26.9.25

मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर-सुवासरा में बेंच व्यवस्था से हर्ष : डॉ.आलोक का पावन दान

मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर-सुवासरा में बेंच व्यवस्था  विडियो 



 मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर  हेतु 

दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़  का 

नवरात्र  के पुनीत  उत्सव  पर 

सीमेंट बेंच का पावन दान 


 मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर
4 सिमेन्ट बेंच दान



समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

आद्यात्मिक दान-पथ

  साहित्य मनीषी  डॉ.दयाराम जी आलोक  राजस्थान और मध्यप्रदेश के 
मंदसौर,आगर नीमच ,झालावाड़ ,रतलाम और झाबुआ जिलों के  मंदिरों ,मुक्ति धाम और  गौशालाओं में निर्माण व विकास  हेतु नकद और  आगंतुकों के बैठने  हेतु  सीमेंट की बेंचें दान देने का अनुष्ठान संपन्न कर रहे हैं.
 डॉ.आलोक जी  एक  सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और वे अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने के संकल्प के साथ  आध्यात्मिक दान-पथ  पर अग्रसर हैं . 151 से अधिक संस्थानों में बैठक व्यवस्था उन्नत करने  हेतु  सीमेंट  बेंचें और रंग रोगन के लिए नकद दान के अनुष्ठान में  आपकी वो राशि भी शामिल है जो  google कंपनी से उनके ब्लॉग  और  You tube चैनल  से  प्राप्त होती  है| समायोजित दान राशि और सीमेंट बेंचें  पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं.

मंशापूर्ण बालाजी मंदिर  के शुभचिंतक -

मंशापूर्ण  बालाजी मंदिर समिति  ढोढर 

श्री मदन सिंग जी तंवर  ढोढर

डॉ.अनिल कुमार दामोदर s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852,,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656  द्वारा  मंशापूर्ण बालाजी मंदिर  ढोढर हेतु दान सम्पन्न २६/9/२०२५  

बाबा राम देव मंदिर सगोरिया जागीर में बेंच व्यवस्था से हर्ष :डॉ.अनिल दामोदर शामगढ़ का दान

 

                           

बाबा राम देव मंदिर सगोरिया में बेंच व्यवस्था का विडियो 


                                

बाबा रामदेव मंदिर सगोरिया -शामगढ़ हेतु 

दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़  का 

नवरात्र  के पुनीत  उत्सव  पर 

सीमेंट बेंच का पावन दान 



समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

आद्यात्मिक दान-पथ

  साहित्य मनीषी  डॉ.दयाराम जी आलोक  राजस्थान और मध्यप्रदेश के 
मंदसौर,आगर नीमच ,झालावाड़ ,रतलाम और झाबुआ जिलों के  मंदिरों ,मुक्ति धाम और  गौशालाओं में निर्माण व विकास  हेतु नकद और  आगंतुकों के बैठने  हेतु  सीमेंट की बेंचें दान देने का अनुष्ठान संपन्न कर रहे हैं.
 डॉ.आलोक जी  एक  सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और वे अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने के संकल्प के साथ  आध्यात्मिक दान-पथ  पर अग्रसर हैं . 151 से अधिक संस्थानों में बैठक व्यवस्था उन्नत करने  हेतु  सीमेंट  बेंचें और रंग रोगन के लिए नकद दान के अनुष्ठान में  आपकी वो राशि भी शामिल है जो  google कंपनी से उनके ब्लॉग  और  You tube पर विडियो से  प्राप्त होती  है| समायोजित दान राशि और सीमेंट बेंचें  पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं.
                                    


बाबा राम देव मंदिर सगोरिया जागीर हेतु 
 
4 बेंच दान 

बाबा राम देव मंदिर के शुभचिंतक -

श्री  राम सिंग जी  चौहान सरपंच  साहब 
श्री बालाराम जी सूर्यवंशी  सगोरिया 
श्री   नन्दलाल जी मेघवाल  सगोरिया 
श्री   कन्हैया लाल जी सूर्यवंशी  सगोरिया 

डॉ.अनिल कुमार दामोदर s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852,,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656  द्वारा बाबा राम देव मंदिर सगोरिया  हेतु दान सम्पन्न २६/9/२०२५  


