15.9.16

दस अंध विश्वास जो विज्ञान-सम्मत नहीं हैं



हमारे समाज में कुछ ऐसी मान्यताएं प्रचलित हैं जिन्हें अंधविश्वास कहा जाता है। हालांकि विज्ञान इस संबंध में रिसर्च कर रहा है और कुछ हद तक वह इन सवालों के जवाब देने में सफल भी हुआ है और कुछ को उसने अंधविश्‍वास मानकर छोड़ दिया। जो लोग अंधविश्वासों को मानते हैं वे डरे हुए ही जीवन गुजार देते हैं, लेकिन साहसी लोग अपनी बुद्धि और समझ पर भरोसा करते हैं।
ढेरों विश्वास या अंधविश्वास हैं जिनमें से कुछ का धर्म में उल्लेख मिलता है और उसका कारण भी, लेकिन बहुत से ऐसे विश्वास हैं, जो लोक परंपरा और स्थानीय लोगों की मान्यताओं पर आधारित हैं। हालांकि इन विश्वासों को अनुभव पर आधारित माना जाता है। इनमें किस हद तक सच्चाई है यह शोध का विषय है।
यहां प्रस्तुत हैं ऐसे 10 अंधविश्वास जिनसे रोज ही आपका सामना होता है या कि जो सीधे-सीधे आपके जीवन को प्रभावित करते हैं और जिनके प्रभाव को भी आपने आजमाया होगा। इन सभी का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं है।
* बिल्ली का रास्ता काटना, रोना और आपस में दो बिल्लियों का झगड़ना अशुभ है?
-बिल्ली का रास्ता काटना : माना जाता है कि बिल्ली की छठी इंद्री मनुष्यों की छठी इंद्री से कहीं ज्यादा सक्रिय है जिसके कारण उसे होनी-अनहोनी का पूर्वाभास होने लगता है।
मान्यता अनुसार काली बिल्ली का रास्ता काटना तभी अशुभ माना जाता है जबकि बिल्ली बाईं ओर रास्ता काटते हुए दाईं ओर जाए। अन्य स्थ‌ित‌ियों में बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ नहीं माना जाता है।
जब बिल्ली रास्ता काटकर दूसरी ओर चली जाती है तो अपने पीछे वह उसकी नेगेटिव ऊर्जा छोड़ जाती है, जो काफी देर तक उस मार्ग पर बनी रहती है। खासकर काली बिल्ली के बारे में यह माना जाता है। हो सकता है कि प्राचीनकाल के जानकारों ने इसलिए यह अंधविश्वास फैलाया हो कि बिल्ली के रास्ता काटने पर अशुभ होता है।
बिल्ली का रोना : बिल्ली के रोने की आवाज बहुत ही डरावनी होती है। निश्‍चित ही इसको सुनने से हमारे मन में भय और आशंका का जन्म होता है। माना जाता है कि बिल्ली अगर घर में आकर रोने लगे तो घर के किसी सदस्य की मौत होने की सूचना है या कोई अनहोनी घटना हो सकती है।
बिल्ली का आपस में झगड़ना : बिल्लियों का आपस में लड़ना धनहानि और गृहकलह का संकेत है। यदि किसी के घर में बिल्लियां आपस में लड़ रही हैं तो माना जाता है कि शीघ्र ही घर में कलह उत्पन्न होने वाली है। गृहकलह से ही धनहानि होती है।
बिल्ली से जुड़े अन्य अंधविश्वास :
* लोक मान्यता है कि दीपावली की रात घर में ब‌िल्ली का आना शुभ शगुन होता है।
* बिल्ली घर में बच्चे को जन्‍म देती है तो इसे भी अच्छा माना जाता है।
* किसी शुभ कार्य से कहीं जा रहे हों और बिल्ली मुंह में मांस का टुकड़ा लिए हुए दिखाई दे तो काम सफल होता है।
* लाल किताब के अनुसार बिल्ली को राहु की सवारी कहा गया है। जिस जातक की कुण्डली में राहु शुभ नहीं है उसे राहु के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए ब‌िल्ली पालना चाहिए।
* लाल क‌िताब के टोटके के अनुसार बिल्ली की जेर को लाल कपड़े में लपेटकर बाजू पर बांधने से कालसर्प दोष से बचाव होता। ऊपरी चक्कर, नजर दोष, प्रेत बाधा इन सभी में ब‌िल्ली की जेर बांधने से लाभ मिलता है।
* यदि सोए हुए व्यक्ति के ‌स‌िर को बिल्ली चाटने लगे तो ऐसा व्यक्ति सरकारी मामले में फंस सकता है।
* बिल्ली का पैर चाटना निकट भविष्य में बीमार होने का संकेत होता है।
* ब‌िल्ली ऊपर से कूदकर चली जाए तो तकलीफ सहनी पड़ती है।
* यदि आप कहीं जा रहे हैं और बिल्ली आपके सामने कोई खाने वाली वस्तु लेकर आए और म्याऊं बोले तो- अशुभ होता है। यही क्रिया आपके घर आते समय हो तो- शुभ होता है।
* कुत्ते के रोने को अशुभ क्यों माना जाता है?
-कुत्ते का रोना अशुभ माना जाता है। मान्यता है कि घर के सामने घर की ओर मुंह करके कोई कुत्ता रोए तो उस घर पर किसी प्रकार की विपत्ति आने वाली है या घर के किसी सदस्य की मौत होगी।
* क्या बंदर का सुबह-सुबह मुंह देखने से खाना नहीं मिलता?-ऐसी मान्यता है कि सुबह-सवेरे बंदर के दर्शन हो जाने के बाद दिनभर खाना नसीब नहीं होता। बंदर से जुड़ी ऐसे कई शुभ और अशुभ मान्यताएं हैं।
* किसी सुनसान स्थान पर पेशाब कर देने से क्या भूत लग जाता है?



