प्राचीन समय में जब परिवहन का कोई साधन नही था तब नावों की ही सहायता से दूर तक यात्रा संभव हो पाती थी। नाव केवल यात्रा करने के लिए नहीं बल्कि व्यापार और सैन्य सेवाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कल्पना कीजिए कि कोलंबस और वास्कोडिगामा के पास नाव नहीं होती तो क्या होता? तो भारत का दुनिया के दूसरे हिस्से से कभी परिचय नहीं हो पाता। पूरी दुनिया में कई प्रतापी राजा हुए जिन्होंने अपने साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाया बिना जो बिना नावों के असंभव था। एक देश से दूसरे देश तक व्यापार नावों से ही संभव हो पाया। हम कह सकते हैं नावों के बिना मानव और समाज का इतना जल्दी विकास नहीं हो पाता।नाव को चलाने का काम करने वाले को ही मल्लाह ,केवट ,मांझी कहते हैं | जो साहसी, निडर और कुशल गोताखोर हो वही यह काम कर सकता है। दुनियाभर के इन नाविकों को हम मल्लाह, केवट एवं माझी जैसे नामों से जानते हैं। मल्लाह कोई जाति नहीं बल्कि उन लोगों का समुह है जो नाव चलाने का काम करते हैं। हजारों सालों से नाव चलाना वंशानुगत हो जाने के कारण भारत में मल्लाह जाति बन गई। भले ही आज समाज विकसित हो गया है, यातायात के कई साधन आज उपलब्ध हैं, पर सभ्यता के निर्माण में क्या मल्लाहों के योगदान को भुलाया जा सकता हंै? ये लोग विश्वास करते हैं कि इनके पूर्वज पहले गंगा के तटों पर या वाराणसी अथवा इलाहाबाद में रहते थे। बाद में यह जाति मध्य प्रदेश के शहडोल, रीवा, सतना, पन्ना, छतरपुर और टीकमगढ़ जिलों में आकर बस गये। इनके बोलचाल की भाषा बुन्देली है। ये देवनागरी लिपि का उपयोग करते हैं। ये सर्वाहारी होते हैं तथा मछली, बकरा एवं सुअर का गोश्त खाते हैं। इनके गोत्र कश्यप, सनवानी, चौधरी, तेलियागाथ, कोलगाथ हैं। मल्लाह भारतवर्ष की यह एक आदिकालीन मछुआरा जाति है। मल्लाह जाति मूल रूप से आज हिन्दू धर्म से सम्बंधित है। यह शिकारी जाति है। यह जाति प्राचीनकाल से जल जंगल और जमीन पर आश्रित है। चूँकि यह जाति मुख्यत: जल से सम्बंधित व्यवसाय कर अपना जीवनयापन करते हैं, इस लिए मल्लाह, ‘मछुआरा’, केवटबिन्द, निषाद आदि नाम से जाना जाता है।
मल्लाह जाति के सरनेम
मल्लाह जाति के लोग अलग-अलग सरनेम /उपनाम लगाते हैं इनमें प्रमुख है मल्लाह, केवट राज, निषाद राज, बिंद, धीवर, साहनी, चौधरी, इत्यादी। उत्तर प्रदेश के लोग निषाद उपनाम का उपयोग ज्यादा करते हैं बिहार में साहनी, निषाद दोनों उपनामों का प्रयोग करते हैं, पंजाब चंडीगढ़, हरियाणा, लुधियाना राजस्थान आदि जगहों पर चौधरी उपनामों से जाने-जाते हैं। छत्तीसगढ़ में इन्हें निषाद, जलछत्री और पार्कर भी कहा जाता है। वहीं असम में इन्हें पहले ‘हलवा केओत’ के नाम से जाना जाता था, लेकिन आजकल वहां इस जाति के लोग खुद को केवट कहते हैं।
कैसे हुई मल्लाह शब्द की उत्पति?
मल्लाह, निषाद शब्द की तुलना में काफी आधुनिक शब्द है। यह एक अरबी शब्द ‘मल्लाह’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘एक पक्षी की तरह अपने पंख को हिलाना’ हालांकि प्रसिद्ध इतिहासकार विलियम क्रुक के अनुसार यह शब्द विशुद्ध रूप से एक व्यावसायिक शब्द है जिसका उपयोग मुख्य रूप से नौका विहार और मछली पकड़ने के जल केंद्रित व्यवसाय से जुड़े बड़े समुदाय के लिए किया जाता था। अरबी भाषा कि उत्पति लगभग 1500-2000 साल पुराना है तो हम मल्लाह शब्द के उत्पति का यही काल मान सकते हैं। ऐसा संभव है कि अरबी लोगों के दुनिया के दूसरे हिस्से से मेलजोल के कारण ही नाव चलाने वाले लोगों को मल्लाह कहकर बुलाया जाने लगा होगा। ये अलग बात है कि ज्यादातर मल्लाह लोग अपने पुश्तैनी काम को छोड़ चुके हैं। मल्लाह लोग आज हर क्षेत्र जैसे शिक्षा, राजनीति, व्यवसाय में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ये उत्तर भारत, पूर्वी भारत, पूर्वोत्तर भारत और पाकिस्तान में मुख्य रूप से पाए जाते हैं। मछुआरा (मछली मारने वाले) वर्ग से मिलती जुलती कुछ जातियां (उपजातियां) है जैसे केवट, चांय, बिंद, जलिया कैबर्ता, ढीमर, माझी इत्यादि। मछुआरों कि ये उपजातियां अब पूरे देश में अलग-अलग नामों से जानी जाती हैं।
मल्लाह लोगों का शुरूआती जीवनयापन
जाति इतिहासकार डॉ. दयाराम आलोक के अनुसार मल्लाह नाव चलाने चलाने वाली जाति है| वे लोग नदी के किनारे रहते थे। रेत पर उगने वाले फलों और सब्जियों जैसे तरबुज, ककड़ी, कद्दू इत्यादि की खेती करते थे। इनमें से कुछ लोग मछलियां भी पकड़ते थे और इसलिए इनके पास नाव होता था। वे कभी-कभी कुछ लोगों को नदी भी पार करा दिया करते थे। प्राचीन जमाने में परिवहन साधन की कमी के कारण नाव चलाना उनके लिए काफी फायदे का सौदा बन गया होगा और इस तरह से वे नाविक बन गए। ये कोई अपरिचित जाति नहीं है बल्कि यह परंपरागत रूप से बहादुर जाति है।
डोली उठाने और बुनकरी का काम
नदी के किनारे रहने वाले यह लोग शादियों में डोली उठाने का भी काम भी करते थे उस समय अक्सर डोली लूट ली जाती थी। डोली उठाने के लिए उन्हें कहा जाता था शारीरिक जो सारे रूप से मजबूत और साहसी होते थे। मल्लाहों ने इस काम को बखूबी से किया। 1871 के आसपास दूसरे परिवहनों के आ जाने से और नदियों से जुड़े काम से पैसे कमाने के संसाधनो में कमी हो जाने से मल्लाहों ने बुनकरों का काम भी करना शुरू किया।
बिहार में जुब्बा सहनी इस जाति के आदर्श नायक माने जाते हैं, जिन्होंने संयुक्त बिहार के उत्तर बिहार में अंग्रेजों और सामंतों के खिलाफ बिरसा मुंडा ने आंदोलन किया | इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में बतौर जाति कुछ खास उल्लेखित नहीं है। यह बात अलग है कि यदि इस जाति के लोगों को अतीत के पन्नों पर लिखने की आजादी होती तो ये अपने बारे में जरूर लिखते। मल्लाहो ने नदियों और समंदरों पर विजय पाई। इन्होंने ही मानव सभ्यता को पूरी दुनिया में विस्तारित किया। लेकिन ये समुदाय संगठित नहीं हैं, क्योंकि इनकी पहचान एक जैसी नहीं है।
ये जातियां बेशक अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं, लेकिन हकीकत यही है कि ये न केवल सरकारी नौकरियों में बल्कि सियासत में भी हाशिए पर धकेल दिए गए हैं| प्रसिद्ध नृवंशविज्ञानी, रसेल और हिरालाल के अनुसार केवट एक मिश्रित जाति हैं और इनका संबंध आर्यों से कभी नहीं रहा। ये तो यहां के मूलनिवासी रहे हैं। एचएच रिज्ले ने अपनी किताब ‘बंगाल के जनजाति और जाति’ में इसे रेखांकित किया है कि इनका आदिवासियों से रक्त संबंध रहा है। लेकिन मौजूदा दौर में वास्तविकता यह है कि अलग-अलग राज्यों में ये अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं।
अब इस जनजातीय संस्कृति वाले जाति समूह का ब्राह्मणीकरण करने में वर्चस्ववादियों को सफलता मिल चुकी है। इस जाति के अधिसंख्य लोग खुद को आदिवासी नहीं मानते। कहीं-कहीं आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग करते हैं, लेकिन दलित कहलाना पसंद नहीं करते। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो इन्हें राम से, त्रिपुरा में शैव परंपरा से जोड़ दिया गया है। जबकि असम में इन्हें वैष्णव संत शंकरादेव का अनुयायी बता दिया है।
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