13.3.25

बेलदार समाज का इतिहास /History of Beldar samaj

 बेलदार समाज का इतिहास विडिओ 





महाराणा प्रताप जी के गुप्तचर के रूप मे बेलदार जाती को जाना जाता है बेलदार' एक ऐतिहासिक रूप से हिंदू/राजपुत जाति है जो मूल रूप से उत्तरी भारत से है और अब देश के कई अन्य हिस्सों में निवास करती है |
बेलदार जाति बिहार में लोनिया (चौहान), बिंद, बेलदार और नोनिया समुदाय से संबंधित है।
 2022 के सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में नोनिया जाति की जनसंख्या 25 लाख है। बेलदार जाति की जनसंख्या लगभग 5 लाख है।
 यह समुदाय पारंपरिक रूप से उत्तर भारत के मूल निवासी हैं, और ओढ़ समुदायों के समान हैं, जो पश्चिम भारत के मूल निवासी हैं। 
वे केवट समुदाय के साथ भी समान वंश का दावा करते हैं, जो खुद को ओढ़ के रूप में संदर्भित करते हैं।महाराष्ट्र में, बेलदार मुख्य रूप से औरंगाबाद, नासिक, बीड, पुणे, अमरावती, अकोला, यवतमाल, अहमदनगर, शोलापुर, कोल्हापुर, सांगली, सतारा, रत्नागिरी और मुंबई शहर के जिलों में पाए जाते हैं। 
बेलदार लगभग पाँच शताब्दियों पहले राजस्थान से आकर बसने का दावा करते हैं। यह समुदाय पूरी तरह से अंतर्जातीय विवाह करता है, और इसमें कई बहिर्जातीय कबीले शामिल हैं।
 उनके मुख्य वंश चपुला, नरोरा, हैं 
 वे राज्य द्वारा सड़कों के निर्माण में नियोजित हैं। आम तौर पर, पूरे परिवार निर्माण उद्योग में भाग लेते हैं। कई बेलदार खानाबदोश हैं, जो निर्माण स्थलों पर काम की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं। कुछ बेलदार फल और सब्ज़ियाँ बेचने का काम भी करते हैं 
बेलदारों का काम ज़मीन खोदना, जोतना, कुआं खोदना, खनन करना वगैरह होता है. बेलदारों को अकुशल मज़दूर भी कहा जाता है.
 यह समुदाय पूरी तरह से भूमिहीन है. पारंपरिक रूप से यह राजमिस्त्री का काम करते हैं. जीवन यापन के लिए यह फल और सब्जी बेचने तथा ईट भट्ठों में भी काम करते हैं. उत्तर प्रदेश में यह अभी भी मुख्य रूप से अपने राजमिस्त्री का काम करते हैं और निर्माण उद्योग (Construction Industry) में कार्यरत हैं. महाराष्ट्र में यह राजमिस्त्री के साथ-साथ काफी संख्या में ईट भट्ठों में ईट बनाने का कार्य करते हैं. 
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में इन्हें अनुसूचित जाति (Scheduled Caste, SC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 
. बेलदार समुदाय के लोग यह दावा करते हैं कि लगभग 5 शताब्दी पहले वह राजस्थान से आकर महाराष्ट्र में बस गए. बेलदार समाज अनेक कुलो में विभाजित है, जिनमें प्रमुख हैं-खरोला, गोराला, चपुला, छपावर, जेलवार, जाजुरे, नरौरा, तुसे, दवावर, पन्नेवार, फातारा, महोर, बसनीवार, बहर होरवार और उदयनवार. यह हिंदी, मराठी और बेलदारी भाषा बोलते हैं. आपस में यह बेलदारी भाषा बोलते हैं, जबकि बाहरी लोगों के साथ मराठी और हिंदी भाषा बोलते हैं.
बेलदारों के कई बहिर्विवाही गोत्र हैं जैसे हसु, मंगरिया, मुरही, बेहतर, गोंड, जीबुटट, कंटियाल आदि.
बेलदारों के अपने लोकगीत और लोक-कथाएँ हैं.
बेलदारों की मुख्य दो भाषाएँ कन्नड़ और हिन्दी हैं.
वर्तमान हिन्दू समाज मे बेलदार  जाति व्यवस्था के चौथे स्तर अर्थात  शूद्रों का हिस्सा हैं.
बेलदारों की कई ज़रूरतें हैं, जैसे कि अच्छे स्कूल, नए काम के कौशल सीखने की ज़रूरत, आधुनिक चिकित्सा तक पहुँच की ज़रूरत.
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12.3.25

