28.10.16

गीता दर्शन-- Osho Ganga

विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक—(प्रवचन—अट्ठारवां)



अध्‍याय—1—2
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। ६५।।

उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।
विक्षेपरहित चित्त में शुद्ध अंतःकरण फलित होता है? या शुद्ध अंतःकरण विक्षेपरहित चित्त बन जाता है? कृष्ण जो कह रहे हैं, वह हमारी साधारण साधना की समझ के बिलकुल विपरीत है। साधारणतः हम सोचते हैं कि विक्षेप अलग हों, तो अंतःकरण शुद्ध होगा। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध हो, तो विक्षेप अलग हो जाते हैं।
यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों-जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य-कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है।
किसान गेहूं बोता है, तो फसल आती है। गेहूं के साथ भूसा भी आता है। लेकिन भूसे को अगर बो दिया जाए, तो भूसे के साथ गेहूं नहीं आता। ऐसे किसान सोच सकता है कि जब गेहूं के साथ भूसा आता है, तो उलटा क्यों नहीं हो सकता है! भूसे को बो दें, तो गेहूं साथ आ जाए--वाइस-वरसा क्यों नहीं हो सकता? लेकिन भूसा बोने से सिर्फ भूसा सड़ जाएगा, गेहूं तो आएगा ही नहीं, हाथ का भूसा भी जाएगा। भूसा आता है गेहूं के साथ, गेहूं भूसे के साथ नहीं आता है।
अंतःकरण शुद्ध हो, तो चित्त के विक्षेप सब खो जाते हैं, विक्षिप्तता खो जाती है। लेकिन चित्त की विक्षिप्तता को कोई खोने में लग जाए, तो अंतःकरण तो शुद्ध होता नहीं, चित्त की विक्षिप्तता और बढ़ जाती है।
जो आदमी अशांत है, अगर वह शांत होने की चेष्टा में और लग जाए, तो अशांति सिर्फ दुगुनी हो जाती है। अशांति तो होती ही है, अब शांत न होने की अशांति भी पीड़ा देती है। लेकिन अंतःकरण कैसे शुद्ध हो जाए? पूछा जा सकता है कि अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? जब तक विचार आ रहे, विक्षेप आ रहे, विक्षिप्तता आ रही, विकृतियां आ रहीं, तब तक अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? कृष्ण अंतःकरण शुद्ध होने को पहले रखते हैं, पर वह होगा कैसे?
यहां सांख्य का जो गहरा से गहरा सूत्र है, वह आपको स्मरण दिलाना जरूरी है। सांख्य का गहरा से गहरा सूत्र यह है कि अंतःकरण शुद्ध है ही। कैसे हो जाएगा, यह पूछता ही वह है, जिसे अंतःकरण का पता नहीं है। जो पूछता है, कैसे हो जाएगा शुद्ध? उसने एक बात तो मान ली कि अंतःकरण अशुद्ध है।
आपने अंतःकरण को कभी जाना है? बिना जाने मान रहे हैं कि अंतःकरण अशुद्ध है और उसको शुद्ध करने में लगे हैं। अगर अंतःकरण अशुद्ध नहीं है, तो आपके शुद्ध करने की सारी चेष्टा व्यर्थ ही हो रही है। और यह चेष्टा जितनी असफल होगी--सफल तो हो नहीं सकती, क्योंकि जो शुद्ध है, वह शुद्ध किया नहीं जा सकता; लेकिन जो शुद्ध है, उसे शुद्ध करने की चेष्टा असफल होगी--असफलता दुख लाएगी, असफलता विषाद लाएगी, असफलता दीनता-हीनता लाएगी, असफलता हारापन, फ्रस्ट्रेशनलाएगी। और बार-बार असफल होकर आप यह कहेंगे, अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, अशुद्धि बहुत गहरी है। आप जो निष्कर्ष निकालेंगे, निष्पत्ति निकालेंगे, वह बिलकुल ही उलटी होगी।
एक घर में अंधेरा है। तलवारें लेकर हम घर में घुस जाएं और अंधेरे को बाहर निकालने की कोशिश करें। तलवारें चलाएं, अंधेरे को काटें-पीटें। अंधेरा बाहर नहीं निकलेगा। थक जाएंगे, हार जाएंगे, जिंदगी गंवा देंगे, अंधेरा बाहर नहीं निकलेगा। क्यों? तो शायद सारी मेहनत करने के बाद हम बैठकर सोचें कि अंधेरा बहुत शक्तिशाली है, इसलिए बाहर नहीं निकलता।
तर्क अनेक बार ऐसे गलत निष्कर्षों में ले जाता है, जो ठीक दिखाई पड़ते हैं; यही उनका खतरा है। अब यह बिलकुल ठीक दिखाई पड़ता है कि इतनी मेहनत की और अंधेरा नहीं निकला, तो इसका मतलब साफ है कि मेहनत कम पड़ रही है, अंधेरा ज्यादा शक्तिशाली है। सचाई उलटी है। अगर अंधेरा शक्तिशाली हो, तब तो किसी तरह उसे निकाला जा सकता है। शक्ति को निकालने के लिए बड़ी शक्ति ईजाद की जा सकती है।
अंधेरा है ही नहीं; यही उसकी शक्ति है। वह है ही नहीं, इसलिए आप उसको शक्ति से निकाल नहीं सकते। वह नान- एक्झिस्टेंशियल है, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। और जिसका अस्तित्व नहीं है, उसे तलवार से न काटा जा सकता है, न धक्के से निकाला जा सकता है। असल में अंधेरा सिर्फ एब्सेंस है किसी चीज की, अंधेरा अपने में कुछ भी नहीं है। अंधेरा सिर्फ अनुपस्थिति है प्रकाश की; बस।
इसलिए आप अंधेरे के साथ सीधा कुछ भी नहीं कर सकते हैं। और अंधेरे के साथ कुछ भी करना हो, तो प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है। प्रकाश जलाएं, तो अंधेरा नहीं होता। प्रकाश बुझाएं, तो अंधेरा हो जाता है। सीधा अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अंधेरा नहीं है। और जो नहीं है, उसके साथ जो सीधा कुछ करने में लग जाएगा, वह अपने जीवन को ऐसे उलझाव में डाल देता है, जिसके बाहर कोई भी मार्ग नहीं होता। वह एब्सर्डिटी में पड़ जाता है।
अंतःकरण अगर शुद्ध है, तो अंतःकरण को शुद्ध करने की सब चेष्टा खतरनाक है; अंधेरे को निकालने जैसी चेष्टा है। क्योंकि जो नहीं है अशुद्धि, उसे निकालेंगे कैसे? सांख्य कहता है, अंतःकरण अशुद्ध नहीं है। और अगर अंतःकरण भी अशुद्ध हो सकता है, तो इस जगत में फिर शुद्धि का कोई उपाय नहीं है। फिर शुद्ध कौन करेगा? क्योंकि जो शुद्ध कर सकता था, वह अशुद्ध हो गया है।
अंतःकरण अशुद्ध नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो अंतःकरण ही शुद्धि है--दि वेरी प्योरीफिकेशन, दि वेरी प्योरिटी। अंतःकरण शुद्ध ही है। लेकिन अंतःकरण का हमें कोई पता नहीं है कि क्या है। आप किस चीज को अंतःकरण जानते हैं?
अंग्रेजी में एक शब्द है, कांशिएंस। और गीता के जिन्होंने भी अनुवाद किए हैं, उन्होंने अंतःकरण का अर्थ कांशिएंस किया है। उससे गलत कोई अनुवाद नहीं हो सकता। कांशिएंस अंतःकरण नहीं है। कांशिएंस अंतःकरण का धोखा है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा, क्योंकि वह बहुत गहरे, रूट्स में बैठ गई भ्रांति है सारे जगत में।
जहां भी गीता पढ़ी जाती है, वहां अंतःकरण का अर्थ कांशिएंस कर लिया जाता है। हम भी अंतःकरण से जो मतलब लेते हैं, वह क्या है? आप चोरी करने जा रहे हैं। भीतर से कोई कहता है, चोरी मत करो, चोरी बुरी है। आप कहते हैं, अंतःकरण बोल रहा है। यह कांशिएंस है, अंतःकरण नहीं। यह सिर्फ समाज के द्वारा डाली गई धारणा है, अंतःकरण नहीं। क्योंकि अगर समाज चोरों का हो, तो ऐसा नहीं होगा। ऐसे समाज हैं।
जाट हैं। तो जाट लड़के की शादी नहीं होती, जब तक वह दो-चार चोरियां न कर ले। जाट का लड़का जब चोरी करने जाता है, तो कभी उसके मन में नहीं आता कि बुरा कर रहा है। अंतःकरण उसके पास भी है, आपके पास ही नहीं है। लेकिन सोशल जो बिल्ट-इन आपके भीतर डाली गई धारणा है, वह उसके पास नहीं है।
मेरे एक मित्र पख्तून इलाके में घूमने गए थे। तो पेशावर में उन्हें मित्रों ने कहा कि पख्तून इलाके में जा रहे हैं, जरा सम्हलकर बैठना। जीप तो ले जा रहे हैं, लेकिन होशियारी रखना। उन्होंने कहा, क्या, खतरा क्या है? हमारे पास कुछ है नहीं लूटने को। उन्होंने कहा कि नहीं, यह खतरा नहीं है। खतरा यह है कि पख्तून लड़के अक्सर सड़कों पर निशाना सीखने के लिए लोगों को गोली मार देते हैं--निशाना सीखने के लिए; दुश्मन को नहीं! पख्तून लड़के निशाना सीखने के लिए सड़क के किनारे से चलती हुई कार में गोली मारकर देखते हैं कि निशाना लगा कि नहीं। मित्र तो बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि आप क्या कहते हैं, निशाना लगाने के लिए! तो क्या उनके पास कोई अंतःकरण नहीं है?
अंतःकरण तो पख्तून के पास भी है। अंतःकरण किसी की बपौती नहीं है। लेकिन पख्तून के पास, जिसको हिंसा-अहिंसा का सामाजिक बोध कहते हैं, उसे डालने का कोई बचपन से प्रयास नहीं किया गया है।
एक हिंदू को कहें कि चचेरी बहन से शादी कर ले, तो उसका अंतःकरण इनकार करता है, मुसलमान का नहीं करता। कारण यह नहीं है कि मुसलमान के पास अंतःकरण नहीं है। सिर्फ चचेरी बहन से शादी करने की धारणा का भेद है। वह समाज देता है। वह अंतःकरण नहीं है।
समाज ने एक इंतजाम किया है, बाहर अदालत बनाई है और भीतर भी एक अदालत बनाई है। समाज ने पुख्ता इंतजाम किया है कि बाहर से वह कहता है कि चोरी करना बुरा है; वहां पुलिस है, अदालत है। लेकिन इतना काफी नहीं है, क्योंकि भीतर भी एक पुलिसवाला होना चाहिए, जो पूरे वक्त कहता रहे कि चोरी करना बुरा है। क्योंकि बाहर के पुलिसवाले को धोखा दिया जा सकता है। उस हालत में भीतर का पुलिसवाला काम पड़ सकता है।
कांशिएंस अंग्रेजी का जो शब्द है, उसको हमें कहना चाहिए अंतस-चेतन, अंतःकरण नहीं। सांख्य का अंतःकरण, बात ही और है। अंतःकरण को अगर अंग्रेजी में अनुवादित करना हो, तो कांशिएंस शब्द नहीं है। अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है ठीक। क्योंकि अंतःकरण का मतलब होता है, दि इनरमोस्ट इंस्ट्रूमेंट, अंतरतम उपकरण, अंतरतम--जहां तक अंतस में जाया जा सकता है भीतर--वह जो आखिरी है भीतर, वही अंतःकरण है। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब आत्मा नहीं।
अब यह बड़े मजे की बात है, अंतःकरण का मतलब आत्मा नहीं है। क्योंकि आत्मा तो वह है, जो बाहर और भीतर दोनों में नहीं है, दोनों के बाहर है। अंतःकरण वह है, आत्मा के निकटतम जो उपकरण है, जिसके द्वारा हम बाहर से जुड़ते हैं।
समझ लें कि आत्मा के पास एक दर्पण है, जिसमें आत्मा प्रतिफलित होती है, वह अंतःकरण है, निकटतम। आत्मा में पहुंचने के लिए अंतःकरण आखिरी सीढ़ी है। और अंतःकरण आत्मा के इतने निकट है कि अशुद्ध नहीं हो सकता। आत्मा की यह निकटता ही उसकी शुद्धि है।
यह अंतःकरण कांशिएंस नहीं है, जो हमारे भीतर, जब हम सड़क पर चलते हैं और बाएं न चलकर दाएं चल रहे हों, तो भीतर से कोई कहता है कि दाएं चलना ठीक नहीं है, बाएं चलना ठीक है। यह अंतःकरण नहीं है। यह केवल सामाजिक आंतरिक व्यवस्था है। यह अंतस-चेतन है, जो समाज ने इंतजाम किया है, ताकि आपको व्यवस्था और अनुशासन दिया जा सके।
समाज अलग होते हैं, व्यवस्था अलग हो जाती है। अमेरिका में चलते हैं, तो बाएं चलने की जरूरत नहीं है। वहां अंतःकरण-- जिसको हम अंतःकरण कहते हैं--वह कहता है, दाएं चलो, बाएं मत चलना। क्योंकि नियम बाएं चलने का नहीं है, दाएं चलने का है। सामाजिक व्यवस्था की जो आंतरिक धारणाएं हैं, वे अंतःकरण नहीं हैं।
तो अंतःकरण का हमें पता ही नहीं है, इसका मतलब यह हुआ। हम जिसे अंतःकरण समझ रहे हैं, वह बिलकुल ही भ्रांत है। अंतःकरण नैतिक धारणा का नाम नहीं है, अंतःकरण मारैलिटी नहीं है। क्योंकि मारैलिटी हजार तरह की होती हैं, अंतःकरण एक ही तरह का होता है। हिंदू की नैतिकता अलग है, मुसलमान की नैतिकता अलग, जैन की नैतिकता अलग, ईसाई की नैतिकता अलग, अफ्रीकन की अलग, चीनी की अलग। नैतिकताएं हजार हैं, अंतःकरण एक है।
अंतःकरण शुद्ध ही है। आत्मा के इतने निकट रहकर कोई चीज अशुद्ध नहीं हो सकती। जितनी दूर होती है आत्मा से, उतनी अशुद्ध की संभावना बढ़ती है। अगर ठीक से समझें, मोर दि डिस्टेंस, मोर दि इंप्योरिटी। जैसे एक दीया जल रहा है यहां; दीए की बत्ती जल रही है। बत्ती के बिलकुल पास रोशनी का वर्तुल है, वह शुद्धतम है। फिर बत्ती की रोशनी आगे गई; फिर धूल है, हवा है, और रोशनी अशुद्ध हुई। फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई; फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई। और थोड़ी दूर जाकर हम देखते हैं कि रोशनी नहीं है, अंधेरा है। एक-एक कदम रोशनी जा रही है और अंधेरे में डूबती जा रही है।
शरीर तक आते-आते सब चीजें अशुद्ध हो जाती हैं; आत्मा तक जाते-जाते सब शुद्ध हो जाती हैं। शरीर के निकटतम इंद्रियांहैं। इंद्रियों के निकटतम अंतस-इंद्रियां हैं। अंतस-इंद्रियों के निकटतम स्मृति है। स्मृति के निकटतम बुद्धि है--प्रायोगिक। प्रायोगिक, एप्लाइड इंटलेक्ट के निकटतम अप्रायोगिक बुद्धि है। अप्रायोगिक बुद्धि के नीचे अंतःकरण है। अंतःकरण के नीचे आत्मा है। आत्मा के नीचे परमात्मा है।
ऐसा अगर खयाल में आ जाए, तो सांख्य कहता है कि अंतःकरण शुद्ध ही है। वह कभी अशुद्ध हुआ नहीं। लेकिन हमने अंतःकरण को जाना नहीं है, इसलिए लोग पूछते, अंतःकरण कैसे शुद्ध हो? अंतःकरण शुद्ध नहीं किया जा सकता। करेगा कौन? और जो शुद्ध है ही, वह शुद्ध कैसे किया जा सकता है? पर जाना जा सकता है कि शुद्ध है। कैसे जाना जा सकता है?
एक ही रास्ता है--पीछे हटें, पीछे हटें, अपने को पीछे हटाएं, अपनी चेतना को सिकोड़ें, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़लेता है। शरीर को भूलें, इंद्रियों को भूलें। छोड़ें बाहर की परिधि को, और भीतर चलें। अंतस-इंद्रियों को छोड़ें, और भीतर चलें। स्मृति को छोड़ें, और भीतर चलें। भीतर याद आ रही है, शब्द आ रहे हैं, विचार आ रहे हैं, स्मृति आ रही है। छोड़ें; कहें कि यह भी मैं नहीं हूं। कहें कि नेति-नेति, यह भी मैं नहीं हूं। हैं भी नहीं, क्योंकि जो देख रहा है भीतर कि यह स्मृति से विचार आ रहा है, वह अन्य है, वह भिन्न है, वह पृथक है। जानें कि यह मैं नहीं हूं। आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। निश्चित ही, आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं, पक्का हो गया कि मैं आप नहीं हूं। नहीं तो देखेगा कौन आपको? देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला भिन्न हैं, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं।
यह सांख्य का मौलिक साधना-सूत्र है, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं। फिर सांख्य की सारी साधना इसी भिन्नता के ऊपर गहरे उतरती है। फिर सांख्य कहता है, जो भी चीज दिखाई पड़ने लगे, समझना कि इससे भिन्न हूं। भीतर से देखें, शरीर दिखाई पड़ता है। और भीतर देखें, हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। आप भिन्न हैं। और भीतर देखें, विचार दिखाई पड़ते हैं। आप भिन्न हैं। और भीतर देखें, और भीतर देखें, समाज की धारणाएं हैं, चित्त पर बहुत सी परतें हैं--वे सब दिखाई पड़ती हैं। और उतरते जाएं। आखिर में उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां अंतःकरण है, सब शुद्धतम है। लेकिन शुद्धतम, वह भी भिन्न है; वह भी अलग है। इसीलिए उसको आत्मा नहीं कहा; उसको भी अंतःकरण कहा। क्योंकि आत्मा उस शुद्धतम के भी पार है। शुद्धतम का अनुभव कैसे होगा? आपको अशुद्धतम का अनुभव कैसे होता है?
कोई मुझसे आकर पूछता है, शुद्ध का हम अनुभव कैसे करेंगे? तो उसको मैं कहता हूं कि तुम बगीचे की तरफ चले। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन ठंडी हवा मालूम होने लगी। तुम्हें कैसे पता चल जाता है कि ठीक चल रहे हैं? क्योंकि ठंडी हवा मालूम होने लगी। फिर तुम और बढ़ते हो; सुगंध भी आने लगी; तब तुम जानते हो कि और निकट है बगीचा। अभी बगीचा आ नहीं गया है। शायद अभी दिखाई भी नहीं पड़ रहा हो। और निकट बढ़ते हो, अब हरियाली दिखाई भी पड़ने लगी। अब बगीचा और निकट आ गया है। अभी फिर भी हम बगीचे में नहीं पहुंच गए हैं। फिर हम बगीचे के बिलकुल द्वार पर खड़े हो गए। सुगंध है, शीतलता है, हरियाली है, चारों तरफ शांति और सन्नाटा और एक वेल बीइंग, एक स्वास्थ्य का भाव घेर लेता है।ऐसे ही जब कोई भीतर जाता है, तो आत्मा के जितने निकट पहुंचता है, उतना ही शांत, उतना ही मौन, उतना ही प्रफुल्लित, उतना ही प्रसन्न, उतना ही शीतल होने लगता है। जैसे-जैसे भीतर चलता है, उतना ही प्रकाशित, उतना ही आलोक से भरने लगता है। जैसे-जैसे भीतर चलने लगता है, कदम-कदम भीतर सरकता है, कहता है, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। पहचानता है, रिकग्नाइज करता है--यह भी नहीं। यह दृश्य हो गया, तो मैं नहीं हूं। मैं तो वहां तक चलूंगा, जहां सिर्फ द्रष्टा रह जाए। तो द्रष्टा जब अंत में रह जाए, उसके पहले जो मिलता है, वह अंतःकरण है। अंतःकरण जो है, वह अंतर्यात्रा का आखिरी पड़ाव है। आखिरी पड़ाव, मंजिल नहीं। मंजिल उसके बाद है।
यह अंतःकरण शुद्ध ही है, इसीलिए सांख्य की बात कठिन है। कोई हमें समझाए कि शुद्ध कैसे हो, तो समझ में आता है। सांख्य कहता है, तुम शुद्ध हो ही। तुम कभी गए ही नहीं वहां तक जानने, जहां शुद्धि है। तुम बाहर ही बाहर घूम रहे हो घर के। तुम कभी घर के भीतर गए ही नहीं। घर के गर्भ में परम शुद्धि का वास है। उस परम शुद्धि के बीच आत्मा और उस आत्मा के भी बीच परमात्मा है। पर वहां गए ही नहीं हम कभी। घर के बाहर घूम रहे हैं। और घर के बाहर की गंदगी है।
एक आदमी घर के बाहर घूम रहा है और सड़क पर गंदगी पड़ी है। वह कहता है इस गंदगी को देखकर कि मेरे घर के अंदर भी सब गंदा होगा, उसको मैं कैसे शुद्ध करूं? हम उसे कहते हैं, यह गंदगी घर के बाहर है। तुम घर के भीतर चलो; वहां कोई गंदगी नहीं है। तुम इस गंदगी से आब्सेस्ड मत हो जाओ। यह घर के बाहर होने की वजह से है। यहां तक वह शुद्धि की धारा नहीं पहुंच पाती है, माध्यमों में विकृत हो जाती है, अनेक माध्यमों में विकृत हो जाती है। अंदर चलो, भीतर चलो, गो बैक,वापस लौटो।
तो कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध होता है, ऐसा जिस दिन जाना जाता है, उसी दिन चित्त के सब विक्षेप, चित्त की सारी विक्षिप्तता खो जाती है--खोनी नहीं पड़ती।
इसे ऐसा समझें, एक पहाड़ के किनारे एक खाई में हम बसे हैं। अंधेरा है बहुत। सीलन है। सब गंदा है। पहाड़ को घेरे हुए बादल घूमते हैं। वे वादी को, खाई को ढक लेते हैं। उनकी वजह से ऊपर का सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता। उनकी काली छायाएंडोलती हैं घाटी में और बड़ी भयानक मालूम होती हैं।
और एक आदमी शिखर पर खड़ा है, वह कहता है, तुम पहाड़ चढ़ो। लेकिन हम नीचे से पूछते हैं कि इन बादलों से छुटकारा कैसे होगा? ये काली छायाएं सारी घाटी को घेरे हुए हैं; इनसे मुक्ति कैसे होगी? वह आदमी कहता है, तुम इनकी फिक्र छोड़ो, तुम पहाड़ चढ़ो। तुम उस जगह आ जाओगे, जहां तुम पाओगे कि बदलियां नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो। और जिस दिन तुम पाओगे कि बदलियां नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो, उस दिन बदलियां तुम पर कोई छाया नहीं डालतीं।
बदलियां सिर्फ उन्हीं पर छायाएं डालती हैं, जो बदलियों के नीचे हैं। बदलियां उन पर छाया नहीं डालतीं, जो बदलियों के ऊपर हैं। अगर कभी हवाई जहाज में आप उड़े हैं, तो बदलियां फिर आप पर छाया नहीं डालतीं। बदलियों का वितान नीचे रह जाता है, आप ऊपर हो जाते हैं। लेकिन पृथ्वी पर बदलियां बहुत छाया डालती हैं।
मन के जो विक्षेप हैं, विक्षिप्तताएं हैं, विकार हैं, वे बदलियों की तरह हैं। और हम पर छाया डालते हैं, क्योंकि हम घाटियों में जीते हैं।
कृष्ण कहते हैं, चलो अंतःकरण की शुद्धि की यात्रा पर। जब तुम अंतःकरण पर पहुंचोगे, तब तुम हंसोगे कि ये बदलियां,जो बड़ी पीड़ित करती थीं, अब ये नीचे छूट गई हैं। अब इनका कोई खयाल भी नहीं आता; अब ये कोई छाया भी नहीं डालतीं। अब इनसे कोई संबंध ही नहीं है। अब सूरज आमने-सामने है। अब बीच में कोई बदलियों का वितान नहीं है, कोई जाल नहीं है।
विचार घाटियों के ऊपर बादलों की भांति हैं। जो अंतःकरण तक पहुंचता है, वह शिखर पर पहुंच जाता है। वहां सूर्य का प्रकट प्रकाश है। यह यात्रा है, यह शुद्धि नहीं है। यह यात्रा है, शुद्धि फल है। पता चलता है कि शुद्ध है।
कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध है, वहां चित्त का कोई विक्षेप नहीं है।


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।। ६६।।
प्रश्‍न- अयुक्त पुरुष के अंतःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उसके अंतःकरण में भावना भी नहीं होती है और बिना भावना वाले पुरुष को शांति भी नहीं होती है। फिर शांतिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है?


