रैगर (जिसे रायगर , रेगर , रायगढ़ , रानीगर और रेहगढ़ भी कहा जाता है, भारत का एक जाति समूह है। उन्हें कभी-कभी चमार जाति से जोड़ा जाता है लेकिन समाजशास्त्री बेला भाटिया उन्हें अलग मानती हैं। रैगर पंजाब , हरियाणा , गुजरात , हिमाचल प्रदेश और राजस्थान राज्यों में पाए जाते हैं।
रैगर समाज के बारे में जानकारी देते हुए, स्वामी आत्मारामजी के लेख में बताया गया है कि चित्तौड़गढ़ के युद्ध में रैगर क्षत्रियों ने हथियार लेकर हिस्सा लिया था. इससे पता चलता है कि रैगर समाज में क्षत्रिय संस्कार विद्यमान हैं.
रैगर समाज की उत्पत्ति और इतिहास के बारे में जानकारीःरैगर समाज के इतिहास के बारे में जानकारी के लिए, डॉ. पीएन रछौया की किताब 'रैगर जाति की उत्पत्ति व संपूर्ण इतिहास' का अध्ययन किया जा सकता है.
रैगर समाज को कभी-कभी चमार जाति से जोड़ा जाता है, लेकिन समाजशास्त्री बेला भाटिया उन्हें अलग मानती हैं.
रैगर समाज के लोग पंजाब, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, और राजस्थान में पाए जाते हैं.
राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में उन्हें रैगर के नाम से जाना जाता है.
रैगर समाज के इतिहास के बारे में जो भी लिखा गया है, उसमें ऐतिहासिक तथ्यों की खोज न कर मनगढ़त और काल्पनिक बातों का ज़्यादा ज़िक्र किया गया है.
रैगर समाज के इतिहास की रचना के लिए, ऐतिहासिक और भौगोलिक आधार पर सही प्रमाण दिए गए हैं.
रैगर समाज के इतिहास की रचना के लिए, राजस्थान सरकार के गजट का भी आधार लिया गया है.
‘रैगर’ शब्द की तरह रैगर जाति की उत्पत्ति के संबंध में भी विद्वानों के विभिन्न मत है ।
इस संबंध में इतिहास में उपलब्ध सामग्री के आधार पर हम यहां विचार करेंगे । खोज करने से पता चला कि चन्द्रवती के राज अग्रसेन के नाम पर आगरा और अग्रोहा नगर बसाये गए । अग्रोहा (पंजाब) पर राजा नन्दराज के समय सिकन्दर महान् ने आक्रमण किया था । मगर पूर्ण विजय प्राप्त नहीं कर सका ।
पं. ज्वाला प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘जाति भास्कर’ तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी जातियों की खोज’ में लिखा है कि सम्वत् 1250 के लगभग शहाबुद्दीन गौरी ने अग्रोहा के राजा दिवाकर देव पर आक्रमण करके नगर को तहस-नहस कर दिया । राजा दिवाकर देव सपरिवार धर्म परिवर्तन कर जैनी हो गया । वहां के अग्रवाल जो सगरवंशी पुकारे जाते थे, वे भाग कर पंजाब के भटिण्डा और आस-पास के 22 गांवों – करटड़ी, खीबर, ज्ञानमण्ड, चंडुमण्ड, जगमोहनपुरा, टोपाटी, डमानु, ताला, दामनगढ़, धौलागढ़, नेनपाल, पीपलसार, फरदीना, बरबीना, भूदानी, मैनपाल, रतनासर, लुबान, सिंहगौड़, हरणोद, आवा और उदयसर आदि में आकर बस गए और अपने को रंगड़ राजपूत कहने लगे ।
जाति इतिहास विद डॉ . दयाराम आलोक के अनुसार सन 1308 में फिरोजशाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा । उसने भटिण्डा पर आक्रमण किया और एक घण्टे में दस हजार हिन्दुओं को मौत के घाट उतारा । हिन्दुओं को गौ मांस खाने के को बाध्य किया गया । रंगड़ राजपूतों पर भी इसी तरह के भारी अत्याचार किए गए । इन्हीं रंगड़ राजपूतों को ‘रैगर’ शब्द से सम्बोधित किया गया जो आज भी प्रचलित है । रैगर जाति की उत्पत्ति रंगड़ राजपूतों से हुई है और रैगर सगरवंशी है ।

