9.10.21

भील जनजाति के बारे मे जानकारी :Bhil janjati






भील शब्द की उत्पत्तिप्राचीन संस्कृत साहित्य में सभी वनवासी जातियों के लिये भील शब्द प्रयुक्त हुआ हैं। इस प्रकार प्राचीन संस्कृत साहित्य में उस वर्ग विशेष के लिये भील संज्ञा प्रयुक्त हुआ हैं जो धनुष बाण से शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे।
मेवाड़ ,गोडवाड़,बांगड़ प्रदेश में भील, मीणा, डामोर और गरासिया जनजाति निवास करती है । इन सभी जनजातियों के लिए विद्वान, लेखक एवं पत्रकार भील शब्द ही प्रयुक्त करते हैं।
लोगों की सामान्य धारणा है कि उपर्युक्त प्रदेशों में केवल भील जनजाति ही निवास करती हैं।
महाभारत काल में भीलों को निषाद कहा जाता था।
कर्नल जेम्स टॉड ने भीलों को 'वन पुत्र' कहा हैं।
रोने जैसे प्रसिद्ध लेखक ने अपनी पुस्तक 'वाइल्ड ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया' (wild Tribes Of India ) में भीलों का मूलनिवास मारवाड़ बताया हैं।
डॉ. डी. एन. मजूमदार ने अपनी पुस्तक 'रेसेज एंड कल्चरल ऑफ़ इंडिया' (races And Cultural Of India ) में भील जनजाति का सम्बन्ध प्राचीन 'नेग्रिटो' प्रजाति से बताया हैं।
भील जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में दो मत प्रचलित हैं।
1.प्रथम मत :-
भील द्रविड़ भाषा का शब्द है जो बिल शब्द से बना है विद्वानों के अनुसार भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ भाषा के बिल शब्द से हुई है जिसका अर्थ है तीर-कमान।
तीर-कमान भील जनजाति का मुख्य अस्त्र था इसलिए इस जनजाति को भील कहा जाने लगा।
2.द्वितीय मत :-
भील जनजाति भारत की सबसे प्राचीनतम जनजाति हैं। पुरातन काल में भील जनजाति की गणना राजवंशों में की जाती थी जिसे विहिल राजवंश के नाम से जाना जाता था। विहिल राजवंश का शासन पहाड़ी इलाकों में था।
ये मत भी सच हो सकता हैं क्योंकि आज भी ये जनजाति ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में निवास करती हैं।
इस संदर्भ में एक कहावत भी प्रचलित है कि संसार में केवल साढ़े तीन राजा ही प्रसिद्ध हैं। पहला इंद्र राजा,दूसरा राजा,तीसरा भील राजा और बिंद (दूल्हा)राजा (आधा)।
भील जनजाति की भाषाभील जनजाति मेवाड़ी,भीली तथा वागड़ी भाषा का प्रयोग करती हैं।
जी. एस. थॉमसन ने 1895 ई. में भीली भाषा की व्याकरण की रचना की। जिसमें इन्होंने इस समुदाय की भाषा को गुजराती से सम्बंधित बताया हैं
भारतीय जनजातियों में भील जनसंख्या के नज़रिए से दूसरे स्थान पर आते हैं। मध्य प्रदेश में भी गोंड जनजाति के बाद भील जनजाति जनसंख्या के आधार पर दूसरे स्थान पर है। श्याम रंग, छोटा-मध्यम कद, गठीला शरीर और लाल आंखें, यह सब इनकी शारीरिक रचना है। लेकिन इन्हें देखकर कोई भी इनके इतिहास के बारे अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पर… ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर इनका वजूद कुछ अलग ही दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। भारत जैसे संघर्षशील देश में इनका स्थान क्या है? यह अब भी जन सामान्य के लिए ग़ैरज़रूरी जानकारी सी मालूम होती है। लेकिन इतिहास ने आज भी इनके योगदान की स्मृतियों को स्वर्णाक्षरों में संजोकर रखा है। वर्तमान समाज भले ही इन्हें अपनी संस्कृति से दूर और अलग समझता हो, लेकिन वास्तविकता यह है, कि भील संस्कृति प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। इस जनजाति की संस्कृति की तुलना यदि किसी दूसरी संस्कृति से की जाए, तो शौर्य, साहस, भक्ति और विश्वास जैसे तत्व एक साथ भील संस्कृति के अलावा किसी में भी दिखाई नहीं देते। इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भीलों ने शौर्य की पराकाष्ठा तक प्रदर्शन किया है। प्राचीन भीलों से अब तक आखेट… इनकी जीविका का एक मात्र साधन रहा है, जिसके लिए ये अब भी जाने जाते हैं। जबकि शिकार में इस्तेमाल होने वाले शस्त्र धनुष-बाण भील संस्कृति की ही देन है। जहां तक इस हथियार के इस्तेमाल की बात है, तो धनुष-बाण के प्रयोग और निशानेबाज़ी में आज भी इनका कोई सानी नहीं है। धनुष-बाण का इस्तेमाल भील जनजाति के लोग सिर्फ शिकार के लिए ही इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि इतिहास में इसी हथियार से इन्होंने कई युद्ध लड़े और जीते भी हैं।
 एक नज़र अगर इनके इतिहास पर डाली जाए तो कई ऐसे तथ्य भी सामने आते हैं, जिनसे आधुनिक समाज आज भी परिचित नहीं है। वर्तमान दौर में सुनी जाने वाली किवदंतियों के पात्र भी भील संस्कृति की पृष्ठभूमि से हैं। महर्षि वाल्मिकी भी भील जनजाति के थे, जो रत्नाकर डाकू से आदिकवि के सिंहासन पर आसीन हुए। हालांकि आधुनिक समाज सिर्फ इतना जानता है, कि रामायण की रचना कर रामकथा की विश्व व्यापकता वाल्मिकी की देन है। जबकि वाल्मिकी वो व्यक्तित्व है, जिन्हें विश्व का पहला राष्ट्रकवि कहा जाए तो भी अतिश्योंक्ति नहीं होगी। राम भक्त सबरी की सराहना में भी सभी उपमान उस समय फीके पड़ जाते हैं, जब भगवान राम की भक्ति-भावना से अभीभूत सबरी उन्हें अपने झूठे बेर खिलाने में बिना किसी संकोच के आनंद की अनुभूति की पराकाष्ठा प्राप्त करती है। सबरी की इस अनुभूति को रामायण में भी श्रद्धा और भक्ति की अंतिम सीमा के रूप में वर्णित किया गया है। वहीं महर्षि व्यास की रचना महाभारत के पात्र एकलव्य की गुरु भक्ति की गरिमा का जितना वर्णन किया जाए, उतना कम है। एकलव्य महाभारत में एक भील के रूप में चरितार्थ किया गया पात्र है। जिन्होंने अपने गुरु को दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ के अंगूठे का दान कर विश्व में अपनी श्रेष्ठ गुरुभक्ति का नगाड़ा बजा दिया। वहीं एकलव्य ने साधना और मेहनत से सीखने की लालसा और लगन का भी अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत किया है।