भारतीय उपमहाद्वीप का इस्लामी इतिहास/Muslim history of Indian sub continent

भारतीय उपमहाद्वीप का इस्लामी इतिहास का विडियो :डॉ.आलोक 


इस्लाम भारतीय उपमहाद्वीप का एक प्रमुख मजहब हैं।  इस्लाम का व्यापक फैलाव सातवी शताब्दी के अंत में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण और बाद के मुस्लिम शासकों के द्वारा हुआ। इस प्रान्त ने विश्व के कुछ महान इस्लामिक साम्राज्यों के उत्थान एवं पतन को देखा है। सातवी शतब्दी से लेकर सन १८५७ तक विभिन्न इस्लामिक साम्राज्यों ने भारत, पाकिस्तान एवं दुसरे देशों पर गहरा असर छोड़ा है।

इस्लामी शासकों और इस्लामी आक्रमणकारियों के कारण भारतीय महाद्वीप को अनेक प्रकार से क्षति हुई। पूरा भारतीय समाज लगभग १००० वर्ष तक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता रहा और अन्ततः सफल हुआ। किन्तु १००० वर्षों में भारत धीरे-धीरे पश्चिमी दुनिया की तुलना में ज्ञान-विज्ञान में पिछड़ गया।

भारत में इस्लाम धर्म का प्रवेश 7वीं शताब्दी में हुआ था. अरब व्यापारियों के ज़रिए यह धर्म भारत आया था. इस्लाम धर्म के आने के बाद, भारत में कई मुस्लिम साम्राज्य बने.
इस्लाम के प्रवेश के पहले बोद्ध एवं हिंदू धर्म उपमहाद्वीप के प्रमुख धर्म थे। मध्य एशिया और आज के पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में बोद्ध धर्म शताब्दियों से फल फूल रहा था। खास कर के सिल्क रुट या रेशम मार्ग के किनारे इसका व्यापक फैलाव था।

सिन्ध प्रान्त

छठवी शतबदी के प्रारम्भ में सिंध फारस साम्राज्य के आधीन था। सन ६४३ में रशिदुन साम्राज्य ने अपने इस्लामिक राज्य के विस्तार के लिए सात सेनाएं साम्राज्य के सात कोनो में भेजी। इसमे से एक सेना फारस सामराज्य से सिंध प्रान्त के कुछ भाग को जीत कर लौटी। इस्लामिक सेनाएं सबसे पहले खलीफ उमर के नेतृत्व में सन ६४४ में सिंध पहुची. सन ६४४ में ही हाकिम इब्न अम्र, शाहब इब्न मखारक और अब्दुल्लाह इब्न उत्बन की सेन्य टुकडियों ने सिन्धु नदी के पश्चिमी किनारे पर एक युद्ध में सिंध के राज रसील के ऊपर विजय प्राप्त की। खलीफ उमर के शासन में सिन्धु नदी ही रशिदुन साम्राज्य की सीमा बन गई और इस्लामिक साम्राज्य उसके पार नहीं आया। खलीफ उमर की मृत्यु के पश्चात फारस साम्राज्य के अन्य प्रान्तों की तरह सिंध में भी विद्रोह हो गया। नए खलीफ उस्मान ने भी सिंध की दयनीय हालत को देखते हुए सेना को सिन्धु नदी को पार न करने का आदेश दिया। बाद के खलीफ अली ने भी सिंध के अन्दर प्रवेश करने में कोई ख़ास रूचि नहीं दिखाई।    

