29.11.20

जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ:jadon vansh kuldevi

 




जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ

करौली - राजस्थान के जादौन राजवंश की कुलदेवी मॉं भवानी राज राजेश्वरी श्री कैलादेवी - चामुण्डा , यहॉं पर दोनों देवियां श्री कैलादेवी जिन्हें सतोगुणी और सौम्य देवी माना गया है और दूसरी श्री चामुण्डा भवानी की प्रतिमायें स्थापित व प्रतिष्ठित हैं, करौली के जादौन राजवंश का यह परम पूज्य कुलदेवी मंदिर है , श्री कैलादेवी को सौम्य मूर्ति राज राजेश्वरी भगवती दक्षिण काली का स्वरूप माना जाता है और बाद में एक उजड़ चुके वीरान हो चुके करौली के ही पास के एक गॉंव से वीरान व सूनसान पड़े मंदिर से मॉं चामुण्डा (चामड़) की प्रतिमा भी लाकर यहॉं मॉं कैलादेवी के साथ ही स्थापित की गई , मॉं चामुण्डा (चामड़) उग्र व तामसी स्वभाव की हैं ,
जब यदुवंशी महाराजा अर्जुन देव जी ने १३४८ ई. में करौली राज्य की स्थापना की तभी उन्होने करौली से उत्तरी दिशा में २या ३ कि.मी. की दूरी पर पांचना नदी के किनारे पहाडी पर श्री अंजनी माता का मंदिर बनवा कर अपनी कुलदेवी के रूप में पूजने लगे और अंजनी माता जादौन राजवंश की कुलदेवी के रूप में पूजित हुई ।।
एक लेख यह मिलता है कि करौली राज्य के दक्षिण - पश्चिम के बीच में २३ कि. मी. की दूरी पर चम्बल नदी के पास त्रिकूट पर्वत की मनोरम पहाडियों में सिद्दपीठ श्री कैला देवी जी का पावन धाम है , यहॉ प्रतिवर्ष अधिकाधिक लाखो श्रृदालु माँ के भक्त दर्शनार्थ एकत्रित होते है ,
जिस स्थान पर माँ श्री कैला देवी जी का मंदिर बना है वह स्थान खींची राजा मुकुन्ददास की रियासत के अधीन थी वे संभवत चम्बल पार कोटा राज्य की भूमि के स्वामी थे जो गागरोन के किले में रहते थे , उन्होने बॉसीखेडा नामक स्थान पर चामुण्डा देवी की बीजक रूपी मूर्ति स्थापित करबाई थी और वो वहा अक्सर आराधना के लिये आते थे , ये बात सम्वत १२०७ की है ,
एक बार खींची राजा मुकुन्ददास जी अपनी रानी सहित चामुण्डा देवी जी के दर्शनार्थ आये उन्होने कैला देवी जी की कीर्ति सुनी तो माता के दर्शनार्थ आये , माता के दर्शनार्थ पश्चात उनके मन में माता के प्रति आगाध श्रृदा बड गयी , राजा ने देवी जी का पक्का मठ बनवाने का उसी दिन निर्माण शुरू करवा दिया जब माता का मठ बनकर तैयार हो गया तो उसके बाद श्री कैला देवी जी की प्रतिमा को मठ में विधि पूर्वक स्थापित करवा दिया ।
कुछ समय बाद विक्रम संवत १५०६ में यदुवंशी राजा चन्द्रसेन जी ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा कर लिया तब उसी समय एक बार यदुवंशी महाराजा चन्द्रसेन जी के पुत्र गोपाल दास जी दौलताबाद के युद्द में जाने से पूर्व श्री कैला माँ के दरबार में गये और माता से प्राथना करी कि माता अगर मेरी इस युद्द में विजय हुई तो आपके दर्शन करने के लिये हम फिर आयेंगे । जब राजा गोपाल दास जी दौलताबाद के युद्द में फतह हासिल कर के लौटे तब माता जी के दरबार में सब परिवार सहित एकत्रित हुये ।
तभी यदुवंशी महाराजा चन्द्रसेन जी ने कैला माँ से प्राथना करी कि हे कैला माँ आपकी कृपा से मेरे पुत्र गोपाल दास की युद्द में फतह हासिल हुई है । आज से सभी यदुवंशी राजपूत अंजनी माता जी के साथ साथ श्री कैला देवी जी को अपनी कुलदेवी ( अधिष्ठात्री देवी के रूप में ) पूजा किया करेंगे , और आज से मैया का पूरा नाम श्री राजराजेश्वरी कैला महारानी जी होगा ( बोल सच्चे दरबार की जय ) तभी से करौली राजकुल का कोई भी राजा युद्द में जाये या राजगद्दी पर बैठे अपनी कुलदेवी श्री कैला देवी जी का आशीर्वाद लेने जरूर जाता है , और तभी से मेरी मैया श्री राजराजेश्वरी कैला देवी जी करौली राजकुल की कुलदेवी के रूप में पूजी जा रही है ।।
यद्यपि चामड़ माता भी महाकाली का ही स्वरूप मानी जाती हैं तथा इनकी वाममार्गी पूजा पद्धति ही अधिक मान्य व प्रचलित है , जबकि कैलादेवी सौम्य स्वरूपा की पूजा पद्धति दक्षिण मार्गी है , मॉं चामुण्डा (चामड़) को पहले यहॉं पशु बलि आदि दी जाती थी तथा वाममार्गी पूजा प्रचलित थी और इसके लिये यहॉं मंदिर के पिछवाड़े परिसर में ही एक बहुत विशाल बलि कुण्ड भैंसादह , भैंसा कुड बना हुआ है लेकिन बहुत बरसों से मंदिर में बलि प्रथा बंद है और अब यहॉं अनेक बरसों से कोई बलि नहीं दी जाती है , यहॉं यह किंवदंती प्रचलित है कि पहले कैलादेवी जी की प्रतिमा का मुख (चेहरा) एकदम सीधा था , लेकिन जब बाद में चामुण्डा की प्रतिमा यहॉं स्थापित की गई तो दोनों देवियों में स्वभाव भेद होने के कारण कैलादेवी ने चामुण्डा से नाराजगी दिखाते हुये अपना चेहरा विपरीत दिशा में मोड़ कर झुका लिया, तब से ही कैलादेवी का सिर एक तरफ को झुका हुआ है, करौली के जादौन राजवंश के राजा व वंशज एवं उत्तराधिकारी जो कि पेशे से एडवोकेट हैं , प्रत्येक नवरात्रि की नवमी के दिन यहॉं पूजन ने आते हैं , बताया जाता है कि केवल उसी वक्त ही कुछ समय के लिये पूजनकाल में कैलादेवी का चेहरा सीधा और दृष्टि सीधी हो जाती है , यहीं कैलादेवी में ही मॉं महाकाली की रक्तबीज नामक राक्षस से लड़ाई हुई थी , आठ दिन युद्ध चला था और नवमी के दिन यानि नौंवें दिन मॉं काली को रक्तबीज राक्षस पर विजय प्राप्त हुई थी और रक्तबीज मॉं के हाथों मारों गया था , यहीं पर वह काली शिला मोजूद है जहॉं देवी का और असुर का संग्राम हुआ , वह शिला भी मौजूद है जिस पर मॉं काली के और असुर के चरणों के चिह्न छपे हुये हैं , काली शिला पर से ही काली शिल नामक नदी प्रवाहि होती है , इस नदी में स्नान के बाद ही मंदिर में दश्रन के लिये लोग जाते हैं , यहीं पर भैरों बाबा सहि अनेक पज्य मंदिर हैं , कैलादेवी मंदिर के सामने ही मॉं के एक अनन्य व एकाकार एक गूजर भगत की प्रतिमा भी मौजूद है , कैलादेवी पर हर नवरात्रि पर लाखों लोग अटूट रूप से पहुँचते हैं , भारत के सभी राजपूतानों में मॉं की काफी अधिक मान्यता है , मंदिर के पीछे ही मनोकामना पूर्ति के लिये लोग उल्टे स्वास्तिक बना कर जाते हैं और मनोकामना पूर्ति के बाद आकर चांदी के स्वास्तिक चढ़ा कर स्वास्तिक यानि सांतिया सीधा करते हैं , जिनके विवाह न हो रहे हों , जिनकी संतान न हो रही हो , पुत्र की कामना हो , दांपत्य संबंध बिगड़ गये हों आदि आदि के लिये गोबर (गाय के गोबर) के सांतियें (स्वास्तिक) बनाये जाते हैं , ताजा गोबर वही पर पया्रप्त मात्रा में पड़ा मिल जाता है , इसी प्रकार अन्य कामनाओं के लिये सिन्दूर के सांतिये भैरों बाबा के मंदिर पर ( लाट पर या चौकी पर) बनाये जाते हैं, या फिर स्वयं देवी के मंदिर पर ही बना दिये जाते हैं , अपनी अर्जी मॉं के गले में या चरणों में डालने आदि कार्य भी लोग यहॉं करते हैं , मंदिर परिसर के प्रांगण में हवन , धूप , दीप आदि के लिये समुचित व्यवस्था है , रहने रूकने के लिये अनेक मुफ्त धर्मशालायें यहॉं मौजूद हैं , भोग प्रसाद आदि की थाली तैयार कराने , मिलने की समुचित व बेहतरीन व्यवस्था है, खाने पीने भोजन चाय नाश्ता आदि के लिये भी बहुत सस्ती और उत्तम व्यवस्था मंदिर पर उपलब्ध है .... जय श्री मॉं कैला देवी चामुण्डा , जय भवानी
यह विवरण विभिन्न समाजों की प्रतिनिधि संस्थाओं तथा लेखकों द्वारा संकलित एवं प्रकाशित सामग्री पर आधारित है। इसके बारे में प्रबुद्धजनों की सम्मति एवं सुझाव सादर आमन्त्रित हैं।