23.9.25

राड़ी वाला बालाजी का मंदिर खडावदा में सीमेंट बेंच की व्यवस्था से हर्ष

 राड़ी वाला  बालाजी  का  मंदिर ,खडावदा-गरोठ को 

डॉ.दयाराम आलोक द्वारा  

४ सीमेंट बेंचें भेंट 


   राड़ी वाला  बालाजी  का  मंदिर खडावदा
4 सिमेन्ट बेंच दान



समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

आद्यात्मिक दान-पथ

  साहित्य मनीषी  डॉ.दयाराम जी आलोक  राजस्थान और मध्यप्रदेश के 
मंदसौर,आगर नीमच ,झालावाड़ ,रतलाम और झाबुआ जिलों के  मंदिरों ,मुक्ति धाम और  गौशालाओं में निर्माण व विकास  हेतु नकद और  आगंतुकों के बैठने  हेतु  सीमेंट की बेंचें दान देने का अनुष्ठान संपन्न कर रहे हैं.
 डॉ.आलोक जी  एक  सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और वे अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने के संकल्प के साथ  आध्यात्मिक दान-पथ  पर अग्रसर हैं . 151 से अधिक संस्थानों में बैठक व्यवस्था उन्नत करने  हेतु  सीमेंट  बेंचें और रंग रोगन के लिए नकद दान के अनुष्ठान में  आपकी वो राशि भी शामिल है जो  google कंपनी से उनके ब्लॉग  और  You tube  चैनल  से  प्राप्त होती  है| समायोजित दान राशि और सीमेंट बेंचें  पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं.

राडी वाले बालाजी के मंदिर में बेंच व्यवस्था का विडियो 



मंदिर के शुभचिंतक -

श्री राड़ी  वाला बालाजी मंदिर समिति ,खड़ावदा 

श्री बजरंग जी धाकड़  बड़ी देंथली 

डॉ. अनिल कुमार दामोदर s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852,,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656  द्वारा राडी वाला बालाजी मंदिर  खड़ा वदा हेतु दान सम्पन्न २३/9/२०२५ 

गोंड जनजाति का इतिहास और वर्तमान

 

मित्रों ,भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का प्रचलन वैदिक काल से भी पहिले से है ,गोंड जन जाति का इतिहास और वर्तमान स्थिति पर विमर्श  प्रस्तुत कर रहे हैं - 
  गोंड, भारत का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. ये संभवतः द्रविड़ मूल के हैं और आर्यन युग के पहले से भारत में रहते आए हैं. गोंड ( Gond) शब्द कोंड (Kond) से आया है जिसका अर्थ है हरे पहाड़. गोंड स्वयं को कोईतुर (Koitur) कहते हैं लेकिन अन्य लोग उन्हें गोंड कहते हैं क्योंकि वे हरे पहाड़ों में रहते थे.

                           


  गोंड या कोईतुर दक्षिण में गोदावरी घाटियों से लेकर उत्तर में विंध्य पर्वत तक बड़े क्षेत्रों में फैले हुए हैं. मध्य प्रदेश में, वे सदियों से अमरकंटक पर्वतमाला के नर्मदा क्षेत्र में विंध्य, सतपुड़ा और मंडला के घने जंगलों को आबाद किया. मध्य प्रांत को गोंडवाना कहा जाता था क्योंकि यहाँ गोंडों का शासन था.
मध्य प्रांत ( Central provinces ) ब्रिटिश भारत का एक प्रांत था. इसमें मध्य भारत के मुगलों और मराठों से ब्रिटिश द्वारा जीते गए इलाके थे, और वर्तमान मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र राज्यों के कुछ हिस्से शामिल थे. गोंडवाना में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के इलाके भी शामिल थे.




