शिव तांडव स्तोत्र
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले
गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं
चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले = जटाओं से घिरे हुए गले से जल का प्रवाह होता है, जो पवित्र स्थल है
गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम् = गले में लंबी और लंबी साँपों की माला है
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद = डमड्डमड्डमड्डम की ध्वनि से निनाद होता है
वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं = वड्डमर्व नामक ड्रम की ध्वनि से चण्डताण्डव करता है
तनोतु नः शिव: शिवम् = शिव हमें शिवत्व प्रदान करें
॥१॥ = यह पहला श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो अपनी जटाओं से जल का प्रवाह करते हैं, अपने गले में साँपों की माला पहनते हैं, और वड्डमर्व नामक ड्रम की ध्वनि से चण्डताण्डव करते हैं
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥
जटाकटा = जटाओं के समूह से घिरा हुआ
हसंभ्रम = हंसते हुए और भ्रम से भरा हुआ
भ्रमन्निलिंपनिर्झरी = जल के झरने से भरा हुआ
विलोलवीचिवल्लरी = विलोल और विचित्र तरंगों से भरा हुआ
विराजमानमूर्धनि = सिर पर विराजमान
धगद्धगद्धगज्ज्वल = धगधगधग की ध्वनि से जलते हुए
ल्ललाटपट्टपावके = ललाट पर पट्टी बांधे हुए अग्नि के समान
किशोरचंद्रशेखरे = किशोर चंद्र के समान शेखर (सिर के ऊपरी भाग) वाले
रतिः प्रतिक्षणं मम: = मेरी रति (प्रेम) प्रतिक्षण उनके लिए है
॥२॥ = यह दूसरा श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो अपनी जटाओं से जल का झरना बनाते हैं, अपने सिर पर विराजमान होते हैं, और अपने ललाट पर अग्नि के समान प्रकाशित होते हैं
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
इस श्लोक का संधि विग्रह करते हुए भावार्थ इस प्रकार है:
धराधरेंद्रनंदिनी = धरा (पृथ्वी) और धरेंद्र (पर्वत) की नंदिनी (पुत्री)
विलासबन्धुबन्धुर = विलास (खुशी) के बन्धु (सखा) और बन्धुर (मित्र)
स्फुरद्दिगंतसंतति = स्फुरत (चमकत) दिगंत (आकाश) की संतति (संतान)
प्रमोद मानमानसे = प्रमोद (आनंद) और मान (सम्मान) के मानसे (मन में)
कृपाकटाक्षधोरणी = कृपा (दया) की कटाक्ष (नजर) धोरणी (धारण करने वाली)
निरुद्धदुर्धरापदि = निरुद्ध (रोके हुए) दुर्धरा (कठिन) आपदि (विपत्ति) में
क्वचिद्विगम्बरे = क्वचित (कभी) विगम्बरे (वस्त्रों से रहित)
मनोविनोदमेतु वस्तुनि = मनोविनोद (आनंद) के लिए वस्तुनि (वस्तु में)
॥३॥ = यह तीसरा श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो धरा और धरेंद्र की नंदिनी हैं, विलास के बन्धु और बन्धुर हैं, और स्फुरत दिगंत की संतति हैं। वे कृपा की कटाक्ष धोरणी हैं और निरुद्ध दुर्धरा आपदि में मनोविनोद के लिए वस्तुनि में प्रसन्न होते हैं
मेरा मन भगवान शिव में अपनी खुशी खोजे,
अद्भुत ब्रह्माण्ड के सारे प्राणी जिनके मन में मौजूद हैं,
जिनकी अर्धांगिनी पर्वतराज की पुत्री पार्वती हैं,
जो अपनी करुणा दृष्टि से असाधारण आपदा को नियंत्रित करते हैं, जो सर्वत्र व्याप्त है,
और जो दिव्य लोकों को अपनी पोशाक की तरह धारण करते हैं।
जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा
कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
जटाभुजंगपिंगल = जटाओं से घिरे हुए भुजंग (साँप) के पिंगल (भूरे रंग) के समान
स्फुरत्फणामणिप्रभा = स्फुरत (चमकत) फणा (साँप की फन) माणिक्य (मोती) प्रभा (प्रकाश) के समान
कदंबकुंकुमद्रव = कदंब (फूल) कुंकुम (लाल रंग का पाउडर) द्रव (तरल) के समान
प्रलिप्तदिग्वधूमुखे = प्रलिप्त (लिपटे हुए) दिग्व (दिशाओं को) धूमुखे (धुएं के मुख के समान)
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे = मदांध (मद में अंधे) सिंधु (समुद्र) रस्फुरत (फेनिल) त्वगु (त्वचा) उत्तरीय (उत्तरीय वस्त्र) मेदुरे (मेदुरे के समान)
