23.3.16

चाणक्य के नीति उपदेश

 



आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता  और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्व विख्यात  हुए।

इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।
वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ अंश -
 *बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे। *चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
* जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
* झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों कोस्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
* चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।
*चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
*भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं। चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।
* चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।

* जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
*चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।
*चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
*चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
 *चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।< * वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
 *चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
 *शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
* चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
*चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।

22.3.16

महापुरुषों के शिक्षाप्रद वचन


महापुरुषों एवम संतों के अनमोल वचन(संकलित) 
(१) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी —–महर्षि वाल्मीकि (रामायण)
( जननी ( माता ) और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है)
(२) जो दूसरों से घृणा करता है वह स्वयं पतित होता है – विवेकानन्द
(३) कबिरा घास न निन्दिये जो पाँवन तर होय । उड़ि कै परै जो आँख में खरो दुहेलो होय।। —-सन्त कबीर
(४) ऊँच अटारी मधुर वतास। कहैं घाघ घर ही कैलाश। —-घाघ भड्डरी (अकबर के समकालीन, कानपुर जिले के निवासी )
(५) तुलसी इस संसार मे, सबसे मिलिये धाय ।
ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाँय ॥
(६) कोई भी देश अपनी अच्छाईयों को खो देने पर पतीत होता है। -गुरू नानक
(७) प्यार के अभाव में ही लोग भटकते हैं और भटके हुए लोग प्यार से ही सीधे रास्ते पर लाए जा सकते हैं। --ईसा मसीह
(८) जो हमारा हितैषी हो, दुख-सुख में बराबर साथ निभाए, गलत राह पर जाने से रोके और अच्छे गुणों की तारीफ करे, केवल वही व्यक्ति मित्र कहलाने के काबिल है। -वेद
(९) ज्ञानीजन विद्या विनय युक्त ब्राम्हण तथा गौ हाथी कुत्ते और चाण्डाल मे भी समदर्शी होते हैं ।
(१०) यदि सज्जनो के मार्ग पर पूरा नही चला जा सकता तो थोडा ही चले । सन्मार्ग पर चलने वाला पुरूष नष्ट नही होता।
(११) कोई भी वस्तु निरर्थक या तुच्छ नही है । प्रत्येक वस्तु अपनी स्थिति मे सर्वोत्कृष्ट है ।— लांगफेलो
(१२) दुनिया में ही मिलते हैं हमे दोजखो-जन्नत । इंसान जरा सैर करे , घर से निकल कर ॥ — दाग
(१३)विश्व एक महान पुस्तक है जिसमें वे लोग केवल एक ही पृष्ठ पढ पाते हैं जो कभी घर से बाहर नहीं निकलते ।— आगस्टाइन
(१४) दुख और वेदना के अथाह सागर वाले इस संसार में प्रेम की अत्यधिक आवश्यकता है। -डा रामकुमार वर्मा
(१५) डूबते को बचाना ही अच्छे इंसान का कर्तव्य होता है। -डॉ.मनोज चतुर्वेदी
(१६) जिसने अकेले रह कर अकेलेपन को जीता उसने सब कुछ जीता। -अज्ञात
(१७) अच्छी योजना बनाना बुद्धिमानी का काम है पर उसको ठीक से पूरा करना धैर्य और परिश्रम का । — डॉ. तपेश चतुर्वेदी
(१८) ऐसे देश को छोड़ देना चाहिये जहां न आदर है, न जीविका, न मित्र, न परिवार और न ही ज्ञान की आशा ।–विनोबा
(१९) विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है ।–रवींद्रनाथ ठाकुर
(२०) आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। -महात्मा गांधी
(२१) पाषाण के भीतर भी मधुर स्रोत होते हैं, उसमें मदिरा नहीं शीतल जल की धारा बहती है। - जयशंकर प्रसाद
(२२) उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं तब विवेक के अधिक निकट होते हैं।–अज्ञात
(२३) विश्वास हृदय की वह कलम है जो स्वर्गीय वस्तुओं को चित्रित करती है । - अज्ञात
(२४) गरीबों के समान विनम्र अमीर और अमीरों के समान उदार गऱीब ईश्वर के प्रिय पात्र होते हैं। - सादी
(२५) जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का पतिबिम्ब नहीं पड़ सकता । - रामकृष्ण परमहंस

