14.9.17

लोहार(विश्वकर्मा) जाति का इतिहास



 
 प्राप्त साक्ष्यों तथा कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी इतिहासकारों के लिए एक ऐसी ऐतिहासिक पुस्तक साबित हुई जिसके अनुसार यह ज्ञात हो सका की लोहारों (विश्वकर्मा वंशीय)का वंश भी शासन प्रभुता में आगे रहा है यह हिन्दू शासन कश्मीर राज्य मे सन 1003 से 1159 तक लगभग 150 सालों तक चला जो अंतिम हिन्दू शासन कहलाया।
 लोहार भारत में पाई जाने वाली एक व्यावसायिक जाति है. इन्हें लुहार, लोहरा और पांचाल के नाम से भी जाना जाता है. झारखंड में लोहार को स्थानीय रूप से लोहरा या लोहारा के नाम से जाना जाता है. प्राचीन काल से ही लोहा या इस्पात से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को बनाना इनका पारंपरिक कार्य रहा है. इसीलिए इन्हें लोहार कहा जाता है. यह हथोड़ा, चीनी और भाथी आदि औजारों का प्रयोग करके दरवाजा, ग्रिल, रेलिंग, कृषि उपकरण, बर्तन और हथियार आदि बनाते हैं. अधिकांश लोहार अभी भी धातु निर्माण के अपने पारंपरिक व्यवसाय से जुड़े हुए हैं. हालांकि यह जीवन यापन के लिए खेती बारी तथा अन्य काम धंधा भी करने लगे हैं. प्राचीन काल से ही इनका समाज में महत्वपूर्ण स्थान रहा है. यह आम लोगों के लिए कृषि उपकरण तथा घर में प्रयोग किए जाने वाले सामान बनाते थे. साथ ही यह राजा महाराजा के सेनाओं के लिए हथियार बनाते थे. आइए जानते हैं लोहार समाज का इतिहास, लोहार शब्द की उत्पति कैसे हुई?

लोहार किस धर्म को मानते हैं?

धर्म से यह हिंदू, मुसलमान या सिख हो सकते हैं. भारत में निवास करने वाले अधिकांश लोहार हिंदू धर्म को मानते हैं. यह भगवान विश्वकर्मा और हिंदू अन्य देवी देवताओं की पूजा करते हैं. धार्मिक आधार पर हिंदू लोहार को विश्वकर्मा के रूप में जाना जाता है, जबकि मुस्लिम लोहार सैफी कहलाते हैं। यह भगवान विश्वकर्मा के वंशज होने का दावा करते हैं.

लोहार समाज के उपनाम

अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग उपनाम है. बिहार और उत्तर प्रदेश में के प्रमुख उपनाम विश्वकर्मा और ठाकुर हैं. दिल्ली में इनके उपनाम हैं -लोहार, मिस्त्री और पांचाल. लोहार जाति दो उप समूहों में विभाजित है-
गाडिया लोहार और 
मालविया लोहार.

लोहार जाति की जानकारी का विडिओ 


गाड़िया लोहार समुदाय को गाडुलिया लोहार या सिर्फ लोहार भी कहा जाता है. गाड़िया लोहार राजस्‍थान और उत्तर प्रदेश का खानाबदोश समुदाय है. ये मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में भी पाए जाते हैं. ये लोहे के बर्तन और घरों में इस्‍तेमाल होने वाले औजार बनाकर गुजर-बसर करते हैं. इसके अलावा ये समुदाय कृषि और बागवानी में इस्‍तेमाल होने वाले छोटे औजार भी बनाते हैं.

हिंदू लोहार जाति के प्रमुख गोत्र

हिंदू लोहार जाति के प्रमुख गोत्र इस प्रकार हैं- बडगुजर, तंवर, चौहान, सोलंकी, करहेड़ा, परमार भूंड, डांगी, पटवा, जसपाल, तावड़ा, धारा, शांडिल्य, भीमरा और भारद्वाज.

लोहार किस कैटेगरी में आते हैं?