मनोविनोदद्भुतं = मनोविनोद (आनंद) द्भुतं (अद्भुत)
बिंभर्तुभूत भर्तरि = बिंभर्तु (बिंब को धारण करने वाला) भूत (भूतों को) भर्तरि (पति के रूप में)
॥४॥ = यह चौथा श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो जटाओं से घिरे हुए भुजंग के पिंगल के समान हैं, स्फुरत फणा माणिक्य प्रभा के समान हैं, और कदंब कुंकुम द्रव के समान हैं। वे मदांध सिंधु रस्फुरत त्वगु उत्तरीय मेदुरे के समान हैं और मनोविनोद द्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि हैं
मुझे भगवान शिव में अनोखा सुख मिले, जो सारे जीवन के रक्षक हैं,
उनके रेंगते हुए सांप का फन लाल-भूरा है और मणि चमक रही है,
ये दिशाओं की देवियों के सुंदर चेहरों पर विभिन्न रंग बिखेर रहा है,
जो विशाल मदमस्त हाथी की खाल से बने जगमगाते दुशाले से ढंका है।
सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
सहस्रलोचन = सहस्र (हज़ार) लोचन (आँखें)
प्रभृत्यशेषलेखशेखर = प्रभृति (प्रारंभ से) अशेष (अनंत) लेख (चित्र) शेखर (शिखर)
प्रसूनधूलिधोरणी = प्रसून (फूलों की) धूलि (धूल) धोरणी (धारण करने वाली)
विधूसरां = विधु (चंद्रमा) सुरां (देवताओं के लिए)
घ्रिपीठभूः = घ्रि (अग्नि) पीठ (आधार) भूः (पृथ्वी)
भुजंगराजमालया = भुजंग (साँप) राज (राजा) मालया (माला से)
निबद्धजाटजूटकः = निबद्ध (बंधे हुए) जाट (जटा) जूटकः (जूट के समान)
श्रियैचिरायजायतां = श्रियै (श्री के साथ) चिराय (चिरकाल से) जायतां (जन्म लेते हैं)
चकोरबंधुशेखरः = चकोर (चकोर पक्षी) बंधु (बंधु के समान) शेखरः (शिखर)
॥५॥ = यह पाँचवाँ श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो सहस्र लोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर हैं, प्रसूनधूलिधोरणी हैं, और विधूसरां घ्रिपीठभूः हैं। वे भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः हैं और श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः हैं।
भगवान शिव हमें संपन्नता दें,
जिनका मुकुट चंद्रमा है,
जिनके बाल लाल नाग के हार से बंधे हैं,
जिनका पायदान फूलों की धूल के बहने से गहरे रंग का हो गया है,
जो इंद्र, विष्णु और अन्य देवताओं के सिर से गिरती है।
ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा
निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
शिव के बालों की उलझी जटाओं से हम सिद्धि की दौलत प्राप्त करें,
जिन्होंने कामदेव को अपने मस्तक पर जलने वाली अग्नि की चिनगारी से नष्ट किया था,
जो सारे देवलोकों के स्वामियों द्वारा आदरणीय हैं,
जो अर्ध-चंद्र से सुशोभित हैं।
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल
इस श्लोक का संधि विग्रह करते हुए भावार्थ इस प्रकार है:
ललाटचत्वरज्वल = ललाट (माथे) पर चत्वर (चौकोर) ज्वल (प्रकाश)
द्धनंजयस्फुलिंगभा = द्धनंजय (अग्नि) स्फुलिंग (चिंगारी) भा (प्रकाश)
निपीतपंचसायकंनम = निपीत (पीते हुए) पंच (पाँच) सायकं (बाण) नम (नमस्कार)
न्निलिंपनायकम् = निलिंपनायकम् (नीले रंग का आकार)
सुधामयूखलेखया = सुधा (अमृत) मयूख (किरण) लेखया (लिखने वाली)
विराजमानशेखरं = विराजमान (विराजमान) शेखरं (शिखर)
महाकपालिसंपदे = महा (महान) कपालि (कपाल) संपदे (संपदा में)
शिरोजटालमस्तुनः = शिरो (सिर) जटा (जटा) अलमस्तुनः (अलंकृत)
॥६॥ = यह छठा श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो ललाट पर चत्वर ज्वल द्धनंजय स्फुलिंग भा के साथ प्रकाशित होते हैं। वे निपीत पंच सायकं नम न्निलिंपनायकम् के साथ अपने पाँच बाणों को पीते हुए नमस्कार करते हैं। उनका शेखर सुधामयूखलेखया से विराजमान होता है और वे महाकपालिसंपदे में शिरोजटालमस्तुनः होते हैं
शिव के बालों की उलझी जटाओं से हम सिद्धि की दौलत प्राप्त करें,
जिन्होंने कामदेव को अपने मस्तक पर जलने वाली अग्नि की चिनगारी से नष्ट किया था,
जो सारे देवलोकों के स्वामियों द्वारा आदरणीय हैं,
