14.9.17

सुथार जाति(जांगीड ब्राह्मण) का इतिहास ,suthar jati ka itihas





जाति कर्म धर्म के अनुसार सुथार समाज जांगिड ब्राह्मण है।
सुथार अंगिरा ऋषि की संतान है। अंगिराऋषि ब्राह्मार्षि थे। दिग्विजयी प्रतापी होने के कारण इन्हे जांगिड कह गया । अंगिरा ऋषि(अंगिरसो) के आश्रम जांगल देश मे थे इसलिये भी अंगिरस स्थान के नाम से जांगिड कहलाये। आदि शिल्पाचार्य भुवन पुत्र विश्वकर्मा देवों के शिल्पी होने से जाँगिड कहलाये। विश्वकर्मा जी अंगिराकुल के होने के कारण हमारी वंश परम्परा के पूज्यनीय एवं हमारे प्रेरक गुरु और भगवान है।
इसका क्या प्रमाण है?
प्रायः व्यवसाय के आधार पर दूसरी जाति के लोग जांगिड ब्राह्मण समाज को शंका की निगाह से देखते है और यहां तक आरोप लगाते है कि ये अपनी जाति छिपाते है। ऎसे समय मे अपने आपको उच्च ब्राह्म्ण होने के निम्न प्रमाण दीजिये:-
1.वेद प्रमाण:- अथर्ववेद के 19 मे कांड सूक्त 34 मंत्र 1 मे लिखा है "अंगिराअसी जांगिड अर्थात अंगिरा जाति का दूसरा नाम जांगिड है। हम उसी ऋषि की सन्तान (वंश) होने के कारण ब्राह्मण है। अंगिरा ऋषि ही नही ब्राह्माऋषि थे इसलिये उच्च ब्राह्मण कुल के है।
2. ऎतिहासिक प्रमाण:- दिल्ली से 11 मील की दूरी पर कुतुबमीनार के पास सती मठ मे लगा हुआ 460 वर्ष पुराना शिलालेख मिला है। इस पुरावशेष मे जांगिड ब्राह्मण वंश की सतियों का वेश परिचय खुदा हुआ है।
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3.पं. परसुरामजी शास्त्री विधा सागर प्रख्यात पुस्तक "ब्राह्मण वंशोतिवृतम" मे जांगिड ब्राह्मण उत्पति का विवरण दिया है, जिसमे जांगिड ब्राह्मण माना है
4. गोडपदाचार्य विष्णु श्याम बलदेवजी ने विवेकानन्द जी की रचित पुस्तक "गौड ब्राह्माणोत्पति" के तीसरे भाग मे जांगिड जाति के ब्राह्मण स्वीकार किया है।
5. व्यवस्था पत्र -सम्पूर्ण भारत की 41 विख्यात पंडितो ने संवत१९७७ की दीपावली को काशी मे यह निर्णय लिया कि जांगिड ब्राह्मण जाति वास्तव मे ब्राह्मण है।
उपरोक्त प्रमाणों के अलावा"ब्राह्मण उत्पति मार्तण्ड" नामक पुस्तक के 51 वें प्रकरण मे 562 वें पृष्ठ पर पांचाल ब्राह्मण के बारे मे लिखा हुआ उसके आचार-विचार कर्म तथा पांचाल के भेदादि का वर्णन किया गया है। देशान्तरी नाम से भी कुछ ब्राह्मण बोले जाते है। जैसे कि कन्नौज क्षेत्र के रहने वाले ब्राह्मणों कन्नौजिया ब्राह्मन मिथिला पुरी के रहने वाले मैथिल ब्राह्मण सारस्वत नदी के आस-पास सारस्वत ब्राह्मण मथुरा के रहने वाले मथुरिया ब्राह्मण। इसी प्रकार पांचाल देश के रहने वाले ब्राह्मणों को पांचाल ब्राह्मण कहा गया है जैसा राजा द्रुपद पांचाल नरेश कहा गया है। उछालक मुनि (आरुणी) को पांचाल नाम से पुकारा गया है। पांचाल क्षेत्र गंगा यमुना के दो आय बरेली के पास रामनगर अहिछ्त्र तथा कपिल्य क्षेत्र है, इसका वर्णन भारतीय इतिहास मे पाया गया है।
