलों का विवचेन तथा अश्वमेघ, पुरुषमेघ, अगिनष्टोम आदि प्रसि) यज्ञों का वर्णन इस ब्राह्राण ग्रन्थ में विशेष रूप से प्राप्त होता है। गोपथ ब्राह्राण के आख्यान भी ऐतिहासिक दृषिट से महत्त्वपूर्ण हैं। 'ब्राह्राण साहित्य अत्यन्त विशाल है। वैदिक यागानुष्ठानों के सूक्ष्म विवरण को प्रस्तुत करने के अतिरिक्त तत्युगीन धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक औरसांस्कृतिक मान्यताओं को प्रकाशित करने के कारण यह साहित्य वैदिक वा³मय में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

(2) आरण्यक ग्रन्थ

1. 'आरण्यक शब्द का अर्थ

आरण्यक ग्रन्थों का आध्यातिमक महत्त्व ब्राह्राण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। ये अपने नाम के अनुसार ही अरण्य या वन से सम्ब) हैं। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे 'आरण्यक कहते हैं-अरण्ये भवम आरण्यकम। आरण्यक ग्रन्थों का प्रणयन प्राय: ब्राह्राणों के पश्चात हुआ है क्योंकि इसमें दुर्बोध यज्ञ-प्रक्रियाओं को सूक्ष्म अध्यात्म से जोड़ा गया है। वानप्रसिथयों और संन्यासियों के लिए आत्मतत्त्व और ब्रह्राविधा के ज्ञान के लिए मुख्य रूप से इन ग्रन्थों की रचना हुर्इ है-ऐसा माना जाता है।

2. आरण्यक ग्रन्थों का विवेच्य विषय

आरण्यक ग्रन्थ वस्तुत: ब्राह्राणों के परिशिष्ट भाग हैं और उपनिषदों के पूर्वरूप। उपनिषदों में जिन आत्मविधा, सृषिट और तत्त्वज्ञान विषयक गम्भीर दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन है, उसका प्रारम्भ आरण्यकों में ही दिखलायी देती है।

आरण्यकों में वैदिक यागों के आध्यातिमक और दार्शनिक पक्षों का विवेचन है। इनमें प्राणविधा का विशेष वर्णन हुआ है। कालचक्र का विशद वर्णन तैत्तिरीय आरण्यक में प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत का वर्णन भी इस आरण्यक में सर्वप्रथम मिलता है।

3. आरण्यक ग्रन्थों का महत्त्व

वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उदघाटन किया गया है। इनमें मुख्य रूप से आत्मविधा और रहस्यात्मक विषयों के विवरण हैं। वन में रहकर स्वाध्याय और धार्मिक कायो± में लगे रहने वाले वानप्रस्थ-आश्रमवासियों के लिए इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविधा की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है।

प्राणविधा के अतिरिक्त प्रतीकोपासना, ब्रह्राविधा, आध्यातिमकता का वर्णन करने से आरण्यकों की विशेष महत्ता है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति के कारण भी आरण्यक ग्रन्थ उपोदय हंै। वस्तुत: ये ग्रन्थ ब्राह्राण ग्रन्थों और उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी जैसे हैं, क्योंकि इनसे उपनिषदों के प्रतिपाध विषय और भाषा शैली के विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।

4. आरण्यकग्रन्थों का विभाजन

आरण्यकों का वेदानुसार परिचय इस प्रकार है-

(अ) ऋग्वेदीय आरण्यक - 1ण् ऐतरेय आरण्यक, 2ण् कौषीतकि आरण्यक (या शांखायन आरण्यक)

(आ) शुक्लयजुर्वेदीय आरण्यक - 3ण् बृहदारण्यक

(इ) कृष्णयजुर्वेदीय आरण्यक - 4ण् तैत्तिरीय आरण्यक, 5ण् मैत्राायणीय आरण्यक

(र्इ) सामवेदीय आरण्यक - 6ण् तलवकार आरण्यक, 7ण् छान्दोग्य आरण्यक।

यधपि अथर्ववेद का पृथक से कोर्इ आरण्यक प्राप्त नहीं होता है, तथापि उसके गोपथ ब्राह्राण में आरण्यकों के अनुरूप बहुत सी सामग्री मिलती है।

5. प्रमुख आरण्यक ग्रन्थों का परिचय

(क) ऐतरेय आरण्यक - यह ऐतरेय ब्राह्राण का परिशिष्ट भाग है। इसमें पांच भाग हैं। इन भागों को आरण्यक या प्रपाठक कहते हैं। ये पुन: अध्यायों में विभक्त हैं।

इसके आरण्यकों का वण्र्य विषय इस प्रकार है-

आरण्यक 1 - महाव्रत वर्णन

आरण्यक 2 - निष्केवल्य, प्राणविधा और पुरुष का वर्णन, ऐतरेय उपनिषद

आरण्यक 3 - संहितोपनिषद

आरण्यक 4 - महानाम्नी ऋचाएं

आरण्यक 5 - निष्केवल्य शस्त्रा का वर्णन।

प्राणविधा, आत्मा, आचारसंहिता आदि सामान्य रूप से इस आरण्यक के विषय कहे जा सकते हैं।

(ख) बृहदारण्यक - यह शुक्ल यजुर्वेदीय आरण्यक है। इसको आरण्यक से अधिक उपनिषद के रूप में मान्यता प्राप्त है। अत: इसका विवरण उपनिषदों में दिया गया है।

(ग) तैत्तिरीय आरण्यक - यह कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का आरण्यक है। इसमें 10 प्रपाठक हैं। प्रपाठकों के उपविभाग अनुवाक हैं। प्रपाठकों का नाम उनके पहले पद के आधार पर रखा गया है। 10 प्रपाठक है-भद्र, सह वै, चिति, यु×जते, देव वै, परे, शिक्षा, ब्रह्राविधा, भृगु और नारायणीय।

तैत्तिरीय आरण्यक में पंच महायज्ञ, स्वाध्याय, अभिचार-प्रयोग, शब्दों के निर्वचन आदि विशेष रूप से प्रतिपादित हैं। कुरुक्षेत्रा, खाण्डववन आदि भौगोलिक वर्णन भी इसमें मिलते हैं। तैत्तिरीय और महानारायणीय नामक दो उपनिषदों का अन्तर्भाव इस आरण्यक में है।

