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16.2.25

कायस्थ जाति ब्राह्मण है ,क्षत्रीय है या शूद्र है |जानिए असली इतिहास

 

कायस्थ समाज की उत्पत्ति का विडिओ 


कायस्थ भारत में रहने वाले हिन्दू समुदाय की एक जातियों का वांशिक कुल है। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं। कायस्थ को वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण वर्ण धारण करने का अधिकार प्राप्त है।

चित्रगुप्त की संतानों को कायस्थ कहा गया है। हालांकि, कायस्थों को ब्राह्मण के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। परंपरागत रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र जैसे चार वर्णों में विभाजन होता है, और कायस्थों को एक अलग वर्ण के रूप में देखा गया है, जो शासकीय कार्यों और प्रशासन में विशेषज्ञ थे।

वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिन्दुओं को ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चार वर्णों में विभाजित किया गया है। कायस्थ जाति, जो कि वास्तव में क्षत्रिय वर्ण में आती है, पर उस समय प्रश्न चिन्ह लग गया जब कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक मुकदमे में श्री श्यामाचरण सरकार द्वारा लिखित पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर यह घोषित कर दिया कि बंगाल के कायस्थ शूद्र हैं, क्योंकि वह अपना कुल नाम ‘वर्मा’ के स्थान पर ‘दास’ लिखते हैं और उनके यहा उपनयन संस्कार भी नहीं होता है।


उक्त मुकदमें में न तो कोर्इ जाच की गर्इ और न इस पर विचार ही किया गया बलिक उपरोक्त पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर अपने निर्णय को अनितम रुप से सही माना गया।