  बलूचिस्तान प्रान्त

सन ६५४ तक बलूचिस्तान का वह भाग जो की आज के पाकिस्तान में हैं रशिडून साम्राज्य के अन्दर आ गया था। खलीफ अली के समय तक पूरा बलूचिस्तान प्रान्त रशिडून साम्राज्य के आधीन हो चूका था। बाद के सत्ता संगर्ष में बलूचिस्तान में एक साम्राज्य शासन नहीं रहा।
ऐतिहासिक इस्लामी दस्तावेज फतह-नामा-सिंध के अनुसार सन ७११ में दमस्कुस के उम्म्यद खलीफ ने सिंध एवं बलूचिस्तान के लिए दो असफल अभियान भेजे। इन अभियानों का उद्देश्य देय्बुल (आज के कराची के नजदीक) के निकट समुंदरी लुटेरे जो की अरबी व्यपारी जहाजों को लूट लेते थे उन्हें सबक सिखाना था। यह आरोप लगाया गया की सिंध के राजा आधीर इन लुटेरो को शरण दे रहे थे। तीसरे अभियान का नेतृत्व १७ साल के मुहम्मद बिन कासिम के हाथों में था उसने सिंध एवं बलूचिस्तान को जीतते हुए उत्तर में मुल्तान तक आपना राज्य स्थापित किया। सन ७१२ में कासिम की सेना ने आज के हैदराबाद सिंध में राजा दाहिर की सेना के ऊपर विजय प्राप्त की।
कुछ ही सालों में कासिम को बग़दाद वापस भेज दिया गया जिसके बाद इस्लामी साम्राज्य दक्षिण एशिया में सिंध और दक्षिणी पंजाब तक ही सिमित रह गया
अरब मुस्लिमों एवं बाद के मुस्लिम शासकों के सिंध एवं पंजाब में आने से दक्षिण एशिया में राजनेतिक रूप से बहुत बड़ा परिवर्तन आया और जिसने आज के पाकिस्तान एवं उपमहाद्वीप में इस्लामी शासन की नींव रखी।
भारत में इस्लाम धर्म के आने का इतिहास:
अरब व्यापारी सातवीं शताब्दी में भारत आए और मालाबार तट पर बस गए.
अरब व्यापारियों ने ही भारत में पहली मस्जिद बनवाई थी.
मोहम्मद बिन कासिम ने 712 ईस्वी में भारत पर पहला सफल आक्रमण किया था.
11वीं-12वीं शताब्दी में गजनवी और घुरिदों के आक्रमण के बाद इस्लाम पंजाब और उत्तर भारत में पहुंचा.
मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की.
इसी दौरान फारस से कई मुसलमान भारत आए और यहां बस गए.
भारत में ज़्यादातर मुसलमान सुन्नी हैं.
भारत में शिया मुस्लिम आबादी का लगभग 15% हिस्सा है.
भारत में इस्लाम धर्म और संस्कृति का प्रसार गुलाम वंश की स्थापना के बाद बढ़ा.
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10.3.25

जांगिड़ ब्राह्मणों की उत्पत्ति और गौरवशाली इतिहास | History of Jangid Brahman caste

