11.5.21

बांछड़ा जाती की जानकारी:Banchada caste history


  मित्रों ,भारत में जाती व्यवस्था  वैदिक काल से ही प्रचलन में है | जाती इतिहास प्रस्तुत करने की श्रंखला  में बांछड़ा जाति की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं .

उत्पत्ति  के सिद्धांत -

खानाबदोश मूल:

 एक सिद्धांत यह बताता है कि बांछड़ा समुदाय मूल रूप से राजस्थान के खानाबदोश थे।

ब्रिटिश काल से संबंध: 

एक अनुमान के अनुसार, ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा बांछड़ा समुदाय को नीमच में तैनात सैनिकों के मनोरंजन के लिए लाया गया था। धीरे-धीरे, वे मंदसौर और रतलाम जैसे अन्य जिलों में फैल गए। 
  बांछड़ा समाज पिछले कई दशकों से नीमच-मंदसौर (मध्य प्रदेश) में परंपरा के नाम पर यौनकर्म (सेक्सवर्क) पर जीवन यापन कर रहा है। इस समाज की लड़कियां यौनकर्मी बन जाती हैं। यहां लड़कियां बाहर से नहीं आती, ना बांछड़ा परिवार कोठा चलाता है।

  यहां तो बेटियां परिवार में जन्म लेती हैं और परिवार में बड़ी होती हैं। जन्म लेने और बड़े होने के क्रम में परिवार की बेटियां कब यौनकर्मी बन जाती हैं, यह बेटियों को भी नहीं पता लेकिन यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।

  नीमच और मंदसौर में बांछड़ा समुदाय के दर्जनों मोहल्ले हैं और दर्जनों मोहल्लों में दर्जन-दर्जन भर घर। घरों से पुरूष नदारद, आप उन घरों में दिन में जाएं, चाहें रात में। परिवार में महिलाएं ही मिलेंगी। बांछड़ा परिवारों को लगता है कि घर में किसी अन्य पुरुष को पाकर आने वाले अतिथि सहज नहीं रहते। जब उन्हें पता चलता है कि वह जिसके साथ बैठने जा रहा है, उसका पति बाहर खाट पर बीड़ी पी रहा है तो कौन सा अतिथि बांछड़ा के दरवाजे पर रुकेगा? वो मानते हैं 'अतिथि हमारे लिए देवता हैं। उनसे ही हमारा घर चलता है। हमारा पेट भरता है।

   नीमच को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि बांछड़ा अंग्रेजों के समय में राजस्थान से नीमच लाए गए थे। उन दिनों जो अंग्रेज अपनी पत्नियों के साथ भारत नहीं आए थे, वे भारतीय महिलाओं का शारीरिक शोषण करते थे। इस स्थिति को देखकर स्थानीय राजा आहत हुए। उसके बाद ही राज्य में बांछड़ा परिवारों को लाने का निर्णय लिया गया।


  वैसे तो भारतीय समाज में आज भी बेटी को बोझ समझा जाता हो, लेकिन बांछड़ा समुदाय में बेटी पैदा होने पर जश्न मनाया जाता है। बेटी के जन्म की खूब धूम होती है क्योंकि ये बेटी बड़ी होकर कमाई का ज़रिया बनती है.. चलो कहीं तो बेटियां आगे हैं (शर्मनाक)। इस समुदाय में यदि कोई लड़का शादी करना चाहे तो उसे दहेज़ में 15 लाख रुपए देना अनिवार्य है। इस वजह से बांछड़ा समुदाय के अधिकांश लड़के कुंवारे ही रह जाते हैं।
बाछड़ा समुदाय में बाप अपनी बेटियों की शादी करवाने की जगह उनसे गलत काम करवाता है. जब बेटी की उम्र ढल जाती है और ग्राहक आना बंद हो जाते हैं तो यही पिता इन बेटियों को अपनी संपत्ति से बेदखल कर देता है. इसके बाद बेचारी महिलाएं दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाती हैं.