हमारा प्राचीन इतिहास स्वयंभू ब्रह्मा से प्रारम्भ होता है। वेद, शास्त्र तथा पुराणों के अनुसार ये ही प्रथम मानव थे जिन से समस्त मानव प्रजा का विस्तार हुआ। जिनका दूसरा नाम आपव प्रजापति भी था। सबसे पहिले इनके मुख से वेदवाणी निकली। स्वयंमू ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभू ब्रह्मा अमैथुनी सृष्टि के प्रथम जीव थे। इनके पौत्र स्वयंभूव मनु से मनुऒं की परम्परा का प्रवतन हुआ। इसके अतिरिक्त स्वयंभू ब्रह्मा के सात मानस पुत्र हुये जिन्हें आदि युग के सप्तषि भी कहा जाता है। इनके नाम मरिचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क़तु तथा वशिष्ठ हैं। ये सभी वेदों के पूण थे। ये सातों प्रवृति माग प्रवतक वेदाचाय थे अथात् इन्होंने वेद धम का प्रचार करते हुये सृष्टि का विस्तार किया। वतमान हिन्दु जगत इन्ही सप्तषियों की सन्तान है इसलिये इन्हें सप्त ब्रह्मा भी कहा जाता है। इनकी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये ध्रव की निकटतम परिक्रमा करने वाले सात तारों का इन्हीं सप्त ऋषियों के नाम पर नामकरण किया गया। स्वयंभूव मनु स्वयंभू बह्मा के पोत्र स्वयंभूव मनु हुये। ये ही प्रथम मन्वन्तर के प्रवतक हैं, इन्हैं वैराज प्रजापति भी कहा जाता है। इन्हीं की वंश परम्परा में आगे चलकर पांच ओर मनु हुये। छठे मनु (चाष मनु) के काल मे इतिहास प्रसिध्द जलप्रलय हुई। स्वयंभूव मनु की सन्तति अधिकतम पुराणों के अनुसार स्वयंभूव मनु के शतरुपा से प्रियव्रत तथा ‍उतानपाद दो पुत्र तथा आकृति एवं प्रसूती दो पुत्रियां हुई। प्रियव्रत समस्त पृथ्वी के प्रजापति थे, इनके सात पुत्र थे। उनमें पृथ्वी के सातों महाद्वीप बांट दिये। ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र को जम्बुद्वीप (एशिया) का राज्य मिला। शेष पुत्रों को शेष महाद्वीपों के राज्य मिले। आग्नीध्र ने अपने पुत्रों में जम्बुद्वीप का राज्य विभक्त कर दिया। उसके अनुसार उन्होंने अपने पुत्र नाभि को हिमवष का राज्य दिया। नाभि के पुत्र ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत हुये जिन के नाम पर हिमवष का नाम भारतवष पङा। स्वयंभूव मनु के द्वितीय पुत्र उतानपाद की प्रथम पत्नी सुनीति से ध्रुव तथा द्वितीय पत्नी सुरिची से उतम हुये। सोतेली मां से तिरस्कृत ध्रुव ने घोर तपस्या कर अटल (ध्रुव) पद प्राप्त किया। उतरी दिशा के अटल निदेशक तारे को ध्रुव नाम दे उसकी तपस्या को चिरस्थायी कर दिया है। उतम य द्वारा मारा गया उसका पुत्र औतम मनु के नाम से तीसरा मनु हुआ।