जांगिड़ ब्राह्मणों की उत्पत्ति और गौरवशाली इतिहास विडिओ 




भारत एक बहुत बड़ा देश है. जहां विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं. इन सबसे ही समाज का निर्माण होता है. सभी धर्म और जातियों का अपना अपना पुराना इतिहास रहा है. जांगिड़ ब्राह्मण समाज का भी अपना एक पुराना इतिहास रहा है. जांगिड़ समुदाय भारत में ब्राह्मण जाति से संबंधित है. स समुदाय के लोग बढ़ईगीरी और फर्नीचर से संबंधित व्यवसाय से जुड़े हुए होते हैं. इसके अलावा जांगिड़ ब्राह्मण समुदाय पेंटिंग और सजावटी मूर्तियों को बनाने का काम भी करते हैं.
जांगिड़ जाति ब्राहमण जाति हैं और यह जाति अंगिराऋषि  से संबंधित हैं । दिग्विजयी प्रतापी होने के कारण वह जांगिड़ कहलाये । अंगिरा ऋषि के आश्रम जांगल देश मे थे इसलिये अंगिरस स्थान जांगिड कहलाया है । आदि शिल्पाचार्य भुवन पुत्र विश्वकर्मा अंगिराऋषि के वंश के होने के कारण जंगिड़  कहलाये।
 मान्यता है कि अगिराऋषि आपने आश्रम में रहते थे तथा उनका आश्रम जांगल देश में था, जिसके कारण अंगिरा ऋषि की संतान स्थान के नाम के आधार पर जांगिड कहलाए. 
इसके अलावा ऐसी भी मान्यता है कि आदि शिल्पाचार्य भुवन पुत्र विश्वकर्मा देवों के शिल्पी होने के कारण जांगिड़ कहलाये. 
कुछ लोगों द्वारा जांगिड़ समाज के ब्राह्मण होने पर सवाल भी उठाए जाते हैं, लेकिन ऐसे कई प्रमाण है जिनसे पता चलता है कि जांगिड़ समाज ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखता है. 
जांगिड़ ब्राह्मणों का इतिहास ब्रह्मर्षि अंगिरा से जुड़ा है. ये ब्राह्मण समुदाय की एक उपजाति है. 
जांगिड़ ब्राह्मण, भारत के हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, चंडीगढ़, गुड़गांव, नोएडा, जम्मू-कश्मीर, और पंजाब में पाए जाते हैं.
ये लोग ब्राह्मण बनने की भी कोशिश करते हैं तथा आरक्षण का भी लाभ लेना चाहते हैं।
सुथार जाति के लोग जांगिड़ ब्राह्मण नहीं होते. हालांकि, सुथार जाति के लोग अपने आप को जांगिड़ घोषित कर लेते हैं
जांगिड़ समाज के कई गोत्र हैं, जिनमें से एक गोत्र कुलरिया है. कुलरिया गोत्र की कुलदेवी मां चामुंडा हैं.
जांगिड़, भारत का एक ब्राह्मण समुदाय है. ये ब्रह्मर्षि अंगिरा की संतान हैं. जांगिड़ समाज के लोग वास्तुशिल्प कार्य, लकड़ी के काम, जहाज़ निर्माण, और लकड़ी के फ़र्नीचर बनाने में विशेषज्ञ हैं. आजकल, जांगिड़ समाज के लोग पेंटिंग के लिए भी जाने जाते हैं.
आमतौर पर गांव में इनके व्यवसाय को खाती के नाम से भी जाना जाता है. कुछ लोगों का मानना है कि खाती एक जाति होती है. लकड़ी के व्यवसाय से जुड़ा होने के कारण जांगिड़ समुदाय को खाती भी कहा जाता है. लेकिन खाती शब्द जाति से संबंधित ना  होकर व्यवसाय से संबंधित माना जाता है.
जांगिड़ समाज के लोग, विश्वकर्मा समुदाय की श्रेष्ठ जातियों में गिने जाते हैं.
जांगिड़ समाज के लोग, पूरे उत्तर भारत में पाए जाने वाले अन्य ब्राह्मण समुदायों के समान हैं.
जांगिड़ ब्राह्मणों के कई गोत्र हैं, जिनमें से कुछ ये हैं: भारद्वाज, अत्रि, वत्स, गौतम. 
जांगिड़ मूल रूप से बढ़ई को ही कहते हैं इनको  हरियाणा में धीमान बढ़ई के नाम से जाना जाता है
जांगड़ा ब्राह्मणों ने वेद पढ़ने और मंदिरों में पूजा करने जैसे ब्राह्मणों के पारंपरिक काम  के बजाय कृषि, इंजीनियरिंग, बढ़ईगीरी, पेंटिंग आदि जैसे व्यवसायों को अपनाया था। वे अन्य ब्राह्मण समुदायों की तरह जनेऊ नामक पवित्र धागा पहनते हैं और वृंदावन के मंदिरों में शिक्षा और दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं जहां केवल ब्राह्मणों को शिक्षा दी जाती है। जिन जांगड़ा ब्राह्मणों को वेदों, पुराणों का ज्ञान है, वे अपने नाम के आगे पंडित भी लगाते हैं। वे भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते हैं और इसलिए कभी-कभी वे विश्वकर्मा या विश्व ब्राह्मण या खाती के सरनेम से भी जाने जाते हैं

जांगिड़ समाज की कुलदेवी कौन हैं?

जांगिड़ समाज की कुलदेवी मां चामुंडा हैं. जांगिड़ समाज के कुलरिया गोत्र की कुलदेवी मां चामुंडा हैं. जैसलमेर ज़िले के गोगादे गांव के पास मां चामुंडा का मंदिर है
जांगिड़ ब्राह्मणों के लिए अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा का गठन किया गया था. इसकी शुरुआत डॉ. इंद्रमणि शर्मा ने की थी.
 जंगिड़  ब्राह्मण लोगों मे निम्न विशेषताएं आम तौर पर उल्लेखनीय हैं 
चोरी नहीं करते
देशद्रोह नहीं करते
अपराधों में संलिप्त नहीं रहते
गुण्डागर्दी नहीं जानते
मेहनत करके खाते हैं
कभी अपने धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म नहीं अपनाया
ई समाज मे पैसे की या योग्यता की कोई कमी नहीं है 
भारत 7.5 करोड़ जांगिड़ हैं। यह संख्या बहुत बड़ी है।
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जैन धर्म की उत्पत्ति और गौरव शाली इतिहास ?History of origin of Jain Dharm

जैन धर्म में राम कौन हैं?