अयुक्त पुरुष को शांति नहीं। युक्त पुरुष को शांति है। अयुक्त पुरुष क्या? युक्त पुरुष क्या? अयुक्त पुरुष को भावना नहीं, शांति नहीं, आनंद नहीं। यह युक्त और अयुक्त का क्या अर्थ है?
अयुक्त का अर्थ है, अपने से ही अलग, अपने होने से ही दूर पड़ गया, अपने से ही बाहर पड़ गया, अपने से ही टूट गया--स्प्लिट।
लेकिन अपने से कोई कैसे टूट सकता है? अपने से कोई कैसे अयुक्त हो सकता है? अपने से टूटना तो असंभव है। अगर हम अपने से ही टूट जाएं, इससे बड़ी असंभव बात कैसे हो सकती है! क्योंकि अपने का मतलब ही यह होता है कि अगर मैं अपने से ही टूट जाऊं, तो मेरे दो अपने हो गए--एक जिससे मैं टूट गया, और एक जो मैं टूटकर हूं। अपने से टूटना हो नहीं सकता।
और अपने से जुड़ने का भी क्या मतलब, अपने से युक्त होने का भी क्या मतलब, जब टूट ही नहीं सकता हूं! तो फिर बात कहां है?
सच में कोई अपने से टूटता नहीं, लेकिन अपने से टूटता है, ऐसा सोच सकता है, ऐसा विचार सकता है। ऐसे भाव, ऐसे सम्मोहन से भर सकता है कि मैं अपने से टूट गया हूं।
आप रात सोए। सपना देखा कि अहमदाबाद में नहीं, कलकत्ते में हूं। कलकत्ते में चले नहीं गए। ऐसे सोए-सोए 

कलकत्ता जाने का अभी तक कोई उपाय नहीं है। अपनी खाट पर अहमदाबाद में ही पड़े हैं। लेकिन स्वप्न देख रहे हैं कि कलकत्ता पहुंच गए। सुबह जल्दी काम है अहमदाबाद में। अब चित्त बड़ा घबड़ाया, यह तो कलकत्ता आ गए! सुबह काम है। अब वापस अहमदाबाद जाना है! अब सपने में लोगों से पूछ रहे हैं कि अहमदाबाद कैसे जाएं! ट्रेन पकड़ें, हवाई जहाज पकड़ें, बैलगाड़ी से जाएं। जल्दी पहुंचना है, सुबह काम है और यह रात गुजरी जाती है।
आपकी घबड़ाहट उचित है, अनुचित तो नहीं। अहमदाबाद में काम है; कलकत्ते में हैं। बीच में फासला बड़ा है। सुबह करीब आती जाती है। वाहन खोज रहे हैं। लेकिन क्या अहमदाबाद आने के लिए वाहन की जरूरत पड़ेगी? क्योंकि अहमदाबाद से आप गए नहीं हैं क्षणभर को भी, इंचभर को भी। न भी मिले वाहन, तो जैसे ही नींद टूटेगी, पाएंगे कि लौट आए। मिल जाए, तो भी पाएंगे कि लौट आए। असल में गए ही नहीं हैं, लौट आना शब्द ठीक नहीं है। सिर्फ गए के भ्रम में थे।
तो जब कृष्ण कहते हैं, अयुक्त और युक्त, तो वास्तविक फर्क नहीं है। कोई अयुक्त तो होता नहीं कभी, सिर्फ अयुक्त होने के भ्रम में होता है, स्वप्न में होता है। सिर्फ एक ड्रीम क्रिएशन है, एक स्वप्न का भाव है कि अपने से अलग हो गया हूं। युक्त पुरुष वह है, जो इस स्वप्न से जाग गया और उसने देखा कि मैं तो अपने से कभी भी अलग नहीं हुआ हूं।
अयुक्त पुरुष में भावना नहीं होती। क्यों नहीं होती? भावना से मतलब आप मत समझ लेना आपकी भावना, क्योंकि हम सब अयुक्त पुरुष हैं, हममें भावना बहुत है। इसलिए कृष्ण इस भावना की बात नहीं कर रहे होंगे, जो हममें है।
एक आदमी कहता है कि भावना बहुत है। पत्नी मर गई है, रो रहा है। बेटा बीमार पड़ा है, आंसू गिरा रहा है। कहता है, भावना बहुत है। यह भावना नहीं है, यह फीलिंग नहीं है, यह सिर्फ सेंटिमेंटलिटी है। फर्क क्या है? अगर यह भावना नहीं है, सिर्फ भावना का धोखा है, तो फर्क क्या है?
एक आदमी रो रहा है अपने बेटे के पास बैठा हुआ--मेरा बेटा बीमार है और चिकित्सक कहते हैं, बचेगा नहीं, मर जाएगा। रो रहा है; छाती पीट रहा है। उसके प्राणों पर बड़ा संकट है। तभी हवा का एक झोंका आता है और टेबल से एक कागज उड़करउसके पैरों पर नीचे गिर जाता है। वह उसे यूं ही उठाकर देख लेता है। पाता है कि उसकी पत्नी को लिखा किसी का प्रेम-पत्र है। पता चलता है पत्र को पढ़कर कि बेटा अपना नहीं है, किसी और से पैदा हुआ है। सब भावना विदा हो गई। कोई भावना न रही। दवाई की बोतलें हटा देता है। जहर की बोतलें रख देता है। रात एकांत में गरदन दबा देता है। वही आदमी जो उसे बचाने के लिए कह रहा था, वही आदमी गरदन दबा देता है।
भावना का क्या हुआ? यह कैसी भावना थी? यह भावना नहीं थी। यह मेरे के लिए भावना का मिथ्या भ्रम था। मेरा नहीं, तो बात समाप्त हो गई।
टाल्सटाय ने एक कहानी लिखी है। लिखा है कि एक आदमी का बेटा बहुत दिन से घर के बाहर चला गया। बाप ही क्रोधित हुआ था, इसलिए चला गया था। फिर बाप बूढ़ा होने लगा। बहुत परेशान था। अखबारों में खबर निकाली, संदेशवाहक भेजे। फिर उस बेटे का पत्र आ गया कि मैं आ रहा हूं। आपने बुलाया, तो मैं आता हूं। मैं फलां-फलां दिन, फलां-फलां ट्रेन से आ जाऊंगा।
स्टेशन दूर है, देहात में रहता है बाप। अपनी बग्घी कसकर वह उसे लेने आया। मालगुजार है, जमींदार है। लेकिन उसके आने पर पता चला कि ट्रेन आ चुकी है। वह सोचता था चार बजे आएगी, वह दो बजे आ गई। तो धर्मशाला में ठहरा जाकर। अब अपने बेटे की तलाश करे कि वह कहां गया!
धर्मशाला में कोई जगह खाली नहीं है। धर्मशाला के मैनेजर को उसने कहा कि कोई भी जगह तो खाली करवाओ ही। वह जमींदार है। तो उसने कहा कि अभी एक कोई भिखमंगा-सा आदमी आकर ठहरा है इस कमरे में--उसको निकाल बाहर कर दें? उसने कहा कि निकाल बाहर करो। उसे पता नहीं कि वह उसका बेटा है। उसे निकाल बाहर कर दिया गया। वह अपने कमरे में आराम से...। उसने आदमी भेजे कि गांव में खोजो।
वह बेटा बाहर सीढ़ियों पर बैठा है। सर्द रात उतरने लगी। उस गरीब लड़के ने बार-बार कहा कि मुझे भीतर आ जाने दें, बर्फ पड़ रही है और मुझे बहुत दर्द है पेट में। पर उसने कहा कि यहां गड़बड़ मत करो; भाग जाओ यहां से; रात मेरी नींद हराम मत कर देना। फिर रात पेट की तकलीफ से वह लड़का चीखने लगा। तो उसने नौकरों से उसे उठवाकर सड़क पर फिंकवा दिया।
फिर सुबह वह मर गया। सुबह जब वह जमींदार उठा, तो वह लड़का मरा हुआ पड़ा था। लोगों की भीड़ इकट्ठी थी। लोग कह रहे थे, कौन है, क्या है, कुछ पता लगाओ। किसी ने उसके खीसे में खोज-बीन की तो चिट्ठी मिल गई। तब तो उन्होंने कहा कि अरे, वह जमींदार जिसको खोज रहा है, यह वही है। यह जमींदार को लिखी गई चिट्ठी-पत्री, यह अखबारों की कटिंग! यह उसका लड़का है।
वह जमींदार बाहर बैठकर अपना हुक्का पी रहा है। जैसे ही उसने सुना कि मेरा लड़का है, एकदम भावना आ गई। अब वह छाती पीट रहा है, अब वह रो रहा है। अब उस लड़के को--मरे को--कमरे के अंदर ले गया है। जिंदा को रात नहीं ले गया। मरे को दिन में कमरे के अंदर ले गया। अब उसकी सफाई की जा रही है--मरे पर। मरे को नए कपड़े पहनाए जा रहे हैं! वह जमींदार का बेटा है। अब उसको घर ले जाने की तैयारी चल रही है। और रात उसने कई बार प्रार्थना की, मुझे भीतर आने दो, तो उसको नौकरों से सड़क पर फिंकवा दिया। यह भावना है?
नहीं, यह भावना का धोखा है। भावना मेरेत्तेरे से बंधी नहीं होती, भावना भीतर का सहज भाव है। अगर भावना होती, तो उसे कमरे के बाहर निकालना मुश्किल होता। अगर भावना होती, तो रात उसके पेट में दर्द है, सर्द रात है, बर्फ पड़ती है, उसे बाहर बिठाना मुश्किल होता। यह सवाल नहीं है कि वह कौन है। सवाल यह है कि भाव है भीतर!
ध्यान रहे, भावना स्वयं की स्फुरणा है। दूसरे का सवाल नहीं कि वह कौन है। मर रहा है एक आदमी, नौकरों से फिंकवादिया उसको उठवाकर!
टाल्सटाय ने जब यह कहानी लिखी, तो उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि यह कहानी मेरी एक अर्थों में आटोबायोग्राफी भी है। यह मेरा आत्मस्मरण भी है। क्योंकि खुद टाल्सटाय शाही परिवार का था।
उसने लिखा है, मेरी मां मैं समझता था बहुत भावनाशील है। लेकिन यह तो मुझे बाद में उदघाटन हुआ कि उसमें भावना जैसी कोई चीज ही नहीं है। क्यों समझता था कि भावना थी? क्योंकि थिएटर में उसके चार-चार रूमाल भीग जाते थे आंसुओं से। जब नाटक चलता और कोई दुख, ट्रेजेडी होती, तो वह ऐसी धुआंधार रोती थी कि नौकर रूमाल लिए खड़े रहते--शाही घर की लड़की थी--तत्काल रूमाल बदलने पड़ते थे। चार-चार, छह-छह, आठ-आठ रूमाल एक नाटक, एक थिएटर में भीग जाते। तो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं उसके बगल में बैठकर देखा करता था, मेरी मां कितनी भावनाशील!
लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तब मुझे पता चला कि उसकी बग्घी बाहर छह घोड़ों में जुती खड़ी रहती थी और आज्ञा थी कि कोचवान बग्घी पर ही बैठा रहे। क्योंकि कब उसका मन हो जाए थिएटर से जाने का, तो ऐसा न हो कि एक क्षण को भी कोचवान ढूंढ़ना पड़े। बाहर बर्फ पड़ती रहती और अक्सर ऐसा होता कि वह थिएटर में नाटक देखती, तब तक एक-दो कोचवानमर जाते। उनको फेंक दिया जाता, दूसरा कोचवान तत्काल बिठाकर बग्घी चला दी जाती। वह औरत बाहर आकर देखती कि मुरदेकोचवान को हटाया जा रहा है और जिंदा आदमी को बिठाया जा रहा है। और वह थिएटर के लिए रोती रहती, वह थिएटर में जो ट्रेजेडी हो गई!
तो टाल्सटाय ने लिखा है कि एक अर्थ में यह कहानी मेरी आटोबायोग्राफिकल भी है, आत्म-कथ्यात्मक भी है। ऐसा मैंने अपनी आंख से देखा है। तब मुझे पता चला कि भावना कोई और चीज होगी। फिर यह चीज भावना नहीं है।
जिसको हम भावना कहते हैं, कृष्ण उसको भावना नहीं कह रहे। भावना उठती ही उस व्यक्ति में है, जो अपने से संयुक्त है, जो अपने में युक्त है। युक्त यानी योग को उपलब्ध, युक्त यानी जुड़ गया जो, संयुक्त। अयुक्त अर्थात वियुक्त--जो अपने से जुड़ा हुआ नहीं है। वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। युक्त सदा अपने से जुड़ा रहता है।
वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। उसके सब लिंक दूसरों से होते हैं। वह किसी का पिता है, किसी का पति है, किसी का मित्र है, किसी का शत्रु है, किसी का बेटा है, किसी का भाई है, किसी की बहन है, किसी की पत्नी है। लेकिन खुद कौन है, इसका उसे कोई पता नहीं होता। उसकी अपने बाबत सब जानकारी दूसरों के बाबत जानकारी होता है। पिता है, अर्थात बेटे से कुछ संबंध है। पति है, यानी पत्नी से कोई संबंध है। उसकी अपने संबंध में सारी खबर दूसरों से जुड़े होने की होती है।
अगर हम उससे पूछें कि नहीं, तू पिता नहीं, भाई नहीं, मित्र नहीं--तू कौन है? हू आर यू? तो वह कहेगा, कैसा फिजूल सवाल पूछते हैं! मैं तो पिता हूं, मैं तो पति हूं, मैं तो क्लर्क हूं, मैं तो मालिक हूं। लेकिन ये सब फंक्शंस हैं। यह सब दूसरों से जुड़े होना है।
अयुक्त व्यक्ति दूसरों से जुड़ा होता है। जो दूसरों से जुड़ा होता है, उसमें भावना कभी पैदा नहीं होती। क्योंकि भावना तभी पैदा होती है, जब कोई अपने से जुड़ता है। जब अपने भीतर के झरनों से कोई जुड़ता है, तब भावना का स्फुरण होता है। जो दूसरों से जुड़ता है, उसमें भावना नहीं होती--एक। जो दूसरों से जुड़ा होता है, वह सदा अशांत होता है--दो। क्योंकि शांति का अर्थ ही अपने भीतर जो संगीत की अनंत धारा बह रही है, उससे संयुक्त हो जाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
शांति का अर्थ है, इनर हार्मनी; शांति का अर्थ है, मैं अपने भीतर तृप्त हूं, संतुष्ट हूं। अगर सब भी चला जाए, चांदत्तारेमिट जाएं, आकाश गिर जाए, पृथ्वी चली जाए, शरीर गिर जाए, मन न रहे, फिर भी मैं जो हूं, काफी हूं--मोर दैन इनफ--जरूरत से ज्यादा, काफी हूं।
पाम्पेई नगर में, पाम्पेई का जब विस्फोट हुआ, ज्वालामुखी फूटा, तो सारा गांव भागा। आधी रात थी। गांव में एक फकीर भी था। कोई अपनी सोने की तिजोरी, कोई अपनी अशर्फियों का बंडल, कोई फर्नीचर, कोई कुछ, कोई कुछ, जो जो बचा सकता है, लोग लेकर भागे। फकीर भी चला भीड़ में; चला, भागा नहीं।
भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए या आगे कुछ होना चाहिए। भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए, जिससे भागो; या आगे कुछ होना चाहिए, जिसके लिए भागो।
सारा गांव भाग रहा है, फकीर चल रहा है। लोगों ने उसे धक्के भी दिए और कहा कि यह कोई चलने का वक्त है! भागो। पर उसने कहा, किससे भागूं और किसके लिए भागूं? लोगों ने कहा, पागल हो गए हो! यह कोई वक्त चलने का है। कोई टहल रहे हो तुम! यह कोई तफरीह हो रही है!
उस आदमी ने कहा, लेकिन मैं किससे भागूं! मेरे पीछे कुछ नहीं, मेरे आगे कुछ नहीं। लोगों ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उससे कहा कि कुछ बचाकर नहीं लाए! उसने कहा, मेरे सिवाय मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैंने कभी कोई चीज बचाई नहीं, इसलिए खोने का उपाय नहीं है। मैं अकेला काफी हूं।
कोई रो रहा है कि मेरी तिजोरी छूट गई। कोई रो रहा है कि मेरा यह छूट गया। कोई रो रहा है कि मेरा वह छूट गया। सिर्फ एक आदमी उस भीड़ में हंस रहा है। लोग उससे पूछते हैं, तुम हंस क्यों रहे हो? क्या तुम्हारा कुछ छूटा नहीं? वह कहता है कि मैं जितना था, उतना यहां भी हूं। मेरा कुछ भी नहीं छूटा है।
उस अशांत भीड़ में अकेला वही आदमी है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। बाकी सब कुछ न कुछ बचाकर लाए हैं, फिर भी अशांत हैं। और वह आदमी कुछ भी बचाकर नहीं लाया और फिर भी शांत है। बात क्या है?
युक्त पुरुष शांत हो जाता है, अयुक्त पुरुष अशांत होता है। ज्ञानी युक्त होकर शांति को उपलब्ध हो जाता है।
इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। ६७।।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ६८।।
क्योंकि, जल में वायु नाव को जैसे कंपित कर देता है,
वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों के बीच में
जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इंद्रिय
इस अयुक्त पुरुष की प्रज्ञा का हरण कर लेती है।
इससे हे महाबाहो, जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार
इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं,
उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।
जैसे नाव चलती हो और हवा की आंधियों के झोंके उस नाव को डांवाडोल कर देते हैं; आंधियां तेज हों, तो नाव डूब भी जाती है; ऐसे ही कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जिसके चित्त की शक्ति विषयों की तरफ विक्षिप्त होकर भागती है, उसका मन आंधी बन जाता है, उसका मन तूफान बन जाता है। उस आंधी और तूफान में शांति की, समाधि की, स्वयं की नाव डूब जाती है। लेकिन अगर आंधियां न चलें, तो नाव डगमगाती भी नहीं। अगर आंधियां बिलकुल न चलें, तो नाव के डूबने का उपाय ही नहीं रह जाता।
ठीक ऐसे ही मनुष्य का चित्त जितने ही झंझावात से भर जाता है वासनाओं के, जितने ही जोर से चित्त की ऊर्जा और शक्ति विषयों की तरफ दौड़ने लगती है, वैसे ही जीवन की नाव डगमगाने लगती है और डूबने लगती है।
ज्ञानी पुरुष इस सत्य को देखकर, इस सत्य को पहचानकर यह चित्त की वासना की आंधियों को नहीं दौड़ाता। क्या मतलब है? रोक लेता है? लेकिन आंधियां अगर रोकी जाएंगी, तो भी आंधियां ही रहेंगी। और दौड़ रही आंधियां शायद कम संघातक हों, रोकी गई आंधियां शायद और भी संघातक हो जाएं।तो क्या ज्ञानी पुरुष आंधियों को रोक लेता है, रिस्ट्रेन करता है? अगर रोकेगा, तो भी आंधियां आंधियां ही रहेंगी और रुकी आंधियों का वेग और भी बढ़ जाएगा। तो क्या करता है ज्ञानी पुरुष?
यह बहुत मजे की और समझने की बात है कि आंधियां रोकनी नहीं पड़तीं, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। रोकनी नहीं पड़तीं,सिर्फ चलानी पड़ती हैं। आप न चलाएं, तो रुक जाती हैं। क्योंकि आंधियां कहीं बाहर से नहीं आ रही हैं, आपके ही सहयोग, कोआपरेशन से आ रही हैं।
मैं इस हाथ को हिला रहा हूं। इस हाथ को हिलने से मुझे रोकना नहीं पड़ता। जब रोकता हूं, तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि अब नहीं हिलाता हूं। कोई हाथ अगर बाहर से हिलाया जा रहा हो, तो मुझे रोकना पड़े। मैं ही हिला रहा हूं, तो रोकने का क्या मतलब होता है! शब्द में रोकना क्रिया बनती है, उससे भ्रांति पैदा होती है। यथार्थ में, वस्तुतः रोकना नहीं पड़ता, सिर्फ चलाता नहीं हूं कि हाथ रुक जाता है।
एक झेन फकीर हुआ, उसका नाम था रिंझाई। एक आदमी उसके पास गया और उसने कहा कि मैं कैसे रोकूं? उस फकीर ने कहा, गलत सवाल मेरे पास पूछा तो ठीक नहीं होगा। यह डंडा देखा है! रिंझाई एक डंडा पास रखता था। और वह दुनिया बहुत कमजोर है, जहां फकीर के पास डंडा नहीं होता। कृष्ण कुछ कम डंडे की बात नहीं करते!
एक मित्र कल मुझसे कह रहे थे कि मेरी हालत भी अर्जुन जैसी है। आप मुझे सम्हालना! मेरे मन में हुआ कि उनसे कहूं कि अगर कृष्ण जैसा एक दफा तुमसे कह दूं, महामूर्ख! तुम दुबारा लौटकर न आओगे। तुम आओगे ही नहीं।
अर्जुन होना भी आसान नहीं है। वह कृष्ण उसको डंडे पर डंडे दिए चले जाते हैं। भागता नहीं है। संदेह है, लेकिन निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है। संदेह है, तो सवाल उठाता है। निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है, इसलिए भागता भी नहीं है।
रिंझाई ने कहा कि देखा है यह डंडा! झूठे गलत सवाल पूछेगा, सिर तोड़ दूंगा।
उस आदमी ने कहा, क्या कहते हैं आप! सिर मेरा वैसे ही अपनी वासनाओं से टूटा जा रहा है। आप मुझे कोई तरकीब रोकने की बताएं। रिंझाई ने कहा, रोकने की बात नहीं है, मैं तुझसे यह पूछता हूं, किस तरकीब से वासनाओं को चलाता है? क्योंकि तू ही चलाने वाला है, तो रोकने की तरकीब पूछनी पड़ेगी!
एक आदमी दौड़ रहा है और हमसे पूछता है, कैसे रुकें? रुकना पड़ता है! सिर्फ नहीं दौड़ना पड़ता है। रुकना नहीं पड़ता है, सिर्फ नहीं दौड़ना पड़ता है।
हां, कोई उसको घसीट रहा हो, कोई उसकी गरदन में बैल की तरह रस्सी बांधकर खींच रहा हो, तब भी कोई सवाल है। कोई उसके पीछे से उसको धक्के दे रहा हो, तब भी कोई सवाल है। न उसे कोई घसीट रहा है, न कोई पीछे से धक्के दे रहा है, वह आदमी दौड़ रहा है। और कहता है, मैं कैसे रुकूं? तो उसे इतना ही कहना पड़ेगा, तू गलत ही सवाल पूछ रहा है। दौड़ भी तू ही रहा है, कैसे रुकने की बात भी तू ही पूछ रहा है। निश्चित ही तू रुकना नहीं चाहता, इसीलिए पूछ रहा है।
जो लोग रुकना नहीं चाहते, वे यही पूछते रहते हैं, कैसे रुकें? इसी में समय गंवाते रहते हैं। वे पूछते हैं, हाऊ टु डू इट?करना नहीं चाहते हैं। क्योंकि मजा यह है कि वासना को कैसे चलाएं, इसे पूछने आप कभी किसी के पास नहीं गए, बड़े मजे से चला रहे हैं।
तो कृष्ण कह रहे हैं कि जो इन आंधियों को नहीं चलाता है--रोक लेता है नहीं--नहीं चलाता है।
हमारा कोआपरेशन मांगती है वासना। आपने कोई ऐसी वासना देखी है, जो आपके बिना सहयोग के इंचभर सरक जाए! कभी बिना आपके सहयोग के आपके भीतर कोई भी वासना सरकी है इंचभर! तो फिर जरा लौटकर देखना। जब वासना सरके, तो खड़े हो जाना और कहना कि मेरा सहयोग नहीं, अब तू चल। और आप पाएंगे, वहीं गिर गई--वहीं--इंचभर भी नहीं जा सकती। आपका कोआपरेशन चाहिए।
एक मेरे मित्र हैं, उनको बड़ा क्रोध आता है। बड़े मंत्र पढ़ते हैं, बड़ी प्रार्थनाएं करते हैं, मंदिर जाते हैं और वहां से और क्रोधी होकर लौटते हैं। क्रोध नहीं जाता। बस, उनकी वही परेशानी है कि क्रोध! पर मैंने उनसे कहा कि तुम ही क्रोध करते हो कि कोई और करता है? उन्होंने कहा कि मैं ही करता हूं, लेकिन फिर भी जाता नहीं। कैसे जाए?
मैंने कहा कि अब यह सब छोड़ो। यह कागज मैं तुम्हें लिखकर देता हूं। कागज लिखकर उन्हें दे दिया। उसमें मैंने बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया कि अब मुझे क्रोध आ रहा है। मैंने कहा, इसे खीसे में रखो और जब भी क्रोध आए, तो इसे देखकर पढ़नाऔर फिर खीसे में रखना, और कुछ मत करना। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? मैं बड़े-बड़े ताबीज भी बांध चुका! मैंने कहा, छोड़ो ताबीज तुम। तुम इसको खीसे में रखो। पंद्रह दिन बाद मेरे पास आना।
पंद्रह दिन बाद नहीं, वे पांच ही दिन बाद आ गए। और कहने लगे कि क्या जादू है? क्योंकि जैसे ही मैं इसको पढ़ता हूं कि अब मुझे क्रोध आ रहा है, पता नहीं भीतर क्या होता है--गया! कोआपरेशन नहीं मिल पाता। एक सेकेंड को कोआपरेशन चूक जाए--गया।
फिर तो वे कहने लगे, अब तो खीसे तक अंदर हाथ भी नहीं लगाना पड़ता। इधर हाथ गया कि अक्षर खयाल आए कि अब क्रोध आ रहा है; बस कोई चीज एकदम से बीच में जैसे फ्लाप! कोई चीज एकदम से गिर जाती है।
वासना सहयोग मांगती है आपका। निर्वासना सिर्फ असहयोग मांगती है। निर्वासना के लिए कुछ करना नहीं है, वासना के लिए जो किया जा रहा है, वही भर नहीं करना है।
तो रिंझाई ने मुट्ठी बांध ली उस आदमी के सामने और कहा कि देख, यह मुट्ठी बंधी है, अब मुझे मुट्ठी को खोलना है। मैं क्या करूं? उस आदमी ने कहा कि क्या फिजूल की बातें पूछते हैं! बांधिए मत, मुट्ठी खुल जाएगी। बांधिए मत! क्योंकि बांधना पड़ता है; बांधना एक काम है। खोलना काम नहीं है। बांधने में शक्ति लग रही है, खोलने में कोई शक्ति नहीं लगती। न बांधिएतो मुट्ठी खुली रहती है, बांधिए तो बंधती है।
वासना शक्ति मांगती है; न दीजिए शक्ति, तो निर्वासना फलित हो जाती है।
ऐसा झंझावात से मुक्त हुआ चित्त स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, हे महाबाहो, जो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है, वह सब कुछ पा लेता है।