  क्या किसी परंपरा को चुपचाप इसलिए स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि वह वर्षों या सदियों से चली आ रही है। अगर परंपरा के तहत किसी 13-14 साल की मासूम बच्ची को कमाने की मशीन बनाकर देह बाजार में खड़ा कर दिया जाए तो ये परंपरा नहीं पैशाचिक संस्कृति है, जिसे नष्ट-भ्रष्ट हो ही जाना चाहिए। बांछड़ा समाज में आज भी कई गांवों में लड़कियों को महज इसलिए मिडिल स्कूल से आगे की शिक्षा से वंचित कर दिया जाता है क्योंकि उनकी कमाने की उम्र गई है औऱ यह कृत्य उनके अपने ही करते हैं।

  लेकिन यह समाज अपनी इच्छा से ऐसा नहीं बना। इसे ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ऐसा बनने पर मजबूर किया गया। क्या अब स्वतंत्र भारत में इतने बड़े समुदाय को यौनकर्म के दलदल से बाहर नहीं निकाला जा सकता? अगर किसी कुप्रथा का जन्म हो सकता है तो उसका अंत भी किया जा सकता है। उसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। उम्मीद करनी चाहिए कि शीघ्र ही बांछड़ा समाज में मजबूरी वश आई यह बुराई भी सदा के लिए समाप्त हो जाएगी


8.5.21

कंजर जन जाति की जानकारी:Kanjar caste history



 प्राचीन काल की एक संकर जाति । विशेष—इसकी उत्पत्ति शौचकी स्त्री और शौंडिक पुरुष से मानी गई है और इसका काम गाना बजाना बतलाया गया है । ३. मनु के अनुसार क्षत्रियों की एक जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रात्य क्षत्रियों से मानी जाती है । संपूर्ण उत्तर भारत की ग्राम्य और नगरीय जनसंख्या में छितराए कंजर जनजाति ऐसे कबीला हैं, जिनके कुछ समुदाय अपराध करना अपना मूल पेशा मानते हैं। माना जाता है कि कंजर अपराध करने से पहले ईश्वर का आशीर्वाद लेते हैं, जिसे पाती मांगना कहा जाता है। संगठित अपराधियों के सबसे क्रूर कबीलों में से एक कंजर प्रदेश के जिलों को पहले इलाकों में बांटते हैं। परिवार व रिश्तेदारों को मिलाकर तैयार की गई गैंग दीपावली की रात तांत्रिक अनुष्ठान करने के बाद घर से निकलती है। ठंड के मौसम में लूटपाट करने के बाद बसंत पंचमी से पहले घरों को लौट जाते हैं। 
 इतिहास विद् डा. रत्नाकर शुक्ल बताते हैं कि कंजरों तथा सांसिया,हाबूरा, बेरिया, भाट, नट, बंजारा, जोगी और बहेलिया आदि अन्य घुमक्कड़ कबीलों से कंजरों के बीच पर्याप्त सांस्कृतिक समानता मिलती है। एक ¨कवदंती के अनुसार कंजर दिव्य पूर्वज'मान'गुरु की संतान हैं। मान अपनी पत्नी नथिया कंजरिन के साथ जंगल में रहता था।  समाजशास्त्री डा. विद्याधर के मुताबिक इन कबीलों के पुरूष व घर की महिलाएं मिलकर अवैध शराब बनाती हैं। जिसे घर के पुरुष कबीले और कबीले के बाहर बेचते हैं। रोजाना रात को इस जाति की औरत और पुरुष दोनों ही साथ में शराब भी पीते हैं। पुलिस से बचने के लिए यह अपने घरों में सुरक्षा के काफी प्रबंध रखते हैं। भागने के लिए पीछे की तरफ खिड़की जरूर होती है परंतु चौखट पर दरवाजे नहीं होते हैं।
  
जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम आलोक के मतानुसार कंजर जाति के लोग हनुमान और चौथ माता की पूजा करते हैं। कंजरों की कबीला पंचायत शक्तिशाली और सर्वमान्य सभा है। सभ्य समाज की दृष्टि से पेशेवर अपराधी माने जाने वाले कंजरों में भी कबीलाई नियमों के उल्लंघन पर कड़ी सजा मिलती है।
  कंजर एक घुमक्कड़ कबीला है जो सम्पूर्ण उत्तर भारत की ग्राम्य और नागरकि जनसंख्या में छितराया हुआ है। ये संभवत: द्रविड़ मूल के हैं। ' कंजर ' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत 'कानन-चर' से हुई भी बताई जाती है। वैसे भाषा, नाम, संस्कृति आदि में उत्तर भारतीय प्रवृत्तियाँ कंजरों में इतनी बलवती हैं कि उनका मूल द्रविड़ मानना वैज्ञानिक नहीं जान पड़ता। कंजरों तथा साँसिया, हाबूरा, बेरिया, भाट, नट, बंजारा, जोगी और बहेलिया आदि अन्य घुमक्कड़ कबीलों में पर्याप्त सांस्कृतिक समानता मिलती है। एक किंवदंती के अनुसार कंजर दिव्य पूर्वज 'मान' गुरु की संतान हैं। मान अपनी पत्नी नथिया कंजरिन के साथ जंगल में रहता था। मान गुरु के पुरावृत्त को ऐतिहासिकता का पुट भी दिया गया है, जैसा उस आख्यान से विदित है जिसमें मान दिल्ली सुल्तान के दरबार में शाही पहलवान को कुश्ती मेंरों का कबीली संगठन विषम है। वे बहुत से अंतिर्विवाही (एंडोगैमस) विभागों और बहिर्विवाही (एक्सोगैमस) उपविभागों के नाम 1891 की जनगणना में दर्ज किए गए 106 कंजर उपविभागों के नाम हिंदू और छह के नाम मुसलमानी थे। कंजरों का विभाजन पेशेवर विभागों में हुआ है, जैसा उनके जल्लाद, कूँचबंद, पथरकट, दाछबंद आदि विभागीय नामों से स्पष्ट होता है। कंजरों में वयस्क विवाह प्रचलन है। यद्यपि स्त्रियों को विवाहपूर्व यौन स्वच्छंदता पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है, तथापि विवाह के पश्चात्‌ उनसे पूर्ण पति व्रता  की अपेक्षा की जाती है। स्त्रीं एवं पुरुष दोनों के विवाहेतर यौन संबंध हेय समझे जाते हैं और दंडस्वरूप वंचित पति को अधिकार होता है कि वह अपराधी पुरुष की न केवल संपत्ति वरन संतान भी हस्तगत कर ले। विवाह वधू मूल्य देकर होता है। रकम का भुगतान दो किस्तों में होता है, एक विवाह के समय और दूसरी संतोनात्पत्ति के पश्चात्‌। परंपरागत विवाहों के अतिरिक्त पलायन विवाह (मैरिज बाई एलोपमेंट) का भी चलन है। अज्ञातवास से लौटने पर युग्म पूरे गाँव को भोज पर आमंत्रिक कर वैध पति-पत्नी का पद प्राप्त कर सकता है। विधवा विवाह संभव है और विधवा अधिकतर अपने अविवाहित देवर से ब्याही जाती है।
  पेशेवर नामधारी होने पर भी कंजरों ने किसी व्यवसाय विशेष को नहीं अपनाया। कुछ समय पूर्व तक ये यजमानी करते थे और गाँव वालों का मनोरंजन करने के बदले धन और मवेशियों के रूप में वार्षिक दान पाते थे। प्रत्येक कंजर परिवार की यजमानी में कुछ गाँव आते थे जहाँ वे उत्सव और विशेष अवसरों पर नाच गाकर गाँववालों का मनोरंजन करते थे। इनमें से कुछ परिवार गाँव की, मीना और अन्य जातियों के परंपरागत भाट और वंशावली संग्रहकर्ता का काम करते थे। कुछ कंजर स्त्रियाँ भीख माँगने के साथ-साथ वेश्यावृत्ति भी करती थीं। किंतु वर्तमान कंजर अपने परंपरागत धंधों को छोड़ आर्थिक दृष्टि से अधिक लाभदायक पेशों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं।
वेशभूषा में कंजर अन्य ग्रामीण समुदायों के सदृश होते हैं। समय के साथ साथ दूसरो की तरह इनकी वेशभूषा भी बदल रही हैं|इनकी स्त्रियाँ मुसलमान स्त्रियों की भाँति लहँगे की बजाया लंबा कुरता और पाजामा पहनती हैं। खान-पान में ये कबीले जौ, बाजरे, कन्द, मूल, फल से लेकर छिपकली,बिल्ली गिरगिट और मेढ़क का मांस तक खाते हैं। छिपकली, साँडा, साँप और गिद्ध की खाल से विशेष प्रकार का तेल निकालकर ये उसे दु:साध्य रोगों की दवा कहकर बेचते हैं। भीख माँगनेवाली कंजर स्त्रियाँ प्राय: संभ्रांत कृषक महिलाओं को अपनी बातों फँसाकर बाँझपन तथा अन्य स्त्री रोगों की दवा बेचती हैं और हाथ देखकर भाग्य बताती हैं।
 कंजरों की कबीली पंचायत शक्तिशाली और सर्वमान्य सभा है। सभ्य समाज की दृष्टि से पेशेवर अपराधी माने जानेवाले कंजरों में भी कबीली नियमों के उल्लंघन की कड़ी सजा मिलती है। अपराध स्वीकृति के निराले और यातना पूर्ण ढंग अपनाए जाते हैं। कंजर कबीली देवी-देवताओं के साथ हिन्दू देवी देवताओं की भी मनौती करते हैं। विपत्ति पड़ने पर कबीली देवता 'अलमुंदी' और 'आसपाल' के क्रोध-शमन-हेतु बकरे, सुअर और मुर्गे की बलि दी जाती है। संपूर्ण भारत में एक गांव ऐसा है जहां पर इस घुमंतू जाति को स्थायी तौर पर बसाया गया है, यह ऐतिहासिक कार्य ग्राम पंचायत उमरिया, तहसील राठ जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश में लोधी समाज के बड़े जमींदार रघुवर दयाल लोधी व उनके पुत्र बृजेन्द्र सिंह उमरिया द्वारा आज से अस्सी वर्ष पूर्व किया गया था।आज भी वहां सैकड़ों कुंचबदिया परिवार स्थायी तौर पर निवास कर रहे हैं।
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बेड़िया जनजाति की जानकारी:Bediya jati ka itihas




