22.12.25

सैनी जाति की उत्पत्ति और इतिहास की जानकारी

 


सैनी जाति का इतिहास : सैनी जाति प्राचीन सनातनी जाती है , इस जाति में शूरवीर योद्धाओं ने जन्म लिया और इस जाति का संबंध भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण है 
सैनी उत्तर भारत में पाई जाने वाली एक क्षत्रिय जाति है. सैनी जाति का इतिहास गौरवशाली, महान और प्राचीन है. स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता मिलने के बाद देश के निर्माण में सैनी समाज का योगदान सराहनीय रहा है. यह परंपरागत रूप से जमींदार और किसान थे. एक वैधानिक कृषि जनजाति और एक निर्दिष्ट मार्शल रेस के रूप में सैनी मुख्य रूप से कृषि और सैन्य सेवाओं में लगे हुए थे. आजादी के बाद उन्होंने विविध प्रकार के नौकरी, पेशा और रोजगार में शामिल होने लगे . अंग्रेजों ने विभिन्न जिलों में कुछ सैनी जमींदारों को जैलदार या राजस्व संग्राहक (Revenue Collector) के रूप में नियुक्त किया था. आइए जानते हैं सैनी जाति का इतिहास सैनी शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई?
सैनी जाति: 
कृषि, परंपरा व गौरवशाली इतिहास का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि यह समुदाय केवल भूमि और कृषि से ही नहीं, बल्कि अपने गौरवशाली अतीत, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक विरासत से भी पहचाना जाता है। सैनी समुदाय का इतिहास भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। यह जाति पारंपरिक रूप से भूमि-स्वामी, कृषक और बागवानी में दक्ष रही है। इनकी जड़ें प्राचीन काल में यदुवंशी क्षत्रियों से जुड़ी मानी जाती हैं और समय के साथ इन्होंने समाज को कृषि, सेना, स्वतंत्रता आंदोलन और शिक्षा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में योगदान देकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
पौराणिक और ऐतिहासिक उत्पत्ति-
सैनी जाति की उत्पत्ति का संबंध प्राचीन यदुवंशी क्षत्रियों और महाराज शूरसेन से माना जाता है। सैनी समुदाय स्वयं को “शूरसैनी” वंश का उत्तराधिकारी मानता है। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार, ब्रिटिश शासनकाल में सैनी जाति को कृषक और मार्शल रेस की श्रेणी में मान्यता प्राप्त थी। ब्रिटिश भारत के Punjab District Gazetteers और Imperial Gazetteer of India में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि सैनी समुदाय पारंपरिक रूप से कृषि और बागवानी में दक्ष था और युद्ध क्षेत्र में भी सक्षम माना जाता था। इन दस्तावेज़ों में सैनी जाति को न केवल भूमि-स्वामी और कृषक के रूप में प्रमाणित किया गया है, बल्कि उनकी सामाजिक संरचना और सामुदायिक भूमिका को भी दर्ज किया गया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सैनी जाति का गौरवशाली इतिहास ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और सामुदायिक परंपराओं दोनों पर आधारित है। पौराणिक रूप से यदुवंशी और शूरसेन वंश से जुड़ा होना समुदाय की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है, जबकि ब्रिटिश और आधुनिक दस्तावेज़ इसकी ऐतिहासिक भूमिका और सामाजिक योगदान को प्रमाणित करते हैं।
कृषि और बागवानी परंपरा-
सैनी समुदाय की सबसे बड़ी पहचान उनकी कृषि और बागवानी में विशेषज्ञता रही है। उत्तर भारत की उपजाऊ भूमि पर इस जाति ने धान, गेहूं, मक्का, गन्ना, मूंगफली और सब्जियों जैसी अनेक फसलें उगाईं। इसके अलावा फलों की खेती, विशेषकर बागवानी में इनकी खासी दक्षता रही है। यही कारण है कि कई क्षेत्रों में सैनी बागवानी और फलोत्पादन के अग्रणी माने जाते हैं।
ग्रामीण भारत में जब हरित क्रांति का दौर आया, तब सैनी किसानों ने नई कृषि तकनीकों को अपनाकर उत्पादन में वृद्धि की। आधुनिक खेती, सिंचाई और उन्नत बीजों का प्रयोग करने में इस समाज ने हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई। इस प्रकार, सैनी समुदाय ने न केवल अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भौगोलिक वितरणआज सैनी जाति मुख्य रूप से उत्तर भारत के कई राज्यों में पाई जाती है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली और राजस्थान में इनकी बड़ी आबादी है। पंजाब और हरियाणा में यह जाति विशेष रूप से किसानों और सैनिकों के रूप में प्रसिद्ध है, जबकि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी यह समुदाय कृषि और राजनीति में सक्रिय योगदान दे रहा है।
समय के साथ यह समुदाय शहरी क्षेत्रों की ओर भी बढ़ा है। अब कई सैनी परिवार शिक्षा, व्यवसाय, उद्योग और प्रशासनिक सेवाओं में भी उल्लेखनीय स्थान बना चुके हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान-
सैनी जाति केवल कृषि तक सीमित नहीं रही, बल्कि समाज के निर्माण में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। गाँव स्तर पर पंचायत व्यवस्था, सामुदायिक मेलों और धार्मिक उत्सवों में इस समुदाय का संगठन हमेशा मजबूत रहा है।
सामाजिक योगदान के मुख्य बिंदु:गाँव और समाज में एकजुटता बनाए रखना
शिक्षा और सामाजिक सुधार आंदोलनों में भागीदारी
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
सेना और सुरक्षा बलों में सेवा
राजनीति और प्रशासन में सक्रिय उपस्थिति परंपराएँ और धार्मिक विश्वाससैनी जाति की परंपराएँ भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ी हुई हैं। यह समुदाय देवी-देवताओं की पूजा में गहरा विश्वास रखता है। नाग माता, शीतला माता, चामुंडा माता, जगदम्बा माता आदि की पूजा कई सैनी परिवारों में प्रचलित है।
गोत्र व्यवस्था भी सैनी समाज में महत्वपूर्ण है। विवाह और सामाजिक रिश्तों में गोत्र का विशेष महत्व होता है। इस परंपरा से न केवल सामाजिक अनुशासन बना रहता है बल्कि समुदाय की सांस्कृतिक एकता भी मजबूत होती है।

