भारत वर्ष में जाति प्रथा आदि काल से चली आ रही हैं. प्रारंभ की वर्ण व्यवस्था आज जातियों व उपजातियो में बिखर चुकी हैं। दिन प्रतिदिन यह लघु रूपों में बिखरती जा रही हैं। आज की कलवार, कलाल या कलार जाति जो कभी क्षत्रिय थी, आज कई राज्यों में वैश्यों के रूप में पहचानी जाती हैं। यह हैहय वंश या कलचुरि वंश की टूटती हुई श्रंखला की कड़ी मात्र हैं। इसे और टूटने से बचाना हैं।
वर्ण व्यवस्था वेदों की देन हैं, तो जातियाँ व उपजातियाँ सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं।
कलवार वंश का अतीत गौरवशाली व यशपूर्ण रहा हैं। यह गौरव की बात हैं। वेदों से प्रमाण मिलता हैं कि कलवार वंश का उदगम विश्वविख्यात चन्द्र वंशी क्षत्रिय कुल में हुआ हैं। इसी चन्द्र वंश में कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु हुये हैं। जिस चन्द्र वंश ने अपनी पताका पूरे संसार में फैलाई, वही चन्द्र वंश कालप्रेरित होकर आपस में लड़ भिड कर मिटने लगा। परशुराम द्वारा भी इस वंश को नष्ट करने का प्रयास किया गया। राज कुल में पले बढे कलवारो के सामने जीवन निर्वाह की समस्या खड़ी हो गई। अतः क्षत्रिय धर्म कर्म छोड़कर वैश्य कर्म अपना लिया, व्यवसाय करने के कारण वैश्य या बनिया कहलाने लगे, इनमे से अधिकतर शराब का व्यवसाय करने लगे।
कलवार शब्द की उत्पत्ति
मेदिनी कोष में कल्यपाल शब्द का ही अपभ्रंश कलवार है। पद्मभूषण डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक "अशोक का फूल" में लिखा हैं कि कलवार हैहय क्षत्रिय थे। सेना के लिए कलेऊ की व्यवस्था करते थे, इसीलिए, कालांतर में वैश्य कहलाये। क्षत्रियो के कलेवा में मादक द्रव्य भी होता था, इसी लिए ये मादक द्रव्यों का कारोबार करने लगे।
श्री नारायण चन्द्र साहा की जाति विषयक खोज से यह सिद्ध होता हैं की कलवार उत्तम क्षत्रिय थे। जब गजनवी ने कन्नौज पर हमला किया तो उसका मुकाबला कालिंदी पार के कलवारों ने किया था, जिसके कारण इन्हें कलिंदिपाल भी बोलने लगे। इसी कलिंदिपाल का अपभ्रंश ही कलवार हैं। अनुसंधानों से पता चलता हैं कि कलवार जाति के तीन बड़े - बड़े हिस्से हुए हैं, वे हैं प्रथम पंजाब दिल्ली के खत्री, अरोरे कलवार यानि की कपूर, खन्ना, मल्होत्रा, मेहरा, सूरी, भाटिया , कोहली, खुराना, अरोरा ...... इत्यादि। दूसरा हैं राजपुताना के मारवाड़ी कलवार यानि अगरवाल, वर्णवाल, लोहिया ..... आदि। तीसरा हैं देशवाली कलवार जैसे अहलूवालिया, वालिया, बाथम, शिवहरे, माहुरी, शौन्द्रिक, साहा, गुप्ता, महाजन, कलाल, कराल, कर्णवाल, सोमवंशी, सूर्यवंशी, जैस्सार, जायसवाल, व्याहुत, चौधरी, प्रसाद, भगत ..... आदि।
कश्मीर के कुछ कलवार बर्मन तथा कुछ शाही उपनाम धारण करते हैं। झारखण्ड के कलवार प्रसाद, साहा, चौधरी, सेठ, महाजन, जायसवाल, भगत, मंडल .... आदि प्रयोग करते हैं। नेपाल के कलवार शाह उपनाम का प्रयोग करते हैं। जैन पंथ वाले जैन कलवार कहलाये।
ब्रह्ममा से भृगु, भृगु से शुक्र, शुक्र से अत्री ऋषि , अत्री से चन्द्र देव, चन्द्र से बुद्ध, बुद्ध से सम्राट पुरुरवा, पुरुरवा से सम्राट आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से पुरु, पुरु से चेदी कल्यपाल, कलचुरी कलवार वंश चला जो की जायसवाल, कलवार, शौन्द्रिक, जैस्सार, व्याहुत कहलाये।
इस प्रकार से हम देखते हैं की कलवार/ कलाल / कलार जाति की उत्पत्ति बहुत ही गौरव पूर्ण रही हैं। जिसका हमें सभी को गर्व करना चाहिए। यह समाज आज 356 उपनामों में विभक्त हो चुका है और सभी में रोटी बेटी का सम्बन्ध कायम होना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि हमारी आबादी लगभग 25 करोड़ हैं।भगवान् सहस्त्रबाहू की महिमा और कलार शब्द का अर्थ
कलार शब्द का शाब्दिक अर्थ है मृत्यु का शत्रु, या काल का भी काल, अर्थात हैहय वंशियों को बाद में काल का काल की उपाधि दी जानें लगी जो शाब्दिक रूप में बिगड़ते हुए काल का काल से कल्लाल हुई और फिर कलाल और अब कलार हो गई.