(२६) मित्र के मिलने पर पूर्ण सम्मान सहित आदर करो, मित्र के पीठ पीछे प्रशंसा करो और आवश्यकता के समय उसकी मदद अवश्य करो। -डॉ.मनोज चतुर्वेदी
(२७) जैसे छोटा सा तिनका हवा का स्र्ख़ बताता है वैसे ही मामूली घटनाएं मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। - महात्मा गांधी
(२८) देश-प्रेम के दो शब्दों के सामंजस्य में वशीकरण मंत्र है, जादू का सम्मिश्रण है। यह वह कसौटी है जिसपर देश भक्तों की परख होती है। -बलभद्र प्रसाद गुप्त ‘रसिक’
(२९) दरिद्र व्यक्ति कुछ वस्तुएं चाहता है, विलासी बहुत सी और लालची सभी वस्तुएं चाहता है। -अज्ञात
(३०) चंद्रमा अपना प्रकाश संपूर्ण आकाश में फैलाता है परंतु अपना कलंक अपने ही पास रखता है। -रवीन्द्र नाथ ठाकुर
(३१) जल में मीन का मौन है, पृथ्वी पर पशुओं का कोलाहल और आकाश में पंछियों का संगीत पर मनुष्य में जल का मौन पृथ्वी का कोलाहल और आकाश का संगीत सबकुछ है। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(३२) चरित्रहीन शिक्षा, मानवता विहीन विज्ञान और नैतिकता विहीन व्यापार ख़तरनाक होते हैं। -सत्यसांई बाबा
(३३) अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है। - प्रेमचंद
(३४) खातिरदारी जैसी चीज़ में मिठास जरूर है, पर उसका ढकोसला करने में न तो मिठास है और न स्वाद। -शरतचन्द्र
(३५) लगन और योग्यता एक साथ मिलें तो निश्चय ही एक अद्वितीय रचना का जन्म होता है । -मुक्ता
(३६) अनुभव, ज्ञान उन्मेष और वयस् मनुष्य के विचारों को बदलते हैं। -हरिऔध
(३७) मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(३८) प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(३९) मनुष्य क्रोध को प्रेम से, पाप को सदाचार से लोभ को दान से और झूठ को सत्य से जीत सकता है । -गौतम बुद्ध
(४०) स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है! -लोकमान्य तिलक
(४१) त्योहार साल की गति के पड़ाव हैं, जहां भिन्न-भिन्न मनोरंजन हैं, भिन्न-भिन्न आनंद हैं, भिन्न-भिन्न क्रीडास्थल हैं। -बस्र्आ
(४२) दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। -प्रेमचंद
(४३) अधिक हर्ष और अधिक उन्नति के बाद ही अधिक दुख और पतन की बारी आती है। -जयशंकर प्रसाद
(४४) द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। - विनोबा
(४५) सहिष्णुता और समझदारी संसदीय लोकतंत्र के लिये उतने ही आवश्यक है जितने संतुलन और मर्यादित चेतना । - डा शंकर दयाल शर्मा
(४६) सारा जगत स्वतंत्रताके लिये लालायित रहता है फिर भी प्रत्येक जीव अपने बंधनो को प्यार करता है। यही हमारी प्रकृति की पहली दुरूह ग्रंथि और विरोधाभास है। - श्री अरविंद
(४७) सत्याग्रह की लड़ाई हमेशा दो प्रकार की होती है । एक जुल्मों के खिलाफ और दूसरी स्वयं की दुर्बलता के विरूद्ध । - सरदार पटेल
(४८) तप ही परम कल्याण का साधन है। दूसरे सारे सुख तो अज्ञान मात्र हैं। - वाल्मीकि
(४९) भूलना प्रायः प्राकृतिक है जबकि याद रखना प्रायः कृत्रिम है। - रत्वान रोमेन खिमेनेस