भील जनजाति एक परिचय – 

भील शब्द का आविर्भाव द्रविड़ भाषा के ‘बोल’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ“कमान’ से है। भारत में दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान पश्चिमी मध्य प्रदेश में एक मानव समूह रहता है जिसका प्राचीन काल से अब तक का प्रधान लक्षण तक कमान रखना रहा है, उन्हें ही भील कहते हैं। धनुर्विद्या में यह जाति सदा से ही बहुत ही कुशल रही है। इस जाति के मनुष्य ही नही वरन् स्त्रियाँ भी धनुर्विद्या में बहुत ही कुशल होती हैं। यदि हम अपने देश के प्राचीन साहित्य पर दृष्टि डालें तो इस जाति के सम्बन्ध में बहुत वर्णन मिलता है। रामायण में शबरी और निषाद तथा महाभारत में एकलव्य और घटोत्कच भील ही थे। मेवाड़ के साथ तो इस जाति का गहरा सम्बन्ध रहा है। बहुत समय तक मेवाड़ में राजपूत राजाओं को राजतिलक करने का अधिकार केवल भीलों को ही था।यही नहीं एक समय था जब इस जाति की अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता थी एवं मध्य में भील सरदारों के कई छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा एवं भीलवाड़ा आदि राज्य प्रमुख थे। धीरे-धीरे यह जाति सभ्यता के पथ पर अग्रसर हो रही थी। काश इस जाति को मरीठों एवं “सर जॉन मैल्कम’ ने तंग नहीं किया होता तो ये भील आज असभ्ध नहीं होते वरन् हमारी तरह सभ्य होते, लेकिन मराठों के अत्याचारों से घबड़ा कर ये दुबारा अपने निवास स्थान घने जंगल एवं पहाड़ियों पर निवास करने लग गये।
 लोग मराठों के अत्याचारों को न भूले और असर पाते ही गाँवों का जलाने लगे और यात्रियों को लूटने लगे। इस तरह एक भयंकर जाति के रूप में भारत में प्रसिद्ध हो गये। “सर जॉन मैल्कम” के काल में इस जाति का दमन किया जाने लगा। “सर जान मैल्कम” ने खानदेश और मालवा को जीत कर इनकी रीढ़ तोड़ दी। अंग्रेजों ने भी भीलों को मैदानी भाग से जाने वाली रसद रोक दील तथा लूटमार करने वालों को गिरफ्तार करना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन इस समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए अंग्रेजी सरकार ने कुछ नम्र उपायों को अपनाया जिनमें आत्मसमर्पण युग करने वाले लोगों को माफ कर दिया जाता था एवं मैदानी भाग में उन्हें बसने के लिये भूमि दी जाती थी। तथी से इसका जीवन-क्रम बदल गया और ये शान्तिपूर्वक रहने लगे।
भील जाति कई उप-जातियों में भी बंटी हुई है। इनकी मुख्य उप-जातियाँ निम्न हैं-नहाल, पॉगी, मोची, मटवारी, खोतील, कोतवाल, दांगची, नौरा, करीट, बरिया, पर्वी, पोवेरा, उल्वी उसांव, बुर्दा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भीलों में अनेक जातियाँ पाई जाती हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि जाति-पाँति के बन्धनों में भील भी विश्वास करते हैं। इन जातियों में अनेक गोत्र भी है जिनमें मुख्य रोहनिया, सोनगर, ऑवलिया, मरवाल, मोरी, पंवार, मेरा, मासरया, मेंहदा, सिसोदिया, राठौर, परमार, सोलंकी, अवाशा, जवास, भूमिया, कचेरा, जावरा और चौमड आदि हैं। भीलों के उपर्युक्त गोत्रों से स्पष्ट मालूम होता है कि इनका मिश्रण राजपूतों के साथ अधिक हुआ है। सोलंकी, राठौर, सिसोदिया, पवार गोत्र भीलों में भी हैं और राजपूतों में भी।