हिमाचल प्रदेश में तारखान और लोहार दो जातियां हैं. सिख लोहार को तारखान के नाम से जाना जाता है, और इन्हें ओबीसी जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है. यहां लोहार जाति को अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. उत्तर प्रदेश में इन्हें ओबीसी जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है. धार्मिक आधार पर हिंदू लोहार को विश्वकर्मा के रूप में जाना जाता है, जबकि मुस्लिम लोहार सैफी कहलाते हैं।आरक्षण व्यवस्था के तहत इन्हें बिहार राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है.
 लोहार वंश के संस्थापक संग्रामराज थे वे  बड़े न्याय प्रिय उदारवादी राजा थे उनके साशन काल में प्रजा सुख-चैन से दिन व्ययतीत कर रही थी किसी भी प्रकार का अभाव व विकार लोगों में नहीं था।उनके बाद राज सिंहासन अनंतराज को मिला जिन्होंने अपनी वीरता धीरता शौर्यता के बल पर अपने शासन काल में सामन्तों के विद्रोह को छिन्न-भिन्न कर के धराशायी कर दिया तथा अपने सासन क्षेत्र का विस्तार भी किया सासन सत्ता सुचारू रूप से कायम करने में लगभग सफल रहे ।अनंतराज की धर्मपत्नी रानी सूर्यमति में कुशल रानी के गुण विद्यमान तो थे ही साथ साथ कुशल राजनीतिज्ञ व् नेतृत्वकर्ता के गुण भी कूट कूट कर भरे थे। अनंतराज के शासन में उनकी धर्मपत्नी रानी सूर्यमती पूर्ण रूप से हस्तक्षेप व् सहयोग किया करती थी सभी अहम् मुद्दों पर बराबर विचार विमर्श करती थी तथा उनके द्वारा प्रतिपादित नियम व् कानून अकाट्य सिद्ध होते थे स्वयं राजा अनंतराज व् उनका मंत्रिमंडल भी रानी सूर्यमति द्वारा बनाये नियम कानून में कभी कोई कमी नहीं निकाल पाता था ज्यो का त्यों लागू कर दिया जाता था। अनन्तराज के पुत्र कलश थे जिन्होंने कुछ विशेष कार्य नहीं किये कुशल राजा व् नेतृत्व न होने के कारण शासन सत्ता कमजोर क्षीण होती गई जिससे अनंत राज द्वारा विस्तारित क्षेत्र व् राज्य कमजोर होता गया ।
राजा कलश के पुत्र हर्षदेव महाविद्वान,प्रखर बुद्धि,दार्शनिक,कवि थे तथा उनमे कुशल राजा के गुण विद्यमान थे उनको कई विभिन्न भाषाओं एवं विद्याओं का भी ज्ञान था। हर्षदेव धीरे धीरे सासन सत्ता में इतने मुग्ध हो गए उन्हें प्रजा के दुःख सुख से मोह ख़त्म होता गया राज्य में अशांति व्याप्त हो गई भयानक अकाल पड़ गया किसानों साहूकारों से अत्यधिक कर वसूला जाने लगा कर या लगान न देने पर राजा के सैनिको द्वारा कई अलग अलग तरह से दंड का प्रावधान किया जाने लगा जिससे प्रजा आतंकित हो गई।राजा हर्षदेव के अत्याचारपूर्ण कार्यो से त्रस्त होकर उत्सल एवं सुस्सल नामक भाईयों ने राजा हर्ष देव के खिलाफ विद्रोह कर दिया अशान्ति,भुखमरी,दमन,अत्याचार के कारण शुरू हुए विद्रोह में लगभग 1101 ई. में राजा हर्षदेव तथा उनके पुत्र भोज की हत्या कर दी गयी।
 हर्षदेव को कश्मीर के 'नीरो' की संज्ञा भी दी गयी है। नीरो  रोम का अत्याचारी सासक था पुरे राज्य में आग लगी थी खुद खड़ा होकर सारंगी बजा रहा था कहा जाता है आग खुद नीरो ने लगवाई थी)
राजतरंगिणी के लेखक कल्हण राजा हर्षदेव के आश्रित कवि थे और राजतरंगिणी एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक कृति है। स्वयं कल्हण ने राजतरंगिणी में कहा है कि एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वेष-विनिर्मुक्त होना चाहिए, तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है
श्लाध्य: स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता।
भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥ (राजतरंगिणी, १/७)
इस लिए यह माना जा सकता है कि कल्हण द्वारा रागतरंगिनी में तत्कालीन राजाओं का जो भी वर्णन मिलता है वह किंचित मात्र भी विचलित करने वाला नहीं है।
कल्हण जाति से ब्राह्मण था उसके पिता का नाम चम्पक था। चम्पक लोहार वंशीय राजा हर्ष के मन्त्री थे तथा कल्हण हर्ष का आश्रित कवि था। उस समय लोहार वंशीय राजा जयंसिह का शासन काल कश्मीर मे चल रहा था।
लोहार वंश का अन्तिम शासक राजा जयसिंह (1128-1155 ई.) थे।उन्होंने अपने युद्ध कला कौशल से यूनानी मूल के यवनों को परास्त किया था तथा राज्य की सीमा विस्तार शुरू कर दिया। जयसिंह कश्मीर में हिन्दू वंश तथा लोहार वंश के अंतिम शासक के रूप में जाने जाते हैं जय सिंह राजतरंगिणी के आखिरी सासक हैं।इसके बाद तुर्क शासकों का इतिहास प्राप्त होता है
कश्मीर में अंतिम हिन्दू लोहार वंश के लगातार आठ राजाऒ का वर्णन मिलता है जिनके नाम निम्नवत हैं
1-संग्रामराज
2-अनन्तदेव
3-कलशदेव
4-हर्षदेव
5-उच्छ्ल
6-सुस्सल
7-शिक्षाचर
8-जयसिंह आदि थे