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-

विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"

वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक

जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन

सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक

वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा

प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक

गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

घाघ कवि के दोहे -घाघ

मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक

22.1.20

जांगड़ा पोरवाल समाज की गोत्र और भेरुजी के स्थल :jangada porwal ke Bheruji


                                 

                                                                 जांगड़ा पोरवाल की कुलदेवी अंबिका माता




जांगडा पोरवाल समाज की उत्पत्ति
गौरी शंकर हीराचंद ओझा (इण्डियन एक्टीक्वेरी, जिल्द 40 पृष्ठ क्र.28) के अनुसार आज से लगभग 1000 वर्ष पूर्व बीकानेर तथा जोधपुरा राज्य (प्राग्वाट प्रदेश) के उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि परगने हैं, जांगल प्रदेश कहलाता था।
जांगल प्रदेश में पोरवालों का बहुत अधिक वर्चस्व था। समय-समय पर उन्होंने अपने शौर्य गुण के आधार पर जंग में भाग लेकर अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था और मरते दम तक भी युद्ध भूमि में डटे रहते थे। अपने इसी गुण के कारण ये जांगडा पोरवाल (जंग में डटे रहने वाले पोरवाल) कहलाये। नौवीं और दसवीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर हुए विदेशी आक्रमणों से, अकाल, अनावृष्टि और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने के कारण अपने बचाव के लिये एवं आजीविका हेतू जांगल प्रदेश से पलायन करना प्रारंभ कर दिया। अनेक पोरवाल अयोध्या और दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गये। दिल्ली में रहनेवाले पोरवाल “पुरवाल”कहलाये जबकि अयोध्या के आस-पास रहने वाले “पुरवार”कहलाये। इसी प्रकार सैकड़ों परिवार वर्तमान मध्यप्रदेश के दक्षिण-प्रश्चिम क्षेत्र (मालवांचल) में आकर बस गये। यहां ये पोरवाल व्यवसाय /व्यापार और कृषि के आधार पर अलग-अलग समूहों में रहने लगे। इन समूह विशेष को एक समूह नाम (गौत्र) दिया जाने लगा। और ये जांगल प्रदेश से आने वाले जांगडा पोरवाल कहलाये। वर्तमान में इनकी कुल जनसंख्या 3 लाख 46 हजार (लगभग) है।
आमद पोरवाल कहलाने का कारण
इतिहास ग्रंथो से ज्ञात होता है कि रामपुरा के आसपास का क्षेत्र और पठार आमद कहलाता था। 15वीं शताब्दी के प्रारंभ में आमदगढ़ पर चन्द्रावतों का अधिकार था। बाद में रामपुरा चन्द्रावतों का प्रमुख गढ़ बन गया।  कालांतर मे   चन्द्रावतों का राज्य समाप्त हो गया और आमदगढ़ भी अपना वैभव खो बैठा।इसी आमदगढ़ किले में जांगडा पोरवालों के पूर्वज काफी अधिक संख्या में रहते थे। आमदगढ़ का महत्व नष्ट होने के साथ ही पोरवाल समाज के परिवारों का  दशपुर क्षेत्र के विभिन्न गाँवों-शहरों  मे  जाकर बसने का सिलसिला शुरू हो गया  |कभी श्रेष्ठीवर्ग में  माना जाने वाला सुख सम्पन्न पोरवाल समाज कालांतर में पराभव (दरिद्रता) की निम्नतम् सीमा तक जा पहुंचा, अशिक्षा, धर्म भीरुता और प्राचीन रुढ़ियों की सामाजिक गिरावट  में प्रमुख भूमिका रही। कृषि और सामान्य व्यापार व्यवसाय के माध्यम से इस समाज ने परिश्रमपूर्वक अपनी विशिष्ठ पहचान पुन: कायम कर ली है ।लेकिन  आमदगढ़ में रहने के कारण इस क्षेत्र के पोरवाल आज भी आमद पोरवाल कहलाते है ।




गौत्रों का निर्माण

श्रीजांगडा पोरवाल समाज में उपनाम के रुप में लगायी जाने वाली 24 गोत्रें किसी न किसी कारण विशेष के द्वारा उत्पन्न हुई और प्रचलन में आ गई। जांगल प्रदेश छोड़ने के पश्चात् पोरवाल वैश्य अपने- अपने समूहों में अपनी मान मर्यादा और कुल परम्परा की पहचान को बनाये रखने के लिये इन्होंने अपने उपनाम (अटके) रख लिये जो आगे चलकर गोत्र कहलाए। किसी समूह विशेष में जो पोरवाल लोग अगवानी करने लगे वे चौधरी नाम से सम्बोधित होने लगे। पोरवाल समाज के जो लोग हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, आदि व्यावसायिक कार्यों में दक्ष थे वे मेहता कहलाने लगे। यात्रा आदि सामूहिक भ्रमण, कार्यक्रमों के अवसर पर जो लोग अगुवाई (नेतृत्व) करते और अपने संघ-साथियों की सुख-सुविधा का पूरा-पूरा ध्यान रखते वे संघवी कहे जाने लगे। मुक्त हस्त से दान देने वाले परिवार दानगढ़ कहलाये। असामियों से लेन-देन करनेवाले, वाणिज्य व्यवसाय में चतुर, धन उपार्जन और संचय में दक्ष परिवार सेठिया और धन वाले धनोतिया पुकारे जाने लगे। कलाकार्य में निपुण परिवार काला कहलाए, राजा पुरु के वंशज पोरवाल  और अर्थ व्यवस्थाओं को गोपनीय रखने वाले गुप्त या गुप्ता कहलाए। कुछ गौत्रें अपने निवास स्थान (मूल) के आधार पर बनी जैसे उदिया-अंतरवेदउदिया(यमुना तट पर), भैसरोड़गढ़(भैसोदामण्डी) में रुकने वाले भैसोटा, मंडावल में मण्डवारिया, मजावद में मुजावदिया, मांदल में मांदलिया, नभेपुर के नभेपुरिया, आदि।
श्री जांगडा पोरवाल समाज की 24 गोत्र
सेठिया, काला, मुजावदिया, चौधरी, मेहता, धनोतिया, संघवी, दानगढ़, मांदलिया, घाटिया, मुन्या, घरिया, रत्नावत, फरक्या, वेद, खरडिया, मण्डवारिया, उदिया, कामरिया, डबकरा, भैसोटा, भूत, नभेपुरिया, श्रीखंडिया

भेरुजी

प्रत्येक गोत्र के अलग- अलग भेरुजी होते हैं। जिनकी स्थापना उनके पूर्वजों द्वारा कभी किसी सुविधाजनक स्थान पर की गयी थी। स्थान का चयन पवित्र स्थान के रुपमें अधिकांश नदी के किनारे, बावड़ी में, कुआं किनारे, टेकरी या पहाड़ी पर किया गया। प्रत्येक परिवार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित भेरुजी की वर्षमें कम से कम एक बार वैशाख मास की पूर्णिमा को सपरिवार पूजा करता है।मांगलिक अवसरों पर भी भेरुजी को बुलावा परिणय पाती के रुप में भेजा जाता है, उनकी पूजा अर्चना करना आवश्यक समझा जाता है। भेरुजी के पूजन पर मालवा की खास प्रसादी दाल-बाफले, लड्डू का भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है।भेरुजी को भगवान शंकर का अंशावतार माना जाता है यह शंकरजी का रुद्रावतार है इन्हें कुलदेवता भी कहा जाता है। जांगडा पोरवाल समाज की कुलदेवी अम्बिकाजी (महाशक्ति दुर्गा) को माना जाता है।
श्री जांगडा पोरवाल समाज के 24 गोत्रों के भेरुजी स्थान
मांदलिया- अचारिया – कचारिया (आलोट-ताल के पास)
कराड़िया (तहसील आलोट)
रुनिजा
पीपल बाग, मेलखेड़ा
बरसी-करसी, मंडावल
सेठिया- आवर – पगारिया (झालावाड़)
नाहरगढ़
घसोई जंगल में
विक्रमपुर (विक्रमगढ़ आलोट)
चारभुजा मंदिर दलावदा (सीतामऊ लदूना रोड)
काला- रतनजी बाग नाहरगढ़
पचांयत भवन, खड़ावदा
बड़ावदा (खाचरौद)
मुजावदिया- जमुनियाशंकर (गुंदी आलोट)
कराड़िया (आलोट)
मेलखेड़ा
रामपुरा
अचारिया, कचारिया, मंडावल
चौधरी – खड़ावदा, गरोठ
रामपुरा, ताल के पास
डराड़े-बराड़े (खात्याखेड़ी)
आवर पगारिया (झालावाड़)
मेहता- गरोठ बावड़ी में, रुनिजा
धनोतिया- घसोई जंगल में
कबीर बाड़ी रामपुरा
ताल बसई
खेजड़िया
संघवी- खड़ावदा (पंचायत भवन)
दानगढ़- आवरा (चंदवासा के पास)
बुच बेचला (रामपुरा)
घाटिया- लदूना रोड़ सीतामऊ
मुन्या- गरोठ बावड़ी में
घरिया- बरसी-करसी (महिदपुर रोड़)
मंडावल (आलोट)
रत्नावत – पंचपहाड़, भैसोदामंडी
सावन (भादवामाता रोड)
बरखेड़ा पंथ
फ़रक्या- पड़दा (मनासा रोड)
बरखेड़ा गंगासा (खड़ावदा रोड)
घसोई जंगल में
बड़ागांव (नागदा)
वेद- जन्नोद (रामपुरा के पास)
साठखेड़ा
खर्ड़िया- जन्नोद (रामपुरा के पास)
मण्डवारिया- कबीर बाड़ी रामपुरा
तालाब के किनारे पावटी
दोवरे-पैवर (संजीत)
उदिया- जन्नोद (रामपुरा के पास)
कामरिया- मंडावल (तह. आलोट)
जन्नोद (रामपुरा के पास)
डबकरा- अराडे-बराडे (खात्याखेड़ी, सुवासरा रोड)
सावन, चंदवासा, रुनिजा
भैसोटा- बरसी-करती (महिदपुर रोड के पास)
मंडावल (तह. आलोट)
भूत- गरोठ बावड़ी में
रुनिजा – घसोई
नभेपुरिया – वानियाखेड़ी, (खड़ावदा के पास)
श्रीखंडिया- इन्दौर सेठजी का बाग
श्री जांगडा पोरवाल समाज में प्रचलित उपाधियाँ (पदवियाँ)
पदवी – वास्तविक गोत्र
चौधरी – मांदलिया, काला, धनोतिया, डबकरा, सेठिया, चौधरी या अन्य
मोदी – काला, धनोतिया, डबकरा, दानगढ़
मरच्या – उदिया
कोठारी – मांदलिया, सेठिया या अन्य
संघवी – काला, संघवी
बटवाल – वेद
मिठा – मांदलिया