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। ६९।।
और हे अर्जुन, संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए जो रात्रि है, उसमें भगवत्ता को प्राप्त हुआ संयमी पुरुष जागता है। और जिस नाशवान, क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूत प्राणी जागते हैं, तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है।
जो सबके लिए अंधेरी रात है, वह भी ज्ञानी के लिए, संयमी के लिए जागरण का क्षण है। जो निद्रा है सबके लिए, वह भी ज्ञानी के लिए जागृति है। यह महावाक्य है। यह साधारण वक्तव्य नहीं है। यह महावक्तव्य है। इसके बहुआयामी अर्थ हैं। दोत्तीन आयाम समझ लेना जरूरी है।
एक तो बिलकुल सीधा, जिसको कहना चाहिए लिटरल जो अर्थ है, वह भी इसका अर्थ है। आमतौर से गीता पर किए गए र्वात्तिक उसके तथ्यगत अर्थ को कभी भी नहीं लेते हैं। जो कि बड़ी ही गलत बात है। वे सदा ही उसको मेटाफर बना लेते हैं। वह सिर्फ मेटाफर नहीं है। जब यह बात कही जा रही है कि जो सबके लिए निद्रा है, वह भी संयमी और ज्ञानी के लिए जागरण है, तो इसका पहला अर्थ बिलकुल शाब्दिक है। जब आप रात सोते हैं, तब भी संयमी नहीं सोता है।
इसे पहले समझ लेना जरूरी है, क्योंकि इसे कहने की हिम्मत नहीं जुटाई जा सकी है आज तक। सदा उसका अर्थ मोहरूपी निशा और और सब रूपी बातें कही गई हैं। इसका पहला अर्थ बिलकुल ही तथ्यगत है।
जब आप रात सोते हैं, तब भी ज्ञानी नहीं सोता है। इसका क्या मतलब है? बिस्तर पर नहीं लेटता है! इसका क्या मतलब है? आंख बंद नहीं करता है! इसका क्या मतलब है? रात विश्राम को उपलब्ध नहीं होता है! नहीं, यह सब करता है, फिर भी नहीं सोता है। दोत्तीन उदाहरण से इस बात को समझें।
बुद्ध ने आनंद को दीक्षा दी। वह उनका चचेरा भाई था और बड़ा भाई था। तो दीक्षा लेते वक्त आनंद ने कहा कि दीक्षा के बाद तो तुम गुरु और मैं शिष्य हो जाऊंगा, तो मैं तुमसे फिर कुछ कह न सकूंगा। अभी मैं तुम्हें आज्ञा दे सकता हूं, मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। दीक्षा लेने के पहले मैं तुम्हें दोत्तीन आज्ञाएं देता हूं, जो तुम्हें छोटे भाई की तरह माननी पड़ेंगी। बुद्ध ने कहा, कहो।
आनंद ने कहा, एक तो यह कि मैं चौबीस घंटे तुम्हारे साथ रहूंगा। रात तुम सोओगे जहां, वहीं मैं भी सोऊंगा। दूसरा यह कि जब भी मैं कोई सवाल पूछूं, तुम्हें उसी वक्त उत्तर देना पड़ेगा, टाल न सकोगे। तीसरा यह कि मैं अंधेरी आधी रात में भी किसी को मिलाने ले आऊं, तो मिलना पड़ेगा, इनकार न कर सकोगे। तो ये तीन आज्ञाएं देता हूं बड़े भाई की हैसियत से। फिर दीक्षा के बाद तो मैं कुछ कह न सकूंगा। तुम्हारी आज्ञा मेरे सिर पर होगी।
बुद्ध ने ये वचन दे दिए। फिर आनंद बुद्ध के कमरे में ही सोता। दो-चार-दस दिन में ही बहुत हैरान हुआ। क्योंकि बुद्ध जिस करवट सोते हैं--जहां हाथ रखते हैं, जहां पैर रखते हैं--रात में इंचभर भी हिलाते नहीं। कभी करवट भी नहीं बदलते। हाथ जहां रखा है, वहीं रखा रहता है पूरी रात। पैर जहां रखा है, वहीं रखा रहता है पूरी रात। तो 

आनंद ने कहा कि यह क्या मामला है! यह कैसी नींद है!
दो-चार-दस दिन, रात में कई बार उठकर उसने देखा। देखा कि वही--वही मुद्रा है, वही आसन है, वही व्यवस्था है--सब वही है। दसवें दिन उसने पूछा कि एक सवाल उठ गया है। रात में सोते हो या क्या करते हो? बुद्ध ने कहा, जब से अज्ञान टूटा, तब से सिर्फ शरीर सोता है, मैं नहीं सोता हूं। तो अगर करवट, तो मुझे बदलनी पड़े, मेरे बिना सहयोग के शरीर नहीं बदल सकता। कोई जरूरत नहीं बदलने की। एक ही करवट से काम चल जाता है। तो फकीर आदमी को जितने से काम चल जाए, उससे ज्यादा के उपद्रव में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसे ही चल जाता है काम। हाथ जहां रखता हूं, वहीं रखे रहता हूं। हाथ सो जाता है, मैं नहीं सोता हूं।
कृष्ण कहते हैं, जो सबके लिए अंधेरी निद्रा है, वह भी ज्ञानी के लिए जागरण है।
आप भी पूरे नहीं सोते हैं। क्योंकि ज्ञान का कोई न कोई कोना तो आप में भी जागा रहता है। यहां हम इतने लोग बैठे हैं, सब सो जाएं, रात कोई आदमी आकर चिल्लाए, राम! सबको सुनाई पड़ेगा, लेकिन सबको सुनाई नहीं पड़ेगा। जिसका नाम राम है, वह कहेगा, कौन बुला रहा है? कान सबके हैं, सब सोए हैं। राम शब्द गूंजा है, तो सबको सुनाई पड़ा है। लेकिन जो राम है, वह कहता है, कौन बुला रहा है? रात में कौन गड़बड़ करता है? सोने नहीं देता!
क्या हुआ! जरूर इसके भीतर चेतना का एक कोना इस रात में भी जागा है; पहरा दे रहा है। पहचानता है कि राम नाम है अपना।