लेकिन ईश्वरी प्रसादनाम राय हरिप्रसाद, केस में पटना हाई कोर्ट ने इस सम्बन्ध में पर्याप्त जांच पड़ताल करने, उपनिषदों व धार्मिक पुस्तकों तथा उच्चकोटि के लेखकों की पुस्तकों का गहन अध्ययन करने तथा बनारस के विद्वान ब्राह्राण से विचार विमर्श करने के उपरान्त यह निर्णय दिया कि कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है। उक्त द्वितीय अपील पर पटना हार्इ कोर्ट ने इस बिन्दु पर निम्नलिखित विवेचना की है :-
‘व्यवस्था दर्पण’ में वर्णित दृषिटकोण, जिसके आधार पर कलकत्ता हार्इ कोर्ट ने निर्णय दिया था, जिसको प्रमुख हिन्दु वकीलों ने स्वीकार नहीं किया। श्री गोपाल चन्द्र शास्त्री ने हिन्दू ला पर लिखित अपनी पुस्तक (1924) में पृष्ठ सं0 143 पर कहा है कि यह हिन्दू जाति के लिए आश्चर्यजनक है। श्री सर्वाधिकारी ने अपनी पुस्तक ज्ीम च्तपदबपचसमे व भिपदकन स्ंू व पिदीमतपजंदबम ;1923द्ध के पृष्ठ सं0 835 पर कहा है कि यह निर्णय सही नहीं है और इसने बंगाल की समस्त कायस्थ जाति को कठोर आघात पहुचाया है। इसी प्रकार के विचार श्री जोगेन्द्र चन्द्र घोष ने अपनी पुस्तक श्ज्ीम च्तपदबपचसमे व भिपदकन स्ंू ;1917द्धश् के पृष्ठ संख्या 1006 पर व्यक्त किये हैं। इन वकीलों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया है कि कायस्थ जोकि सर्वमान्य रुप से क्षत्रिय थे, अब शूद्र बन गये हैं और न इन बातों को स्वीकार किया है कि यदि यह सच भी हो कि कायस्थों ने यज्ञोपवीत धारण करना छोड़ दिया है तथा वे अपना कुल नाम ‘दास’ लिखते हैं, तो भी कोर्इ कारण नहीं है कि उनकी जाति की अवनति हो जावे। इन बिन्दु पर श्री सर्वाधिकारी ने अपनी विद्वतापूर्ण पुस्तक श्ज्ीम संहवतम स्ंू ज्मबजनतमे व 18ि80श् के पृष्ठ सं0 830 (1923 संस्करण) में लिखा है कि :-
‘यज्ञोपवीत धारण करना’ जो कि द्विज श्रेणी के लोगों का सर्वविदित चिन्ह है, भी इस कष्टदायक प्रश्न की असनिदग्ध परीक्षा नहीं है। बहुत से ऐसे ठाकुर तथा बनिये पाये जाते हैं जो कि द्विज श्रेणी के होने पर भी यज्ञोपवीत धारण नहीं करते हैंं। किसी व्यकित की जाति निशिचत करने के लिए केवल एक ही सुरक्षित उपाय है कि उसके सामाजिक आचार-विचार तथा रीति-रिवाज को देखा जाय। विधवाओं का पुनर्विवाह, समान अधिकार, वैध तथा अवैध पुत्रों के विशेष अधिकार तथा इसी प्रकार के अन्य रीति-रिवाज ऐसे चिन्ह हैं जिनसे शूद्र पहचाने जा सकते हैं। विद्वान लेखक ने अगले पृष्ठों में 831 से 835 तक इस प्रश्न को निकट से जाचा तथा श्रुतियों तथा पुराणों, मातहत अदालतों के निर्णयों, प्रमुख गजेटियरों, सदर दीवानी अदालत, पंडितों के दर्पणों आदि के मूल पाठों जिनके द्वारा बिहार तथा उत्तर पशिचम प्रान्तों के कायस्थ नियमित होते हैं, के सन्दर्भ में जाच की तथा निशिचत किया कि कायस्थ द्विज की श्रेणी में आते हैं और वे क्षत्रिय हैं। कायस्थ किसी भी अर्थ से शूद्र नहीं हैं। वह गम्भीरता से प्रश्न करते हैं कि यदि कोर्इ ऊची जाति का व्यकित अपने कुछ रीति-रिवाजों को छोड़ दे ंतो क्या वह स्थार्इ रुप से अपनी