पोरवाल समाज के महापुरुष

राजा टोडरमल पोरवाल (सन् 1601 से 1666 ई.)

टोडरमल का जन्म चैत्र सुदी नवमी बुधवार संवत् 1658 वि. (सन् 1601, मार्च 18) को बूँदी के एक पोरवाल वैश्य परिवार मे हुआ था। बाल्यकाल से वह हष्टपुष्ट, गौरवर्ण युक्त बालक अत्यन्त प्रतिभाशाली प्रतीत होता था। धर्म के प्रती उसका अनुराग प्रारंभ से ही था। मस्तक पर वह वैष्णव तिलक लगया करता था।
युवावस्था में टोडरमल ने अपने पिता के लेन-देन के कार्य एवं व्यवसाय में सहयोग देते हुए अपने बुद्धि चातुर्य एवं व्यावसायिक कुशलता का परिचय दिया । प्रतिभा सम्पन्न पुत्र को पिता ने बूँदी राज्य की सेवा में लगा दिया । अपनी योग्यता और परिश्रम से थोड़े ही दिनों में टोडरमल ने बूँदी राज्य के एक ईमानदार , परिश्रमी और कुशल कर्मचारी के रुप में तरक्की करते हुए अच्छा यश अर्जित कर लिया।
 उस समय मुगल सम्राट जहाँगीर शासन कर रहा था। टोडरमल की योग्यता और प्रतिभा को देखकर मुगल शासन के अधिकारियों ने उसे पटवारी के पद पर नियुक्त कर दिया। थोड़े ही काल में टोडरमल की बुद्धिमत्ता , कार्यकुशलता, पराक्रम और ईमानदारी की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वह तेजी से उन्नति करने लगा।
सम्राट जहाँगीर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शाहजहाँ मुगल साम्राज्य का स्वामी बना। 1639 ई. में शाहजहाँ ने टोडरमल के श्रेष्ठ गुणों और उसकी स्वामी भक्ति से प्रभावित होकर उसे राय की उपाधि प्रदान की तथा सरकार सरहिंद की दीवानी, अमीरी और फौजदारी के कार्य पर उसे नियुक्त कर दिया। टोडरमल ने सरहिंद में अपनी प्रशासनिक कुशलता का अच्छा परिचय दिया जिसके कारण अगले ही वर्ष उसे लखी जंगल की फौजदारी भी प्रदान कर दी गई । अपने शासन के पन्द्रहवें वर्ष में शाहजहाँ ने राय टोडरमल पोरवाल को पुन: पुरस्कृत किया तथा खिलअत, घोड़ा और हाथी सहर्ष प्रदान किये । 16 वें वर्ष में राय टोडरमल एक हजारी का मनसबदार बन गया। मनसब के अनुरुप से जागीर भी प्राप्त हुई। 19वें वर्ष में उसके मनसब में पाँच सदी 200 सवारों की वृद्धि कर दी गई ।20वें वर्ष में उसके मनसब में पुन: वृद्धि हुई तथा उसे ताल्लुका सरकार दिपालपुर परगना जालन्धर और सुल्तानपुर का क्षेत्र मनसब की जागीर में प्राप्त हुए । उसने अपने मनसब के जागीरी क्षेत्र का अच्छा प्रबन्ध किया जिससे राजस्व प्राप्ति में काफी अभिवृद्धि हो गई ।
 राय टोडरमल निरन्तर उन्नति करते हुए बादशाह शाहजहाँ का योग्य अधिकारी तथा अतिविश्वस्त मनसबदार बन चुका था । 21वें वर्ष में उसे राजा की उपाधि और 2 हजारी 2हजार सवार दो अस्पा, तीन अस्पा की मनसब में वृद्धि प्रदान की गई । राजा की पदवी और उच्च मनसब प्राप्त होने से राजा टोडरमल पोरवाल अब मुगल सेवा में प्रथम श्रेणी का अधिकारी बन गया था। 23वें वर्ष में राजा टोडरमल को डंका प्राप्त हुआ।
 सन् 1655 में राजा टोडरमल गया। जहाँ उसका एक परममित्र बालसखा धन्नाशाह पोरवाल रहता था। धन्नाशाह एक प्रतिष्ठित व्यापारी था। आतिथ्य सेवा में वह सदैव अग्रणी रहता था। बूँदी पधारने वाले राजा एवं मुगल साम्राज्य के उच्च अधिकारी उसका आतिथ्य अवश्य ग्रहण करते थे। बूँदी नरेश धन्नाशाह की हवेली पधारते थे इससे उसके मानसम्मान में काफी वृद्धि हो चुकी थी। उसकी रत्ना नामक एक अत्यन्त रुपवती, गुणसम्पन्न सुशील कन्या थी। यही उसकी इकलौती संतान थी। विवाह योग्य हो जाने से धन्नाशाह ने अपने समान ही एक धनाढ्य पोरवाल श्रेष्ठि के पुत्र से उसकी सगाई कर दी।
 भाग्य ने पलटा खाया और सगाई के थोड़े ही दिन पश्चात् धन्नाशाह की अकाल मृत्यु हो गई । दुर्भाग्य से धन्नाशाह की मृत्यु के बाद लक्ष्मी उसके घर से रुठ गई जिससे एक सुसम्पन्न, धनाढ्य प्रतिष्ठित परिवार विपन्नावस्था को प्राप्त हो गया। धन्नाशाह की विधवा के लिए यह अत्यन्त दु:खमय था। गरीबी की स्थिति और युवा पुत्री के विवाह की चिन्ता उसे रात दिन सताया करती थी । ऐसे ही समय अपने पति के बालसखा राजा टोडरमल पोरवाल के बूँदी आगमन का समाचार पाकर उसे प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
 एक व्यक्ति के साथ धन्नाशाह की विधवा ने एक थाली मे पानी का कलश रखकर राजा टोडरमल के स्वागत हेतू भिजवाया। अपने धनाढ्य मित्र की ओर से इस प्रकार के स्वागत से वह आश्चर्यचकित रह गया। पूछताछ करने पर टोडरमल को अपने मित्र धन्नाशाह की मृत्यु उसके परिवार के दुर्भाग्य और विपन्नता की बात ज्ञात हुई, इससे उसे अत्यन्त दु:ख हुआ । वह धन्नाशाह की हवेली गया और मित्र की विधवा से मिला। धन्नाशाह की विधवा ने अपनी करुण गाथा और पुत्री रत्ना के विवाह की चिन्ता से राजा टोडरमल को अवगत कराया।
अपने परममित्र सम्मानित धनाढ्य श्रेष्ठि धन्नाशाह की विधवा से सारी बातें सुनकर उसे अत्यन्त दु:ख हुआ। उसने उसी समय धन्नाशाह की पुत्री रत्ना का विवाह काफी धूमधाम से करने का निश्चय व्यक्त किया तथा तत्काल समुचित प्रबन्ध कर रत्ना के ससुराल शादी की तैयारी करने की सूचना भिजवा दी। मुगल साम्राज्य के उच्च सम्मानित मनसबदार राजा टोडरमल द्वारा अपने मित्र धन्नाशाह की पुत्री का विवाह करने की सूचना पाकर रत्ना के ससुराल वाले अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
 राजा टोडरमल ने एक माह पूर्व शान शौकत के साथ गणपतिपूजन करवा कर (चाक बंधवाकर) रत्ना के विवाहोत्सव का शुभारंभ कर दिया। निश्चित तिथि को रत्ना का विवाह शाही ठाटबाट से सम्पन्न हुआ। इस घटना से राजा टोडरमल की उदारता, सहृदयता और मित्रस्नेह की सारी पोरवाल जाति में प्रशंसा की गई और उसकी कीर्ति इतनी फैली की पोरवाल समाज की स्त्रियाँ आज भी उनकी प्रशंसा के गीत गाती है और पोरवाल समाज का एक वर्ग उन्हें अपना प्रातः स्मरणीय पूर्वज मानकर मांगलिक अवसरों पर सम्मान सहित उनका स्मरण करता है तथा उन्हें पूजता है। इस प्रकार राजा टोडरमल का यश अजर-अमर हो गया। हाड़ौती (कोटा-बूँदी क्षेत्र) तथा मालवा क्षेत्र में जहाँ भी पोरवाल वास करते है, वहाँ टोडरमल की कीर्ति के गीत गाये जाते हैं तथा उनका आदरसहित स्मरण किया जाता है। उनके प्रति श्रद्धा इतनी अधिक रही है कि पोरवाल व्यापारी की रोकड़ न मिलने पर टोडरमल का नाम लिखा पर्चा रोकड़ में रख देने से प्रातःकाल रोकड़ मिल जाने की मान्यता प्रचलित हो गई है।
 सम्राट शाहजहाँ का उत्तराधिकारी दाराशिकोह वेदान्त दर्शन से अत्यन्त प्रभावित उदार विचारों का व्यक्ति था। सन् 1658 से बादशाह शाहजहाँ के गम्भीर रुप से अस्वस्थ हो जाने की अफवाह सुनकर उसके बेटे मुराद और शुजा ने विद्रोह कर दिया। 16 अप्रैल 1658 ई. शुक्रवार को धरमाट (फतियाबाद) के मैदान में औरंगज़ेब की सेनाओं ने शाही सेना को करारी शिकस्त दी। सामूगढ़ के मैदान में पुनः दाराशिकोह के नेतृत्व में शाही सेना को औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त सेना से पराजय का सामना करना पड़ा। दारा युद्ध में पराजित होकर भागा। औरंगज़ेब ने आगरा पर अधिकार कर पिता को किले में कैद किया और फिर आगे बढ़ा। रास्ते में मुराद को समाप्त कर औरंगज़ेब ने पंजाब की ओर भागे दाराशिकोह का पीछा किया।
 राजा टोडरमल की प्रारम्भ से ही दाराशिकोह के प्रति सहानुभूति थी। पराजित दारा के प्रति उसकी सहानुभूति में कोई अन्तर नहीं आया। अतः जब दारा लखी जंगल से गुजरा तो राजा टोडरमल ने जो लखी जंगल का फौजदार था, अपने कई मौजें में गड़े धन से 20 लाख रुपये गुप्त रुप से सहायतार्थ प्रदान किये थे।
इसी कारण पंजाब की ओर दारा का पीछा करने के बाद लाहौर से दिल्ली की तरफ लौटते हुए औरंगज़ेब ने अनेक सरदारों और मनसबदारों को खिलअते प्रदान की थी। तब लखी जंगल के फौजदार राजा टोडरमल को भी खिलअत प्राप्त हुई थी।
 इटावा का फौजदार रहते हुए राजा टोडरमल ने अपनी पोरवाल जाति को उस क्षेत्र में बसाने तथा उन्हें व्यापार- व्यवसाय की अभिवृद्धि के लिये समुचित सुविधाएँ प्रदान करने में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया था। सम्भवतः इस कारण भी जांगड़ा पोरवाल समाज में इसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के उद्देश्य से एक श्रद्धेय पूर्वज के रुप में राजा टोडरमल की पूजा की जाती है ।
 राजा टोडरमल अपने अंतिम समय में अपने जन्मस्थल बूँदी में अपना शेष जीवन परोपकार और ईश्वर पूजन में व्यतीत करने लगे तथा समाज के सैकड़ों परिवार इटावा क्षेत्र त्यागकर बून्दी कोटा क्षेत्र में आ बसे। यहीं से ये परिवार बाद में धीरे-धीरे मालवा क्षेत्र में चले आए।
 जाति इतिहासकार डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार राजा टोडरमल की मृत्यु कहाँ और किस तिथि को हुई थी इस सम्बन्ध में निश्चित कुछ भी ज्ञात नहीं है । किन्तु अनुमान होता है कि सन् 1666 ई. में पोरवाल समाज के इस परोपकारी प्रातः स्मरणीय महापुरूष की मृत्यु बूँदी में ही हुई होगी । कोटा बूँदी क्षेत्र में आज भी न केवल पोरवाल समाज अपितु अन्य समाजों मे भी राजा टोडरमलजी के गीत बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं।
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21.1.20