(घ) तलवकार आरण्यक - यह सामवेद की जैमिनिशाखा का आरण्यक है - इसको जैमिनीय उपनिषद ब्राह्राण भी कहते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। अध्यायों के अन्तर्गत अनुवाक और खण्ड हैं। तलवकार आरण्यक के मुख्य प्रतिपाध विषय हैं - सृषिट-प्रक्रिया, सामगान, गायत्राी और ओम की महिमा। कतिपय भाषाशास्त्राीय एवं देवशास्त्राीय तथ्यों का उल्लेख भी इसमें मिलता है।

(3) उपनिषद ग्रन्थ

1. 'उपनिषद शब्द का अर्थ

वैदिक वा³मय का अनितम भाग होने से उपनिषदों को 'वेदान्त भी कहते हैं। या फिर सम्पूर्ण वेदों का सार होने से ही ये 'वेदान्त हैं। 'उपनिषद शब्द की निष्पत्ति 'उप और 'नि उपसर्ग के साथ सद धातु से हुर्इ है, इसलिए इसका शाबिदक अर्थ है-तत्त्वज्ञान के लिए गुरु के समीप सविनय बैठना। सद धातु के अन्य तीन अर्थ हैं-विशरण (विनाश), गति (प्राप्त करना) और अवसादन (शिथिल होना)। अत: 'उपनिषद उस विधा का नाम है, जिसके अनुशीलन से मुमुक्षुओं की अविधा का विनाश होता है, ब्रह्रा की उपलबिध होती है और दु:ख शिथिल हो जाते हैं। गौण अर्थ में यह शब्द पूर्वोक्त ब्रह्राविधा के प्रतिपादक ग्रन्थविश्ेाष का भी बोधक है और यहां इसी अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है।

2. उपनिषद ग्रन्थों का विवेच्य विषय

वैदिक ग्रन्थों में जो दार्शनिक और आध्यातिमक चिन्तन यत्रा-तत्रा दिखार्इ देता है, वही परिपक्व रूप में उपनिषदों में निब) हुआ है। उपनिषदों में मुख्य रूप से 'आत्मविधा का प्रतिपादन है, जिसके अन्तर्गत ब्रह्रा और आत्मा के स्वरूप, उसकी प्रापित के साधन और आवश्यकता की समीक्षा की गयी है। आत्मज्ञानी के स्वरूप, मोक्ष के स्वरूप आदि अवान्तर विषयों के साथ ही विधा, अविधा, श्रेयस, प्रेयस, आचार्य आदि तत्सम्ब) विषयों पर भी भरपूर चिन्तन उपनिषदों में उपलब्ध होता है।

उपनिषदों में सर्वत्रा समन्वय की भावना है। दोनों पक्षों में जो ग्राá है उसे ले लेना चाहिए। इसी दृषिट से ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग, विधा और अविधा, संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश है। उपनिषदों में कभी-कभी ब्रह्राविधा की तुलना में कर्मकाण्ड को बहुत हीन बताया गया है। र्इश आदि कर्इ उपनिषदें एकात्मवाद का प्रबल समर्थन करती हैं-जो सब प्राणियों में एकत्व की अनुभूति करता है, वह शोक और मोह से परे हो जाता है।

3.उपनिषद-ग्रन्थों का महत्त्व

वैदिक धर्म के मूल तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाली 'प्रस्थानत्रायी में ब्रह्रासूत्रा और गीता के साथ उपनिषदों को भी गिना जाता है। कुछ सीमा तक ब्रह्रासूत्रा और गीता उपनिषदों पर आधारित हैं। भारत की समग्र दार्शनिक चिन्तनधारा का मूल स्रोत उपनिषद-साहित्य ही है। इनसे दर्शन की जो विभिन्न धाराएं निकली हैं, उनमें 'वेदान्त दर्शन का अद्वैत सम्प्रदाय प्रमुख है। 'र्इशावास्योपनिषद को सम्पूर्ण गीता का मूल माना जा सकता है। मुण्डक उपनिषद, केन उपनिषद, कठ उपनिषद, माण्डूक्य उपनिषद आदि कुछ दूसरे महत्त्वूपर्ण उपनिषद कर्इ परवर्ती दार्शनिक सि)ान्तों के स्रोत हैं। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान और कर्तव्यशास्त्रा का प्रभाव भारतीय दर्शन के अतिरिक्त धर्म और संस्कृति पर भी परिलक्षित होता है।

उपनिषदों का महत्त्व उनकी रोचक प्रतिपादन शैली के कारण भी है। कर्इ सुन्दर आख्यान और रूपक उपनिषदों में मिलते हैं।

4. उपनिषद-ग्रन्थों की संख्या

उपनिषदों की संख्या के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद हैं। इनकी संख्या 10 से लेकर 200 तक बतार्इ जाती है। मुकितकोपनिषद में उपनिषदों की संख्या 108 बतार्इ गर्इ है, जिनमें 10 उपनिषद ऋग्वेद से सम्ब) हैं, 19 शुक्लयजुर्वेद से सम्ब) हैं, 32 कृष्णयजुर्वेद से सम्ब) हैं, 16 सामवेद से सम्ब) हैं, और 31 अथर्ववेद से सम्ब) हैं। परन्तु आठवीं शताब्दी र्इ0 में आदि श³कराचार्य ने जिन उपनिषदों पर भाष्य लिखा है, उनको ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक माना जाता है। मुकितकोपनिषद में दस मुख्य उपनिषदों को गिनाया गया है-1ण् र्इश, 2ण् केन, 3ण् कठ, 4ण् प्रश्न, 5ण् मुण्डक, 6ण् माण्डूक्य, 7ण् तैत्तिरीय, 8ण् ऐतरेय, 9ण् छान्दोग्य, और 10ण् बृहदारण्यक।

र्इश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य -तित्तिरि:।

ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं च दश।।

आचार्य शंकर ने इन दस उपनिषदों पर भाष्य लिखा है और तीन कौषीतकि, श्वेताश्वतर और मैत्राायणीय उपनिषदों का भी अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है। अत: प्राचीन उपनिषदों के रूप में इन तेरह उपनिषदों को ही प्रामाणिक बताया जाता है। उपनिषद-विद्वान हयूम ने इन तेरह उपनिषदों का ही अंग्रेजी में अनुवाद किया है।

5. उपनिषद-ग्रन्थों का वर्गीकरण

उपनिषदों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जाता है जिनमें निम्नलिखित दो दृषिटकोण अधिक प्रचलित हैं-