-ऐसी मान्यता हैं कि किसी सुनसान या जंगल की किसी विशेष भूमि कर पेशाब कर देने से भूत पीछे लग जाता है। मान्यता अनुसार वहां कोई आत्मा निवास कर रही हो और आपने वहां जाकर पेशाब कर दिया हो तो।
ऐसे में कुछ लोग पहले थूकते हैं फिर पेशाब करते हैं और कुछ लोग कोई मंत्र वगैरह पढ़कर ऐसा करते हैं। जैन धर्म के अनुसार पेशाब करने के बाद कहा जाता हैं कि भगवान शकेंद्रनाथ की आज्ञा से ऐसा किया गया। कुछ लोग यह कहने के बाद पेशाब करते हैं- उत्तम धरती मध्यम काया, उठो देव मैं मूतन आया।
अन्य मान्यता :
* नदी, पूल या जंगल की पगडंडी पर पेशाब नहीं करते।
* मान्यता अनुसार एकांत में पवित्रता का ध्यान रखते हैं और पेशाब करने के बाद धेला अवश्य लेते हैं। उचित जगह देखकर ही पेशाब करते हैं।
* भोजन के बाद पेशाब करना और उसके बाद बाईं करवट सोना बड़ा हितकारक है।
बंदर से जुड़े अंधविश्वास :
* जाते वक्त बंदर बाईं ओर दिखे तो- यह शुभता का प्रतीक है। कार्य में सफलता मिलेगी।
* संध्याकाल में यात्रा के लिए निकले और बंदर दिखाई पड़े तो आपकी यात्रा मंगलमय होगी।
* बंदर का दाहिनी ओर तथा बिल्ली का बाईं ओर दिखना शुभ होता है।
कुत्ते से जुड़े अन्य अंधविश्वास :
* मान्यता है कि घर के सामने सुबह के समय यदि कुत्ता रोए तो उस दिन कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए। यदि किसी मकान की दीवार पर कुत्ता रोते हुए पंजा मारता दिखे तो समझा जाता है कि उक्त घर में चोरी हो सकती है या किसी अन्य तरह का संकट आ सकता है।
* यदि कोई व्यक्ति किसी के अंतिम संस्कार से लौट रहा है और साथ में उसके कुत्ता भी आया है तो उस व्यक्ति की मृत्यु की आशंका रहती है अथवा उसे कोई बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है।
* माना जाता है कि पालतू कुत्ते के आंसू आए और वह भोजन करना त्याग दे तो उस घर पर संकट आने की सूचना है।
* आप किसी कार्य से बाहर जा रहे हैं और कुत्ता आपकी ओर देखकर भौंके तो आप किसी विपत्ति में फंसने वाले हैं। ऐसे में उक्त जगह नहीं जाना ही उचित माना जाता है।
* घर से निकलते समय यदि कुत्ता अपने शरीर को कीचड़ में सना हुआ दिखे और कान फड़फड़ाए तो यह बहुत ही अपशकुन है। ऐसे समय में कार्य और यात्रा रोक देनी चाहिए।
* कुत्ता यदि सामने से हड्डी अथवा मांस का टुकड़ा लाता हुआ नजर आए तो अशुभ।
* संभोगरत कुत्ते को देखना भी अशुभ माना गया है, क्योंकि इससे आपके कार्य में बाधाएं उत्पन्न हो सकती हैं और परिवार में झगड़ा हो सकता है।
* यदि किसी के दरवाजे पर लगातार कुत्ता भौंकता है तो परिवार में धनहानि या बीमारी आ सकती है।
* मान्यता है कि कुत्‍ता अगर आपके घुटने सूंघे तो आपको कोई लाभ होने वाला है।
* यदि आप भोजन कर रहे हैं और उसी समय कुत्ते का रोना सुनाई दे, तो यह बेहद अशुभ होता है।
* क्या सपनों से शुभ और अशुभ संकेत मिलते हैं?
-ज्योतिष लोग सपनों के शुभ और अशुभ फल बताते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन यह अंधविश्वास लोगों के बीच बहुत प्रचलित है और लोग इसे मानते भी हैं।
व्यक्ति को अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के सपने आते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार ये हमारे शरीर और मन की अवस्था के अनुसार आते हैं। यदि भारी और ठोस आहार खाया है तो बुरे सपने आने के चांस बढ़ जाते हैं। पेट खराब रहने की स्थिति में भी ऐसा होता है। यदि आपकी मानसिक स्थिति खराब है और नकारात्मक विचारों की अधिकता है तब भी बुरे सपने आते हैं।
* सूर्यास्त के बाद झाडू क्यों नहीं लगाते और झाड़ू को खड़ा क्यों नहीं रखते?
- झाड़ू को हिन्दू धर्म में लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि संध्याकाल और रात में झाड़ू लगाने से लक्ष्मी चली जाती है और व्यक्ति के बुरे दिन शुरू हो जाते हैं। झाड़ू को खड़ा करके रखने पर घर में कलह होती है।
इस मान्यता के कारण लोग रात में झाड़ू नहीं लगाते और झाड़ू को खड़ा करके नहीं रखते हैं। झाड़ू और पोंछे को घर में प्रवेश करने वाली बुरी अथवा नकारात्मक ऊर्जाओं को नष्ट करने का प्रतीक भी माना जाता है।
झाड़ू से जुड़े अन्य अंधविश्वास :
* कुछ विद्वानों का मानना है कि दिनभर घर में जो ऊर्जा इकट्ठी हो गई है उसे रात में बाहर करना ठीक नहीं।
* खुले स्थान पर झाड़ू रखना अपशकुन माना जाता है इसलिए इसे छिपाकर रखा जाता है। जिस प्रकार धन को छुपाकर रखते हैं उसी प्रकार झाड़ू को भी। वास्तु विज्ञान के अनुसार जो लोग झाड़ू के लिए एक नियत स्थान बनाने की बजाय कहीं भी रख देते हैं, उनके घर में धन का आगमन प्रभावित होता है। इससे आय और व्यय में असंतुलन बना रहता है। आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
* भोजन कक्ष में झाड़ू भूलकर न रखें। मान्यता अनुसार इससे अनाज खत्म होने और इंकम के रुक जाने का डर बना रहता है।
* घर के बाहर दरवाजे के सामने झाड़ू उल्टी करके रखने से यह चोर और बुरी ताकतों से आपके घर की रक्षा करती है। यह काम केवल रात के समय किया जा सकता है। दिन के समय झाड़ू छिपाकर रखना चाहिए ताकि किसी को नजर न आए।
* अगर कोई बच्चा अचानक झाड़ू लगाने लगे तो समझना चाहिए आपके घर में अनचाहा मेहमान आने वाला है।
* घर में नमक मिले पानी से पोंछा लगाने से घर से नकारात्मकता खत्म हो जाएगी। बुरी ताकतें बेअसर हो जाती हैं।
* गुरुवार को घर में पोंछा न लगाएं, ऐसा करने से लक्ष्मी रूठ जाती है। गुरुवार को छोड़कर घर में रोज पोंछा लगाने से लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।
* जो लोग किराए से रहते हैं वे नया घर किराए पर लेते हैं अथवा अपना घर बनवाकर उसमें गृह प्रवेश करते हैं तब इस बात का ध्यान रखें कि आपकी झाड़ू पुराने घर में न रह जाए। मान्यता है कि ऐसा होने पर लक्ष्मी पुराने घर में ही रह जाती है और नए घर में सुख-समृद्घि का विकास रुक जाता है।
बांस को जलाने से क्या वंश नष्ट हो जाता है?
* प्राचीनकाल से ही बांस की उपयोगिता रही है। इससे जहां घर बनते थे वहीं इससे टोकरियां, बिछात और बांसुरियां भी बनाई जाती थीं। बांस मनुष्य जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी माने गए हैं। लोग इनका उपयोग जलाने की लकड़ी की तरह नहीं करें, शायद इसीलिए यह अफवाह फैलाई गई कि बांस जलाने से वंश नष्ट होता है।
बांस प्रतिकूल परिस्थितियों में भी भरपूर वृद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं और किसी भी प्रकार के तूफानी मौसम का सामना करने का सामर्थ्य रखने के प्रतीक हैं। यह पौधा अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक है।
हालांकि बांसों की रगड़ से कभी-कभी आग लग जाती है तो सारे बांस अपनी ही आग में जल जाया करते थे जिससे बांसों की पहले से ही कमी हो जाती थी। ऐसे में बांसों को बचाना और भी जरूरी हो जाता है। आजकल तो अगरबत्तियों में भी बांस का उपयो‍ग किया जाता है।
* जूते-चप्पल उल्टे हो जाए तो आप मानते हैं कि किसी से लड़ाई-झगड़ा हो सकता है?
-ऐसा माना जाता है कि घर के बारह रखे जूते या चप्पल यदि उल्टे हो जाएं तो उन्हें तुरंत सीधा कर देना चाहिए अन्यथा आपकी किसी से लड़ाई होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसा होने से बचने के लिए चप्पल उल्टी हुई है तो एक चप्पल से दूसरी चप्पल को मारकर सीधा रखने का अंधविश्वास है। इसी तरह जूते के साथ भी किया जाता है।
जूते से जुड़े अन्य अंधविश्वास :
* जूते या चप्पल को कई लोग नजर और अनहोनी से बचने का टोटका भी मानते हैं इसीलिए वे अपनी गाड़ी के पीछे निचले हिस्से में जूता लटका देते हैं।
* कुछ लोग मानते हैं कि शनिवार को किसी मंदिर में चप्पल या जूते छोड़कर आ जाने से शनि का बुरा असर समाप्त हो जाता है।
* जूता सुंघाने से मिरगी का दौरा शांत हो जाता है।
बांस से जुड़े अन्य अंधविश्वास :
* फेंगशुई में लंबी आयु के लिए बांस के पौधे बहुत शक्तिशाली प्रतीक माने जाते हैं। यह अच्छे भाग्य का भी संकेत देता है इसलिए आप बांस के पौधों का चित्र लगाकर उन्हें शक्तिशाली बना सकते हैं।
* जाते समय अगर कोई पीछे से टोक दे या छींक दे तो आप क्यों चिढ़ जाते हैं?
- यदि आप किसी प्रयोजन से जा रहे हैं और कोई टोक दे अर्थात पूछे कि कहां जा रहो? या कहे कि चाय पीकर जाओ या कुछ और कह दे, तो जिस कार्य के लिए आप कहीं जा रहे हैं उस कार्य में असफलता ही मिलेगी।
हालांकि किसी विशेष कार्य के लिए जाते समय गाय, बछड़ा, बैल, सुहागिन, मेहतर और चूड़ी पहनाने वाला दिखाई दे अथवा रास्ता काट जाए तो यह शुभ शकुन कार्य सिद्ध करने वाला होता है।
* किसी दिन विशेष को बाल कटवाने या दाढ़ी बनवाने से परहेज क्यों करते हैं?
-अधिकतर लोग मानते हैं कि मंगलवार, शनिवार को बाल नहीं कटवाना चाहिए और न ही दाढ़ी बनवाना चाहिए। बहुत से लोग गुरुवार के दिन भी ऐसा करने से परहेज करते हैं।
ज्योतिष के अनुसार मंगलवार का खासा मह‍त्व है। यह हनुमानजी का दिन है और मंगलवार का कारक ग्रह हैं मंगल देव। मंगल ग्रह को क्रूर ग्रह माना जाता है।