आज भगवान् सहस्त्रबाहू की जयंती सम्पूर्ण हिन्दू समाज मनाता है. भगवान् सहस्त्रबाहू को वैसे तो सम्पूर्ण सनातनी हिन्दू समाज अपना आराध्य और पूज्य मान कर इनकी जयंती पर इनका पूजन अर्चन करता है किन्तु हैहय कलार समाज इस दिवस को विशेष रूप से उत्सव-पर्व के रूप में मनाकर भगवान् सहस्र्त्रबाहू की आराधना करता है. भगवान् सहस्त्रबाहू के विषय में शास्त्रों और पुराणों में अनेकों कथाएं प्रचलित है. किंवदंती है कि, राजा सहस्त्रबाहू ने विकट संकल्प लेकर शिव तपस्या प्रारम्भ की थी एवं इस घोर तप के दौरान वे के प्रतिदिन अपनी एक भुजा काटकर भगवान भोले भंडारी को अर्पण करते थे इस तपस्या के फलस्वरूप भगवान् नीलकंठ ने सहस्त्रबाहू को अनेकों दिव्य, चमत्कारिक और शक्तिशाली वरदान दिए थे.
हरिवंश पुराण के अनुसार महर्षि वैशम्पायन ने राजा भारत को उनके पूर्वजों का वंश वृत्त बताते हुए कहा कि राजा ययाति का एक अत्यंत तेजस्वी और बलशाली पुत्र हुआ था “यदु”. यदु के पांच पुत्र हुए जो सहस्त्रद, पयोद, क्रोस्टा, नील और अंजिक कहलाये. इनमें से प्रथम पुत्र प्रथम पुत्र सहस्त्रद के परम धार्मिक ३ पुत्र “हैहय”, हय तथा वेनुहय नाम के हुए थे. हैहय के ही प्रपोत्र राजा महिष्मान हुए जिन्होंने महिस्मती नाम की पुरी बसाई, इन्ही राजा महिष्मान के वशंज कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन हुए जो सहस्त्रबाहू अर्थात सहस्त्रार्जुन नाम से विख्यात है. यही सहस्त्रबाहू सूर्य से दैदीप्यमान और दिव्य रथ पर चढ़कर सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत कर सप्तद्वीपेश्वर कहलाये और सम्पूर्ण विश्व में अधिष्ठित हुए. कहा जाता है कि सहस्त्र बाहू ने अत्रि पुत्र दत्तात्रेय की आराधना दस हजार वर्षो तक कर परम कठिन तपस्या की और कई दिव्य व चमत्कारिक वरदान प्राप्त किये.
वीर राजा हैहय के प्रपौत्र महिष्मान ने महिस्मती नामक जो धर्म नगरी बसाई थी वह आज भी धर्मध्वजा को लहरा रही है एवं मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में महेश्वर के नाम से प्रसिद्द है. महेश्वर शहर मध्य प्रदेश के खरगोन जिलें में माँ नर्मदा के किनारें स्थित है. राजा सहस्त्रार्जुन या सहस्त्रबाहू जिन्होनें राजा रावण को पराजित कर उसका मान मर्दन कर दिया था उन्होंने इस महेश्वर नगर की स्थापना कर इसे अपनी राजधानी घोषित किया था. यही प्राचीन नगर महेश्वर आज भी मध्यप्रदेश में शिवनगरी के नाम से जाना जाता है और जिसे पवित्र नगरी का राजकीय सम्मान भी प्राप्त है, पूर्व में महान देवी अहिल्याबाई होल्कर की भी राजधानी रहा है.
वास्तुकला और स्थापत्य कला के उच्च मान दंडों के अनुसार निर्मित यह नगर अपनें भव्य, विशाल और तंत्र-यंत्र पूर्ण किन्तु कलात्मक शिवमंदिरों और मनोरम घाटों के लिए विख्यात है. हैहय राजा महिस्मान द्वारा बसाई गई यह महेश्वर नगरी जहां कि आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का एतिहासिक, बहुचर्चित व प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था आज भी अपनें पुरातात्विक धरोहरों और सांस्कृतिक व पौराणिक विरासतों को अपनें आप में समेटें हैहय राजाओं का इतिहास गान कर रही है और अपनें पौराणिक महत्व का बखान कर रही है.