सैनी किस कैटेगरी में आते हैं?
सैनी जाति को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है. इन राज्यों में इन्हें ओबीसी कोटे के तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ मिलता है.
आधुनिक पहचान और शिक्षा-
आज के दौर में सैनी समुदाय कृषि के साथ-साथ शिक्षा और व्यवसाय में भी आगे बढ़ रहा है। स्वतंत्र भारत में इस जाति को कई राज्यों में “अन्य पिछड़ा वर्ग” (OBC) की श्रेणी में शामिल किया गया, जिससे इन्हें शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि सैनी समाज के कई युवा उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्रशासनिक सेवाओं, राजनीति, सेना, पुलिस, शिक्षा, व्यापार और आईटी जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़े।
सैनी जाति और राजनीति
कई दशकों में सैनी समाज ने राजनीति में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। पंचायत स्तर से लेकर राज्य और केंद्र स्तर तक इस जाति के लोग सक्रिय रहे हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कई सैनी नेता राजनीति में मजबूत भूमिका निभा चुके हैं। इससे न केवल इस समाज की सामाजिक पहचान मजबूत हुई, बल्कि इनके मुद्दों को सरकार तक पहुँचाने का रास्ता भी खुला।
सैनी किस धर्म को मानते हैं?-
सैनी हिंदू और सिख दोनों धर्मों को मानते हैं, लेकिन दोनों एक दूसरे की धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं का सम्मान करते हैं. यहां यह बता देना जरूरी है कि अधिकांश सैनी हिंदू हैं जिन्हें अपने वैदिक सनातनी अतीत और परंपराओं पर गर्व है.
15वीं सदी में सिख धर्म के उद्भव के साथ कई सैनियों ने सिख धर्म अपना लिया. आज पंजाब में सिख सैनियों की बड़ी आबादी है. हिंदू और सिख सैनियों में सीमांकन की रेखा बहुत धुंधली है. यह आपस में सहजता से अंतर विवाह करते हैं.