आत्मविश्वास बढ़ाने के आसान तरीके



इंटरव्यू के समय या किसी मंच पर बोलते समय कई लोगो के हाथ-पैर इसलिए फूल जाते हैं क्योंकि उनको खुद पर विश्वास नहीं होता. आपके पास चाहे कितनी भी नॉलेज क्यों न हो पर यदि आप confidence नहीं है तो आपका ज्ञान आपके लिए कुछ भी नहीं.
कई बार आपके सामने अपनी काबिलियत साबित करने मौका आता है और उस वक्त पर आपका आत्मविश्वास अगर हिल गया तो आपको पीछे हटना पड़ता है.आत्मविश्वास की कमी के कारण हमारा व्यक्तित्व पर नकारात्मक असर पड़ता है.
कई बार आत्मविश्वास की कमी के कारण आने वाली कई बड़ी संभावनाएं हमसे छूट जाती हैं.
अगर आप अपने आसपास या किसी भी मौके पर किसी सफल आदमी को देखते है तो आपने यह जरुर note किया होगा की उस आदमी में आपको पूरा confidence दिख जायेगा. जो भी व्यक्ति अपने जीवन में बड़े मुकाम पर पहुंचता है या सफल होता है वह हमेशा aatmvishvas से लबरेज होता है. कई एक्टर और एक्ट्रेस, राजनेता, महान क्रिकेटर, या कोई बिजनेसमैन सभी में आत्मविश्वास का गुण कूट-कूट कर भरा होता है.
कोई व्यक्ति अगर शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हुये भी अगर सफलता प्राप्त करता है तो इसका Main Reason उस व्यक्ति का आत्मविश्वास होता है.
Self confidence के कारण ही अब्राहम लिंकन कई बार चुनाव हारने के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने उनकी यह सफलता confidence के कारण ही थी. ऐसे ही आप अगर अपने आसपास देखेंगे तो कई exmple आपको भी मिल जायेंगे.
सफल व्यक्ति को खुद पर पूर्ण रूप से विश्वास होता है जिस कारण वह सफलता जरूर प्राप्त करता है. किसी व्यक्ति में कॉन्फिडेंस कम या ज्यादा हो सकता है परन्तु आपको खुद में Self confidence बढ़ाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए.

अपने आत्मविश्वास को मजबूत रखने और व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए अगर आप अपनी सोच में ये बदलाव लाएंगे तो यकीनन सफलता आपके कदम चूमेगी.
आत्मविश्वास बढ़ाने के 10 tips-:
* सफल लोगो की तरह खुद को ढालें:
आपको अपने जीवन में कई ऐसे लोग जरुर मिले होंगे जिनको देखकर आपको लगा होगा की यह व्यक्ति पूरी तरह aatmvishvas से भरा हुआ है. उन लोगो की उन खास बातो को नोट जरुर करा होगा जो उनका कॉन्फिडेंस बढाती है. जैसे- चलने और बैठने के ढंग पर ध्यान दे, जो बोलना है उसे दबी आवाज में मत बोले और बाते करते वक्त नजरे मिलाये आदि .
जब मैं अपने स्कूल में पढता था तो अपने से बेहतर स्टूडेंट को फॉलो करता था और उसी की तरह कई चीजे करने का प्रयास करता था. for example- class में first सीट पर बैठना, अध्यापक के पूछने पर सबसे पहले आंसर देना और साथी सहपाठियों को नयी-नयी जानकारियां देना आदि. इन चीजो से मुझे बहुत confidence मिलता था.
* बीते समय में मिले अपने achievements को याद करे:
आपको अपने past में कई अचीवमेंट्स मिले होंगे. उदाहरण- आप अपने class में कभी first आये होंगे, किसी विषय में स्कूल में सबसे ज्यादा मार्क्स होंगे, किसी कॉम्पटीसन में में बेस्ट किया होगा या किसी sports में ख़िताब जीता होगा. आपका खुद पर विश्वास जब कम होता है तो उस समय आप अपने पिछले प्राप्त किये हुए achivments को याद करे यह आपका self-confidence जरुर improve करेगा.
* यह महसूस करे की आप confident हैं:
कई बार हम सिर्फ इसलिए low confidence feel करते है क्योंकि हमें लगता है की मेरे अन्दर आत्मविश्वास नहीं है जो हमारा confidence और गिरा देता है तो आप किसी भी वक्त पर बिलकुल Negative न सोचे बल्कि यह सोचे की आप पूरी तरह से full-confidence है. आप अपने mind में यह imazine कर सकते है की आपकी सभी लोग तारीफ कर रहे है. वो आपकी ओर आकर्षित हो रहे है.ऐसा सोचना आपको बहुत benifit देगा.
* गलतियाँ होने पर घबराये मत:
अगर कोई व्यक्ति आपसे यह कहे की उसने अपने जीवन में कभी कोई गलती नहीं की तो आप यह समझ ले की वह व्यक्ति आपसे कोरा झूठ बोल रहा है. गलती तो इंसान ही करता है.जब वह गलती करता है तभी उस गलती से सीखता है और अगली बार वह उस काम को बेहतर ढंग से करता है.
सबसे बड़ी गलती हम तब करते है जब हम कोई भी काम सिर्फ इस सोच के कारण नहीं करते कि मुझसे यह काम नहीं होगा या मुझसे कोई गलती हो जाएगी और इस सोच के कारण हम प्रयास ही नहीं करते जो हमारे लिए बहुत नुकसानदायक होता है. इसलिए गलती होने के डर से या असफल होने के डर से आप अपने बेहतरीन मौको को न गवाएं. बल्कि प्रयास करे यह आपको नयी सीख देगा.

* खुद को किसी चीज में और लोगो से बेहतर बनाये:

आज के दौर में हर आदमी औरो से कुछ अलग करना चाहता है. भगवान ने हमें कुछ ऐसा Special telent दिया है जो हमें और लोगो से अलग करता है बस जरुरत है तो उसे खोजने की. कोई भी आदमी हर फील्ड में एक्सपर्ट नहीं बन सकता लेकिन वह अपने हॉबी और interest के कुछ चीजो में expert जरुर बन सकता.
मैं जब अपने स्कूल में पढता था तो मेरे कई दोस्त singing, dancing, sports, cricket में मुझसे बेहतर थे लेकिन मैं स्कूल में पढाई में अच्छा था जो मुझे उनसे अलग बनाता था. वही आज मैं nayichetana.com ब्लॉग बना कर लोगो को अपने आर्टिकल,अपने विचारो व अनुभवों के द्वारा जब उनकी हेल्प करता हूँ तो यह मुझे confidence देता है.
इसलिए दोस्तों आप भी खुद के interest का कुछ ऐसा काम करिए या ऐसी हॉबी जैसे क्रिकेट, फूटबाल, डांस, म्यूजिक आदि creat करिए जो आपको आपके एरिया में सबसे अलग बनाये. अगर आप अपने ऑफिस में काम करते है तो वहां औरो से बेहतर बने, अगर स्टूडेंट हो तो अपने school or college में बेहतर बने. अगर आप किसी चीज में better होंगे तो यह आपका confidence level बहुत ही high कर देगा.
इंटरव्यू के समय या किसी मंच पर बोलते समय कई लोगो के हाथ-पैर इसलिए फूल जाते हैं क्योंकि उनको खुद पर विश्वास नहीं होता. आपके पास चाहे कितनी भी नॉलेज क्यों न हो पर यदि आप confidence नहीं है तो आपका ज्ञान आपके लिए कुछ भी नहीं.
कई बार आपके सामने अपनी काबिलियत साबित करने मौका आता है और उस वक्त पर आपका आत्मविश्वास अगर हिल गया तो आपको पीछे हटना पड़ता है.आत्मविश्वास की कमी के कारण हमारा व्यक्तित्व पर नकारात्मक असर पड़ता है.
कई बार आत्मविश्वास की कमी के कारण आने वाली कई बड़ी संभावनाएं हमसे छूट जाती हैं.