(५०) हँसमुख चेहरा रोगी के लिये उतना ही लाभकर है जितना कि स्वस्थ ऋतु ।— बेन्जामिन
(५१) हम उन लोगों को प्रभावित करने के लिये महंगे ढंग से रहते हैं जो हम पर प्रभाव जमाने के लिये महंगे ढंग से रहते है ।— अनोन
(५२) कीरति भनिति भूति भलि सोई , सुरसरि सम सबकँह हित होई ॥— तुलसीदास
(५३) स्पष्टीकरण से बचें । मित्रों को इसकी आवश्यकता नहीं ; शत्रु इस पर विश्वास नहीं करेंगे ।— अलबर्ट हबर्ड
(५४) अपने उसूलों के लिये , मैं स्वंय मरने तक को भी तैयार हूँ , लेकिन किसी को मारने के लिये , बिल्कुल नहीं।— महात्मा गाँधी
(५५) विजयी व्यक्ति स्वभाव से , बहिर्मुखी होता है। पराजय व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है।— प्रेमचंद
(५६) अतीत चाहे जैसा हो , उसकी स्मृतियाँ प्रायः सुखद होती हैं ।— प्रेमचंद
(५७) अपनी आंखों को सितारों पर टिकाने से पहले अपने पैर जमीन में गड़ा लो |-– थियोडॉर रूज़वेल्ट
(५८) आमतौर पर आदमी उन चीजों के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहता है जिनका उससे कोई लेना देना नहीं होता |-– जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
(५९) स्वास्थ्य के संबंध में , पुस्तकों पर भरोसा न करें। छपाई की एक गलती जानलेवा भी हो सकती है । — मार्क ट्वेन
(६०) मानसिक बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है कि हृदय को घृणा से और मन को भय व चिन्ता से मुक्त रखा जाय ।— श्रीराम शर्मा , आचार्य
(६१) जिसका यह दावा है कि वह आध्यात्मिक चेतना के शिखर पर है मगर उसका स्वास्थ्य अक्सर खराब रहता है तो इसका अर्थ है कि मामला कहीं गड़बड़ है।- महात्मा गांधी
(६२) स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है ।
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम । ( यह शरीर ही सारे अच्छे कार्यों का साधन है / सारे अच्छे कार्य इस शरीर के द्वारा ही किये जाते हैं )
आहार , स्वप्न ( नींद ) और ब्रम्हचर्य इस शरीर के तीन स्तम्भ हैं । — महर्षि चरक
(६३) यदि आप इस बात की चिंता न करें कि आपके काम का श्रेय किसे मिलने वाला है तो आप आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं– हैरी एस. ट्रूमेन
(६४) श्रेष्ठ आचरण का जनक परिपूर्ण उदासीनता ही हो सकती है |-– काउन्ट रदरफ़र्ड
(६५) उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं। संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं । -गौतम बुद्ध
(६६) कबिरा आप ठगाइये , और न ठगिये कोय । आप ठगे सुख होत है , और ठगे दुख होय ॥ — कबीर

(६७) प्रत्येक मनुष्य में तीन चरित्र होता है. एक जो वह दिखाता है, दूसरा जो उसके पास होता है, तीसरी जो वह सोचता है कि उसके पास है |– अलफ़ॉसो कार
(६८) जिस राष्ट्र में चरित्रशीलता नहीं है उसमें कोई योजना काम नहीं कर सकती । — विनोबा
(६९) मनुष्य की महानता उसके कपडों से नहीं बल्कि उसके चरित्र से आँकी जाती है । — स्वामी विवेकानन्द
(७०) अनेक लोग वह धन व्यय करते हैं जो उनके द्वारा उपार्जित नहीं होता, वे चीज़ें खरीदते हैं जिनकी उन्हें जरूरत नहीं होती, उनको प्रभावित करना चाहते हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते। - जानसन