रैबारी समाज का इतिहास ,गोत्र एवं कुलदेवियां:Rebari samaj itihas




रेबारी जाति की उत्पत्ति 

रबारी जनजाति की सटीक उत्पत्ति समय की धुंध में छिपी हुई है, जिससे उनकी सटीक ऐतिहासिक जड़ों को इंगित करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। हालांकि, विद्वानों का मानना ​​है कि रबारी का भारत में योद्धा जाति राजपूतों से प्राचीन संबंध है। सदियों से, रबारी एक अलग समुदाय के रूप में विकसित हुए हैं, जिनकी खानाबदोश जीवनशैली चराने और पशुओं के व्यापार पर केंद्रित है।

संस्कृति

रबारी संस्कृति उनकी देहाती जीवनशैली से गहराई से जुड़ी हुई है और समुदाय की एक मजबूत भावना, मौखिक परंपराओं और एक अद्वितीय सामाजिक संरचना की विशेषता है। समुदाय कुलों में संगठित है, और प्रत्येक कुल के अपने रीति-रिवाज और अनुष्ठान हैं। रबारी समाज पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक है, जिसमें निर्णय लेने में बुजुर्गों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

आजीविका और खानाबदोश जीवन शैली

रबारी जनजाति का मुख्य व्यवसाय पशुपालन, विशेष रूप से ऊँट, बकरी और भेड़ पालना है। पश्चिमी भारत में विशाल थार रेगिस्तान उनके पारंपरिक निवास स्थान के रूप में कार्य करता है, जहाँ वे चरागाह भूमि और जल स्रोतों की तलाश में अपने झुंड के साथ घूमते हैं। इस खानाबदोश जीवन शैली ने उनकी सांस्कृतिक पहचान को आकार दिया है और यह उनके रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में परिलक्षित होता है।

पारंपरिक पोशाक और आभूषण

रबारी संस्कृति की एक खास विशेषता उनकी पारंपरिक पोशाक और विस्तृत आभूषण हैं। महिलाएं चमकीले रंग के घाघरे (लंबी स्कर्ट) और चोली (ब्लाउज) पहनती हैं, जिन पर जटिल कढ़ाई और शीशे का काम किया जाता है। पुरुष आमतौर पर धोती और कुर्ता पहनते हैं। पुरुष और महिलाएं दोनों ही अपने आभूषणों के लिए जाने जाते हैं, जिनमें चांदी के हार, झुमके, नाक की अंगूठी और चूड़ियाँ शामिल हैं। अलंकृत पोशाक और आभूषण न केवल सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक हैं, बल्कि समुदाय की शिल्प कौशल का भी प्रमाण हैं।

विवाह संबंधी रीति-रिवाज

रबारी विवाह सदियों पुराने रीति-रिवाजों और रीति-रिवाजों से चिह्नित विस्तृत मामले हैं। समुदाय अंतर्विवाह का अभ्यास करता है, अपने ही कबीले में विवाह करना पसंद करता है। विवाह-सम्बन्धी प्रक्रिया में कुंडली का आदान-प्रदान और बड़ों से परामर्श शामिल है। विवाह समारोह अपने आप में एक रंगीन और आनंदमय कार्यक्रम है, जिसमें पारंपरिक संगीत, नृत्य और रीति-रिवाज शामिल हैं। नवविवाहित जोड़े अक्सर दूल्हे के परिवार के साथ रहते हैं, और रबारी लोगों के बीच संयुक्त परिवार एक आम सामाजिक संरचना है।


त्यौहार और समारोह

रबारी समुदाय कई तरह के त्यौहारों को बड़े उत्साह से मनाता है, जो उनकी खानाबदोश जीवनशैली में जीवंत रंग भर देते हैं। दिवाली, होली और गणगौर रबारी द्वारा मनाए जाने वाले प्रमुख त्यौहारों में से हैं। इन अवसरों के दौरान, समुदाय अनुष्ठानों, पारंपरिक नृत्यों और दावतों में भाग लेने के लिए एक साथ आता है। त्यौहार सामाजिकता और सामुदायिक बंधनों को मजबूत करने के अवसर भी प्रदान करते हैं।