स्वभाव तथा रहन-सहन-

 भील स्वभाव से वीर, साहसी और स्वामिभक्त होते होते हैं। इतिहास में हमें भीलों की वीरता, साहस एवं स्वामिभक्त का वर्णन मिलता है। भील अपने वचन के पक्के एवं मनमौजी स्वभाव के होते हैं। स्वाभाव से ये इतने सीधे होते हैं कि कोई भी इनकी ठग सकता है। भारतीय किसान के लिए कही गई कहावत कि “भारतीय कियान ऋण में जन्म लेता है, ऋण में पलता है एवं ऋण में ही मरता है’, भीलों कीभील जाति कई उप-जातियों में भी बंटी हुई है। इनकी मुख्य उप-जातियाँ निम्न हैं-नहाल, पॉगी, मोची, मटवारी, खोतील, कोतवाल, दांगची, नौरा, करीट, बरिया, पर्वी, पोवेरा, उल्वी उसांव, बुर्दा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भीलों में अनेक जातियाँ पाई जाती हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि जाति-पाँति के बन्धनों में भील भी विश्वास करते हैं। इन जातियों में अनेक गोत्र भी है जिनमें मुख्य रोहनिया, सोनगर, ऑवलिया, मरवाल, मोरी, पंवार, मेरा, मासरया, मेंहदा, सिसोदिया, राठौर, परमार, सोलंकी, अवाशा, जवास, भूमिया, कचेरा, जावरा और चौमड आदि हैं। भीलों के उपर्युक्त गोत्रों से स्पष्ट मालूम होता है कि इनका मिश्रण राजपूतों के साथ अधिक हुआ है। सोलंकी, राठौर, सिसोदिया, पवार गोत्र भीलों में भी हैं और राजपूतों में भी। सरलता एवं निर्धनता के कारण इन पर भी लागू होती है कि “एक भील ऋण में जनम लेता है, ऋण में ही पलता है और ऋण में ही मरता है।” क्योंकि महाजन इनसे इतना अधिक ब्याज लेते हैंकि एक भील अपने जीवनकाल में 100 रुपये का कर्ज नहीं चुका पाता है, क्योंकि भील एक तो स्वभाव से सीधे होते हैं, दूसरे ये धर्मभीहरु भी होते हैं। ये अन्याय सह सकते हैं, परन्तु लिये हुए कर्ज को मय ब्याज के चुकाने से इंकार नहीं कर सकतें यही नहीं, ये दिल के धनी भी होते हैं। इनके दरवाजे से कोई भी अतिथि बिना भोजन पाये वापस नही जाता है।
 भील, परिश्रमी भी होते हैं भूखा टूटा भील यद्यपि शरीर से दुबला व कमजोर होता है, परन्तु मजदूती एवं साहस में कम नहीं होता जब हमें साधारण बुखार होता है तो चारपाई का सहारा लेते हैं, लेकिन भील बुखार के पूरे जोश में अपने सिर 5-10 सेर गीली मिट्टी थोपे हुए दिन पर हल चलाता है। कड़कडाती ठंडी रातों को केवल एक लंगोटी में ही काट देते हैं। कई दिन भूखे परिश्रम करके मक्का का दलिया, खाकर सारे परिश्रम एवं भूख की पीड़ा को भूल जाता है।

भीलों का पहनावा तथा साज-सज्जा-

चूँकि भील निर्धन और पिछड़े हुए हैं, इसलिए इनकी वेशभूषा तथा साज-सज्जा दनके वातावरण एवं सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल ही है। भीलों पुरुष एवं स्त्रियों के पहनावे में बहुत अन्तर पाया जाता है।
 भील पुरुष शरीर पर वस्त्र नहीं पहनते हैं। जंगलों में निवास करने वाले भील पुरुष प्रायः एक लंगोटी में ही अपना जीवन बिताते हैं, परन्तु जो भील परिवार खेती करते हैं और बस्तियों के समीप आकर रहने लगे हैं, वे मोटा कपड़ा पहनते हैं जिसे ये लोग अंगरखा कहते हैं।
 ऊंची कसी हुई धोती तथा मोटा साफा बांधते हैं। भ्रमण के समय तीर-कमान प्रत्येक भील के साथ रहती है जो इस प्रकार बनी होती है कि कमान बाँस की होती है तथा तीर भी बाँस का होता है, लेकिन इनकी नाम बहुत सीधी तथा तेज धार वाली लोहे की बनी होती है। भील. पुरुष तथा बालक हाथ पाँवों में लोहे या पीतल के कड़े पहनते हैं। सामाजिक अवसरों तथा उत्सवों पर चमकदार रंगों वाले कपड़े पहनते हैं। स्त्रियाँ अधिकतर लाल रंग के लहंगे एवं ओढ़नी ओढ़ती हैं। कुर्ते के स्थान पर एक प्रकार की अंगिया पहनती हैं जिसे ये अंगरखी कहती हैं। स्त्रियों के शरीर पर पिग्मी स्त्रियों की भाँति अनेक प्रकार के गुदने गुदे हुए होते हैं। स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के आभूषण भी पहनती हैं जिसके हाथों में हाथी दाँत के मोटे कड़े, गले में चाँदी की मोटी हँसली, कानों में लम्बी-लम्बी बालियाँ, माथे पर लाख या चाँदी का झालर, हाथ और पाँवों की उंगलियों में पीतल या कगलट के छल्ले, नाक में नथ गले में मूंगों की माला पहनती हैं।