इन हिन्दू लोहार वंशीय (विश्वकर्मा वंशीय)राजाओं ने मिलकर लगभग157 वर्ष तक जम्मू- कश्मीर मे शासन किया।

  बिहार राज्य मे लोहार जाती को अनुसूचित जाती  मे शामिल कर लिया गया है| कुछ राज्यों मे लोहार पिछड़े वर्ग मे माने जाते हैं|
केंद्र व राज्य सरकार वंश परंपरागत कारीगर समाज के उन्नति के लिए विश्वकर्मा कारीगर आयोग तथा विश्वकर्मा कारीगर विकास बोर्ड का गठन करे। सरकार वंश परंपरागत कारीगर समाज के बच्चों के लिए विश्वकर्मा टेक्नोलॉजी विश्वविद्यालय तथा विश्वकर्मा छात्रावास का निर्माण कराये। सरकार सरकारी संस्था और सरकारी भवनों का एवं मार्ग, चौक का नामकरण भगवान विश्वकर्मा के नाम पर नामांकन करे। कहा कि विश्वकर्मा समाज के अधिकार, सम्मान और गौरव को बचाने के लिए पूरे देश के विश्वकर्मा समाज को एकजुट होकर बड़ी सामाजिक ताकत और राजनीतिक ताकत बनानी होगी।


बूढ़ा निवासी श्री बद्रीलाल जी लोहार विश्वकर्मा समाज को आगे बढ़ाने के लिए युवकों को  कृषि यंत्रों  के उद्धयोग लगाने  के लिए भरपूर सहयोग और आर्थिक मदद कर रहे हैं|
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सुथार जाति(जांगीड ब्राह्मण) का इतिहास ,suthar jati ka itihas





सुतार जाति की उत्पत्ति भारत में हुई थी और यह बढ़ईगीरी और लकड़ी के काम से जुड़ी हुई है. सुतार जाति के लोग भारत के अलग-अलग हिस्सों और विदेशों में बसे हुए हैं.
विश्वकर्मा एक भारतीय उपनाम है जो मूलतः शिल्पी लोगों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। विश्वकर्मा वंशज मूल रूप से ब्राह्मण होते हैं विश्वकर्मा पुराण के मुताबिक विश्वकर्मा जन्मों ब्राह्मण: मतलब ये जन्म से ही ब्राह्मण होते हैं

सुतार जाति से जुड़ी कुछ खास बातें:
सुतार जाति के लोग विश्वकर्मा समुदाय के अंतर्गत आते हैं.

सुतार जाति के लोग मुख्य रूप से गुजरात और राजस्थान में पाए जाते हैं.

सुतार जाति के लोग वैष्णव धर्म को मानते हैं और उनके कुलदेवता विष्णु हैं.

सुतार जाति के लोगों का गोत्र भारद्वाज है.

सुतार जाति के लोगों का पारंपरिक व्यवसाय बढ़ईगीरी है.

सुतार जाति के लोगों का प्रवास और बसावट का इतिहास दिलचस्प है.

सुतार जाति के लोगों का प्रवास जबरन और स्वैच्छिक दोनों तरह से हुआ है.

सुतार जाति के लोगों का प्रवास व्यापार, शिक्षा, और बेहतर अवसरों की तलाश के लिए हुआ है.

सुथार की उत्पत्ति कैसे हुई थी?