सैनी  के उप कुल-
सैनी समुदाय में कई उप कुल हैं। आम तौर पर सबसे आम हैं: हल्दोनिया(भागीरथी), कारोड़िया, सिंगोदिया, अन्हेआर्यन, कोड़ेवाल, कछवाहा,बिम्ब (बिम्भ), घाटावाल, रोष, बदवाल,बलोरिया, बंवैत (बनैत), बागड़ी, बंगा, बसुता (बसोत्रा), बाउंसर, बाण्डे,भेला, बोला, भोंडी (बोंडी), मुंध.चेर,चेपरू(चौपर), चंदेल, चिलना, दौले (दोल्ल), दौरका, धक, धम्रैत, धनोटा (धनोत्रा), धौल, धेरी, धूरे, दुल्कू, दोकल, फराड, महेरू, मुंढ (मूंदड़ा) मंगर, मंगोल ,मांगियान ,मसुटा (मसोत्रा), मेहिंद्वान, गेहलेन (गहलोत/गिल), गहिर (गिहिर), गहुनिया (गहून/गहन), गिर्ण, गिद्दा, जदोरे, जादम, जप्रा, जगैत (जग्गी), जंगलिया, कल्याणी, कालियान,कलोती (कलोतिया), कबेरवल (कबाड़वाल), खर्गल, खेरू, खुठे, कुहडा (कुहर), लोंगिया (लोंगिये), सतरावला,सागर, सहनान (शनन), सलारिया (सलेहरी), सूजी, ननुआ (ननुअन), नरु, पाबला, पवन, पीपल, पम्मा (पम्मा/पामा), पंग्लिया, पंतालिया, पर्तोला, तम्बर (तुम्बर/तंवर/तोमर), गागिंया,थिंड, टौंक (टोंक/टांक/टौंक/टक), तोगर ,(तोगड़/टग्गर), उग्रे,अम्बवाल(अम्बियांन), वैद, तुसड़िये, तोंदवाल, टोंडमनिहारिये, रोहलियान, गदरियांन, भोजियान विरखेडिया, भगीरथ ,राज़ोरिया ,अनिजरिया ,खेड़ीवाल बबेरवाल हल्दोनिया आदि.।

