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11.4.25

राजा भरथरी और पिंगला की पौराणिक कथा



राजा भरथरी और पिंगला की पौराणिक कथा विडियो


   प्रजा हित और अपने जीवन से रुष्ट होने के बाद कई राजाओं के संन्यासी बनने की कथाएं हमने कई बार सुनी है. लेकिन आज हम एक ऐसे राजा के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसने अपने पत्नी प्रेम में धोखा खाने के बाद अपना संपूर्ण जीवन वैराग्य में बिता दिया और अंत में वह एक महान संत बनकर उभरे.
बहुत समय पहले की बात है जब उज्जैनी नगर (वर्तमान में उज्जैन) के राजा गंधर्व सेन हुआ करते थे. राजा गंधर्व सेन की दो पत्नियां थी जिनसे पहली पत्नी से उनके पुत्र का नाम भृर्तहरी और दूसरी पत्नी से उनके पुत्र का नाम विक्रमादित्य था. समय के चक्र में जब राजा गंधर्वसेना वृद्ध हो गए तो उन्होंने अपने बड़े पुत्र भृर्तहरी को राजपाठ सौंप दिया. और स्वयं सुख पूर्वक अपनी वृद्धावस्था व्यतीत करने लगे.
भृर्तहरी के राजा बनने के बाद प्रजा की खुशियों का कोई ठिकाना ना था, प्रजा उनके शासन से बेहद प्रसन्न थी. क्योंकि उनका राजा केवल राजा ना होकर धर्म और नीति शास्त्र का बहुत बड़ा ज्ञानी था इसलिए वह अपना शासन भी धर्म के अनुसार ही चला रहा था. इसी कड़ी में राजा भृर्तहरी ने दो विवाह किए.

दो विवाह होने के पश्चात राजा ने “पिंगला” नामक एक युवती से तीसरा विवाह रचाया. पिंगला अत्यंत सुंदर थी और राजा भृर्तहरी उसके प्रेम में पागल हो चुके थे. विवाह के पश्चात उनका ज्यादातर समय पिंगला के पास ही गुजरता था, तीनों रानियों में उन्हें पिंगला ज्यादा प्रिय थी. राजा के अपार स्नेह और प्रेम के बावजूद भी पिंगला उनसे प्रेम नहीं करती थी, वह तो उसी नगर के एक कोतवाल के प्रेम में पागल थी.
एक बार उस राज दरबार में गुरु गोरखनाथ पधारे. अपने महल में गुरु के आगमन के पश्चात राजा ने उनका खूब आदर सत्कार किया और उनकी सेवा की. कई दिनों तक गुरु गोरखनाथ राज दरबार में ही रहे आखिर में भृर्तहरी की सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे एक आदित्य फल भेंट किया. गुरु गोरखनाथ में कहां कि यह फल अद्भुत है यदि तुम इसका सेवन करोगे तो हमेशा तुम जवान बने रहोगे और कभी बुढ़ापा तुम्हारे निकट भी नहीं आयेगा.
राजा ने सोचा की मैं तो राजा हूं मुझे इस फल की क्या आवश्यकता! लेकिन यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदा इसी प्रकार सुंदर बनी रहेगी. इसलिए राजा ने वह फल अपनी रानी पिंगला को दे दिया, उसे यह भी बताया कि यदि वह इस फल का सेवन करेगी तो सदैव सुंदर बनी रहेगी.

पिंगला ने सोचा की यदि यह फल मैं अपने प्रेमी कोतवाल को दे दूं तो वह सदैव मुझे इसी प्रकार से प्रेम करेगा. इसलिए पिंगला ने वह फल ले जाकर कोतवाल को दे दिया. लेकिन कोतवाल पिंगला से प्रेम नहीं करता था वह तो नगर की एक वेश्या के प्रेम में पागल था. पिंगला ने वह फल कोतवाल को तो दे दिया, लेकिन कोतवाल ने वह ले जाकर उस वेश्या को यह फल दे दिया.
वेश्या ने सोचा कि यदि मैं इस फल का सेवन करूंगी और मैं सदैव जवान बनी रहूंगी तो आज ही भर मुझे इस नर्क भरे काम में शरीक रहना पड़ेगा. मैं कभी भी अपने जीवन में मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाऊंगी. लेकिन यदि यह फल मैं राजा को ले जा कर दे दूं और राजा इसका सेवन कर ले तो शायद में प्रजा हित में कुछ आवश्यक काम करेंगे. उसने ऐसा ही किया और वह फल उसने राजा को ले जाकर भेंट कर दिया. राजा ने जब उस फल को देखा तो वह आश्चर्य में पड़ गया. उन्होंने पूछा तुम्हें यह फल किसने दिया है? तब उसने बताया कि यह फल तो मुझे नगर के कोतवाल ने दिया है. राजा ने सोचा कि शायद किसी ने पिंगला से यह फल चोरी करके कोतवाल को दे दिया.
राजा ने कोतवाल को बुलवाया और पूछा कि तुम्हें यह फल किस प्रकार प्राप्त हुआ? कोतवाल ने बताया कि यह फल मुझे रानी पिंगला ने ला कर दिया है, वह मुझसे प्रेम करती है लेकिन मुझे उनसे कोई प्रेम नहीं है. यह सुनकर राजा के पैरों तले जमीन खिसक गई. उन्हें मानो कोई जोर का झटका लगा हो उन्होंने सोचा जिस स्त्री से मैंने इस संसार में सबसे ज्यादा प्रेम किया वही स्त्री मुझसे प्रेम नहीं करती! इस घटना ने राजा भर्तृहरि के जीवन को पूरी तरह से पलट कर रख दिया.
अब राजा की इस संसार में कोई रुचि नहीं रह गई थी. अपने साथ हुए इस धोखे के बाद राजा को महल में कोई आसक्ति नहीं थी. उन्होंने राजमहल त्याग कर वैराग्य ग्रहण करने का निश्चय किया. कुछ ही समय में उन्होंने अपना सारा राजपाठ अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप दिया और स्वयं तपस्या की ओर चल दिए.
वह गुफा में पहुंचे और उन्होंने वहां तपस्या शुरू की. एक बार भगवान इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने हेतु उन पर एक पत्थर गिरा दिया, लेकिन भृर्तहरी ने वह पत्थर अपने हाथ में धारण कर लिया. लंबे समय तक वह पत्थर उनके हाथ में ही रहा और जब अपनी तपस्या पूर्ण करके उन्होंने वह पत्थर नीचे रखा उस पर उनके हाथ का निशान बन गया. यह पत्थर आज भी उनके गुफा में उनकी मूर्ति के नीचे रखा हुआ है. समय के साथ उन्होंने कठिन से कठिन तपस्या की और गुरु गोरखनाथ को अपना गुरु बनाया.

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