श्री बजरंगलाल लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थान की जातियां’ में रेहगर (रैगर) नाम जाति की उत्पत्ति निम्नानुसार बताई है- ”मालवा प्रांत के मदूगढ़ स्थान में स्थित रैदास जाति के लोगों से रेहगर जाति के लोग अपनी जाति की उत्पत्ति बताते हैं । ……….. इस नाम की उत्पत्ति रैदास के नाम पर आश्रित है इसी नाम से जयपुर में विख्यात है । जोधपुर नगर में तथा मारवाड़ के अन्य भागों में यह लोग जटिये कहलाते हैं । संभवत: इसका कारण यह है कि जाटों के साथ रहने के कारण इनकी स्त्रियां जाट स्त्रियों के सद्दश्य वेश में रहने लगी है । पशुओं की खालों को रंगने के कारण बीकानेर में यह रंगिये कहलाते है । राजस्थान के रेहगर जनेऊ पहनते है और सात फेरों की प्रथा से विवाह करते हैं ।” श्री बजरंगलाल लोहिया का यह मत सही नहीं है, कपोल कल्पित है । रैगर जाति की उत्पत्ति रैदासजी के पैदा होने से 1400 वर्षों से भी अधिक पहले हो चुकी थी तथा रैदासजी जाति से चमार थे ।
जनगणना राजस्थान मारवाड़ सन् 1891 में रैगर या जटिया जाति की उत्पत्ति के संबंध में लिखा है कि ”रैदास के दो औरतें थी । एक की औलाद चमार रही और दूसरी की रैगर हुई । कोई यह भी कहते है कि भगत कहलाने से पहले रैदास चमार कहलाते थे
तथा भगत कहलाने के पीछे की रैगर कहलाई ।
रैगर जाती को जटिया कहे जाने की वजह यह है कि इनकी औरतें जाटनियों की तरह पॉंव में पीतल के पगरिये और घागरे की जगह धाबला पहनती है । जटियों को बीकानेर में रंगिये और मेवाड़ में बूला कहते है । रैगर वैष्णव धर्म रखते है । रैगर जनेउ पहिनते है तथा गंगाजी को अपने अरस-परस समझते है ।” मरदुम शुमारी की इस रिपोर्ट में रैगर जाति की उत्पत्ति संबंधीत जो भी उल्लेख किया गया है वो बेवुनियाद और भ्रांतियां उत्पन्न करने वाला है । रैदासजी के एक ही औरत थी जिसका नाम लोना था तथा एक ही औलाद थी जिसका नाम विजयदास था ।
इस रिपोर्ट में रैगर जाति की उत्पत्ति के संबंध में लिखते समय इतिहास के तथ्यों को भी भुला दिया गया ।
श्री ओमदत्त शर्मा गौड़ ने अपनी पुस्तक ‘लुणिया जाति-निर्णय’ में लिखा है- कि ”लुणिया, लूनिया, नूनिया, नौनिया, नूनगर, शोरगर, नमकगर, रेहगर, खाखाल, खारौल, लवाणा, लबाणा, लबाजे, लवणिया, लोयाना, लोहाणे, लोयाणे, नूनारी, नूनेरा, आगरी आदि कई जातियॉं न होकर भारत वर्ष की प्रसिद्ध क्षत्रिय जाति के एक भेद के ही भिन्न-भिन्न नाम हैं, जो प्राचीन विपत्तियों के फलस्वरूप उद्योग-धन्धे अपना लेने तथा भिन्न-भिन्न जगहों में रहने व पुकारे जाने के कारण पड़ गए हैं ।” लेखक ने लूणिया जाति को सूर्यवंशी सिद्ध किया है । इस मत के अनुसार भी रेहगर (रैगर) क्षत्रिय हैं तथा सूर्यवंशी हैं ।
राजस्थान प्रान्तीय हिन्दू महासभा अजमेर ने कई प्रमाण देकर रैगरों की उत्पत्ति ‘गर’ क्षत्रियों से बताते हुए उनके साथ क्षत्रियों जैसा व्यवहार करने की अपील जारी की थी । यह अपील निम्नानुसार है- ”यह प्रमाणित किया जाता है कि शास्त्रों, इतिहास और प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि यह रैगर जाति ‘गर’ क्षत्रियों से उत्पन्न हुई है । अत: सब हिन्दू (आर्य) नर-नारियों से निवेदन है कि वे इनके साथ क्षत्रियों के समान पूर्ण व्यवहार करें ।