सुथार जाति का इतिहास (सुथार जाति समाज का इतिहास) उस समय से शुरू होता है जब मूलराज सोलंकी ने 10वीं शताब्दी के मध्य में गुजरात में सोलंकी राजवंश की स्थापना की थी। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार, राजा मूलराज ने 989 विक्रम संवत में रुद्र महालया मंदिर की आधारशिला रखी थी
 
 सुथार शब्द का प्रयोग ज्यादातर राजस्थान में ही किया जाता है। इनकी आबादी भारत में 7.3 करोड़ के आस पास पाई जाती है। इनके कुल देवता विष्णु है तथा ये वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते है।
 सुतार या सुथार भारतीय उपमहाद्वीप के विश्वकर्मा समुदाय के भीतर एक हिंदू जाति है। उनका पारंपरिक व्यवसाय खेती, वास्तुकला और आंतरिक डिजाइन है। हिंदू  सुथारों का बड़ा हिस्सा वैष्णव संप्रदाय से संबंधित है। विश्वकर्मा को उनके संरक्षक देवता के रूप में माना जाता है।
सुथार कौन से वर्ग में आते हैं?
सुथार स्वयम को ब्राह्मण बताते हैं शर्मा लिखते हैं ।
शर्मा और विश्वकर्मा में क्या अंतर है?

वेदों के अनुसार सुतार  विश्वकर्मा ब्राह्मण हैं, और सबसे योग्य हैं, क्योंकि वे धार्मिक अनुष्ठान और तकनीकी कार्य दोनों कर सकते हैं। वेदों के अनुसार, यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि शर्मा उपनाम का उपयोग केवल उस ब्राह्मण द्वारा किया जा सकता है जिसके पास तकनीकी ज्ञान है।
विश्वकर्मा एक भारतीय उपनाम है जो मूलतः शिल्पी लोगों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। विश्वकर्मा वंशज मूल रूप से ब्राह्मण होते हैं विश्वकर्मा पुराण के मुताबिक विश्वकर्मा जन्मों ब्राह्मण: मतलब ये जन्म से ही ब्राह्मण होते है
विश्वकर्मा ब्राह्मण श्रेष्ठ क्यों है?
विश्वकर्मा जी को समस्त सृष्टि का सृजनकर्ता माना जाता है । इसी कारण से उनके वंशजों के प्रति भी सम्मान प्रकट करने के लिए उन्हे विश्व ब्राह्मण की उपाधि से सम्मानित किया गया है 
विश्वकर्मा जाति की उत्पत्ति कैसे हुई थी?

धर्मग्रंथों में विश्वकर्मा को सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी का वंशज माना गया है। ब्रह्माजी के पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव थे, जिन्हें शिल्प शास्त्र का आदि पुरुष माना जाता है। इन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा का जन्म हुआ।

विश्वकर्मा किसकी संतान है?
सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा की सातवीं संतान भगवान विश्वकर्मा को माना जाता है। कुछ धर्म ग्रंथों में भगवान विश्वकर्मा को महादेव का अवतार बताया गया है। मान्यता के अनुसार, विश्वकर्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के लिए द्वारका नगरी का निर्माण किया था।
जाति कर्म धर्म के अनुसार सुथार समाज जांगिड ब्राह्मण है।
विश्वकर्मा समुदाय भारत का एक सामाजिक समूह है, जिसे कभी-कभी जाति के रूप में वर्णित किया जाता है। वे खुद को ब्राह्मण या जाति पदानुक्रम में उच्च-स्थिति का होने का दावा करते हैं, हालांकि ये दावे आम तौर पर समुदाय के बाहर स्वीकार नहीं किए जाते हैं ।
पौराणिक दृष्टि से सुथार अंगिरा ऋषि की संतान है। अंगिराऋषि ब्राह्मार्षि थे। दिग्विजयी प्रतापी होने के कारण इन्हे जांगिड कहा गया । अंगिरा ऋषि(अंगिरसो) के आश्रम जांगल देश मे थे इसलिये भी अंगिरस स्थान के नाम से जांगिड कहलाये। आदि शिल्पाचार्य भुवन पुत्र विश्वकर्मा देवों के शिल्पी होने से जाँगिड कहलाये। विश्वकर्मा जी अंगिराकुल के होने के कारण वंश परम्परा से सुथारों के  प्रेरक गुरु और भगवान है।

 दिल्ली से 11 मील की दूरी पर कुतुबमीनार के पास सती मठ मे लगा हुआ 460 वर्ष पुराना शिलालेख मिला है। इस पुरावशेष मे जांगिड ब्राह्मण वंश की सतियों का  परिचय खुदा हुआ है।

सम्पूर्ण भारत के 41 विख्यात पंडितो ने संवत १९७७ की दीपावली को काशी मे यह निर्णय लिया कि जांगिड ब्राह्मण जाति वास्तव मे ब्राह्मण है।

