23.3.25

विक्रम बेताल की कहानी - अजीबोगरीब फैसला

 

राजा राजेंद्र और रानी प्रेमा की एक सुंदर बेटी थी जिसका नाम सोना था, जो धनुष-बाण और तलवार चलाने में निपुण हो गई थी। जब वह विवाह योग्य हो गई, तो राजा ने उसका विवाह करवाना चाहा, लेकिन सोना ने उस व्यक्ति से विवाह करने का निश्चय किया जो उसे धनुष-बाण और तलवार चलाने में हरा दे। कई राजकुमार उसके साथ लड़ने आए, लेकिन सोना ने उन्हें हरा दिया और उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। उदय नाम का एक युवक सोना को दूसरों से लड़ते हुए देखता था और धीरे-धीरे सोना द्वारा अपने विरोधियों को हराने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीकों को सीखता था। वह आगे आया और सोना को आसानी से हरा दिया। जब राजा ने उदय से उसके प्रशिक्षण के बारे में पूछा, तो उसने कहा कि उसने सोना को देखकर कौशल और तकनीक सीखी है। लेकिन सोना ने इस आदमी से शादी करने से इनकार कर दिया और उदय ने भी इसे स्वीकार कर लिया। तब बेताल ने राजा बिक्रम से पूछा कि सोना ने उदय से शादी क्यों नहीं की, हालाँकि उदय ने उसे हरा दिया था। राजा ने उत्तर दिया कि उदय ने सोना से तकनीक और रणनीति सीखी थी, इसलिए सोना उदय की शिक्षिका बन गई। संस्कृति के अनुसार एक शिक्षक अपने छात्र से विवाह नहीं कर सकता, और दोनों ने इसे स्वीकार कर लिया। नैतिक: कहानी एक सुंदर संदेश देती है: यदि आप किसी से कुछ सीखते हैं, तो आपको उन्हें अपना गुरु या शिक्षक मानना ​​चाहिए।

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दर्जी समाज के आदि पुरुष  संत दामोदर जी महाराज की जीवनी 

मुक्ति धाम अंत्येष्टि स्थलों की बेहतरी हेतु डॉ .आलोक का समर्पण भाग 1 :-मंदसौर ,शामगढ़,सितामऊ ,संजीत आदि

21.3.25

भगवान कृष्ण और गोवर्धन पर्वत की कहानी


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कृष्ण और इंद्र की कहानी का परिचय


छोटे बच्चों को बहुत समय से भगवान कृष्ण द्वारा अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाने की पौराणिक कहानी सुनाई जाती रही है। कहानी की शुरुआत में बताया गया है कि कैसे वृंदावन के लोग हर साल अपनी फसलों को बारिश से आशीर्वाद देने के लिए भगवान इंद्र के लिए अनुष्ठान करते थे। एक साल, भगवान कृष्ण ने स्थानीय लोगों से बात की और "कर्म" का अर्थ सिखाया। उन्होंने लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करने और अपने नियंत्रण से परे चीजों के बारे में चिंता न करने की सलाह दी। उनका मानना ​​था कि उनकी बेहतरीन फसल के लिए इंद्र नहीं बल्कि गोवर्धन पर्वत जिम्मेदार है। आश्वस्त होने के बाद सभी ने इस प्रक्रिया को करने का विकल्प नहीं चुना। इससे इंद्र क्रोधित हो गए और उन्होंने एक शक्तिशाली तूफान भेजा, जिससे बस्ती डूब गई। श्री कृष्ण द्वारा उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठाने के परिणामस्वरूप किसानों ने कई दिनों तक गोवर्धन पर्वत के पीछे शरण ली।



