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13.4.25

लोक संत पीपाजी महाराज का जीवन परिचय: LIfe story of bhagat peepaji Maharaj



पीपाजी महाराज का विडियो 






    राजस्थान के प्रख्यात लोक संत एवं भक्त कवि पीपा का जन्म वि.सं. 1390 के आसपास झालावाड़ जिले के गागरौन नामक स्थान पर हुआ माना जाता है। खींची चौहान राजवंश में जन्मे पीपा आकर्षक व्यक्तित्व के धनी युवा थे। युवावस्था में ही पिता की मृत्यु के उपरान्त राजगद्दी पर आसीन हो गागरौन का राजकाज इन्होंने सँभाल लिया। कुशल शासक और धीर गंभीर स्वभाव के कारण ये प्रजा के चहेते थे। अपने शासन काल में इन्होंने कई विजय प्राप्त कर अपना राज्य विस्तार किया। सांसारिकता को त्याग कर ये प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर हुए तथा संत काव्य धारा में अभूतपूर्व योगदान देकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। मध्यकालीन भक्ति साहित्य में महान समाज सुधारक संत पीपा ने अपनी वाणी और विचारों से जहाँ एक ओर बाह्याडम्बरों का विरोध, रूढ़ि परम्पराओं का विरोध, दुर्व्यसनों का विरोध इत्यादि किया, वहीं दूसरी ओर निर्गुण निराकार परम ब्रह्म की भक्ति कर संत काव्य धारा में अपनी उपस्थिति से हिन्दी साहित्य के पूर्व मध्यकाल को गौरवान्वित किया। ये एक ऐसे संत कवि थे जिन्होंने मक्ति और समाज सुधार का अद्‌भुत रूप सामने रखा है। कबीर की परम्परा का अनुसरण करते हुए इन्होंने कबीर की मान्यताओं को भक्ति-प्रतिष्ठा के लिए सार्थक बताया है। अपनी वाणी में संत कबीर को ये झूठी सांसारिकता और कलियुग की अंधविश्वासी रीतियों के खण्डन के रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा कहते हैं कि कबीर न होते तो सच्ची भक्ति रसातल में पहुँच जाती-
'जै कलि नाम कबीर न होते।
तौ लोक बेद अरु कलिजुग मिलि करि। भगति रसातलि देते।"
  भगत पीपा गागरोन गढ़  के एक राजपूत शासक थे जिन्होंने हिंदू रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन के संत बनने के लिए राजगद्दी त्याग दी थी । 
* इनके बचपन का नाम राजकुमार "प्रतापसिंह" था और उनकी माता का नाम "लक्ष्मीवती" था
* पीपा जी ने रामानंद से दीक्षा लेकर राजस्थान में निर्गुण भक्ति परम्परा का सूत्रपात किया था।
*दर्जी समुदाय के लोग संत पीपा जी को अपना पूजनीय गुरुदेव मानते हैं।इन्हें पीपा वंशी  क्षत्रीय दर्जी कहा  जाता है |
* बाड़मेर ज़िले के समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर बना हुआ है, जहाँ हर वर्ष विशाल मेला लगता  है। इसके अतिरिक्त गागरोन (झालावाड़) एवं मसुरिया (जोधपुर) में भी इनकी स्मृति में मेलों का आयोजन होता है।
* संत पीपाजी ने "चिंतावाणी जोग" नामक गुटका की रचना की थी, जिसका लिपि काल संवत 1868 दिया गया है।
* पीपा जी ने अपना अंतिम समय टोंक के टोडा गाँव में बिताया था                                                                         
 एक योद्धा वर्ग और शाही परिवार में जन्मे, पीपा को एक प्रारंभिक शैव (शिव) और शाक्त (दुर्गा) अनुयायी के रूप में वर्णित किया गया है। इसके बाद, उन्होंने रामानंद के शिष्य के रूप में वैष्णववाद को अपनाया , और बाद में जीवन के निर्गुणी (गुणों के बिना भगवान) विश्वासों का प्रचार किया। भगत पीपा को 15वीं शताब्दी के उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के शुरुआती प्रभावशाली संतों में से एक माना जाता है। पीपा का जन्म राजस्थान के वर्तमान झालावाड़ जिले के गगरोन में एक राजपूत शाही परिवार में हुआ था । वे गागरोन गढ़  के राजा बने। पीपा हिंदू देवी दुर्गा भवानी की पूजा करते थे और उनकी मूर्ति को अपने महल के भीतर एक मंदिर में रखते थे। समय चक्र गतिमान रहा और महाराज पीपाजी  ने राज पाट का परित्याग कर सन्यासी बन  गए | पीपाजी ने रामानंद को अपना गुरु मान लिया। 
अपने बाद के जीवन में, भगत पीपा ने कबीर और दादू दयाल जैसे रामानंद के कई अन्य शिष्यों की तरह , अपनी भक्ति पूजा को सगुणी विष्णु अवतार ( द्वैत ) से निर्गुणी ( अद्वैत ) भगवान, यानी गुणों वाले भगवान से निर्गुण भगवान की ओर स्थानांतरित कर दिया। स्थानीय भाटों के पास मिले अभिलेखों के अनुसार, गोहिल , चौहान , दहिया , चावड़ा , डाभी , मकवाणा (झाला), राखेचा , भाटी , परमार , तंवर , सोलंकी और परिहार के कुलों के 52 राजपूत सरदारों ने अपनी उपाधियों और पदों  से इस्तीफा दे दिया और शराब, मांस और हिंसा का त्याग कर दिया  अपने जीवन को अपने गुरु  पीपा जी की शिक्षाओं को समर्पित कर दिया ।

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प्रमुख शिक्षाएं और प्रभाव
पीपा ने सिखाया कि ईश्वर हमारे भीतर ही है और सच्ची पूजा हमारे भीतर देखना और प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखना है।
शरीर के भीतर ही देवता है, शरीर के भीतर ही मंदिर है,
शरीर के भीतर ही सब जंगम हैं
शरीर के भीतर ही धूप, दीप और नैवेद्य हैं,शरीर के भीतर ही पूजा -पत्र हैं।
इतने देश खोजने के बाद
मैंने अपने शरीर में ही नौ निधियाँ पाई हैं,
अब आगे आना-जाना नहीं होगा,
यह राम की सौगंध है ।