ब्रह्मा अर्थात ब्राह्मण होने के कारण अंगिरा वंशी जांगिड, जांगिड ब्राह्मण कहलाये।

सायणाचार्य ने अंगिरा ऋषि को ही जंगिड ऋषि माना है।  वेद या ब्राह्मण ग्रन्थ अथवा प्राचीन भाष्यकारों और पाश्चात्य यूरोपियन समीक्षक  सभी  ने एक मत से यही स्वीकार किया है कि अंगिरा ऋषि का ही दूसरा प्रमाणित नाम जांगिड है।

अग्नि (पवित्र आग ) को खोज निकालने वाले अंगिरस ऋषि कहे गये है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार सुतार  विश्वकर्मा के पुत्र मय के वंशज बढ़ई हैं। ऋग्वेद के अनुसार विश्वकर्मा ब्रह्मांड के दिव्य इंजीनियर हैं। 
सुथारों का गोत्र राठौर (राठौड़), चौहान, परमार, सोलंकी, भाटी, तंवर , सिसोदिया आदि है । 
सुथार समाज, विश्वकर्मा, जांगिड़, खाती, शर्मा और अन्य कई नामों से जाना जाता है। एक ही परिवार में अलग-अलग नामों से लगा कर जाने जाते हैं। 
सुथार की कुछ उपजातियाँ राजस्थान हरियाणा , [गुजरात जैसे राज्यों में ओबीसी के रूप में वर्गीकृत हैं

क्या बढ़ई जाति ब्राह्मण है?

अनुग्रह नारायण शोध संस्थान पटना के द्वारा सर्वेक्षण कर रिपोर्ट बिहार सरकार को  दिया था। शोध संस्थान द्वारा दिए गए रिपोर्ट में बढ़ई जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने की बात स्पष्ट लिखी हुई है। जबकि देश के सात राज्यों में इस समाज को अनुसूचित जाति में शामिल किया जा चुका है।
सुतार कौन सी कैटेगरी में आते हैं?
सूत्रधार, जिन्हें सुतार या सुथार के नाम से भी जाना जाता है, ये वास्तु शास्त्र के चार वास्तुकारों में से एक हैं। इनका पारंपरिक व्यवसाय काष्ठकारी(Carpentry) है।
भारत में विश्वकर्मा जाति की संख्या कितनी है?

भारत में  में विश्वकर्मा समाज की जनसंख्या साढ़े सात करोड़ है। आज तक यह समाज लोहार, बढ़ई, सोनार, शिल्पकार आदि में बंटे होने के कारण अपनी पहचान नहीं बना पाया है।
विश्वकर्मा जाति के 5 वर्ग कौन से हैं?
प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना में 14 जातियो को उल्लेखित किया गया है, जबकि विश्वकर्मा समाज में पांच ही जाति बढ़ई, लोहार स्वर्णकार, कसेरा एवम ठठेरा है।



 

 

सुनार,स्वर्णकार जाति का इतिहास



सुनार समाज के आदिपुरुष महाराज  अजमीढजी
सुनार जाति, भारत और नेपाल में पाई जाने वाली एक जाति हैये लोग सोने, चांदी, और अन्य बहुमूल्य धातुओं से आभूषण बनाते हैं. सुनार जाति के लोगों को स्वर्णकार, सोनी, सोनार, सिंह, शाह, सोनकर जैसे नामों से भी जाना जाता है. 
सुनार जाति से जुड़ी खास बातें:
  • सुनार जाति के लोग मूल रूप से क्षत्रिय वर्ण में आते हैं. 
  • सुनार जाति के लोग हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम धर्म को मानते हैं. 
  • सुनार जाति के लोग सोने-चांदी, बहुमूल्य रत्नों का व्यापार भी करते हैं. 
  • सुनार जाति के लोग गहने गिरवी रखकर ब्याज़ पर पैसे भी देते हैं. 
  • सुनार जाति के लोगों के पास कई उपजातियां हैं. 
  • सुनार जाति के लोग अपने पूर्वजों के धार्मिक स्थान की कुलपूजा करते हैं. 
  • सुनार जाति के लोग खेती भी करते हैं. 
  • सुनार जाति के लोग सात प्रकार के शुद्ध व्यापार भी करते हैं. 