अगर आप अपने आसपास या किसी भी मौके पर किसी सफल आदमी को देखते है तो आपने यह जरुर note किया होगा की उस आदमी में आपको पूरा confidence दिख जायेगा. जो भी व्यक्ति अपने जीवन में बड़े मुकाम पर पहुंचता है या सफल होता है वह हमेशा aatmvishvas से लबरेज होता है. कई एक्टर और एक्ट्रेस, राजनेता, महान क्रिकेटर, या कोई बिजनेसमैन सभी में आत्मविश्वास का गुण कूट-कूट कर भरा होता है.

कोई व्यक्ति अगर शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हुये भी अगर सफलता प्राप्त करता है तो इसका Main Reason उस व्यक्ति का आत्मविश्वास होता है.
Self confidence के कारण ही अब्राहम लिंकन कई बार चुनाव हारने के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने उनकी यह सफलता confidence के कारण ही थी. ऐसे ही आप अगर अपने आसपास देखेंगे तो कई exmple आपको भी मिल जायेंगे.
सफल व्यक्ति को खुद पर पूर्ण रूप से विश्वास होता है जिस कारण वह सफलता जरूर प्राप्त करता है. किसी व्यक्ति में कॉन्फिडेंस कम या ज्यादा हो सकता है परन्तु आपको खुद में Self confidence बढ़ाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए.

अपने आत्मविश्वास को मजबूत रखने और व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए अगर आप अपनी सोच में ये बदलाव लाएंगे तो यकीनन सफलता आपके कदम चूमेगी.
आत्मविश्वास बढ़ाने के 10 tips-:


* सफल लोगो की तरह खुद को ढालें:
आपको अपने जीवन में कई ऐसे लोग जरुर मिले होंगे जिनको देखकर आपको लगा होगा की यह व्यक्ति पूरी तरह aatmvishvas से भरा हुआ है. उन लोगो की उन खास बातो को नोट जरुर करा होगा जो उनका कॉन्फिडेंस बढाती है. जैसे- चलने और बैठने के ढंग पर ध्यान दे, जो बोलना है उसे दबी आवाज में मत बोले और बाते करते वक्त नजरे मिलाये आदि .
जब मैं अपने स्कूल में पढता था
 तो अपने से बेहतर स्टूडेंट को फॉलो करता था और उसी की तरह कई चीजे करने का प्रयास करता था. for example- class में first सीट पर बैठना, अध्यापक के पूछने पर सबसे पहले आंसर देना और साथी सहपाठियों को नयी-नयी जानकारियां देना आदि. इन चीजो से मुझे बहुत confidence मिलता था.






* बीते समय में मिले अपने achievements को याद करे:
आपको अपने past में कई अचीवमेंट्स मिले होंगे. उदाहरण- आप अपने class में कभी first आये होंगे, किसी विषय में स्कूल में सबसे ज्यादा मार्क्स होंगे, किसी कॉम्पटीसन में में बेस्ट किया होगा या किसी sports में ख़िताब जीता होगा. आपका खुद पर विश्वास जब कम होता है तो उस समय आप अपने पिछले प्राप्त किये हुए achivments को याद करे यह आपका self-confidence जरुर improve करेगा.
* यह महसूस करे की आप confident हैं:
कई बार हम सिर्फ इसलिए low confidence feel करते है क्योंकि हमें लगता है की मेरे अन्दर आत्मविश्वास नहीं है जो हमारा confidence और गिरा देता है तो आप किसी भी वक्त पर बिलकुल Negative न सोचे बल्कि यह सोचे की आप पूरी तरह से full-confidence है. आप अपने mind में यह imazine कर सकते है की आपकी सभी लोग तारीफ कर रहे है. वो आपकी ओर आकर्षित हो रहे है.ऐसा सोचना आपको बहुत benifit देगा.
* गलतियाँ होने पर घबराये मत:
अगर कोई व्यक्ति आपसे यह कहे की उसने अपने जीवन में कभी कोई गलती नहीं की तो आप यह समझ ले की वह व्यक्ति आपसे कोरा झूठ बोल रहा है. गलती तो इंसान ही करता है.जब वह गलती करता है तभी उस गलती से सीखता है और अगली बार वह उस काम को बेहतर ढंग से करता है.
सबसे बड़ी गलती हम तब करते है जब हम कोई भी काम सिर्फ इस सोच के कारण नहीं करते कि मुझसे यह काम नहीं होगा या मुझसे कोई गलती हो जाएगी और इस सोच के कारण हम प्रयास ही नहीं करते जो हमारे लिए बहुत नुकसानदायक होता है. इसलिए गलती होने के डर से या असफल होने के डर से आप अपने बेहतरीन मौको को न गवाएं. बल्कि प्रयास करे यह आपको नयी सीख देगा.""


* खुद को किसी चीज में और लोगो से बेहतर बनाये:
आज के दौर में हर आदमी औरो से कुछ अलग करना चाहता है. भगवान ने हमें कुछ ऐसा Special telent दिया है जो हमें और लोगो से अलग करता है बस जरुरत है तो उसे खोजने की. कोई भी आदमी हर फील्ड में एक्सपर्ट नहीं बन सकता लेकिन वह अपने हॉबी और interest के कुछ चीजो में expert जरुर बन सकता.
मैं जब अपने स्कूल में पढता था तो मेरे कई दोस्त singing, dancing, sports, cricket में मुझसे बेहतर थे लेकिन मैं स्कूल में पढाई में अच्छा था जो मुझे उनसे अलग बनाता था. वही आज मैं nayichetana.com ब्लॉग बना कर लोगो को अपने आर्टिकल,अपने विचारो व अनुभवों के द्वारा जब उनकी हेल्प करता हूँ तो यह मुझे confidence देता है.
इसलिए दोस्तों आप भी खुद के interest का कुछ ऐसा काम करिए या ऐसी हॉबी जैसे क्रिकेट, फूटबाल, डांस, म्यूजिक आदि creat करिए जो आपको आपके एरिया में सबसे अलग बनाये. अगर आप अपने ऑफिस में काम करते है तो वहां औरो से बेहतर बने, अगर स्टूडेंट हो तो अपने school or college में बेहतर बने. अगर आप किसी चीज में better होंगे तो यह आपका confidence level बहुत ही high कर देगा.

* जरुरतमंदो की सहायता करे:

आप अपने जीवन में उन लोगो के लिए कुछ अच्छा करे जो बदले में आपको कुछ नहीं दे सकते. अगर आप दुसरे लोगो की मदद करते है तो इससे आपका आत्मविश्वास बढेगा. अपने आस-पड़ोस में लोगो की हेल्प करके और किसी गरीब आदमी को कुछ सहारा देकर और शारारिक रूप से अक्षम लोगो की मदद करके आपको जो ख़ुशी मिलेगी वह कही और आपको नहीं मिल सकती और यह आपके अन्दर एक self-respect भी पैदा करेगा.

* अपनी dressing में सुधार करे:

आप किसी भी तरह के प्रोग्राम,पार्टी,शादी या किसी मीटिंग में अगर जाते हो तो अपने ड्रेस का ध्यान जरुर रखे. जब भी कपड़े खरीदने जाये तो ऐसे कपड़े ख़रीदे जो आपको confidence दे. आप कभी भी यह नोट जरुर करना की जब आप अच्छे तरह से तैयार होते है और आपका dressing जब अच्छा रहता है तो आप तब खुद को आत्मविश्वास से भरा हुआ पाएंगे क्योंकि इससे हमको लोगो का सामना करने का आत्मविश्वास मिल जाता है.