गोवर्धन पर्वत की कहानी

भगवान इंद्र देवताओं के राजा थे और बारिश और आंधी को नियंत्रित करते थे। वे मेरु पर्वत पर आकाश में रहते थे, जहाँ से वे अन्य सभी देवताओं पर शासन करते थे। हालाँकि, इंद्र में कई बुराइयाँ थीं। वे अपने से कमतर (कम शक्तिशाली देवता, नश्वर और राक्षस) व्यक्तियों के कार्यों से आसानी से प्रसन्न और क्रोधित हो जाते थे। वे सत्ता के नशे में इतने चूर थे कि वे भूल गए कि देवताओं के भी कर्म होते हैं। इंद्र इस बात का उदाहरण हैं कि अगर शक्ति का इस्तेमाल विनम्रता से न किया जाए तो यह मनुष्यों की तो बात ही छोड़िए देवताओं को भी नष्ट कर सकती है। वृंदावन के लोग अपने जीवनयापन के लिए कृषि और मवेशियों पर निर्भर थे। प्रचुर और समय पर बारिश उनकी आजीविका के लिए महत्वपूर्ण थी। और इसने इंद्र को वृंदावन के लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण देवता बना दिया। जिन वर्षों में अच्छी बारिश होती थी, वे इंद्र की उदारता के लिए उनकी पूजा करते थे और उन्हें धन्यवाद देने के लिए एक भव्य उत्सव मनाते थे। सूखे के वर्षों में, वे उन्हें प्रसन्न करने के लिए प्रसाद चढ़ाते थे और अपने द्वारा किए गए किसी भी पाप के लिए क्षमा मांगते थे।




  एक साल बारिश बहुत ज़्यादा हुई और वृंदावन में एक इंच ज़मीन भी बंजर नहीं थी। गांव वालों ने आपस में विचार-विमर्श के बाद इंद्र को धन्यवाद देने के लिए एक उत्सव मनाने का फ़ैसला किया। उत्सव के दिन, लोग सुबह जल्दी उठे, अपने घरों की सफ़ाई की और पूरे शहर को फूलों और रोशनी से सजाया। कृष्ण अपने घर में गहरी नींद में सो रहे थे, उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि वहाँ क्या-क्या तैयारियाँ चल रही थीं। जब वे जागे, तो उन्हें यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि सभी गांव वाले वृंदावन की सफ़ाई और सजावट में कड़ी मेहनत कर रहे थे। वे अपने घर से बाहर निकले और उत्सव के बारे में पूछा। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सभी गांव वाले इंद्र को श्रद्धांजलि देने के लिए इस उत्सव की योजना बना रहे थे, क्योंकि उनका मानना ​​था कि इंद्र ही बारिश के लिए ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने सभी गांव वालों को पुकारते हुए कहा कि यह इंद्र नहीं बल्कि पास का एक पर्वत-गिरि गोवर्धन है - जो इतनी अच्छी फ़सल के लिए ज़िम्मेदार है। उन्होंने तर्क दिया कि गांव वालों को इंद्र की बजाय गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।
   स्वर्ग के राजा इंद्र, ब्रज के निवासियों पर बालक कृष्ण की बात सुनने और उनकी जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के कारण बहुत क्रोधित थे, और उन्होंने वृंदावन के क्षेत्र में बाढ़ लाने के लिए भयानक वर्षा वाले बादल भेजकर उन्हें दंडित करने का संकल्प लिया। इंद्र ने विनाश के समावर्तक बादलों को आदेश दिया कि वे वृंदावन पर बारिश और आंधी के साथ हमला करें, जिससे व्यापक बाढ़ आए और निवासियों की आजीविका तबाह हो जाए।
  जब भयंकर बारिश और तूफ़ान ने ज़मीन को तबाह कर दिया और उसे पानी में डुबो दिया, तो वृंदावन के डरे हुए और असहाय लोग भगवान कृष्ण से मदद के लिए पहुंचे। कृष्ण ने स्थिति को पूरी तरह से समझ लिया और अपने बाएं हाथ से पूरा गोवर्धन पर्वत उठा लिया और उसे छतरी की तरह थाम लिया। वृंदावन के सभी निवासियों ने अपनी गायों और घर के दूसरे सामानों के साथ एक-एक करके गोवर्धन पर्वत के नीचे शरण ली। वे सात दिनों तक पहाड़ी के नीचे रहे, मूसलाधार बारिश से सुरक्षित और आश्चर्यजनक रूप से भूख या प्यास से अप्रभावित। वे यह देखकर भी  चकित थे कि विशाल गोवर्धन पर्वत कृष्ण की छोटी उंगली पर पूरी तरह से संतुलित था।
  इस घटना से स्तब्ध और चकित राजा इंद्र ने विनाशकारी बादलों को बुलाया, जिससे आंधी और बारिश रुक गई। आसमान साफ ​​हो गया और वृंदावन में एक बार फिर सूरज चमक उठा। नन्हे कृष्ण ने प्यार से गोवर्धन पर्वत को उसके मूल स्थान पर लौटा दिया, जिससे निवासियों को बिना किसी डर के घर लौटने की अनुमति मिल गई। सभी आगंतुकों ने कृष्ण का खुशी से स्वागत किया और उन्हें गले लगा लिया। इस तरह राजा इंद्र का झूठा अभिमान चूर-चूर हो गया। वह हाथ जोड़कर भगवान कृष्ण के पास गया और क्षमा मांगी। भगवान के रूप में श्री कृष्ण ने इंद्र पर अपनी कृपा बरसाई और उन्हें उनकी जिम्मेदारियों के बारे में भी बताया।