आवास-

भील जिन बस्तियों में रहते हैं, उन्हें “पाल” कहते हैं। हर एक “पाल” में भीलों का एक नेता होता है जिसे मध्य भारत में “तरबी” कहा जाता है एवं राजस्थान में उसे “गमेती’ के नाम से पुकारते हैं। जो भू-भाग पहाड़ी एवं ऊँचा होता है उसे ये लोग डौंगर (डूंगर) कहते हैं। भीलों के घर बांस, टट्ठरों या बेजोड़ पत्थरों के बने होते हैं। जो भील गाँवों में निवास करते हैं वे झोपड़ियों में रहते हैं और जो शहरों में रहते हैं वे मिट्टी या पत्थरों के मकानों में रहते हैं। मकान बनाने के लिए लोग ढालू स्थान चुनते हैं। प्रत्येक घर से मिले हुए ये एक या दो झोपड़े भी बनाते हैं। इन झोपड़ों में ये अपने मवेशी रखते हैं। वर्षा की कमी तथा उद्योगों के अभाव में ये इधर-उधर हटते-बढ़ते रहते हैं। जो भील परिवार गाँव के बन्धनों में बंधना नहीं चाहते, वे जंगलों में ही घूमते हैं।

जीवन-निर्वाह के साधन-

भील, जिनका भारतीय जनजातियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है, इनका मुख्य धन्धा एवं व्यवसाय कृषि करना है। वह भी एक फसली, क्योंकि इनके निवास-क्षेत्र में वर्षा कम होती है। शेष समय में इनका धन्धा जंगली जानवरों का शिकार करना, जंगल में शहद इकट्ठा करना, लाख एवं लकड़ी का संग्रह करना, पशु चराना और दूध की वस्तुएँ तैशर करना, मछली पकड़ना, मजदूरी करना और डलिया तथा टोकरे आदि बनाकर कस्बों में बेचना होता है।

भोजन-सामग्री-


 भीलों की भोजन-सामग्री में मुख्य मक्का और प्याज है। ज्वार, जौ, लावा, कूरा और सांवा भी प्रयोग में लाते हैं। संकटकालीन समय में जंगली कन्द-मूल खाकर और यहाँ तक कि मरे हुए जानवरों का माँस खाकर निर्वाह करते हैं। इनमें जो सबसे बड़ा अवगुण है वह शराब पीना है। ये महुए, जौ और मकई की शराब बनाते है। देवी देवताओं की पूजा में भी ये शराब चढ़ाते हैं। शराब के मोह में ये अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु को भी छोड़ देते है। एक नहीं बीसियों उदाहरण ऐसे हैं जब इन्होंने अपने शराब के नशे छोटे-छोटे नन्हें-नन्हें बच्चे को भी चन्द रुपयों में और शराब के लालच में विधर्मियों को बेच दिया, किन्तु अब यह प्रथा नष्ट होती जा रही है।

शादी-विवाह-

भीलों में 15 वर्ष की लड़की और 20 वर्ष के लड़के की शादी हो जानी चाहिए। इनमें शादी की तीन रीतियाँ हैं-