* जिस चीज से आपका confidence घटता है उसे करते रहे:
कई लोगो ऐसे होते है जो किसी खास कारण से अपना आत्मविश्वास low करते है.किसी को प्रेजेंटेशन के वक्त डर लगता है तो कोई स्टेज पर आने से डरता है. कई लोग तो ऐसे होते है जिनका दिल तो चाहता है की वह यह काम करे लेकिन सिर्फ डर और लोग क्या कहेंगे के कारण उस काम को करने से डरते है. अगर मैं अपनी बात करूँ तो जब मैंने n.g.o. में पहली बार काम करा तब मुझे मीटिंग में अपने साथियो के साथ बात करने में घबराहट होती थी जिस कारण मैं अपनी बात को सही ढंग से नहीं रख पाता था. जो मेरे confidence को पूरा low कर देता था.
लेकिन धीरे-धीरे मैंने कोशिश करी और इसमें सफलता पाई और आज न कोई घबराहट है न confidence low होता है. इसलिए आप भी उस चीज को बार-बार करिए जो आपके आत्मविश्वास को कम करता है.
* दूसरो से अपनी तुलना न करे:
अगर आपका confidence low होता है तो इसका main reason आपका अपनी तुलना दूसरो से करना है. अगर आप देखेंगे तो यह पाएंगे की आप हमेशा उन लोगो की तरह बनना चाहते है जो आपकी नजर में आपसे बेहतर या सफल है. यह आपके लिए आत्मविश्वास के लिए बहुत बड़ी बात होती है जो आपके आत्मविश्वास को बिलकुल जीरो कर देता है. आपको यह ध्यान रखना चाहिए की हर व्यक्ति की situatian और हालात अलग-अलग होते है.
क्या पता उस आदमी को आपसे बेहतर हालात और मौके मिले हो जिस कारण वह सफल हुआ हो. इसलिए किसी भी व्यक्ति को कामयाब देखकर खुद से तुलना न करे बल्कि अपनी प्रतिभा और ताकत को अपना औजार बनाये. अपने लक्ष्य तय करे और उसे हासिल करने की सोचे.
* अपना कार्य समय पर पूरा करे:
आप अपने दिनभर के कार्यो का टाइम टेबल बना ले.आपने एक दिन में क्या-क्या करना है वह पहले ही सोच ले और उसके बाद सुबह से ही अपने कार्यो को पूरा करने के लिए जुट जाए. अगर आप अपने works को निश्चित समय के अन्दर पूरा करते है तो यह आपके आत्मविश्वास को बहुत ही बढ़ा देगा.


दोस्तों हमारी ज़िन्दगी का जो समय है वह दिन-प्रतिदिन कम होता रहेगा. कब हम युवा से बुड्ढे हो जाये समय के साथ पता ही नहीं चलेगा. अपने low-confidence के कारण life में घबराओ मत.जीवन में सफलता के लिए confidence बहुत ही आवश्यक है. बिना confidence के शायद ही कोई व्यक्ति सफल हो पाए. अगर आप प्रैक्टिस करोगे तो आप अपना confidence आसानी से boost कर सकते है.
इसके लिए जरुरत है तो बस अभ्यास की. आप इस बात को जान लिजिये की आपका confidence आपके looks,आपके घर के हालात, समाज की दशा, आपकी शिक्षा या पैसो पर depend नहीं करता बल्कि यह तो आपके अन्दर से आता है. अगर आप self-confident है तो बिना आपके permission के कोई भी बाहरी तत्व आपको low-confidence feel नहीं करा सकता.
इसलिए अपना confidence को बढ़ाये और बढ़ा ले कदम सफलता की ओर.







                                                                                   

14.9.16

अब मैं हार्यौ रे भाई/ संत रविदास






अब मैं हार्यौ रे भाई।
थकित भयौ सब हाल चाल थैं, लोग न बेद बड़ाई।। टेक।।
थकित भयौ गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा।
काम क्रोध थैं देह थकित भई, कहूँ कहाँ लूँ दूजा।।१।।
रांम जन होउ न भगत कहाँऊँ, चरन पखालूँ न देवा।
जोई-जोई करौ उलटि मोहि बाधै, ताथैं निकटि न भेवा।।२।।
पहली ग्यांन का कीया चांदिणां, पीछैं दीया बुझाई।
सुनि सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई।।३।।
दूरि बसै षट क्रम सकल अरु, दूरिब कीन्हे सेऊ।
ग्यान ध्यानं दोऊ दूरि कीन्हे, दूरिब छाड़े तेऊ।।४।।
पंचू थकित भये जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ थिति पाई।
जा करनि मैं दौर्यौ फिरतौ, सो अब घट मैं पाई।।५।।
पंचू मेरी सखी सहेली, तिनि निधि दई दिखाई।
अब मन फूलि भयौ जग महियां, उलटि आप मैं समाई।।६।।
चलत चलत मेरौ निज मन थाक्यौ, अब मोपैं चल्यौ न जाई।
सांई सहजि मिल्यौ सोई सनमुख, कहै रैदास बताई।।७।।





श्री रविदास चालीसा:Shree Ravidas Chalisa


श्री रविदास चालीसा

 Shree Ravidas Chalisa
 Hindi Devotional Songs


   दोहा
बंदों वीणा पाणि को ,देहु आय मोही ज्ञान
पाय बुद्धि रविदास को करों चरित्र बखान
मातु की महिमा अमित है लिखी ना सकत है दास
ताते आयो शरण मे पुरवहु जन की आस

चौपाई
जै होवे रविदास तुम्हारी कृपा करहु हरिजन हितकारी
राहू भक्त तुम्हारे ताता,कर्मा नाम तुम्हारी माता
काशी ढिंग मांडूर स्थाना वर्ण अछूत करत गुजराना
द्वादश वर्ष उम्र जब आई ,तुम्हरे मन हरी भक्ति समाई
रामानन्द के शिष्य कहाए ,पाय ज्ञान निज नाम बढ़ाए
शास्त्र तर्क काशी मे कीन्हों,ज्ञानिन को उपदेश है दीन्हों
गंग मातु के भक्त अपारा ,कौड़ी दीन्ह उनही उपहारा


पंडित जन ताको ले जाही ,गंग मातु को दीन्ह चढ़ाई
हाथ पसारी लीन्ह चेगानी भक्त की महिमा अमित बखानी
चकित भए पंडित काशी के देखि चरित भव भय नाशी के
शेष चालीसा विडियो मे देखे -

रविदास जी के दोहे - संत रविदास

रविदास जी के दोहे 
- संत रविदास

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

* कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

* कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।

* रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

* हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

* हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।

* मन चंगा तो कठौती में गंगा।

* वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।

6.9.16

सुभागी - कहानी : Subhagi Part 1 of 2

सुभागी - कहानी 
 Subhagi
 Part 1 of 2
 Hindi 
 Munshi Premchand


और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर, और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से भगवान को भी तो प्रेम है। कोई सुभागी का बखान न करे, इसलिए वह अनायास ही उसे डाँटती रहती थी। बखान से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह भय तो न था, भय था - नजर का ! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्र में विधवा हो गयी।
घर में कुहराम मचा हुआ था। लक्ष्मी पछाड़ें खाती थी। तुलसी सिर पीटते थे। उन्हें रोते देखकर सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती, क्यों रोती हो अम्माँ, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यों रोती हो ? उसकी भोली बातें सुनकर माता का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी ईश्वर तुम्हारी यही लीला है ! जो खेल खेलते हो, वह दूसरों को दु:ख देकर। ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे तो उसे पागलखाने भेजते हैं; मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसका कोई दंड नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोयें और तुम हँसो। तुम्हें तो लोग दयालु कहते हैं। यही तुम्हारी दया है !