गोंडों का उल्लेख पहली बार 14वीं शताब्दी के मुस्लिम इतिहास में किया गया था। 14वीं से 18वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र पर शक्तिशाली गोंड राजवंशों का कब्जा था, जो मुगल काल के दौरान स्वतंत्र रहे या सहायक प्रमुखों के रूप में कार्य किया। जब 18वीं शताब्दी में गोंडों पर मराठों ने कब्ज़ा कर लिया, तो गोंडवाना का बड़ा हिस्सा नागपुर के भोंसले राजाओं या हैदराबाद के निज़ामों के प्रभुत्व में शामिल कर लिया गया। कई गोंडों ने अपेक्षाकृत दुर्गम ऊंचे इलाकों में शरण ली और आदिवासी हमलावर बन गए। 1818 और 1853 के बीच इस क्षेत्र का बड़ा हिस्सा ब्रिटिशों के पास चला गया, हालाँकि कुछ छोटे राज्यों में गोंड राजाओं ने 1947 में भारतीय स्वतंत्रता तक शासन करना जारी रखा।



जिसे हम आज ‘परधान गोंड कला’ के नाम से जानते हैं वह वर्षों से भित्तिचित्रों के माध्यम से गोंड आदिवासी घरों में प्रचलन में थी. वर्ष 1962 में मध्यप्रदेश के पाटनगढ़ गाँव में गोंड जनजाति में जन्मे जनगढ़ सिंह श्याम ने अपने इलाके से बाहर लेकर गए और देश-दुनिया में पहुँचाया. समकालीन गोंड कला के क्षेत्र में पद्मश्री दुर्गाबाई व्याम, पद्मश्री भज्जू श्याम और वेंकट रमण सिंह श्याम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. तीनों ही जनगढ़ सिंह श्याम को प्रेरणास्रोत मानते हैं
गोंड (Gond) भारत में पाया जाने वाला एक प्रमुख जातीय समुदाय है. इन्हें कोईतुर (Koitur) या गोंडी (Gondi) भी कहा जाता है. यह भारत के प्राचीनतम समुदायों में से एक है. यह कृषि, खेतिहर मजदूर, पशुपालन और पालकी ढोने का काम करते हैं.यह हिंदी,गोंडी, उड़िया, मराठी और स्थानीय भाषा बोलते हैं। गोंड्डों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से प्रसिद्ध है, जहां 15 वीं और 17 वीं शताब्दी राजगोंड राजवंशों का शासन था। आइए जानते हैं गोंड समाज का इतिहास, गोंड शब्द की उत्पति कैसे हुई?
गोंड जनजाति का इतिहास (Gond Tribes History):-
गोंड जनजाति बहुत ही प्राचीन जनजाति है। आर. बी. रसेल एवं हीरालाल के अनुसार 13 वी से 19 वी शताब्दी के बीच मध्य्रदेश के दक्षिणी एवं मध्य भागो में बसे हुए थे। ये लोग संभवतः पांचवीं - छठवीं शताब्दी में गोदावरी के तट पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों में फैल गई। छत्तीसगढ़ एवं मंडला क्षेत्रों में भी गोंड़ो का शासन हुआ करता था। 'गढ़ मंडला' के गोंड शासक संग्राम शाह तथा उनके पुत्र दलपत शाह भी इसी क्षेत्रों के प्रसिद्ध शासकों में से एक थे। दलपत शाह ने महोला के चंदेल राजा की पुत्री दुर्गावती से विवाह किया था



 जो कि रूपवती एवं बहादुर शासिका भी थी। इसने तो मुगल सम्राट अकबर से भी युद्ध किया था। गोंडवाना पर मुगलों एवं मराठों का भी शासन रहा था। गोंड लोगो को परिश्रमी, बहादुर योद्धा माना जाता है।



  गोंड़ जनजाति के प्रमुख देवी-देवता दुल्हादेव, बुढ़ादेव, ठाकुरदेव, बढ़ीमाई, बड़ापेन, आंगादेव, दंतेश्वरीमाई, नागदेव, नारायणदेव आदि है। इस जनजाति में परलौकिक शक्ति व आत्मावाद के रूप में बोंगादेव को मानते है। इन लोगो मे अपनी देवी देवताओ के प्रति अखण्ड विश्वास होती है।

गोंड़ जनजातियो मे विवाह संस्कार (Wedding Ceremony):-




इस जनजाति (God janjati in Hindi) मे कई प्रकार के विवाह प्रचलित है-

दूध लौटाव विवाह – इस विवाह में अपने मामा या फूफा के लड़के या लड़की से शादी करते है।
हल्दी सींचना –इस विवाह में लड़के और लड़की घर वालो की अनुमति न होने पर घर से भाग कर शादी करते है।
चूड़ी पहनना – इस विवाह में लड़की के पति के मरणोपरांत लड़की के देवर से उसकी शादी कर दी जाती है।
लमसेना विवाह (सेवा विवाह)- इस विवाह में वर अपने सास ससुर के घर जाकर रहते है एवं उनकी सेवा करते है उसके पश्चात दोनों की विवाह कर दी जाती है।