मां सोई है रात, तूफान आ जाए बाहर, आंधी आ जाए, बादल गरजें, बिजली चमके, उसकी नींद नहीं टूटती। उसका बच्चा जरा-सा कुनकुन करे, वह फौरन हाथ रख लेती। भीतर कोई हिस्सा जागा हुआ है मां का, वह देख रहा है कि बच्चे को कोई गड़बड़ न हो जाए। और बच्चे की गड़बड़ इतनी धीमी है कि मां के एक हिस्से को जागा ही रहना होगा।
आकाश में बिजली चमकती है, बादल गरजते हैं, पानी बरस रहा है, उसका कुछ सुनाई नहीं पड़ता उसे। लेकिन बच्चे की जरा-सी आवाज, उसका जरा-सा करवट लेना, उसकी धीमी-सी पुकार उसे तत्काल जगा देती है। एक हिस्सा उसका भी जागा हुआ है। पर एक हिस्सा! जरूरत के वक्त, इमरजेंसी मेजर है वह हमारा। साधारणतः हमारी पूरी चेतना डूबी रहती है अंधेरे में।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी पुरुष नींद में भी जागा रहता है। पहला अर्थ, पहले आयाम का अर्थ, वास्तविक निद्रा में भी जागरण है।
और मैं आपसे कहता हूं कि यह बहुत कठिन नहीं है। जो आदमी दिन के जागते हिस्से में बारह घंटे जागा हुआ जीएगा, वह रात में जागा हुआ सोता है। आप रास्ते पर चल रहे हैं, जागकर चलें। आप खाना खा रहे हैं, जागकर खाएं। आप किसी से बात कर रहे हैं, जागकर बोलें। सुन रहे हैं, जागकर सुनें। यह नींद-नींद, स्लीपी-स्लीपी न हो। यह सब ऐसे ही चल रहा है।
एक आदमी खाना खा रहा है। हमें लगता है कि नींद में कैसे खाना खा सकता है! लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब लोग नींद में खाना खा रहे हैं।
इमरसन एक बड़ा विचारक हुआ। सुबह बैठा है। उसकी नौकरानी नाश्ता रख गई। किताब में उलझा है, तो नौकरानी ने बाधा नहीं दी। किताब से छूटेगा, तो नाश्ता कर लेगा।
उसका एक मित्र मिलने आया है। वह किताब में डूबा है। नाश्ता पास है। मित्र ने सोचा, इससे बात पीछे कर लेंगे, पहले नाश्ता कर लें। मित्र ने नाश्ता कर लिया, प्लेट खाली करके बगल में सरका दी। फिर इमरसन ने कहा, अरे कब आए? मित्र को देखा, खाली प्लेट को देखा और कहा कि जरा देर से आए, मैं नाश्ता कर चुका हूं।
इस आदमी ने कभी जागकर नाश्ता किया होगा? नहीं, हमने भी नहीं किया है। एक रूटीन है, जिसको हम नींद में भी कर लेते हैं। आदमी साइकिल चलाता है। पैर साइकिल चलाते रहते हैं, आदमी भीतर कुछ और चलाता रहता है। चलता चला जाता है। नींद है।
सड़क के किनारे खड़े हो जाएं, लोगों को जरा चलते देखें। कोई बातचीत करता दिखाई पड़ेगा किसी से, जो मौजूद नहीं है। किसी के ओंठ हिल रहे हैं। कोई हाथ से किसी को झिड़क रहा है। कोई इशारा कर रहा है। आप बहुत हैरान होंगे कि किससे हो रहा है यह सब! नींद, नींद में चल रहे हैं। जब हम जागे हुए भी सोए हैं, तो सोए हुए जागना बहुत मुश्किल है।
इसलिए मैं कहता हूं कि जिन लोगों ने गीता के इस महावाक्य पर वक्तव्य दिए हैं, उनको खुद का कोई अनुभव नहीं है। अन्यथा यह पहला वक्तव्य चूक नहीं सकता था। उनको साफ पता नहीं है कि नींद में जागा हुआ हुआ जा सकता है। लेकिन जागे हुए ही सोए हुए आदमियों को नींद में जागने का खयाल भी नहीं उठ सकता है! तो वे इसका मेटाफोरिकल अर्थ करते हैं। वह अर्थ ठीक नहीं है।
जो आदमी दिन में जागकर चलेगा, उठेगा, बैठेगा, वह रात में भी जागा हुआ सोएगा।
महावीर ने कहा है--अजीब बात कही है--महावीर ने कहा है, साधुओ! जागकर चलना, जागकर उठना, जागकर बैठना। सब ठीक है। लेकिन आखिर में महावीर कहते हैं, जागकर सोना। पागलपन की बातें कर रहे हैं! तो फिर सोएंगे काहे के लिए! जागकरसोना, जागते रहना और देखना कि नींद कब आई।
आप कितनी दफे सोए हैं, कभी नींद को आते देखा? जिंदगीभर सोए, रोज सोए। आदमी साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। आठ घंटे सोए अगर, तो बीस साल सोने में चले जाते हैं। जिंदगी का एक तिहाई सोते हैं। बीस साल सोकर भी कभी आपको पता है, नींद कब आती है? कैसे आती है? नींद क्या है?
कैसा अदभुत है यह मामला! बीस साल जिस अनुभव से गुजरते हैं, उस अनुभव की कोई भी पहचान नहीं है! रोज सोते हैं। लेकिन कोई आपसे पूछे कि नींद क्या है? व्हाट इज़ दि स्लीप? कैसे आती है? आते वक्त क्या उसकी शकल है, क्या उसका रूप है? कैसे उतरती है? जैसे सांझ उतरती है अंधकार की, सूरज डूबता है, ऐसा आपके भीतर क्या उतरता है नींद में?
आप कहेंगे कि कुछ पता नहीं है। क्योंकि जब तक जागे रहते हैं, तब तक नींद नहीं आती। जब नींद आ जाती है, उसके पहले तो सो गए होते हैं।
सुबह उठते हैं रोज। कभी देखा है कि नींद का टूटना क्या है, फिनामिनल? नींद कैसे टूटती है? क्या होता है नींद के टूटनेमें?
आप कहते हैं, कुछ पता नहीं। जब तक नींद नहीं टूटती, तब तक हम नहीं होते। जब नींद टूट जाती है, तब टूट ही चुकी होती है। कोई हमें पता नहीं।
कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी जागकर सोता है।
और जिस व्यक्ति ने अपनी नींद को जागकर देख लिया, वही व्यक्ति अपनी मृत्यु को भी जागकर देख सकता है, अन्यथा नहीं देख सकता है। इसलिए इस सूत्र को मैं महावाक्य कहता हूं।
मौत तो कल आएगी, नींद तो आज ही आएगी। रात नींद को देखते हुए सोएं। आज, कल, महीना, दो महीना, तीन महीना-- रोज सोते वक्त एक ही प्रार्थना मन में, एक ही भाव मन में आए कि उसे मैं देखूं। जागे रहें, जागे रहें, जागे रहें। देखते रहें, देखते रहें। आज चूकेंगे, कल चूकेंगे, परसों चूकेंगे। महीना, दो महीना, तीन महीना--अचानक किसी दिन आप पाएंगे कि नींद उतर रही है और आप देख रहे हैं। और जिस दिन आप नींद को उतरते देख लेंगे, उस दिन कृष्ण का यह महावाक्य समझ में आएगा; उसके पहले समझ में नहीं आ सकता है। यह इसका वास्तविक अर्थ है।
इसका जो मेटाफोरिकल अर्थ है, वह भी आपसे कहूं। वह भी है, लेकिन वह नंबर दो का मूल्य है उसका। नंबर एक का मूल्य इसी का है। वह भी है। लेकिन वह तो और बहुत-सी बातों में भी कह दिया गया है। उसको कहने के लिए इस वाक्य को कहने की कोई भी जरूरत न थी। वह दूसरा जो मोह-निशा, उसकी तो बहुत चर्चा हो गई। वह जो विषयों की नींद है, वह जो वासना की नींद है, तो उसकी तो काफी चर्चा हो गई है।
और कृष्ण जैसे लोग एक शब्द भी व्यर्थ नहीं बोलते हैं। एक शब्द पुनरुक्त नहीं करते हैं। अगर पुनरुक्ति दिखती हो, तो आपकी समझ में भूल और गलती होती है। कृष्ण जैसे लोग, दे नेवर रिपीट। क्योंकि रिपीट का कोई सवाल नहीं है। दोहराने की कोई जरूरत नहीं है।
क्या आपको पता है कि कौन लोग दोहराते हैं! सिर्फ वे ही लोग दोहराते हैं, जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। दूसरा आदमी नहीं दोहराता। जिसने एक बात पूरे विश्वास से कह दी पूरी तरह जानकर, बात खत्म हो गई।
तो कृष्ण दोहरा नहीं सकते। इसलिए मैं कहता हूं कि जो आम व्याख्या की गई है कि जहां कामी आदमी कामवासना में, मोह-निद्रा में, विषयों की नींद में, अंधेरे में डूबा रहता है, वहां संयमी आदमी जागा रहता है। इसको दोहराने के लिए इस वाक्य की बहुत जरूरत नहीं है। लेकिन वह अर्थ करें, तो बुरा नहीं है। लेकिन पहला अर्थ पहले समझ लें।
हां, दूसरा अर्थ है। एक तंद्रा का घेरा, कहना चाहिए एक हिप्नोटिक ऑरा, हमारे व्यक्तित्व में अटका हुआ है। जब आप चलते हैं, तो आपके चारों तरफ नींद का एक घेरा चलता है। जब जागा हुआ पुरुष चलता है, तब उसके पास भी चारों तरफ एक जागरण का एक घेरा चलता है। यह जो हमने फकीरों--नानक और कबीर और राम और कृष्ण और बुद्ध और महावीर के आस-पास, उनके चेहरे के पास एक गोल घेरा बनाया है, यह फोटोग्राफिक ट्रिक नहीं है। यह सिर्फ एक मिथ नहीं है। जागे हुए व्यक्ति के आस-पास प्रकाश का एक उज्ज्वल घेरा चलता है।
और जो लोग भी अपने भीतर के प्रकाश को देखने में समर्थ होते हैं, वे दूसरे के ऑरा को भी देखने में समर्थ हो जाते हैं। जिन लोगों को भीतर अपने प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है, वे उस आदमी के चेहरे के आस-पास प्रकाश के गोल घेरे को तत्काल देख लेते हैं। हां, आपको नहीं दिखता, क्योंकि आपको उस तरह के सूक्ष्म प्रकाश का कोई भी अनुभव नहीं है।
तो जैसे महावीर और बुद्ध और कृष्ण के चेहरे के आस-पास एक गोल वर्तुल चलता है जागरण का, रोशनी का, ऐसे ही हम सब सोए हुए आदमियों के आस-पास एक गोल वर्तुल चलता है अंधकार का, निद्रा का। वह भी आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि उसका पता भी तब चलेगा, जब प्रकाश दिखाई पड़े। तब आपको पता चलेगा कि जिंदगीभर एक अंधेरे का गोल घेरा भी आपके पास चलता था। पता तो पहले प्रकाश का चलेगा, तभी अंधकार का बोध होगा। उसके साथ ही हम पैदा होते हैं। उससे इतने निकट और परिचित होते हैं कि वह दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन मैं देखता हूं कि रास्ते पर दो आदमी चल रहे हों, तो दोनों के पास का चलने वाला घेरा अलग होता है। रंगों-रंगों के फर्क होते हैं, शेड के फर्क होते हैं। अंधेरे और सफेदी के बीच में बहुत से ग्रे कलर होते हैं।
लेकिन साधारणतः सोए आदमी के पास, सौ में से निन्यानबे आदमियों के पास नींद का एक वर्तुल चलता है, एक स्लीपीवर्तुल चलता है। वैसा आदमी जहां जाता है, उसके साथ उसकी नींद भी जाती है। वह जो भी छूता है, उसे नींद में छूता है। वह जो भी करता है, उसे नींद में करता है। वह जो भी बोलता है, नींद में बोलता है।
कभी आपने सोचा है कि आप अपने वक्तव्यों के लिए कितनी बार नहीं पछताए हैं! पछताए हैं। लेकिन कभी आपको पता है कि आपने ही बोला था--होश में!
पति घर आया है और एक शब्द पत्नी बोल गई है और कलह शुरू हो गई है। और वह जानती है कि यह शब्द रोका जा सकता था। क्योंकि यह शब्द पचीस दफे बोला जा चुका है और इस शब्द के आस-पास इसी तरह की कलह पचीस बार हो चुकी है। फिर यह आज क्यों बोला गया? नींद में बोल गई, फिर बोल गई। कल फिर बोलेगी, परसों फिर बोलेगी। वह नींद चलेगी। वह रोज वही बोलेगी और रोज वही होगा। पति भी रोज वही उत्तर देगा।
अगर एक पति-पत्नी को सात दिन ठीक से देख लिया जाए, तो उनकी पिछली जिंदगी और आगे की सारी जिंदगी की कथा लिखी जा सकती है कि पीछे क्या हुआ और आगे क्या होगा। क्योंकि यही होगा। इसकी पुनरुक्ति होती रहेगी।
ये नींद में चलते हुए लोग--वही क्रोध, वही काम, वही सब, वही दुख, वही पीड़ा, वही चिंता--सब वही। रोज उठते हैं और वही दोहराते हैं। जैसे सब तय है, बंधी हुई मशीन की तरह। बस, रोज अपनी मशीन पर जम जाते हैं और फिर दोहराते हैं।
यह नींद है। यह कृष्ण का दूसरा अर्थ है। जागा हुआ पुरुष जो भी करता है, वह नींद में करने वाले आदमी जैसा उसका व्यवहार नहीं है।
क्या फर्क पड़ेगा उसके व्यवहार में? तो उन्होंने इंगित दिए हैं कि नींद से भरा हुआ आदमी मैं के और अहंकार के आस-पास जीएगा। उसका सब कुछ अहंकार से भरा होगा।
कभी आपने खयाल किया है, आईने के सामने खड़े होकर जो तैयारी आप कर रहे हैं, वह आपकी तैयारी है कि अहंकार की तैयारी है! किसकी तैयारी कर रहे हैं? अहंकार की तैयारी कर रहे हैं। बाहर निकलते हैं, तो झाड़-झूड़ के साफ, रीढ़ सीधी कर लेते हैं। आंखें तेज हो जाती हैं। या तो सुरक्षा में लग जाते हैं या आक्रमण में लग जाते हैं। चल पड़े, नींद वाला आदमी निकला घर से बाहर, उपद्रव संभावित है, कि कुछ होगा अब। अब यह कुछ न कुछ करेगा। और सारे लोग अपने घरों के बाहर निकल रहे हैं। ये कुछ न कुछ करेंगे।
अमेरिका में अभी कार के एक्सिडेंट्स का जो सर्वे हुआ है, उससे पता चला है कि पचहत्तर प्रतिशत कार की दुर्घटनाएंभौतिक नहीं, मानसिक घटनाएं हैं। पागलपन की बात मालूम होती है न! कार की दुर्घटना और मानसिक! कार का भी कोई माइंडहै, कार का भी कोई मन है कि कार भी कोई मन से दुर्घटना करती है! कार का नहीं है, ड्राइवर का है, वह जो सारथी बैठे रहते हैं भीतर।
कभी आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो कार का एक्सेलेरेटर जोर से दबता है--नींद में, होश में नहीं। जल्दी आपको कहीं पहुंचना नहीं है। लेकिन चित्त क्रोध से भरा है। किसी चीज को दबाना चाहता है। इसकी फिक्र नहीं कि किसको दबा रहे हैं। एक्सेलेरेटर को ही दबा रहे हैं। अब एक्सेलेरेटर से कोई झगड़ा नहीं है। अब एक्सेलेरेटर को दबाइएगा क्रोध में, तो खतरा पक्का है। क्योंकि एक तो नींद में दबाया जा रहा है। आपको पता ही नहीं है कि क्यों दबा रहे हैं एक्सेलेरेटर को। पता होना चाहिए कि क्यों दबा रहे हैं, कहां दबा रहे हैं, कितनी भीड़ है, कितने लोग हैं, कितनी कारें दौड़ रही हैं। आपको कुछ पता नहीं है।
आप एक्सेलेरेटर को नहीं दबा रहे हैं। कोई अपनी पत्नी के सिर पर पैर दबा रहा है, कोई अपने बेटे के, कोई अपने बाप के, कोई अपने मालिक के। पता नहीं वह एक्सेलेरेटर किन-किन के लिए काम कर रहा है। पता नहीं कौन एक्सेलेरेटर उस वक्त बना हुआ है। दबाए जा रहे हैं। अब यह आदमी जो नींद में एक्सेलेरेटर दबा रहा है, इस आदमी को सड़क दिखाई पड़ रही होगी!
इसकी हालत ठीक वैसी है, मैंने सुना है, वर्षा हो रही है और एक आदमी अपनी कार चला रहा है। जोर से वर्षा हो रही है, लेकिन वह आदमी वाइपर नहीं चला रहा है कार के। तो उसकी पत्नी उससे कहती है, क्या कर रहे हो! जैसा कि पत्नियांआमतौर से ड्राइवर को गाइड करती रहती हैं। पति चलाता है, पत्नियां चलवाती हैं। वे पूरे वक्त बताती रहती हैं कि यह करो, यह करो।
पूछा, क्यों नहीं चला रहे हैं वाइपर? तो उसने कहा, कोई फायदा नहीं है, क्योंकि चश्मा तो मैं घर ही भूल आया हूं। वैसे ही नहीं दिखाई पड़ रहा है कुछ। पानी गिर रहा है कि नहीं गिर रहा है, इससे क्या मतलब है!
अब यह जो आदमी है, वह जो एक्सेलेरेटर को क्रोध में दबा रहा है, वह भी अंधा है। उसको भी कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है कि बाहर क्या हो रहा है। पचहत्तर प्रतिशत दुर्घटनाएं मानसिक घटनाएं हैं। यह नींद है।
इस नींद में हम उलटा भी करते हैं। वह तीसरा आयाम है। फिर हम आगे बढ़ें।
एक तीसरा अर्थ भी है; नींद का कृत्य हमेशा, जो आप करते हैं और जो होता है, उसका आपको कोई खयाल नहीं होता। जो आप करते हैं, उससे ही होता है। लेकिन जब होता है, तब आप पछताते हैं कि यह कैसे हो गया! क्योंकि हमने तो यह कभी न किया था।
एक स्त्री सज रही है, आईने के सामने सज रही है। अब उसे पता नहीं है कि सजकर वह क्या कर रही है। मैं सज रही हूं और कुछ भी नहीं कर रही! लेकिन वह सज-धजकर सड़क पर आ गई है। उसने चुस्त कपड़े पहन रखे हैं। अब उसको पता नहीं कि वह धक्का निमंत्रित कर रही है। कोई आदमी धक्का मारेगा। जब वह धक्का मारेगा, तब वह कहेगी कि बहुत ज्यादती हो रही है। वह स्त्री कहेगी, बहुत ज्यादती हो रही है, अन्याय हो रहा है, अनीति हो रही है। लेकिन सब तैयारी करके आई है वह। पर वह तैयारी नींद में की गई थी, उसे कोई काज-इफेक्ट दिखाई नहीं पड़ता कि ये इतने चुस्त कपड़े, इतने बेढंगे कपड़े, इतनी सजावट किसी को भी धक्का मारने के लिए निमंत्रण है।
और बड़े मजे की बात है, अगर उसको कोई धक्का न दे और कोई न देखे, तो भी दुखी लौटेगी कि बेकार गई, सब मेहनत बेकार गई। किसी ने देखा ही नहीं! सड़क पर कोई इसे न देखे, कोई इसको ले ही न, कोई अटेंशन न दे, तो यह ज्यादा दुखी लौटेगी। धक्का दे, तो भी दुखी लौटेगी। क्या हो रहा है यह!
मैंने सुना है कि एक बच्चे ने अपने बाप को खबर दी कि मैंने पांच मक्खियां मार डाली हैं। उसके बाप ने कहा, अरे! और उसने कहा कि तीन नर थे, दो मादाएं थीं। उसके बाप ने कहा कि हद कर रहा है, तूने कैसे पता लगाया? तो उसने कहा कि दो मक्खियां आईने-आईने पर ही बैठती थीं। समझ गया कि स्त्रियां होनीं चाहिए!
यह जो नींद में सब चल रहा है, इसमें हम ही कारण होते हैं और जब कार्य आता है, तब हम चौंककर खड़े हो जाते हैं कि यह मैंने नहीं किया! अगर हम नींद में न हों, तो हम फौरन समझ जाएंगे, यह मेरा किया हुआ है। यह धक्का मेरा बुलाया हुआ है। यह धक्का ऐसे ही नहीं आ गया है। इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, एक्सिडेंटल नहीं है। सब चीजों की हम व्यवस्था करते हैं। लेकिन फिर व्यवस्था जब पूरी हो जाती है, तब पछताते हैं कि यह क्या हो गया! यह क्या हो रहा है?
यह भी नींद का अर्थ है। संयमी, ज्ञानी इस भांति कभी नहीं सोता; जागा ही रहता है। स्वभावतः, जागकर वह वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा सोया आदमी करता है। उसका मैं कभी केंद्र में नहीं होता। मैं सदा नींद के ही केंद्र में होता है। समझ लें कि नींद का केंद्र मैं है। न-मैं, ईगोलेसनेस, निरअहंकार भाव, जागरण का केंद्र है।
यह बड़े मजे की बात है। इसको अगर हम ऐसा कहें तो बिलकुल कह सकते हैं कि सोया हुआ आदमी ही होता है, जागा हुआ आदमी होता नहीं। यह बड़ा उलटा वक्तव्य लगेगा। सोया हुआ आदमी ही होता है--मैं। जागा हुआ आदमी नहीं होता है--न-मैं। जागरण आदमी के अहंकार का विसर्जन है। निद्रा आदमी के अहंकार का संग्रहण है, कनसनटे्रशन है, केंद्रीकरण है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।। ७०।।
और जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष के प्रति संपूर्ण भोग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वह पुरुष परमशांति को प्राप्त होता है,
न कि भोगों को चाहने वाला।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।। ७१।।
क्योंकि, जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित और अहंकाररहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है,
वह शांति को प्राप्त होता है।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।। ७२।।
हे अर्जुन, यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की ब्राह्मी-स्थिति है। इसको प्राप्त होकर वह मोहित नहीं होता है
और अंतकाल में भी इस निष्ठा में स्थिर होकर
ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।
हे पार्थ! जैसे महासागर अनंत-अनंत नदियों को भी अपने में समाकर जरा भी मर्यादा नहीं खोता, इंचभर भी परिवर्तित नहीं होता; जैसे कुछ समाया ही नहीं उसमें, ऐसा ही होता है। जैसा पहले था हजारों नदियों के गिरने के, ऐसा ही बाद में होता है। ऐसे ही जो व्यक्ति जीवन के समस्त भोग अपरिवर्तित रूप से, भोगने के पहले जैसा था, भोगने के बाद भी वैसा ही होता है। जैसे कि भोगा ही न हो, अर्थात जो भोगते हुए भी न-भोगा बना रहता है, जो भोगते हुए भी भोक्ता नहीं बनता है, जिसमें कोई भी अंतर नहीं आता है, जो जैसा था वैसा ही है; नहीं होता, तो जैसा होता, होकर भी वैसा ही है। ऐसा व्यक्ति मुक्ति को, ब्राह्मी-स्थिति को उपलब्ध हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, हे पार्थ! तेरी मुक्ति की जिज्ञासा...।
बड़ी मजे की बात कहते हैं। क्योंकि अर्जुन ने जिज्ञासा मुक्ति की नहीं की थी। अर्जुन ने जिज्ञासा मुक्ति की नहीं की थी, अर्जुन ने जिज्ञासा सिर्फ युद्ध से बचने की की थी। लेकिन कृष्ण कहते हैं, हे पार्थ! तेरी मुक्ति की जिज्ञासा, तेरे मोक्ष की खोज के लिए तुझे यह बताता हूं।
अर्जुन ने नहीं की थी मुक्ति की जिज्ञासा, लेकिन अर्जुन ने जो भी जिज्ञासा की थी, कृष्ण ने उसे इस बीच मुक्ति की जिज्ञासा में रूपांतरित किया है। इस पूरी यात्रा में कृष्ण ने अर्जुन की जिज्ञासा को भी रूपांतरित किया है। धीरे-धीरे युद्ध गौण हो गया है। धीरे-धीरे युद्ध रहा ही नहीं है। बहुत देर हो गई, जब से युद्ध की बात समाप्त हो गई है। बहुत देर हो गई, जब से अर्जुन भी और हो गया है।
अर्जुन शब्द का अर्थ होता है, दैट व्हिच इज़ नाट स्ट्रेट। ऋजु से बनता है वह शब्द। ऋजु का मतलब होता है, सीधा-सरल। अर्जुन का मतलब होता है, तिरछा-इरछा। अर्जुन का मतलब होता है, आड़ा-तिरछा। अर्जुन सीधा-सादा नहीं है, बहुत आड़ा-तिरछा है। विचार करने वाले सभी लोग आड़े-तिरछे होते हैं। निर्विचार ही सीधा होता है।
अर्जुन की जिज्ञासा को कृष्ण ने बहुत रूपांतरित किया है, ट्रांसफार्म किया है। और ध्यान रहे, साधारणतः मनुष्य धर्म की जिज्ञासा शुरू नहीं करता, साधारणतः मनुष्य जिज्ञासा तो संसार की ही शुरू करता है। लेकिन उसकी जिज्ञासा को संसार से मुक्ति और मोक्ष की तरफ रूपांतरित किया जा सकता है। क्यों? इसलिए नहीं कि कृष्ण कर सकते हैं, बल्कि इसलिए कि संसार की जिज्ञासा करने वाला मनुष्य भी जानता नहीं कि क्या कर रहा है। उसकी गहरी और मौलिक जिज्ञासा सदा ही मुक्ति की होती है।
जब कोई धन खोजता है, तब भी बहुत गहरे में वैसा व्यक्ति आंतरिक दरिद्रता को मिटाने की चेष्टा में रत होता है--गलत चीज से, लेकिन चेष्टा उसकी यही होती है कि दरिद्र न रह जाऊं, दिवालिया न रह जाऊं। जब कोई आदमी पद खोजता है, तब भी उसकी भीतरी कोशिश, आत्महीनता न रह जाए, उसी की होती है--गलत जगह खोजता है। जब कोई आदमी युद्ध से भागना चाहता है, तब भी वह युद्ध से नहीं भागना चाहता, बहुत गहरे में संताप से, एंग्विश से, चिंता से ऊपर उठना चाहता है। लेकिन फिर भी वह ठीक दिशा में नहीं पहुंचता।
इस बात को कहकर कृष्ण बहुत गहरा इंगित दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, हे अर्जुन, तेरी मुक्ति की जिज्ञासा के लिए मैंने यह सब कहा। अगर तू महासागर जैसा हो जाए, जहां सब आए और सब जाए, लेकिन तुझे छुए भी नहीं, स्पर्श भी न करे, अनटच्ड, अस्पर्शित, तू पीछे वैसा ही रह जाए जैसा था, तो तू ब्राह्मी-स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। ब्राह्मी-स्थिति अर्थात तब तू नहीं रह जाता और ब्रह्म ही रह जाता है।
और जहां मैं नहीं रह जाता, ब्रह्म ही रह जाता है, वहां फिर कोई चिंता नहीं, क्योंकि सभी चिंताएं मैं के साथ हैं। जहां मैं नहीं रह जाता और ब्रह्म ही रह जाता है, वहां कोई दुख नहीं है, क्योंकि सब दुख मैं की उत्पत्तियां हैं। और जहां मैं नहीं रह जाता और ब्रह्म ही रह जाता है, वहां कोई मृत्यु नहीं, क्योंकि मैं ही मरता है, जन्म लेता है। ब्रह्म की न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म है। वह है।
ऐसा कृष्ण ने इस दूसरे अध्याय की चर्चा में, जिसे गीताकार सांख्ययोग कह रहा है, पहले अध्याय को कहा था विषादयोग, दूसरे अध्याय को कह रहा है सांख्ययोग। विषाद के बाद एकदम सांख्य! कहां विषाद से घिरा चित्त अर्जुन का और कहां ब्राह्मी-स्थिति अनंत आनंद से भरी हुई! इस संबंध में एक बात, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं।
धन्य हैं वे, जो अर्जुन के विषाद को उपलब्ध हो जाएं। क्योंकि उतने विषाद में से ही ब्राह्मी-स्थिति तक के शिखर तक उठने की चुनौती उत्पन्न होती है। कृष्ण ने अर्जुन के विषाद को ठीक से पकड़ लिया।
अगर अर्जुन किसी मनोवैज्ञानिक के पास गया होता, तो मनोवैज्ञानिक क्या करता! चूंकि मैंने यह कहा कि कृष्ण का यह पूरा शास्त्र एक साइकोलाजी है, इसलिए मैं यह भी अंत में आपसे कह दूं, अगर मनोवैज्ञानिक के पास अर्जुन गया होता, तो मनोवैज्ञानिक क्या करता! मनोवैज्ञानिक अर्जुन को एडजस्ट करता। मनोवैज्ञानिक कहता कि समायोजित हो जा। ऐसा तो युद्ध में होता ही है, सभी को ऐसी चिंता पैदा होती है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। तू नाहक की एबनार्मल बातों में पड़ रहा है। तू व्यर्थ की विक्षिप्त बातों में पड़ रहा है। ऐसे पागल हो जाएगा, न्यूरोसिस हो जाएगी। अर्जुन नहीं मानता, तो वह कहता कि तू फिर इलेक्ट्रिक शॉक ले ले; इंसुलिन के इंजेक्शन ले ले।
लेकिन कृष्ण ने उसके विषाद का क्रिएटिव उपयोग किया। उसके विषाद को स्वीकार किया कि ठीक है। अब इस विषाद को हम ऊपर ले चलते हैं। हम तुझे विषाद के लिए राजी न करेंगे। हम विषाद का ही उपयोग करके तुझे ऊपर ले जाएंगे।
असल में ज्ञान सदा ही अभिशाप को वरदान बना लेता है। अभिशाप को वरदान न बनाया जा सके, तो वह ज्ञान नहीं। अर्जुन के लिए जो अभिशाप जैसा फलित हुआ था, कृष्ण ने उसे वरदान बनाने की पूरी चेष्टा की है। उसके दुख का भी सृजनात्मक उपयोग किया है।
इसलिए मैं यह कहता हूं कि भविष्य का जो मनोविज्ञान होगा, वह सिर्फ मरीज को किसी तरह मरीजों के समाज में रहने योग्य नहीं बनाएगा, बल्कि मरीज की यह जो बेचैन स्थिति है, इस बेचैन स्थिति को मरीज की पूरी आत्मा के रूपांतरण के लिए उपयोग करेगा। वह क्रिएटिव साइकोलाजी होगी।
इसलिए कृष्ण का मनोविज्ञान साधारण मनोविज्ञान नहीं, सृजनात्मक मनोविज्ञान है। यहां हम कोयले को हीरा बनाने की कोशिश करते हैं; यह अल्केमी है। जैसा अल्केमिस्ट कहते रहे हैं कि हम लोअर बेस मेटल को--सस्ती और साधारण धातुओं को--सोना बनाते हैं। पता नहीं उन्होंने कभी बनाया या नहीं बनाया। लेकिन यहां अर्जुन बड़े बेस मेटल की तरह कृष्ण के हाथ में आया था, कोयले की तरह, उस कोयले को हीरा बनाने की उन्होंने बड़ी कोशिश की।
धन्य हैं वे, जो अर्जुन के विषाद को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि उनकी ही धन्यता ब्राह्मी-स्थिति तक पहुंचने की भी हो सकती है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और आनंद से सुना, इससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

हर घड़ी खुद से उलझना मुकद्दर है मेरा
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ओला-मैथिली शरण गुप्त
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-
विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"
यात्रा और यात्री - हरिवंशराय बच्चन
शक्ति और क्षमा - रामधारी सिंह "दिनकर"
राणा प्रताप की तलवार -श्याम नारायण पाण्डेय
वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल
कुछ बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है-- राहुल प्रसाद (महुलिया पलामू)
पथहारा वक्तव्य - अशोक वाजपेयी
कितने दिन और बचे हैं? - अशोक वाजपेयी
उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
राधे राधे श्याम मिला दे -भजन
ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का
हम आपके हैं कौन - बाबुल जो तुमने सिखाया-Ravindra Jain
नदिया के पार - जब तक पूरे न हो फेरे सात-Ravidra jain
जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक
जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन
अँखियों के झरोखों से - रविन्द्र जैन
किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है - साहिर लुधियानवी
सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक
वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा
प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक
गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन
सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
हम पंछी उन्मुक्त गगन के-शिवमंगल सिंह 'सुमन'
जंगल गाथा -अशोक चक्रधर
मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर
सूरदास के पद
रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक
घाघ कवि के दोहे -घाघ
मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी
बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक
प्रेयसी-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
राम की शक्ति पूजा -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
आत्‍मकथ्‍य - जयशंकर प्रसाद
गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ॰दयाराम आलोक
बिहारी कवि के दोहे
झुकी कमान -चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'
कबीर की साखियाँ - कबीर
भक्ति महिमा के दोहे -कबीर दास
गुरु-महिमा - कबीर
तु कभी थे सूर्य - चंद्रसेन विराट
सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
बीती विभावरी जाग री! jai shankar prasad
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
मैं अमर शहीदों का चारण-श्री कृष्ण सरल
हम पंछी उन्मुक्त गगन के -- शिवमंगल सिंह सुमन
उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
रश्मिरथी - रामधारी सिंह दिनकर
डॉ.दयाराम आलोक : साहित्य सृजन एवं दर्जी समाज उन्नायक अनुष्ठान
सुदामा चरित - नरोत्तम दास
अरुण यह मधुमय देश हमारा -जय शंकर प्रसाद
यह वासंती शाम -डॉ.आलोक
तुमन मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है.- डॉ॰दयाराम आलो
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"
सूरज पर प्रतिबंध अनेकों , कुमार विश्वास
रहीम के दोहे -रहीम कवि
जागो मन के सजग पथिक ओ! , फणीश्वर नाथ रेणु
रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

26.10.16

ईश्वर को अस्वीकार कर भगवान बुद्ध ने मनुष्य को बडी से बडी गरिमा से मंडित किया-osho