बेडिया जनजाति मध्यप्रदेश की एक ऐसी जरायमपेशा जाति है, जो लड़कियों से सदियों से वेश्यावृत्ति कराते हैं। बेडिया की तरह ही बचड़ा, कंजर, सासी और नट तमाम ऐसी जनजातियां हैं जो इस पेशे को अपनाये हुए हैं और राजगढ़, शाहजहांपुर, गुना, सागर, शिवपुर, मुरैना, शिवपुरी सागर और विदिशा में इनका अच्छा खासा नेटवर्क फैला हुआ है, यहां से लड़कियां देश के अलग-अलग हिस्सों में खासतौर पर उत्तर प्रदेश के मेर", आगरा और राजस्थान वेश्यावृत्ति के बाजारों में भेजी जाती हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश के लगभग 16 जिलों में लगभग 18,000 बेडिया जनजाति के लोग फैले हुए हैं। मूलरूप से यह नृत्य और संगीत, काला जादू के काम से जुड़ी ऐसी जनजाति है, जो घर की बड़ी बेटी से वेश्यावृत्ति कराकर अपना गुजारा चलाते हैं। लेकिन उनका यह धंधा अब इस कदर फल फूल रहा है कि आजकल बेडिया लड़कियां दिल्ली और मुंबई और दूसरे बड़े शहरों के रेट लाइट एरिया में इस धंधे को करती हैं।

बेडिया समाज सुधार संघ के अध्यक्ष डॉ. अशोक सिंह बेडिया के शब्दों में `बेडिया जनजाति की लड़कियां आज पढ़ लिखकर बड़ी-बड़ी नौकरियां कर रही हैं, लेकिन उनकी स्थिति संतोषप्रद नहीं है; क्योंकि अगर बेडिया पुरुष इस काम को छोड़कर कुछ दूसरे काम करना चाहें तो सरकारी सहयोग न के बराबर है। सरकार केवल उनकी मदद करने का ढकोसला भर करती है। हां, इतना जरूर है कि प्राइवेट स्कूलों में लड़कियां पढ़ लिख रही हैं और सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों की संख्या इनकी संख्या के हिसाब से बहुत कम है। स्थिति में काफी फर्क आया है। स्वयं सेवी संस्थाएं भी अपने स्तर पर काम कर रही हैं लेकिन वे सिर्फ रिसर्च वर्क करके इस जनजाति से संबंधित सर्वे ही करते हैं।' बेडिया जनजाति के उत्थान में मुरैना के राम स्नेही का अदभुत योगदान है, `उन्होंने अपनी जनजाति की लड़कियों के लिए बहुत कुछ किया है। उन्हें इस धंधे से बाहर निकाला है और उन्हें पढ़ लिखकर दूसरे काम करने के लिए कई प्रयास किये हैं।'