(अ) वेदानुसार वर्गीकरण

प्रत्येक उपनिषद का किसी न किसी वेद से सम्बन्ध है। अत: 108 उपनिषदों को इस प्रकार बांटा जा सकता है-

1. ऋग्वेदीय उपनिषद - ऐतरेय, कौषीतकि आदि 10 उपनिषद।

2. शुक्लयजुर्वेदीय उपनिषद - र्इश, बृहदारण्यक आदि 19 उपनिषद।

3. कृष्णयजुर्वेदीय उपनिषद - कठ, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर आदि 32 उपनिषद।

4. सामवेदीय उपनिषद - केन, छान्दोग्य आदि 16 उपनिषद।

5. अथर्ववेदीय उपनिषद - प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य आदि 31 उपनिषद।

(आ) विषयानुसार वर्गीकरण

108 उपनिषदों को विषयानुसार छह भागों में बांटा जा सकता है-

1. वेदान्त के सि)ान्तों पर निर्भर 24 उपनिषद

2. योग के सि)ान्तों पर निर्भर 20 उपनिषद

3. सांख्य के सि)ान्तों पर निर्भर 17 उपनिषद

4. वैष्णव सि)ान्तों पर निर्भर 14 उपनिषद

5.शैव सि)ान्तों पर निर्भर 15 उपनिषद

6. शाक्त और अन्य सि)ान्तों पर निर्भर 18 उपनिषद।

विभिन्न विषयों पर इतनी बड़ी संख्या में उपनिषदों के होने का प्रधान कारण यही रहा है कि सभी दर्शनों और मतों के अनुयायियों ने अपने-अपने सि)ान्तों के प्रवर्तन के लिए उपनिषदों की सत्ता को महत्त्वपूर्ण माना है।

6. प्रमुख उपनिषद ग्रन्थों का परिचय

1. ऐतरेय उपनिषद - ऐतरेय आरण्यक के द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ अध्याय से षष्ठ अध्याय तक ऐतरेय उपनिषद कहलाता है। इसमें सृषिट-तत्त्व, पुनर्जन्म और प्रज्ञा रूपी मुख्य तत्त्वों का विवेचन किया गया है। यहां मुख्यत: चैतन्य के रूप को प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि समस्त चेतन और अचेतन वस्तुओं में एक ही चैतन्य विधमान है। इस प्रकार यह उपनिषद आदर्शवाद या चिदवाद का प्रतिपादक सि) होता है।

2. कौषीतकि उपनिषद - ऋग्वेद के कौषीतकि आरण्यक के तृतीय एवं षष्ठ अध्याय को कौषीतकि उपनिषद कहते हैं। इसमें चार अध्यायों में देवयान और पितृयान का विस्तृत वर्णन है। प्राणतत्त्व पर सूक्ष्म विचार किया गया है तथा दार्शनिक सिद्वांतों का उल्लेख मिलता है। समस्त संसार को अर्थात सदसत कार्यो± को आत्मा का निमित्तमात्रा बताया गया है।

3. र्इशावास्योपनिषद - 'र्इशा वास्यमिदं सर्वम के आधार पर ही इस उपनिषद का नाम पड़ा है। र्इशावास्योपनिषद माध्यनिदनशाखीय यजुर्वेदसंहिता का चालीसवां अध्याय है। यह उपनिषद ज्ञान-दृषिट से कर्म की उपासना का रहस्य बताता है। यह उपनिषद 18 पधों में निष्काम भाव से कर्म-सम्पादन का भी उपदेश देता है। यह उपनिषद स्पष्ट रूप से अद्वैत भावना का प्रतिपादन करता है। इस उपनिषद में अद्वैत भावना, ब्रह्रा स्वरूप, विधा-अविधा, संभूति-असंभूति, सिथतप्रज्ञ आदि का विवेचन है। उपनिषद के द्वितीय मन्त्रा में प्रतिपादित कर्मयोग का सि)ांत ही गीता का मुख्य अंश बना है। यहां आत्महत्या की भी घोर निन्दा है। ज्ञान की प्रशंसा करते हुए ज्ञान के द्वारा अमृततत्त्व की प्रापित का उल्लेख है-विधया•मृतमश्नुते।

4. बृहदारण्यकोपनिषद - यह विपुलकाय एवं प्राचीतनम उपनिषद है। शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्राण के अनितम छ: अध्याय ही बृहदारण्यकोपनिषद नाम से प्रसि) है। नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें आरण्यक एवं उपनिषद दोनों ही भाग मिले हैं। यह उपनिषद याज्ञवल्क्य के उदात्त अध्यात्मज्ञान को प्रतिपादित करते हुए दार्शनिक विषयों को प्रस्तुत करता है। इसमें मृत्यु, प्राण एवं सृषिट संबंधी सि)ांत हैं तथा नीतिपरक, सृषिटविषयक एवं परलोक-संबंधी तथ्यों का विवेचन भी प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व के निरूपण में याज्ञवल्क्य और मैत्रायी का संवाद विशेष महत्त्व रखता है। यहां 'द अक्षर की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए प्रजापति ने देवों, मानवों और दानवों को क्रमश: इनिद्रयों के दमन, दान और दया का उपदेश दिया है।

5. कठोपनिषद - कठोपनिषद कृष्णयजुर्वेद की कठ शाखा से संबंध है। इसमें यमराज नचिकेता के विशेष आग्रह पर अद्वैत तत्त्व का मार्मिक उपदेश देते हैं। इसमें दो अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वलिलयां हैं। यहां ब्रह्रा के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि अनित्यों में नित्य, अचेतनों में चेतन वह एक ब्रह्रा सब प्राणियों की आत्मा में निवास करता है। यह उपनिषद काव्यात्मक शैली में उच्चतम दार्शनिक तथ्यों को प्रतिपादित करने के कारण अत्यन्त प्रसि) है।

6. तैत्तिरीयोपनिषद - तैत्तिरीय आरण्यक के सप्तम से नवम पर्यन्त प्रपाठक तैत्तिरीय उपनिषद के रूप में जाने जाते हैं। इस उपनिषद के सप्तम प्रपाठक को शिक्षावल्ली, अष्टम प्रपाठक को ब्रह्राानन्दवल्ली और नवम प्रपाठक को भृगुवल्ली कहते हैं। इसमें उपासना, शिष्य और गुरु संबंधी शिष्टाचार, ब्रह्रा-विधा, ब्रह्रा-प्रापित के मुख्य साधन आदि का प्रतिपादन है।