अंगिरा ने अपने विजय के आधार पर राजराजेश्वर इन्द्र का सम्मान प्राप्त किया। अत्याचारियों का दमन कर प्रजा की रक्षा करने वाले इस संत एंव वीरवर ऋषि की अथर्ववेद काण्ड 19 सूक्त 34-35 के अनेक मन्त्रों मे अधिक प्रशंसा हुई।
इन्द्र्स्य नाम ग्रहणन्तृषियों जंगिड दद:।
देवा यं चकुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदषणम॥
अर्थात: जब अंगिरा ने शाक द्वीप कुश द्वीप को विजित कर लिया तो ऋषियों ने अंगिरा को इन्द्र की उपाधि प्रदान कर उन्हे प्रजाहित मे शत्रुनाशक जंगिड कहा, अर्थात दुर्घर्ष सेनानायक का कार्य प्रतिपादित करने के कारण जंगविजयी के पेअतीक के स्वरुप उन्हे जंगिड कह कर सम्मानित किया।
कालान्तर मे अंगिरा ऋषि के साथ जंगिड उपाधि जुड जाने के कारण अंगिरा वंशी जांगिड कहलाने लगे। अंगिरा ब्रह्मा के मानस औत्रो मे से एक हुए ब्रह्मर्षि थे।
ब्रह्मा अर्थात ब्राह्मण होने के कारण अंगिरा वंशी जांगिड, जांगिड ब्राह्मण कहलाये।
अथर्ववेद काण्ड 17 सूक्त 34 मन्त्र 1 अंगिरा ऋषि के जांगिड होने के प्रमाण कहता है।
अंगिराअसि जंगिड: रक्षिता जंगिड:।
द्धिपाच्चतुष्पादस्माकं सर्व रक्षतु जंगिड:॥
अंगिरा(जांगिड) की दिग्विजयों का वर्णन यूरोप के विद्वानो ने खुलकर "एनसियन्ट हिस्ट्री आफ परसिया" जैनेसिस तथा मिल्टन का पैराडाइज लास्ट जैसे अनेक ग्रन्थो में किया है।
सायणा भाष्य के अनुसार देवों ने अंगिरा को तीन बार उत्पन्न किया। इस नाम के तीन महर्षि प्रचीन काल मे हो गये है पुरातन काल मे ब्राह्मण ऋषि इस जंगिड ऋषि को अंगिरा नाम से जानते थे।
सायणाचार्य ने अंगिरा ऋषि को ही जंगिड ऋषि माना है। वेद स्वत: यह सिद्ध करते है |
पाश्चात्य विद्वान ग्रीफिथ भी यह स्वीकार करते है कि हे जंगिड तेरा ही नाम जांगिड है तू रक्षा करने वाला जंगिड है।
पब्लिक पुस्तकालय लाहोर मे सुरक्षित अथर्ववेद संहिता मे जंगिड शब्द की व्युत्पति इस प्रकार की गई है-
"जंगिडास्य(विशेषमणि)सक्तमधीते वेति वासौ जंगिड: यद्धा जांगिड्स्यपत्यं जांगिड:।
अर्थात जो जंगिड रक्तक अध्ययन कर्ता है अथवा जो जंगिड ऋषि की संतान है वह जंगिड कहलाने का हकदार है।
ऎतरेय 3.34 मे उक्त कथन की सत्यता को प्रकट करने के लिये इस प्रकार कहा है-
"तंतादृशं प्रयत्नेन उत्पादित त्वा त्वाम अंगिरा इति"
इस तरह सब मिलकर चाहे वेद या ब्राह्मण ग्रन्थ अथवा प्राचीन भाष्यकारों और पाश्चात्य यूरोपियन समीक्षक ही क्यों न हो सभी ने एक मत से यही स्वीकार किया है कि अंगिरा ऋषि का ही दूसरा प्रमाणित नाम जांगिड है।
परशुराम शास्त्री ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "ब्रह्मणवंशोतिवृतम" मे जंगिड का अर्थ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
"जगम्यते शत्रुन वाधिनुम इति जांगिड: जगिरतीति जंगिर:।
अर्थात जो शत्रुओं का चमन करने मे निरन्तर लगा रहता है वही जंगिड(वीरवर) है।