जो अर्ध-चंद्र से सुशोभित हैं।
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल
द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
इस श्लोक का संधि विग्रह करते हुए भावार्थ इस प्रकार है:
करालभालपट्टिका = कराल (भयानक) भाल (माथे) पट्टिका (पट्टी)
धगद्धगद्धगज्ज्वल = धगधगधग (ध्वनि) ज्ज्वल (प्रकाश)
द्धनंजया = द्धनंजय (अग्नि)
धरीकृतप्रचंड पंचसायके = धरीकृत (धारण किया हुआ) प्रचंड (प्रचंड) पंचसायके (पाँच बाण)
धराधरेंद्रनंदिनी = धरा (पृथ्वी) धरेंद्र (पर्वत) नंदिनी (पुत्री)
कुचाग्रचित्रपत्रक = कुच (स्तन) अग्र (आगे) चित्र (चित्रित) पत्रक (पत्र)
प्रकल्पनैकशिल्पिनी = प्रकल्पना (कल्पना) एक (एकमात्र) शिल्पिनी (कलाकार)
त्रिलोचनेरतिर्मम = त्रिलोचन (तीन आँखों वाला) एरति (प्रेम) मम (मेरे लिए)
॥७॥ = यह सातवाँ श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो कराल भाल पट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया के साथ प्रकाशित होते हैं। वे धरीकृत प्रचंड पंचसायके को धारण किए हुए हैं और धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक के साथ प्रकल्पनैकशिल्पिनी हैं। भगवान शिव त्रिलोचनेरतिर्मम के साथ मेरे लिए प्रेम का प्रतीक हैं
मेरी रुचि भगवान शिव में है, जिनके तीन नेत्र हैं,
जिन्होंने शक्तिशाली कामदेव को अग्नि को अर्पित कर दिया,
उनके भीषण मस्तक की सतह डगद् डगद्... की घ्वनि से जलती है,
वे ही एकमात्र कलाकार है जो पर्वतराज की पुत्री पार्वती के स्तन की नोक पर,
सजावटी रेखाएं खींचने में निपुण हैं।
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर
त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
इस श्लोक का संधि विग्रह करते हुए भावार्थ इस प्रकार है:
नवीनमेघमंडली = नवीन (नया) मेघ (बादल) मंडली (समूह)
निरुद्धदुर्धरस्फुर = निरुद्ध (रोके हुए) दुर्धर (कठिन) स्फुर (चमक)
त्कुहुनिशीथनीतमः = त्कुहु (तुम्हारी) निशीथ (रात्रि) नीतमः (नीति)
प्रबद्धबद्धकन्धरः = प्रबद्ध (बढ़े हुए) बद्ध (बंधे हुए) कन्धरः (कंधे)
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु = निलिम्प (निर्लेप) निर्झरी (झरने वाली) धर (धारण करने वाला) स्तनोतु (स्तनों को)
कृत्तिसिंधुरः = कृत्ति (केश) सिंधुरः (सिंदूर)
कलानिधानबंधुरः = कला (कला) निधान (निधान) बंधुरः (बंधु)
श्रियं जगंद्धुरंधरः = श्रियं (श्री) जगंद्धुरंधरः (जगत के धारण करने वाले)
॥८॥ = यह आठवाँ श्लोक है
इस श्लोक में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है, जो नवीन मेघमंडली के साथ निरुद्ध दुर्धर स्फुर के साथ प्रकाशित होते हैं। वे त्कुहुनिशीथनीतमः के साथ प्रबद्धबद्धकन्धरः हैं और निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु के साथ कृत्तिसिंधुरः हैं। भगवान शिव कलानिधानबंधुरः हैं और श्रियं जगंद्धुरंधरः हैं
भगवान शिव हमें संपन्नता दें,
वे ही पूरे संसार का भार उठाते हैं,
जिनकी शोभा चंद्रमा है,
जिनके पास अलौकिक गंगा नदी है,
जिनकी गर्दन गला बादलों की पर्तों से ढंकी अमावस्या की अर्धरात्रि की तरह काली है।
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनका कंठ मंदिरों की चमक से बंधा है,
पूरे खिले नीले कमल के फूलों की गरिमा से लटकता हुआ,
जो ब्रह्माण्ड की कालिमा सा दिखता है।
जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,
जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,
जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,
और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनका कंठ मंदिरों की चमक से बंधा है,
पूरे खिले नीले कमल के फूलों की गरिमा से लटकता हुआ,
जो ब्रह्माण्ड की कालिमा सा दिखता है।
जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,
जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,
जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,
और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनके चारों ओर मधुमक्खियां उड़ती रहती हैं
शुभ कदंब के फूलों के सुंदर गुच्छे से आने वाली शहद की मधुर सुगंध के कारण,
जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,
जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,
जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,
और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध
मैं भगवान शिव की प्रार्थना करता हूं, जिनके चारों ओर मधुमक्खियां उड़ती रहती हैं
शुभ कदंब के फूलों के सुंदर गुच्छे से आने वाली शहद की मधुर सुगंध के कारण,
जो कामदेव को मारने वाले हैं, जिन्होंने त्रिपुर का अंत किया,
जिन्होंने सांसारिक जीवन के बंधनों को नष्ट किया, जिन्होंने बलि का अंत किया,
जिन्होंने अंधक दैत्य का विनाश किया, जो हाथियों को मारने वाले हैं,
और जिन्होंने मृत्यु के देवता यम को पराजित किया।
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध
गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
शिव, जिनका तांडव नृत्य नगाड़े की ढिमिड ढिमिड
तेज आवाज श्रंखला के साथ लय में है,
जिनके महान मस्तक पर अग्नि है, वो अग्नि फैल रही है नाग की सांस के कारण,
गरिमामय आकाश में गोल-गोल घूमती हुई।
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र
शिव, जिनका तांडव नृत्य नगाड़े की ढिमिड ढिमिड
तेज आवाज श्रंखला के साथ लय में है,
जिनके महान मस्तक पर अग्नि है, वो अग्नि फैल रही है नाग की सांस के कारण,
गरिमामय आकाश में गोल-गोल घूमती हुई।
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र
जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
मैं भगवान सदाशिव की पूजा कब कर सकूंगा, शाश्वत शुभ देवता,
जो रखते हैं सम्राटों और लोगों के प्रति समभाव दृष्टि,
घास के तिनके और कमल के प्रति, मित्रों और शत्रुओं के प्रति,
सर्वाधिक मूल्यवान रत्न और धूल के ढेर के प्रति,
सांप और हार के प्रति और विश्व में विभिन्न रूपों के प्रति?
कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्
मैं भगवान सदाशिव की पूजा कब कर सकूंगा, शाश्वत शुभ देवता,
जो रखते हैं सम्राटों और लोगों के प्रति समभाव दृष्टि,
घास के तिनके और कमल के प्रति, मित्रों और शत्रुओं के प्रति,
सर्वाधिक मूल्यवान रत्न और धूल के ढेर के प्रति,
सांप और हार के प्रति और विश्व में विभिन्न रूपों के प्रति?
कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
मैं कब प्रसन्न हो सकता हूं, अलौकिक नदी गंगा के निकट गुफा में रहते हुए,
अपने हाथों को हर समय बांधकर अपने सिर पर रखे हुए,
अपने दूषित विचारों को धोकर दूर करके, शिव मंत्र को बोलते हुए,
महान मस्तक और जीवंत नेत्रों वाले भगवान को समर्पित?
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम
मैं कब प्रसन्न हो सकता हूं, अलौकिक नदी गंगा के निकट गुफा में रहते हुए,
अपने हाथों को हर समय बांधकर अपने सिर पर रखे हुए,
अपने दूषित विचारों को धोकर दूर करके, शिव मंत्र को बोलते हुए,
महान मस्तक और जीवंत नेत्रों वाले भगवान को समर्पित?
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम
स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
इस स्तोत्र को, जो भी पढ़ता है, याद करता है और सुनाता है,
वह सदैव के लिए पवित्र हो जाता है और महान गुरु शिव की भक्ति पाता है।
इस भक्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग या उपाय नहीं है।
बस शिव का विचार ही भ्रम को दूर कर देता है।
इस स्तोत्र को, जो भी पढ़ता है, याद करता है और सुनाता है,
वह सदैव के लिए पवित्र हो जाता है और महान गुरु शिव की भक्ति पाता है।
इस भक्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग या उपाय नहीं है।
बस शिव का विचार ही भ्रम को दूर कर देता है।