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संत नामदेव जी महाराज का जीवन परिचय | Life story of sant Namdev

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   दर्जी संत नामदेव जी एक महान संत और कवि थे, जिन्होंने 13वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में रहते हुए अपना जीवन व्यतीत किया। उनका जन्म 1270 ईस्वी में हुआ था और उनका निधन 1350 ईस्वी में हुआ था।

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 उल्लेखनीय है कि  दर्जी समाज (दामोदर वंश) के आराध्य महापुरुष संत दामोदर जी महाराज का जन्म  नामदेव जी के जन्म से 97  वर्ष बाद  5अप्रैल 1367 को जूनागढ़ मे हुआ था | 
भक्त नामदेव महाराज का जन्म २६ अकटुबर १२७० (शके ११९२) में महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसे नरसीबामणी नामक गाँव में एक शिंपी जिसे सुचिकार (दर्जी) भी कहते है के परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेट और माता का नाम गोणाई देवी था। इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था। नामदेव का विवाह राधाबाई के साथ हुआ था और इनके पुत्र का नाम नारायण था।
  संत नामदेव ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। ये संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे और उम्र में उनसे ५ साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किए, भक्ति-गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया।


   संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं। मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। 
  आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत १४०७ में समाधि में लीन हो गए।
 सन्त नामदेव के समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। 
  इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "विठोबा" की उपासना भी प्रचलित थी। सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "वारकरी" कहलाते हैं। 



  विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।ज्ञानेश्वर और नामदेव उत्तर भारत की साथ साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलदर्जी नामक स्थान तक ही नामदेव के साथ गए। वहाँ से लौटकर उन्होंने आलंदी में शके 1218 में समाधि ले ली।
    ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेव का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। गुरुदासपुर जिले के घोभान नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है।
   संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जीवित करना , विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना जैसी घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान घोमान मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।
  बिसोवा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के विट्ठल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी विट्ठलभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का काई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। 

 निर्गुणी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यततत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है। कबीर के पूर्व नामदेव ने उत्तर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।

परलोक गमन

आपने दो बार तीर्थ यात्रा की व साधु संतो से भ्रम दूर करते रहे। ज्यों ज्यों आपकी आयु बढती गई, त्यों त्यों आपका यश फैलता गया। आपने दक्षिण में बहुत प्रचार किया। आपके गुरु देव ज्ञानेश्वर जी परलोक गमन कर गए तो आप भी कुछ उदासीन रहने लग गए। अन्तिम दिनों में आप पंजाब आ गए। अन्त में आप अस्सी साल की आयु में 1407 विक्रमी को परलोक गमन कर गए।
 टाँक क्षत्रिय दर्जी समाज भी अपना गुरु संत नामदेव जी को मानते हैं। 
टाँक क्षत्रिय दर्जी समाज की कुलदेवी माता शीतला हैं। माता शीतला को समाज की रक्षक और संरक्षक देवी माना जाता है। समाज के लोग माता शीतला की पूजा करते हैं और उनकी कृपा के लिए प्रार्थना करते हैं।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि टाँक क्षत्रिय दर्जी समाज की परंपराएं और मान्यताएं समय और स्थान के अनुसार भिन्न हो सकती हैं

साहित्यक देन

नामदेव जी ने जो बाणी उच्चारण की वह गुरुग्रंथ साहिब में भी मिलती है। बहुत सारी वाणी दक्षिण व महाराष्ट्र में गाई जाती है। आपकी वाणी पढ़ने से मन को शांति मिलती है व भक्ति की तरफ मन लगता है।

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कर्म में अकर्म कैसे | विश्वामित्र और वशिष्ठ की कहानी