अंगिरा ऋषि ने किसी समय ऎसी जंगल मे अपना आश्रम बनाया होगा जहां जंगिड वृक्षो की अधिकता रही हो, कुल मिला कर महर्षि अंगिरा का एक नाम जंगिड भी प्रसिद्द्ग रहा है।
अंगिरा (दर्शन) आदियुग
स्वयंभू ब्रह्मा
हे अंगिर: नमन |
अग्नि (पवित्र आग ) को खोज निकालने वाले अंगिरस ऋषि कहे गये है।
वे मनुष्य के पुरखा है," पितरो मनुष्या" जिन्होने प्रकाश को खोज निकाला, सूर्य को चमकाया और सत्य के स्वर्लोक मे चढ गये।
अंगिरा ने सत्य की सर्वोच्च अभिव्यक्ति को धारण किया। उन्होने कर्म पूर्ण सिद्ध द्वारा अग्नि को प्रज्जवल्लित किया था। एक महान शक्ति होकर उत्पन्न हुये। तुझे वे बल का पुत्र कहते है।, हे अंगिर:।
-महर्षि अरविन्द (वेद रहस्य ग्रन्थ से)
हमारा प्राचीन इतिहास स्वयंभू ब्रह्मा से प्रारम्भ होता है।
वेद शास्त्र तथा पुराणो के अनुसार ये ही प्रथम मानव थे जिनसे समस्त मानव प्रजा का विस्तार हुआ है। जिनका दूसरा नाम आपव प्रजापति भी था। सबसे पहले इनके मुख से वेद वेदवाणी निकली।
वेदव्यास जी महाभारत मे कहते है- हे स्वयंभू भगवान! पुरातन काल मे वेद आप ही के द्वारा गाया गया था। ऋषियों तक उनको स्मरण करने वाले ही है कर्ता नही।
स्वयंभू ब्रह्मा यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय के प्रथम बारह मन्त्रो के मन्त्रदृष्टा ऋषि भी है। इस प्रकार ऋषि परम्परा का सूत्रपात करने वाले है। आदि होने के कारण इन्हे आदि ब्रह्मा भी कहा जाता है। आपकी सर्वप्रथम तपस्या एंव सर्वप्रथम यज्ञ करने का वर्णन शतपथ ब्राह्मण 13/2/8/1-14 में मिलता है।
" ब्रह्म वै स्वयंभू तपोअतप्यत।
तदैक्षत न वै तपस्यान्नत्यमस्ति हन्ताहं भूतेषू आत्मानं जुह्रानि भूतानि चात्मानि इति... "
(स्वयंभू ब्रह्मा ने तप किया और देखा कि, तप की अन्तता नही है उसने अपने आप को सब भूतो मे हवन किया और सब भूतो को अपने आत्मा मे हवन किया। इसमे वह सबमे श्रेष्ठ बना। स्वयंभू ब्रह्मा के इस सर्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान भुवन पुत्र विश्वकर्मा ने किया। शतपंथ ब्राह्मण मे वर्णित स्वयंभू ब्रह्मा के सर्वमेघ यज्ञ की पुष्टी महाभारत करता है। वन पर्व के अध्याय 114 के श्लोक 19 मे लोमश ऋषि कहते है-
एतत स्वयंभुवो सजन वनं दिव्यं प्रकाशते ।
यत्रायजत राजेन्द्र विश्वकर्मा प्रतापवान॥
वनवस के समय अर्जुन इन्द्र के पास शिक्षा प्राप्त करने गये थे। लोमश ऋषि ने अर्जुन द्वारा प्रदत्त सन्देश युधिष्ठिर आदि पाण्डवो को सुनाकर उन्हे साथ लेकर यात्रा प्रारम्भ की। वर्तमान मे उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल के तीर्थो पर होते हुए वे उत्कल प्रदेश मे प्रविष्ठ हुये उस समय उन्होने युधिष्ठिर से ये शब्द कहे थे- हे राजन! यह स्वयंभू ब्रह्मा का दिव्य वन प्रकाशित हो रहा है। यहाँ प्रतापी राजाओ के इन्द्र(भौवन) विश्वकर्मा ने यज्ञ किया था। इससे द बाते स्वत: प्रमाणित हो जाती है |