(७१) मुक्त बाजार में स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी न्याय, मानवाधिकार, पेयजल तथा स्वच्छ हवा की तरह ही उपभोक्ता-सामग्री बन चुकी है।यह उन्हें ही हासिल हो पाती हैं, जो उन्हें खरीद पाते हैं। वे मुक्त अभिव्यक्ति का प्रयोग भी उस तरह का उत्पादन बनाने में करते हैं जो सर्वथा उनके अनुकूल होता है। - अरुंधती राय
(७२) अध्ययन हमें आनन्द तो प्रदान करता ही है, अलंकृत भी करता है और योग्य भी बनाता है, मस्तिष्क के लिये अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी शरीर के लिये व्यायाम की | — जोसेफ एडिशन
(७३) पढने से सस्ता कोई मनोरंजन नहीं ; न ही कोई खुशी , उतनी स्थायी । — जोसेफ एडिशन
(७४) सही किताब वह नहीं है जिसे हम पढ़ते हैं – सही किताब वह है जो हमें पढ़ता है | — डबल्यू एच ऑदेन
(७५) पुस्तक एक बग़ीचा है जिसे जेब में रखा जा सकता है, किताबों को नहीं पढ़ना किताबों को जलाने से बढ़कर अपराध है | -– रे ब्रेडबरी
(७६) पुस्तक प्रेमी सबसे धनवान व सुखी होता है, संपूर्ण रूप से त्रुटिहीन पुस्तक कभी पढ़ने लायक नहीं होती। - जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
(७७) यदि किसी असाधारण प्रतिभा वाले आदमी से हमारा सामना हो तो हमें उससे पूछना चाहिये कि वो कौन सी पुस्तकें पढता है । — एमर्शन
(७८) किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं । –अज्ञात
(७९) चिड़ियों की तरह हवा में उड़ना और मछलियों की तरह पानी में तैरना सीखने के बाद अब हमें इन्सानों की तरह ज़मीन पर चलना सीखना है। - सर्वपल्ली राधाकृष्णन
(८०) हिन्दुस्तान का आदमी बैल तो पाना चाहता है लेकिन गाय की सेवा करना नहीं चाहता। वह उसे धार्मिक दृष्टि से पूजन का स्वांग रचता है लेकिन दूध के लिये तो भैंस की ही कद्र करता है |हिन्दुस्तान के लोग चाहते हैं कि उनकी माता तो रहे भैंस और पिता हो बैल। योजना तो ठीक है लेकिन वह भगवान को मंजूर नहीं है। - विनोबा
(८१) भारतीय संस्कृति और धर्म के नाम पर लोगों को जो परोसा जा रहा है वह हमें धर्म के अपराधीकरण की ओर ले जा रहा है। इसके लिये पंडे, पुजारी, पादरी, महंत, मौलवी, राजनेता आदि सभी जिम्मेदार हैं। ये लोग धर्म के नाम पर नफरत की दुकानें चलाकर समाज को बांटने का काम कर रहे हैं। - स्वामी रामदेव
(८२) ईश्वर ने तुम्हें सिर्फ एक चेहरा दिया है और तुम उस पर कई चेहरे चढ़ा लेते हो, जो व्यक्ति सोने का बहाना कर रहा है उसे आप उठा नहीं सकते | -– नवाजो
(८३) जब तुम्हारे खुद के दरवाजे की सीढ़ियाँ गंदी हैं तो पड़ोसी की छत पर पड़ी गंदगी का उलाहना मत दीजिए | -– कनफ़्यूशियस
(८४) सोचना, कहना व करना सदा समान हो, नेकी से विमुख हो जाना और बदी करना नि:संदेह बुरा है, मगर सामने हंस कर बोलना और पीछे चुगलखोरी करना उससे भी बुरा है । –संत तिस्र्वल्लुवर
(८५) यदि आपको रास्ते का पता नहीं है, तो जरा धीरे चलें | महान ध्येय ( लक्ष्य ) महान मस्तिष्क की जननी है । — इमन्स
(८६) जीवन में कोई चीज़ इतनी हानिकारक और ख़तरनाक नहीं जितना डांवांडोल स्थिति में रहना । — सुभाषचंद्र बोस!
(८७) जीवन का महत्व तभी है जब वह किसी महान ध्येय के लिये समर्पित हो । यह समर्पण ज्ञान और न्याययुक्त हो । –इंदिरा गांधी
(८८) विफलता नहीं , बल्कि दोयम दर्जे का लक्ष्य एक अपराध है । --अज्ञात
(८९) मनुष्य की इच्छाओं का पेट आज तक कोई नहीं भर सका है | – वेदव्यास
(९०) इच्छा ही सब दुःखों का मूल है | -– बुद्ध
(९१) भ्रमरकुल आर्यवन में ऐसे ही कार्य (मधुपान की चाह) के बिना नहीं घूमता है। क्या बिना अग्नि के धुएं की शिखा कभी दिखाई देती है ? - गाथासप्तशती
(९२) स्वप्न वही देखना चाहिए, जो पूरा हो सके । –आचार्य तुलसी
(९३) माया मरी न मन मरा , मर मर गये शरीर । आशा तृष्ना ना मरी , कह गये दास कबीर ॥ — कबीर
(९४) कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सदव्यवहार से होती है, हेकड़ी और स्र्आब दिखाने से नहीं । — प्रेमचंद