15.11.25

ऋषि दधीचि और राजा क्षुव की पौराणिक कथा, जब विष्णु से किया दधीचि ने युद्ध



           ऋषि  दधीचि और राजा क्षुव की पौराणिक कथा, जब विष्णु से किया दधीचि ने युद्ध
प्राचीन काल में, ऋषि दधीचि और राजा क्षुव के बीच गहरी मित्रता थी। दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे और उनके बीच विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था। दधीचि एक विद्वान ब्राह्मण थे, जिनकी तपस्या और ज्ञान की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। दूसरी ओर, क्षुव एक शक्तिशाली क्षत्रिय राजा थे, जो अपने युद्ध कौशल और धर्मनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी मित्रता इतनी गहरी थी कि लोग उन्हें एक-दूसरे का पूरक मानते थे।
विवाद का आरंभ :
एक दिन, दोनों मित्रों के बीच एक गहन चर्चा शुरू हुई कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में से कौन श्रेष्ठ है। दधीचि ने ब्राह्मणों की विद्या, तप और आध्यात्मिक शक्ति की प्रशंसा की, जबकि क्षुव ने क्षत्रियों के साहस, शौर्य और धर्मरक्षा के गुणों को सर्वोपरि बताया। दोनों अपने-अपने वर्ण के प्रति इतने अनुरक्त थे कि यह चर्चा धीरे-धीरे तीखी बहस में बदल गई। क्रोध में आकर, क्षुव ने इंद्र से उनका वज्र मांग लिया। यह वज्र विश्वकर्मा द्वारा सूर्य की अतिरिक्त ऊर्जा से निर्मित था और ब्रह्मांड की किसी भी वस्तु को नष्ट करने की शक्ति रखता था।
दधीचि की मृत्यु और पुर्नजन्म :
क्रोध में अंधे होकर, क्षुव ने दधीचि पर वज्र से प्रहार कर दिया। वज्र की प्रचंड शक्ति ने दधीचि के शरीर को भस्म कर दिया, और उनकी मृत्यु हो गई। क्षुव इस विजय से प्रसन्न होकर लौट गया, यह सोचकर कि क्षत्रिय ने ब्राह्मण को परास्त कर दिया। लेकिन असुरों के गुरु शुक्राचार्य, जिन्होंने भगवान शंकर की हजारों वर्षों की तपस्या कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की थी, को दधीचि की मृत्यु का समाचार मिला। वे तुरंत दधीचि के आश्रम पहुंचे और मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा उनके शरीर में पुनः प्राण फूंक दिए।
जब दधीचि को होश आया, वे आश्चर्यचकित हुए और शुक्राचार्य से पूछा, यह चमत्कार कैसे संभव हुआ? शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, महादेव की कृपा से कुछ भी असंभव नहीं। जैसे उन्होंने मार्कण्डेय को यमराज से बचाया, वैसे ही मुझे यह विद्या प्रदान की।
दधीचि की तपस्या और वरदान :
हालांकि दधीचि का शरीर पुनर्जनन हो गया, उनकी आत्मा अभी भी क्षुव के अपमान से व्यथित थी। शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में, उन्होंने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या शुरू की। वर्षों की कठिन तपस्या के बाद, भगवान शंकर प्रसन्न हुए और दधीचि को दर्शन दिए। दधीचि ने तीन वरदान मांगे।
पहला – मेरी हड्डियों को इंद्र के वज्र से भी अधिक शक्तिशाली बनाएं। 
दूसरा – कोई भी मेरी हत्या न कर सके।
 तीसरा -मैं कभी अपमानित न होऊं, जैसा क्षुव ने मुझे अपमानित किया। भगवान शंकर ने तीनों वरदान स्वीकार किए।
दधीचि का प्रतिशोध :
वरदानों से शक्तिशाली बने दधीचि, क्षुव के महल में पहुंचे और क्रोध में राजा को लात मारी। दधीचि को जीवित देखकर क्षुव स्तब्ध रह गया। उसने पुनः वज्र का प्रयोग किया, लेकिन इस बार वज्र का दधीचि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दधीचि ने हंसते हुए कहा, महादेव ने मुझे अजेय बना दिया है। अब कोई मुझे परास्त नहीं कर सकता।
भगवान विष्णु का हस्तक्षेप :
क्षुव ने भगवान विष्णु का आह्वान किया, यह सोचकर कि केवल वे ही दधीचि को रोक सकते हैं। लेकिन जब विष्णु को पता चला कि दधीचि को स्वयं भगवान शंकर ने वरदान दिया है, उन्होंने क्षुव को सलाह दी, ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही विश्व की व्यवस्था के लिए आवश्यक हैं। दोनों में कोई छोटा-बड़ा नहीं। युद्ध विराम करो।
लेकिन दधीचि ने अहंकारवश विष्णु की बात को ठुकरा दिया और कहा, महादेव के वरदान ने मुझे अजेय बना दिया है। मैं किसी से नहीं डरता।
विष्णु समझ गए कि दधीचि का अहंकार सृष्टि के लिए खतरा बन सकता है। उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया, लेकिन वह भी दधीचि की त्वचा को खरोंच तक न सका। विष्णु ने एक के बाद एक कई दिव्यास्त्रों का उपयोग किया, परंतु सभी निष्फल रहे
दधीचि की शक्ति और विश्वरूप :
क्रोधित दधीचि ने एक मुट्ठी घास उठाई और उसे देवताओं की ओर फेंका। प्रत्येक घास का तिनका त्रिशूल में परिवर्तित हो गया, जो देवताओं को नष्ट करने को तत्पर था। विष्णु ने अपने कई रूप बनाए, लेकिन दधीचि ने उन्हें भी परास्त कर दिया। अंत में, विष्णु ने अपना विश्वरूप प्रकट किया, जिसमें समस्त ब्रह्मांड समाहित था। अनंत प्राणी, आयाम और संभावनाएं उस दृश्य में निहित थीं। सारा ब्रह्मांड उस दृश्य के सामने नतमस्तक हो गया, लेकिन दधीचि पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कहा, प्रभु, यह आपकी माया है। यह मुझ पर हावी नहीं हो सकती।
ब्रह्मा का हस्तक्षेप और समाधान :
अंत में, ब्रह्मा प्रकट हुए और क्षुव को दधीचि से क्षमा मांगने को कहा। दधीचि ने क्षमा तो दे दी, लेकिन उन्होंने सभी देवताओं को शाप दिया, एक समय आएगा जब आपको भगवान शंकर के क्रोध का सामना करना पड़ेगा। यह कहकर दधीचि चले गए।
दधीचि की यह कथा हमें सिखाती है कि अहंकार, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, सृष्टि की व्यवस्था को बिगाड़ सकता है। ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों ही समाज के लिए आवश्यक हैं, और उनकी एकता ही विश्व की उन्नति का आधार है। दधीचि का शाप देवताओं के कानों में गूंजता रहा, और वे सोच में पड़ गए कि आखिर ऐसा क्या होगा जो भगवान शंकर के क्रोध को भड़काएगा। यह रहस्य समय के गर्भ में छिपा रहा।
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दुर्योधन और पांच सोने के तीर:महाभारत की कहानी