पठौनी विवाह – इस विवाह में वधु वर के घर बारात लेकर जाते है जिसमे वर पक्ष के द्वारा वधु के घर वालो को दाल, चांवल और बर्तन भेट स्वरुप दिया जाता है।
चढ़ विवाह – इस विवाह में वर वधु के घर बारात लेकर जाता है जिसमे वधु पक्ष के द्वारा वर के घर वालो को दाल, चांवल और बर्तन भेट स्वरुप दिया जाता है।
गोंड़ जनजाति के प्रमुख त्योहार(Festival of Gond Tribes):-
गोंड़ जनजाति के लोग हरेली, पोला, होली, नवाखानी, दशहरा और दीपावली आदि त्योहार मनाते है।
Disclaimer: इस विडियो में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे|

18.9.25

धानुक जाति की उत्पत्ति और इतिहास




    मित्रों ,भारत में जाती  व्यवस्था वैदिक काल से ही प्रचलन में हैं | विभिन्न हिन्दू जातियों के इतिहास  प्रस्तुत करने   के सिलसिले में आज धानुक जाती की उत्पत्ति ,इतिहास और वर्तमान की चर्चा कर रहे हैं 
   धानुक समाज का इतिहास धनुष चलाने वालों या धनुर्धरों के रूप में प्राचीन काल से जुड़ा है, जैसा कि नाम की उत्पत्ति 'धनुष' शब्द से हुई है. ऐतिहासिक रूप से, उन्हें राजा-महाराजाओं के काल में युद्ध में लड़ने वाले योद्धा माना जाता था, और उनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों जैसे 'पद्मावत' और 'दिल्ली सल्तनत' में भी मिलता है. और इनके वंशज राजा जनक जैसे पौराणिक पात्रों से माने जाते हैं। समय के साथ, सामाजिक परिवर्तनों के कारण, कुछ धानुक कपड़ा बनाने और बांस की टोकरी बुनने जैसे अन्य व्यवसायों से भी जुड़ गए. धानुक समाज भारत के अलावा नेपाल और बांग्लादेश में भी पाए जाते हैं.
  



धनुर्धर पूर्वज:

धानुक जाति का मूल नाम 'धानुक' है, जो 'धनुष' शब्द से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ धनुष चलाने वाला होता है। ये राजा-महाराजाओं के समय में एक वीर कौम के रूप में जाने जाते थे, जो अपनी धनुर्विद्या के लिए प्रसिद्ध थे।

पौराणिक संबंध:

धानुक जाति किसका वंशज है?
राजा शतधनु जो सत्ययुग में मिथिला के राजा थे उनके ही वंशज आगे जाकर त्रेता मे राजा जनक कहलाये। धानुक जाति के पूर्वज का नाम लेते समय धनका मुनि का नाम लिया जाता है। इस आधार पर ही यह माना जाता है कि धनक मुनि राजा जनक और धानुक जाति के पूर्वज थे .

साहित्य में उल्लेख:

धानुक जाति का उल्लेख प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' और आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव की 'दिल्ली सल्तनत' जैसी किताबों में इनका जिक्र है।

पहचान का संघर्ष:

समुदाय के सदस्यों का कहना है कि उन्हें अपनी ऐतिहासिक पहचान के बारे में सही जानकारी नहीं दी गई और इसलिए उन्होंने इसे खोजने की कोशिश नहीं की।

आजीविका:

वर्तमान में धानुक समाज के कई सदस्य खेत में नौकर के रूप में काम करके अपनी आजीविका कमाते हैं, या फिर शिक्षा और व्यावसायिक क्षेत्रों में आगे बढ़ रहे हैं।

क्या धानुक क्षत्रिय हैं?