1. शादी जो माता-पिता द्वारा तय की जाती है-

 इस प्रथा में सम्बन्ध तय करने का भार लड़के के माता-पिता पर होता है। वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष वालों के यहाँ सगाई करने जाते हैं। यदि लड़की के माता-पिता उस सगाई को मान लेते हैं तो वर पक्ष के लोग पंचों को 5 से 7 रुपया देते हैं जिनसे गुड़ और शराब मंगाई जाती है, जिसे उस जाति के लोग खाते-पीते हैं। यह उनका बैट्रोडल कहलाता है।
बैट्रोडल तय होने पर वर-वधू दोनों के यहाँ उबटन आदि होता है और उसी दिन से 7 दिन तक वर और वधू दोनों अपने-अपने घर जमीन पर पैर नहीं रखते और उनके दोस्त उन्हें कंघों पर रखते हैं तथा अपने-अपने गाँव की परिक्रमा (कंधों पर ही) करते हैं।
इस अवसर पर वर वधू को मौन धारण करना पड़ता है, जबकि सभी अन्य लोग खूब हँसते हूँ। यदि वर या वधू हंस देती है तो बहुत बड़ा अपशकुल माना जाता है। इस उत्सव को बाना बैठना” कहते हैं।
 “बाना बैठना” के बाद पंडाल बनाया जाता है जिस पर जामुन और आम की पत्तियाँ डाली जाती हैं। कभी-कभी पंडाल को फलों से भी सजाया जाता है। इस पंडाल के नीचे सबसे पहले चार अविवाहित लड़के और लड़कियाँ खाना खाते हैं, इनके बाद दोस्त और सम्बन्धी खाना खाते हैं। इसके पश्चात् वर आता है और पण्डाल के नीचे बैठ जाता है फिर वर की माँ आती है और लड़की के ऊपर फिराकर पण्डाल के चारों किनारों पर रोटी के टुकड़े फेंकती है। इसके बाद दूल्हा बारात सहित लड़की के घर चल देता है। यह उत्सव “पण्डाल पूजा” कहलाता है।
जब बारात लड़की वाले के यहाँ पहुँच जाती है तो लड़की लड़के को अंगूठी देती है और लड़का लड़की को “कंगन” देता है। इसके बाद दोनों मण्डप की परिक्रमा करते हैं, यह “कनकन उत्सव” कहलाता है। इसके पश्चात् लड़की दीपक जलाती है तथा ज्यों ही वर मण्डप के अन्दर आता है उसका कर्त्तव्य होता है कि वह दीपक को बुझा दे इसके बाद पण्डितों द्वारा होम किया जाता है। इस अवसर पर वर और वधू दोनों खूब सजाये जाते हैं। इस प्रकार विवाह कार्यक्रम समाप्त हो जाता है।

2. शक्ति से शादी-

 भीलों में दूसरे तरह का विवाह शक्ति के द्वारा होता है, इसमें लड़का किसी लड़की को भगाकर ले जाता है। यदि लड़का और लड़की दोनों की इच्छा आपस करने की होती है तो लड़के वाला लड़की के पिता और लड़की द्वारा माँगा हुआ धन देना पड़ता है। यदि वह धन चुका सकता है तो लड़के का पिता और खुद लड़का दोनों लडकी वाले के यहाँ जाते हैं और माँगा हुआ धन देते हैं एवं लड़की वालों को एक भोज देते हैं। इसके पश्चात् उनका विवाह ठीक उसी प्रकार से होता है, जिस प्रकार शादी जो माता-पिता द्वारा तय की जाती है।

3. होली-त्यौहार पर शादी-

जैसवाड़ा, तलुका पंचमहल, पंचवाड़ा जिलों में “गोल गधेडो” प्रथा का भी प्रचलन है। इसके अनुसार होली पर एक मजबूत लट्ठा गाड़ देजे हैं, उसके सिरे पर नारियल का फल और गुड़ बाँध देते हैं। युवक और युवतियाँ उसके चारों ओर नृत्य करते हैं। युवतियाँ लट्टे के चारों ओर एक गोला बनाकर नाचती हैं। जवयुवक बाहर से नाचता हुआ आता है। और युवतियों के बीच से निकलकर अन्दर से लड़े के पास जाकर नारियल और गुड़ को लेने का प्रयत्न करता है। ऐसा करने में युवतियाँ उसकी बहुत बुरी हालत करती हैं। यदि वह लट्टे तक पहुँचने में सफल हो जाता है तो युवतियाँ उसको उसके कपड़ों से पकड़ती हैं। उसे बाँस की छड़ियों से मारती हैं। उसके सिर से बाल नोचती हैं। यही नही यह भी कि उसके शरीर के माँस तक नोच लेती हैं।