1. यह दिव्य वन परसुराम की तपो भूमि महेन्द्र पर्वत के निकट उत्कल प्रदेश मे था अत: स्वयंभू भारत मे ही उत्पन्न हुए।
2. इनका काल महाभारत से पूर्व है। इनके काल पश्चात भौवन विश्वकर्मा हुये तथा उन्होने सर्वमेघ यज्ञ किया ।
स्वयंभू ब्रह्मा के मानस पुत्र :- स्वयंभू ब्रह्म अमैथुनी सृष्टि के प्रथम जीव थे। इन्हे पौत्र स्वायंभुव मनु से मनुओ की परम्परा का प्रवर्तन हुआ। इनके अतिरिक्त स्वयंभू ब्रह्मा के साथ मानव पुत्र हुये जिन्हे आदि युग के सप्तर्षि भी कहा जाता है। इनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिर, पुलस्थ, पुलह, कृत तथा वशिष्ठ है। ये सभी कृत वेदों के पूर्ण ज्ञाता थे। ये सातों प्रवुति मार्ग प्रवर्तक वेदाचार्य थे अर्थात इन्होने वेद धर्म का प्रचार करते हुए सृष्टि का वुद्तार किया। वर्तमान हिन्दु जगत इन्ही सप्तर्षियों के सन्तान है इसीलिए इन्हे सप्त ब्रह्म भी कहा जाता है। इनकी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये ध्रुव की निकटतम परिक्रमा करने वो सात तारों का इन्ही सप्तऋषियों के नाम पर नामकरण किया गया। वायु पुराण अध्याय 5 मे ब्रह्मा के मानस पुत्रों की संख्या 6 तथा शिव पुराणा रुद्र्संहिता खण्ड 2 मे 10 लिखी गई है जिनमे तीन ऋषि भृगु, नारद और दक्ष को मानस पुत्र माना है वस्तुत: प्रलय के पश्चात सर्वप्रथम बिना माता-पिता के संयोग से अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न होती है जिनकी संख्या अनेको होती है।
ब्रह्म उन्हे अपने मन से उत्पन्न करता है।अत: ऎसी सन्तान ब्रह्म के मानस पुत्रो मे गिनी जाती है। ऎसी सन्तानो मे सात को प्रमुखता दी गई है।
ब्रह्म के पौत्र स्वायंभु मनु हुए। ये ही प्रथम मन्वन्तर (स्वायंभु मन्वन्तर) के प्रवर्तक है इन्हे वैराज प्रजापति भी कहा जाता है। इन्ही की वंश परम्परा मे आगे चलकर पांच और मनु हुये। छ्ठे नमु(चाक्षुष मनु) के अन्तिम काल मे इतिहास प्रसिद्ध जलप्रलय हुई। प्रथम मनु से छ्ठे चाक्षुष मनु तक के काल का धर्म ग्रन्थों मे मे आदियुग,देवयुग तथा कृतयुग के नाम से कथन किया गया है। वस्तुत: ये तीनो सतयुग के ही तीन विभाग है। इस काल मे छ: मनु तथा उनके वंशजों ने समस्त पृथ्वी पर राज्य किया।
स्वायंभुव मनु की धर्मपत्नी शतरुपा थी ये दोनो ऎतिहासिक महापुरुष है इन्ही दोनो को यहुदी ईसाई तथा मुसलमान धर्मावलम्बी बाबा आदम और हब्बा कहते है। रुस की भी प्राचीन मान्यता यही है। समस्त पुरातन साहित्य धर्म इन्हे ही अपना आदि पुरुष मानता है। वह सातवें वैवस्वत मनु को हजरत नौवा नाम देता है।