ईश्वर को अस्वीकार कर भगवान बुद्ध ने मनुष्य को बडी से बडी गरिमा से मंडित किया। यही दलील तो नास्तिक भी ईश्वर के खिलाफ पेश करते हैं। फिर दोनों में फर्क क्या है? क्या ईश्वर को अस्वीकार कर मनुष्य का अहंकार और भी अंधा नहीं होगा?…एस धम्‍मो सनंतनो–भाग-6 ….ओशोकल आपने कहा कि ईश्वर को अस्वीकार कर भगवान बुद्ध ने मनुष्य को बडी से बडी गरिमा से मंडित किया। यही दलील तो नास्तिक भी ईश्वर के खिलाफ पेश करते हैं। फिर दोनों में फर्क क्या है? औr क्या ईश्वर को अस्वीकार कर मनुष्य का अहंकार और भी अंधा नहीं होगा?
फर्क बारीक है। समझना चाहोगे, तो ही समझ सकोगे। सहानुभूतिपूर्वक समझोगे, तो ही समझ सकोगे। फर्क मोटा और स्थूल नहीं है।
इसीलिए तो हिंदुओं ने बुद्ध को भी नास्तिक कहा। नास्तिक कहकर भी बुद्ध की महिमा को अस्वीकार करना कठिन था। इसलिए अवतार भी स्वीकार किया। फर्क बड़ा बारीक है। मान भी न सके, इंकार भी न कर सके। बुद्ध को स्वीकार भी न कर सके, क्योंकि बात प्रगट ही नास्तिकता की मालूम होती है। लेकिन बुद्ध की महिमा को, प्रतिभा को, उनकी गरिमा को, उनके प्रकाश को अस्वीकार भी कैसे करें! हिंदू इतने अंधे भी न थे। तो अवतार भी स्वीकार किया।
बड़ी कठिनाई पड़ी होगी हिंदू—प्रतिभा को। सदा आसान होता है किसी को स्वीकार कर लेना, या अस्वीकार कर देना। लेकिन जब दोनों के बीच में कोई कड़ी आ जाती है, जहा अस्वीकार करते भी नहीं बनता, स्वीकार करते भी नहीं बनता, तो उसका अर्थ है कि बड़ी सूक्ष्म बात रही होगी। तय करना मुश्किल था कि बुद्ध ही कहते हैं कि नहीं कहते हैं। और हिंदू जैसी जाति को मुश्किल पडा, जो कि सूक्ष्म को समझने में सदियों से श्रम कर रही है।
नास्तिक जब कहता है, ईश्वर नहीं है, तो उसे मनुष्य से कोई प्रयोजन नहीं है। उसे इतना ही प्रयोजन है कि ईश्वर न हो। क्योंकि ईश्वर के होने से नियंत्रण पैदा होता है—वासना पर, तृष्णा पर, जीवन की अंधी दौड़ पर। स्वच्छंदता नहीं रह जाती। नास्तिक जब कहता है, ईश्वर नहीं है, तो वह यह कहता है, मनुष्य स्वच्छंद है। अब जो करना हो करो! न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। न कोई नियंता है, न कहीं कोई है जिसके सामने किसी दिन उत्तर देना पड़े। उत्तरदायी होने का कोई सवाल नहीं है। मरने के बाद सभी मिट जाते हैं।
चार्वाक ने कहा है, घी भी उधार लेकर पी लो। पीने से मत चूको। चुकाना कहां है? चुकाना किसको है? मरने के बाद कोई हिसाब है किसी का? सब मिट्टी में मिल जाते हैं। और धर्म केवल पुरोहितों का पाखंड है। नासमझों को फंसाने को। नासमझों को चूसने को, शोषण करने को।
चार्वाक की यह भाषा नास्तिक बार—बार बोलते रहे। यही भाषा फिर कार्ल मार्क्स ने बोली—कि धर्म अफीम का नशा है। कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन जोर ईश्वर के न होने पर है।
और ईश्वर नहीं है, तो फिर मनुष्य एक पशु है। परमात्मा को काट दो, तो मनुष्य पशु हो जाता है। फिर मनुष्य और पशु में फर्क क्या करोगे? फर्क इतना ही है कि पशु अपनी वृत्तियों में जीता है, मनुष्य वृत्तियों के पार उठता है।
मगर पार उठने की जगह न रही, जब ईश्वर न रहा। आकाश न रहा, जहां उड़ सको। फिर जमीन ही रही सरकने को कीड़े —मकोड़ों की तरह। फिर आदमी और कुत्ते में फर्क क्या है? कुत्ता कुत्ता है, आदमी आदमी है। अभी फर्क है, अगर ईश्वर है। ईश्वर है तो फर्क यह है कि कुत्ता कुत्ता ही रहेगा, आदमी ईश्वर हो सकता है। विकास की संभावना है।
जब नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है, तो वह यह कहता है, हो चुकी बकवास, कोई विकास नहीं है, न कोई संभावना है। हमें शाति से जीने दो। हम जो करते हैं हमें करने दो। हटाओ यह पाप—पुण्य की बाधा। हम पर शर्तें मत लगाओ। हमारी पाशविकता को स्वच्छंद होने दो।
इसीलिए जब नीत्से ने कहा, ईश्वर मर गया है, तो तत्क्षण उसने दूसरा वाक्य भी उसमें जोड़ा कि अब मनुष्य स्वतंत्र है जो करना चाहे। गाड इज डेड एंड नाउ मैन इज फ्री टु डू व्हाट सो एवर ही लाइक्स टु डू। अब कोई ऊपर कोई आंख देखने वाली नहीं है। और कोई नहीं है जिसके सामने तुम्हें खड़े होकर उत्तर देना पड़े। कोई निर्णायक नहीं है। तुम अकेले हो। यह आकाश सूना है। घर का कोई मालिक नहीं है, करो जो करना है।
नास्तिक का जोर है, ईश्वर न हो, ताकि मनुष्य पशु हो सके स्वच्छंदता से। बुद्ध ने भी कहा, ईश्वर नहीं है, पर उनका जोर ईश्वर के नहीं होने पर नहीं है। उनका जोर मनुष्य के ईश्वर होने पर है। वे यह कहते हैं कि ईश्वर हो कैसे सकता है, मनुष्य ही ईश्वर है—अत्ताहि अत्तनो नाथो—यह आदमी ही ईश्वर है। अब तुम और कहा ईश्वर खोजते हो? बुद्ध कहते हैं, यह कहीं और खोजना, बचने का उपाय है। मत रखो आकाश में ईश्वर। अंतर— आकाश में, भीतर तुम्हारे, तुम्हारे होने में है।
बुद्ध ईश्वर को इंकार करते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि ईश्वर का होना तुम्हारा स्वयं के ईश्वरत्व का इंकार बन जाए। ऐसा बन गया है। बन गया था। रोज बनता रहा है। लोग ईश्वर को पूज आते हैं और छुटकारा पा जाते हैं। पूजा छुटकारा है कि लोग झुका लिया सिर, अब झंझट मिटी। अब जो करना है, करें। ईश्वर के सामने लोग जाकर वे ही प्रार्थनाएं कर आते हैं, जो करना चाहते हैं। उनकी ही आज्ञा मांग आते हैं। हिंसा करना हो तो हिंसा के लिए आशीर्वाद मांग आते हैं।

                                

हिटलर को भी आशीर्वाद देने वाले चर्च थे, जिनमें उसके जनरल प्रार्थना करते। चर्चिल को भी इंग्लैंड का चर्च आशीर्वाद दे रहा था, प्रार्थना कर रहा था। भारत और पाकिस्तान में युद्ध हो जाए तो भारत के साधु —संन्यासी भी आशीर्वाद देने लगते हैं राज्‍य को।
युद्ध और हिंसा के लिए भी तुम्हारे परमात्मा से तुम प्रार्थना करने लगते हो। तुम्‍हारा परमात्मा झूठा है, तुम्हारी प्रार्थना झूठी है। तुम परमात्मा को भी स्वयं के शैतान बनने में सहारा बना लेते हो।
जब बुद्ध ने कहा, कोई ईश्वर नहीं है, तब बुद्ध ने तुमसे प्रार्थना छीनी, परमात्मा नहीं। इसे थोड़ा समझो।
बु्द्ध ने तुमसे प्रार्थना छीनी कि बहुत हो चुकी बकवास, तुम परमात्मा को अपने ही काम में लगा रहे हो। नास्तिक परमात्मा को हटाना चाहता है, ताकि स्वच्छंद हो सके। तुम परमात्मा के आधार पर स्वच्छंद हो रहे हो।
क्‍या—क्या नहीं किया आदमी ने परमात्मा के नाम पर, सोचो तो जरा! ऐसा क्या है जो आस्तिकों ने नहीं किया परमात्मा के नाम पर? अगर गौर से देखोगे तो नास्‍तिकों को के नाम पर पापों की कथा बहुत कम है। उन्होंने घी उधार मांगकर पी लिया होगा, लेकिन यह भी कोई बडा पाप हुआ! लोगों को आग में तो नहीं जलाया। उन्‍होंने मजा —मौज कर लिया होगा, नाच लिए होंगे शराब पी कर, जरा आस्तिकों के पाप का तो हिसाब रखो!
मुसलमानों ने कितने ईसाई मारे, कितने हिंदू मारे? ईसाइयों ने कितने मुसलमान मारे? हिंदू कैसे आग से भर जाते हैं, जब मारने का ज्वार आता है? कैसे अंधे हो जाते हैं? मंदिर—मस्जिद ने लडाया आदमी को। मंदिर—मस्जिद ने जोड़ा कहां? सब युद्ध मंदिर—मस्जिद के नाम पर हुए। पृथ्वी लाशों से पटी, खून से भर गयी। यह सब धर्म के नाम पर हुआ है और आस्तिकों ने किया है।
अगर नास्तिक और आस्तिक के पापों का हिसाब लगाया जाए, तो नास्तिक का पलड़ा हलका है। बहुत हलका है। हा, व्यक्तिगत रूप से उसने कभी घी उधार मांग लिया होगा, यह भी कोई बात हुई! इसका भी कोई हिसाब रखोगे? व्यक्तिगत रूप से किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गया होगा, शराब पीकर नाच लिया होगा, ठीक है। मगर किसको दुख पहुंचाया? किसकी छाती में छुरा भोंका? अगर थोड़े—बहुत सुख उसने पा भी लिए होंगे, अगर परमात्मा कहीं है तो क्षमा करेगा। आस्तिक को क्षमा न कर पाएगा।
नास्तिक ने ईश्वर को इंकार करके थोड़ी सी स्वच्छंदता चाही। आस्तिक ज्यादा चालाक है। ज्यादा होशियार है। नास्तिक ईमानदार है। आस्तिक बेईमान है। उसने कहा कि छुटकारा क्या पाना, तुम्हीं से प्रार्थना कर लेते हैं। वहां से कोई उत्तर तो आता नहीं है, तुम्हीं अपना उत्तर बना लेते हो। वहा कोई बोलने वाला तो है नहीं, तुम्हीं जाकर मंदिर में प्रार्थना कर आते हो, तुम्हीं अपनी प्रार्थना पर सिर हिला लेते हो। तुम्हीं धूप—दीप जला लेते हो। तुम्हीं बलि के बकरे चढ़ा देते हो। आदमी तक चढ़ाए तुमने, मगर यज्ञ के नाम पर चढ़ाए, तो धार्मिक हो गयी बात। हत्याएं कीं, खून बहाया, लेकिन यज्ञ के नाम पर बहाया, तो कृत्य पवित्र हो गया।
आस्तिक ने ज्यादा चालाकी की बात की। उसने कहा, परमात्मा को क्यों हटाना, परमात्मा का सहारा ही ले लो। अपनी पाप की यात्रा में उसके कंधे का सहारा ले लो, उसके कंधे पर सवार हो जाओ। आस्तिक ने वही किया, जो उसे करना था। बुद्ध ने ये दोनों बातें देखीं। बुद्ध ने नास्तिकता को हामी नहीं भरी। बुद्ध चार्वाक के उतने ही विपरीत हैं, जितने यशवादी पुरोहितों के।
लेकिन बुद्ध ने देखा कि यह तो ईश्वर के नाम पर स्वच्छंदता चलती है। उन्होंने ईश्वर को इंकार किया। इंकार में जोर नहीं है। जोर इस बात में है कि मनुष्य की महिमा अपरिसीम है। उसके ऊपर किसी परमात्मा को भी रखने की जरूरत नहीं, परमात्मा मनुष्य के भीतर छिपा है। उसे प्रगट होना है।
बुद्ध ने एक नयी आस्तिकता की भाषा दी जगत को। उसे समझो। परमात्मा कहीं है नहीं रेडिमेड। तैयार बैठा नहीं तुम्हारे लिए कि गए और कब्जा कर लिया। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। तुम्हें निर्मित करना होगा, सृजन करना होगा। तुम्हारे ही अंतगृह में, तुम्हारे ही अंतर्तम में जलाकर दीए को, प्रकाश को, रोशनी को, जागृति को, होश को, ध्यान को, तुम्हें परमात्मा को जन्म देना होगा। तुम्हें परमात्मा की मां बनना होगा। तुम्हें गर्भ बनना होगा।
यही मतलब है, जब बुद्ध कहते हैं, मनुष्य के ऊपर कोई भी नहीं। वे यह कहते हैं, मनुष्य के भीतर सब है, ऊपर नहीं। और मनुष्य को अगर ऊपर जाना है, तो भीतर जाना है। भीतर जाकर ही मनुष्य ऊपर जाएगा। स्वयं को पाकर ही मनुष्य सत्य को पाएगा। अपनी आत्यंतिक सचाई को पहचानकर ही परमात्मा से मिलन होगा। और यह मिलन, कहीं बाहर किसी मंदिर के द्वार पर होने को नहीं है। किसी स्वर्ग, किसी भौगोलिक—स्थिति में होने को नहीं है। यह एक अंतर—दशा में होगा, अंतर— आकाश में होगा।
बुद्ध ने बाहर से परमात्मा को इंकार दिया, भीतर रखने को। मंदिर से हटाया, ताकि तुम्हारे भीतर विराजमान कर सकें। बुद्ध से बड़ा आस्तिक संसार में कभी हुआ नहीं, होगा भी संदिग्ध है। बुद्ध की आस्तिकता इतनी गहन है, इतनी हिम्मत और साहस से भरी है कि उन्होंने ईश्वर को भी इंकार कर दिया। यह ईश्वर के विरोध में नहीं, यह ईश्वर के प्रेम में उठा कदम है। यह देखकर कि ईश्वर के नाम पर जो हो रहा है, वह ईश्वर को बिना हटाए न रुकेगा। ईश्वर को हटा लो, सब उपद्रव का जाल बंद हो जाएगा। और मनुष्य को उन्होंने विधि दी कि कैसे ईश्वर को निर्मित करो। ईश्वर सृजन है तुम्हारा।
इसे थोड़ा समझो। इसकी सूक्ष्मता का थोड़ा स्वाद लो। प्रत्येक व्यक्ति को अपने ईश्वर को निर्मित करना है। तुम्हीं हो मूर्तिकार, तुम्हीं हो मूर्ति, तुम्हीं हो वह पत्थर जिसकी मूर्ति बननी है। तुम्हीं हो वह छैनी जिससे मूर्ति बननी है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। मनुष्य सब कुछ है। सितार भी वही, संगीतज्ञ भी वही, स्वर— ध्वनि भी वही। तुम्हारे भीतर सब है; संयोजन देना है, ठीक—ठीक व्यवस्था जुटानी है। टूटे खंडों को पास लाना है, अखंड बनाना है। मूर्ति छिपी है अनगढ़ पत्थर में, अनगढ़ को काटना—छांटना है, व्यर्थ को अलग करना है। असार से सार का भेद करना है। और परमात्मा प्रगट हो जाएगा। परमात्मा का आविर्भाव होगा।
और तुम्हारा परमात्मा जब प्रगट होगा, तब वह तुम्हारा होगा। और जो अपना नहीं, वह भी क्या है! वह तुम्हारी ही सांसों में रमा होगा। वह तुम्हारे ही हृदय की धक — धक होगा। वह तुम्हारे ही प्राणों की ज्योति होगा। जो अपना है, वही थिर है।
अगर तुमने परमात्मा को दूसरे की तरह पा लिया, छूट जाएगा। सब दूसरे छूट जाते हैं। सिर्फ अपना होना नहीं छूटता। इसलिए बुद्ध कहते हैं, अपने को ही पा लेना बस एकमात्र पा लेना है। धन पा लोगे, छूट जाएगा। मंदिर, मकान बना लोगे, छूट जाएगा। यश, प्रतिष्ठा, छूट जाएगी। सब छूट जाएगा। इसी तरह तुमने अगर परमात्‍मा को भी पर की तरह पाया, दूसरे की तरह पाया, छूट जाएगा। जो पर है, वह तुम्‍हारा स्वभाव नहीं हो सकता। बुद्ध ने परमात्मा को तुम्हारा स्वभाव कहा।
अब इसे समझो। नास्तिक चाहता है, ईश्वर न हो, ताकि तुम स्वच्छंद हो
जाओ। बुद्ध चाहते हैं, ईश्वर हटे, ताकि तुम धार्मिक हो जाओ। ताकि तुम स्वतंत्र हो जाओ। ताकि तुम्हारी महिमा पर कोई सीमा न रह जाए, कोई बाधा न हो। सब पत्थर हट जाएं। तुम्हारी मुक्ति परिपूर्ण हो जाए। तो बुद्ध ने हजारों लोगों को आस्तिक बना दिया, बिना ईश्वर के। और तुम ईश्वर को पकड़े बैठे हौ और आस्तिक नहीं हो पाए। बड़ी गहरी कला बुद्ध ने मनुष्य को सिखायी।

फिर बुद्ध जब कहते हैं, ईश्वर नहीं है, तो वे किसी सिद्धात की बात नहीं कह रहे हैं। वे —यह नहीं कह रहे हैं कि ईश्वर नहीं है, ऐसा मेरा कोई सिद्धात है। वे इतना ही कहते हैं, जब सत्य को जाना, तो स्वयं को देखा, ईश्वर को नहीं।
कुछ भी नहीं हैं ये कुफ्रो—ईमा दौनों
कुछ भी नहीं हैं ये गबरो —मुसलमा दोनों
जब राजे —हकीकत से उठाया पर्दा
रोने लगे हो—हो के पशेमा दोनों
न तो धार्मिक की बात सच है, न अधार्मिक की बात सच है। न हिंदू की, न मुसलमान की। जब पर्दा उठता है सत्य से, तो दोनों रोने लगते हैं। क्योंकि यह तो कुछ और ही है जो देखा। इसको तो कभी सोचा भी न था। सपने में भी इसकी झलक न मिली थी।
जब बुद्ध ने कहा, ईश्वर नहीं है, तो उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, जिस ईश्वर की तुम चर्चा कर रहे हो, वह तुम्हारी कल्पना का प्रक्षेपण है। वह तुमने ही बनाया है।