बेडिया जनजाति के बारे में यह कहा जाता है कि साल 1631 में मुमताज महल की मौत के अगले साल से ताजमहल बनना शुरु हो गया। इसके लिए ताजमहल के मुख्य आर्किटेक्ट उस्ताद अहमद लाहौरी समेत हजारों मजदूरों को दूर-दूर से बुलाया गया। बेडिया जाति के लोग दावा करते हैं कि ताजमहल को बनाने में जुटे राज मिस्त्रियों का दिल बहलाने के लिए बादशाह ने बेडिया जाति की वेश्याओं के छह गांव बसाये थे और करीब 21 साल तक ताजमहल बनता रहा और बेडिया जाति के ये गांव जिस्म फरोशी करके राज मिस्त्रियों का दिल बहलाते रहे। 21 साल के इस अरसे में एक पीढ़ी गुजर गई थी। आगरा के इतिहासविद वीरेश्वर नाथ त्रिपा"ाr के मुताबिक `बेडिया जाति के लोग इन 21 सालों में पूरी तरह जिस्म फरोश बनकर रह गये हैं। इसके पहले नाच गाना गाकर अपना पेट भरते थे, लेकिन आगरा में बेडिया जाति के लोगों को सिर्फ और सिर्फ जिस्म फरोशी के लिए जाना जाता रहा है।'

भारतीय पतिता उद्धार सभा के अध्यक्ष खैराती लाल भोला की अध्यक्षता में हुए एक सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि बेडिया लड़कियां बाहरी लोगों का मनोरंजन करती हैं, वह अपनी जाति के पुरुषों के साथ धंधा नहीं करती। उनके अनुसार `बेडिया जनजाति में लड़की का जन्म शुभ माना जाता है और जैसे ही यहां लड़की के जन्म की सूचना मिलती है, चारो ओर इसका जश्न मनाया जाता है, पुरुषों को एक जिम्मेदारी माना जाता है। आगरा पुलिस द्वारा भी इस बात का खुलासा किया गया है कि पूरे देश में जहां कन्याओं को कोख में मार दिया जाता है, उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी समझकर उनकी भ्रूण हत्या कर दी जाती है, वहीं बेडिया जाति की महिलाएं पुरुषों के भ्रूण गिरवा देती है; क्योंकि यहां पुरुष कोई काम नहीं करते, सिर्फ बेटियों और बहनों की दलाली भर करते हैं। डॉ. अशोक सिंह बेडिया का कथन है कि `बेडिया जनजाति के उत्थान में चंपा बेन ने बहुत काम किया है। पुरुष अगर यहां अपनी बेटियों से वेश्यावृत्ति छुडवाना चाहें तो भी वह उनकी कमायी खाने का मोह नहीं त्याग पाते। क्योंकि उनके लिए सरकार के पास रोजगार की कोई "ाsस योजना नहीं है। यदि वह इस पेशे को छोड़ना चाहें तो भी यहां के पुरुष एक दूसरे को ही बरगलाते रहते हैं और वह खुद नहीं चाहते कि वे इस नरक से बाहर आयें। अगर सरकार इन्हें रोजगार दे और इनकी पहचान बेटियों से धंधा कराने वाले या बेटियों की कमायी खाने वालों की न हो चूंकि यह जो "प्पा इन पर लगा हुआ है, यही इन्हें वापस इस धंधे की ओर ले जाता है। अगर वह इससे बाहर आ जाएं तो काफी सुधार हो सकता है। बेडिया समाज के ऊपर लगा सदियों से यह धब्बा अगर मिट जाए तो उन्हें भी मुख्य धारा में लाया जा सकता है। बेडिया जनजाति की इस दूर्दशा को देखा जाए तो सवाल पैदा होता है, क्या सचमुच मोदी का नारा कि भारत बदल रहा है, सच और सार्थक हो सकता है? परंपरागत पेशे की आड में सदियों से बेडिया नट, और अन्य पिछड़ी जनजाति द्वारा किये जाने वाले देहव्यापार के धंधे ने एक नया रूप अख्तियार कर लिया है। विभिन्न सूत्र बताते हैं कि जो बेडिया पहले अपनी बेटियों से वेश्यावृत्ति कराते थे, वह राज्य के दूसरे हिस्सों से छोटी-छोटी बच्चियों को पकड़कर लाते हैं या इन्हें देहव्यापार की मंडियों से खरीदकर इन्हें देहव्यापार के लिए तैयार करते हैं। अब बेडिया अपनी बेटियों को पढ़ाकर उन्हें शिक्षा दिलाकर उनकी शादियां करके उनके घर बसाने की ख्वाहिश रखते हैं, लेकिन यही बेडिया पुरुष अपनी आरामतलबी, काहिली और मक्कारी के चलते दूसरों की बेटियों को इधर-उधर से अगुवा करके उनसे देहव्यापार कराते हैं, सच है अनादि काल से देहव्यापार का यह धंधा चला आ रहा है, पीढ़ियां बदल गई, देश बदलें, सरकारें बदली लेकिन यह धंधा नहीं बदला।