राम जैन धर्म में 63 शलाका पुरुषों (अत्यधिक पूजनीय) में से एक हैं। जैन धर्म में राम को आठवां बलभद्र माना जाता है। रावण और लक्ष्मण के बीच युद्ध के बाद, राम एक जैन ऋषि बन गए। और अंततः राम को महाराष्ट्र के तुंगीगिरी में निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हुआ, जैसा कि रामायण के निर्वाण कांड में वर्णित है

जैन धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार कौन सा है?

पर्युषण पर्व जैनियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है।

महावीर जी के गुरु कौन थे?

सच तो यह है कि महावीर जैन जी ने कोई गुरु नहीं बनाया। उन्होंने किसी से दीक्षा नहीं ली तथा मनमानी पूजा करते थे। यह पूजा पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में मना की गई है।

जैन धर्म में महिलाओं की क्या स्थिति है?

जैन दर्शन में नारी के माता के रूप को सम्मान प्राप्त था। इस दर्शन में 24वें तीर्थंकरों में से 19वें तीर्थंकर के रूप में मल्लीनाथ नामक स्त्री का नाम लिए जाता था। वही दूसरी ओर नारी को काम वासना का साधन और मोक्ष प्राप्ति मे बाधक बताते हुए त्यागने योग्य भी कहा गया है

क्या जैन हिंदू भगवान को मानते हैं?

हिन्दु धर्म भगवान के अवतारवाद को मान्य करता है और उन्हींको सृष्टि का रचियता मानता है। इनकी पूजा पद्धति जैनों से अलग प्रकार की है। जैन अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। जैन दर्शन के अनुसार एक बार सभी कर्मो का क्षय करके कोई भी भगवान बन सकता है
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9.3.25

मुस्लिम इदरीसी दर्जी समाज की उत्पत्ति और वर्तमान स्थिति |History of Muslim Idris darji caste


Video Idrisi Tailor community


भारतीय उपमहाद्वीप में दर्ज़ी जाति हिंदुओं और मुसलमानों में पाई जाती है। मुस्लिम समुदाय में इन्हें इदरीसी के नाम से जाना जाता है। इदरीसी लोग मूल रूप से सल्तनत काल के दौरान मध्य एशिया के खुरासान, तुर्कमेनिस्तान क्षेत्रों से सैनिक के रूप में आए थे। वे अपने-अपने क्षेत्रों के अलग-अलग कुलों या जनजातियों से संबंधित थे। लेकिन बाद में, विभिन्न व्यवसायों में शामिल होने के कारण, उन्हें सामाजिक रूप से पेशेवर नाम दिए गए और उन्हें उनके मूल के बजाय उनके  व्यवसायों से पहचाना जाने लगा। इसका मुख्य कारण भारतीय जाति व्यवस्था है जो व्यवसायों और व्यवसायों पर आधारित है, जिसका असर इन मुसलमानों पर भी पड़ा।
वंशावली  का पता लगाया जाए तो इदरिसी  दर्जी समाज के परिवारों के पुरखे हिन्दू ही थे जी परिस्थितिवश  मुसलमान  बन गए| इदरीसी दर्जियों की गोत्र हिन्दुओं की गोत्र से मेल खाती हैं जैसे,भाटी,चौहान ,सोलंकी,परमार ,राठौर आदि इत्यादि| कहा जाता है कि मुगल सल्तनत द्वारा इस्लाम को फ़ैलाने के अभियान के चलते राजपूत समाज के लोगों ने भी  इस्लाम धर्म अपना लिया था| 

परिचय / इतिहास

दर्ज़ियों ने अपना नाम फ़ारसी शब्द 'सिलना' या दर्ज़न से लिया है। कभी-कभी दर्ज़ियों को भारत में दर्ज़ी या ख़य्यात के नाम से जाना जाता है, जहाँ उनके ज़्यादातर समुदाय रहते हैं। एक भारतीय किंवदंती कहती है कि भगवान परशुराम दो भाइयों को नष्ट करने के लिए उनका पीछा कर रहे थे, और उन्हें एक मंदिर में शरण मिली। एक पुजारी ने उन्हें छिपा दिया और एक भाई को कपड़े सिलने और दूसरे को कपड़े रंगने का काम दिया। दर्ज़ियों को पहले भाई का वंशज कहा जाता है
 दर्ज़ी लोगों में से लगभग एक तिहाई मुसलमान हैं, बाकी हिंदू हैं।