रैबारी समाज की धार्मिक मान्यताऐं 

डॉ. दयाराम आलोक के अनुसार, रबारी जनजाति हिंदू धर्म और एनिमिस्टिक मान्यताओं के समन्वयात्मक मिश्रण का पालन करती है। उनकी धार्मिक परंपराएं और रीति-रिवाज उनकी खानाबदोश जीवनशैली में गहराई से जुड़े हुए हैं।
रबारी जनजाति की धार्मिक परंपराएं:
1. बन माता देवी की पूजा: रबारी लोग बन माता देवी को ऊँटों की रक्षक मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
2. जानवरों की पूजा: रबारी लोग अपने पशुओं की पूजा करते हैं और उनकी भलाई के लिए अनुष्ठान करते हैं।
3. धार्मिक मेले: रबारी समुदाय धार्मिक मेले मनाता है, जहाँ वे अपने पशुओं और खुशहाली के लिए आशीर्वाद मांगते हैं।
4. पवित्र स्थलों का दौरा: रबारी लोग अपनी यात्राओं के दौरान पवित्र स्थलों का दौरा करते हैं और वहाँ पूजा करते हैं।

रबारी जनजाति की खानाबदोश परंपराएं:

1. पशुधन की भलाई: रबारी लोग अपने पशुओं की भलाई के लिए प्रवास मार्गों की सावधानीपूर्वक योजना बनाते हैं।
2. पारंपरिक गीत और लोक कथाएँ: रबारी समुदाय के पास पारंपरिक गीत और लोक कथाएँ हैं जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं।
3. सांस्कृतिक पहचान: रबारी जनजाति की खानाबदोश परंपराएं और रीति-रिवाज उनकी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं

चुनौतियाँ और अनुकूलन

आधुनिक युग में, रबारी जनजाति की पारंपरिक खानाबदोश जीवनशैली को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें भूमि अतिक्रमण, बदलती कृषि पद्धतियाँ और सरकारी नीतियाँ शामिल हैं। कई रबारी लोगों को अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का प्रयास करते हुए वैकल्पिक आजीविका में संलग्न होकर अधिक व्यवस्थित जीवन जीना पड़ा है। गैर-सरकारी संगठन और कार्यकर्ता समुदाय द्वारा सामना किए जाने वाले सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को संबोधित करने और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं।

1- भूमि अतिक्रमण और विस्थापन:चुनौती : 

रबारी लोग पारंपरिक रूप से अपने पशुओं के लिए विशाल चरागाह भूमि पर निर्भर रहते हैं, लेकिन शहरीकरण, कृषि विस्तार और सरकारी नीतियों के कारण ये भूमि तेजी से खतरे में आ रही है।
अनुकूलन : कुछ रबारी परिवारों को अपनी खानाबदोश जीवनशैली को त्यागकर एक ही स्थान पर बसने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अन्य लोग अपनी पैतृक भूमि की रक्षा के लिए कानूनी सहायता लेते हैं या वकालत समूहों के साथ सहयोग करते हैं।

2- बदलती कृषि पद्धतियाँ:चुनौती : 

कृषि पद्धतियों और भूमि उपयोग में बदलाव से चरागाह भूमि की उपलब्धता प्रभावित होती है, जिससे रबारी की आजीविका के लिए आवश्यक संसाधन कम हो जाते हैं।
अनुकूलन : कुछ रबारी परिवारों ने खेती, हस्तशिल्प या स्थानीय उद्योगों में काम करके वैकल्पिक व्यवसायों में शामिल होकर अपनी आजीविका में विविधता लाई है। यह अनुकूलन उन्हें बदलते आर्थिक परिदृश्य से निपटने में सक्षम बनाता है।

3- सरकारी नीतियाँ और विनियमन:चुनौती : 

सरकारी नीतियां अक्सर रबारी जनजाति की खानाबदोश जीवन शैली के अनुरूप नहीं होती हैं, जिसके कारण भूमि अधिकार, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच से संबंधित समस्याएं पैदा होती हैं।
अनुकूलन : वकालत करने वाले समूह और गैर सरकारी संगठन रबारी समुदाय के साथ मिलकर उनकी अनूठी ज़रूरतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और अधिकारियों से ऐसी नीतियों के लिए बातचीत करने का काम करते हैं जो उनकी खानाबदोश जीवनशैली को समायोजित करती हैं। औपचारिक शिक्षा और रबारी लोगों के पारंपरिक ज्ञान के बीच की खाई को पाटने के लिए शैक्षिक पहल भी की जाती है।

4- सामाजिक-आर्थिक मुद्दे:चुनौती :

 खानाबदोश जीवनशैली सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने के बावजूद आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकती है। स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोजगार के अवसरों तक सीमित पहुंच के कारण रबारी समुदाय को सामाजिक-आर्थिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है।

अनुकूलन :

 रबारी युवाओं को कौशल विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के प्रयास किए जाते हैं, जिससे वे अपनी सांस्कृतिक पहचान के पहलुओं को संरक्षित करते हुए मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था में एकीकृत हो सकें।

5- पर्यावरण परिवर्तन:चुनौती : 

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षरण से जल और चरागाह की उपलब्धता प्रभावित हो रही है, जिससे रबारी समुदाय की पशुधन पर निर्भर आजीविका पर खतरा उत्पन्न हो रहा है।
अनुकूलन : 
कुछ रबारी परिवार पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए वर्षा जल संचयन और कुशल संसाधन प्रबंधन जैसी स्थायी प्रथाओं की खोज कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, जागरूकता कार्यक्रम समुदाय को जलवायु-लचीली प्रथाओं के बारे में शिक्षित करते हैं।

6- शैक्षिक अवसर:चुनौती : 

खानाबदोश समुदायों के लिए औपचारिक शिक्षा तक सीमित पहुंच उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रगति और युवा पीढ़ी तक पारंपरिक ज्ञान के हस्तांतरण में बाधा डालती है।
अनुकूलन :
 गैर सरकारी संगठन और समुदाय द्वारा संचालित पहल मोबाइल स्कूल स्थापित करने के लिए काम कर रहे हैं, जो बच्चों को उनके परिवारों के साथ चलते-फिरते शिक्षा प्रदान करते हैं। औपचारिक शिक्षा और पारंपरिक रबारी ज्ञान के बीच की खाई को पाटने के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं।

7- सांस्कृतिक संरक्षण:चुनौती : 

वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण रबारी संस्कृति, भाषा और परंपराओं के संरक्षण के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।
अनुकूलन : मौखिक परंपराओं का दस्तावेजीकरण, पारंपरिक शिल्प को बढ़ावा देना और त्योहारों का जश्न मनाना सहित सांस्कृतिक संरक्षण पहल, रबारी सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने में मदद करती है। रबारी परंपराओं के प्रति जागरूकता और प्रशंसा पैदा करने के लिए पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों का भी लाभ उठाया जाता है।

निष्कर्ष

रबारी जनजाति की उत्पत्ति, संस्कृति, परंपराएँ और रीति-रिवाज भारत की विविधता के समृद्ध ताने-बाने में बुने हुए हैं। उनकी खानाबदोश जीवनशैली, जीवंत त्यौहार और अनोखे रीति-रिवाज उन्हें एक आकर्षक समुदाय बनाते हैं, जिसका सदियों से जिस भूमि पर वे रहते आए हैं, उससे गहरा जुड़ाव है। जैसे-जैसे रबारी जनजाति आधुनिक दुनिया की चुनौतियों का सामना कर रही है, उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और मनाने के प्रयास इस प्राचीन जीवन शैली की निरंतरता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. रबारी लोग कौन हैं?

उत्तर: रबारी लोग पश्चिमी भारतीय राज्यों गुजरात, राजस्थान और पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में रहने वाले एक चरवाहे समुदाय हैं। वे पारंपरिक रूप से पशुधन चराने के लिए जाने जाते हैं और उनकी एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है।


2. रबारी जनजाति की पारंपरिक आजीविका क्या है?

उत्तर: रबारी जनजाति पारंपरिक रूप से मवेशी, भेड़ और बकरियां चराने पर निर्भर रहती है। वे पशुपालन में कुशल हैं और अक्सर चरागाह की तलाश में खानाबदोश या अर्ध-खानाबदोश जीवन शैली जीते हैं।


3. रबारी पोशाक और श्रृंगार के बारे में क्या खास है?

उत्तर: रबारी महिलाओं को अक्सर उनके जीवंत और विस्तृत पारंपरिक परिधान से पहचाना जाता है, जिसमें रंगीन स्कर्ट, कढ़ाई वाले ब्लाउज और विशिष्ट आभूषण शामिल हैं। पुरुष आमतौर पर पगड़ी और अन्य सामान के साथ सफेद पोशाक पहनते हैं।


4. रबारी कढ़ाई किस लिए जानी जाती है?

उत्तर: रबारी कढ़ाई अपने जटिल पैटर्न और जीवंत रंगों के लिए प्रसिद्ध है। जनजाति की महिलाएँ विभिन्न कढ़ाई तकनीकों में कुशल हैं, और उनका काम अक्सर उनकी सांस्कृतिक पहचान और कहानियों को दर्शाता है।


5. रबारी समुदाय सामाजिक रूप से कैसे संगठित है?

उत्तर: रबारी समुदाय कुलों में संगठित है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी सामाजिक और आर्थिक ज़िम्मेदारियाँ हैं। कुलों को आगे विस्तारित परिवारों में विभाजित किया जाता है, और सामाजिक रीति-रिवाज उनके समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


6. रबारी जनजाति की धार्मिक मान्यता क्या है?