 पौराणिक कथाओं  पर आधारित  कथाओं  के विडिओ  की शृंखला मे आज  की प्रस्तुति है -

दुर्योधन और पांच सोने के तीर






    महाभारत की कहानी दुर्योधन और पांच सोने के तीर एक शिक्षाप्रद कहानी है। महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म का युद्ध था। कृष्ण पांडवों के पक्ष से थे। परंतु, उन्होंने युद्ध में शस्त्र नही उठाने का निर्णय लिया था। वहीं श्रीकृष्ण की नारायणी सेना कौरवों की ओर से लड़ रही थी। युद्ध में कभी कौरवों का तो कभी पांडवों का पलड़ा भारी लगता। महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर श्रीकृष्ण ने प्रत्यक्ष रूप से शस्त्र नहीं उठाएं लेकिन अर्जुन का सारथी बनकर श्रीकृष्ण युद्ध भूमि में अर्जुन का मार्गदर्शन करते रहे। द्रौपदी के भाई, दृष्टद्युम्न पांडवों के सेनापति थे। वहीं, कौरवों के तरफ से गंगा पुत्र भीष्म सेनापति थे। उनके नेतृत्व में युद्ध लड़ा जा रहा था। कौरव दल पूर्ण बल से युद्ध करने के बाद भी पांच पांडव में से किसी का भी बाल भी बांका न कर पा रहा था।

दुर्योधन को हुआ भीष्म पितामह पर संदेह

कौरवों के प्रधान सेनापति भीष्म 10 दिनों तक पांडव सेना पर भारी पड़े थे। प्रतिदिन भीष्म हजारो सैनिकों को मार रहे थे। परंतु, दुर्योधन भीष्म पितामह पर कहीं न कहीं संदेह कर रहा था। उसे लग रहा था कि पितामह भीष्म जान बूझकर पांडवों का साथ देते हैं और उन्हें मारना नहीं चाहते। यही सोचकर एक रात दुर्योधन भीष्म से सीधे बात करने के लिए उनके पास शिविर में पंहुचा। जब दुर्योधन भीष्म के शिविर में पंहुचा तो देखा भीष्म चिंतनशील होकर शिविर में बैठे थे। यूं आधी रात को दुर्योधन को अपने शिविर में प्रवेश करते देख भीष्म हैरान हुए। उन्होंने दुर्योधन से शिविर में आने का कारण पूछा।

 पितामह भीष्म जान बूझकर पांडवों का साथ देते हैं और उन्हें मारना नहीं चाहते। यही सोचकर एक रात दुर्योधन भीष्म से सीधे बात करने के लिए उनके पास शिविर में पंहुचा। जब दुर्योधन भीष्म के शिविर में पंहुचा तो देखा भीष्म चिंतनशील होकर शिविर में बैठे थे। यूं आधी रात को दुर्योधन को अपने शिविर में प्रवेश करते देख भीष्म हैरान हुए। उन्होंने दुर्योधन से शिविर में आने का कारण पूछा।