7. श्वेताश्वतरोपनिषद - श्वेताश्वतरोपनिषद शैव धर्म के गौरव को प्रतिपादित करता है। इसमें योग और सांख्य दर्शनों के सि)ांतों का विशद विवेचन है। गीता में क्षर, अक्षर, प्रधान आदि तत्त्वों का समावेश इसी उपनिषद से किया गया है। इसमें र्इश्वर और गुरु-भकित का आदेश दिया गया है।

8. केनोपनिषद - 'केनेषितं पतति के आधार पर ही केनोपनिषद नाम पड़ा है। इसे तलवकार उपनिषद के नाम से भी जाना जाता है। यह उपनिषद लघुकाय है। इसके केवल चार खण्ड हैं-दो पध में और दो गध में। इसमें सगुण-निर्गुण ब्रह्रा का भेद, ब्रह्रा के रहस्यमय रूप तथा ब्रह्रा की सर्वशकितमता एवं देवताओं की अल्पशकितमत्ता का विवेचन है।

9. छान्दोग्योपनिषद - यह उपनिषद सामवेद की कौथुम शाखा से सम्ब) है। छान्दोग्योपनिषद अध्यात्म ज्ञान, अनेक विधाओं, ओंकार, गायत्राी-वर्णन और सृषिट विषयक तथ्यों के विशद वर्णन के कारण प्रौढ़ और प्रामाणिक है। इस उपनिषद में नाना प्रकार की उपासनाओं का उल्लेख मिलता है-गायत्राी उपासना, प्राणोपासना इत्यादि। यहां विधा, श्र)ा और योग की आवश्यकता प्रधानतया प्रतिपादित की गर्इ है।

10. प्रश्नोपनिषद - प्रश्न एवं उत्तर रूप से निब) होने के कारण इसे प्रश्नोपनिषद कहते हैं। इसमें अक्षर ब्रह्रा को ही जगत की प्रतिष्ठा बताया गया है। इसमें प्रजा की उत्पत्ति, प्राणों की उत्पत्ति, स्वप्न, जागरण, षोडश कला-सम्पन्न पुरुष आदि की विवेचना है।

11. मुण्डकोपनिषद - यह उपनिषद अथर्ववेद की शौनक शाखा से सम्ब) है। सृषिट की उत्पत्ति तथा ब्रह्रा तत्त्व का चिन्तन ही इसका वण्र्य विषय है। यहां कर्मकाण्ड की हीनता को प्रतिपादित करने के पश्चात ब्रहज्ञान की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया गया है। द्वैतवाद का प्रधान स्तम्भ रूप मन्त्रा इस उपनिषद में आता है-'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षम। 'वेदान्त शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग यहीं हुआ है। सांख्य और वेदान्त के तथ्यों का प्रभाव भी इसमें दृषिटगोचर होता है।

12. माण्डूक्योपनिषद - यह अत्यन्त लघुकाय उपनिषद है, परन्तु इसमें अत्यन्त विशाल सि)ान्त को प्रतिपादित किया गया है। इसमें ओंकार और आत्मा का मार्मिक एवं रहस्यमय विवेचन है। इसमें चार मानसिक अवस्थाओं की कल्पना की गर्इ है-जागृति, स्वप्न, सुषुपित तथा तुरीय और इनके अनुरूप ही परमात्मा के चार पक्ष भी बताये गए हैं-वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ तथा प्रप×चोपशम रूपी शिव। इनमे ंसे अनितम ही चैतन्य आत्मा का विशु) रूप है।

13. मैत्राायणी उपनिषद - मैत्राायणी उपनिषद कृष्णयजुर्वेद से सम्ब) है। इसमें सांख्य दर्शन के तत्त्व तथा योग के षड³ग का वर्णन है। यह उपनिषद मुख्यत: गधात्मक है, कहीं-कहीं पध भी मिलते हैं। इस उपनिषद के सप्तम प्रपाठक में र्इश और कठ से दो-दो उदधरण मिलते हैं, जिसके कारण मैत्राायणी उपनिषद त्रायोदश उपनिषदों में अर्वाचीन प्रतीत होता है।


4 पाठ-4 वेद³ग-साहित्य






पाठ-4


वेद³ग-साहित्य


'वेदा³ग वैदिक वा³मय के अनितम भाग हैं। वेदा³ग-विधा अति प्राचीन है, क्योंकि यास्क ने निरुक्त के प्रारम्भ में लिखा है कि अति प्राचीनकाल में ऋषियों ने वेदों के साथ वेदा³गों का प्रणयन भी किया था।


1. वेदा³ग का अर्थ


वेदा³ग का अर्थ है-वेद का अ³ग (वेदस्य अ³गानि)। 'अ³ग वे उपकारक तत्त्व होते हैं, जिनसे किसी के स्वरूप का बोèा होता है। अत: वेदों के वास्तविक अर्थ के ज्ञान के लिए जिन साèानों की आवश्यकता थी, उन्हें 'वेदा³ग नाम दिया गया।


2. वेदा³ग का महत्त्व


वेदा³गों से वेद के मन्त्राों का अर्थ, उनकी व्याख्या और विनियोग आदि का ज्ञान होता है। वैदिक शब्दों का शुद्ध उच्चारण किस प्रकार किया जाए इसके लिए शिक्षा-ग्रन्थों की रचना हुर्इ। शब्दों की व्युत्पत्ति, स्वर और अर्थ के ज्ञान के लिए व्याकरण तथा प्रतिशाख्य ग्रंथों की रचना हुर्इ। वैदिक छन्दों की रचना और उच्चारण को जानने के लिए छन्द:शास्त्रा का प्रणयन हुआ। शब्द की रचना और उनमें निहित अर्थ को जानने के लिए निरुक्त जैसे ग्रन्थों की रचना हुर्इ। यज्ञ का समय, मुहूर्त आदि की जानकारी के लिए ज्योतिष शास्त्रा की रचना हुर्इ। यज्ञ की सम्पूर्ण विèाि और यज्ञ की वेदि एवं उसके आकार आदि के निर्देशन के लिए कल्प ग्रन्थों का प्रणयन किया गया। इस प्रकार सभी वेदा³ग ग्रन्थ किसी न किसी रूप में वेद के स्वरूप और अर्थ के बोèा में सहायक हैं।

वेदा³गों की रचना का काल वैदिक वा³मय का उत्तरवर्ती काल माना जाता है। अèािकतर वेदा³ग ग्रन्थों की रचना 1500 र्इ0 पूर्व से 500 र्इ0 पूर्व के बीच में हुर्इ है।