 मुसलमान दर्जी भारत, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में रहते हैं। दर्ज़ी मुस्लिम लोगों में से अधिकांश नेपाल के मध्य तराई क्षेत्र में रहते हैं और नेपाली और उर्दू बोलते हैं।

 इदरीसी के अलावा, इन समूहों की पहचान कई अन्य व्यावसायिक समूहों से भी होती है जो अपने मूल के बजाय अपने उपनाम में अपना व्यवसाय जोड़ते हैं, जैसा कि आप उत्तर भारत और गुजरात के मुसलमानों में देख सकते हैं, जो मूल रूप से मध्य एशिया से हैं, लेकिन उनका व्यवसाय उनका उपनाम है। व्यापार या पेशे से जुड़े मुसलमानों के इन समूहों ने आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण अलग-अलग पेशे अपनाए और समय के साथ वे अपने पेशे से पहचाने जाने लगे।
 उत्तर भारत के कई इलाकों में इन्हें तुर्क दर्जी या तुर्क जमात के नाम से भी जाना जाता है।  ये काफी हद तक भूमिहीन समुदाय हैं जिनका मुख्य व्यवसाय सिलाई है। सिलाई का पेशा दोनों समुदायों द्वारा किया जाता है। मुस्लिम समुदाय में दर्जी जाति को इदरीसी के नाम से जाना जाता है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के आंकड़ों के अनुसार, दर्जी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। 
टेलरिंग, दर्जी का अंग्रेजी अनुवाद है। 
भारतीय परंपरा में, सिले हुए कपड़े पहनने के बजाय शरीर पर कपड़ा लपेटने का रिवाज था। हिंदी और उर्दू में प्रयुक्त, दर्ज़ी शब्द फ़ारसी भाषा से आया है।
दर्ज़ी शब्द का शाब्दिक अर्थ दर्ज़ी का व्यवसाय है। दर्ज़ी इदरीस (हनोक) के वंशज होने का दावा करते हैं, जो बाइबिल और कुरान के पैगम्बरों में से एक हैं। उनकी परंपराओं के अनुसार, इदरीस सिलाई की कला सीखने वाले पहले व्यक्ति थे। ऐसा कहा जाता है कि यह फ़ारसी शब्द दर्ज़न से लिया गया है, जिसका अर्थ है सिलाई करना
  कहा जाता है कि दर्ज़ी दिल्ली सल्तनत के शुरुआती दौर में दक्षिण एशिया में बस गए थे। वे भाषाई आधार पर भी विभाजित हैं, उत्तर भारत के लोग उर्दू की विभिन्न बोलियाँ बोलते हैं, जबकि पंजाब के लोग पंजाबी बोलते हैं।
दिल्ली मुगल काल में मुगल सैनिकों की कुछ टुकड़ियाँ जो इल्बारी तुर्क थीं, दिल्ली की सीमाओं की रक्षा करती थीं। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में मुगलों की कमज़ोर होती सेना और जाटों और सिखों के बढ़ते विद्रोहों और आंतरिक युद्धों ने मुगल सेनाओं की शक्ति छीन ली और ये सैनिक दिल्ली के आस-पास के अपने इलाकों को छोड़कर अवध की ओर चले गए। इनमें बच्चे और महिलाएँ भी ज़्यादा थीं। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली से अवध की ओर यह पहला सैन्य पलायन था। इन सैन्य परिवारों को अवध के नवाब ने इस्माइलगंज गाँव में बसाया था। कुछ दशक बाद 1857 के युद्ध में इन इल्बारी सैनिकों ने चिनहट नामक स्थान पर ब्रिटिश सत्ता से युद्ध किया, जहाँ कारवाँ सराएँ थीं और इस्माइलगंज गाँव में इल्बारी और सैय्यद विजयी हुए। और ब्रिटिश छावनी को भारी जान-माल का नुकसान पहुँचाया जिसमें अंग्रेज अपने परिवारों के साथ रहते थे।
क्रांति की समाप्ति के बाद क्रांतिकारियों की खोजबीन की गई और उनके खिलाफ कार्रवाई की गई, घरों को ध्वस्त कर दिया गया और इल्बारी और सैय्यद क्रांतिकारियों को पेड़ों पर फांसी दे दी गई और उनके शवों को पेड़ों पर लटका दिया गया।
 सैय्यदों की जागीरें जब्त कर ली गईं और इल्बारी लोगों को गांव छोड़कर अन्य इलाकों जैसे बाराबंकी, सतरिख, कानपुर, फैजाबाद, रुदौली आदि में शरण लेनी पड़ी, ब्रिटिश सैनिकों की क्रूरता और बर्बरता के कारण उन्हें बार-बार अपने ठिकाने बदलने पड़े, लेकिन विद्रोहियों के कारण उन्हें अंग्रेजों के जमींदारों से कोई मदद, स्थायी आश्रय नहीं मिल सका। जिसके कारण उन्हें अपनी पहचान छिपाने के लिए अपना उपनाम इल्बारी से बदलकर इदरीसी रखना पड़ा।
इसलिए, बाद में कुछ क्षेत्रीय ज़मींदारों को उनकी तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति को बचाने के लिए उनके क्षेत्रों में शरण दी गई। पंजाबी दर्ज़ी को हिंदू छिम्बा जाति से धर्मांतरित कहा जाता है, और उनके कई क्षेत्रीय विभाजन हैं। इनमें सरहिंदी, देसवाल और मुल्तानी शामिल हैं। पंजाबी दर्ज़ी (छिम्बा दर्ज़ी) लगभग पूरी तरह से सुन्नी हैं। झारखंड के इदरीसी बिहार के लोगों के साथ एक समान मूल के हैं, और आपस में विवाह करते हैं। समुदाय हिंदी की अंगिका बोली बोलता है।
 अधिकांश इदरीसी अभी भी सिलाई का काम करते हैं, लेकिन कई इदरीसी, विशेष रूप से झारखंड में अब किसान हैं। उनके रीति-रिवाज अन्य बिहारी मुसलमानों के समान हैं।