भीष्म की कर्तव्यनिष्ठा पर उठे प्रश्न

दुर्योधन ने गुस्से में कहा “पितामह! आपके मोह पूर्ण अन्याय के कारण मैं आधी रात को आपके शिविर में आने के लिए विवश हुआ हूं। आप अगर पूरी कर्तव्यनिष्ठा और मोहरहित होकर पांडवों के साथ युद्ध करते, तो शायद मुझे यहां आने की आवश्यकता नहीं पड़ती। युद्ध शुरू हुए 10 दिन बीत चुके हैं लेकिन आप अभी तक पांडवों को पराजित नहीं कर पाए हैं। आप संसार को दिखाने के लिए युद्ध का अभिनय कर रहे हैं। आपको आज भी पांडवों से अति प्रेम करते है और आप मेरे सेनापति होते हुए भी पांडवों को युद्ध जीतते देखना चाहते हैं।” अपने बारे में दुर्योधन के मुख से ऐसी बात सुनकर पितामह भीष्म बहुत दुखी हुए।

पांडवों को मारने के लिए भीष्म  के पाँच सोने के तीर  

दुर्योधन के मुख से कटु वचन सुनकर भीष्म ने दुर्योधन से पूछा, “तुम क्या चाहते हो पुत्र दुर्योधन ?” दुर्योधन ने कहा, ” पांडवों की मृत्यु और इसके लिए आपको अपनी दिव्य शक्तियों का प्रयोग करना होगा।” पितामह भीष्म ने अपनी शस्त्र विद्या का प्रयोग करते हुए सोने के पांच अचूक तीर निकाले और इसे अभिमंत्रित करके बोले- “दुर्योधन! तुम व्यर्थ में संदेह करते हो। इन बाणों से कोई नहीं बच सकता। कल का दिन युद्ध का अंतिम दिन होगा। एक ही दिन में पांचों पांडवों को इन बाणों से समाप्त कर दूंगा। फिर पांडवों के मरते हुए युद्ध का परिणाम तुम्हारे पक्ष में होगा।” पितामह भीष्म की बात सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हुआ लेकिन अगले ही क्षण उसके मन में पितामह भीष्म के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया।

दुर्योधन की चालाकी 

कपटी दुर्योधन  भीष्म की बातों को सुनकर प्रसन्न तो हुआ। परंतु, अब दुर्योधन को भीष्म की बातों में भी छल-कपट दिखने लगे। दुर्योधन ने भीष्म से कहा- “पितामह! आपकी योजना बहुत अच्छी है। किन्तु, मुझे फिर भी संदेह हो रहा है कि आप इतनी जल्दी और आसानी से पांडवों को मारेंगे। हो सकता है आप मोहवश या प्रेमवश उन्हें ना मार पाएं। अतः आप इन बाणों को मुझे दे दें। मैं युद्ध भूमि में आपको ये पाँचों बाण दूंगा और आपको आपके कर्तव्य की याद दिलाऊंगा। तब आप पांडवों का वध मेरे सामने कीजियेगा।” दुर्योधन की बात सुनकर पितामह भीष्म ने पांचों अभिमंत्रित बाण दुर्योधन को दे दिए। दुर्योधन अपनी संभावित जीत पर बहुत खुश था। वह बाण लेकर अपने शिविर में चला गया।

पांडवों को जब पता चला

भीष्म के शिविर के पास पहरा दे रहे पांडवों के एक गुप्तचर ने सारी बातें सुन ली। उसने महाराज युधिष्ठिर को आकर सोने के बाण के बारे में सूचना दी। तब भगवान श्री कृष्ण भी वहीं थे। युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से कहा, “हे गोविंद! पितामह के इन तीरों के प्रतिकार हम कैसे करें?” इस बात को सुनकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर संग तुंरत ही अर्जुन के शिविर में पहुंचे और अर्जुन को पूरी घटना बताई। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि “पार्थ! तुम्हे दुर्योधन से उन पांचों बाणों को माँगना होगा।” श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन ने अचंभित हो कर पूछा, “दुर्योधन भला वो तीर मुझे क्यों देगा?” तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्मरण दिलाया कि, ‘एक बार अर्जुन ने दुर्योधन को यक्ष और गंधर्वो के हमले से बचाया था।’