मुण्डकोपनिषद में आचार्य अंगिरा ने शौनक मुनि को छह वेदा³गों के नाम बताये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। छहों वेदा³गों का सर्वप्रथम उल्लेख मुण्डक उपनिषद में अपरा विधा के अन्तर्गत चार वेदों के नाम के बाद हुआ है। पाणिनीय शिक्षा में वेद-पुरुष के छह अंगों के रूप में छह वेदा³गों का वर्णन हुआ है-छन्द वेदपुरुष के पैर हैं, कल्प हाथ हैं, ज्योतिष नेत्रा हैं, निरुक्त कान हैं, शिक्षा नासिका है और व्याकरण मुख है।

छन्द: पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पो•थ पठयते।


ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रामुच्यते।


शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम।


तस्मात सा³गमèाीत्यैव ब्रहमलोके महीयते।।


-पा0 शिक्षा 41.42

1. शिक्षा

'शिक्षा का अभिप्राय है-स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण की शिक्षा देना। पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है कि बिल्ली जिस प्रकार अपने बच्चे को दांत से पकड़ती है, न तो बच्चे गिरते हैं और न उन्हें दांत गड़ते हैं, उसी प्रकार संतुलन बनाये रखकर अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए। सम्यक उच्चारण के लिए मन्त्राों के साथ लगे उदात्त आदि स्वरों का उच्चारण आवश्यक है। वेदाèययन में शुद्ध उच्चारण पर बहुत बल दिया जाता है। 'शिक्षा वेदा³ग का निरूपण उपनिषद काल से भी प्रारम्भ हो जाता है।

तैत्तिरीय उपनिषद की 'शिक्षावल्ली में शिक्षा के छह नाम दिये गये हैं : वर्ण, स्वर, मात्राा, बल, साम, और सन्तान।

1. वर्ण (या èवनियां) - वेदों में 52 वर्ण èवनियां प्राप्त होती हैं : स्वर 13, स्पर्श 27, य, र, ल, व, श, ष, स, ह-8, विसर्ग, अनुस्वार, जिहवामूलीय और उपèमानीय 4 त्र 52। पाणिनीय शिक्षा में वणो± की संख्या 63 मानी गयी है।

2. स्वर - स्वर तीन हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित।

3. मात्राा - स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्राा कहते हैं। ये तीन हैं-हृस्व, दीर्घ और प्लुत। हृस्व की एक मात्राा, दीर्घ की 2 मात्राा और प्लुत की 3 मात्राा होती है।

4. बल - वणो± के उच्चारण में होने वाले प्रयत्न और उसके उच्चारण स्थान को 'बल कहते हैं। प्रयत्न 2 हैं-आम्यन्तर और बाहय। स्थान 8 हैं-कण्ठ, तालु, जिहवा, दन्त आदि।

5. साम - साम का अभिप्राय है समविèाि से स्पष्ट और सुस्वर उच्चारण करना। वणो± के स्पष्ट उच्चारण के लिए, किसी वर्ण को èाीरे, या शीघ्रता से, या बिना अर्थ जाने न बोलेंं।

6. सन्तान - संèािनियमों को जानना और उनका यथास्थान प्रयोग करना आवश्यक है। सन्तान का अर्थ है संहितापाठ और पदपाठ में प्रयुक्त शब्दों में संèाि-नियमों को लगाना।


पाणिनीय शिक्षा में पाठक के छह गुण गिनाये गये हैं-


मèाुर èवनि से बोलना (माèाुर्य);


अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण (अक्षर व्यकित);


पदों को पृथक-पृथक करके बोलना (पदच्छेद);


स्वर से बोलना (सुस्वर);


शानित से बोलना (èौर्य);


लय के साथ बोलना (लयसमर्थ)।

इसके साथ ही पाठक के दोष भी बताये गये हैं जैसे शीघ्रता से बोलना, बोलते समय सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ़ना, अर्थज्ञान के बिना बोलना और अèाूरे मन्त्रा को बोलना।

शिक्षा ग्रन्थ

उपलब्èा शिक्षा-ग्रन्थों की संख्या 34 है। पाणिनीय शिक्षा, नारदीय शिक्षा, याज्ञवल्क्य शिक्षा, व्यास शिक्षा, पाराशरी शिक्षा, वासिष्ठी शिक्षा, कात्यायनी शिक्षा आदि उल्लेखनीय शिक्षा-ग्रन्थ हैं। ये शिक्षाएं जिनके नामों से सम्बद्ध हैं, वे इनके रचयिता नहीं है। इनकी रचना का श्रेय उनके शिष्यों को है।


'प्रतिशाख्य ग्रन्थ शिक्षा वेदा³ग के प्राचीनतम प्रतिनिèाि हैं। 'प्रातिशाख्य नाम से ही स्पष्ट है कि प्रत्येक वेद का अपना प्रातिशाख्य होना चाहिए। वेद का सांगोपांग व्याकरण प्रातिशाख्य नहीं है, अपितु इनमें वर्णविचार, पदविचार, संèाियां, स्वर-प्रक्रिया आदि का विचार किया जाता है। ऋकप्रातिशाख्य, वाजसनेयि-प्रातिशाख्य, तैत्तिरीयप्रातिशाख्य, पुष्पसूत्रा, ऋक तन्त्रा, अथर्ववेदप्रातिशाख्यसूत्रा आदि कुछ मुख्य प्रातिशाख्य हैें।