और सुभागी क्या सोच रही थी ? उसके पास कोठरी भर रुपये होते, तो वह उन्हें छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चली जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती, दादा जब बाकी माँगने आते, तो चट रुपये निकालकर दे देती, अम्माँ-दादा कितने खुश होते।
2 जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि लड़की का घर कहीं कर दो। जवान लड़की का यों फिरना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई निंदा नहीं है, तो क्यों सोच-विचार करते हो ?

तुलसी ने कहा- भाई मैं तो तैयार हूँ; लेकिन जब सुभागी भी माने। वह किसी तरह राजी नहीं होती।
हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- बेटी, हम तेरे ही भले को कहते हैं। माँ-बाप अब बूढ़े हुए, उनका क्या भरोसा। तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी ?
सुभागी ने सिर झुकाकर कहा- चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ; लेकिन मेरा मन घर करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिंता नहीं है। मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह सिर-आँखो के बल करूँगी; मगर घर बसाने को मुझसे न कहो। जब मेरा चाल-कुचाल देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर मैं सच्चे बाप की बेटी हूँगी, तो बात की भी पक्की हूँगी। फिर लज्जा रखनेवाले तो भगवान हैं, मेरी क्या हस्ती है कि अभी कुछ कहूँ।

उजड्ड रामू बोला - तुम अगर सोचती हो कि भैया कमावेंगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस भरोसे न रहना। यहाँ किसी ने जनम भर का ठीका नहीं लिया है।
रामू की दुल्हन रामू से भी दो अंगुल ऊँची थी। मटककर बोली- हमने किसी का करज थोड़े ही खाया कि जनम भर बैठे भरा करें। यहाँ तो खाने को भी महीन चाहिए, पहनने को भी महीन चाहिए, यह हमारे बूते की बात नहीं।
सुभागी ने गर्व से भरे हुए स्वर में कहा- भाभी, मैंने तुम्हारा आसरा कभी नहीं किया और भगवान ने चाहा तो कभी करूँगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिंता न करो।
रामू की दुल्हन को जब मालूम हो गया कि सुभागी घर न करेगी, तो और भी उसके सिर हो गयी। हमेशा एक-न-एक खुचड़ लगाये रहती। उसे रुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह बेचारी पहर रात से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती, चौका-बरतन करती, गोबर पाथती। फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात को कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसकी देह दबाती। तुलसी चिलम के भक्त थे। उन्हें बार-बार चिलम पिलाती। जहाँ तक अपना बस चलता, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, यह तो जवान आदमी हैं, यह काम न करेंगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी।
मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्मा और दादा को तिनका तक नहीं उठाने देती और मुझे पीसना चाहती है। यहाँ तक कि एक दिन वह जामे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला- अगर उन लोगों का बड़ा मोह है, तो क्यों नहीं अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने बल पर काम करे।
सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके माँ-बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले- क्या है रामू, उस गरीबिन से क्यों लड़ते हो ?

रामू पास आकर बोला- तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था।
तुलसी- जब तक मैं जीता हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।
रामू- आपको बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले बाँध कर रखिए। मुझसे तो नहीं सहा जाता।
तुलसी- अच्छी बात है। अगर तुम्हारी यह मरजी है, तो यही होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूँगा। तुम चाहे छूट जाव, सुभागी नहीं छूट सकती।
रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी न खर्च की। पुत्र को रत्न समझा था, पुत्री को पूर्व-जन्म के पापों का दंड। वह रत्न कितना कठोर निकला और यह दंड कितना मंगलमय।
3
दूसरे दिन महतो ने गाँव के आदमियों को जमा करके कहा- पंचो, अब रामू का और मेरा एक में निबाह नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किच-किच अच्छी नहीं।
गाँव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने रामू को बुलाकर पूछा- क्यों जी, तुम अपने बाप से अलग रहना चाहते हो ? तुम्हें शर्म नहीं आती कि औरत के कहने से माँ-बाप को अलग किये देते हो ? राम ! राम !
रामू ने ढिठाई के साथ कहा- जब एक में गुजर न हो, तो अलग हो जाना ही अच्छा है।
सजनसिंह - तुमको एक में क्या कष्ट होता है ?
रामू - एक बात हो तो बताऊँ।
सजनसिंह - कुछ तो बतलाओ।
रामू - साहब, एक में मेरा इनके साथ निबाह न होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।

यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना।
तुलसी - देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज ! आप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे दें, पर अब मैं इस दुष्ट के साथ न रहूँगा। भगवान ने बेटी को दु:ख दे दिया, नहीं मुझे खेती-बारी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता वहीं कमाता खाता ! भगवान ऐसा बेटा सातवें बैरी को भी न दें। 'लड़के से लड़की भली, जो कुलवंती होय।'
सहसा सुभागी आकर बोली - दादा, यह सब बाँट-बखरा मेरे ही कारन तो हो रहा है, मुझे क्यों नहीं अलग कर देते। मैं मेहनत-मजूरी करके अपना पेट पाल लूँगी। अपने से जो कुछ बन पड़ेगा, तुम्हारी सेवा करती रहूँगी; पर रहूँगी अलग। यों घर का बारा-बाँट होते मुझसे नहीं देखा जाता। मैं अपने माथे यह कलंक नहीं लेना चाहती।
तुलसी ने कहा- बेटी, हम तुझे न छोड़ेंगे चाहे संसार छूट जाय ! रामू का मैं मुँह नहीं देखना चाहता, उसके साथ रहना तो दूर रहा।
रामू की दुल्हन बोली- तुम किसी का मुँह नहीं देखना चाहते, तो हम भी तुम्हारी पूजा करने को व्याकुल नहीं हैं।
महतो दाँत पीसते हुए उठे कि बहू को मारें, मगर लोगों ने पकड़ लिया।
4
बँटवारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानों पेंशन मिल गयी। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ-न-कुछ करते ही रहते थे; पर अब उन्हें पूरा विश्राम था। पहले दोनों दूध-घी को तरसते थे। सुभागी ने कुछ रुपये बचाकर एक भैंस ले ली। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका भोजन है। अच्छा भोजन न मिले तो वे किस आधार पर रहें। चौधरी ने बहुत विरोध किया। कहने लगे, घर का काम यों ही क्या कम है कि तू यह नया झंझट पाल रही है। सुभागी उन्हें बहलाने के लिए कहती - दादा, दूध के बिना मुझे खाना नहीं अच्छा लगता।
लक्ष्मी ने हँसकर कहा- बेटी, तू झूठ कब से बोलने लगी। कभी दूध हाथ से तो छूती नहीं, खाने की कौन कहे। सारा दूध हम लोगों के पेट में ठूँस देती है।

गाँव में जहाँ देखो सबके मुँह से सुभागी की तारीफ। लड़की नहीं देवी है। दो मरदों का काम भी करती है, उस पर माँ-बाप की सेवा भी किये जाती है। सजनसिंह तो कहते, यह उस जन्म की देवी है।
मगर शायद महतो को यह सुख बहुत दिन तक भोगना न लिखा था।
सात-आठ दिन से महतो को जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। देह पर कपड़े का तार भी नहीं रहने देते। लक्ष्मी पास बैठी रो रही थी। सुभागी पानी लिये खड़ी है। अभी एक क्षण पहले महतो ने पानी माँगा था; पर जब तक वह पानी लावे, उनका जी डूब गया और हाथ-पाँव ठंडे हो गये। सुभागी उनकी यह दशा देखते ही रामू के घर गयी और बोली- भैया, चलो, देखो आज दादा न जाने कैसे हुए जाते हैं। सात दिन से ज्वर नहीं उतरा।
रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा- तो क्या मैं डाक्टर-हकीम हूँ कि देखने चलूँ ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उनके गले का हार बनी हुई थीं। अब जब मरने लगे तो मुझे बुलाने आयी हो !
उसी वक्त उसकी दुल्हन अंदर से निकल आयी और सुभागी से पूछा- दादा को क्या हुआ है दीदी ?
सुभागी के पहले रामू बोल उठा- हुआ क्या है, अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं।
सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा, सीधे सजनसिंह के पास गयी। उसके जाने के बाद रामू हँसकर स्त्री से बोला - त्रियाचरित्र इसी को कहते हैं।
स्त्री - इसमें त्रियाचरित्र की कौन बात है ? चले क्यों नहीं जाते ?
रामू - मैं नहीं जाने का। जैसे उसे लेकर अलग हुए थे, वैसे उसे लेकर रहें। मर भी जायें तो न जाऊँ।
स्त्री- मर जायेंगे तो आग देने तो जाओगे, तब कहाँ भागोगे ?
रामू - कभी नहीं ? सब कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी।
स्त्री - तुम्हारे रहते वह क्यों करने लगी !
रामू - जैसे मेरे रहते उसे लेकर अलग हुए और कैसे !
स्त्री - नहीं जी, यह अच्छी बात नहीं है। चलो देख आवें। कुछ भी हो, बाप ही तो हैं। फिर गाँव में कौन मुँह दिखाओगे ?