(९५) आंख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता । –चाणक्य
(९६) जहां प्रकाश रहता है वहां अंधकार कभी नहीं रह सकता । — माघ्र
(९७) जो दीपक को अपने पीछे रखते हैं वे अपने मार्ग में अपनी ही छाया डालते हैं । –रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(९८) जहाँ अकारण अत्यन्त सत्कार हो , वहाँ परिणाम में दुख की आशंका करनी चाहिये । — कुमार सम्भव
(९९) विवेक जीवन का नमक है और कल्पना उसकी मिठास । एक जीवन को सुरक्षित रखता है और दूसरा उसे मधुर बनाता है । –अज्ञात
(१००) मेहनत करने से दरिद्रता नहीं रहती, धर्म करने से पाप नहीं रहता, मौन रहने से कलह नहीं होता और जागते रहने से भय नहीं होता | –चाणक्य
(१०१) आपत्तियां मनुष्यता की कसौटी हैं । इन पर खरा उतरे बिना कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता । –पंडित रामप्रताप त्रिपाठी
(१०२) कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं। जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं, वे विजयी होते हैं । –लोकमान्य तिलक
(१०३) प्रकृति, समय और धैर्य ये तीन हर दर्द की दवा हैं । — अज्ञात
(१०४) जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिये | — वेदव्यास
(१०५) जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं । –गौतम बुद्ध
(१०६) वही उन्नति करता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है। -स्वामी रामतीर्थ
(१०७) अपने विषय में कुछ कहना प्राय:बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को । –महादेवी वर्मा
(१०८) जैसे अंधे के लिये जगत अंधकारमय है और आंखों वाले के लिये प्रकाशमय है वैसे ही अज्ञानी के लिये जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिये आनंदमय | — सम्पूर्णानंद
(१०९) बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिये, मंद नहीं पड़ना चाहिये । — यशपाल
(११०) कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढाती है । — वीर सावरकर
(१११) जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान है , न ज्ञान है , न शील है , न गुण है और न धर्म है ; वे मृत्युलोक पृथ्वी पर भार होते है और मनुष्य रूप तो हैं पर पशु की तरह चरते हैं (जीवन व्यतीत करते हैं ) । — भर्तृहरि
(११२) मनुष्य कुछ और नहीं , भटका हुआ देवता है । — श्रीराम शर्मा , आचार्य
(११३) मानव तभी तक श्रेष्ठ है , जब तक उसे मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है । बतौर पशु , मानव किसी भी पशु से अधिक हीन है। — रवीन्द्र नाथ टैगोर
(११४) आदर्श के दीपक को , पीछे रखने वाले , अपनी ही छाया के कारण , अपने पथ को , अंधकारमय बना लेते हैं। — रवीन्द्र नाथ टैगोर
(११५) क्लोज़-अप में जीवन एक त्रासदी (ट्रेजेडी) है, तो लंबे शॉट में प्रहसन (कॉमेडी) | -– चार्ली चेपलिन
(११६) आपके जीवन की खुशी आपके विचारों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है | -– मार्क ऑरेलियस अन्तोनियस
(११७) हमेशा बत्तख की तरह व्यवहार रखो. सतह पर एकदम शांत , परंतु सतह के नीचे दीवानों की तरह पैडल मारते हुए | -– जेकब एम ब्रॉदे
(११८) जैसे जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, सुंदरता भीतर घुसती जाती है | -– रॉल्फ वाल्डो इमर्सन
(११९) अव्यवस्था से जीवन का प्रादुर्भाव होता है , तो अनुक्रम और व्यवस्थाओं से आदत | -– हेनरी एडम्स
(१२०) दृढ़ निश्चय ही विजय है, जब आपके पास कोई पैसा नहीं होता है तो आपके लिए समस्या होती है भोजन का जुगाड़. जब आपके पास पैसा आ जाता है तो समस्या सेक्स की हो जाती है, जब आपके पास दोनों चीज़ें हो जाती हैं तो स्वास्थ्य समस्या हो जाती है और जब सारी चीज़ें आपके पास होती हैं, तो आपको मृत्यु भय सताने लगता है | -– जे पी डोनलेवी
(१२१) दुनिया में सिर्फ दो सम्पूर्ण व्यक्ति हैं – एक मर चुका है, दूसरा अभी पैदा नहीं हुआ है |