2.कल्प

वेदा³गों में कल्प का नितान्त महत्त्वपूर्ण और प्राथमिक स्थान है। कल्प का अर्थ है-वेद में विहित कमो± की क्रमपूर्वक व्यवसिथत कल्पना करने वाला शास्त्रा। सायण की परिभाषा के अनुसार जिन ग्रन्थों में यज्ञ सम्बन्èाी विèाियों का समर्थन या प्रतिपादन किया जाता है उन्हें 'कल्प कहते हैं। विष्णुमित्रा की व्याख्या के अनुसार जिन ग्रन्थों में वैदिक कमो± का सांगोपांग विवेचन किया जाता है उन्हें 'कल्प कहते हैं। तात्पर्य है कि वैदिक ग्रन्थों में जिन यज्ञ-यागादि तथा उपनयन, विवाह आदि कमो± का प्रतिपादन किया गया है, उन्हीं का क्रमबद्ध विवरण करने वाले सूत्रा ग्रन्थ 'कल्प कहलाते हैं। ये ग्रन्थ सूत्रा रूप में लिखे गये हैं, इसलिये इन्हें 'सूत्रा भी कहते हैं।
कल्पसूत्राों का महत्त्व अनेक दृषिटयों से आंका जाता है। शास्त्राीय दृषिट से ये ग्रन्थ ब्राहमणों और आरण्यक ग्रन्थों को जोड़ने वाली कड़ी हैं। बड़े यागों की विèाियों को संक्षेप में सूत्रा रूप में बताने से इनका विशेष महत्त्व है। सामाजिक दृषिट से कल्पसूत्राों की महत्ता स्वीकार योग्य है, क्योंकि इनके विवरणों द्वारा तत्कालीन प्राचीन परम्पराओं, मान्यताओं, रुढि़यों आदि का ज्ञान होता है। विवाह आदि संस्कारों की विèाियों की प्राचीन पद्धतियों की जानकारी गृáसूत्राों से होती है। èार्मसूत्राों से तत्कालीन नैतिक मूल्यों का ज्ञान होता है। ये स्मृति ग्रन्थों के पूर्वरूप माने जा सकते हैें। कल्पसूत्राों की भाषा सरल और संक्षिप्त है। इनमें हमें कर्मकाण्ड के विकास का इतिहास देखने को मिलता है।


कल्पसूत्राों के भेद


कल्पसूत्रा मुख्यत: चार प्रकार के होते हैं-


1. श्रौतसूत्रा - जिनमें ब्राह्राण ग्रन्थों में वर्णित और श्रौत अगिन में किये जाने वाले यज्ञ-यागों का वर्णन मिलता है, जैसे-दर्शपूर्णमास, अग्न्याèाान, अगिनहोत्रा, चातुर्मास्य आदि।


2. गृहयसूत्रा - जिनमें गृहागिन में होने वाले यागों का वर्णन है, जैसे विवाह, उपनयन, अन्त्येषिट आदि।


3. èार्मसूत्रा - जिनमें चारों वणो± तथा चारों आश्रमों के कर्तव्यों, विशेषत: राजा के कर्तव्यों का प्रतिपादनहै।


4. शुल्बसूत्रा - जिनमें यज्ञवेदी आदि के निर्माण का वर्णन है।

इन सभी सूत्रा ग्रन्थों को वेदानुसार विभाजित किया जाता है।
इन चारों प्रकार के सूत्राग्रन्थों में अनेक ग्रन्थों का समावेश किया जाता है। आश्वलायन श्रौतसूत्रा, आश्वलायन गृáसूत्रा, कात्यायन श्रौतसूत्रा, पारस्कर गृáसूत्रा, बौèाायन श्रौतसूत्रा, मानव श्रौतसूत्रा, आपस्तम्ब कल्पसूत्रा, आस्तम्ब èार्मसूत्रा, वसिष्ठ èार्मसूत्रा आदि अनेकानेक ग्रन्थों से कल्प साहित्य अत्यन्त समृद्ध है।
3. व्याकरण
व्याकरण नामक वेदा³ग पद के स्वरूप और उसके अर्थ का प्रमुख निर्णायक है। इसके बिना प्रकृति और प्रत्यय का विश्लेषण नहीं हो सकता। तभी व्याकरण की परिभाषा के अन्तर्गत कहा जाता है कि 'व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम। अत: व्याकरण नामक वेदा³ग पद-पदार्थ, वाक्य-वाक्यार्थ की अभिव्यकित और प्रकृति-प्रत्यय के विश्लेषण का साèान है।

पाणिनीय शिक्षा में व्याकरण को वेद पुरुष का मुख कहा गया है। जिस प्रकार शरीर में मुख सौन्दर्य, भावाभिव्यकित और गरिमा का प्रतीक है, उसी प्रकार व्याकरण शास्त्रा शब्दार्थज्ञान और शब्द की सुन्दरता के ज्ञान का साèान है।
वररुचि ने अपने वार्तिक में व्याकरण के पांच प्रयोजन बताए हैं-
1. वेद की रक्षा
2.ऊह - नये पदों की कल्पना और यथास्थान विभकित-परिवर्तन
3. आगम
4. लघु (संंक्षेप में शब्द-ज्ञान)
5. सन्देह-निवारण
पत×जलि ने अपने महाभाष्य में तेरह प्रयोजन बताएं हैं जिनमें 'अशुद्ध शब्दों के प्रयोग से बचना एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है।
व्याकरण के आचार्य और परम्परा
संस्कृत व्याकरण की परम्परा बहुत प्राचीन है। व्याकरण का प्राचीन रूप 'निर्वचन ब्राहमण ग्रन्थों में मिलता है। ब्राहमण ग्रन्थों के बाद प्रातिशाख्य ग्रन्थ व्याकरण के प्रारमिभक और व्यवसिथत रूप हैं। यास्क ने निरुक्त में भी व्याकरण के कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। प्राचीन ग्रन्थों में महेश्वर आदि 16 वैयाकरणों का उल्लेख हुआ है। पाणिनि ने अष्टाèयायी में आपिशलि, काश्यप, गागर््य, शाकटायन, भरद्वाज आदि 10 वैयाकरणों का उल्लेख किया है। पाणिनि का व्याकरण वैदिक और लौकिक संस्कृत-दोनों से सम्बद्ध माना जा सकता है, क्योंकि इसमें लगभग 500 सूत्रा वैदिक व्याकरण के विषय में है। पाणिनि से पहले ऐन्द्रव्याकरण की रचना के संकेत यत्रा-तत्रा मिलते हैें।
4. निरुक्त