उनका जीवन किस जैसा है?

वे अक्सर सामाजिक स्थिति के मध्य में रहते हैं। दर्जी के रूप में वे अन्य मुस्लिम व्यापारियों के साथ घनिष्ठ संबंधों का आनंद लेते हैं। दर्जी शाकाहारी नहीं हैं, लेकिन गोमांस से परहेज करते हैं। एक समुदाय के रूप में वे वयस्क विवाह को प्राथमिकता देते हैं और बच्चों के उत्तराधिकार के विशेषाधिकार बेटों और बेटियों दोनों को देते हैं। पुरुष कभी-कभी कुर्ता-पायजामा और महिलाएं सलवार-कमीज पहनती हैं।

उनकी मान्यताएं क्या हैं?

दर्ज़ी लोग पैग़म्बर इदरीस के वंशज होने का दावा करते हैं। यह पैग़म्बर ओल्ड टेस्टामेंट के हनोक से मेल खाता है। दक्षिण एशिया के अन्य मुस्लिम लोगों की तरह, दर्ज़ी भी सुन्नी मुस्लिम प्रथाओं को हिंदू प्रथाओं के साथ मिलाते हैं।

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8.3.25

ब्राह्मण समाज की उत्पत्ति और इतिहास /History of Brahman caste

ब्राह्मण समाज की उत्पत्ति और इतिहास का विडिओ 






ब्रह्मा के मुख से उत्पत्ति:
पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई थी। यह एक पौराणिक कथा है जो ब्राह्मणों को समाज में एक विशेष स्थान देने के लिए प्रस्तुत की गई थी।
ब्राह्मण (आर्य) जाति एक विदेशी जाति है जो ईरान से भारत की तरफ आए और भारत में बस गए और वैदिक धर्म (हिन्दू धर्म) का निर्माण किया। क्युकी भारत में पहले से द्रविड़ जाति के लोग रहते थे इस हिसाब से भारत के मूल निवासी द्रविड़ (ओबीसी,एससी,एसटी) है और आर्य
 विदेशी है।
ब्राह्मणों को पट्कर्मा भी कहा जाता है.