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कर्म में अकर्म कैसे | विश्वामित्र और वशिष्ठ की कहानी

वैदिककाल की बात है । सप्त ऋषियों में से एक ऋषि हुए है महर्षि वशिष्ठ । महर्षि वशिष्ठ राजा दशरथ के कुलगुरु और श्री राम के आचार्य थे ।
 
उन दिनों महर्षि वशिष्ठ का आश्रम नदी के तट के सुरम्य वातावरण में था । महर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुन्धती के साथ गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को निभाने के साथ – साथ योगाभ्यास और तपस्या में भी लीन रहते थे ।
 
उन्हीं दिनों राजा विश्वामित्र जो अब राजपाट अपने पुत्र के हवाले कर घोर तपस्या में संलग्न थे । महर्षि विश्वामित्र का आश्रम भी थोड़ी ही दूर नदी के दूसरी ओर स्थित था ।
 
असल में बात यह थी कि महर्षि वशिष्ठ द्वारा नन्दनी गाय नहीं दिए जाने के कारण राजा विश्वामित्र उसे छिनकर ले जाना चाहते थे । तब नन्दनी गाय ने महर्षि वशिष्ठ की अनुमति से विश्वामित्र की सम्पूर्ण सेना को धराशायी कर दिया था । अतः महर्षि वशिष्ठ से अपनी हार का बदला लेने के लिए विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे ।
 
महर्षि वशिष्ठ एकाकी जीवन की कठिनाइयों से भलीभांति परिचित थे । अतः उन्होंने महर्षि विश्वामित्र के भोजन की व्यवस्था अपने ही आश्रम में कर रखी थी । विश्वामित्र भी भली प्रकार जानते थे कि महर्षि वशिष्ठ की पत्नी बहुत ही सुसंस्कारी है । अतः उनके हाथों से बना भोजन उनकी साधना में कोई अड़चन पैदा नहीं करेगा ।
 
हमेशा की तरह एक दिन अरुन्धती महर्षि विश्वामित्र का भोजन लेकर निकली । वर्षाकाल का समय था । पानी इतना गिरा कि नदी से निकलना मुश्किल हो गया । मार्ग की कठिनाई से व्यथित होकर उन्होंने यह समस्या महर्षि वशिष्ठ को बताई ।
 
महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे देवी ! तुम संकल्प पूर्वक नदी से यह निवेदन करो कि यदि तुम एक निराहारी ऋषि की सेवा में भोजन ले जा रही हो तो वह तुम्हें मार्ग प्रदान करें ” इतना सुनकर अरुन्धती चल पड़ी । महर्षि के कहे अनुसार उन्होंने नदी से विनती की और नदी ने उन्हें रास्ता प्रदान किया । अरुन्धती ने ख़ुशी – ख़ुशी विश्वामित्र तक भोजन पहुंचा दिया ।
 
भोजन देने के बाद जब वह वापस लौटने लगी तब भी नदी का उफ़ान जोरों – शोरों पर था । व्यथित होकर वह वापस आकर आश्रम में बैठ गई । तब महर्षि ने वापस लौटने का कारण पूछा तो वह बोली – “ ऋषिवर ! नदी का उफान रुकने का नाम ही नहीं ले रहा । लगता है आज यही रुकना पड़ेगा ।”
 
इसपर महर्षि विश्वामित्र बोले – “हे देवी ! इसमें रुकने की कोई आवश्यकता नहीं । आप जाइये और संकल्प पूर्वक नदी से विनती कीजिये कि यदि मैं आजीवन ब्रह्मचारी महर्षि की सेवा में जा रही हूँ तो मुझे रास्ता प्रदान करें ।”
 
महर्षि के कहे अनुसार अरुन्धती ने विनती की और नदी ने रास्ता दे दिया । वह पूर्ववत अपने स्वामी के पास लौट गई ।
 
जब घर आकर उन्होंने से प्रार्थना के साथ किये गये संकल्पों पर विचार किया तो उनका माथा ठनका । उन्हें आश्चर्य हुआ कि “यदि मैं महर्षि विश्वामित्र को प्रतिदिन भोजन देकर आती हूँ तो फिर वह निराहारी कैसे हुए ? और जबकि मैं अपने पति के कई पुत्रों की माँ बन चुकी हूँ तो फिर ये ब्रह्मचारी कैसे ? वो भी आजीवन ?” अरुन्धती बहुत सोचने पर भी इस रहस्य को समझ नहीं पाई । अतः वह दोनों प्रश्न लेकर अपने पति महर्षि वशिष्ठ के पास गई और पूछने लगी ।
 
तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे देवी ! तुमने बड़ी ही सुन्दर जिज्ञासा व्यक्त की है । जिस तरह निष्काम भाव से किया गया कर्म मनुष्य को कर्मफल में नहीं बांधता । जिस तरह जल में खिलकर भी कमल सदा उससे दूर रहता है । उसी तरह जो तपस्वी केवल जीवन रक्षा के लिए भोजन ग्रहण करता है वह सदा ही निराहारी है और जो गृहस्थ लोक कल्याण के उद्देश्य से केवल पुत्र प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से अपनी पत्नी से सम्बन्ध स्थापित करता है, वह आजीवन ब्रह्मचारी ही है ।
 
अब अरुन्धती की शंका का समाधान हो चूका था ।
 
इस दृष्टान्त से हमें यह सीख मिलती है कि असल में कोई कर्म बुरा नहीं है बल्कि उस कर्म के प्रति आसक्ति बुरी है । जहाँ आसक्ति है वहाँ दुःख होगा और जहाँ दुःख है वहाँ बंधन निश्चित है ।

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17.3.25

काकुत्स्थ क्षत्रिय दर्जी समाज की उत्पत्ति और इतिहास | History of Kakutsth kshtriya darji community




काकुत्स्थ दर्जी समुदाय का इतिहास विडियो 


  भारत के विभिन्न हिस्सों और राज्यों में रहने वाले हिंदू दर्जी के  कुलों में काकुस्थ, दामोदर वंशी, देसाई ,टाँक , जूना गुजराती ,साई  सुथार ,सोरठिया शामिल हैं, (ये गुजरात , पंजाब , हरियाणा , दिल्ली एनसीआर , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र , छत्तीसगढ़ , ओडिशा और कर्नाटक में रह रहे हैं )। कर्नाटक में दारज़ी समुदाय को पिस्से, वेड, काकाडे और सन्यासी के नाम से जाना जाता है। ओडिशा में: महाराणा, महापात्र, जिन्हें उपनाम के रूप में भी उपयोग किया जाता है।
कोकुत्स्थ:- काकुत्स्थ क्षत्रिय समाज अपने आप को अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश से जोड़ते हैं एवं महाराज पुरंजय के वंशज मानते हैं। वे अपने आप को सूचीकार ( दर्जी) कहते हैं | इस समाज का वर्ण परिवर्तन के पीछे पौराणिक आख्यान लगभग छीपा समाज जैसा ही है। यह समाज भी संत नामदेव को अपने समाज का मानते हैं।
काकुत्स्थ एक वंश था और दर्जी एक समाज है
काकुत्स्थ, अयोध्या के सूर्यवंशी राजा थे.
वे विकुक्षि के पुत्र, इक्ष्वाकु के पौत्र, और वैवस्वत मनु के प्रपौत्र थे.
दशरथ, काकुत्स्थ के वंशज थे.
देवासुर संग्राम में इन्होंने वृषरूपधारी इंद्र के कुकुद् अर्थात्‌ डील (कूबड़) पर सवार होकर राक्षसों को पराजित किया था.
इनके पुत्र अनेना और पौत्र पृथु हुए.
कूर्म तथा मत्स्य पुराणों में इनके एक पुत्र का नाम सुयोधन भी दिया है.
दर्जी समाज
दर्जी समाज में कई उपजातियों का समावेश है, जैसे कि नामदेव, काकुसथ,  सक्सेना, श्रीवास्तव, टांक, टेलर, आदि.
दर्ज़ी शब्द का शाब्दिक अर्थ दर्जी का व्यवसाय है.
काकुस्थ दर्जी अपना गुरु नामदेव जी को मानते हैं जो महान संत हो चुके हैं| 
मुस्लिम दर्ज़ी बाइबिल और कुरान के पैगम्बरों में से एक इदरीस ( हनोक ) के वंशज होने का दावा करते हैं.
भारतीय (गुजरात और मुंबई) में दर्जी उपनाम मुख्य रूप से पारसी व्यावसायिक नाम है.
यह अंग्रेज़ी शब्द टेलर से लिया गया है.
सभी दर्जी उपजातियों  के एकीकरण की आज समय की जरूरत है| पीपावंशी दर्जी  काम तो सिलाई का करते हैं लेकिन क्षत्रित्व  का अहम उनसे छूटता नहीं है| वैसे दर्जी उपजातियों के इतिहास का गहराई से अन्वेषण करें तो  ज्ञात होगा कि  ज्यादातर  दर्जी उपजातियों  की गोत्र क्षत्रियों की है जैसे -राठौर ,सोलंकी,परमार,पँवार, सीसोदिया ,वागेला ,चौहान आदि |स्पष्ट है कि दर्जी समाज की उत्पत्ति  क्षत्रिय कुल से हुई है| 
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15.3.25