रामू - चुप रहो, मुझे उपदेश मत दो।
उधर बाबू साहब ने ज्यों ही महतो की हालत सुनी, तुरंत सुभागी के साथ भागे चले आये। यहाँ पहुँचे तो महतो की दशा और खराब हो चुकी थी। नाड़ी देखी तो बहुत धीमी थी। समझ गये कि जिंदगी के दिन पूरे हो गये। मौत का आतंक छाया हुआ था। सजल नेत्र होकर बोले - महतो भाई, कैसा जी है ?
महतो जैसे नींद से जागकर बोले- बहुत अच्छा है भैया ! अब तो चलने की बेला है। सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो। उसे तुम्हीं को सौंपे जाता हूँ।
सजनसिंह ने रोते हुए कहा- भैया महतो, घबड़ाओ मत, भगवान ने चाहा तो तुम अच्छे हो जाओगे। सुभागी को तो मैंने हमेशा अपनी बेटी समझा है और जब तक जिऊँगा ऐसा ही समझता रहूँगा। तुम निश्चिंत रहो। मेरे रहते सुभागी या लक्ष्मी को कोई तिरछी आँख से न देख सकेगा। और कुछ इच्छा हो तो वह भी कह दो।
महतो ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा- और कुछ नहीं कहूँगा भैया। भगवान तुम्हें सदा सुखी रखे।
सजनसिंह - रामू को बुलाकर लाता हूँ। उससे जो भूल-चूक हो क्षमा कर दो।
महतो - नहीं भैया। उस पापी हत्यारे का मुँह मैं नहीं देखना चाहता।
इसके बाद गोदान की तैयारी होने लगी।
5
रामू को गाँव भर ने समझाया; पर वह अंत्येष्टि करने पर राजी न हुआ। कहा, जिस पिता ने मरते समय मेरा मुँह देखना स्वीकार न किया, वह मेरा न पिता है, न मैं उसका पुत्र हूँ।
लक्ष्मी ने दाह-क्रिया की। इन थोड़े से दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा कर लिये थे कि जब तेरही का सामान आने लगा तो गाँववालों की आँखें खुल गयीं। बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान इफरात से जमा हो गये। रामू देख-देख जलता था। और सुभागी उसे जलाने के लिए सबको यह सामान दिखाती थी।
लक्ष्मी ने कहा- बेटी, घर देखकर खर्च करो। अब कोई कमानेवाला नहीं बैठा है, आप ही कुआँ खोदना और पानी पीना है।

सुभागी बोली- बाबूजी का काम तो धूम-धाम से ही होगा अम्माँ, चाहे घर रहे या जाय। बाबूजी फिर थोड़े ही आवेंगे। मैं भैया को दिखा देना चाहती हूँ कि अबला क्या कर सकती है। वह समझते होंगे इन दोनों के किये कुछ न होगा। उनका यह घमंड तोड़ दूँगी।
लक्ष्मी चुप हो रही। तेरही के दिन आठ गाँव के ब्राह्मणों का भोज हुआ। चारों तरफ वाह-वाही मच गयी।
पिछले पहर का समय था; लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थक कर सो गयी थी। केवल सुभागी बची हुई चीजें उठा-उठाकर रख रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा- अब तुम भी आराम करो बेटी ! सबेरे यह सब काम कर लेना।
सुभागी ने कहा- अभी थकी नहीं हूँ दादा। आपने जोड़ लिया कुल कितने रुपये उठे ?
सजनसिंह - वह पूछकर क्या करोगी बेटी ?
'कुछ नहीं यों ही पूछती थी।'
'कोई तीन सौ रुपये उठे होंगे।'
सुभागी ने सकुचाते हुए कहा- मैं इन रुपयों की देनदार हूँ।
'तुमसे तो मैं माँगता नहीं। महतो मेरे मित्र और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा भी तो धर्म है।'
'आपकी यही दया क्या कम है कि मेरे ऊपर इतना विश्वास किया, मुझे कौन 300/- देता ?'
सजनसिंह सोचने लगे। इस अबला की धर्म-बुद्धि का कहीं वारपार भी है या नहीं।
6
लक्ष्मी उन स्त्रियों में थी जिनके लिए पति-वियोग जीवन-स्रोत का बंद हो जाना है। पचास वर्ष के चिर-सहवास के बाद अब यह एकांत जीवन उसके लिए पहाड़ हो गया। उसे अब ज्ञात हुआ कि मेरी बुद्धि, मेरा बल, मेरी सुमति मानो सबसे मैं वंचित हो गयी।
उसने कितनी बार ईश्वर से विनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना; मगर उसने यह विनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू नहीं, तो क्या जीवन पर भी काबू नहीं है ?
वह लक्ष्मी जो गाँव में अपनी बुद्धि के लिए मशहूर थी, जो दूसरे को सीख दिया करती थी, अब बौरही हो गयी है। सीधी-सी बात करते नहीं बनती।
लक्ष्मी का दाना-पानी उसी दिन से छूट गया। सुभागी के आग्रह पर चौके में जाती; मगर कौर कंठ के नीचे न उतरता। पचास वर्ष हुए एक दिन भी ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाये खुद खाया हो। अब उस नियम को कैसे तोड़े ?
आखिर उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्द ही खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे ! ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए दिलोजान से काम करने की जरूरत थी। यहाँ माँ बीमार पड़ गयी। अगर बाहर जाय तो माँ अकेली रहती है। उनके पास बैठे तो बाहर का काम कौन करे। माँ की दशा देखकर सुभागी समझ गयी कि इनका परवाना भी आ पहुँचा। महतो को भी तो यही ज्वर था।
गाँव में और किसे फुरसत थी कि दौड़-धूप करता। सजनसिंह दोनों वक्त आते, लक्ष्मी को देखते, दवा पिलाते, सुभागी को समझाते, और चले जाते; मगर लक्ष्मी की दशा बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि पंद्रहवें दिन वह भी संसार से सिधार गयी। अंतिम समय रामू आया और उसके पैर छूना चाहता था, पर लक्ष्मी ने उसे ऐसी झिड़की दी कि वह उसके समीप न जा सका। सुभागी को उसने आशीर्वाद दिया, तुम्हारी-जैसी बेटी पाकर तर गयी। मेरा क्रिया-कर्म तुम्हीं करना। मेरी भगवान से यही अरजी है कि उस जन्म में भी तुम मेरी कोख पवित्र करो।
माता के देहांत के बाद सुभागी के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया सजनसिंह के रुपये चुकाना। 300/- पिता के क्रिया-कर्म में लगे थे। लगभग 200/- माता के काम में लगे। 500/- का ऋण था और उसकी अकेली जान ! मगर वह हिम्मत न हारती थी। तीन साल तक सुभागी ने रात को रात और दिन को दिन न समझा। उसकी कार्य-शक्ति और पौरुष देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबाते थे। दिन भर खेती-बारी का काम करने के बाद वह रात को चार-चार पसेरी आटा पीस डालती। तीसवें दिन 15/- लेकर वह सजनसिंह के पास पहुँच जाती। इसमें कभी नागा न पड़ता। यह मानो प्रकृति का अटल नियम था।
अब चारों ओर से उसकी सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसके लिए मुँह फैलाये हुए थे। जिसके घर सुभागी जायगी, उसके भाग्य फिर जायेंगे। सुभागी यही जवाब देती, अभी वह दिन नहीं आया।
जिस दिन सुभागी ने आखिरी किस्त चुकाई, उस दिन उसकी खुशी का ठिकाना न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा हो गया।
वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा- बेटी, तुमसे मेरी एक प्रार्थना है। कहो कहूँ, कहो न कहूँ, मगर वचन दो कि मानोगी।
सुभागी ने कृतज्ञ भाव से देखकर कहा- दादा, आपकी बात न मानूँगी तो किसकी बात मानूँगी। मेरा तो रोयाँ-रोयाँ आपका गुलाम है।
सजनसिंह - अगर तुम्हारे मन में यह भाव है, तो मैं न कहूँगा। मैंने अब तक तुमसे इसलिए नहीं कहा, कि तुम अपने को मेरा देनदार समझ रही थीं। अब रुपये चुक गये। मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नहीं है, रत्ती भर भी नहीं। बोलो कहूँ ?
सुभागी - आपकी जो आज्ञा हो।
सजनसिंह- देखो इनकार न करना, नहीं मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखाऊँगा।
सुभागी- क्या आज्ञा है ?
सजनसिंह- मेरी इच्छा है कि तुम मेरी बहू बनकर मेरे घर को पवित्र करो। मैं जात-पाँत का कायल हूँ, मगर तुमने मेरे सारे बंधन तोड़ दिये। मेरा लड़का तुम्हारे नाम का पुजारी है। तुमने उसे बारहा देखा है। बोलो, मंजूर करती हो ?
सुभागी- दादा, इतना सम्मान पाकर पागल हो जाऊँगी।
सजनसिंह- तुम्हारा सम्मान भगवान कर रहे हैं बेटी ! तुम साक्षात् भगवती का अवतार हो।
सुभागी - मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ। आप जो कुछ करेंगे, मेरे भले ही के लिए करेंगे। आपके हुक्म को कैसे इनकार कर सकती हूँ।
सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा- बेटी, तुम्हारा सोहाग अमर हो। तुमने मेरी बात रख ली। मुझ-सा भाग्यशाली संसार में और कौन होगा ?