उत्तर: रबारी जनजाति हिंदू धर्म और अपने स्वदेशी लोक धर्म का समन्वय करती है। उनके अपने देवता और अनुष्ठान हैं, जो अक्सर प्रकृति और जानवरों के इर्द-गिर्द केंद्रित होते हैं।


7. क्या रबारी लोग त्यौहार मनाते हैं?

उत्तर: हाँ, रबारी लोग विभिन्न त्यौहारों को उत्साह के साथ मनाते हैं। महत्वपूर्ण त्यौहारों में होली, दिवाली और नवरात्रि शामिल हैं, जिसके दौरान समुदाय पारंपरिक संगीत, नृत्य और अनुष्ठानों के साथ जश्न मनाने के लिए एक साथ आता है।


8. रबारी जनजाति की जीवनशैली समय के साथ कैसे विकसित हुई है?

उत्तर: पारंपरिक रूप से खानाबदोश रहने वाले कई रबारी परिवारों ने आधुनिक समय में अधिक स्थायी जीवनशैली अपना ली है। हालाँकि, वे अभी भी अपनी देहाती जड़ों से मज़बूत संबंध बनाए हुए हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान के कुछ पहलू अभी भी कायम हैं।


9. रबारी लोगों के कुछ पारंपरिक शिल्प क्या हैं?

उत्तर: कढ़ाई के अलावा, रबारी लोग हस्तनिर्मित सामान जैसे कपड़ा, गहने और अन्य पारंपरिक कलाकृतियाँ बनाने के लिए जाने जाते हैं। ये शिल्प अक्सर उनके कलात्मक कौशल और सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करते हैं।

10. क्या रबारी शादियों से जुड़ी कोई खास रस्में या रीति-रिवाज़ हैं?

उत्तर: हाँ, रबारी शादियों में कई पारंपरिक रस्में और रीति-रिवाज़ शामिल होते हैं, जिनमें दो परिवारों के मिलन का प्रतीक समारोह भी शामिल है। शादियाँ अक्सर समुदाय के भीतर ही तय की जाती हैं, और रीति-रिवाज़ क्षेत्रीय प्रथाओं के आधार पर अलग-अलग होते हैं।
रेबारी एक खानाबदोश समुदाय है जो राजस्थान में पैदा हुआ और गुजरात के कच्छ ज़िले के अर्ध-रेगिस्तानी इलाकों में बस गया. इस समुदाय को रैबारी, राईका, देसाई और देवासी के नाम से भी जाना जाता है. रेबारी समुदाय के लोग खेती और पशुपालन से जुड़े रहे हैं. ये लोग पशुओं को चराने के लिए अपने निवास स्थान से प्रदेश और दूसरे प्रदेशों में घूमते हैं और अपने परिवारों के साथ घुमंतू जीवन जीते हैं. रेबारी समुदाय के लोग अपनी शानदार कढ़ाई के लिए भी जाने जाते हैं
  जाति इतिहासविद डॉ . दयाराम आलोक के अनुसार भारत मेँ इस जाति को मुख्य रूप से रेबारी, राईका, देवासी, देसाई, धनगर, पाल, हीरावंशी या गोपालक के नाम से पहचाना जाता है, यह जाति राजपूत जाति से निकल कर आई है, यह जाति भोली भाली और श्रद्धालु होने से देवो का वास इसमे रहता है, या देवताओं के साथ रहने से इसे देवासी के नाम से भी जाना जाता है। भारत मेँ रेबारी जाति मुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उतरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि राज्योँ मेँ पायी जाती है| विशेष करके उत्तर, पश्विम और मध्य भारत में। वैसे तो पाकिस्तान में भी करीब  10000 रेबारी है।

Rebari samaj itihas 

 रेबारी जाति का इतिहास बहुत पूराना है। लेकिन शुरू से ही पशुपालन का मुख्य व्यवसाय और घुमंतू (भ्रमणीय) जीवन होने से कोई आधारभुत ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा नही गया और अभी जो भी इतिहास मिल रहा है वो दंतकथाओ पर आधारित है। प्रत्येक जाति की उत्पति के बारे मेँ अलग-अलग राय होती है, उसी प्रकार रेबारी जाति के बारे मेँ भी एक पौराणीक दंतकथा प्रचलित है-कहा जाता है कि माता पार्वती  एक दिन नदी के किनारे गीली मिट्टी से ऊँट जेसी आक्रति बना रही थी तभी वहा भोलेनाथ भी आ गये। माँ पार्वती  ने भगवान शिव से कहा- हे ! महाराज क्योँ न इस मिट्टी की मुर्ति को संजीवीत कर दो। भोलेनाथ ने उस मिट्टी की मुर्ति (ऊँट) को संजीवन कर दिया। माँ पार्वती  ऊँट को जीवित देखकर अति प्रसन्न हुयी और भगवान शिव से कहा-हे ! महाराज जिस प्रकार आप ने मिट्टी के ऊँट को जीवित  प्राणी के रूप मेँ बदला है ,उसी प्रकार आप ऊँट की रखवाली करने के लिए एक मनुष्य को भी बनाकर दिखलाओँ। आपको पता है। उसी समय भगवान शिव ने अपनी नजर दोडायी सामने एक समला का पैड था, समला के पेड के छिलके से भगवान शिव ने एक मनुष्य को बनाया। समला के पेड से बना मनुष्य सामंड गौत्र(शाख) का रेबारी था। आज भी सामंड गौत्र रेबारी जाति मेँ अग्रणीय है। रेबारी भगवान शिव का परम भगत था।

Rebari samaj itihas 

शिवजी ने रेबारी को ऊँटो के टोलो के साथ भूलोक के लिए विदा किया। उनकी चार बेटी हुई, शिवजी ने उनके ब्याह राजपूत (क्षत्रीय) जाति के पुरुषो के साथ किये, और उनकी संतती हुई वो हिमालय के नियम के बाहर हुई थी इस लिये वो “राहबरी” या “रेबारी” के नाम से जानी जाने लगी! भाट,चारण और वहीवंचाओ के ग्रंथो के आधार पर, मूल पुरुष को 16 लडकीयां हुई और वो 16 लडकीयां का ब्याह 16 क्षत्रीय कुल के पुरुषो साथ किया गया! जो हिमालयके नियम बहार थे, सोलाह की जो वंसज हुए वो राहबारी और बाद मे राहबारी का अपभ्रंश होने से रेबारी के नाम से पहचानने लगे,बाद मे सोलह की जो संतति जिनकी शाख(गौत्र) राठोड,परमार,सोँलकी, मकवाणा आदि  रखी गयी ज्यो-ज्यो वंश आगे बढा रेबारी जाति अनेक शाखाओँ (गोत्र) मेँ बंट गयी। वर्तमान मेँ 133 गोत्र या शाखा उभर के सामने आयी है जिसे विसोतर के नाम से भी जाना जाता है ।
विसोतर का अर्थ- (बीस + सौ + तेरह) मतलब विसोतर यानी 133 गौत्र | प्रथम यह जाति रेबारी से पहचानी गई, लेकीन वो राजपुत्र या राजपूत होने से रायपुत्र के नाम से और रायपुत्र का अपभ्रंश होने से 'रायका' के नाम से , गायो का पालन करने से 'गोपालक' के नाम से, महाभारत के समय मे पांडवो का महत्वपूर्ण काम करने से 'देसाई' के नाम से भी यह जाति पहचानी जाने लगी! एक मान्यता के अनुसार, मक्का-मदीना के इलाको मे मोहम्मद पेगम्बर  साहब से पहले जो अराजकता फैली थी, जिनके कारण मूर्ति पूजा का विरोध होने लगा! 
उसके परिणाम से यह जाति ने अपना धर्म बचाना मुश्किल होने लगा! तब अपने देवी-देवताओ को पालखी मे लेके हिमालय के रास्ते से भारत मे प्रवेश किया होगा. (अभी भी कई रेबारी अपने देवी-देवताको मूर्तिरूप प्रस्थापित नही करते, पालखी मे ही रखते है!) उसमे हूण और शक का टौला शामिल था! रेबारी जाति मे आज भी हूण अटक (Surname) है! इससे यह अनुमान लगाया जाता है की हुण इस रेबारी जाति मे मिल गये होंगे! एक ऐसा मत भी है की भगवान परशुराम ने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रीय-विहीन किया था, तब 133 क्षत्रीयो ने परशुराम के डर से क्षत्रिय धर्म छोडकर पशुपालन का काम स्वीकार लिया! इस लिये वो 'विहोतर' के नाम से जाने जाने लगे! विहोतेर मतलब 20+100+13=133. पौराणिक बातो मे जो भी हो, किंतु इस जाति का मूल वतन एशिया मायनोर होगा कि  जहा से आर्य  भारत भूमि मे आये थे! आर्यो का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था ओर रेबारी का मुख्य व्यवसाय आज भी पशुपालन ही है! इसीलिये यह अनुमान लगाया जाता है की आर्यो के साथ यह जाती भारत में आयी होंगी!