स्वायंभुव ने वेद के आधार पर आदि मानव धर्मशास्त्र की रचना कर उसका प्रचलन किया। महाभारत काल तक समस्त मानव समाज इसी धर्म शास्त्र का पालन करता था, वेदव्यास ने महाभारत आदि पर्व 116 मे स्वायंभुव मनु का निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया-
अपत्यं धर्मफलदं श्रेष्ठ विन्दन्ति मानवा:।
आत्मशुकादपि पृथे: मनु: स्वायंभुवोअबवात॥
शापग्रस्त पाण्डु अपनी पत्नी कुन्ती को आपत्काल मे नियोग को सनातन मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल बताते हुए आदि मनु रचित धर्मशास्त्र का उदाहरण करते हुए कहते है- हे कुन्ति! स्वायंभुव मनु ने कहा है कि मानव धर्म फल के दिन वाले पुत्र को ही श्रेष्ठ पुत्र कहते है ऎसा पुत्र अपने वीर्य के अतिरिक्त अन्य से भी प्राप्त किया जा सकता है।
इस प्रकार वेदो ने विधवा या अशक्ता पतियुक्ता के दो या तीन सन्तान उत्पन्न करने का अधिकार दिया है। महाभारत तक यह वेदाज्ञा प्रचलित थी। इसी शास्त्रदेश से दीर्घतमा ने सुदेष्णा वशिष्ठ्ने दमयन्ती से तथा व्यास ने अन्बिकादि से उत्पन्न किये थे। महाभारत के बाद ही वेदब्रह्म सनातन धर्म चलाया जिसके फलस्वरुप विधवाओं की दुर्गति हुई। हमारे समाज ने इन्हे अमान्य कर प्राचीन सनातन धर्म पर ही आचरण किया। महर्षि दयानन्द ने पुन: उस वेदोक्त सनातन धर्म का पुनरुद्ध्र कर विधवा विवाह का प्रचलन किया। स्वायंभुव मनु के धर्म शास्त्रों मे अनेक प्रमाण मिलते है। महाभारत शान्ति पर्व मे स्वयंभुव मनु तथा सिद्धो के संवाद का वर्णन मिलता है
मनु की सन्तति :- अधिकतम पुराणो के अनुसार स्वयंभुव मनु के शतरुपा के प्रियव्रत तथा उतानपाद दो पुत्र तथा आकृति एंव प्रसुति दो पुत्रियां हुई। केवल भागवत पुराण तीसरी पुत्री देवहूति का वर्णन करता है परन्तु अन्य पुराणो को देखते हुए यह कथन ठीक नही लगता।
प्रियव्रत समस्त पृथ्वी के प्रजापति थे इनके सात पुत्र थे।उनमे पृथ्वी के सातो महाद्वीप बांट दिये। ज्येष्ठ पुत्र को जम्बुद्वीप(एशिया)का राज्य मिला। छ: महाद्वीपों के राज्य मिले। आग्रीध ने अपने पुत्रो मे जम्बुद्वीप का राज्य विभक्त कर दिया। नाभि के पुत्र ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत हुये जिन के नाम पर हिमवर्ष का नाम भारतवर्ष पडा ध्रुव पद प्राप्ति स्वायंभुव मनु के द्धितीय पुत्र उतानपाद के प्रथम पत्नी सुनीति के ध्रुव तथा द्धितीय पत्नी सुरुचि से उत्तम हुये। सौतेली मां से तिरस्कृत ध्रुव ने घोर तपस्या कर अटल(ध्रुव) पद प्राप्त किया। उत्तरी दिशा के अटल निर्देशक तारे को ध्रुव नाम्से उसकी तपस्या को चिरस्थायी कर दिया है। उत्तम यक्षों द्वारा मारा गया उसक पुत्र औतम मनु के नाम से तीसरा मनु हुआ। प्रथम दक्ष की पुत्रियों से वंश विस्तार स्वायंभुव मनु की औत्री आकृति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ। इनके पुत्र यज्ञ तथा पुत्रे दक्षिणा सन्तान हुई। इनके पुत्र याम इस मन्वन्तर के देवता हुये।