भगवान् सहस्त्रबाहू के विषय में एक कथा यह भी प्रचलित है कि इन्ही राजा यदु से यदुवंश प्रचलित आ था, जिसमे आगे चलकर भगवन श्री कृष्णा ने जन्म लिया था. शास्त्रों में कहा गया है कि यदु के समकालीन ही भगवान् विष्णु एवं माँ लक्ष्मी के नियोग के फलस्वरूप एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ और भगवान् विष्णु ने इस बालक को भगवान् शंकर जी को सौप दिया. भगवान् शंकर जी ने इस बालक की उज्जवल भविष्य रेखाओ और तेजस्वी ललाट को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए, और उसकी भुजा पर अपने त्रिभुज से “एकाबीर हैहय” लिख दिया. इसी से बालक का नाम “हैहय” हुआ, जो आज भी एक कुल नाम या जाति के रूप में प्रचलित है. देवी भागवत में यह कथा अत्यंत विस्तार व यश-महिमा के साथ उल्लेखित है.
भगवान् सहस्त्रबाहू को आराध्य मानने वाले कलार या हैहय समाज की तेजस्विता, बल और शोर्य का वर्णन करते हुए किसी कवि ने इन समाज बंधुओं के विषय कहा है कि-
हैहय वंशी जगे तो, लाते है भयंकरता,
शिव साज तांडव सा, युद्ध में सजाते है।
शत्रु तन खाल खींचा, मांस को उलीच देत,
गीध, चील, कौए तृप्त , ‘प्रचंड’ हो जाते है।।
रुंड , मुंड, काट-काट , रक्त मज्जा मेदा युक्त,
अरि सब रुंध-रुंध, गार सी मचाते है।।
बढ़ाते शक्ति उर्बर, भावी संतान हेतु,
मातृ-ऋण उऋण कर, मुक्त हो जाते है।।
भगवान् सहस्त्रबाहू के वंशजों के जाति नाम या कुल नाम या गोत्र नाम “कलार” शब्द के विषय में जो एक भ्रान्ति प्रचलित है उसका भी स्पष्टीकरण आवश्यक हो जाता है. यह शब्द कलाल, कलार या कलवार एक स्थान विशेष या क्षेत्र विशेष का नाम है जो चंद्रवंशी (सोमवंशी) कलवार राजपूतों और राजस्थान के कलवार ठिकाना के ठाकुरों का निवास क्षेत्र रहा है. उल्लेखनीय है कि इतिहास कारों के अनुसार अखंड भारत के समय कलवार राजस्थान के अलावा पाकिस्तान और अज़रबैजान में कलाल; ईरान और ईराक में कलार; अफ़ग़ानिस्तान अल्जेरिया बहरीन बर्मा ईरान इराक सऊदी अरबिया टूनीसिया सिरिया में कलाट आदि शब्दों को भी आज के कलारी अथवा कलाली से ही सम्बंधित माना जाता है.
मध्यकालीन इतिहास के वृतांतों में कलाल शबद का प्रयोग पाकिस्तान के कलाल क्षेत्र में निवासरत जातियों के सम्बन्ध में किया जाता है. उस समय मुस्लिम आक्रमणों के चलते इन जातियों का जबरन धर्मांतरण भी हुआ जिनकी वंशज जातियां अब भी उस क्ष्रेत्र में निवासरत हैं जिसे कलाल क्षेत्र कहा जाता था.
कलार शब्द का शाब्दिक अर्थ है मृत्यु का शत्रु, या काल का भी काल, अर्थात हैहय वंशियों को बाद में काल का काल की उपाधि दी जानें लगी जो शाब्दिक रूप में बिगड़ते हुए काल का काल से कल्लाल हुई और फिर कलाल और अब कलार हो गई. ज्ञातव्य है कि भगवान शिव के कालांतक या मृत्युंजय स्वरूप को बाद में अपभ्रंश रूप में कलाल कहा जानें लगा. वस्तुतः भगवान् शिव के इसी कालांतक स्वरुप का अपभ्रंश शब्द ही है “कलार”. इस कलवार या कलाल या कलार जैसे भगवान् शंकर के नाम के पवित्र शब्द का शराब के व्यापारी के अर्थों या सामानार्थी शब्द के रूप में प्रयोग संभवतः इस समाज के शराब के व्यवसाय के कारण उपयोग किया जानें लगा जो कि घोर अनुचित है. भगवान् सहस्त्रबाहू के वंशज, पुरातन या मध्यकालीन युग में कलाल या कलार इस देश के बहुत से हिस्सों के शासक रहे और उन्होंने बड़ी ही बुद्धिमत्ता, वीरता से न्यायप्रिय शासन किया किन्तु कालांतर में ये मधु या शराब का व्यवसाय करनें लगे. यद्दपि आज के युग में यह समाज शराब के अतिरिक्त और भी कई प्रकार के प्रतिष्ठा पूर्ण व्यवसायों में संलग्न होकर राष्ट्र निर्माण में अग्रणी भूमिका निभा रहा है तथापि इस समाज की सामाजिक पहचान अब भी इस व्यवसाय से ही जुड़ी हुई है.
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