नहीं, धानुक समाज को वर्तमान में सरकारी तौर पर क्षत्रिय नहीं माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से, धानुक जाति के लोग धनुष चलाने वाले योद्धाओं से जुड़े थे और उन्हें सम्मान मिलता था, लेकिन संघर्षों और आक्रमणों के बाद, उनकी भूमि, संपत्ति और प्रतिष्ठा खो गई और उन्हें क्षत्रिय से शूद्र या फिर अनुसूचित जातियों में शामिल कर दिया गया।
 इसके बाद, वे राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और बिहार जैसे विभिन्न राज्यों में फैल गए।

धानुक जाति के गुरु कौन हैं?



  जाती इतिहासकार डॉ .दयाराम आलोक के मतानुसार  धानुक जाति का कोई एक निश्चित 'गुरु' नहीं है, बल्कि कई सामाजिक और आध्यात्मिक हस्तियों को उनका गुरु माना जाता है। इनमें प्रमुख रूप से संत कबीर दास हैं, जिन्हें कई क्षेत्रों में धानुक समाज अपना गुरु मानता है, 
तथा संत सुपल भगत भी समाज के पूजनीय गुरु हैं। इसके अतिरिक्त, कुल देवता के रूप में महाराजा धनक पूजे जाते हैं, और भगवान शिव को धनुष-बाण प्रदान करने वाले मानते हैं।

कुलदेवता :


धानुक समाज के कुल देवता के रूप मे राघो बाबा, बाबा महतो साहेब, महाराजा धनक, ऋषि धनक पूजे जाते हैं।

धानुक जाति के गोत्र:-
धानुक समाज की विभिन्न गोत्र लिस्ट उपलब्ध हैं, लेकिन ये सभी व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त नहीं हैं और कुछ स्रोतों में विरोधाभास हो सकता है. मुख्य गोत्रों में कथरिया, इटकान, इंदौरा, नुगरिया, मावर, पचेरवाल, बागड़ी, बावलिया, बुमरा, लडवाल, कायथ, सुरलिया, बामनिया, खरेरा, धेधान, जाट, सोलिया, गुरैया, कटारिया, डाबला, खुन्डिया, चोरा, धलोड़, सिवान, भुर्तिया, होटला, सरोहा, खर्कता, सीलान, बरवाल, रंगबरा, तूर, खस, बोकड, और जारोलिया शामिल हैं. धानुक समाज के गोत्र प्रादेशिक होते हैं, जिसका अर्थ है कि यह जाति के गोत्र क्षेत्र के अनुसार बदलते रहते हैं.

आधुनिक स्थिति-

अनुसूचित जाति/जनजाति:

कुछ क्षेत्रों में, विशेषकर बिहार में इन्हें 'निचले पिछड़े' के रूप में वर्गीकृत किया गया है। अन्य राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, चंडीगढ़ और दिल्ली में इन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा मिला है।

राजनीतिक चेतना:


                             बिहार के शहीद रामफल मंडल 


  वर्तमान समय में धानुक समाज राजनीतिक रूप से सक्रिय है और अपनी पहचान तथा अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है, जिसमें बिहार के शहीद रामफल मंडल का भी योगदान है.
Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे|




12.9.25

तम्बोली -चौरसिया -कुमरावत जाति का उद्भव ,इतिहास और वर्तमान

 





  मित्रों, भारत में जाती व्यवस्था वैदिक युग से ही चली आ रही है . आज तम्बोली समाज के उद्भव और इतिहास  प्रस्तुत कर रहे हैं 
तंबोली समाज का इतिहास मुख्य रूप से उनके पारंपरिक व्यवसाय, पान और सुपारी की खेती व वितरण से जुड़ा है, जैसा कि 'तंबूल' (पान) शब्द से ही पता चलता है। वे मूल रूप से एक कृषि-आधारित व्यवसायिक समुदाय हैं जो भारत और बांग्लादेश सहित विभिन्न देशों में फैले हुए हैं। ऐतिहासिक रूप से, तंबोली या ताम्बुली भारत की विभिन्न जनगणनाओं में दर्ज किए गए हैं और इन्हें अक्सर शुद्ध शूद्र जातियों में शामिल किया जाता है। इस समुदाय में कुमरावत और चौरसिया जैसी कई उपजातियाँ हैं, और आज यह समाज सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए एकजुट होने का प्रयास कर रहा है। 