ब्राह्मणों के कर्म हैं - अध्यापन, अध्ययन, यजन, दान, और प्रतिग्रह.
माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण।
ब्राह्मण समुदाय वैदिक युग के पहले सात ब्राह्मण संतों (सप्तर्षि) से उतरा है.
इन सात ब्राह्मण संतों के नाम हैं - विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, अत्रि, उप्रेती, वशिष्ठ, और कश्यप.
माना जाता है कि जाति के हर सदस्य का वंश इन सातों संतों में से किसी एक से जुड़ा है.
ब्राह्मणों का गोत्र किसी व्यक्ति की पितृवंश को ट्रैक करने का साधन है.
ब्राह्मण जाति का इतिहास प्राचीन भारत से जुड़ा है और वैदिक काल से भी पुराना माना जाता है. ब्राह्मणों को भारत की आज़ादी में भी अहम योगदान रहा है.
ब्राह्मण, भारत की चार हिंदू जातियों में सबसे ऊंची जाति है.
ब्राह्मणों का व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं.

वेदों के अनुसार ब्राह्मण कौन है?

ब्राह्मण हिंदू धर्म में एक वर्ण है जो पीढ़ियों से पवित्र साहित्य के पुजारी, संरक्षक और प्रेषक के रूप में सिद्धांत रूप में विशेषज्ञता रखता है । ब्राह्मण वेदों के भीतर ग्रंथों की चार प्राचीन परतों में से एक हैं।

ब्राह्मणों का पारंपरिक व्यवसाय अध्यापन, पौरोहित्य कर्म, और यज्ञ करना है.
ब्राह्मणों को आध्यात्मिक शिक्षक (गुरु या आचार्य) के रूप में भी काम किया है.
ब्राह्मणों के कर्म हैं वेद का पठन-पाठन, दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना इत्यादि.
ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म के मुख से कही गई है.
ब्राह्मणों के मुख में गई हुई सामग्री देवताओं को मिलती है.
ब्राह्मणों के कई अलग सरनेम होते हैं और सबके अलग गोत्र होते हैं.
ब्राह्मण जाति से जुड़े कुछ राजवंशः भूर्षुत राजवंश, पल्लव राजवंश, परिव्राजक राजवंश, पटवर्धन राजवंश, वाकाटक राजवंश.

गीता में ब्राह्मणों के बारे में क्या लिखा है?

भगवद गीता में श्री कृष्ण ने ब्राह्मण की क्या व्याख्या दी है? भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है”
ब्राह्मणों का पारंपरिक काम अध्यापन, पूजा-पाठ, और यज्ञ करना होता है.
ब्राह्मणों को चार सामाजिक वर्गों में सर्वोच्च अनुष्ठान का दर्जा दिया जाता है.
ब्राह्मणों को आध्यात्मिक शिक्षक (गुरु या आचार्य) के रूप में भी जाना जाता है.
ब्राह्मणों के कर्म हैं- वेद का पठन-पाठन, दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना इत्यादि.
ब्राह्मणों को सर्वोच्च सत्ता का प्रतीक माना जाता है.
ब्राह्मणों के पूर्वज विश्वामित्र, जमदग्नि, उप्रेती, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ और कश्यप थे.
ब्राह्मणों के नायक इंद्र थे.

वेदों में ब्राह्मण कौन है?

जो व्यक्ति विद्वान होते थे चाहें वो किसी भी कुल में पैदा हुआ हो, वो व्यक्ति वेदों के अनुसार ब्राह्मण है।

ब्राह्मणों ने सरकार, शिक्षा, कला, व्यवसाय और अन्य क्षेत्रों में भी कई पदों पर काम किया है.
प्राचीन भारत के कई विद्वान, खगोल शास्त्री, लेखक और आचार्य ब्राह्मण जाति से ही थे. स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- 
मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 
 इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
ब्राह्मण उच्च जातियों के लिए पारिवारिक पुजारी के रूप में कार्य कर सकते हैं, लेकिन निम्न जातियों के लिए नहीं। वे धार्मिक स्थलों और मंदिरों में तथा प्रमुख त्योहारों से जुड़े अनुष्ठानों में भाग ले सकते हैं। वे विवाह में किए जाने वाले सभी अनुष्ठानों का संचालन करते हैं, महत्वपूर्ण धार्मिक अवसरों पर उपस्थित होते हैं और वेदों और अन्य पवित्र संस्कृत ग्रंथों के अंश पढ़ते हैं तथा पुराणों और रामायण और महाभारत का पाठ करते हैं। ब्राह्मणों को कभी-कभी उनकी सेवाओं के लिए पैसे के बजाय गायों से भुगतान किया जाता है

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