कोइरी जाति का गौरव शाली इतिहास /History of Koiri caste

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कोइरी (Koeri, Koiry or Koiri) भारत में पाया जाने वाला एक जाति समुदाय है. यह एक मूल निवासी क्षत्रिय जाति है. परंपरागत रूप से यह प्रभावशाली जाति है.आजादी के बाद बिहार, झाारखण्ड और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में राजनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं. इनमें से कई अब अपने परंपरागत व्यवसाय कृषि को छोड़कर व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, सेना और पुलिस सेवा आदि में कार्यरत हैं. इन्हें सेना में शामिल होकर देश की रक्षा करना बहुत पसंद है

कोइरी की उत्पत्ति कैसे हुई?

कोइरी भगवान राम के पुत्र कुश से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं. एक अन्य मान्यता के अनुसार, यह गौतम बुध के वंशज हैं. कोइरी समाज में कई प्रसिद्ध लोगों ने जन्म लिया है, जिनमें प्रमुख हैं- उपेन्द्र कुशवाहा, केशव प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, महाबली सिंह, सम्राट चौधरी, संघमित्रा मौर्या
स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबा सत्यनारायण मौर्य.

 कोइरी जाति के लोग, बिहार और उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से पाए जाते हैं.
  बिहार के कोइरी भारत की स्वतंत्रता से पहले कई किसानों के विद्रोह में भाग लेते थे। प्रसिद्ध चंपारण विद्रोह के दौरान चंपारण में वे किसी भी अन्य समुदाय की तुलना में अधिक थे। हालांकि मुख्य रूप से कृषक कोइरी लोगों का भारतीय सेना में व्यापक रूप से प्रतिनिधित्व है। भारतीय सेना की बिहार रेजिमेंट का गठन अन्य बिहारी समुदायों के लोगों के अलावा कोइरी जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है;भूमि सुधार के बाद के दौर में जब भूमिहीन दलितों के पक्ष में भूमि सीलिंग और भूमि अवाप्ति का मुद्दा चरम पर था, नक्सलियों की हिंसा को विफल करने के लिए और कुर्मियों (उत्तर भारत की एक कृषक जाति) के साथ-साथ अपनी भूमि को बचाने के उद्देश्य से कोईरिओ ने एक उग्रवादी संगठन का गठन किया जिसे भूमि सेना कहा जाता है, जो नालंदा और बिहार में जाति के अन्य गढ़ों के आसपास सक्रिय थी।भूमि सेना पर दलितों और कभी-कभी उच्च जातियों के खिलाफ अत्याचार में शामिल होने का आरोप लगाया गया था।
कोइरी लोग, भूमि अधिग्रहण करके, उन्नत कृषि तकनीक को अपनाकर, और राजनीतिक शक्ति हासिल करके कृषि समाज में उभरे हैं.
कोइरी लोग, व्यापार, शिक्षा, और दूसरे क्षेत्रों में भी सक्रिय हैं.
कोइरी लोग, पारंपरिक जजमानी प्रणाली को अस्वीकार करते हैं.
कोइरी लोग, अपने अनुष्ठानों के लिए कोइरी पुजारी को नियुक्त करते हैं.
कोइरी लोग, विधवा पुनर्विवाह को मंज़ूरी देते हैं.
स्वतंत्रता के बाद के भारत में, कोइरी को बिहार के चार ओबीसी समुदायों के समूह का हिस्सा होने के कारण उच्च पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिन्होंने समय के साथ भूमि अधिग्रहण किया, उन्नत कृषि तकनीक को अपनाया और भारत के कृषि समाज में उभरते कुलकों का एक वर्ग बनने के लिए राजनीतिक शक्ति प्राप्त की।