” यह अपील साप्ताहिक ‘आवाज’ दिनांक 28 जुलाई, 1941, वर्ष 2 अंक 42 में जारी की गई थी । इसमें रैगर जाति की उत्पत्ति ‘गर’ क्षेत्रियों से मानी है ।
प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने गर, गौर, गोरा तथा गौड़ को एक ही माना है और इतिहास से एक ही प्रमाणित किया है । गौड़ चन्द्रवंश की शाखा है । अत: गर क्षत्रिय चन्द्रवंशी हैं जबकि
इतिहास से यह प्रमाणित हो चुका है कि रैगर सूर्यवंशी क्षत्रीय हैं ।
अत: गर क्षत्रियों से रैगर जाति की उत्पत्ति संबंधी यह मत सही नहीं है । रैगर गर क्षत्रिय नहीं है ।
रैगर जाति के संबंध में एक मत यह भी है कि कई स्वतन्त्र जातियों ने युद्ध में हारी हुई जातियों को अपने कार्य हेतु, अपने में मिला लिया । जैसे जटिया जाटों से ही संबंधित है । मगर यह मत सही नहीं है । जटिया रैगर का पर्यायवाची शब्द है तथा जटिया शब्द क्षेत्रीय प्रभावों से जुड़ गया है । रैगर जाति की उत्पत्ति रंगड़ राजपूतों से हुई है, जाटों से नहीं ।
पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी ने अपनी पुस्तकों में रैगर जाति की उत्पत्ति इतिहास के तथ्यों के आधार पर दी है । इन्होंने रैगर जाति की उत्पत्ति इतिहास के तथ्यों के आधार पर दी है । इन्होंने रैगर जाति की उत्पत्ति आज से लगभग 600 वर्ष पहले होना प्रमाणित किया है मगर यह तथ्य सही नहीं है ।
हुरड़ा का शिलालेख प्रकाश में आ चुका है । यह शिलालेख लगभग 1003 वर्ष प्राचीन है । इस शिलालेख से यह ठोस रूप से प्रमाणित होता है कि आज से 1003 वर्ष पूर्व भी यह जाति ‘रैगर’ नाम से पुकारी जाती थी तथा यह जाति आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी अस्तित्व में थी ।
इसके अलावा फागी के बही भाटों की पोथियों में इस बात का विस्तृत उल्लेख है कि विश्व विख्यात तीर्थराज पुष्कर का प्रसिद्ध गऊघाट गुन्दी निवासी बद्री बाकोलिया ने सम्वत् 989 में बनवाया । इस तथ्य को अजमेर के न्यायालय ने भी माना है । गऊघाट का निर्माण आज से 1050 वर्ष पूर्व हुआ था । अत: यह जाति और गौत्र 1050 वर्ष पूर्व भी मोजूद थी ।
बही भाटों की पोथियों में रैगरों का विस्तृत और विश्वसनीय वर्णन है । इन सब तथ्यों को देखने यह प्रमाणिक रूप से कहा जा सकता है कि रैगर जाति हजारों वर्ष प्राचीन जाति है । शिलालेखों तथा बही भाटों की पोथियों को गलत नहीं माना जा सकता ।
यह तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि रैगर जाति की प्राचीनता हजारों वर्षों की है मगर पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी के मत से यह अवश्य प्रकट होता है कि इस जाति ने सम्वत् 1408 के बाद ही निम्न कर्म अपनाए यद्यपि इससे पहले भी यह जाति अस्तित्व में थी मगर इस जाति के कर्म उच्च थे ।