जाति से नीचे गिर जावेगा, और यदि वह अपने पूर्व रिवाजों को पुन: अपना लें, जैसा कि वर्तमान वर्षों में कुछ बंगाली कायस्थों ने किया भी है, तो उसकी जाति की क्या सिथति होगी। कलकत्ता केस के बारे में वो कहते हैं कि न तो उक्त मुकदमें में बहस की गर्इ और न उसे तय ही किया गया। केवल ‘व्यवस्था दर्पण’ में श्री श्यामाचरण सरकार की राय को इस बिन्दु पर निर्णायक माना गया था। वह कहते हैं कि बंगाल के कायस्थ शूद्र नहीं हो सकते।
इन उदाहरणों को ऐसे कायस्थों के सम्बन्ध में, जो कि मूल से क्षत्रिय हैं, प्रयुक्त नहीं करना चाहिए यधपि वे अवनति पाये हुए क्षत्रिय हों तो भी। एक व्यकित जो द्विज श्रेणी से सम्बनिधत हो, अपने उन अधिकारों से वंचित नहीं हो सकता जो उसे उक्त श्रेणी द्वारा प्राप्त हैं चाहें वह सामाजिक रुप से निम्न दृषिट से देखा जाता हो।
जहां तक उत्तर पशिचमी प्रान्तों तथा बम्बर्इ के कायस्थों का प्रश्न है जिसमें बिहार के कायस्थ भी समिमलित हैं, श्री सर्वाधिकारी कहते हैं कि वह उन्हीं नियमों से शासित होने चाहिए जिनसे कि द्विज श्रेणी के लोग शासित होते हैं। श्री गोलायचन्द्र सरकार का भी गोद लेने तथा हिन्दू ला सम्बन्धी पुराणों, याज्ञवलक्य तथा मित्ताक्षर के मूल पाठों की भी निकट से जांच की। उनका विचार है कि कायस्थ क्षत्रिय हैं तथा रीति-रिवाजों के बिना देख हुए ऊची जाति की नीची जाति में अवनति नहीं की जा सकती, जिससे कि उसके नागरिक अधिकार प्रभावित हों। वह कहते हैं कि किसी भी व्यकित की जाति वंश परम्परा से नहीं होती थी बलिक मनु स्मृति के सूर पाठ के अनुसार के अनुसार जाति उसके उध्यवसाय तथा आचार-विचार पर होती थी। परन्तु समय व्यतीत होने पर यह मामला वंश परम्परा का बन गया और गुण दोषों का आधार छोड़ कर लड़का अपने पिता की जाति पाने लगा। रीति रिवाजों के छोड़ने पर कोर्इ भी द्विज श्रेणी का व्यकित अपनी जाति से अवनत नहीं हुआ। यदि ऐसा होता तो हिन्दुओं में शूद्र के अतिरिक्त कोर्इ जाति नहीं होती क्योंकि द्विज श्रेणी के बहुत ही कम व्यकित ऐसे हैं जो कह सकें कि उन्होंने तथा उनके पूर्वजों ने अपनी जाति सम्बन्धी समस्त कर्तव्यों का पालन किया है। फिर द्विज श्रेणी के कायस्थ ही जाति में अवनत होकर रुढि़वादिता के कारण शूद्र कैसे हो सकते हैं, वह आगे कहते हैं कि इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि समस्त बातों में कायस्थ लोग क्षत्रियों के समस्त आचार विचारों का पालन करते हैं।
उपरोक्त हिन्दू वकीलों का मत, स्मृतियों तथा पुराणों, कायस्थों की सामाजिक सिथतियों साथ ही साथ उनके द्वारा अपनाये गये विवाह तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों सम्बन्धी रीति रिवाजों पर आधारित है। कलकत्ता हार्इ कोर्ट का निणर्य पूर्ण रुप से श्यामाचरण की पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ पर आधारित है। इस निर्णय की सत्यता पर इलाहाबाद हार्इ कोर्ट ने संदेह व्यक्त किया है तथा प्रीवी काउनिसल ने भी इस बिन्दु को खुला छोड़ दिया है।