नमक का दारोगा:Namak ka daroga

नमक का दारोगा 
 "Premchand ki Kahaniya"
  Namak ka Droga
 in Hindi 
| Munshi Premchand


नमक का दारोगा


जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।
यह वह समय था जब अंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।
मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लडाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले।
उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, 'बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ॠण के बोझ से दबे हुए हैं। लडकियाँ हैं, वे घास-फूस की तरह बढती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूँ! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो।
'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।
'इस विषय में विवेक की बडी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो यह मेरी जन्म भर की कमाई है।

इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खडे हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुध्दि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृध्द मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए। महाजन कुछ नरम पडे, कलवार की आशालता लहलहाई। पडोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।
जाडे के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आए अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोडे समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे।
नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगाजी किवाड बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक ऑंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाडियों की गडगडाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उठ बैठे।
इतनी रात गए गाडियाँ क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोडा बढाए हुए पुल पर आ पहुँचे। गाडियों की एक लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी। डाँटकर पूछा, 'किसकी गाडियाँ हैं।
थोडी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा-'पंडित अलोपीदीन की।
'कौन पंडित अलोपीदीन?
'दातागंज के।

मुंशी वंशीधर चौंके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बडे कौन ऐसे थे जो उनके ॠणी न हों। व्यापार भी बडा लम्बा-चौडा था। बडे चलते-पुरजे आदमी थे। ऍंगरेज अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।
मुंशी ने पूछा, 'गाडियाँ कहाँ जाएँगी? उत्तर मिला, 'कानपुर । लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, 'क्या तुम सब गूँगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?
जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के डेले थे।
पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले-'महाराज! दारोगा ने गाडियाँ रोक दी हैं और घाट पर खडे आपको बुलाते हैं।
पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले, चलो हम आते हैं। यह कहकर पंडितजी ने बडी निश्ंचितता से पान के बीडे लगाकर खाए। फिर लिहाफ ओढे हुए दारोगा के पास आकर बोले, 'बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाडियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।
वंशीधर रुखाई से बोले, 'सरकारी हुक्म।

पं. अलोपीदीन ने हँसकर कहा, 'हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पडा। ईमानदारी की नई उमंग थी। कडककर बोले, 'हम उन नमकहरामों में नहीं है जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपको कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ।
पं. अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाडीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बदलूसिंह आगे बढा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लडका है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, 'बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं।
वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, 'हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।
अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कडी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, 'लालाजी, एक हजार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।
वंशीधर ने गरम होकर कहा, 'एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।
धर्म की इस बुध्दिहीन दृढता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खडा था।
अलोपीदीन निराश होकर बोले, 'अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।
वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढा। पंडितजी घबडाकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले, 'बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने का तैयार हूँ।

'असम्भव बात है।
'तीस हजार पर?
'किसी तरह भी सम्भव नहीं।
'क्या चालीस हजार पर भी नहीं।
'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असम्भव है।
'बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।

धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकडियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्छित होकर गिर पडे।
दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृध्द सबके मुहँ से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया।
पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साकार यह सब के सब देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे।
जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकडियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ चले तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित ऑंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।
किंतु अदालत में पहुँचने की देर थी। पं. अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे।

उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौडे। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए? प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था।
बडी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में यध्द ठन गया। वंशीधर चुपचाप खडे थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल।
यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दीख पडता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया।
डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पं. अलोपीदीन के विरुध्द दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बडे भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोडे लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बडे खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पडा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक के मुकदमे की बढी हुई नमक से हलाली ने उसके विवेक और बुध्दि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।
वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पडे। पं. अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। स्वजन बाँधवों ने रुपए की लूट की। उदारता का सागर उमड पडा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी।
जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था।
कदाचित इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकडते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौडी उपाधियाँ, बडी-बडी दाढियाँ, ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है।
वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही से कुडबुडा रहे थे कि चलते-चलते इस लडके को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढापे में भगत बनकर बैठें और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे ऍंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर! पढना-लिखना सब अकारथ गया।
इसके थोडे ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढे पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले- 'जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड लूँ। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाता तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृध्द माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गईं। पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की।
इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। सांध्य का समय था। बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोडी, उनकी गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जडे हुए। कई नौकर लाठियाँ कंधों पर रखे साथ थे।
मुंशीजी अगवानी को दौडे देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे- 'हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन सा मुँह दिखावें, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लडका अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्या मुँह छिपाना पडता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे पर ऐसी संतान न दे।
अलोपीदीन ने कहा- 'नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।
मुंशीजी ने चकित होकर कहा- 'ऐसी संतान को और क्या कँ?

अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा- 'कुलतिलक और पुरुखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें!
पं. अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- 'दरोगाजी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पडा किंतु परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ।
वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई।
पंडितजी की ओर उडती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले- 'यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेडी में जकडा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी वह मेरे सिर-माथे पर।
अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा- 'नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पडेगी।
वंशीधर बोले- 'मैं किस योग्य हूँ, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।
अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले- 'इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूँगा।
मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढा तो कृतज्ञता से ऑंखों में ऑंसू भर आए। पं. अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छह हजार वाषक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोडा, रहने को बँगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वर में बोले- 'पंडितजी मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूँ! किंतु ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।
अलोपीदीन हँसकर बोले- 'मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।
वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा- 'यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुध्दि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान कार्य के लिए एक बडे मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।
अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले- 'न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। इन गुणों के महत्व को खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।
वंशीधर की ऑंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रध्दा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।
अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।


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Kafan(कफ़न ) कहानी -मुंशी प्रेमचंद

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झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’
‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और
 
लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!




माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।




‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’
‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।
और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।
घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।
जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।
‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’
‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’
‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’
‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’
‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।
उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।
घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!
‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’
‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’
घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!
आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।
दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’
‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’
‘पूछेगी तो जरूर!’
‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’
माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।
‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’
‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’
‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।
वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!
माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।
घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।
माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।
घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे-
‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।
पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।