निरुक्त का अर्थ है-निर्वचन, व्युत्पत्ति। शब्द के मूल रूप का ज्ञान कराना और समानार्थक तथा नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है। सायण के अनुसार-'अर्थावबोèो निरपेक्षतया पदजातं यत्राोक्तं तनिनरुक्तम अर्थात अर्थज्ञान के लिए जहां स्वतन्त्रा रूप से पदों का समूह कहा गया है वह निरुक्त है। इसे सामान्य रूप से शब्द-व्युत्पत्ति शास्त्रा कह सकते हैं। भाषाशास्त्रा की दृषिट से निरुक्त का बहुत महत्त्व है। यह अर्थविज्ञान के अन्तर्गत एक विèाा के रूप में भी रखा जाता है
वेदा³ग निरुक्त के अन्तर्गत सम्प्रति यास्क का निरुक्त ही उपलब्èा है। 'निरुक्त वेदा³ग का एक ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसके रचयिता 'यास्क है। निरुक्त वस्तुत: निघण्टु की टीका है। महाभारत के अनुसार प्रजापति कश्यप इस निघण्टु के रचयिता हैं। निघण्टु में वेद के कठिन शब्दों का समुच्चय किया गया है। निरुक्त के आरम्भ में निघण्टु को 'समाम्नाय कहा गया है। निघण्टु एक प्रकार का वैदिक शब्दकोष है, जिसमें कुल 1341 शब्द परिगणित हैं। इसके प्रथम तीन अèयाय 'नैघण्टुक काण्ड, चतुर्थ अèयाय 'नैगम काण्ड और अनितम अèयाय 'दैवत काण्ड कहलाते हैं। यास्क ने निघण्टु के 230 शब्दों का निर्वचन किया है। संक्षेप में निरुक्त के प्रतिपाध विषय पांच माने गये हैं-


1. वर्णागम-विचार


2. वर्ण-विपर्यय-विचार


3. वर्ण-विकार-विचार


4. वर्णनाश-विचार


5. èाातुओं का अनेक अथो± में प्रयोग।


वेदार्थानुशीलन में यास्क के निरुक्त का बड़ा महत्त्व है। भाषाविज्ञान, अर्थविज्ञान, शब्दनिर्वचनशास्त्रा और शब्दव्युत्पत्ति की दृषिट से भी इसका विशेष स्थान है। मैक्समूलर ने लिखा है कि यास्क ने जितने संतोषजनक रूप से अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डाला है, उतना आज के वैज्ञानिक युग में भी संदिग्èा है। निरुक्त का आèाार नितान्त वैज्ञानिक है। यास्क के निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द, महेश्वर और वररुचि की टीकाएं उपलब्èा होती हैं। टीकाकार दुर्गाचार्य के अनुसार निरुक्त संख्या में 14 थे। यास्क के निरुक्त में पूर्ववर्ती बारह निरुक्तकारों के नाम प्राप्त होते हैं-आग्रायण, औपमन्यव, औदुम्बरायण, और्णवाभ, कात्थक्य, क्रौष्टुकि, गाग्र्य, गालव, तैटीकि, वाष्र्यायणि, शाकपूणि और स्थौलाष्ठीवि। यास्क ने यथास्थान इनके मतों का उल्लेख किया है। महाभारत शानितपर्व में यास्क ऋषि के निरुक्तकार होने का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि यास्क ने नष्ट हुए निरुक्तशास्त्रा का पुनरुद्धार किया। यास्क पाणिनि से पूर्ववर्ती थे। इसका समय विद्वानों द्वारा प्राय: 800 र्इ0 पूर्व के लगभग माना जाता है।
5. छन्द
वैदिक मन्त्राों के सम्यक उच्चारण के लिये छन्दोज्ञान अति आवश्यक है। छन्दों के सम्यक ज्ञान के बिना मन्त्राों का उच्चारण अथवा पाठ ठीक से नहीं हो सकता। सर्वानुक्रमणी में कात्यायन द्वारा कहा गया है-'जो व्यकित ऋषि, देवता और छन्दों के ज्ञान के बिना वेदाèययन करता है वह पाप का भाजन होता है। छन्दोज्ञान की महत्ता पर आर्षेय ब्राह्राण में कहा गया है कि ''जो कोर्इ छन्द के ज्ञान के बिना मन्त्रा या ब्राह्राण से यज्ञ करता है या पढ़ता है, वह स्थाणुत्व को प्राप्त करता है या गडढे में गिरता है या पापी होकर मर जाता है। अत: प्रत्येक मन्त्रा के छन्द का ज्ञान श्रेयस्कर है। इसीलिए छन्दशास्त्रा को वेदा³ग में स्थान दिया गया है।
प्रèाान छन्दों के नाम संहिता तथा ब्राह्राण ग्रन्थों में ही उपलब्èा होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि इस अंग की उत्पत्ति वैदिक युग में ही हो गर्इ थी। वैदिक संहिताओं का अèािकांश भाग छन्दोमय है। ऋग्वेद और सामवेद के समस्त मन्त्रा छन्द में हैं जबकि कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद का कुछ भाग गध में भी मिलता है। पाणिनीय शिक्षा में छन्द को वेद केे पाद कहा गया है। जिस प्रकार बिना पैरों के मनुष्य खड़ा नहीं हो सकता और न चल सकता है उसी प्रकार छन्द के आèाार के बिना वेद लंगड़ाने लगता है-चलने में असमर्थ रहता है।
वेदों में सात छन्द अति प्रसिद्ध हैं-गायत्राी, उषिणक, अनुष्टुप, बृहती, प³कित, त्रिष्टुप और जगती। वैदिक छन्दों में पादों की संख्या नियमित नहीं होती है। वैदिक छन्दों का आèाार अक्षर-गणना है।
प्रèाान वैदिक छन्द
नाम पाद योग