तंबोली समाज की उत्पत्ति संस्कृत के 'तांबूल' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ पान होता है, और यह समाज पारंपरिक रूप से पान और सुपारी के व्यवसाय से जुड़ा है। वर्तमान में, गुटखे और तंबाकू के बाज़ार में आ जाने के कारण यह पारंपरिक व्यवसाय लगभग समाप्त हो गया है। इसलिए, तंबोली समाज के अधिकांश लोग अब दूसरे व्यवसायों, जैसे हार्डवेयर की दुकानें, और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। 

उत्पत्ति और इतिहास
  • नाम की उत्पत्ति:तंबोली नाम 'तांबूल' (पान) शब्द से निकला है, क्योंकि यह समुदाय पान के पत्ते उगाने, पैक करने और बेचने के पारंपरिक काम से जुड़ा था। 
  • पारंपरिक व्यवसाय:तंबोली समाज का मुख्य पारंपरिक व्यवसाय पान के पत्ते और सुपारी का उत्पादन और व्यापार करना था। 
  • सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व:पान का हिन्दू पूजा-पाठ में विशेष स्थान है, और नाग पंचमी इस समुदाय का विशेष त्योहार माना जाता है। 
  • विभिन्न क्षेत्रों में उपस्थिति:तंबोली समुदाय के लोग भारत के विभिन्न राज्यों, जैसे महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। मुस्लिम तंबोली समुदाय भी भारत में पाया जाता है। 



  • आर्थिक सशक्तिकरण:समुदाय के मजबूत सदस्य अब हार्डवेयर की दुकानें खोलने और विभिन्न प्रकार के व्यापार करने के अलावा इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में भी काम कर रहे हैं।
वर्तमान स्थिति
  • परिवर्तनशील व्यवसाय:गुटखे और तंबाकू के बढ़ते चलन के कारण पान का पारंपरिक व्यवसाय अब बहुत कम हो गया है, जिससे समुदाय के लगभग 85% लोग दूसरे व्यवसायों में चले गए हैं। 
  • हैं। 
  • सामुदायिक प्रयास:

  • समुदाय अपने लोगों को एकजुट करने और पहचान की समस्याओं का समाधान करने के लिए 'सकल तंबोली समाज' और परिवार पत्रिकाएं तथा वेबसाइटों जैसे माध्यमों का उपयोग कर रहा है। 
  • सरकारी सहायता:तंबोली समुदाय को सरकारी विकास कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक सहायता मिल रही है, हालाँकि उन्हें पहचान साबित करने में कुछ समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। 
  • धार्मिक विविधता:

  • तंबोली समुदाय में लगभग 90% हिंदू हैं, लेकिन कुछ प्रतिशत मुस्लिम तंबोली भी हैं। 
कुलदेवी का विवरण -




तंबोली समाज की कुलदेवी के रूप में श्री नानादेवी माता की पूजा की जाती है, और यह कुलदेवी विशेष रूप से राजस्थान के बांसवाड़ा क्षेत्र में मनाई जाती है। कुछ जगहों पर तंबोली समाज के लोग चिति माता और कुंडलिनी माता को भी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। 
विवरण:
  • नानादेवी माता:

  • यह तंबोली समाज की सबसे प्रमुख कुलदेवी मानी जाती है, खासकर राजस्थान के बांसवाड़ा और आसपास के क्षेत्रों में इनकी पूजा होती है। बांसवाड़ा में इनके प्रसिद्ध मंदिर भी हैं, जहाँ समाज के लोग नियमित रूप से पूजा-अर्चना करते हैं। 
  • चिति माता और कुंडलिनी माता:कुछ अन्य तंबोली समाज के लोग चिति माता और कुंडलिनी माता को भी अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। 