 सुनार अपने पुर्वजो के स्मृति स्थान की कुलपूजा करते है। यह जाति हिन्दूस्तान की मूलनिवासी जाति है। मूलत: ये सभी क्षत्रिय वर्ण में आते हैं इसलिये ये क्षत्रिय सुनार भी कहलाते हैं। आज भी यह समाज इस जाति को क्षत्रिय सुनार कहने में गर्व महसूस करता हैं।
इतिहास-

सदियों पुर्व हमारे पुर्वजों को भी केवल यही ज्ञात था की हम मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार राजपुत क्षत्रियों से संबधित है । हमारे पुर्वज कौन थे? कहां थे? कैसे थे? यह किसी को ज्ञात नही था । और आज भी लगभग ऐसी ही स्थीती है 

 हम मैढ क्षत्रिय कहलाते है ,क्यों ?
 हमारे पुर्वज कौन थे और अन्य समाज हमे हैय दृष्टी से क्यों देखती थी क्या अज्ञान व अशिक्षा अथवा सामाजिक कुप्रथा मात्र ही इसका कारण है , । इस प्रकार के अनेकानेक प्रश्नों का समाधान के लिए मुलचंद आर्य अजमेर से इन्होने 15-20 वर्ष सतत प्रयास किया और हमारे शुध्द क्षत्रिय होने का प्रमाण अनेक धार्मिक व एतिहासीक ग्रन्थोंसे प्राप्त कर के मैढ मीमांसा यह ग्रंथ प्रकाशित किया ।
यह सर्वविवादीत है की हमारा  इस समाज के 90 प्रतिशत लोग स्वर्ण कलाकार के नाम से विश्वविख्यात है । धन्धे से किसी जाती का निर्धारण करना असंभव है ।आज 21वी सदी है और भारतीय संविधान के अनुसार हर वर्ण-वर्ग, जाती का व्यक्ति आजिवीका हेतु कोइ भी उद्योग कर सकता है । कहने का तात्पर्य है, स्वर्णकार का काम सदियों से दुसरे जाती के लोग भी करते आए है यथा ब्राम्हण, खाती, जाट, बनिये, कुम्हार, मुसलमान, सरावगी, बंगाली, सिन्धी, पंजाबी, गुजराती, श्रीमाली, आदी अन्यान्य कई वर्ग के स्वर्णकारी काम करते है इससे यह नही कहा जा सकता कि स्वर्णकार एक जाती है बल्की एक व्यवसाय है ।
सुनार चन्द्रवंशीय है तथा मैढ क्षत्रिय हमारी जाती है इसका प्रमाण महाभारत के शान्तीपर्व राजधर्म प्रकाश अध्याय 49 के 83 से 87 श्लोकों के अनुसार है ।
इसका अतिरीक्त अंग्रेजोने भी सन 1901 मे यह स्वीकार किया था कि मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार चन्द्रवंशीय क्षत्रिय है । काशी व जयपुर के भोज मन्दिर की धर्म व्यवस्था मे भी मैढों को क्षत्रिय स्वीकार किया गया है ।
समस्त भारत के ब्राम्हण, रईस व जागीरदार लोगों के हस्ताक्षर युक्त प्रमाण हमारे पास है जिसके अनुसार मैढ द्विज है । ये स्वर्णकारों का पेशा करते है पर इन्हे चौधरी या प्रधानजी कहकर पुकारते है । यह दरसल मैढ राजपुत है ।
वैसे भारत वर्ष की प्राय सभी जातीयों का इतिहास अन्धकारमय है तथापि महाभारत, विष्णुपुराण, भागवत, व कर्नल टाड  संपादित राजस्थान का इतिहास आदी ग्रन्थों के देखने से स्पष्ट होता है कि जन्मानुसार मैढ स्वर्णकार की जाती क्षत्रिय है ।