4. मनोरंजन-


  भील मनोरंजन के बड़े शौकीन होते हैं। विवाह और उत्सवों पर खूब नाचते और गाते हैं। जब कोई अतिथि आता तो उसके स्वागत में नाच-गानों का आयोजन किया जाता है। जब ये शहर से अपन गाँव लौटते हैं तो रास्ते की थकान को दूर करने के लिये रास्ते में भील और भीलने निडर होकर हाथ में हाथ डाले नाचते-गाते आते हैं। नाच गाने के अलावा इनके खेल भी बड़े मनोरंजक होते हैं। मकर संक्रान्ति पर डोटादडी, मारदडी, दशहरा पर दशहरा की नकली लड़ाई, यमद्वितीया पर नेजा खेल बड़े प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा होली, दीपावली पर भी अनेक प्रकार के खेल खेले जाते हैं। इनमें चुटकले, मुहावरों एवं कहावतों का प्रचलन अधिक है। घोर दीनता और गरीबी में इनकी विनोद-प्रियता देखकर आश्चर्य होता है।

5. विश्वास-

भील लोग देवी-देवताओं का बहुत मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। माता की पूजा प्रायः होती रहती है। ये लोग शिवाजी और हनुमान जी के बड़े भक्त होते हैं। ये लोग जादू- टोने के अधिक शिकार हैं तथा ये शकुन और अपशकुन में बहुत विश्वास करते हैं। ये भूत-प्रेतों में भी अधिक विश्वास करते हैं। पुनर्जनम में भी अधिक विश्वास करते हैं। ये मृतकों को जलाते हैं, माड़ते नहीं है।

निवास स्थान-

यदि हम भारत के मानचित्र पर 22° उत्तरी अक्षांश से 28° उ. अक्षांश तकएवं 74° पूर्वी देशान्तर से 80° पूर्वी देशान्तर तक दृष्टि डालें तो यह क्षेत्र भीलों का निवास-स्थान है। इसमें दक्षिणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश सम्मिलित हैं। भीलों के प्रमुख क्षेत्रों के नाम भीलवाड़ा, भीलपुर, भीलगाँव, भीलना, भीलसी, बड़ी सपरी, बरन, बीना, भोपाल, विलाश, इन्दौर एवं बाँसवाड़ा हैं।

भीलों का रंग सांवला, कद छोटा, चेहरा चौड़ा, नथुने बड़े, नाक चपटी और बड़ी, शरीर गठा हुआ, बाल लम्बे आर धुंघराले होते हैं।

“भील लोग आर्यन तथा द्राविड़ियन से भी पहले भारत में निवास करते थें सम्भवतः ये लोग सहारा के जलवायु सम्बन्धी संकट के समय इधर-उधर फैलते हुए भारत में पहुंचे थे। भील मुंडा जाति का एक उपविभाग है जो आदि द्राविड़ियन भारत में फैला हुआ था।”

भील जाती के मेले

बेणेश्वर मेला :-


'आदिवासियों का कुम्भ' नाम से प्रसिद्ध बेणेश्वर का मेला भीलों का सबसे बड़ा मेला है जो माघ माह की पूर्णिमा को डूंगरपुर जिले में सोम,माही एवं जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर भरता हैं।

घोटिया अम्बा :-


बेणेश्वर के अलावा एक और बड़ा मेला भरता है 'घोटिया अम्बा मेला'। यह मेला बांसवाड़ा जिले में घोटिया नामक स्थान पर चैत्र अमावस्या को भरता हैं।

गोतमेश्वर मेला :-


गौतमेश्वर का मेला प्रतापगढ़ जिले में अरनोद कस्बे के पास वैशाख पूर्णिमा को भारत हैं।

ऋषभदेव मेला :-


ऋषभदेव का मेला उदयपुर जिले में धुलैव में चैत्र कृष्ण अष्टमी को प्रतिवर्ष भरता है जिसमे बड़ी मात्रा में भील स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। यहां पर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवन आदिनाथ की काले पत्थर की मूर्ति हैं। काले रंग की होने के कारण भील जाति के लोग इन्हें 'काला' बाबा के नाम से जानते हैं। भील जाति के लोग केसरियानाथ (काला बाबा) को चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते।
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