21.3.16

महापुरुषों के उपदेश और अमृत वचन



*देवता न बड़ा होता है, न छोटा, न शक्तिशाली होता है, न अशक्त । वह उतना ही बड़ा होता है जितना बड़ा उसे उपासक बनाना चाहता है। - हज़ारीप्रसाद द्विवेदी (पुनर्नवा, पृ. 22)
*संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया। -शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (शेष परिचय,पृ.31)
*परंपरा को स्वीकार करने का अर्थ बंधन नहीं, अनुशासन का स्वेच्छा से वरण है। -विद्यानिवास मिश्र (परंपरा बंधन नहीं, पृ.53 )
*असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। -महादेवी वर्मा (सप्तपर्णा, पृ.49)
हम ऐसा मानने की ग़लती कभी न करें कि अपराध, आकार में छोटा या बड़ा होता है। -महात्मा गाँधी (बापू के आशीर्वाद, 268)
*मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि प्रासादों का भिखारी भी कुटी का अतिथि बनना स्वीकार नहीं करेगा। -महादेवी वर्मा (दीपशिखा, चिंतन के कुछ क्षण)
*केवल हृदय में अनुभव करने से ही किसी चीज़ को भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता । सभी चीज़ों को कुछ सीखना पड़ता है और यह सीखना सदा अपने आप नहीं होता । -शरतचन्द्र (शरत पत्रावली, पृ. 60)
*सभी लोग हिंसा का त्याग कर दें तो फिर क्षात्रधर्म रहता ही कहाँ है ? और यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो जाता है तो जनता का कोई त्राता नहीं रहेगा । -लोकमान्य तिलक (गीतारहस्य, पृ.32)
*पश्चिम में आने से पहले भारत को मैं प्यार ही करता था, अब तो भारत की धूलि ही मेरे लिए पवित्र है। भारत की हवा मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए तीर्थ है। - विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 5, पृष्ठ 203)
*देश की सेवा करने में जो मिठास है, वह और किसी चीज़ में नहीं है। - सरदार पटेल (सरदार पटेल के भाषण, पृष्ठ 259)
*अपने देश या अपने शासक के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरित देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देशभक्ति है। - महात्मा गाँधी (सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 41, पृष्ठ 590)
*देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है। -महात्मा गाँधी (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ. 515)
*प्रत्येक भारतवासी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह ऐसा न समझे कि अपने और अपने परिवार के खाने-पहनने भर के लिए कमा लिया तो सब कुछ कर लिया। उसे अपने समाज के कल्याण के लिए दिल खोलकर दान देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। - महात्मा गाँधी (इंडियन ओपिनियन, दिनांक अगस्त 1903)
*गंगा की पवित्रता में कोई विश्वास नहीं करने जाता। गंगा के निकट पहुँच जाने पर अनायास, वह विश्वास पता नहीं कहाँ से आ जाता है। -लक्ष्मीनारायण मिश्र (गरुड़ध्वज, पृ0 79)
*सत्य, आस्था और लगन जीवन-सिद्धि के मूल हैं। -अमृतलाल नागर (अमृत और विष, पृ0 437)
*उदारता और स्वाधीनता मिल कर ही जीवनतत्त्व है। -अमृतलाल नागर (मानस का हंस, पृ0 367)
*जीवन अविकल कर्म है, न बुझने वाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं। -भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, पृ0 24)
  *न ही किसी मंदिर की *जरूरत है और न ही किसी जटिल दर्शनशास्त्र की। मेरा मस्तिष्क और मेरा हृदय ही मेरा मंदिर है और करुणा ही मेरा दर्शनशास्त्र है।
*शांति हमारे अंदर से आती है। आप इसे कहीं और न तलाशें।
*अध्यात्मिकता का एकमात्र उद्देश्य आत्म अनुशासन है। हमें दूसरों की आलोचना करने के बजाय खुद का मूल्यांकन और आलोचना करनी चाहिए।
*मैं इस बात को लेकर चिंतित नहीं रहता कि ईश्वर मेरे पक्ष में है या नहीं। मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि मैं ईश्वर के पक्ष में रहूं, क्योंकि ईश्वर हमेशा सही होते हैं।
*आपका सबसे व्यर्थ समय वो है, जिसे आपने बिना हंसे बिता दिया।
*हमारे निर्माता ईश्वर ने हमारे मस्तिष्क और व्यक्तित्व में विशाल क्षमता और योग्यता संग्रहित की है। प्रार्थना के जरिए हम इन्हीं शक्तियों को पहचान कर उसका विकास करते हैं।
*अतीत पर ध्यान केंद्रित मत करो, भविष्य का सपना भी मत देखो। वर्तमान क्षण ध्यान केंद्रित करो।
*यह देश, धर्म, दर्शन और प्रेम की जन्मभूमि है। ये सब चीजें अभी भी भारत में विद्यमान है। मुझे इस दुनिया की जो जानकारी है, उसके बल पर दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूँ कि इन बातों में भारत अन्य देशों की अपेक्षा अब भी श्रेष्ठ है।
*दूसरों से सहायता की आशा करना या भीख माँगना किसी दुर्बलता का चिन्ह है। इसलिये बंधुओं निर्भयाता के साथ यह घोषणा करो की हिंदुस्तान हिंदुओं का ही है। अपने मन की दुर्बलता को बिल्कुल दूर भगा दो।*
*किसी देश की उन्नति छोटे विचार के बड़े आदमियों पर नही, अपि‍तु बड़े विचार के छोटे आदमियों पर निर्भर है।" - स्वामी  रामतीर्थ