व्यवहारिक प्रमाण –
1 . प्राय गावों व शहरों मे मैढ स्वर्णकारों को वहां के निवासी श्रध्दाभाव से देखते है, जैसे ठाकुरों को तथा उन्हे सोनी राजा कहकर संबोधित करते है जो की क्षत्रिय होने का प्रमाण है ।
हमारी जाती के गोत्र उपगोत्र (नख) अन्य राजपुतों का गोत्रों से मिलते जुलते है (देखिये मैढ कुल दर्शन लेखक प्रो. नारायणप्रसादजी वर्मा )
हमारी जाती स्वयं का ओरमे मां, दादी, नानी का गोत्र छोडकर विवाह संबंध होता है, कही कही कन्या या वर के अभाव मे दो नखों मे भी इस भौतिक युग मे संबंध होने लगे है और राजपुत समाज मे भी ऐसी प्रथा प्रचलित हो गयी है ।
हमारे यहां जन्मोत्सव के समय पर कमानगर शकुन के लिए तीर कमान लेकर आते है
पाणिग्रहण-संस्कार के पश्चात् जब वर वधु को लेकर गृह प्रवेश के समय तलवार से अडचनों को दुर करता करता वधु को माताजी (देवी माता ) के पास सर्व प्रथम ले जाकर ज्योती (पुजा) अर्चना करते है । स्त्रियां भी गीत गाते समय सोनी राजा या कंवर और आदी शब्दों का उच्चारण करती है जो की केवल राजपुत समाज मै ही प्रचलित था एवं अब भी है ।
हमारे जागे, भाट-पुरोहीत, पंडे होते है जो वंशानुसार चले आते हैतथा हमारी ही गुणगान व बल वैभव का बखान करते हुए अपनी आजिवीका सदियों से चलाते आये है (अनेक नगरों मे अभी भी ढाडीयों के वंश आज भी मौजुद है जो शुभ कार्यों मे समाज से भेंट लेते है । हरीद्वार के पंडो के पास भी अनेक प्रमाण मिलते है ।
सुनार जाती के 80 प्रतिशत लोग दशहरे के दिन तलवार घोडे तथा अपने औजारों व कलम दवात शस्त्र आदी का पुजन करते है।    
8. राजपुत के भांति हमारे समाज मे माताजी की मान्यता ज्यादा है तथा मेढ क्षत्रिय माताजी के बडे भक्त होते है तथा वर्ष के दोनो नवरात्री के व्रत करते है
हमारी समाज के अधिकांश लोग माताजी के यहां अपने बच्चे का मुंडन संस्कार कराते है तथा वर वधु को लेकर गरजोडें सहीत जात देते है ।
लोकमानस में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार सुनार जाति के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि त्रेता युग में परशुराम ने जब एक-एक करके क्षत्रियों का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया तो दो राजपूत भाइयों को एक सारस्वत ब्राह्मण ने बचा लिया और कुछ समय के लिए दोनों को मैढ़ बता दिया जिनमें से एक ने स्वर्ण धातु से आभूषण बनाने का काम सीख लिया और सुनार बन गया और दूसरा भाई खतरे को भाँप कर खत्री बन गया और आपस में रोटी बेटी का सम्बन्ध भी न रखा ताकि किसी को यह बात कानों-कान पता लग सके कि दोनों ही क्षत्रिय हैं।आज इन्हें मैढ़ राजपूत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि ये वही राजपूत है जिन्होंने स्वर्ण आभूषणों का कार्य अपने पुश्तैनी धंधे के रूप में चुना है।
लेकिन आगे चलकर गाँव में रहने वाले कुछ सुनारों ने भी आभूषण बनाने का पुश्तैनी धन्धा छोड़ दिया और वे खेती करने लगे।
वर्ग भेद -
अन्य हिन्दू जातियों की तरह सुनारों मे भी वर्ग-भेद पाया जाता है। इनमें अल्ल का रिवाज़ इतना प्राचीन है कि जिसकी कोई थाह नहीं।ये निम्न 3 वर्गों में विभाजित है,जैसे 4,13,और सवा लाख में इनकी प्रमुख अल्लों के नाम भी विचित्र हैं जैसे ग्वारे,भटेल,मदबरिया,महिलबार,नागवंशी,छिबहा, नरबरिया,अखिलहा,जडिया, सड़िया, धेबला पितरिया, बंगरमौआ, पलिया, झंकखर, भड़ेले, कदीमी, नेगपुरिया, सन्तानपुरिया, देखालन्तिया, मुण्डहा, भुइगइयाँ, समुहिया, चिल्लिया, कटारिया, नौबस्तवाल, व शाहपुरिया.सुरजनवार , खजवाणिया.डसाणिया,मायछ.लावट .कड़ैल.दैवाल.ढल्ला.कुकरा.डांवर.मौसूण.जौड़ा . जवडा. माहर. रोडा. बुटण.तित्तवारि.भदलिया. भोमा. अग्रोयाआदि-आदि। अल्ल का अर्थ निकास या जिस स्थान से इनके पुरखे निकल कर आये और दूसरी जगह जाकर बस गये थे आज तक ऐसा माना जाता है


जनसंख्या के आंकड़े-

सन् 1911 में हिन्दुस्तान के एक प्रान्त मध्य प्रदेश में ही सुनारों की जनसंख्या 96,000 थी और अकेले बरार में 30,000 सुनार रहते थे। सम्पन्न सुनारों की आबादी गाँवों के बजाय शहरों में अधिक थी। .
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मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज की कुलदेवियाँ





कुलदेवी  
                            उपासक सामाजिक गोत्र


1. अन्नपूर्णा माता  - खराड़ा, गंगसिया, चुवाणा, भढ़ाढरा, महीचाल,रावणसेरा, रुगलेचा।


