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11.6.24

सतनामी संप्रदाय की जानकारी और इतिहास ,history of satnami samaj


सतनामी  समाज के इतिहास का विडिओ 





सतनामी संप्रदाय की स्थापना "बीरभान" नामक एक संत ने नारनौल में 1657 में की थी।
सतनामी अधिकतर किसान, दस्तकार तथा नीची जाति के लोग थे।
सत्य एवं ईश्वर में विश्वास रखने के कारण वे अपने को सतनामी पुकारते थे।
सतनामियों को एकेश्वरवादी संप्रदाय कहा गया है।
इनके धार्मिक ग्रंथ को पोथी कहा जाता था।
सतनामी अपने संपूर्ण शरीर के बालों को मूँड़कर रखते थे। इसी कारण उन्हें मुंडिया भी कहा जाता था।
विद्रोह के कारणसतनामी विद्रोह की शुरुआत एक सतनामी और मुगल सैनिक अधिकारी के बीच झगड़े को लेकर हुई।
1672 ई. में किसानों और मुगलों के बीच मथुरा के निकट नारनौल नामक स्थान पर एक युद्ध हुआ जिसका नेतृत्व सतनामी  संप्रदाय ने किया था।
विद्रोह तब भड़क उठा जब मुगल सैनिक ने सतनामी को मार डाला।
सतनामियों ने भी बदला लेने के लिये सैनिक को मार डाला तथा बदले में और मुगल सैनिकों को भेजा गया।
इस विद्रोह को तब कुचला जा सका जब औरंगजेब ने विद्रोह की कमान संभाली और सतनामियों को कुचलने के लिये तोपखाने के साथ 10,000 सैनिकों को भेजा।
विद्रोह को दबाने में स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों (जिनमें अधिकतर राजपूत थे) ने मुगलों का साथ दिया था।

  प्रारंभिक सतनामी भिक्षुकों और गृहस्थों का एक संप्रदाय था जिसकी स्थापना 1657 में पूर्वी पंजाब के नारनौल में बीरभान ने की थी। 1672 में उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब की अवहेलना की और उसकी सेना द्वारा कुचल दिए गए। 
उस संप्रदाय के अवशेषों ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में एक और संप्रदाय के गठन में योगदान दिया हो सकता है, जिसे साध (अर्थात, साधु , "अच्छा") के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने अपने देवता को सतनाम के रूप में नामित किया था। 
  सबसे महत्वपूर्ण सतनामी समूह की स्थापना 1820 में मध्य भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हुई थी घासीदास, चमार जाति के सदस्य  थे और  वर्ण व्यवस्था के मुताबिक दलित या अछूत जाति जिसका वंशानुगत व्यवसाय चमड़ा बनाना था,ऐसे  लोगों को  हिंदू अपवित्र मानते थे । हालाँकि छत्तीसगढ़ के चमारों ने चमड़ा बनाना छोड़ दिया था और किसान बन गए थे, लेकिन उच्च हिंदू जातियाँ उन्हें अपवित्र मानती रहीं। उनके सतनाम पंथ ("सच्चे नाम का मार्ग") ने बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ी चमारों (जो इस क्षेत्र की कुल आबादी का छठा हिस्सा थे) को धार्मिक और सामाजिक पहचान दिलाने में सफलता प्राप्त की, जबकि उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता था और उन्हें हिंदू मंदिर पूजा से बाहर रखा जाता था। घासीदास को हिंदू देवताओं की मूर्तियों को कूड़े के ढेर में फेंकने के लिए याद किया जाता है। उन्होंने नैतिक और आहार संबंधी संयम और सामाजिक समानता का उपदेश दिया। कबीर पंथ के साथ संबंध ऐतिहासिक रूप से कुछ चरणों में महत्वपूर्ण रहे हैं, और समय के साथ सतनामियों ने जटिल तरीकों से एक व्यापक हिंदू व्यवस्था के भीतर अपनी जगह बनाने के लिए बातचीत की थी 
भारतीय इतिहास के 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक अभूतपूर्व प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व लेकर छत्तीसगढ़ के इस विशाल भूभाग में महामानव  युग पुरुष संत बाबा गुरु घासीदास अवतरित हुए वे अपने युग के सजग प्रहरी थे। अंधविश्वास , एवं संकीर्ण मनोविज्ञान से भरी भूमि से समाज को ऊपर उठाने का आजीवन प्रयास किया। हिंदु समाज के मनु वादियों और उनके आडंबरों  पर कठोर  प्रहार किया।
   महाकौशल छत्तीसगढ़ की विशाल धरती पर गुरु घासीदास प्रथम व एक-मेव मनीषी हैं, जिन्होंने मानव द्वारा बनाए गए तथाकथित जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था के उत्पीड़न के प्रति समाज को सजग बनाया।
   संत बाबा गुरु घासीदास ने सभी संप्रदायों में व्याप्त जड़ता का घोर विरोध किया, जो तर्क मूलक था । और इन्हीं आडंबर प्रधान संप्रदायों के विरोध में ही बाबा गुरु घासीदास ने सहज धर्म “ सतनाम धर्म ” को ही ससम्मान प्रतिष्ठापित किया।
 Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे। 

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