1 2 3 4 5


गायत्राी 8 अक्षर 8 8 24


उषिणक 8 8 12 28


अनुष्टुप 8 8 8 8 32


बृहती 8 8 12 8 36


प³कित 8 8 8 8 8 40


त्रिष्टुप 11 11 11 11 44


जगती 12 12 12 12 48

इन छन्दों के अनेक अवान्तर भेद भी संहिताओं में मिलते हैं। प्रातिशाख्य ग्रन्थों में उसका विवेचन उपलब्èा है। लौकिक संस्कृत छन्दों की उत्पत्ति प्राय: इन्हीं वैदिक छन्दों से मानी जाती है।
छन्दपरक ग्रन्थ
छन्द-सम्बन्èाी कोर्इ स्वतन्त्रा वैदिक ग्रन्थ इस समय उपलब्èा नहीं है। छन्दों का प्राचीनतम वर्णन देवताèयाय ब्राह्राण में मिलता है। जिस प्रकार व्याकरण-ग्रन्थों में पाणिनि की 'अष्टाèयायी प्रसिद्ध ग्रन्थ है, उसी प्रकार छन्दशास्त्राों में पाणिनि के अनुज पि³गलाचार्य का छन्द:सूत्रा अति प्रसिद्ध है, जो आज उपलब्èा है और जिस पर अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं। यह ग्रन्थ सूत्रा रूप में है और आठ अèयायों में विभक्त है। आरम्भ से चौथे अèयाय के सातवें सूत्रा तक वैदिक छन्दों के लक्षण दिये गये हैं। तदनन्तर लौकिक छन्दों का वर्णन है। इसके ऊपर भटट हलायुध कृत 'मृतसंजीवनी नामक व्याख्या प्रसिद्ध है।
6. ज्योतिष
वेदों के लिये 'ज्योतिष वेदा³ग का महत्त्व निर्विवाद है। शुभ मुहुर्त में यज्ञ-सम्पादन के लिए इसकी आवश्यकता होती है। वैदिक यागों में तिथि, नक्षत्रा, पक्ष, मास, ऋतु तथा संवत्सर आदि का सूक्ष्म विèाान होता है। ज्योतिष कालविज्ञान का शास्त्रा है। वेद में यज्ञ का महत्त्व है और यज्ञ-सम्पादन के लिए विशिष्ट समय की अपेक्षा होती है। अत: वेदा³ग ज्योतिष की महत्ता सर्वोपरि है। 'ज्योतिष का अर्थ है ज्योतिर्विज्ञान। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रा आदि आकाशीय पदाथो± की गणना ज्योतिर्मय पदाथो± में होती है और इनसे सम्बद्ध विज्ञान ही ज्योतिष या ज्योतिर्विज्ञान है। लगèा ने इसको 'ज्योतिषाम अयनम अर्थात नक्षत्रा आदि की गति का अèययन करने वाला शास्त्रा कहा है। वस्तुत: ज्योतिष में कालविज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान दोनों का समन्वय होता है।
ज्योतिष विषयक केवल एक ही प्राचीन ग्रन्थ उपलब्èा होता है, वह है-महर्षि लगèा कृत वेदा³ग ज्योतिष। यह ग्रन्थ दो भागों में मिलता है। 1. आर्च ज्योतिष - यह ऋग्वेद सम्बन्èाी ज्योतिष है जिसमें 36 श्लोक हैं। 2ण् याजुष ज्योतिष - यह यजुर्वेद सम्बन्èाी ज्योतिष है जिसमें 43 श्लोक हैं। बहुत से श्लोक दोनों भागों में समान हंै। इनके लेखक महर्षि लगèा माने जाते हैं। इस ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त कठिन है और इसमें कुछ अंश अभी भी अर्थ की दृषिट से दुरूह समझे जाते हैं। इस ग्रन्थ पर अनेक भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने बहुत परिश्रम किया है। इस पर एक प्राचीन टीका सोमाकर की प्राप्त होती है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने वेदा³ग ज्योतिष का समय 1400 र्इ0 पूर्व माना है। वैदिक ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, ग्रह तथा नक्षत्राों की गति का निरीक्षण, परीक्षण एवं विवेचन होता है। इसमें सौर तथा चान्द्र मासों की गणना भी होती है। यज्ञिय कायो± के लिए चान्द्र मास को मुख्य माना जाता है। गणना के लिए इस ग्रन्थ में पांच वर्ष का युग माना गया है। इन पांच वषो± के नाम हैं : संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इदवत्सर और वत्सर। ये नाम शतपथ ब्राह्राण में भी दिये गये हैं। तैत्तिरीय ब्राह्राण और तैत्तिरीय आरण्यक में चतुर्थ वर्ष का नाम अनुवत्सर और पंचम वर्ष का नाम इदवत्सर दिया गया है। पांच वर्ष का युग मानने का कारण यह है कि ठीक पांच वर्ष बाद सूर्य और चन्द्रमा राशिचक्र के उसी नक्षत्रा पर पुन: एक सीèा में होते हैं। ज्योतिष के सिद्धान्त-ग्रन्थों में बारह राशियों से गणना की जाती है, परन्तु इस ज्योतिष में राशियों का कहीं भी नाम-निर्देश नहीं है, प्रत्युत गणना के आèाार अटठार्इस नक्षत्रा ही हैं।
अनुक्रमणिकाएं
वेदा³गों के अतिरिक्त वैदिक वा³मय के अन्तर्गत अनुक्रमणिकाएं भी उलिलखित की जाती हैं, जो वेदों से सम्बद्ध हैं। इनमें देवताओं, छन्दों, विषयों आदि की विस्तृत सूचियां होती हैं। लगभग सभी वेदों की अपनी-अपनी अनुक्रमणिकाएं हैं। ऋग्वेद के देवताओं का रहस्य बताने वाला बृहददेवता नामक ग्रन्थ अनुक्रमणी-साहित्य का विशिष्ट ग्रन्थ है, जिसके रचयिता शौनक हैें। बारह सौ पधों में निर्मित यह ग्रन्थ ऋग्वेद के देवताओं के विषय में प्रामाणिक, प्राचीन और विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। यह ग्रन्थ आठ अèयायों में विभक्त है। इसमें सूक्तों के विषय में उपलब्èा आख्यानों का निर्देश बड़े सुन्दर ढंंग से किया गया है। ये आख्यान बृहíेवता के प्राण हैं और प्राय: इनका सम्बन्èा महाभारत के आख्यानों से दिखार्इ देता है। इस दृषिट से इसे कथासाहित्य का आदि ग्रन्थ कहा जा सकता है। अक्सर सायण और कात्यायन यहीं से आख्यानों का ग्रहण करते प्रतीत होते हैं। यह ग्रन्थ यास्क के निरुक्त और कात्यायन की सर्वानुक्रमणी के बीच की रचना है।
कात्यायन की ऋक सर्वानुक्रमणी ऋग्वेद के समस्त विषयों के ज्ञान के लिए उपादेय और प्रामाणिक ग्रन्थ हैं। यह सूत्रा रूप में लिखा हुआ है। 'शुक्लयजुर्वेदीय अनुक्रमणिका भी कात्यायन द्वारा विरचित मानी जाती है। शौनक की आर्षानुक्रमणी आदि कुछ अन्य अनुक्रमणियाँ ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। अनुक्रमणी-साहित्य अत्यन्त विशाल है और वेदार्थानुशीलन में सहायक है।
विविध विधाओं के अनेक ग्रन्थों से समलंकृत 'वैदिक वेदा³ग वा³मय संस्कृत का वह विशाल साहित्य है, जो अपने प्रतिपाद्य विषय की द्रष्टि से विश्व में अद्वितीय माना जाता है।

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-

विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"

वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक

जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन

सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक

वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा

प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक

गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

घाघ कवि के दोहे -घाघ

मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक