अक्सर इस बात पर बहस होते हुए देखी गयी है कि आखिर मरनें के बाद मनुष्य की आत्मा का क्या होता है। आत्मा शरीर से किस तरह से निकलती है, उसे किसी ने आजतक नहीं देखा है। हालांकि कुछ लोग आत्मा को देखनें का दावा जरुर करते हैं, लेकिन उनकी सच्चाई पर भ्रम होता है। धर्म के अनुसार यह सास्वत सत्य है कि आत्मा एक शरीर से दूसरा शरीर बदलती रहती है। शरीर बुढा होकर मर जाता है, लेकिन आत्मा हमेशा जीवित रहती है।
किंतु योगियों के अनुसार जीवन का ना तो कभी प्रारंभ होता है और ना ही कभी अंत लोग जिसे मृत्यु कहते हैं वह मात्र उस शरीर का अंत है । जो प्रकृति के पांच तत्व पृथ्वी जल वायु अग्नि और प्रकाश से मिलकर बना होता है।
ऐसा माना जाता है कि मानव शरीर नश्वर है । जिसने जन्म लिया है उसे एक ना एक दिन अपने प्राण त्यागने ही पड़ते हैं । लेकिन मृत्यु के पश्चात जब शव को अंतिम विदाई दे दी जाती है तो ऐसे में शरीर छोड़ने के बाद आत्मा कहां जाती है
हालांकि जो लोग पुनर्जन्म पर यकीन नहीं करते हैं, उनके लिए इस बात पर भरोसा करना काफी मुश्किल होता है कि आत्मा अजर-अमर है। आत्मा कभी भी मरती नहीं है। किस्से कहानियों में आत्मा के अलग-अलग रूपों के बारे में बताया गया है, लेकिन आत्मा सच में कैसी होती है, इसके बारे में कोई नहीं जानता है। हालांकि जो पहले रहस्य था आज उस रहस्य से पर्दा उठ चुका है। आत्मा के बारे में कई तरह के सवाल उठते रहते हैं।
आत्मा का रंग-रूप, आकार, उसका स्वरुप, आत्मा कैसी दिखती है ये तमाम तरह के सवाल हर व्यक्ति के मन में उठते रहते हैं। हाल ही में रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक कोंस्तांतिन कोरोत्को ने एक प्रयोग के द्वारा यह साबित किया है कि आत्मा का स्वरुप कैसा होता है और वह किस तरह से शरीर को त्यागती है। कोंस्तांतिन कोरोत्को ने बायोइलेक्ट्रोग्राफी कैमरे से जीवन की अंतिम साँसे गिन रहे व्यक्तियों के पलों को कैप्चर करनें के बारे में सोचा।
सबसे पहले ख़त्म होती है मस्तिष्क और नाभि की उर्जा:
किरकियन फोटोग्राफी की मदद से कोंस्तांतिन कोरोत्को ने देखा कि जब व्यक्ति मरनें वाला होता है तो सबसे पहले उसके मस्तिष्क और नाभि की उर्जा ख़त्म होती है। आखिर में जांघ और हृदय की उर्जा ख़त्म होती है। जिन लोगों की मौत अचानक या हिंसात्मक तरीके से होती है, उनकी आत्मा सामान्य से अलग तरीके से निकलती है। कोंस्तांतिन कोरोत्को के अनुसार जिन लोगों की मौत अचानक या लम्बी बीमारी की वजह से होती है, आत्मा छोड़ते समय उनकी उर्जा का ह्रास बहुत कम हुआ होता है।
इसलिए यह माना जाता है कि उन लोगों की आत्मा दुविधा में रहते हुए शरीर छोड़ती है। उनके शरीर के किस हिस्से की मौत सबसे पहले होगी, यह बात तय नहीं हो पाती है। सेंट पीटर्सबर्ग स्थित रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजिकल कल्चर के निर्देशक कोंस्तांतिन कोरोत्को द्वारा विकसित की गयी यह तकनीक रूस के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा समर्थित की गयी है। लगभग 300 डॉक्टर इस तकनीक के माध्यम से कैंसर पीड़ित लोगों की नाजुक हालत पर नजर रखे हुए हैं।
मरने के बाद आत्मा कहां जाती है
एक बार अपने शरीर को त्यागने के बाद वापस शरीर में प्रदर्शित होना असंभव है । मौत के बाद की दुनिया कैसी होती है ये अभी तक एक रहस्यमयी से बना हुआ है । लेकिन गीता के उपदेशों में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा अमर है।
उसका अंत नहीं होता वाह सिर्फ शरीररूपी वस्त्र बदलती है लेकिन गरुड़ पुराण जो मरने के पश्चात आत्मा के साथ होने वाले व्यवहार की व्याख्या करता है। उसके अनुसार जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैं।
मानव आपने जीवन मे जो कर्म करता है यमदूत उसे उसके अनुसार अपने साथ ले जाते हैं। अगर मरने वाला सजन है पुण्य आत्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है। लेकिन अगर वो दुराचारी या पापी हो तो उसे पीड़ा सहनी पड़ती है ।
मरने के बाद आत्मा कितने दिन तक भटकती है
गरूड़ पुराण में यह उल्लेख भी मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं और इन 24 घंटो के दौरान आत्मा को दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं।
इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है । जहां उसने शरीर का त्याग किया था इसके बाद 13 दिन के सरात तक वह वही रहता है ।
13 दिन बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है । वही पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं । उस आत्मा को किस मार्क चलाया जाएगा । ये केवल उसके कर्मो पर निर्भर करता है ।
अर्चि मार्ग : ब्रह्मलोक और देव लोक की यात्रा के लिए होता है ।
धूम मार्ग : पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है।
उत्पत्ति विनाश मार्ग : नरक की यात्रा के लिए है।
द, स्मृति और पुराणों अनुसार आत्मा की गति और उसके किसी लोक में पहुंचना का वर्णन अलग-अलग मिलता है। हम हां पौराणिक मत को जानेंगे लेकिन पहले संक्षिप्त में वैदिक मत भी जान लें जो कि गति के संदर्भ में है।
दिक ग्रंथ के अनुसार आत्मा पांच तरह के कोश में रहती है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय। इन्हीं कोशों में रहकर आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मुख्यतौर पर उसकी तीन तरह की गतियां होती हैं-
1.उर्ध्व गति,
2.स्थिर गति और
3.अधोगति।
इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है।
1.उर्ध्व गति :
1.उर्ध्व गति :
इस गति के अंतर्गत व्यक्ति उपर के लोक की यात्रा करता है। ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जिसने जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में खुद को साक्षी भाव में रखा है या निरंतर भगवान की भक्ति की है। ऐसे व्यक्ति पितृ या देव योनी के सुख भोगकर पुन: धरती पर जन्म लेता है।
2.स्थिर गति :
इस गति का अर्थ है व्यक्ति मरने के बाद न ऊपर के लोक गया और न नीचे के लोक में। अर्थात उसे यहीं तुरंत ही जन्म लेना होगा। यह जन्म उसका मनुष्य योनी का ही होगा।
3.अधोगति :
3.अधोगति :
जिस व्यक्ति ने किसी भी प्रकार का पाप करके या नशा करके अपनी चेतना या होश के स्तर को नीचे गिरा लिया है वह नीचे के लोकों की यात्रा करता है। रेंगने वाले, कीड़े, मकोड़े या गहरे जल में रहने वाले जीव-जंतु अधोगति का ही परिणाम है।
अब जानिए पौराणिक मान्यता:-
अब जानिए पौराणिक मान्यता:-
पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है।
ये तीन मार्ग हैं-
अर्चि मार्ग,
धूम मार्ग और
उत्पत्ति-विनाश मार्ग।
अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।
आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है। गरूड़ पुराण में यमपुरी के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख मिलता है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुंच जाता है अन्यथा इस नदी में वे डूबते रहते हैं और यमदूत उन्हें निकालकर धक्का देते रहते हैं।
यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।
यमलोक के चार द्वार है। चार मुख्य द्वारों में से दक्षिण के द्वार से पापियों का प्रवेश होता है। यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं। पश्चिम का द्वार ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो। उत्तर के द्वार से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो। पूर्व के द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है। इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं।
माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मरता है तो सबसे पहले वह गहरी नींद के हालात में ऊपर उठने लगता है। जब आंखें खुलती हैं तो वह स्वयं की स्थिति को समझ नहीं पाता है। कुछ जो होशवान हैं वे समझ जाते हैं। मरने के 12 दिन के बाद यमलोक के लिए उसकी यात्रा शुरू होती है। वह हवा में स्वत: ही उठता जाता है, जहां रुकावट होती है वहीं उसे यमदूत नजर आते हैं, जो उसे ऊपर की ओर गमन कराते हैं।
आत्माओं के मरने की दिशा उसके कर्म और मरने की तिथि अनुसार तय होती है। जैसे कृष्ण पक्ष में देह छोड़ दी है तो उस काल में दक्षिण और उसके पास के द्वार खुले होते हैं, लेकिन यदि शुक्ल में देख छोड़ी है तो उत्तर और उसके आसपास के द्वार खुले होते हैं। लेकिन तब कोई नियम काम नहीं करता जबकि व्यक्ति पाप से भरा हो। शुक्ल में मरकर भी वह दक्षिण दिशा में गमन करता है। इसके अलावा उत्तरायण और दक्षिणायन सबसे ज्यादा महत्व होता है।
उत्तरायण में मरने वाले : चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वती आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पुरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा को भगवान विष्णु के दर्शन होते हैं जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज, नीलाभ रूप में अपने महाप्रासाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं। ऐसी शुभ आत्मा स्वर्ग का अनुभव करती है और उसे शांति व स्थिरता मिलती है। स्वर्ग में रहने के पश्चात वह किसी अच्छे समय में पुन: अच्छे कुल और स्थान में जन्म लेती है।
दक्षिणायन में मरने वाले : जो लोग पापी और अधर्मी हैं जिन्होंने जीवनभर शराब, मांस और स्त्रीगमन के अलावा कुछ नहीं किया, जिन्होंने धर्म का अपमान किया और जिन्होंने कभी भी धर्म के लिए पुण्य का कोई कार्य नहीं किया वे मरने के बाद स्वत: ही दक्षिण दिशा की ओर खींच लिए जाते हैं। ऐसे पापियों को सबसे पहले तप्त लौहद्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करना होती है।
नदी पार करने के बाद दक्षिण द्वार से भीतर आने पर वे अत्यंत विस्तीर्ण सरोवरों के समान नेत्र वाले, धूम्र वर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करने वाले, ज्वालामय रोमधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दंतयुक्त, संडसी जैसे नखों वाले, चर्म वस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि भयंकरतम वेश में यमराज को देखते हैं। वहां घोरतर पशु तथा यमदूत उपस्थित मिलते हैं। यमराज हमसे सदा शुभ कर्म की आशा करते हैं लेकिन जब कोई ऐसा नहीं कर पाता है तो भयानक दंड द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है। ऐसी आत्माओं को यमराज नरक में भेज देते हैं।
अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।
आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है। गरूड़ पुराण में यमपुरी के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख मिलता है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुंच जाता है अन्यथा इस नदी में वे डूबते रहते हैं और यमदूत उन्हें निकालकर धक्का देते रहते हैं।
यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।
यमलोक के चार द्वार है। चार मुख्य द्वारों में से दक्षिण के द्वार से पापियों का प्रवेश होता है। यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं। पश्चिम का द्वार ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो। उत्तर के द्वार से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो। पूर्व के द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है। इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं।
माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मरता है तो सबसे पहले वह गहरी नींद के हालात में ऊपर उठने लगता है। जब आंखें खुलती हैं तो वह स्वयं की स्थिति को समझ नहीं पाता है। कुछ जो होशवान हैं वे समझ जाते हैं। मरने के 12 दिन के बाद यमलोक के लिए उसकी यात्रा शुरू होती है। वह हवा में स्वत: ही उठता जाता है, जहां रुकावट होती है वहीं उसे यमदूत नजर आते हैं, जो उसे ऊपर की ओर गमन कराते हैं।
आत्माओं के मरने की दिशा उसके कर्म और मरने की तिथि अनुसार तय होती है। जैसे कृष्ण पक्ष में देह छोड़ दी है तो उस काल में दक्षिण और उसके पास के द्वार खुले होते हैं, लेकिन यदि शुक्ल में देख छोड़ी है तो उत्तर और उसके आसपास के द्वार खुले होते हैं। लेकिन तब कोई नियम काम नहीं करता जबकि व्यक्ति पाप से भरा हो। शुक्ल में मरकर भी वह दक्षिण दिशा में गमन करता है। इसके अलावा उत्तरायण और दक्षिणायन सबसे ज्यादा महत्व होता है।
उत्तरायण में मरने वाले : चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वती आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पुरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा को भगवान विष्णु के दर्शन होते हैं जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज, नीलाभ रूप में अपने महाप्रासाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं। ऐसी शुभ आत्मा स्वर्ग का अनुभव करती है और उसे शांति व स्थिरता मिलती है। स्वर्ग में रहने के पश्चात वह किसी अच्छे समय में पुन: अच्छे कुल और स्थान में जन्म लेती है।
दक्षिणायन में मरने वाले : जो लोग पापी और अधर्मी हैं जिन्होंने जीवनभर शराब, मांस और स्त्रीगमन के अलावा कुछ नहीं किया, जिन्होंने धर्म का अपमान किया और जिन्होंने कभी भी धर्म के लिए पुण्य का कोई कार्य नहीं किया वे मरने के बाद स्वत: ही दक्षिण दिशा की ओर खींच लिए जाते हैं। ऐसे पापियों को सबसे पहले तप्त लौहद्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करना होती है।
नदी पार करने के बाद दक्षिण द्वार से भीतर आने पर वे अत्यंत विस्तीर्ण सरोवरों के समान नेत्र वाले, धूम्र वर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करने वाले, ज्वालामय रोमधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दंतयुक्त, संडसी जैसे नखों वाले, चर्म वस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि भयंकरतम वेश में यमराज को देखते हैं। वहां घोरतर पशु तथा यमदूत उपस्थित मिलते हैं। यमराज हमसे सदा शुभ कर्म की आशा करते हैं लेकिन जब कोई ऐसा नहीं कर पाता है तो भयानक दंड द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है। ऐसी आत्माओं को यमराज नरक में भेज देते हैं।
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