राजनीति

राजनीति के क्षेत्र में इनका वर्चस्व मुख्यता 1980 से शुरू हुआ परन्तु 1934 में, तीन मध्यवर्ती कृषि जातियों कोएरी , यादव और कुर्मीयो ने एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया, जिसे त्रिवेणी संघ कहा गया, जो कि लोकतांत्रिक राजनीति में सत्ता साझा करने की महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए थी, जिस पर तब तक उच्च जातियां हावी थी। नामकरण त्रिवेणी संगम से लिया गया था, जो तीन शक्तिशाली नदियों गंगा, यमुना और आदिम नदी सरस्वती के संगम है। । इस राजनीतिक मोर्चे से जुड़े नेता क्रमशः "चौधरी यदुनंदन प्रसाद मेहता" "सरदार जगदेव सिंह यादव"," और "डॉ। शिवपूजन सिंह" कोइरी , यादव और कुर्मीयो के जातिय नेता थे। त्रिवेणी संघ केवल एक राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य समाज के सभी रूढ़िवादी तत्वों को दूर करना था, जो उच्च जाति के जमींदारों और पुरोहित वर्ग द्वारा समर्थित थे। अरजक संघ संगठन भी इस क्षेत्र में सक्रिय था, जो इन मध्यवर्ती जातियों द्वारा बनाया गया था। । इसके अलावा, यदुनंदन प्रसाद मेहता और शिवपूजन सिंह ने भी प्रसिद्ध जनेऊ अंदोलन में भाग लिया था, जिसका उद्देश्य "पवित्र धागा" पहनने के लिए पुजारी वर्ग के एकाधिकार को तोड़ना था। "यदुनंदन प्रसाद मेहता" ने 1940 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की टिकट नीति को उजागर करने के लिए त्रिवेणी संघ का बिगुल नामक एक किताब भी लिखी थी, जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर पिछड़ों के खिलाफ भेदभाव करने का दावा किया। त्रिवेणी संघ के सदस्यों ने गांधीजी को भी आश्वस्त किया कि स्वतंत्रता की जड़ें समाज के बुद्धिजीवी और उच्च वर्ग के बजाय उनमें निहित हैं।
बाद में 1980 में ये तीन जातियां फिर से एक हुई और सफतापूर्वक राजनीति में अपना प्रभाव स्थापित किया।व्यक्तिगत टकराव की वजह से कोइरी कुर्मी जाति के नेता यादवों से अलग हुए और दो प्रमुख राजनीतिक दल जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल का निर्माण हुआ। .कोइरी जाति के नेता बी पी मौर्य उत्तर प्रदेश की राजनीति के पुरोधा रहे है।उन्हें अपनी जाति के साथ साथ दलित वर्ग का भी समर्थन प्राप्त था। बिहार के राजनीतिक इतिहास में बाबू जगदेव प्रसाद का भी खासा नाम रहा है जो कोइरी समुदाय से ही थे उन्हें बिहार के लेनिन के नाम से जाना जाता है। 

सामाजिक स्थिति

1896 में कोइरी की आबादी लगभग 1.75 मिलियन थी। वे बिहार में बहुत थे, और उत्तर पश्चिमी प्रांतों में भी पाए जाते थे। आनंद यांग द्वारा तैयार सारणीबद्ध आंकड़ों के अनुसार, 1872 और 1921 के बीच उन्होंने सारण जिले में लगभग 7% आबादी का प्रतिनिधित्व किया। बिहार के सारण जिले में आनंद यांग द्वारा किए गए ब्रिटिश राज के दौरान अध्ययन से पता चला कि कोइरी केवल राजपूतों और ब्राह्मणों के बाद प्रमुख भूस्वामियों में से थे। उनके अनुसार, राजपूत (24%), ब्राह्मण (11%) और कोइरी (9%) पासी और यादवों के लगभग बराबर, क्षेत्र पर काम करते थे। जबकि भूमिहार और कायस्थ जैसे अन्य लोग अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर काम करते थे। 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के बाद, कोइरी, कुर्मी और यादव जैसी मध्यम जातियों की पहली जीत जमींदारी प्रथा का उन्मूलन और भूमि की आकार को ठीक करना था। उच्च जाति खुद को जमींदार मानती थी और अपने विशाल क्षेत्रों में काम करना उनके लिए सम्मान की हानि थी। किसान जातियों में ऐसा कोई रूढ़िवादी नहीं था जिसके बजाय उन्होंने अपनी किसान पहचान पर गर्व किया। इन तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों ने धीरे-धीरे अपनी जमींदारी को बढ़ाया और उच्च जातियों की कीमत पर अन्य व्यवसायों में भी अपने पदचिन्हों को बढ़ाया। वे "'उच्च वर्गीय पिछड़े'" के रूप में माने जाते हैं, चूंकि वे यादव और कुर्मी जातियों के साथ बिहार की राजनीति में प्रमुख हैं। जमींदारी उन्मूलन के बाद, उन्होंने अपनी जमींदारी को भी बढ़ाया. वे बिहार राज्य के दो महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों यानी जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी में प्रमुख भूमिका में हैं।