2. अमणाय माता  - कुझेरा, खीचाणा, लाखणिया, घोड़वाल, सरवाल, परवला।

3. अम्बिका माता  -  कुचेवा, नाठीवाला।


4. आसापुरी माता  -  अदहके, अत्रपुरा, कुडेरिया, खत्री आसापुरा, जालोतिया, टुकड़ा, ठीकरिया, तेहड़वा, जोहड़, नरवरिया, बड़बेचा,  बाजरजुड़ा, सिंद, संभरवाल, मोडक़ा, मरान, भरीवाल,  चौहान।

5. कैवाय माता   - कीटमणा, ढोलवा, बानरा, मसाणिया, सींठावत।

6. कंकाली माता  - अधेरे, कजलोया, डोलीवाल, बंहराण, भदलास।


7. कालिका माता  - ककराणा, कांटा, कुचवाल, केकाण, घोसलिया, छापरवाल, झोजा, डोरे, भीवां, मथुरिया, मुदाकलस।

8. काली माता   - बनाफरा

9. कोटासीण माता  -  गनीवाल, जांगड़ा, ढीया, बामलवा, संखवाया, सहदेवड़ा, संवरा।

10. खींवजा माता  -  रावहेड़ा, हरसिया।

11. चण्डी माता   -  जांगला, झुंडा, डीडवाण, रजवास, सूबा।

12. चामुण्डा माता  - उजीणा, जोड़ा, झाट, टांक, झींगा, कुचोरा, ढोमा, तूणवार, धूपड़, बदलिया, बागा, भमेशा, मुलतान, लुद्र, गढ़वाल, गोगड़, चावड़ा, चांवडिया, जागलवा, झीगा, डांवर, सेडूंत।

13. चक्रसीण माता  - चतराणा, धरना, पंचमऊ, पातीघोष, मोडीवाल, सीडा।

14. चिडाय माता  - खीवाण जांटलीवाल, बडग़ोता, हरदेवाण।

15. ज्वालामुखी माता  -  कड़ेल, खलबलिया, छापरड़ा, जलभटिया, देसवाल, बड़सोला, बाबेरवाल, मघरान, सतरावल, सत्रावला, सीगड़, सुरता, सेडा, हरमोरा।

16. जमवाय माता  - कछवाहा, कठातला, खंडारा, पाडीवाल,बीजवा, सहीवाल, आमोरा, गधरावा,  धूपा, रावठडिय़ा।

17. जालपा माता  -  आगेचाल, कालबा, खेजड़वाल, गदवाहा, ठाकुर, बंसीवाल, बूट्टण, सणवाल।

18. जीणमाता   - तोषावड़, ।

19. तुलजा माता   -  गजोरा, रुदकी।

20. दधिमथी माता  -  अलदायण, अलवाण, अहिके,उदावत, कटलस, कपूरे, करोबटन,       कलनह, काछवा, कुक्कस, खोर, माहरीवाल।

21. नवदुर्गा माता  -  टाकड़ा, नरवला, नाबला, भालस।

22. नागणेचा माता  -  दगरवाल, देसा, धुडिय़ा, सीहरा, सीरोटा।

23. पण्डाय (पण्डवाय) माता -  रगल, रुणवाल, पांडस।

24. पद्मावती माता  -  कोरवा, जोखाटिया, बच्छस, बठोठा, लूमरा।

25. पाढराय माता  -  अचला।

26. पीपलाज माता  -  खजवानिया, परवाल, मुकारा।

27. बीजासण माता  -  अदोक , बीजासण, मंगला, मोडकड़ा, मोडाण, सेरने।

28. भद्रकालिका माता  -  नारनोली।

29. मुरटासीण माता  -  जाड़ा, ढल्ला, बनाथिया, मांडण, मौसूण, रोडा।

30. लखसीण माता  -  अजवाल, अजोरा, अडानिया, छाहरावा, झुण्डवा, डीगडवाल, तेहड़ा, परवलिया, बगे, राजोरिया, लंकावाल, सही,    सुकलास, हाबोरा।

31. ललावती माता  -  कुकसा, खरगसा, खरा, पतरावल, भानु, सीडवा, हेर।

32. सवकालिका माता  -  ढल्लीवाल, बामला, भंवर, रूडवाल, रोजीवाल, लदेरा, सकट।

33. सम्भराय माता  -  अडवाल, खड़ानिया, खीपल, गुगरिया, तवरीलिया, दुरोलिया, पसगांगण, भमूरिया।

34.  संचाय माता  -  डोसाणा।

35. सुदर्शनमाता   - मलिंडा।

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