ऋषियों की स्मृति जैसे कि मनु, याज्ञवल्क्य, व्यास, वशिष्ठ आदि ने मनुष्यों को चार वर्णों ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित किया है, मनु ने अघ्याय दस श्लोक चार में कहा है कि इनके अतिरिक्त पाचवां वर्ण नहीं है। अत: कायस्थों को इन चारों वर्णों में से से किसी एक में स्थान देना है। महाभारत दृढ़ता पूर्वक घोषित करती है कि आरम्भ में इन श्रेणियों में कोर्इ भेद भाव नहीं था। परन्तु बाद में आचार विचार तथा व्यवसाय के आधार पर भेदभाव उत्पन्न हो गया।
पदम पुराण के उत्तराखण्ड में वर्णित है कि चित्रगुप्त की दो पतिनयों से प्राप्त 12 पुत्र यज्ञोपवीत धारण करते थे तथा उनके विवाह नाग कन्याओं से हुए थे। वे कायस्थों की बारह उपजातियों के पूर्वज थे। यह कथा कहती है कि कायस्थ चित्रगुप्त वंशी क्षत्रीय हैं और किसी भी दशा में शूद्र नहीं हैं। वे समस्त संस्कारों के अधिकारी हैं। यही कथा थोड़े बहुत अन्तर के साथ अधिकतर पुराणों में दी गयी है। पदमपुराण में उपरोक्त कथा के पश्चात लिखा गया है कि :
‘चित्रगुप्त’ को धर्मराज के निकट जीवों के अच्छे व बुरे कर्मों का लेखा जोखा लिखने के लिए रखा गया। उनमें आलोकिक बुद्विमता थी और वो अग्नि तथा देवताओं को चढ़ाई जाने वाली बलि के भाग प्राप्त करने के अधिकारी थे। इसी कारण से द्विज श्रेणी के लोग उन्हें अपने भोजन में से भोग लगाते हैं।
पदम पुराण के सृषिट खण्ड में भी कहा गया है कि कायस्थों के धार्मिक संस्कार तथा अध्ययन ब्राह्राणों के समान तथा उनका व्यवसाय क्षत्रियों के समान होनी चाहिए। भविष्य पुराण मे कहा गया है कि सृषिटकर्ता र्इश्वर ने चित्रगुप्त को नाम तथा कर्तव्य निम्नलिखित अनुसार निशिचत किये।
सृष्टि कर्त्ता ब्रह्माजी ने चित्रगुप्त को कहा कि तुम मेरी काया से प्रकट हुए हो इसलिए तुम कायस्थ कहलाओगे तथा संसार में चित्रगुप्त के नाम से विख्यात होगे। तुम्हें शास्त्रों के अनुसार क्षत्रियों के रीति रिवाज तथा धर्म विधान का पालन करना चाहिए।’
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं, जो कि निम्नवत स्पष्ट हैं :-
‘धर्मराज चित्रगुप्त:
श्रवणों भास्करादय:
कायस्थ तत्र पश्यनित
पाप पुण्यं च सर्वश:’
‘शब्द कल्पद्रुम’ में यम संहिता की ंव्याख्या में कहा गया है, ‘ब्रह्राकाय समुदभूतो’।
‘ब्रह्राकाय समुदभूतो
कायस्थों ब्रह्रा संज्ञक:
कलौ हि क्षत्रियस्तस्य
जययज्ञेषु राजतम’
‘कि
कायस्थ जो ब्रह्रााजी की काया से प्रकट हुए हैं उनकी ब्राह्राण के समान पदवी है परन्तु कलि-युग में उनके धार्मिक रीति रिवाज तथा कर्तव्य क्षत्रियों के समान होंगे।’
जिसके अनुसार आज भी कहीं कहीं कायस्थों में शस्त्र पूजन का प्रचलन है।
डब्लू क्रुक, जो बंगाल सिविल सर्विस में थे, ने अपनी पुस्तक श्ज्तपइमे ंदक ब्सेेंमे व जिीम छवतजी मेजमतद च्तवअपदबमे ंदक व्नकीए टवसनउम प्प्प्श् के पृष्ठ संख्या 184 से 213 में कायस्थों के बारे में लिखा है। उन्होंने पौराणिक कथाओं तथा उनकी मूल वृद्वि का वर्णन किया है, जिनका सन्दर्भ पहले ही दिया जा चुका है। उनके संयुक्त पूर्वज चित्रगुप्त थे।