*हम हमेशा अपनी कमजोरी को अपनी शक्ति बताने की कोशिश करते हैं, अपनी भावुकता को प्रेम कहते हैं, अपनी कायरता को धैर्य।- विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, भाग 10, पृ. 220)
*चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शूद्र से भी बढ़कर है। जो अग्निहोत्र में तत्पर और जितेन्द्रिय है, उसे "ब्राह्मण" कहा जाता है।- वेदव्यास (महाभारत, वनपर्व, 313/111)
*गुणशीलता, तात्कालिक परिस्थिति तथा भविष्य का विचार करके शीघ्रता तथा दीर्घसूत्रता दोनों को छोड़कर, देश-काल के अनुकूल अपना कार्य करना चाहिए।- भास (अविमारक, 1/9 के पश्चात)
*राम शब्द के उच्चार से लाखों-करोड़ों हिन्दुओं पर फौरन असर होगा। और "गॉड" शब्द का अर्थ समझने पर भी उसका उन पर कोई असर न होगा। चिरकाल के प्रयोग से और उनके उपयोग के साथ संयोजित पवित्रता से शब्दों  को शक्ति प्राप्त  होती है। -महात्मा गांधी (हिन्दी नवजीवन, 19-6-1936)काले खलु समारब्धा फलं बध्नन्ति नीतय: अर्थात ठीक समय पर प्रारम्भ की गई नीतियां अवश्य ही फल प्रदान करती हैं। -कालिदास (रघुवंश, 12/69)

हर घड़ी खुद से उलझना मुकद्दर है मेरा
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ओला-मैथिली शरण गुप्त
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-
विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"
यात्रा और यात्री - हरिवंशराय बच्चन
शक्ति और क्षमा - रामधारी सिंह "दिनकर"
राणा प्रताप की तलवार -श्याम नारायण पाण्डेय
वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल
कुछ बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है-- राहुल प्रसाद (महुलिया पलामू)
पथहारा वक्तव्य - अशोक वाजपेयी
कितने दिन और बचे हैं? - अशोक वाजपेयी
उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
राधे राधे श्याम मिला दे -भजन
ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का
हम आपके हैं कौन - बाबुल जो तुमने सिखाया-Ravindra Jain
नदिया के पार - जब तक पूरे न हो फेरे सात-Ravidra jain
जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक
जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन
अँखियों के झरोखों से - रविन्द्र जैन
किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है - साहिर लुधियानवी
सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक
वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा
प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक
गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन
सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
हम पंछी उन्मुक्त गगन के-शिवमंगल सिंह 'सुमन'
जंगल गाथा -अशोक चक्रधर
मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर
सूरदास के पद
रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक
घाघ कवि के दोहे -घाघ
मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी
बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक
प्रेयसी-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
राम की शक्ति पूजा -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
आत्‍मकथ्‍य - जयशंकर प्रसाद
गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ॰दयाराम आलोक
बिहारी कवि के दोहे
झुकी कमान -चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'
कबीर की साखियाँ - कबीर
भक्ति महिमा के दोहे -कबीर दास
गुरु-महिमा - कबीर
तु कभी थे सूर्य - चंद्रसेन विराट
सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
बीती विभावरी जाग री! jai shankar prasad
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
मैं अमर शहीदों का चारण-श्री कृष्ण सरल
हम पंछी उन्मुक्त गगन के -- शिवमंगल सिंह सुमन
उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
रश्मिरथी - रामधारी सिंह दिनकर
डॉ.दयाराम आलोक : साहित्य सृजन एवं दर्जी समाज उन्नायक अनुष्ठान
सुदामा चरित - नरोत्तम दास
अरुण यह मधुमय देश हमारा -जय शंकर प्रसाद
यह वासंती शाम -डॉ.आलोक
तुमन मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है.- डॉ॰दयाराम आलो
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"
सूरज पर प्रतिबंध अनेकों , कुमार विश्वास
रहीम के दोहे -रहीम कवि
जागो मन के सजग पथिक ओ! , फणीश्वर नाथ रेणु
रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