अगर घोड़े ईश्वर बनाएंगे तो घोड़े की शकल में बनाएंगे।आदमी की शकल में तो कभी नहीं बना सकते। अगर आदमी की शकल में बनाएंगे तो शैतान को बनाएंगे, क्योंकि आदमी ने घोड़ों को सिर्फ सताया। किया क्या है? अगर घोड़े ईश्वर बनाएंगे, तो घोड़े की शकल में बनाएंगे, सुंदरतम घोडा बनाएंगे, कोई चेतक। राणा प्रताप का घोडा। आदमी की शकल में तो नहीं बना सकते, राणा प्रताप को भी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि राणा प्रताप भी चेतक पर ही चढ़े रहे, छाती तो चेतक की ही रौंदी। आदमी तो घोड़े स्वीकार नहीं कर सकते।
इसीलिए तो दुनिया में इतनी ईश्वर की धारणाएं हैं, क्योंकि इतने तरह के आदमी हैं। अब तुम अगर नीग्रो से कहो कि तू गोरे भगवान को बना ले, कैसे बनाएगा? गोरा शैतान हो सकता है, भगवान कैसे हो सकता है! गोरे ने सिर्फ सताया है, छाती पर चढा रहा। नीग्रो तो काला ही भगवान बनाएगा। गोरा तो नहीं बना सकता। जरा गोरे से कहो कि काला भगवान बना लो, वह सोच भी नहीं सकता। नीग्रो को तो पास नहीं बैठने देता, काले भगवान के चरण छुएगा? गोरे का भगवान गोरा होगा। काले का भगवान काला होगा।
इसीलिए तो श्याम बस गए भारत के मन में। श्याम भारत का रंग है। इसलिए श्याम ने जैसा लुभाया, किसी ने नहीं लुभाया। जैसी उनकी बांसुरी ने पास बुलाया, किसी ने नहीं बुलाया। वह भारत का रंग है। वह हमसे मेल खाता है, तालमेल खाता है। प्रत्येक जाति अपनी ही शकल में तो अपने भगवान को बनाती है। चीनी से कहो कि तुम जरा लंबी नाक वाले भगवान को बना लो, नहीं बना सकता। चपटी ही नाक होगी। गाल की हड्डियां उठी ही हुई होंगी। चीनी का भगवान चीनी होने को है।
इसे तुम जरा गौर से देखो तो तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि हमारा भगवान हमारी ही कल्पना का विस्तार है। उसे हम अपने ही रंग—रूप में बनाते हैं। वह हमारी ही सुंदरतम छबि है। जैसा हम चाहते हैं कि हम होते, वैसा हमारा भगवान होता है।
बुद्ध कहते हैं, जब सत्य का पर्दा उठता है, तब तुमने जितने भगवान सोचे थे, वे कोई भी नहीं पाए जाते। और अगर तुम्हारा ही कोई भगवान वहां मिल जाए, तो समझना कि अभी सत्य का पर्दा नहीं उठा, तुम किसी आत्म—सम्मोहन में खो गए हो। तुमने किसी निद्रा में स्वप्न देखा है। अगर राम बचें, कृष्ण बचें, तो समझ लेना, कोई सपना देख रहे हो। यह तो तुम्हारी ही धारणा है। यह तो तुम्हारा ही जाल है। पर्दा अभी उठा नहीं। जब पर्दा उठता है, तो मनुष्य ने जो भी सोचा है, वह कुछ भी काम नहीं आता। आ नहीं सकता। क्योंकि जिसे तुमने जाना नहीं, उसे तुम सोचोगे कैसे पहले से? और जान लेने के बाद तो सोच ही नहीं सकते, क्योंकि वह सोचने से बहुत बड़ा है। बहुत बड़ा है। सोचना बहुत छोटा है।
ऐसा ही समझो कि तुमने कहानी सुनी है मेंढक की, जो कुएं में था। और फिर सागर का एक मेंढक आ गया। उस कुएं के मेंढक ने स्वाभाविक पूछा, कहा से आते हो मित्र? सागर से आता हूं उसने कहा। सागर? कितना बड़ा है? सागर के मेंढक ने चारों तरफ देखा, कैसे बताए! क्योंकि यह कुएं का मेंढक, कुएं में ही पैदा हुआ, कुएं में ही बड़ा हुआ। उसने कहा, जरा मुश्किल पड़ेगा समझाना। आप यहीं कुएं में ही रहे हैं सदा? उसने कहा, सदा से रहा हूं। इससे तो छोटा ही होगा सागर? उसने कहा कि नहीं।
तो कुएं का मेंढक छलांग लगाया। एक तिहाई कुएं में छलता लगायी, इतना बड़ा? हंसने लगा सागर का मेंढक, उसने कहा कि नहीं। मुश्किल है बताना। उसने दो तिहाई कुएं में छलांग लगा दी, इतना बड़ा? उसने कहा कि नहीं, इतने से काम न चलेगा। उसने पूरे कुएं में छलांग लगा दी, लेकिन सागर के मेंढक ने कहा कि नहीं, इतना बड़ा, इससे भी काम न चलेगा, बहुत बड़ा है। इस कुएं से हम पैमाना न बना सकेंगे। हम इसके आधार पर, इसके मापदंड से नाप न सकैंगे। तो फिर कुएं के मेंढक ने कहा, निकल झूठे, बाहर! इससे बड़ा कोई सागर न कभी हुआ है, न हो सकता है।
ऐसा आदमी का विचार का कुआ है। उसी में हम पैदा होते, उसी में बड़े होते। उसी में जीते। बुद्ध सागर से आते हैं। सागर को देखकर हमारे कुएं में आते हैं। हम उनसे पूछते हैं, हमारे ईश्वर जैसा ही है सत्य? बुद्ध कहते हैं, नहीं! इससे काम न चलेगा। बस इतना ही मतलब है बुद्ध जब ईश्वर को इंकार करते हैं। वे कहते हैं, इस कुएं से मापदंड न बनेगा। तुम जो कुछ भी कहोगे, तुम्हारी भाषा जो कहेगी, मुझे न ही कहना पड़ेगा। नहीं, नहीं, नहीं। नेति—नेति ही करते जाना पड़ेगा।
उपनिषदों ने नेति— नेति की प्रशंसा की है। लेकिन फिर उपनिषद के भक्त भी डर गए, जब किसी आदमी ने वस्तुत: नेति—नेति कहा। उपनिषद तो सिर्फ बात करके रह गए थे, बुद्ध ने वस्तुत: कहा, नेति—नेति। नहीं, नहीं। यह रूप भी नहीं। वह रूप भी नहीं। तुमने जितनी भी बातें परमात्मा के संबंध में कही हैं, सब नहीं।
स्वभावत: आदमी को धक्का लगा। हमको इतना तो इंकार मत करो। कुछ तो कहो। इससे हजार गुना बड़ा होगा, लाख गुना बड़ा होगा, करोड़ गुना बड़ा होगा, लेकिन कुछ तो कहो। हमारे मापदंड को स्वीकार तो करो। करोड़ गुना बड़ा होगा, तो भी आदमी निश्चित हो जाएगा। वह कहेगा, कोई हर्ज नहीं, मापदंड तो अपने हाथ में है। एक कदम चलना अपने हाथ में है। एक—एक कदम चलकर हजार मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
लेकिन बुद्ध ने कहा, इस कदम से पहुंचना हो ही नहीं सकता, यह कदम ही गलत है। कल्पना का कदम ही गलत है। चाहे तुम उसे प्रार्थना कहो, चाहे भक्ति कहो। चाहे तुम उसे पूजा— अर्चना कहो। कल्पना का कदम गलत है।
कल्पना से जागना है। यह तो कल्पना में सो जाना है। यह कल्पना में सोने से तुम सपने देख लोगे, सुंदर सपने, मनभावन, खूब रस— भरे सपने, पर जब भी आंख खुलेगी—रोने लगे हो—हो के पशेमा दोनों।
कुछ भी नहीं हैं ये कुफ्रो—ईमा दोनों
धार्मिक, अधार्मिक, काफिर और मुसलमान।
कुछ भी नहीं हैं ये गबरो—मुसलमा दोनों
जब राजे —हकीकत से उठाया पर्दा
जब सत्य से पर्दा उठाया, घूंघट हटाया!
रोने लगे हो —हो के पशेमा दोनों
वे रोएंगे। सिर्फ बुद्ध नहीं रोएंगे। बुद्ध के पीछे चलने वाला नहीं रोका। क्योंकि वह कोई आकांक्षा लेकर ही नहीं चल रहा है। वह कोई अपेक्षा लेकर ही नहीं चल रहा है। वह तो शून्य का दर्शन करने चला है। उसने कोई आकार बनाया ही नहीं। बुद्ध से ज्यादा बड़ा निराकारवादी नहीं हुआ। बुद्ध से बड़ा निर्गुणवादी नहीं हुआ। आस्तिक हैं, जो कहते हैं, परमात्मा है, निराकार है। वे गलत भाषा बोल रहे हैं। अगर है, तो आकार आ गया। सिर्फ नहीं ही निराकार हो सकती है।
इसलिए कहता हूं? बातें जरा सूक्ष्म हैं। बुद्ध ने कहा, परमात्मा नहीं है। अगर इसको हम आस्तिक की भाषा में रखें, इसका अर्थ होगा, परमात्मा निराकार है।
लेकिन नहीं कहा निराकार, नहीं। क्योंकि अगर कहो परमात्मा निराकार है, और परमात्मा भी कहे चले जा रहे हो, तो निराकार और परमात्मा में मेल नहीं बैठता। परमात्मा का तो आकार हो गया, जैसे कहा, है।
तुमने कहा, वृक्ष है, आकार हो गया। तुम कहो, वृक्ष है और निराकार है, तब तुम मूढ़ता की बातें कर रहे हो। तुमने कहा, सूरज है, आकार हो गया। जहां है आया, वहा आकार आया। जहां है आया, वहां गुण आया। फिर तुम कहो कि परमात्मा है और निर्गुण है, तो तुम विरोधाभास बोल रहे हो। इधर ही कहते हो, इधर न कहते हो। इतना उपद्रव करने की क्या जरूरत?
बुद्ध की निष्ठा बडी साफ है। जब उन्हें परमात्मा को निराकार कहना है, वे कहते हैं, परमात्मा नहीं है। अब तुम समझ पाओगे। नहीं का अर्थ है, निराकार।
बुद्ध का नहीं और नास्तिक का नहीं बड़े अलग— अलग हैं। बुद्ध के नहीं में अस्वीकार नहीं है, बुद्ध के नहीं में निराकार है। नास्तिक के नहीं में अस्वीकार है। दो में से एक ही बच सकता है। यह वचन है, परमात्मा निराकार है। बुद्ध को लगता है, अगर परमात्मा को बचाते हैं, तो निराकार खोता है। अगर निराकार को बचाते हैं, तो परमात्मा खोता है। बुद्ध ने परमात्मा को खोना पसंद किया, निराकार को खोना पसंद नहीं किया। क्योंकि निराकार ही भगवत्ता का आत्यंतिक स्वरूप है। ऐसे बुद्ध ने परमात्मा को बचाया।
अब तुम्हें बात जरा उलझी मालूम पड़ने लगेगी। क्योंकि तुम तो दो और दो चार वाली दुनिया में रहते हो। काश, सत्य इतना गणित जैसा साफ—सुथरा होता। नहीं है इतना साफ—सुथरा। बुद्ध ने निराकार की घोषणा की है। न बुद्ध के अनुयायी समझ सके, न बुद्ध के विरोधी समझ सके ठीक —ठीक कि यह आदमी क्या कह रहा है! बुद्ध सिर्फ नेति—नेति की भाषा बोल रहे थे।
बुद्ध चाहते थे, प्रार्थना रुके। परमात्मा रुके तो प्रार्थना रुकती है। परमात्मा रहे, तो प्रार्थना जारी रहेगी। बुद्ध चाहते थे, ध्यान हो। परमात्मा रहे तो ध्यान होना मुश्किल। परमात्मा हटे तो ही ध्यान हो सकता है।
प्रार्थना और ध्यान का अंतर। प्रार्थना—सदा किसी के सामने। ध्यान—सदा एकांत में। प्रार्थना में हाथ ‘जुड़े हैं किसी के चरणों में, ध्यान में कोई भी नहीं है। अकेले, अकेले तुम हो। परम एकाकी तुम हो। शुद्ध स्वात है। कोई भी नहीं और। कोई विचार नहीं, कोई तरंग नहीं। अगर परमात्मा का भी विचार है, तो बुद्ध कहते हैं, ध्यान खंडित हो गया।
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं, आप कहते हैं ध्यान करें, किस पर ध्यान करें? ये प्रार्थना की बात पूछ रहे हैं, ये ध्यान समझे ही नहीं। किस पर? तो तुम प्रार्थना की पूछ रहे हो। तुम पूछ रहे हो, किसकी प्रार्थना करें? माना, अगर प्रार्थना की मैं कहता, तो मुझे बताना चाहिए, किसके सामने प्रार्थना करो, किसकी प्रार्थना करो। ध्यान का अर्थ ही बड़ा अलग है।
ध्यान का अर्थ है, बस तुम अकेले रह जाओ, वहां कोई भी न हो। और यह मजा है, जब वहां कोई भी नहीं होता, तब तुम भी नहीं रह जाते। पहले तो ध्यान लगता है, अकेला होना। लेकिन मैं के बचने के लिए तू का बचना जरूरी है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम तभी तक मैं कह सकते हो, जब तक किसी तरह पास में कगार पर तू बचा हो। किनारे पर तू खड़ा हो, तब तुम मैं कह सकते हो। जब कोई तू न बचे, उस घडी में मैं कैसे कहोगे? मैं बिलकुल अर्थ हीन होगा। मैं का अर्थ होता है, जो तू नहीं। अब जब तू ही नहीं है, तो मैं कैसे होगा? पहले तू जाता है, फिर मैं चला जाता है।
ध्यान का मार्ग है, पहले तू को छोड़ दो। तू को छोड़ना है, तो परमात्मा छोड़ना पड़ेगा। फिर मैं अपने से छूट जाएगा। प्रार्थना का मार्ग है, पहले मैं को छोड़ दो, तू को पकड़ लो, परमात्मा को। और जब मैं छूट जाएगा, तो तू कैसे बचेगा?
वे अलग—अलग रास्ते हैं। बुद्ध का रास्ता ध्यान का है।
किब्रियाई तेरी बदनाम हुई जाती है
बंदगी तुझ पे इक इलजाम हुई जाती है
ऐ दुआ मांगने वाले! तेरी हरदम की दुआ
अब खुदा के लिए दुश्नाम हुई जाती है
प्रार्थना, पूजा, आदमी किए चला जाता है। यह आदमी की पूजा और प्रार्थना आदमी की ही पूजा और प्रार्थना है। तुम कहते हो, परमात्मा की पूजा करने गए थे। गए तो तुम थे। पूजा तुम्हारी ही होगी। तुमसे होगी, तुम्हारी होगी। तुम्हारा गुणधर्म तुम्हारी पूजा पर फैल जाएगा। तुम्हारी बीमारी के रोगाणु तुम्हारी पूजा में होंगे। तुम्हारी पूजा तुम्हारी पूजा है। तुम मंदिर तक अपने रोगाणु छोड़ आए। तुम जरा अपनी पूजा को भी देखो। तुम पूजा में मांगोगे क्या? तुम प्रार्थना में करोगे क्या? तुम वही करोगे जो तुम हो। स्वयं से अन्यथा तो कुछ किया नहीं जा सकता।
परमात्मा के सामने जब तुम हाथ फैलाते हो, तुम मांगते क्या हो? संसार ही मांगते हो। तुम्हारे हाथ ही संसारी हैं। तुम जब परमात्मा की प्रार्थना करने लगते हो, तुम्हारी प्रार्थना खुशामद जैसी होती है। इसलिए तो प्रार्थना को स्तुति कहते है—कि तू महान है, कि तू पतित—पावन है। यह तुम किस पर मक्खन लगा रहे हो!
तुमने मक्खन लगाना सीखा संसार में। यहां तुमने देखे लोग, जिनके अहंकार को जरा फुसलाओ—मक्खन लगाओ, मालिश करो—फिर जो भी तुम करवाना चाहो, करवालो। गधों को घोड़े कहो, वे प्रसन्न हो जाते हैं। जब रास्ते पर तुम बिना प्रकाश की साइकिल से पकड़ जाओ, पुलिस वाले को इंस्पेक्टर कहो, वह छोड़ देता है।
वही आदमी भगवान की खुशामद कर रहा है, वह सोचता है कि ठीक है, समझा—बुझा लेंगे। लेकिन असली मंशा उसकी थोड़ी देर बाद जाहिर होती है, वह कहता है, नौकरी नहीं मिल रही। अब वह यह कह रहा है, इतनी प्रार्थना की तेरी और नौकरी नहीं मिल रही है, अब तेरी प्रार्थना में संदेह पैदा हुआ जा रहा है। अब तेरी इज्जत का सवाल है। अब बचा अपनी इज्जत, लगवा नौकरी। कि लड़का बीमार है, ठीक नहीं हो रहा है। और मैं इतनी तेरी पूजा कर रहा हूं। और तू क्या कर रहा है?
तुम्हारी प्रार्थना में भी शिकायत है। अगर शिकायत न हो, तो प्रार्थना ही नहीं होती। प्रार्थना की क्या जरूरत है?
किब्रियाई तेरी बदनाम हुई जाती है
बंदगी तुझ पे इक इलजाम हुई जाती है
तुम जब भी प्रार्थना करते हो, उसमें कहीं इलजाम होता है। शिकायत होती है। तुम ढांकते हो अच्छी भाषा में उसे, लेकिन अगर गौर से देखो, तो तुम यह कह रहे हो—लो, अब हम तो कर चुके स्तुति, अब तुम करके दिखाओ। अब हमने अपना कर दिया, अब तुम करो। अब अगर तुमसे न हो सके, तो कैसे तुम सर्वशक्तिमान! कैसे तुम सर्वज्ञाता! कैसे तुम सर्वव्यापक!
ऐ दुआ मांगने वाले! तेरी हरदम की दुआ
अब खुदा के लिए दुश्नाम हुई जाती है
तुम्हारी पूजा और प्रार्थना के शब्द अपशब्द हो जाते हैं। दुश्नाम हो जाते हैं। बुद्ध ने कहा, प्रार्थना को हटाओ। बहुत हो चुकी प्रार्थना, कुछ होता नहीं। परमात्मा तो दूर, आदमी आदमी नहीं हो पाता। परमात्मा की खोज तो मुश्किल है, आदमी को आदमी ही नहीं मिल पाता। यह परमात्मा जोड़ना था। जोड़ता तो नहीं, बीच में तोड़ने की तरह खड़ा हो गया है, पत्थर की तरह खड़ा हो गया है।
क्या फर्क है हिंदू और मुसलमान में? कौन सा फर्क है? क्या फर्क है हिंदू और ईसाई में? बस परमात्मा की धारणा का फर्क है, और तो कोई फर्क नहीं है। कोई पूरब की तरफ हाथ जोड़ता है, कोई पश्चिम की तरफ हाथ जोड़ता है। ऐसी छोटी बातों पर सिर खुल जाते हैं। बड़ी क्षुद्र बातों में। धर्म ने क्षुद्र बातें सिखा दीं। यह तो परमात्मा के साए में बीमारियां. पली।
बुद्ध ने कहा, हटाओ यह साया! आदमी को साफ—साफ होने दो। यह तो धर्म की आडू में अधर्म पला। अगर आदमी की कोई ईश्वर की धारणा न हो, तो तुम्हारे और दूसरे के बीच क्या फासला होगा? तुमने कभी दो तरह के नास्तिक देखे? बुद्ध को यह बात समझ में आ गयी। दो तरह के तुमने नास्तिक देखे? तुमने नास्तिकों को कभी लड़ते देखा? तुमने नास्तिकों के कोई संप्रदाय देखे? क्या कारण है कि नास्तिक का कोई संप्रदाय नहीं?
नहीं पर संप्रदाय बन ही नहीं सकता। नहीं दो ढंग की तो हो ही नहीं सकती। तुम कहो मेरी नहीं अलग, तुम्हारी नहीं अलग। हमारी नहीं हिंदू तुम्हारी नहीं मुसलमान। तो पागलपन मालूम होगा। ही में फर्क हो सकता है। रूप, आकार में फर्क हो सकता है, निराकार में तो फर्क नहीं हो सकता।
इसलिए नास्तिक तो सारी दुनिया में एक हैं। होना तो आस्तिक को एक चाहिए था। नास्तिक लड़ते, समझ में आता। ईश्वर—विहीन अंधकार में भटकते हुए लोग, वे तो लड़ते दिखायी नहीं पड़ते। आस्तिक लड़ता है। और एक आस्तिक दूसरे आस्तिक की पीठ में छुरा भोंकता है। बुद्ध को यह बात दिखायी पड़ी। उन्होंने कहा, ईश्वर के नाम से भला नहीं हुआ। नुकसान हुआ। हटा लो। आदमी को आदमी नहीं मिल पा रहा।
बात इतनी सी है, ऐ वाइजे— अफलाकनशीं
क्या मिलेगा उसे यजदा जिसे इन्सां न मिला
भगवान कैसे मिलेगा? आदमी से मिलना नहीं हो पा रहा है! बस इतनी सी बात है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर को हटा लिया। और बुद्ध ने कहा, इस ईश्वर को हटाने से लाभ होगा। हानि तो कुछ भी नहीं। और फिर भीतर ईश्वर को प्रतिष्ठित किया। तुम्हारा मंदिर अगर तुम्हारे भीतर हो, तो लड़ाई—झगड़े पैदा नहीं होंगे। तुम्हारा मंदिर अगर बाहर बना तो मस्जिद से अलग हो जाएगा। लडाई—झगड़े शुरू हो जाएंगे।
बुद्ध ने कहा, अब वक्त आ गया है कि मंदिर आदमी के भीतर बने। वक्त आ गया है कि अब आदमी मंदिर बने। अब ईंट—पत्थर के मंदिर से काम न चलेगा। ‘ आपने कल कहा कि ईश्वर को अस्वीकार कर भगवान बुद्ध ने मनुष्य को बड़ी से बडी गरिमा से मंडित किया।’
निश्चित ही। मनुष्य को भगवान बनाया। मनुष्य को भगवान होने की संभावना दी। मनुष्य को कहा, भगवान कहीं और नहीं, तेरे ही बीज में छिपा है। उसे प्रगट होना है। ठीक भूमि दे, जल सींच, सुरक्षा कर, सूरज की किरणों को पड़ने दे, मेघ बरसें तो छिप मत, खुला रख—अनुकूल समय पर, सम्यक ऋतु में तेरा फूल खिलेगा। तू मिटेगा। भगवान होगा।
इसीलिए तो भगवान बुद्ध कहते रहे हैं कि भगवान नहीं है। फिर भी उनको प्रेम करने वाले लोग उन्हें भगवान कहते गए। और बुद्ध ने एक भी जगह इनकार नहीं किया कि मुझे भगवान मत कहो।
यह थोड़ा सोचने जैसा है। यह आदमी कहता है, कोई ईश्वर नहीं है, कोई भगवान नहीं है। और इसके शिष्य इसे भगवान कहकर बुलाते रहे और इसने एक बार भी न कहा कि मुझे भगवान मत कहो। बुद्ध ने भगवान को मनुष्य की अंतिम संभावना बनाया। वह मनुष्य का पूरा खिल जाना है, मनुष्य का प्रफुल्ल हो जाना है। छिपाओ मत आड़ों में।
चलीं इस चमन में आंधियां कि जमीन ता—ब—फलक गयी
मैं वह बदनसीब गुबार हूं जो इक आस्तां में छिपा रहा
जब आंधियां आती हैं—और ऐसी आंधियां आती हैं, बुद्ध ऐसी ही आधी हैं —जब कि जमीन आकाश को छू लेती है!
चलीं इस चमन में आंधियां कि जमीन ता—ब—फलक गयी
ऐसा तूफान उठा, ऐसा बवंडर उठा कि जमीन की धूल आकाश को छू ली। मैं वह बदनसीब गुबार हूं जो इक आस्तां में छिपा रहा
और मैं एक डधोढी में छिपा रहा। एक जरा सी धूल का टुकड़ा, सीढ़ी की आडू में पड़ा रहा। आधी से बचा लिया।
जब बुद्ध जैसा व्यक्ति पृथ्वी पर आता है, तो आधी लेकर आता है। उसके साथ तुम आकाश में उठ सकते थे। लेकिन बहुत थोड़े लोगों ने उस आधी के प्रति अपने को खुला छोड़ा। और जब आधी आती है, तो तुम्हारी सब धारणाओं को तोड़ जाती हैं। आधी तुम्हारी धारणाओं की फिकर करती है? तुम्हारे घर—पूलों की? तुमने रेत के जो घर बना रखे हैं, उनकी चिंता करती है? आधी आती है, सब पोंछ जाती है। आधी ही क्या जो तुम्हारे रेत के घर—पूले न मिटा पाए! हिंदू मुसलमान, ईसाई, सबको पोंछ जाती है। जब आधी आती है, तो वेद, कुरान, बाइबिल, सबको उड़ा जाती है। जब आधी आती है, तो सिर्फ थोड़े से हिम्मतवर उस आधी के ऊपर सवार हो जाते हैं और आकाश को छू लेते हैं।
बुद्ध ने ईश्वर को इंकार किया, ताकि तुम ईश्वर हो सको। बुद्ध ने ईश्वर की बात नहीं उठायी। बात क्या करनी है! होने की बात है, करने की थोड़े ही बात है! होकर देख लो। बुद्ध ने द्वार खोला और कहा, आओ, भगवान होकर देख लो! आओ, आकाश होकर देख लो! बात कब तक करते रहोगे? बहुत हो चुकी बात।
यही मैं तुमसे कहता हूं न भगवान की पूजा की जरूरत है, न भगवान का गुणगान करने की जरूरत है। कितना तो कर चुके। कब समझोगे? द्वार खोलता हूं आओ, भगवान ही हो जाओ! इससे कम पर राजी भी क्या होना! क्या गिड़गिड़ाए चले जाना! उठो, अपनी गरिमा को सम्हालो! उठो, अपनी गरिमा की अभिव्यक्ति करो! उठो, अभिव्यंजना होने दो!
डर स्वाभाविक है। प्रश्न में पूछा गया है, ‘यही दलील तो नास्तिक भी ईश्वर के खिलाफ पेश करते हैं।’
दलील के शब्द यही होंगे, दलील यही नहीं। शब्दों पर मत जाओ। शब्द तो कभी—कभी एक ही जैसे होते हैं, फिर भी अर्थ अलग हो जाता है। प्रेम में वही शब्द कहा जा सकता है, क्रोध में वही शब्द कहा जा सकता है। प्रशंसा में वही शब्द कहा जा सकता है, निंदा में वही शब्द कहा जा सकता है। सचाई से वही शब्द कहा जा सकता है, व्यंग्य में वही शब्द कहा जा सकता है।
शब्द पर मत जाओ। मूढ़ों को भी महापंडित कहते हैं! शब्द में व्यंग्य भी हो सकता है। शब्द वही है। शब्द पर मत जाओ। थोड़ा झांककर देखो, शब्द में अर्थ को तलाशो। चार्वाक ने कहे हैं वही शब्द। बुद्ध भी वही शब्द कहते हैं। मार्क्स भी वही शब्द कहते हैं। लेकिन बड़े फर्क हैं।
राहुल सांकृत्यायन ने—एक बौद्ध पंडित ने—जो कि साथ ही साथ कम्युनिस्ट भी थे, इस बात की पूरे जीवन चेष्टा की कि बुद्ध और मार्क्स में तालमेल है। बुद्ध वही कहते हैं जो मार्क्स। बुद्ध जैसे मार्क्स की भविष्यवाणी हैं। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की पूर्वघोषणा। मगर राहुल सांकृत्यायन का दृष्टिकोण बुनियादी रूप से गलत है। गलत ही नहीं, खतरनाक है, भ्रामक है।
बुद्ध वही नहीं कहते हैं जो मार्क्स कह रहे हैं। मार्क्स का वक्तव्य सामान्य नास्तिकता का वक्तव्य है। बुद्ध का वक्तव्य परम आस्तिकता का वक्तव्य है। ऐसी आस्तिकता जहा परमात्मा के होने से भी बाधा पड़ती है। ऐसी आस्तिकता जहां आस्था ही काफी है, जहां आस्था के लिए कोई सीढ़ी नहीं चाहिए।
इसे खयाल में लो। अगर तुम परमात्मा है, इसलिए झुकते हो, तो तुम्हारा झुकना पूरा नहीं है। अगर परमात्मा न होगा तो फिर तुम न झुकोगे। अगर परमात्मा है, इसलिए झुकते हो, तो तुम्हारा झुकना वास्तविक नहीं है। यह ऐसे ही हुआ कि रास्ते से निकलते थे, देखा पुलिस वाला नहीं है, तो तुमने कार जहा चाही वहां मोड़ दी। पुलिस वाला होता, तो तुम बाएं चलते। पुलिस वाला नहीं, तो जहा चाहे वहा मोड़ दी।
मेरे एक मित्र हैं, कवि हैं। इंग्लैंड में कुछ शोध—कार्य करते थे। एक रात किसी मेहमान के घर से लौटते थे टैक्सी में। दो बजे रात की बात। सर्द रात, बर्फ पड़ रही। राहों पर कोई नहीं, दूर—दूर तक सब निर्जन। लेकिन वह टैक्सी—ड्राइवर एक चौराहे पर आकर रुक गया, क्योंकि अभी प्रकाश की बत्ती रुकने को कह रही थी।
तो मेरे मित्र ने कहा, यहां रुकने की क्या जरूरत है? ठिठुरे जा रहे हैं। चलो भी! न कोई पुलिस वाला है, न कोई देखने वाला है, न कोई है जिससे कि टक्कर हो जाए। उस टैक्सी वाले ने कहा, फिर आप कोई और टैक्सी पकड़ लें। यह सवाल पुलिस वाले का नहीं है, निष्ठा का है। यह सवाल इसका नहीं कि कोई है या नहीं, नियम का है।
तुम अगर परमात्मा के कारण नैतिक हो, तुम्हारी नीति बड़ी कमजोर है, लचर है। तुम उगार नैतिक हो, परमात्मा हो या न हो, तो तुम्हारी नीति बहुमूल्य है।
मजनू हैं, मगर ख्वाहिशे—लैला नहीं करते
हम इश्क तो करते हैं, तमन्ना नहीं करते
बुद्ध ने आस्था दी। आस्था के लिए कोई जगह न दी जहां तुम जगह पर रख लो उसे। बुद्ध ने सिर्फ आस्था का शुद्ध— भाव दिया। श्रद्धा दी। श्रद्धा के लिए कोई आधार न दिया। निराधार— श्रद्धा दी। बुद्ध ने कहा, झुको तो जरूर, लेकिन कोई है नहीं जिसके लिए झुको। झुकने में मजा है। बुद्ध ने कहा, झुकना इतना अहोभाव है, झुकना इतना परम आनंद है कि झुको, यह मत पूछो किसके लिए झुकते हो। अगर तुम किसी के लिए झुकते हो, तो तुमने झुकने का मजा जाना ही न। स्वाद न जाना। झुकना अपने आप में इतना पर्याप्त है, अब और किसी सहारें की जरूरत नहीं। सहारा क्यों मांगते हो? नाचो।
इसका अर्थ ठीक से समझना। इसका अर्थ हुआ कि बुद्ध ने साधन को साध्य बना दिया। बुद्ध ने कहा, मार्ग ही मंजिल है। यात्रा ही गंतव्य है। खोजी में ही खोज का आखिरी बिंदु छिपा है, कहीं और नहीं। यही क्षण शाश्वत है, सनातन है।
बुद्ध अपने को क्षणवादी कहते थे। वे कहते थे, क्षण ही बस है। अगले क्षण को मत मांगो। यह क्षण काफी है। इस क्षण का आनंद काफी है। इस क्षण का नृत्य, संगीत काफी है। तुम इसको जीओ, भोगो।
कठिन है। क्योंकि हमें लगता है कि बिना सहारे हम कैसे चलेंगे। हालांकि तुम बिना सहारे ही चलते रहे हो। सहारा सिर्फ भ्रांति है। बुद्ध ने सिर्फ भ्रांति छीनी है तुमसे। और अगर एक बार भ्रांति गिर जाए, तो तुम्हें अपने पैरों पर भरोसा आ जाए। और अपने पर भरोसा आया, तो परमात्मा पर भरोसा आया।
ऐसा समझो, जिसे अपने पर भरोसा न आया, उसे कैसे परमात्मा पर भरोसा आएगा। जिसने अभी अपने पर भी भरोसा नहीं लाया, वह जिस पर भी भरोसा लाएगा, उस पर भी संदेह बना रहेगा। तुम्हारे भीतर संदेह है, अपने पर संदेह है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारी आप पर पूरी श्रद्धा है। मैं कहता हूं? ठहरो, जल्दी न करो। तुम्हारी अपने पर श्रद्धा है? वे कहते हैं, अपने पर तो नहीं है। तो फिर मैंने कहा, तुम मुझ पर कैसे करोगे? तुम्हीं करोगे न? तुम्हें अपने पर श्रद्धा नहीं है, तो अपनी श्रद्धा पर कैसे श्रद्धा होगी। वह तुम्हारी ही श्रद्धा है न! तुम भीतर डगमगा रहे हो, संदेह से भरे हो, तुम घबड़ाकर कहते हो, हम आप पर श्रद्धा करते हैं, पूरी श्रद्धा करते हैं। यह टिकेगी नहीं। यह ज्यादा देर न चलेगी। तुम गलत आश्वासन में पड़ जाओगे। व्यर्थ की उलझन पैदा होगी।