अंगिरा के ह्र्दय मे अथर्ववेद का प्रकाश :- ब्रह्मर्षि अंगिरा के ह्र्दय मे सर्वप्रथम अथर्ववेद का प्रकाश हुआ अत: वेदाचार्यो मे ये अग्रणी हुये। ज्ञान चार है ऋग ज्ञानवेद है। यजु यज्ञ वेद है साम,उपासना वेद है तथ अथर्व विज्ञान वेद है ज्ञान कर्म उपासना तथा विज्ञान चारों का साध्य है ज्ञान कर्म और उपासना का लक्ष्य विज्ञान है। वेदवित वही है जिस ने ज्ञान कर्म और उपासना द्वारा विज्ञान की प्राप्ति की है। अत: ऋग यजु तथा साम इन तीनो का लक्ष विज्ञान वेद(अथर्ववेद) है।
इस दृष्टि से चारोवेदो मे अथर्ववेद की महत्ता सुस्पष्ट एंव सर्वोपरी है। इस धारण को वेद स्वत: सम्पुष्ट करत है-
यंस्माध्चो अपातक्षन यजुर्यस्मादपाक्षन समानि यस्य लोकामान्यथर्वागिसों मुखम।
स्कम्भं तं भूहि कतम: स्विदेव स: ॥
अर्थात उस स्कम्भ जगदाधार विराट परमेश्वर की महिमा को कौन जान सकता है। इससे ऋग्वेद का विस्तार हुआ, जिससे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है। और अथर्ववेद जिसका मुख है यहाँ अथर्ववेद को मुख कह इसकी सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यज्ञ के चार प्रधान ऋत्वियो के नेता ब्रह्मा के लिये अथर्ववेदित होने की अनिवार्यता रखी गयी है। अथर्ववेद काण्ड 10 सूक्त 7 मंत्र 14 स्वत: यह प्रमाणित करता है कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ये चार ऋषि सर्व प्रथम सृष्टि मे उत्पन्न हुये। इन्ही के हृदयो मे क्रमश: ऋग, यजु, साम तथा अथर्ववेद का प्रकाश हुआ। महर्षि दयानन्द ने भी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका मे वेदोत्पति विषय पर लिखते हुये इसी की पुष्टि की है।
अग्निवायुरव्यंगिरोमनुष्य देहधारि जीवद्वारेण परमेश्वरेण श्रुतिर्वेद: प्रकाशीकृत इति बोध्यम"
पहले ब्रह्मा ने जगत रचा तब ब्राह्मण ही थे बाद मे जैसे कर्म किये, उस कर्म के अनुसार जातियां बनी। सतयुग मे एक ही वर्ण ब्राह्मण था त्रेता मे चार वर्ण बने। -ऋषि भारद्वाज
यह निश्चय है कि परमेश्वर ने अग्नि वायु आदित्य तथा अंगिरा इन देहधारी जीवो के द्वारा वेद का अर्थ प्रकाश किया। इन चारो ने ही ब्रह्मा को वेद ज्ञान दिया इसी कारण ये ब्रह्मार्षि कहलाये। अंगिरा का अर्थ यही रूढ हुआ कि देवां ओर ऋषियो को वेद पढाने वाला आचार्य।
ब्रह्मार्षि अंगिरा तथा इनके वंशज अंगिरस ऋषियो के कुरु क्षेत्र के निकट सरस्वती नदी के उत्तर मे थे। उसे प्राचीन काल मे जांगल देश कहा जाता था। यह महाभारत काल तक बहुत प्रसिद्ध था। इस प्रकार यह जांगल देश अंगिर्र कुल की तपो भूमि थी जिसके कारण अंगिरा को जांगिड भी कहा जाने लगा। इस प्रतापी वीर अंगिरा ही समस्त संसार को जीतकर इन्द्र पदवी धारण कर अत्याचारियो से प्रजा की रक्षा की |