बही भाट स्वयं यह मानते हैं तथा उनकी पोथियों में स्पष्ट उल्लेख है कि इस जाति के कर्म पहले उच्च थे तथा कालांतर में किन्हीं परिस्थितियों के कारण निम्न कर्म अपना लिए । इन सब तथ्यों से ऐसा प्रकट होता है कि इस जाति ने आज से लगभग 600 वर्ष पूर्व निम्न कर्म अपनाए और इससे पहले अपने क्षत्रिय कर्म को ही अपनाए हुए थे ।
पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी का मत रैगर जाति की उत्पत्ति का नहीं बल्कि रैगर जाति के कर्म परिवर्तन का मत प्रतीत होता है । पं. ज्वाला प्रसाद तथा रमेशचन्द्र गुणार्थी ने सम्वत् 1250 तथा सम्वत् 1408 में हुए मुगल आक्रमणों का वर्णन दिया है उन पर दृष्टि डालें तो वह काल कर्म परिवर्तन का जेहाद छेड़ रखा था । उन परिस्थितियों में क्षत्रिय निम्न कर्म अपना कर या धर्म परिवर्तन कर ही जीवित रह सकते थे । अत: उस समय के हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह काल कर्म और धर्म परिवर्तन का काल था । इसलिए यह ज्यादा उचित प्रतीत होता है कि इस काल में इन रैगर क्षत्रियों ने अपने क्षत्रिय कर्म बदल कर निम्न कर्म अपना लिए तभी से इन को निम्न जातियों में शुमार कर दिया गया ।
शूद्रों की उत्पत्ति के सम्बंध में खोज पर सर्वप्रथम शूद्रों के महान नायक डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कलम उठाई थी । उन्होंने 1947 में Who were the Sudras ग्रन्थ लिखा जिसमें अपने सम्पूर्ण जीवन के अनुभव एवं अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि शूद्रों की उत्पत्ति आर्य क्षत्रियों के उस सूर्यवंशी वर्ग में से हुई है जिनका ब्राह्मणों ने वैमनस्य के कारण उपनयन संस्कार करने से करने से मनाही कर दी थी । महाभारत के शान्तिपर्व (बारह-60, 38-40) में वर्णन आया है कि पैजवन शूद्र राजा था और उसने यज्ञ करवाया था । ब्राह्मणों ने उसे उपनयन (यज्ञोपवित संस्कार) के अधिकार से वंचित कर दिया था ।
डॉ. अम्बेडकर द्वारा उपरोक्त पुस्तक लिखे जाने के बाद शूद्रों की उत्पत्ति के विषय में नई ऐतिहासिक खोजें हुई है । ‘सिंधु घाटी सभ्यता के सृजनकर्ता शूद्र और वणिक ॽ’ के
लेखक नवल वियोगी का मत है कि- ”शूद्रों की उत्पत्ति क्षत्रियों में से हुई मगर वे क्षत्रिय आर्य नहीं अनार्य थे । वे सिंधु घाटी के वीर शासक आयुद्ध जीवी वर्ग की संतान थे ।” रामशरण शर्मा ने अपने ग्रन्थ ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ तथा सुन्दरलाल सागर ने अपनी पुस्तक ‘द्रविड़ और द्रविड़ स्थान’ में शूद्रों की उत्पत्ति द्रविड़ों से मानी है जो सिंधु घाटी के सृजनकर्त्ता थे ।
वे अनार्य क्षत्रीय आयुद्धधारी, वीर योद्धा और बलवान थे । अत: अधिकांश विद्वान इस बात को मानते है कि शूद्र अनार्य (द्रविड़) क्षत्रीय थे । उनमें क्षत्रियों के गुण थे । इस आधार पर भी रैगरों की उत्पत्ति क्षत्रियों से ही प्रमाणित होती है ।
डॉ. अम्बेडकर ने शूद्रों की उत्पत्ति सूर्यवंशी क्षत्रियों से मानी है । इसलिए रैगर भी सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं । बही भाटों की पोथियों का उल्लेख किये बिना रैगर जाति की उत्पत्ति के संबंध में निष्कर्ष निकालना न्याय संगत नहीं है । इतिहास की पुस्तकों में रैगर जाति का कहीं भी उल्लेख नहीं है । रैगरों के बही भाटों की पोथियॉं ही एक मात्र ऐसे लिखित दस्तावेज हैं जिसमें इस जाति के बारे में सब कुछ तथा विस्तृत रूप से लिखा हुआ है । उन्हें समझने की आवश्यकता है ।