महाभारत के शिक्षाप्रद वचन



1-किया हुआ पाप स्वीकार कर लेने या कह देने से, शुभ कर्म करने से, पश्चाताप करने से, दान और तप करने से नष्ट होने लगता है।
धर्मराज युधिष्ठिर, महाभारत, शांतिपर्व, 7-36
2-हम आज जो पाप बटोर रहे हैं, कल वह हमारे लिए विकट कष्टों (जन्म और मृत्यु) का कारण बनेगा।
धर्मराज युधिष्ठिर, महाभारत, शांतिपर्व, 7-41
3-अर्जुन ! पृथ्वी का शासन तुम करो, मुझे राज्य और भोगों से कोई मतलब नहीं है।
धर्मराज युधिष्ठिर, महाभारत, शांतिपर्व, 7-42
4- जगत में निर्धनता को धिक्कार है। सर्वस्व त्यागकर निर्धन या अकिंचन हो जाना यह संतों और मुनियों का धर्म है, राजाओं का नहीं।
महाराजा नहुष, महाभारत, शांतिपर्व, 8-11
5-जिस राज्य का धन समाप्त हो जाता है उसके धर्म का भी संहार हो जाता है। कोई हमारे धन-धर्म का अपहरण करे तो उसे क्षमा कैसी?
अर्जुन, महाभारत, शांतिपर्व, 8-13
6-दरिद्रं पातकं लोके….
दरिद्र मनुष्य पास में खड़ा हो तो लोग इस तरह उसकी ओर देखते हैं मानो उससे बड़ा पापी कोई नहीं। अतएव दरिद्रता जगत में महापाप है, मेरे सामने दरिद्रता की प्रशंसा न करें।
अर्जुन का युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 8-14
7-पर्वतों से बहुत-सी नदियां बहती रहती हैं, उसी प्रकार बढ़े हुए संचित धन से सब प्रकार के शुभ कर्मों का अनुष्ठान होता रहता है।
अर्जुन, महाभारत, शांतिपर्व, 8-16
8-राजा को चाहिए कि प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करे, विद्वान बने और येन-केन-प्रकारेण संग्रह कर राज्य में धन का निवेश करे और प्रजा के कल्याण के लिए यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करे। राजा के लिए दूसरे देश के धन का अपहरण सर्वथा उचित है।
अर्जुन का युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 8-26,27
9-राजा का पुनीत कर्तव्य है कि वह साम्राज्य विस्तार करे। सभी राजा पृथ्वी-विजय करते हैं। जीतने के बाद कहते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। ठीक वैसे ही जैसे पुत्र पिता के धन को अपना बताता है। यही राजधर्म है।
अर्जुन का युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 8-31
10-जैसे भरे हुए महासागर से जल निकल कर संपूर्ण पृथ्वी पर फैल जाता है उसी प्रकार राजा को चाहिए कि उसके द्वारा एकत्रित धन उसके संपूर्ण राज्य में फैल जाए।
अर्जुन का युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 8-32
11-कुछ मिले या न मिले, न तो जीवन का अभिनन्दन करूंगा और न मृत्यु से द्वेष। दोनों के प्रति मेरा भाव समान है। इस अपार संसार में त्यागी को ही सुख है।
सम्राट युधिष्ठिर का अर्जुन को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 9-25,33
12- जीवन में विवेक अमृत समान है। इससे अक्षय, अविकारी एवं सनातन पद प्राप्त हो जाता है।
सम्राट युधिष्ठिर का अर्जुन को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 9-25,36
13-राजा को अपने राजधर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए वरन् अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
भीम का सम्राट युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 10-2
14-बुढ़ापे से जर्जरित होने पर, आपत्तिकाल में अथवा शत्रु द्वारा धन-संपत्ति से वंचित कर दिए जाने पर मनुष्य को संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए।
भीम का सम्राट युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 10-17
15-अकर्मण्य पुरूष को कभी कोई सिद्धि नहीं मिलती। उसी प्रकार राजा को मौनी बाबा बनकर अपने स्वधर्म अर्थात् कर्तव्य से नहीं हटना चाहिए।
भीम का सम्राट युधिष्ठिर को उपदेश, महाभारत, शांतिपर्व, 10-21,26