  • चौरसिया नागवंशी तम्बोली समाज
  • वास्तविकता में चौरसियातम्बोली समाज की एक उपजाति हैं। तम्बोली शब्द की उत्पति संस्कृत शब्द "ताम्बुल" से हुई हैं जिसका अर्थ "पान" होता हैं। चौरसिया समाज के लोगो द्वारा नागदेव को अपना कुलदेव माना जाता हैं तथा चौरसिया समाज के लोगो को नागवंशी भी कहा जाता हैं।
तंबोली जाति के अंतर्गत निम्न उपजातियां आती हैं -
1. कुमरावत (सूर्यवंशी)
2. चौरसिया (चंद्रवंशी)
3. कुर्मी (यदुवंशी)
तम्बोली प्राय: निम्नांकित उपनाम लगाते हैं -
तंबोली, कुमरावत, चौरसिया, मोदी, सूर्यवंशी, यदुवंशी, भाना, तांबूलकर, बरई, बारी, बारुजीवी, राऊत, महोबिया, थवाईत, नागवंशी, नाग, पंसारी, जैसवाल, कटियार, भगत, मालवी, मरमट, मंडकरिया, आदि।
पान की कई प्रजातियाँ/वैराइटी हैं, जैसे - देसी, मीठा पत्ता (बंगला), बनारसी, मगही, मालवी, मद्रास, कपूरी, देसी, गंगेरी, नागर, साँची, मिठुआ, महोबा, सोफ़िया आदि प्रमुख हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पानवालों के आराध्य देव नाग माने जाते हैं। समुद्र मंथन के पश्चात् जो अमृत-कलश निकला था, उस अमृत-कलश के निकलने पर देवताओं और राक्षसों द्वारा छीना-झपटी कर प्राप्त करने की कोशिश में जो लार रूप में अमृत धरती पर गिरा था, उसे नाग ने ग्रहण किया था। यह नाग द्वारा संजोकर भी रखा गया था। यह अमृत कालांतर में पान बना, जिसे नाग ने अपने सिर पर धारण किया।
भगवान विष्णु द्वारा जब प्रथम महायज्ञ का आयोजन किया गया था, तो पूजन के लिए पान की आवश्यकता थी। पान को त्रैलोक्य में ढूंढा गया, लेकिन कहीं नहीं मिला। अंततः काफी प्रयास के पश्चात् वह पान का पौधा नाग के सिर पर उगा हुआ दिखाई दिया, जिसके पत्ते को यज्ञ के लिए ले जाया गया। कालांतर में इसे नागों को सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई।
इसे जम्बूदीप, रेवाखंड के सागर के किनारे लगाया गया।
जाती इतिहासकार डॉ.दयाराम आलोक का मत है कि पान की पवित्रता और अति शुद्धता को देखते हुए नागों ने इसकी रक्षा का दायित्व ऋषि-मुनियों को दिया। ऋषि-मुनियों ने इसका दायित्व तम्बोली जाति को दे दिया। तब से तम्बोली जाति के लोग पान की खेती लगातार करते आ रहे हैं।
पान को परम पवित्र पौधा माना जाता है, जिसके पत्ते तो होते हैं, लेकिन फल एवं फूल आज तक किसी ने नहीं देखा है।
नागमंचमी के दिन तम्बोली समाज नाग की पूजा कर अपने आराध्यदेव से अपने जीवन की खुशहाली के लिए तथा पान की लहलहाती खेती के लिए प्रार्थना करते हैं।


नाग भगवान शंकर के अंग आभूषण हैं। नागपंचमी के दिन शिवजी के साथ ही नागों की पूजा की जाती है। नाग पंचमी श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है।
इस पर्व के प्रभाव से जन्म-मृत्यु व सर्प भय नहीं रहता। नाग पंचमी के पर्व का सीधा संबंध उस नाग पूजा से भी है जो शेषनाग भगवान शंकर और भगवान विष्णु की सेवा में भी लगे हैं।



पौराणिक कथाओं के अनुसार विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर विश्राम करते हैं। शेषनाग ही राम अवतार में लक्ष्मण व कृष्ण अवतार में बलराम के रूप में अवतरित
सुमेरु मोहनजोदड़ो हड़प्पा और सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष साक्षी हैं कि नागों के पूजन की परंपरा आदि काल से प्रचलित है।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा कालिया मर्दन लीला


मान्यता है कि नाग पंचमी के दिन भगवान श्री कृष्ण द्वारा कालिया मर्दन लीला हुई थी।
नाग जाति का वैदिक युग में बहुत लंबा इतिहास रहा है जो भारत से लेकर चीन तक फैला है। चीन में आज भी ड्रेगन यानी नाग की पूजा होती है। चीन का राष्ट्रीय चिन्ह भी यही ड्रैगन है।