जब से बही भाटों ने पोथियॉं लिखनी शुरू की है तब से आज दिन तक उनकी पोथियों में रैगरों के गोत्रों तथा वंशावलियों का विस्तृत वर्णन है । बही भाट रैगरों के कुल 356 गोत्र बताते हैं । प्रत्येक गोत्र का इतना विस्तृत वर्णन दिया हुआ है कि उसकी उत्पत्ति किस स्थान से तथा किस वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) से हुई । उस मूल वर्ण में रहते उनकी इष्ट देवी कौन थी, कौन सी पीढ़ि में निम्न कर्म अपनाये आदि उल्लेख है ।
बही भाटों से यदि यह पूछा जाय कि रैगर जाति की उत्पत्ति कब हुई तथा इसने निम्न कर्म कब अपनाए तो वे इसका जवाब नहीं दे सकते । इसका कारण यह है कि हर गोत्र की उत्पत्ति अलग-अलग समय और स्थान से हुई तथा अलग-अलग समय में कर्म परिर्वतन किये । रैगरों के तमाम गोत्रों का विस्तृत वर्णन उनकी पोथियों में मौजूद है । उन्हीं को समझ कर सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है । अत: रैगर जाति की उत्पत्ति की सही जानकारी बही भाटों की पोथियों में ही मिल सकती है । मैंने (चन्दनमल नवल) उनकी बहियों से यह जानकारी लेने की कोशिश भी की मगर निम्न कारणों से यह जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी ।
पहला कारण तो यह है कि रैगरों की तमाम 356 गोत्रों की जानकारी बही भाटों की एक पोथी में उपलब्ध नहीं है । इनकी पोथियॉं पीढ़ि दर पीढ़ि बढ़ती जाती है । आज एक बही भाट के पास एक गोत्र की पोथी है । वह जिस गोत्र को मांगता है उसी गोत्र की पोथी उसके पास है । इस तरह पूरे भारत में घूम कर सभी बही भाटों से जानकारी लेना किसी एक व्यक्ति के लिये संभव नहीं है । दूसरा कारण यह है कि बही भाट किसी एक व्यक्ति विशेष को गोत्रों की जानकारी देने को तैयार नहीं हैं । उनका कहना है कि रैगर जाति में कई ऐसे गोत्र है जो निम्न जातियों से आकर मिले हैं । उन गोत्रों की उत्पत्ति के सही कारण बताने पर यजमान नाराज होंगे जिसका सीधा असर हमारी रोजी-रोटी पर पड़ेगा । मगर वे इस बात के लिए तैयार है कि यदि अखिल भारतीय रैगर महासभा या प्रान्तीय रैगर महासभा आदेश दें तो पोथियों उनके सामने किसी भी समय पेशकर सकते है ।
रैगर जाति की उत्पत्ति का सही स्त्रोत बहीभाटों की पोथिया ही हैं ।
अखिल भारतीय रैगर महासभा तथा प्रान्तीय रैगर महासभा जब महा सम्मेलनों पर लाखों रूपये खर्च कर सकती है तो इस महत्वपूर्ण काम को अविलम्ब प्राथमिकता के आधार पर हाथ में लेना चाहिये ।
इतिहास की किताबों में रैगर जाति की उत्पत्ति ढूंढना अंधेरे में हाथ मारने के समान है । रैगर जाति की उत्पत्ति की सही जानकारी बही भाटों की पोथियों में ही मिल सकती है ।
रैगरों में काफी लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर पहुँचे हैं । आज सरकारी सेवाओं में अखिल भारतीय एवम् प्रांतीय स्तर के सर्वेच्च पदों पर रैगर नियुक्त हैं और सफलतापूर्वक अपने दायित्वों को निभा रहे हैं ।
सूर्यवंशी रेगर समाज की कुलदेवी गंगा मैया है