देवासी समाज इतिहास

मानव जाति की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं समाज का इतिहास भी पहेली बना हुआ है। मानव की उत्पत्ति के इतिहास कीभॉति ही हर जाति एवं उपजाति की उत्पत्ति काइतिहास भी एक गूढ़ रहस्य बना हुआ है। विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के बारे मे या तो इतिहास मौन है या इतिहासकारों ने आपसी विवादों और तर्क – वितर्कों का ऐसा अखाड़ा बना रखा है कि इस प्रकार के विभिन्न मत मातान्तरों का अध्ययन करने पर भी सच्चाई तक पहुंच पाना दुर्लभ नही कठीन अवष्य है। अगर हम हमारे देश के प्राचीन इतिहास को उठाकर देखें तो वैदिक काल में यहा पर कोई जाति प्रथा नहीं थी। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चार वर्णों - ब्राह्मण, क्षेत्रिय, वैष्य, शूद्र में बॉंटा गया था यह वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के जन्म संस्कारो पर आधारित न होकर कर्म संस्करों पर आधारित थी। सच ही कहा है- व्यक्ति जन्म से नहीं , कर्म से महान बनता है।

रेबारी समुदाय के बारे में कुछ और बातें:

रेबारी समुदाय के लोग क्षत्रिय समुदाय से हैं.
ज़्यादातर रेबारी लोग पूर्वी भारत में मस्तनाथ बाबा अभोर की पूजा करते हैं, जबकि पश्चिमी भारत में रहने वाले रेबारी लोग भगवान शिव-पार्वती की पूजा करते हैं.
रेबारी समुदाय के लोग राजस्थान के हर लोक देवता की पूजा करते हैं, जो उनकी वफ़ादारी और गरिमा को दर्शाता है.
राजस्थान में रेबारी समुदाय सबसे फ़ैशनेबल जाति मानी जाती है. पुरुष लाल पगड़ी और सफ़ेद पोशाक पहनते हैं, जबकि महिलाएं ओढ़नी-लहंगा और सफ़ेद चूड़ियां पहनती हैं.
रेबारी समुदाय के ज़्यादातर गोत्र मूल गुर्जरों से मिलते हैं, जिनमें खटाणा, पोसवाल, हूण, तंवर, सराधना, भाटी, घांगल, गांगल, विराना, भुमलिया, सोलंकी, गोहिल, चेची, कटारिया, बैंसला, तोमर, चौहान, गुजर, सामड, और बार जैसे गोत्र शामिल हैं
भारत में रबारी समाज की जनसंख्या करीब एक करोड़ से भी ज़्यादा है. गुजरात में रबारी समुदाय की आबादी करीब 45 लाख है. राजस्थान में रबारी समाज की आबादी 25 से 30 लाख है. रबारी समाज के लोगों को देवासी, देसाई, रैबारी, और राइका के नाम से भी जाना जाता है. ये लोग राजस्थान, गुजरात के कच्छ क्षेत्र, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में रहते हैं. रबारी समुदाय के लोग क्षत्रिय समुदाय से हैं और पशुपालन करते हैं. पशुओं को चराने के लिए ये अपने परिवारों के साथ घुमंतू जीवन जीते हैं और अपने निवास स्थान से प्रदेश व दूसरे प्रदेशों में जाते रहते हैं. गुजरात में रबारी समुदाय के लोग शूरवीर लड़ाकू माने जाते हैं और पुलिस विभाग में भी इनकी अच्छी संख्या है

Gotra wise Kuldevi List of Rabari Tribe : रेबारी समाज की कुलदेवियां इस प्रकार हैं –

Kuldevi List of Rabari Tribe  रैबारी समाज के गोत्र एवं कुलदेवियां 

सं.कुलदेवीउपासक सामाजिक गोत्र (Gotra of Rabari Tribe)
1.
आईनाथ, स्वांगिया माता (Aai Mata, Swangiya Mata)आल (Aal)
2.
बायण माता (Bayan Mata)विपावत, भीम, गांगल, पेवाला, सांगावत
(Vipawat, Bhim, Gangal, Pewala, Sangawat)
3.
चामुण्डा माता (Chamunda Mata)उलवा, आंडु (Ulwa, Andu)
4.
बीसभुजा माता, बीसा माता (सांठिका गांव)
(Bisbhuja Mata / Bisa Mata)
बार (Bar)
5.
आशापुरा माता (नाडोल), (Ashapura Mata)
ममाय देवी (बागोरिया)  (Mamai Mata)
सेलाणा (Selana)
6.
ममाय माता (बागोरिया) (Mamai Mata)साम्भड़, किरमटा, बाछावत, कालर, आजना
(Sambhar, Kirmata, Bachhawat, Kalar, Ajna)
7.
सच्चियाय माता (Sachiya Mata)देऊ, बिड़ा (Deu, Bida)
8.
गाजन देवी (Gajan Devi)पड़िहार (Parihar / Padihara)
9.
ब्राह्मणी माता (सालोड़ी) (Brahmani Mata)लुकाभीम, गधवा भीम (Lukabhim, Gadhwa, Bhim)
बागोरिया स्थित ममाय माता ब्राह्मणी है। सालोड़ी स्थित बायण माता ब्राह्मणी है।
यह विवरण विभिन्न समाजों की प्रतिनिधि संस्थाओं तथा लेखकों द्वारा संकलित एवं प्रकाशित सामग्री पर आधारित है। इसके बारे में प्रबुद्धजनों की सम्मति एवं सुझाव सादर आमन्त्रित हैं।

कायस्थ समाज की कुलदेवियाँ:kayasth caste kuldevi


 

कायस्थ जाति का वर्णन चातुर्वर्ण व्यवस्था में नहीं आता है। इस कारण विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इनको विभिन्न वर्णों में बताया है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बंगाल के कायस्थों को शूद्र बतलाया तो पटना व इलाहाबाद के उच्च न्यायालयों ने इन्हें द्विजों में माना है। कायस्थ शब्द का उल्लेख विष्णु धर्म सूत्र में मिलता है। इसमें कहा गया है कि कायस्थ राजसभा में लेखन कार्य हेतु नियुक्त किये जाते थे। प्रारम्भ में कायस्थ व्यवसाय-प्रधान वर्ग था लेकिन बाद में कायस्थों का संगठन एक जाति के रूप में विकसित हो गया। कायस्थ वर्ग परम्परागत लिपिकों अथवा लेखकों का वर्ग था।
 जाति इतिहासकार डॉ . दयाराम आलोक के मतानुसार कायस्थ जाति अपनी वंशोत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त से मानते हैं। चित्रगुप्त ने दो विवाह किए। प्रथम विवाह धर्मशर्मा ऋषि की पुत्री ऐरावती के साथ किया जिनसे चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण, जितेन्द्री नाम के आठ पुत्र हुए। दूसरा विवाह मनु की पुत्री दक्षिणा के साथ हुआ। दक्षिणा से भानू, विमान, बुद्धिमान, वीर्यमान नाम के चार पुत्र हुए। इन बारह पुत्रों के वंश में क्रम से 12 शाखायें कायस्थों की अलग-अलग क्षेत्रों में रहने से हो गई, जो इस प्रकार है- 
1. माथुर
 2. श्रीवास्तव 
3. सूर्यध्वज 
4. निगम 
5. भटनागर 
6. सक्सेना 
7. गौड़ 
8. अम्बष्ठ 
9. वाल्मिकी 
10. अष्टाना 
11. कुलश्रेष्ठ 
12. कर्ण ।
शाखाएं
नंदिनी-पुत्र

