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1.3.25

बलाई -मालवीय-मेहर जाति की जानकारी /History of Balai Caste

 




बलाई समाज के लोग हिंदू हैं.
बलाई समुदाय के लोग  विगत  वर्षों  मे  मालवीय अथवा मेहर सरनेम  से भी पुकारे जाने लगे हैं| 
वे माँ दुर्गा, माँ चामुंडा, और माँ कालरात्रि के भक्त हैं.
वे बाबा रामदेव जी को भी श्रद्धांजलि देते हैं.
कालरात्रि को अपनी कुलदेवी मानते हैं.
बलाई समाज के लोग पारंपरिक हिंदू त्योहार मनाते हैं जैसे होली, दिवाली, और नवरात्रि.
बलाई समाज के लोग अपने मृतकों को दफ़नाते हैं.
बलाई जाति के लोग कई गोत्रों में बंटे हैं, जैसे चौहान, राठौर, परिहार, परमार, सोलंकी, मरीचि, अत्रि, अगस्त, भारद्वाज, मतंग, धनेश्वर, महाचंद, जोगचंद, जोगपाल, मेघपाल, गर्वा, और जयपाल.
बलाई/बलाही/मैहर  जाति
 भारत के मध्य प्रदेश राजस्थान पंजाब दिल्ली और उत्तर प्रदेश राज्यों में पाई जाती है 
पौराणिक आख्यान- 
इस  जाती की अतीत में वणकर के रूप में उत्पत्ति हुई जिसे म्रकंड ऋषि का वंशज कहा जाता है ।।
म्रकंड ऋषि को आधुनिक बुनाई का जनक माना जाता है जो मारकंडे ऋषि के पिता भी थे जिनका मार्कंडेय पुराण में वर्णन किया है इनका जन्म भृगु ऋषि के काल में हुआ था ।।
 रेशम बुनकरों को ऋषि म्रकंड का वंशज माना जाता है ।
बलाई समाज के कुछ महापुरुषों के नाम ये रहे:
राजेंद्र मालवीय - अखिल भारतीय बलाई समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष
थावर गोबाजी - बलाई समाज के एक व्यक्ति जिसकी बेटी के विवाह के मौके पर आचार्य नानालाल महाराज ने कुव्यसन छोड़ने का संकल्प दिलाया था
सीताराम, धूलजी, देवीलाल - बलाई समाज के वरिष्ठ लोग जिन्होंने आचार्य नानालाल महाराज की वाणी को अपने जीवन में अपनाया
बलाही समाज धर्म से हिंदू है उनकी कुलदेवी मां चामुंडा /कालरात्रि /महाकाली है यह जाती अपनी इच्छा पूर्ति या सफलता हेतु अपनी कुलदेवी से मन्नते करती थी और मन्नत में पशु बलि भेड़ बकरी इत्यादि पशुओं की बलि देने को शुभ मानती थी यह जाती पारंपरिक रूप से मांसाहारी रही है पशु बलि में विश्वास रखती है कुछ लोग धार्मिक होने के कारण पशु बलि के स्थान पर श्रीफल एवं पूजा पद्धति को सही मानता है कई पढ़े लिखे लोग धर्म को त्याग कर अन्य धर्म के अनुयाई बन गए हैं ।।
राजस्थान में बहुतायत में मेघवाल जाति के लोग हैं जो अपने आप को बलाई नाम अंगीकार करते हैं राजस्थान में इन्हें मेघवंशी बलाई कहा जाता है 

बलाई जाति की उत्पत्ति कैसे हुई?

इसके बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है; लेकिन राजपूताने (राजस्थान) में 19वीं शताब्दी के मध्य में बलाई शब्द का प्रचलन हो चुका था और 20 वीं शताब्दी में जनसंख्या रिपोर्ट्स में यह एक अलग समूह या जाति के रूप में दर्ज की जाने लगी थी। तब से बलाई जाति का अलग से अस्तित्व है।

बलाई समाज के गुरु कौन थे?

 बलाई समाज के गुरु बालक दास जी है जिनका जन्म 18 अगस्त 1805 ई को हुआ था और उनकी मृत्यु 28 मार्च 1860 ई को हुई थी
राधाकिशन मालवीय के पुत्र राजेंद्र मालवीय को अखिल भारतीय बलाई समाज का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
बलाई समाज के देवता कौन थे?
 बलाई समाज के आराध्य देवता दानवीर राजा बली  माने जाते हैं| 
 बलाई जाति के लोग अपने बच्चों का विवाह अपने गोत्र में नहीं करते । बलाई बुनकर जाति के लोग सुत लाकर के गांव देहात में कपड़ा बुनाई का कार्य करता था बलाई समाज का पारंपरिक व्यवसाय खेती/ पशुपालन/ बूनाई /चौकीदारी /चौबदारी /कोटवारी /सुरक्षा/ कृषि मजदूरी /लकड़ी की नक्काशी /कढ़ाई /सूती वस्त्र बुनना/राज मिस्त्री इत्यादि व्यवसाय करता है ।
 बलई/बलाई/बलाही/मैहर  यह शुद्र जाति मानी जाती है इस जाति पर बहुत अत्याचार हुए हैं इस जाति के लोगों से बेगारी /बेकारी के कार्य कराए जाते थे गांव में मजरो/टोलों में बलाई समुदाय के लोगों को गांव से बाहर पूर्व या पश्चिम में डेरों में निवास करना होता था इस जाति को छुआछूत अस्पृश्यता सामाजिक नीचता एवं घृणा की दृष्टि से देखा जाता था आर्थिक कमजोरी भुखमरी के कारण मृत पशुओं का मांस खाकर भी जीविका चलाते थे 
  राजा महाराजाओं के शासनकाल में इस जाति के लोगों को राजाओं के /गुप्तचर /सुरक्षा सैनिक/ करतब दिखाना/ मनोरंजन करना /आदि कार्य करवाए जाते थे खानाबदोश जिंदगी जीना होता था इस जाति की निर्धन गरीब बहन बेटियों महिलाओं के साथ अत्याचार किए जाते थे और उनसे देह व्यापार कराया जाता था ।।
विपरीत परिस्थितियों का सफर रहा है बलाही समाज का लेकिन बदलते परिवेश में  आज सामाजिक शैक्षणिक आर्थिक व्यवसायिक राजनेतिक प्रशासनिक सभी व्यवस्थाओं  और हर क्षेत्र में  इस जाती के लोग अग्रणी है 

Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।