अथर्ववेद 19 सूक्त 34 व 35 मे इस अंगिरा की खूब प्रशंसा की है।
इन्द्रस्य नाम गृहन्त ऋषियों जंगिडं ददु:।
द्विपाच्चातुष्पादस्माकं सर्व रक्ष्तु जंगिड:॥
अथर्ववेद का यह प्रमाण मिलता है कि " अंगिरा ही जांगिड है’ स्वत: प्रमाणित करता है।इस सूक्त का छ्ठा मन्त्र इसी अर्थ की पुष्टि करता है।
सुब्राह्मणों के भेद ऋषियों मुनियों ने ब्राह्मणों के 2 भेद किये है।
ब्राह्मणानां कुलं द्वेवा पूर्व विभाजित सुरै।
आर्वेर्या पौरुषेय च जन्म कर्म विशेषत:॥
अर्थ-उस समय प्रथम देवों ने ब्राह्मणों के कुलों के दो भाग किये कि जन्म और कर्म को विशेषता के कारण एक तो आर्षे और दूसरे पौरुर्षय नाम से प्रसिद्ध हुये।
आर्षेयन्द्र वसिष्दादि ह्रामुस्यिन मुनिसतम।
तद्धिश्व कर्म्ण श्च स्या पुरुषस्य मुखोभ्दवय॥ पौरुषें मितिख्यातं पंच गोत्र महत्कुलम॥
अर्थ जिनमे वसिष्टादि तो आर्षे है(जोकि ब्राह्मण वर्ण प्तथक अन्य हीन योनियों द्वारा उत्पन्न) और दूसरे विश्वकर्मा प्रसिद्ध पुरुष है उस ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुये पौरुषय ब्राह्मण कहलाए (मनु मय त्वष्टा शिल्पी और देवज्ञ) ये पांच नाम है।ये पांचालादि ब्राह्मण कहलाये।शिल्पी ब्राह्मण बडॆ कुल वाले श्रेष्ठ सुब्राह्मण है। इनका संक्षिप्त से नाम भेद लिखता हूँ
1.धीमान 2.जांगिड 3.उपाध्याय 4.ओझ 5.टोकं 6.लाहोरी 7. मथुरिया 8. सूत्रधार 9. रामगढिया 10.मैथिल 12.त्रिवेदि 13.पिटला 14. लौष्टा 15. महुलिया 15. रावत 16. कान्य 17.मालवीय 18. मगध 19.पंच्गालट 20. सरबरिया 21.गौड 22.देव कमलार 23. विश्व ब्राह्मण 24.कंशली 25.विश्वकर्मा 26.नबन्दन 27. तंरच 28. पांचाल 29. आचार्य और 30. जगत्गुरु ऎसे यह शिल्पीब्राह्मणो के 30 नाम है।
वेद शास्त्र और पुराणों मे इन शिल्पी ब्राह्मणों को सबसे ऊचां सम्मान दिया गया।
अथर्ववेद के उपवेद (शिल्पाशास्त्र) मे स्कन्द पुराण ब्रह्मा खण्ड अर्थ- हजारो शुद्रो की श्रेणियों मे अगर एक ब्राह्मण को सबसे पहके उसे ब्राह्मण का सत्कार करना चाहिये और हजार ब्राह्मणों की श्रेणियों मे एक शिल्पी ब्राह्मण बैठा होतो सबसे पहले उस शिल्पी ब्राह्मण का सत्कार करना चाहिए सतयुग मे देवों ने पूजा की।
देवताओं ने अपना पुरोहित विश्वरुप को बनाया।
विश्वरुप त्वष्टा पुरोहित देवाना आसीर
त्रेता युग मे राम ने विश्वकर्मा(नल-नील) की पूजा की तथा द्वापर मे कृष्ण ने पूजा की और अब कलियुग मे ऊचे-ऊचे ब्राह्मणों का सम्मान न होकर अन्य ब्राह्मणो का सम्मान हो रहा है। गीता मे भगवान ने कहा है।कि कलियुग मे माता-पिता देवता गुरु तथा ब्राह्मणो का सम्मान न होकर इनका निरादर किया जायेगा और अधिक बोलने वालों नीचों व्याभिचारियों का सम्मान होगा।
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