सत्य को देखो, सचाई को देखो। पहले. वहा पैरों का डगमगाना समाप्त होना चाहिए। जिस दिन वहां तुम खड़े हो जाओगे—सुदृढ—उस सुदृढ़ता से एक और ही तरह की श्रद्धा का जन्म होगा। उस श्रद्धा की जड़ें होंगी तुम्हारे जीवन में। उसमें बल होगा। सामर्थ्य होगा। उस श्रद्धा में आश्वासन होगा। कुछ हो सकता है।
अभी तुम जो श्रद्धा कर रहे हो, और कहते हो, मैं सब आपके ऊपर छोड़ता हूं मेरी आप पर बड़ी श्रद्धा है, तुम आज नहीं कल मुझे दोष दोगे। तुम कहोगे, हमने तो सब छोड़ दिया था, कुछ हुआ नहीं। आपने
कुछ किया नहीं। तुम छोड़ कैसे सकते हो पूरा? पूरा छोडने के लिए तो पूरी श्रद्धा चाहिए। और मजा यह है, जिसको अपने पर पूरी श्रद्धा है, छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। जहा श्रद्धा है, वहीं सत्य के सुमन खिलने लगते हैं।
बुद्ध ने तुम्हारे आसपास से जो भी सांयोगिक धर्म है, वह हटा दिया। जो बिलकुल सारभूत धर्म है, उतना ही बचाया। उन्होंने जो भी अनावश्यक था, वह हटा दिया। उन्होंने कहा, अनावश्यक का जंगल खड़ा हो गया है। उसमें तुम भटके चले जा रहे हो। अनावश्यक को हटा दो, आवश्यक को बचा लो। जिसको हटाया न जा सके, बस उसको बचा लो। जिसको काटना भी चाहो तो न काट सको, बस उसको बचा लो। जो तुम्हारा स्वभाव है, वही बच जाए तो सब बच गया।
फिर पूछा है, ‘ और क्या ईश्वर को अस्वीकार कर मनुष्य का अहंकार और भी अंधा नहीं होगा?’
हो सकता है। आदमी पर निर्भर है। तुम पर निर्भर है। तुम ईश्वर के होने को अहंकार बना सकते हो, तो ईश्वर के न होने को तो बना ही सकते हो। ईश्वर के होने से लोग अकड़कर चल रहे हैं कि हम ईश्वर पर भरोसा करते हैं, हम ईश्वर के मानने वाले। मंदिर जाते आदमी को देखो! दूसरों की तरफ ऐसे देखकर जाता है कि सब नरक जा रहे हैं। वह मंदिर जा रहा है!
कहते हैं, मोहम्मद एक युवक को लेकर मस्जिद गए। जब नमाज पढ़कर वापस लौटने लगे—अभी लोग सोए थे, गरमी के दिन थे, रात देर तक न सो सके थे, लोग बिस्तरों पर पड़े थे, राह पर—उस आदमी ने कहा कि देखो हजरत, ये पापी अभी तक सो रहे हैं!
ये पहली दफे गए थे खुद हजरत! मोहम्मद वहीं रुक गए। उन्होंने कहा, यह मुझसे भूल हो गयी कि मैं तुझे मस्जिद ले गया। तेरी नमाज तो बेकार गयी, मेरी नमाज खराब हो गयी। मुझे फिर जाना पड़ेगा।
उस युवक ने पूछा, मतलब? कहा, मतलब यह कि तू सोया रहता, जैसा तू रोज सोया रहता था, तो कम से कम इन लोगों को पापी तो नहीं समझता था। आज तूने एक दफा नमाज क्या पढ़ ली, सारा जगत पापी हो गया! तू मुझे छोड़, हाथ जोडे तेरे। अब कल से मत उठना। कम से कम और लोग पापी तो नहीं दिखायी पड़ते थे। यह तो बड़ा अहंकार हो गया।
मोहम्मद—कहते हैं—वापस गए, रोए, फिर से प्रार्थना की और कहा, मुझे क्षमा कर दो, इस गलत आदमी को मैं उठा लाया। मैंने तो सोचा था प्रार्थना में डूबेगा, यह तो अहंकार में डूब गया।
तो तुम भगवान से जब अहंकार में डूब गए—ठीक है, प्रश्न बिलकुल ठीक है— भगवान न होगा, तो कहीं और अहंकार में न डूब जाओ। तुम पर निर्भर है। तुम औषधि को जहर बना लेते हो चाहो तो, चाहो तो जहर औषधि हो जाती है। सब तुम पर निर्भर है।
मैंने सुना, एक आदमी मरना चाहता था। तो रात जहर खरीदकर आ गया। पी लिया जहर। चिट्ठी लिखकर टेबिल पर रख दी कि मैं मर रहा हूं क्षमा किया जाऊं। जो भला—बुरा किसी से कहा हो, माफ कर देना। सुबह घर के लोग इकट्ठे हुए, देखा चिट्ठी रखी है, छाती पीट—पीटकर रोने लगे। उनकी रोने की आवाज सुनी, वह आदमी जग गया।
तो पहले तो लोगों ने उसकी काफी लानत—मलामत की कि यह तुमने क्या करने की सोची? फिर खुश हुए कि चलो मिलावटी जहर था। जहर भी शुद्ध आज मिलना कहां संभव है! शुद्धता के दिन गए। तो जहर भी, मरना भी हो तो मुश्किल है। खैर, भागी पत्नी, पड़ोस की दुकान से मिठाई खरीद लायी—खुशी में कि पति बच गया, मिठाई खिला दी। वे हजरत मर गए। मिठाई में जहर था। मिलावट थी। मुराद पूरी हुई। जो जहर से न हो सकी, वह मिठाई से हो गयी।
करोगे क्या? आदमी सब चीज में मिलावट किए जाता है। औषधि का जहर बना लेता है, जहर की औषधि बना लेता है, करोगे क्या?
तुम्हारा प्रश्न उचित है। डर है। लेकिन डर बुद्ध के वचनों के कारण नहीं है, डर आदमी की बेईमानी के कारण है। अब इसके लिए बुद्ध क्या करें? बुद्ध ने तो अहंकार छोडने के लिए ही उपाय बताया। बुद्ध ने तो यह कहा, जब भगवान ही नहीं है, तो तुम क्या खाक होओगे? बुद्ध ने यह कहा कि भगवान तक को इंकार कर रहा हूं? अब तुम कहां बचोगे? तुम किस ओट में बचोगे? यहां भगवान भी नहीं है, तुम अपने होने के सपने छोड़ो। तुम्हारा होना क्या!
इसलिए बुद्ध ने आत्मा शब्द का उपयोग भी करने से अपने को रोका। अनात्मा! अनत्ता! वे कहते हैं, तुम भी नहीं हो। न भगवान है वहा ऊपर, न तुम हो यहां भीतर। वहां जाने दो भगवान को, यहां जाने दो तुमको। तब जो बच रहेगा, बुद्ध उसकी कोई बात नहीं करते। वे कहते हैं, उसका तो स्वाद ही लो, जो बच रहेगा। वहां तू न रहे, भगवान न रहे, यहां मैं न रहे, भक्त न रहे। यह मैं —तू का झमेला न रहे। फिर जो बच रहेगा, वही निर्वाण है। वह परमशून्य अवस्था, जहा कोई शब्द नहीं उठता, कोई तरंग नहीं उठती, वह परम निर्विकार दशा, वही समाधि है।
बुद्ध ने तो अहंकार से छुटकारे के लिए ही कहा। बुद्ध ने तो कहा कि तुम्हारा अहंकार अगर भगवान के साथ बंध जाए, तो वह ऐसे ही है जैसे कि अपने डब्बे को रेलगाड़ी के पीछे जोड़ दिया। डब्बा शायद अपने आप न भी चल पाता हो, अब भगवान के नाम से चलेगा। वह तो ऐसे ही है जैसे कि कार बिगड़ जाती है तो बस के साथ अटका दी। तुम्हारा अहंकार तो जगह—जगह अटकता है। टूट—फूट जाता है। छोटा है—बडा छोटा है। उसको महा—अहंकार के साथ जोड़ दिया— भगवान के साथ। फिर तुम उसके ईंधन से चलने लगे।
बुद्ध ने कहा, छोड़ो। वह भी नहीं है। तुम भी नहीं हो। यहां होना असत्य है। यहां न—होना सत्य है। यहां है झूठा है। यहां नहीं सत्य है। यहां आकार भ्रांति है, निराकार यथार्थ है। इसलिए बुद्ध शून्यवादी हैं।
नहीं, अगर तुम बुद्ध को समझोगे, तो अहंकार को बचने का कोई उपाय नहीं है।
दूसरा प्रश्न:
जब मैं शुरू—शुरू आपके पास आयी थी तब ऐसा लगता था, मैं किसी विशेष पात्रता के कारण आपके पास पहुंच पायी ‘। लेकिन अब दिनों—दिन अपनी अपात्रता का बोध हो रहा। और आपकी असीम करुणा का भी। भगवान, मेरा अहोभाव स्वीकार करें और मुझे आशीर्वाद दें।
पात्रता का बोध अपात्रता है। अपात्रता का बोध पात्रता है। जिसने समझा कि मैं पात्र हूं उसका अहंकार सघन होगा। जिसने समझा कि मैं अपात्र हूं उसका अहंकार पिघलेगा, बहेगा। इसलिए कभी—कभी पापी पहुंच जाते हैं और पुण्यात्मा नहीं पहुंच पाते। पुण्य भी पाप से बदतर हो जाता है, अगर उससे अहंकार सजने लगे। और अक्सर सजता है।
कल रात ही मैं एक कहानी कह रहा था। एक की औरत मरी। देवदूत आए। वह बड़ी घबड़ा रही थी और कंप रही थी मर कर। आत्मा उसकी सिकुड़ रही थी। और घबड़ा रही थी, क्योंकि उसको पक्का था कि नरक ले जाएंगे। कभी कुछ ऐसा किया ही नहीं। था कि स्वर्ग ले जाने की कोई बात उठती। पाप की प्रतीति थी, अपात्रता का बोध था।
देवदूतों ने कहा, तू अपने को इतना अपात्र समझती है, तो हमें तुझे स्वर्ग ले जाना ही पड़ेगा। हम तुझसे यह पूछते हैं कि तूने जीवन में कोई भी एकाध अच्छा काम किया हो। उसने कहा कि कुछ याद नहीं आता कि मैंने कभी अच्छा काम किया हो। बुरे बहुत किए। उनकी तो श्रृंखला, मेरा पूरा जीवन भरा है। ही, एक बात है। एक दफे एक भिखारी को एक गाजर मैंने भेंट दी थी। उन्होंने कहा, कोई फिकर नहीं।
वह गाजर प्रगट हुई और देवदूतों ने कहा कि तू पकड़ ले गाजर को, यह तुझे स्वर्ग ले जाएगी। इतना काफी है। परमात्मा की कृपा अपार है। इतना काफी है। वह की चढ़ने लगी स्वर्ग की तरफ, गाजर उठने लगी ऊपर। और भी जो इधर—उधर छिपी खड़ी आत्माएं थीं, भूत—प्रेत थे, वे भी उसके पैर पकड़ लिए, वे भी चलने लगे। लेकिन गाजर का बल ऐसा था कि की को वजन का पता ही न चले। कतार बडी होने गली। उधर की स्वर्ग पहुंचने लगी, क्यू जमीन तक लग गया। जब वह स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंची, उसको अकड़ आयी, पात्रता का खयाल आया। उसने कहा कि अरे, तो पहुंच गयी मैं भी स्वर्ग! उसने नीचे झांककर देखा, वहां कतार लगी हुई थी। उसने कहा, हटो, यह गाजर मेरी है। ऐसा कहने में हाथ छूट गए। धड़ाम से! वह तो गिरी ही, सत्संगी भी गिरे।
तो इसीलिए तो गुरु जरा सोचकर चुनना। जब गुरु गिरेगा, सब सत्संगी भी साथ गए। गाजर मेरी है! अपात्रता का बोध तो स्वर्ग की तरफ ले आया, पात्रता के बोध ने स्वर्ग के द्वार से भी लौटा दिया। आदमी इसी तरह जीता है।
मेरे ‘पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपके पास आ गए, जरूर जन्मों—जन्मों में कोई पुण्यकर्म किए होंगे। आकर भी दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं। कह रहे हैं, गाजर मेरी है। आकर भी अहंकार को भर रहे हैं। पर अनजाने चल रहा है यह सब खेल। यह होश में नहीं हो रहा है, नहीं तो कौन करे? यह बेहोशी में चल रहा है। शराब पीए हैं। अहंकार शराब है।
तो स्वभावत: जब मेरे पास कोई प्राथमिक रूप से आता है, तो वह यही सोचता हुआ आता है कि हम पात्र हैं, योग्य हैं। हमने यह किया, वह किया। और जब मैं तुम्हें स्वीकार कर लेता हूं संन्यासी की तरह, तब तो तुम्हारा अहंकार छलांगें भरने लगता है।
इस भ्रांति में मत पडना। मैं सभी को स्वीकार करता हूं। मैं अस्वीकार करता ही नहीं किसी को। इसलिए पात्रता— अपात्रता का भेद ही मत करना। तुम यह मत सोचना कि तुमको स्वीकार किया है। जो भी आता है उसी को स्वीकार करता हूं। इसलिए इस हिसाब में तो पड़ना ही मत। हौ, और हैं गुरु, जो कहते हैं पहले पात्र होना चाहिए। मैं तुम्हें स्वीकार करता हूं पात्रता—अपात्रता का हिसाब ही नहीं रखता। मेरा कोई गणित नहीं है, मैं कोई व्यवसायी नहीं हूं, कोई सौदा नहीं है। तुम आ गए, काफी है।
अगर तुम अपात्र हो और आ गए, और भी अच्छा। क्योंकि अपात्र का अर्थ है, अहंकार सघन नहीं है। बहुत कुछ हो सकता है। पात्रों से खतरा है।
तो मेरे पास कोई आ जाते हैं, वे कहते कि हम बीस साल से हठयोग कर रहे हैं। कोई कहता है, हम उपवास कर रहे हैं, प्राणायाम कर रहे हैं। तो उनकी आंखों में मैं देखता हूं कि पात्रता बहुत घनी है। मुझसे संबंध न हो पाएगा। उनकी गाजर बड़ी है। और उनका भाव भारी है। वे इस द्वार से खाली लौट जाएंगे।
मेरे पास आने का एक ही उपाय है और वह यही है कि तुम समझना शुरू करो कि तुम नहीं हो। क्योंकि इसी भांति तुम अपने पास आओगे। मेरे पास होने का प्रयोजन क्या है—कि तुम अपने पास आ सको। मेरा तो बहाना है। आना तो तुम्हें अपने पास है। जितना मैं मजबूत होगा, उतना ही तुम अपने से दूर रहोगे। मैं तुम नहीं हो। जहां तक मैं है, वहां तक तुम भटके हो। वहां तक तुमने किसी और को अपना होना समझा है। इधर मैं गिरा कि तुम्हें अपनी वास्तविकता से मिलन हुआ। पहली दफे तुम्हारा आमना—सामना होगा— अपने से। पहली दफा आंख में आंख डालकर देखोगे तुम स्वयं की।
तो ठीक है, ‘जब शुरू में आना हुआ था, तो मैं किसी विशेष पात्रता के कारण आपके पास पहुंची हूं, ऐसा लगता था।’
वह भ्रांति थी। उसे मुझे तोड़ना ही पड़ेगा। और शुभ है कि वह टूटने लगी। ‘लेकिन अब दिनों —दिन अपनी अपात्रता का बोध हो रहा है।’
शुभ हो रहा है। लेकिन मेरी ये बातें सुनकर कि अपात्रता पात्रता है, अब इस बोध से अकड़ मत जाना।
आदमी का मन बड़ा ही चालबाज है। अभी मैंने कहा कि अपात्रता पात्रता है, अब तुम अकड़कर मत बैठ जाना रीढू सीधी करके, कुंडलिनी जाग्रत मत कर लेना कि अरे, तो मैं पात्र हो गयी! तो अच्छा हुआ कि अपात्र अपने को समझ लिया, पात्र हो गयी। बस तो फिर स्वर्ग के द्वार से गाजर छूटी।
अब तुम सोच—समझकर चलना। मैं लाख कहूं कि तुम पात्र हो, तुम अपनी अपात्रता को और— और गहरा समझते जाना।
और पूछा है, ‘ अपात्रता का बोध हो रहा है। आपकी असीम करुणा का भी।’ जैसे —जैसे अपात्रता का बोध होगा, वैसे —वैसे मेरे प्रेम का और करुणा का बोध भी होगा। क्योंकि तुम भरने लगोगे। वहां तुम खाली हुए कि भरे। भरे रहे कि खाली रहे।
वर्षा होती है। मेघ बरसते हैं। पहाड़ी पर भी, खाई—खड्डों पर भी। पहाड़ तो खाली रह जाते हैं। सब पानी बरसता है, बह जाता है। खाई—खड्डे भर जाते हैं। जो खाली थे, वे भर जाते हैं। पहाड़ तो पहले ही से भरे हैं, अकड़कर खड़े हैं। पत्थर ही पत्थर भरे हैं। उनकी शान देखो! अकड़े खड़े हैं आकाश में। खाली रह जाते हैं, रिक्त रह जाते हैं। भीगते भी नहीं। और खाई—खड्डे, जिनकी कोई अकड़ नहीं, भर जाते हैं। झीलें बन जाती हैं।
तो तुम अगर खाई—खड्डे की तरह मेरे पास रहे, तो निश्चित भर जाओगे। और अगर तुम पहाड़ों की तरह अकड़े रहे और तुमने समझा कि हम भरे हुए हैं, तो तुम खाली रह जाओगे।
मैं बरसता रहूंगा। न मैं फिक्र करता खाइयों की, न पहाड़ों की। दोनों पर बरसता हूं। कोई हिसाब भी नहीं रखता। हिसाब रखकर कौन बादल कब बरसा है?
इसलिए खयाल रखना, कहीं अब ऐसा न हो, रीढ़ को जरा सीधी मत करना। झुके बैठे हो, झुके ही बैठे रहना, और झुक जाना कि सिर जमीन से लग जाए। तो और भी और, और भी और करुणा का, प्रेम का, प्रसाद का अनुभव होगा।
तुम झोली तो फैलाओ। तुम मांगते भी हो और झोली भी नहीं फैलाते। तुम जल के किनारे खड़े हो, अंजुली भी नहीं बनाते। झुकते भी नहीं। प्यासे के प्यासे रह जाते हो। अब नदी छलांग लगाकर तुम्हारे गले में न उतर जाएगी। थोड़ा झुको। जलधार के करीब आओ, अंजुली बनाओ। जितना झुकोगे, उतना पाओगे। अगर बिलकुल झुक जाओ तो नदी में डूब जाओगे। इतने डूब जाओगे कि नदी तुम्हारे ऊपर से बह जाएगी। लेकिन सब तुम्हारी शून्यता पर निर्भर है। इसलिए ऐसा कुछ भाव खड़ा मत करना जिससे तुम्हारी शून्यता मिटती हो।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि तुम्हारे मिटने से जो संगीत पैदा होगा, वैसा संगीत, वैसा अनाहत नाद तुम्हारे होने से पैदा होने वाला नहीं है। दिल मेरा तोड़कर कहा उसने जबाने—राज में
साज में नग्मे कहां हैं जो शिकस्ते—साज में
प्रगट होते हैं! निश्चित ही वीणा के टूटने पर जो स्वर प्रगट होते हैं, वे सुने नहीं जा सकते। वे इतने स्थूल नहीं हैं। वे केवल अनुभव किए जा सकते हैं। उसको झेन फकीरों ने एक हाथ की ताली कहा है। दो हाथ की ताली तो तुमने सुनी है। एक हाथ की ताली सुनी?
जब झेन फकीरों के पास, कोई गुरु के पास कोई शिष्य जाता है, पूछता है, क्या करूं? तो वह कहता है, एक हाथ की ताली सुनो। अनाहत नाद।
दो हाथ की ताली तो आहत नाद है। आहत का मतलब, दो की टक्कर से पैदा हुआ। टक्कर से जो पैदा हुआ, वह हिंसा से पैदा हुआ। जो टक्कर से पैदा हुआ, वह थोड़ी देर पहले नहीं था, थोड़ी देर बाद नहीं हो जाएगा। वह शाश्वत नहीं हो सकता। एक हाथ की ताली सुनो। अब एक हाथ की ताली जिसने सुन ली, वह बजती ही रहेगी। न उसका कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है। वह शाश्वत है। उसको हमने अनाहत नाद कहा है।
मुझे मौका दो कि तुम्हारी वीणा को बिलकुल तोड़ दूं। मुझे मौका दो कि तार—तार उखाड़ दूं। मुझे मौका दो कि तुम्हारी वीणा टुकड़े—टुकड़े हो जाए, क्षार— क्षार हो जाए। तुम उसे जोड़ भी न पाओ। तुम्हारा अहंकार गिर जाए।
दिल मेरा तोड़कर कहा उसने जबाने—राज में
साज में नग्मे कहां हैं जो शिकस्ते —साज में
और जिसे तुम अपना होना समझते हो, यह तो न—होने में डूब जाएगा। इसे बचाओ मत। इसे जिसने बचाया, उसने खोया। जिसने खोया, बस उसने बचाया। यह तो तुम्हारा होना, आज नहीं कल मौत ले जाएगी, बहा ले जाएगी, बाढ़ आ ही रही है। आ ही गयी है, घड़ीभर की देर है।
जिसे तुम जीवन कहते हो, यह तो हाथ से छूटा—छूटा है। मैं तुम्हें एक और जीवन बता रहा हूं। अभी तुमने होने को जीवन समझा है। मैं तुम्हें न—होने को जीवन बता रहा हूं। तुम मरने के पहले मरना सीख जाओ। इसके पहले कि मौत मिटाए, तुम मिट जाओ, स्वेच्छा से। तो फिर तुम्हें मौत न मिटा सकेगी।
जो मौत के आने के पहले मर गया, मिट गया, उसे मौत मिटा कैसे सकेगी? मौत आएगी, खड़ी रह जाएगी। कोई उपाय न पाएगी। यह साज तो पहले ही टूटा पड़ा है। इसे तो तुमने अपने हाथों तोड़ दिया है। और जो तुमने अपने हाथों तोड़ा है, तुम उस टूटने के पार बच जाओगे। तोड़ने वाला तो बच ही जाएगा। समस्त साधना न—हो जाने की साधना है।
जिंदगी यह है कि जिस रेत पर जलते थे कदम
अब वही बिस्तरे— आराम हुई जाती है
जिंदगी यह हैं कि सोया था मुसाफिर थककर
सो के उठा है तो अब शाम हुई जाती है
जिसको तुम जिंदगी कहते हो, वह ऐसे ही गुजरती है। और जिस रेत पर पैर जलते थे, जहां घबड़ाहट और बेचैनी होती थी, जिस मिट्टी से तुम बचकर चलते थे, जिस धूल से अपने को सम्हालकर चलते थे, कीचड पैर न लग जाए, उसी कीचड़ में बिस्तर हो जाएगा।
जिंदगी यह है कि जिस रेत पे जलते थे कदम
अब वही बिस्तरे— आराम हुई जाती है मिट्टी में मिल जाना होगा।
जिंदगी यह है कि सोया था मुसाफिर थककर
सो के उठा है तो अब शाम हुई जाती है
थकान ही तुम्हारी पूरी जिंदगी की कहानी है। थक— थककर, थक— थककर मिट जाते हो। इससे जागो।
एक और होने का ढंग है, न—होना। बड़ा गहरा ढंग है। जैसे परमात्मा है, उस ढंग से हो जाओ। बुद्ध जिस ढंग से कहते हैं, परमात्मा नहीं है, तुम भी उसी ढंग से नहीं हो जाओ। नहीं परमात्मा के होने का ढंग है।