भानु
भानुप्रथम पुत्र भानु कहलाये जिनका राशि नाम धर्मध्वज था| चित्रगुप्त जी ने श्रीभानु को श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ था एवं देवदत्त और घनश्याम नामक दो पुत्रों हुए। देवदत्त को कश्मीर एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव २ वर्गों में विभाजित हैं – खर एवं दूसर। इनके वंशज आगे चलकर कुछ विभागों में विभाजित हुए जिन्हें अल कहा जाता है। श्रीवास्तवों की अल इस प्रकार हैं – वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया,रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन, इत्यादि।
विभानूद्वितीय पुत्र विभानु हुए जिनका राशि नाम श्यामसुंदर था। इनका विवाह मालती से हुआ। चित्रगुप्त जी ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इन्होंने अपने नाना सूर्यदेव के नाम से अपने वंशजों के लिये सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाने का अधिकार एवं सूर्यध्वज नाम दिया। अंततः वह मगध में आकर बसे।
विश्वभानूतृतीय पुत्र विश्वभानु हुए जिनका राशि नाम दीनदयाल था और ये देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ एवं इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा भाग नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया जहां तपस्या करते हुए उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढंक गया था, अतः इनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। इनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। वर्तमान में इनके वंशज गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं , उनको “वल्लभी कायस्थ” भी कहा जाता है।
वीर्यभानूचौथे पुत्र वीर्यभानु का राशि नाम माधवराव था और इनका विवाह देवी सिंघध्वनि से हुआ था। ये देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। चित्रगुप्त जी ने वीर्यभानु को आदिस्थान (आधिस्थान या आधिष्ठान) क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इनके वंशजों ने आधिष्ठान नाम से अष्ठाना नाम लिया एवं रामनगर (वाराणसी) के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। वर्तमान में अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान , चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या है। ये ५ अल में विभाजित हैं।
ऐरावती-पुत्र
चारुऐरावती के प्रथम पुत्र का नाम चारु था एवं ये गुरु मथुरे के शिष्य थे तथा इनका राशि नाम धुरंधर था। इनका विवाह नागपुत्री पंकजाक्षी से हुआ एवं ये दुर्गा के भक्त थे। चित्रगुप्त जी ने चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था अतः इनके वंशज माथुर नाम से जाने गये। तत्कालीन मथुरा राक्षसों के अधीन था और वे वेदों को नहीं मानते थे। चारु ने उनको हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात् इन्होंने आर्यावर्त के अन्य भागों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण किये। वर्तमान माथुर ३ वर्गों में विभाजित हैं -देहलवी,खचौली एवं गुजरात के कच्छी एवं इनकी ८४ अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया,दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया,रानोरिया इत्यादि। एक मान्यता अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की वर्तमान में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे।
सुचारुद्वितीय पुत्र सुचारु गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। ये देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने सुचारू को गौड़ देश में राज्य स्थापित करने भेजा था एवं इनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ।इनके वंशज गौड़ कहलाये एवं ये ५ वर्गों में विभाजित हैं: – खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी, वदनयुनि। गौड़ कायस्थों को ३२ अल में बांटा गया है। गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त राजा हुए थे। चित्रतृतीय पुत्र चित्र हुए जिन्हें चित्राख्य भी कहा जाता है, गुरू भट के शिष्य थे, अतः भटनागर कहलाये। इनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था तथा ये देवी जयंती की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इन क्ष्त्रों के नाम भी इन्हिं के नाम पर पड़े हैं। इन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए।इनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए एवं ८४ अल में विभाजित हैं, इनकी कुछ अल इस प्रकार हैं- डसानिया, टकसालिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया,बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है।
मतिभानचतुर्थ पुत्र मतिमान हुए जिन्हें हस्तीवर्ण भी कहा जाता है। इनका विवाह देवी कोकलेश में हुआ एवं ये देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। ये शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सक्सेना कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। वर्तमान में ये कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह,इटावा, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं| सक्सेना लोग खरे और दूसर में विभाजित हैं और इस समुदाय में १०६ अल हैं, जिनमें से कुछ अल इस प्रकार हैं- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि|
हिमवान
पांचवें पुत्र हिमवान हुए जिनका राशि नाम सरंधर था उनका विवाह भुजंगाक्षी से हुआ। ये अम्बा माता की अराधना करते थे तथा चित्रगुप्त जी के अनुसार गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। हिमवान के पांच पुत्र हुए: नागसेन, गयासेन, गयादत्त, रतनमूल और देवधर। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। इनमें नागसेन के २४ अल, गयासेन के ३५ अल, गयादत्त के ८५ अल, रतनमूल के २५ अल तथा देवधर के २१ अल हैं। कालाम्तर में ये पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। मान्यता अनुसार अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए “खास घर” प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी प्रयोग किये जाते हैं। ये “खास घर” वे हैं जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे। इनमें से कुछ घरों के नाम हैं- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर,कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार,नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार,देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार,करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार, आदि।
चित्रचारुछठवें पुत्र का नाम चित्रचारु था जिनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। ये देवी दुर्गा की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र (सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। वर्तमान में ये कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं,महोबा में रहते हैं एवं ४३ अल में विभाजित हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी,चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि।
चित्रचरणसातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र (वर्तमाआन कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण ३६० अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
चारुणअंतिम या आठवें पुत्र चारुण थे जो अतिन्द्रिय भी कहलाते थे। इनका राशि नाम सदानंद है और उन्होंने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने अतिन्द्रिय को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से सर्वाधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाले थे। इन्हें ‘धर्मात्मा’ और ‘पंडित’ नाम से भी जाना गया और स्वभाव से धुनी थे। इनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए तथा आधुनिक काल में ये मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, एटा, इटावा और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव – बंगाल में पाए जाते हैं |
राजस्थान में माथुर कायस्थ अधिक आबाद है। इन्हें पंचोली भी कहा जाता है। ‘कायस्थ जगत’ नामक पत्रिका में माथुर (कायस्थ) वर्ग की 84 शाखाओं का नामोल्लेख कुलदेवियों के साथ मिलता है, जो इस प्रकार है-



         Kuldevi List of Kayastha Samaj कायस्थ जाति के गोत्र एवं कुलदेवियां 


सं.कुलदेवीशाखाएं
1.
जीवण माताबनावरिया (झांमरिया), टाक, नाग, ताहानपुरा, गऊहेरा
2.
बटवासन मातासाढ़ मेहंता (भीवांणी), अतरोलिया, तनोलिया, टीकाधर
3.
मंगलविनायकीसहांरिया (मानक भण्डारी)
4.
पीपलासन मातानैपालिया (मुन्शी), घुरू, धूहू
5.
यमुना माताराजोरिया, कुस्या
6.
ककरासण माताएंदला (नारनोलिया)
7.
भांणभासकरछार छोलिया
8.
अंजनी माताशिकरवाल, सेवाल्या, विदेवा (बैद)
9.
कुलक्षामिणी मातानौहरिया (लवारिया)
10.
बीजाक्षण मातासांवलेरिया, कुलहल्या, जलेश्वरिया
11.
राजराजेश्वरी माताजोचबा
12.
श्रीगुगरासण मातासिरभी
13.
हुलहुल माताकामिया (गाडरिया), कटारमला, कौटेचा, गडनिया, सौभारिया, महाबनी, नाग पूजा हुसैनिया
14.
चामुण्डा माताचोबिसा (कोल्ली), जाजोरिया, मोहांणी, मगोडरिया,पासोदिया (पासीहया)
15.
आशापुरा माताककरानिया, गलगोटिया, दिल्लीवाल, करना, धनोरिया, गुवालैरिया, कीलटौल्या
16.
श्रीसाउलमातासीसोल्या (मनाजीतवाल), ध्रुबास
17.
श्रीपाण्डवराय मातानौसरिया (मेड़तवाल), बकनोलिया, भांडासरिया
18.
श्रीदेहुलमातातबकलिया
19.
श्री जगन्नामाताकुरसोल्या
20.
नारायणी मातावरणी (खोजा)
21.
कमलेश्वरी माताहेलकिया
22.
पुरसोत्मामातासिरोड़िया
23.
कमलासन मातासादकिया, छोलगुर
24.
महिषमर्दिनीमहिषासुरिया
25.
द्रावड़ी हीरायनकटारिया
26.
लक्ष्मीमाताकलोल्या, आंबला
27.
योगाशिणी माताचन्देरीवाल
28.
चण्डिका मातापत्थर चट्टा, छांगरिया
29.
जयन्ती मातामासी मुरदा
30.
सोनवाय माताअभीगत, टंकसाली
31.
कणवाय मातामाछर
32.
पाड़मुखी माताकबांणिया
33.
हर्षशीलि मातातैनगरा
34.
इंद्राशिणी माताधोलमुखा (गोड़ा)
35.
विश्वेश्वरी मातामथाया
36.
अम्बा माताधीपला
37.
ज्वालामुखी माताहोदकसिया
38.
शारदा माताबकनिया
39.
अर्बुदा माताकवड़ीपुरिया (बकहुपुरा)
40.
कुण्डासण मातासींमारा
41.
पाडाय मातामाखरपुरिया, पुनहारा
42.
हींगुलाद मातासरपारा
43.
प्राणेश्वरी मातालोहिया
44.
बेछराय मातासिणहारिया
45.
सांवली मातावरण्या (बरनोल्या)
46.
लक्ष्मीया हलड़आसौरिया (आसुरिय)
47.
पहाड़ाय माताफूलफगरसूहा (नोहगणा)

इसके अलावा भटनागर, सक्सेना और श्रीवास्तव की कुलदेवियों का भी उल्लेख मिलता है।
कायस्थ शाखागोत्रकुलदेवी
भटनागर
सठजयन्ती माता
सक्सेना
हंसशाकम्भरी माता
श्रीवास्तव
हर्षलक्ष्मी माता


जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के  मतानुसार नवरात्रि का उपवास आसोज एवं चैत्र के महीने में कायस्थ कुल के स्त्री एवं पुरुष सम्मिलित रूप से करते हैं। वे अपनी-अपनी कुलदेवियों की पूजा अर्चना दोनों प्रकार के भोज अर्पित कर करते हैं। वैसे हर माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को देवी की पूजा होती है। जो जीवण माता के रूप में मानी जाती है। कायस्थों के विभिन्न शाखाओं के वंशधारी वैवाहिक अवसरों पर भी कुलदेवी का मनन करते हैं। विवाह होने के उपरान्त नवदम्पत्ति को सबसे पहले कुलदेवी की जात देने ले जाया जाता है। जिससे उनका नव जीवन सफल और कठिनाइयों से मुक्त रहे।
कायस्थों की जोधपुर स्थित विभिन्न शाखाओं की कुलदेवियों में जीवणमाता मंदिर (मंडोर), बाला त्रिपुरा सुंदरी (नयाबास), राजराजेश्वरी माता (छीपाबाड़ी), मातेश्वरी श्री पाण्डवराय (फुलेराव), नायकी माता (अखेराज जी का तालाब) आदि के मन्दिर समाज में बड़े ही प्रसिद्ध हैं।