चित्रगुप्त के बारह लड़के भानु, विभानु, विश्व भानु, बृजभान, चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण तथा अतिन्द्रीय थे। कायस्थों की 12 उपजातियां इन्हीं 12 पुत्रों से चलीं।
भानु से श्रीवास्तव,
विभानु से सूर्यध्वज,
विश्वभानु से अस्थाना,
वृजवान से बाल्मीकि,
चारु से माथुर,
सुचारु से गौड़,
चित्र से भटनागनर,
मतिमान से सक्सेना,
हिमवान से अम्बष्ठ,
चित्रचारु से निगम,
अरुण से कर्ण
तथा
अतीन्द्रीय से कुलश्रेष्ठ वंश चले।
भानु, जो कि श्रीवास्तवों के पूर्वज थे, कश्मीर में जाकर बसे, वह वहा श्रीनगर के राजा बने तथा चन्द्रगुप्त (मगध के राजा) से राजाधिराज की उपाधि प्राप्त की। विभानु जो कि सूर्यध्वजों के पूर्वज थे, ने इक्ष्वाकु वंश के राजा सूर्यसेन से उपाधि पायी क्योंकि उन्होंने एक बलिदान में उनकी सहायता की थी। विश्वभानु जो कि अस्थाना कायस्थों के पूर्वज थे, को बनारस के राजा ने सम्मानित किया और उन्हें अष्ट (आठ) प्रकार के बहुमूल्य मोती भेंट किये जिसके कारण वह अस्थाना कहलाये। बृजभान, जो कि बाल्मीकि के पूर्वज थे, ने बाल्मीकि नाम अपने आत्मसंयम तथा धार्मिक चिन्तन के कारण पाया। चारु के वंशज मथुरा में बसने के कारण माथुर कहलाये। सुचारु के वंशज बंगाल की पुरानी राजधानी गौर या गौड़ के नाम पर गौड़ कहलाये। इस उपजाति ने सैन राजवंश की नींव डाली और कहा जाता है कि उनके पूर्वज भागदत्त महाभारत के युद्व में युधिष्ठर के विरुद्व दुर्योधन की ओर से लड़े थे। उनमें से राजा लालसैन एक अन्य प्रसिद्व राजा हुए थे। इस राज वंश के अनितम राजा लक्ष्मण थे। बख्तयार खिल्जी ने गौड़ कायस्थों को राज्यच्युत कर दिया। भटनागर उपजाति ने यह नाम भट नदी के किनारे पर अथवा पुराने कस्बे भटनेर में निवास करने के कारण पाया। सक्सेना उपजाति साहितियक थी तथा युद्व में उनके बुद्वि कौशल के कारण श्री नगर के श्रीवास्तव राजा ने उन्हें ‘सेना के मित्र’ की उपाधि प्रदान की थी। उनके पूर्वजों में से एक सूरज चन्द्र अथवा सोमदत्त को श्री रामचन्द्र जी के पुत्र कुश ने उनके कोषाध्यक्ष के रुप में र्इमानदार होने के कारण उन्हें ‘खरवा’ की उपाधि दी थी। अत: ‘खरवा’ सक्सेना उपजाति का सम्प्रदाय बन गया। अम्बष्ठ देवी अम्बा जी की आराधन करने के कारण कहलाये, जो कि हिमवान के वंशज थे। अम्बष्ठ उपजाति बिहार के पटना तथा गया जनपदों में पार्इ जाती है।
अरुण के वंशज कर्ण जैसा कि मि0 क्रुक का कथन है, पूर्ण रुप से आर्यों की उपजाति है। इनका नाम नर्मदा के करनाली के ऊपर पड़ा। यह उड़ीसा में लेखक वर्ग के रुप में विख्यात हैं। कायस्थों की विभिन्न उपजातियों के बारे में मि0 क्रुक का कथन है कि कायस्थों ने राजवंशों की स्थापना की तथा राजा एवं राजाधिराज बने। वह रणभूमि में लड़े तथा लड़ाई में अपने बुद्वि कौशल का प्रदर्शन किया, जिसके कारण राजाओं तथा जनता से सम्मान पाया| उनके रीति रिवाज, धार्मिक अनुष्ठान तथा विवाह आदि उच्च जाति नियमों के अनुसार होते हैं। एक ही अल्ल में विवाह नहीं होते हैं तथा इसके लिए पिता तथा माता के वंशों का ध्यान रखा जाता है। एक से अधिक पति तथा पत्नी रखने पर कड़ा प्रतिबन्ध है। विधवाओं की दुबारा शादी करना पूर्ण रुप से वर्जित है। वे चित्रगुप्त की पूजा करते हैं, उपरोक्त विवेचना के अनुसार पटना हाई कोर्ट ने सन 1962 में निर्णय दिया है कि कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है।

कायस्थ नॉन-वेज क्यों खाते हैं?

भारत के अधिकांश हिंदू समुदायों के विपरीत, कायस्थों ने मुगल सम्राटों के दरबार में मांस के प्रति इतना अधिक झुकाव विकसित कर लिया कि आज, इस समाज मे  मांसाहारी भोजन अधिक व्यापक रूप से प्रचलित है |
कायस्थ जाति की कुलदेवी अम्बा माता हैं. कायस्थ समाज के लोग भगवान चित्रगुप्त की भी पूजा करते हैं.
कायस्थ जाति के लोग कलमकांडी महाजाति के हिस्सा हैं.
कायस्थ जाति के राजा टोडरमल मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में शामिल थे.
अबुल फ़ज़ल के मुताबिक, बंगाल के ज़्यादातर ज़मींदार भी कायस्थ जाति के ही थे.
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