लोग मेरे पास आते हैं, वे पूछते हैं, परमात्मा कहां है? मैं कहता हूं अनुपस्थिति उसके उपस्थित होने का ढंग है। उसने बडी होशियारी से बड़ी मतलब की बात चुन ली है। उपस्थित होता, तो कभी न कभी अनुपस्थित होना पड़ता। जो होता है, उसे मिटना पड़ता है। उसने पहले ही से हिसाब रखा। उसने न—होने को चुना। वह है, और ऐसे है जैसे न हो। उसकी मौजूदगी गैर—मौजूदगी है। वह तुम्हें सब तरफ से घेरे है, और फिर भी तुम्हें उसका स्पर्श पता नहीं चलता। बड़ा कुशल है। सब तरफ से छुआ है, सब तरफ से तुम्हें पिरोया है, सब तरफ से तुम्हारे भीतर—बाहर जा रहा है, श्वास—श्वास में आ—जा रहा है, फिर भी तुम्हें पता नहीं चलता। कैसे प्यारे कदम हैं, आवाज भी नहीं होती! अनाहत नाद है। एक हाथ की ताली है। तुम भी ऐसे ही हो रही।
मेरे पास अगर तुम मिटना सीख लो, तो तुम सब पा लोगे। मेरे पास अगर तुम मर जाओ, तो तुम अनंत जीवन पा लोगे। सूली पर जो चढ़ा, सिंहासन उसका है।
आखिरी प्रश्न
ना जानूं मैं आरती—वंदन, ना पूजा की रीत…
खुदाया मेरी ख्वाहिशों पर न जा तकाजा मेरा सख्त मायूब है जो मर्जी हो तेरी वही खूब है।
अब स्वभाव निराश नहीं हो सकता, प्रभो!
स्‍वभाव का प्रश्‍न है।
न जानूं मैं आरती–वंदन न पूजा की रीत।
जानने की जरूरत ही नहीं है। जो जानते है, वे बड़ी मुश्‍किल में पड़ते है। रिति ही हाथ पड़ती है फिर। फिर विधि ही रह जाती है हाथ में। तकनीक ही रह जाता है। जानने वाले बड़ी बुरी तरह भटकते हैं।
मोजेज के जीवन में उल्लेख है। एक पहाड़ी रास्ते से गुजरते थे। एक गरीब आदमी को प्रार्थना करते देखा। फटे—पुराने कपड़े थे, धूल— धूसर थे, पसीने से लथपथ था—गड़रिया था। वह कह रहा था परमात्मा से कि हे प्रभु, अगर मुझे मौका दे, अगर मुझे अपने तू पास रख, तो रोज तुझे खूब घिस—घिसकर नहला दूंगा। तेरी यं भी निकाल दूंगा। पिस्थू इत्यादि तेरे शरीर पर आ जाते होंगे, एक न बचने दूंगा। तू देख मेरी भेड़ों को, कैसा साफ—सुथरा रखता हूं! तू जरा मुझे मौका तो दे। थक जाएगा, रात तेरे पैर दबा दूंगा। ऐसे दबाऊंगा कि गहरी नींद आ जाएगी।
मोजेज ने सुना तो बड़े घबडाए कि प्रार्थनाएं बहुत ‘सुनी, यह नालायक क्या कह रहा है? तेरी रोटी भी पका दूंगा। तू घर के बाहर जाएगा, घर भी साफ—सुथरा. एक जरा मौका तो दे।
उसको बीच में जाकर हिलाया और कहा, नासमझ! यह तू क्या बक रहा है? यह प्रार्थना है? वापस ले ये शब्द। यह तो परमात्मा का अपमान कर रहा है। अं। परमात्मा पर! तूने कोई भेड़ समझी है? तू नहलाएगा—धुलाएगा। तूने कोई परमात्मा को गंदा समझा है! तू पैर दबाएगा। परमात्मा कभी थकता है! वह गड़रिया तो बहुत घबड़ा गया। उसने कहा कि मुझे क्षमा करो, मुझे मालूम नहीं।
‘ना जानूं मैं आरती—वंदन, ना पूजा की रीत।’
वह भाग गया गडरिया तो अपनी भेड़ें सम्हालकर कि यह तो कहा की झंझट है! उसने कहा, अब कभी प्रार्थना न करेंगे। माफ करो, मैं जानता ही नहीं, मैं तो यही करता रहा सदा से। बडा पाप हुआ।


वह गया नहीं था कि परमात्मा की आ

वाज गंजी कि मोजेज, मैंने तुझे भेजा था कि जो मुझसे भटके हों, मुझे उनसे जुड़ा देना। तूने तो मुझसे जो जुड़ा था, उसको अलग कर दिया। उसका प्यार तो देख! उसका भाव तो देख! उसका हृदय तो पहचान! तू तो रीति—नियम में खो गया। जा उससे माफी मांग, और उससे प्रार्थना सीख। बहुत मेरे प्यारे हैं, पर वैसा कोई भी नहीं।
मोजेज ने ढूंढा उसे जंगल में, उसके पैर पर गिर पड़े कि मुझे क्षमा कर, तू अपनी प्रार्थना जारी रख। तुझे जितने जूं निकालने’ हों, निकाल। तुझे जितना नहलाना हो, नहला। वह खुश, तो मैं बीच में कौन? तू जान, तेरा काम जाने। मुझे अच्छा फंसाया!
ध्यान रखो, जीवन के परम सत्य रीति—नियम से नहीं मिलते। औपचारिक नहीं हैं। धर्म का जगत भाव का जगत है। वहां तुमने प्रार्थना कैसे की, इसका कोई संबंध नहीं है। प्रार्थना की, इसका संबंध है। भाव था, गहरा था, तुम डूबे थे, फिर ठीक है। ऊपर—ऊपर शब्द दोहरा रहे थे, रटी हुई प्रार्थना को दोहरा रहे थे, व्याकरण भी शुद्ध थी, भाषा भी शुद्ध थी, उससे क्या होगा? कोई परमात्मा को व्याकरण सीखनी है! कि परमात्मा को भाषा सीखनी है! कि परमात्मा को तुम वेद—उपनिषद और गीता सुनाकर कुछ नयी बात सुना रहे होओगे! नहीं, परमात्मा तुम्हारा हृदय मांगता है। तुम्हें मांगता है। रीति—नियम नहीं।
छोड़ो फिकर। नहीं जानते, शुभ है। सहज—स्फूर्त हो, सरलता से उठे, तुम्हारे जीवन के सत्य को लेकर आती हो; तुम्हारी मगनता, तुम्हारे उन्माद, तुम्हारे हर्ष को प्रगट करती हो, तुम्हारे नृत्य को, तुम्हारे आंसुओ को, तुम्हारे गीत को प्रगट करती हो, हो गयी बात। तुम परमात्मा का नाम भी मत लो, तो भी चलेगा। मगर तुम्हारा नाच हार्दिक हो। और तुम्हारे आंसू असली हों। नकली न हों। तुम बड़े कुशल हो गए हो नकली आंसू लाने में।
मैं एक घर में मेहमान था। कोई मर गया था घर में। वह घर की जो महिला थी—मैं बाहर बैठा रहता था धूप में—वह मुझसे कहती थी कि कोई आए बैठने जरा मुझे इशारा कर दिया करें। मैंने कहा, तू क्या करेगी? वह एकदम घूंघट डाल कर, छाती पीटकर रोने लगती। मैं बड़ा चकित हुआ। वह बिलकुल ठीक—ठाक बैठी रहती। कोई आने वाला है—बैठने वाला है—मैं उसको इशारा करता कि आता है कोई, वह एकदम.।
मैंने एक दिन जाकर उसका घूंघट उठाकर देखा, आंसुओ की धार लगी थी। मैंने कहा, तूने भी गजब कर दिया। अभी तू हंस रही थी, बात कर रही थी, ये आंसू! उसने कहा, बड़ी मुश्किल से सीखे। कई अनुभव से सीखे।
आदमी झूठे आंसू बहाने में भी कुशल हो जाता है। बस झूठ से बचना। तुम्हारी प्रामाणिकता तुम्हारी प्रार्थना है। और निराश होने का तो कभी कोई कारण नहीं। निराशा तो इसलिए बार—बार घेर लेती है कि तुम गलत दिशा में खोजते हो। निराशा तो इसलिए बार—बार घेर लेती है कि तुम अहंकार से भरे खोजते हो। निराशा तो इसलिए बार—बार घेर लेती है कि तुमने अभी अपने को मिटाकर नहीं खोजा। अपेक्षा से खोजते हो, इसलिए विषाद पकड़ लेता है। कुछ पाने के लिए खोजते हो। जब नहीं मिलता, तो बेचैनी होती है। या जो भी मिलता है, तो इतना नहीं मालूम पड़ता, जितना तुम सोचते थे मिलना चाहिए। मिला तो बहुत है, पर तुम्हारी अपेक्षा बड़ी है। मैं कलकत्ते में एक किसी के घर जा रहा था। एयरपोर्ट से मुझे लेकर जो सज्जन जा रहे थे, बड़े उदास थे। उनको कभी मैंने उदास नहीं देखा। उनकी पत्नी भी साथ थी। मैंने पत्नी से पूछा कि मामला क्या है? तो उन्होंने कहा, आप उन्हीं से पूछ लें। मैंने पूछा। वे कहने लगे, बडा नुकसान हो गया। पांच लाख का नुकसान लग गया। तो मैंने कहा, उदास होने की बात है। पत्नी हंसने लगी। उसने कहा, इनकी बात में मत जाना। पांच लाख का नुकसान नहीं, पांच लाख का फायदा हुआ है, मगर ये दस लाख की सोच रहे थे। सो इनके हिसाब में पांच लाख का नुकसान हो गया है। इनको मैं लाख कहती हूं कि पांच लाख का फायदा हुआ है, नुकसान कहां? मगर ये अपनी धुन लगाए रहते हैं कि दस मिलने चाहिए थे—कोई सौदा किया था—पांच ही मिले। उदासी, विषाद, खिन्नता अपेक्षाओं से घिरती हैं।
प्रार्थना करो, अपेक्षा मत करो। फिर तुम कभी उदास न होओगे। फिर जो मिलेगा, उससे तुम धन्यभागी होओगे। और बहुत मिलता है। बहुत मिल रहा है, बहुत मिला ही हुआ है। मिलता ही रहा है। और जितने तुम प्रसन्न होओगे, जितने तुम अहोभाव से भरोगे, उतने ज्यादा को पाने का द्वार खुल जाता है। और जितने तुम विषाद से भरोगे, उतने तुम सिकुड़ जाते हो, उतना ही द्वार—दरवाजे बंद हो जाते हैं। जो मिलने वाला था, वह भी चूक जाता है।
रात अंधेरी है माना, जरा तारों को देखो, कितने रोशन हैं। कोई सूरज की ही रोशनी होती है! तारों की भी रोशनी होती है। और तारों की रोशनी का अपना सौंदर्य है। सूरज की रोशनी का अपना सौंदर्य है। सूरज की रोशनी में बडी तपन है। चांद—तारों की रोशनी में बड़ी शीतलता है। तपन के बाद शीतलता जरूरी है। रात का अंधेरा ही क्यों देखते हो, जरा चांद—तारे देखो।
फिर अंधेरे में भी सिर्फ अंधेरा क्यों देखते हो? सुबह, छुपी हुई सुबह भी देखो। पास आती सुबह भी देखो। अंधेरा तो गर्भ है। रात तो मां है। सुबह को जन्म देने के करीब है।
फिर अंधेरे में आने वाली सुबह ही देखने की भी इतनी जरूरत नहीं है। जरा अंधेरे को ही गौर से देखो। उसकी शाति! उसका मखमली फैलाव! उसका असीम विस्तार! जरा उसे छुओ। तो तुम जहां हो वहीं तुम पाओगे इतना मिला है, इतना मिला है! और तुम जहा हो वहीं तुम पाओगे कि इतना और, इससे और ज्यादा मिलने के करीब आ रहा है। आदमी पर इतनी वर्षा होती है, फिर भी आदमी गीला नहीं हो पाता। अपनी ही नासमझी है।
आज कांटे हैं अगर तेरे मुकद्दर में तो क्या
कल तेरा भर जाएगा फूलों से दामन गम न कर
तू नजर आता है जिस जंजीरे— आहन में असीर
टूट जाने को है वो जंजीरे— आहन गम न कर
देखता है आज जिस गुलशन को वक्के—खिजां
ताजा कैसा ताजातर होगा वो गुलशन गम न कर
गुल अगर एक शमा होती है हवाऐ—दहर से
सैकड़ों उसकी जगह होती हैं रोशन गम न कर
एक दीया बुझता नहीं, हजार जल जाते हैं। एक सूरज बुझता नहीं, हजार दीए जल जाते हैं। देखा रोज, फिर भी समझे नहीं। गणित बिलकुल साफ है। दिन का सूरज एक, रात के सूरज करोड़ हैं। एक सूरज बुझता नहीं, करोड़ जल जाते हैं। एक फूल गिरता नहीं, करोड़ खिल जाते हैं। एक द्वार बंद नहीं हुआ—अब बंद द्वार पर अटककर मत बैठे रहो। उसी को मत देखते रही, उसमें ही आंखों को मत उलझाओ। जरा इधर—उधर देखो—कहीं दस द्वार खुल गए हैं। इधर कोई मरा, उधर जन्म हुआ। तुम मौत को ही लेकर सिर मत पीटते रहो। जन्म की खुशी मनाओ। फिर कोई जन्म गया है। फिर कहीं कोई नया पैदा हो गया है।
एक बार दृष्टि तुम्हारी सुधर जाए, एक बार ठीक दिशा में देखना आ जाए, तो जरा भी उदास होने का कोई कारण नहीं है। फिर खयाल रखना, ऐसी कसम मत लेना कि अब निराश न होंगे। कसम से काम न चलेगा। समझ से काम चलेगा। कसम मत ले लेना कि निराश न होंगे, अन्यथा दोहरी निराशा आ जाएगी—जब निराशा आएगी तो निराशा तो आएगी ही, और साथ में यह निराशा भी पकड़ेगी कि अरे, फिर निराश हो गए! कसम मत लेना। कसमों से नासमझ जीते हैं। समझ।
मुझे सुनो, समझो क्या कह रहा हूं। व्रत मत लो। कसमें मत खाओ। यह मत कहो कि अब कभी न होके निराश। कल का पता है? क्षणभर के बाद का पता है? अभी एक रौ में हो, अभी मन प्रसन्न है, क्षणभर बाद शायद मन प्रसन्न न रह जाए। अभी गीत गुनगुना रहे हो, क्षणभर बाद आंख में आंसू आ जहर। क्षणभर बाद का फिर क्या करोगे?
फिर यह तुमने जो वचन दे दिया कि अब कभी निराश न होंगे, यह कहीं बांधने वाला न हो जाए। फिर कहीं ऐसा न हो कि तुम आंसू छिपाओ कि अब कैसे प्रगट करें। एक दफे कह दिया अब कभी उदास न होंगे, फिर तुम झूठी प्रसन्नता प्रगट करो। झूठी प्रसन्नता से तो सच्ची उदासी सही है। कम से कम सच्ची तो है।
इसलिए इस बात को मैं तुमसे बहुत समझाकर कह देना चाहता हूं कि मेरे पास कभी कसमें लेने की कोई जरूरत नहीं है। मैं कसमें दिलाने वाला नहीं हूं। मैं तुम्हें कोई व्रत नहीं देता। सिर्फ बोध देता हूं। इस क्षण में प्रसन्न रहो, काफी है। इसी क्षण से तो अगला क्षण आएगा। इसी से तो बंधा, खिंचा आ रहा है। अगर यह क्षण प्रसन्नता से भरा है, तो अगला क्षण इसी से तो निकलेगा। सुबह इसी रात से तो पैदा होगी! अगर रात तुमने नाचकर बितायी है, तो सुबह का सूरज तुम्हें और नाच से भर जाएगा। लेकिन कसम मत खाओ। क्योंकि कसम में भय है, डर है।
तुम कह रहे हो, अभी प्रसन्न हूं अभी कसम खा लूं, पता नहीं फिर क्षणभर बाद मौका चूक जाए और कसम न खा पाऊं। मैं उन मंदिरों—मस्जिदों के खिलाफ हूं, उन गुरुओं के खिलाफ हूं जो लोगों को कसमें दिलाते हैं। वे शोषण कर लेते है। तुम गए मंदिर में, धूप—दीप जलता था, पूजा के थाल सजे थे, घटनाद होता था, प्रार्थना—कीर्तन होता था, लोग नाचते थे, मगन थे, तुम भी मगन हो गए—बह गए फिर तुमने कसम खा ली कि अब रोज प्रार्थना करूंगा।
जरा ठहरो! कहीं एक भावदशा में तुम जीवनभर को बांध तो नहीं रहे हो? कल पछताओगे तो न? कल ऐसा तो न होगा, कहोगे यह मैं क्या कह फंसा! फिर कहीं ऐसा न हो कि तोड़ना पड़े।
तोड़ोगे, तो आत्मग्लानि होगी, अपराध का भाव होगा। तोड़ोगे, तो हिम्मत छूट जाएगी, अपने पर भरोसा खो जाएगा। तोड़ोगे तो ऐसा लगेगा कि नहीं, मेरे किए कुछ भी नहीं हो सकता। एक छोटी सी बात भी न कर पाया। पूजा भी न कर पाया, प्रार्थना भी न कर पाया। फिर तुम मंदिर से बचोगे। मंदिर जाने में डरोगे, भय पकड़ने लगेगा।
नहीं, मैं तुम्हें कोई व्रत नहीं देता। तुम मेरे सामने कोई व्रत लो भी नहीं। मैं तुम्हें बांधता नहीं, बस मुक्त करता हूं। मैं तुमसे कहता हूं तुम छोडो फिकर कि आगे तुम क्‍या करोगे। अभी तुम प्रसन्न हो, अभी पूरे प्रसन्न हो जाओ। बस काफी है। अगला क्षण इसी क्षण से पैदा होगा। वह इसी क्षण की संतति है। अगर तुम प्रसन्न हो, वह भी प्रसन्न होगा।
लेकिन तुम अभी भी डर रहे हो। तुम इस क्षण में भी घबड़ा गए हो। खुशी आयी है, तुम्हें भरोसा नहीं कि टिकेगी। तुम कहते हो, अब मैं कभी निराश न होऊंगा। तुम कहते हो, यह क्षण इसके पहले निकल जाए, कसम खा लूं। बंध जाऊं। कमिटमेंट हो जाए। तो फिर बंधा रहूंगा, फिर भाग न पाऊंगा। लेकिन बंधन अगर बन जाए धर्म, तो धर्म ही न रहा। धर्म मुक्ति है। पहले कदम से लेकर अंतिम कदम तक मुक्ति है। मैं तुम्‍हें समस्त व्रतों और कसमों से मुक्‍ति दिलाता हूं।
स्वभाव ने कहा है, ‘अब स्वभाव निराश नहीं होगा, नहीं हो सकता है।’
नहीं, स्वभाव! स्वभाव पर इतना भरोसा मत करो। कोई नियम मत बांधो। समझो। समझ पर्याप्त है। विवेकवान बनो। बोध को जगाओ। तुम्हारे भीतर का दीया जलता रहे। इस क्षण जला लो, बस। अगले क्षण की अगले क्षण देख लेंगे।
जीसस ने कहा है, कल की चिंता न करो। कल अपनी फिकर खुद कर लेगा और जीसस ने कहा है, देखो खेतों में लगे लिली के फूलों को। सम्राट सोलोमन भी ‘गाने सारे आयोजन और व्यवस्था के बाद इतना सुंदर न था। क्या कारण है?
क्योंकि लिली के फूलों ने कोई आयोजन नहीं किया। बस खिल गए हैं। कोई व्यवस्था न जुटायी, कोई योजना न बनायी। न पाच दिवसीय, न पंचवर्षीय। बस खिल गए हैं। सहज हैं। इनके सौंदर्य को देखो, सोलोमन भी झेंप जाए। और जीसस ठीक कहते हैं, सोलोमन भी झेंप जाएगा। नहीं, तुम कल का आयोजन मत करो, अन्यथा सोलोमन हो जाओगे। मैं चाहता हूं तुम लिली के फूल रहो। खिलो। खिलने से और खिलना निकलेगा। निकलता रहेगा। जिसने आज दिया है, कल भी देगा। जिसने आज हंसाया है, कल भी हंसाएगा। जिसने आज श्वासें दी हैं, कल भी श्वासों से भरेगा। भरोसा करो।
जीवन पर भरोसा करो, व्रतों पर नहीं। जीवन पर श्रद्धा करो, नियमों पर नहीं। एस धम्मो सनंतनो। यही सनातन धर्म है। जीवन पर श्रद्धा।