कोइरी जाति की वर्तमान परिस्थिति

भारत सरकार के सकारात्मक भेदभाव की प्रणाली आरक्षण के अंतर्गत इन्हें बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. बिहार और उत्तर प्रदेश में इनकी बहुतायत आबादी है. बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में कोइरी समाज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आगरा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर तक फैला हुआ है. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, गाजीपुर, वाराणसी, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, मिर्जापुर, बस्ती, बलिया, महाराजगंज, प्रयागराज और कुशीनगर जिलों में इस समाज की अच्छी खासी आबादी है. इन क्षेत्रों में यह राजनीतिक रूप से मजबूत हैं और हार और जीत का निर्णय करते हैं. बिहार में इनकी अनुमानित आबादी 7-8% है. राज्य के लगभग हर जिले में इनकी अच्छी खासी आबादी है. राज्य में मुसलमानों (17%), दलितों (15%) और यादवों (14 %) के बाद यह चौथा सबसे बड़ा जाति समूह है. राजनीतिक जानकारों के अनुसार, बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 15 से 20 पर उनका दबदबा है.भारत के बाहर, मॉरीशस और नेपाल में भी इनकी महत्वपूर्ण आबादी है. अधिकांश कोइरी हिंदू धर्म का पालन करते हैं. यह हिंदी, भोजपुरी और नेपाली भाषा बोलते हैं. यह कई उपनाम का प्रयोग करते हैं. कोइरी समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला प्रमुख उपनाम है- शाक्य सैनी, मेहता, मौर्य, रेड्डी, महतो, वर्मा और कुशवाहा.
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*मंदिरों की बेहतरी हेतु डॉ आलोक का समर्पण भाग 1:-दूधाखेडी गांगासा,रामदेव निपानिया,कालेश्वर बनजारी,पंचमुखी व नवदुर्गा चंद्वासा ,भेरूजी हतई,खंडेराव आगर

*मंदिरों की बेहतरी के लिए डॉ आलोक का समर्पण खण्ड 7 गायत्री शक्ति पीठ खड़ावदा(मंदसौर),शिव हनुमान मंदिर लुका का खेडा,कायावर्नेश्वर महादेव मंदिर क्यासरा -डग,बैजनाथ शिवालयआगर-मालवा,हनुमान बगीची सुनेल,मोडी माताजी का मंदिर सीतामऊ,गायत्री शक्ति पीठ शामगढ़

जाति इतिहास : Dr.Aalok भाग २ :-कायस्थ ,खत्री ,रेबारी ,इदरीसी,गायरी,नाई,जैन ,बागरी ,आदिवासी ,भूमिहार

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*जाति इतिहास:Dr.Aalok: part 5:-जाट,सुतार ,कुम्हार,कोली ,नोनिया,गुर्जर,भील,बेलदार

*जाति इतिहास:Dr.Aalok भाग 4 :-सौंधीया राजपूत ,सुनार ,माली ,ढोली, दर्जी ,पाटीदार ,लोहार,मोची,कुरेशी

*मुक्ति धाम अंत्येष्टि स्थलों की बेहतरी हेतु डॉ.आलोक का समर्पण खण्ड १ :-सीतामऊ,नाहर गढ़,डग,मिश्रोली ,मल्हारगढ़ ,नारायण गढ़

*मुक्तिधाम की बेहतरी हेतु डॉ आलोक का समर्पण खण्ड 2 :-बगुनिया ,आगर मालवा ,बोलिया ,हतिनिया ,बाबुलदा 

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