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सांसी जाती का इतिहास:sansi jati ka itihas




सांसी एक ख़ानाबदोश आपराधिक जनजाति है, जो मूलत: भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र राजपूताना में केंद्रित रही, लेकिन 13वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा खदेड़ दी गई। अब यह जनजाति मुख्यत: राजस्थान में संकेंद्रित है और शेष भारत में बिखरी हुई भी है।
यह जनजाति अधिकांशत: राजस्थान के भरतपुर ज़िले में निवास करती है।
सांसी लोग राजपूतों से अपनी वंशोत्पत्ति का दावा करते हैं, लेकिन लोककथा के अनुसार इनके पूर्वज बेड़िया थे, जो एक अन्य आपराधिक जाति है।
एक अन्य मत के अनुसार सांसी जनजाति की उत्पति 'सांसमल' नामक व्यक्ति से मानी जाती है।
जीवन यापन के लिए पशुओं की चोरी तथा अन्य छोटे-छोटे अपराधों पर निर्भर रहने वाले सांसियों का उल्लेख अपराधी जनजाति क़ानूनों 1871, 1911 और 1924 में किया गया है, जिनमें उनके ख़ानाबदोश जीवन को ग़ैर क़ानूनी कहा गया।
'भारत सरकार' द्वारा प्रारंभ किए गए सुधारों के कार्यान्वयन में भी कठिनाई आती रही, क्योंकि इन्हें अछूत जाति में गिना जाता है और इन्हें दी गई कोई भी भूमि या पशु इनके द्वारा बेच दी जाती है या ये उसका विनिमय कर लेते हैं।
वर्ष 1961 में इनकी संख्या लगभग 59,073 थी।
सांसी जनजाति के लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं और स्वयं को दो वर्गों में विभाजित करते हैं-
'खरे' यानी शुद्ध
अपहरणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न 'मल्ला' यानी अर्द्ध जातीय
इस जनजाति में कुछ लोग कृषक और श्रमिक हैं, यद्यपि अधिकांश लोग अभी भी घुमंतू जीवन जीते हैं।
सांसी लोग अपनी वंश परंपरा पितृ सत्तात्मक मानते हैं और जाटों की पारिवारिक परंपरा के अनुसार चलते हैं।
इन लोगों में युवक-युवतियों के वैवाहिक संबंध उनके माता-पिता द्वारा किये जाते है। विवाह पूर्व यौन संबंध को अत्यन्त गंभीरता से लिया जाता है।
सगाई की रस्म इनमें अनोखी होती है, जब दो खानाबदोश समूह संयोग से घूमते-घूमते एक स्थान पर मिल जाते हैं, तो सगाई हो जाती है।
सांसी जनजाति में होली और दीपावली के अवसर पर देवी माता के सम्मुख बकरों की बली दी जाती है। ये लोग वृक्षों की पूजा करते हैं।
मांस और शराब इनका प्रिय भोजन है। मांस में ये लोमड़ी और सांड़ का मांस पसन्द करते हैं।
इनका धर्म सामान्य हिन्दू धर्म है, लेकिन कुछ लोग इस्लाम में धर्मान्तरित हो गए हैं।
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