अर्जुन पहुंचा दुर्योधन के पास

‘तब दुर्योधन ने प्रसन्न होकर अर्जुन से कहा था कि “वो कोई भी कीमती चीज दुर्योधन से मांग सकता है।” उस दिन अर्जुन ने बात को टालते हुए दुर्योधन से कुछ नहीं मांगा था। अब वो समय आ गया है।’ अर्जुन को श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब स्मरण आ गया। युधिष्ठिर की आज्ञा से अर्जुन दुर्योधन के शिविर में पहुंचे। दुर्योधन अचानक अर्जुन को अपने शिविर में देखकर शशंकित हुआ। अपनी शंका को छुपाते हुए जोर जोर से हंसते हुए दुर्योधन ने अर्जुन से कहा, “आओ अर्जुन आओ! क्षमा मांगने आये हो क्या? तुम्हारे प्रिय पितामह ने जो तुम्हारी सेना के साथ किया उससे भयभीत हो क्या? इस रात्रि में आने का क्या कारण है? बताओ क्या सहायता मांगने आये हो?”

दुर्योधन का वचन 

अर्जुन ने कहा, “भ्राता दुर्योधन! प्राणिपाद! सही समझा अपने मैं आपसे याचना करने ही आया हूँ। परंतु, मेरे मांगने से पहले ही आप उसे देने के लिए विवश है।” दुर्योधन हंसता हुआ बोला, “मैं विवश हूँ अर्जुन? याचक विवश होता है, दाता नही। परंतु, कोई बात नही अबोध अर्जुन! तुम मांगो!” अर्जुन ने दुर्योधन से वह पांच बाण मांगे लेकिन दुर्योधन ने अर्जुन को मना कर दिया। तब अर्जुन ने दुर्योधन को क्षत्रिय धर्म स्मरण कराते हुए उस घटना को बताया। कैसे अपनी प्राण रक्षा के बदले दुर्योधन ने अर्जुन को कोई भी बहुमूल्य वस्तु देने का वचन दिया था? दुर्योधन ने अर्जुन से कहा, “तुम कुछ और मांग लो। मैं यह नही दे सकता।”

दुर्योधन का क्षत्रिय धर्म 

तब अर्जुन ने कहा, “यदि आप अपने वचन को पूरा नही करना चाहते, तो कोई बात नही भ्राता। अब आपके पास कुछ बहुमूल्य है भी तो नही जो मांगा जाए। सामर्थ्य के अभाव में आपको पितामह के बाणों की आवश्यकता भी है। ठीक है! मैं चलता हूँ।” अर्जुन के कटाक्षों से दुविधा में फंसे दुर्योधन ने कहा, “रुको अर्जुन! किसके पास सामर्थ्य नही है? हम सौ हैं। तुम पांच हो।” फिर, ना चाहते हुए भी दुर्योधन ने पांचों बाण  अर्जुन को दे दिए। अर्जुन उन दिव्य बाणों को प्राप्त कर अपने शिविर में आ गए। इस तरह भीष्म से बाण लेने की गलती दुर्योधन पर भारी बहुत पड़ी और पांडवों की मौत टल गई। महाभारत के युद्ध के अंत में पांडवों की जीत हुई|ऐसी ही शिक्षाप्रद पौराणिक कहानियाँ के विडिओ देखने के लिए हमारा चैनल सबस्क्राइब कीजिए .

26.9.25

मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर-सुवासरा में बेंच व्यवस्था से हर्ष : डॉ.आलोक का पावन दान

मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर-सुवासरा में बेंच व्यवस्था  विडियो 



 मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर  हेतु 

दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़  का 

नवरात्र  के पुनीत  उत्सव  पर 

सीमेंट बेंच का पावन दान 


 मंशापूर्ण बालाजी मंदिर ढोढर
4 सिमेन्ट बेंच दान


बालाजी मंदिर मे दान दाता  की दान पट्टिका का प्रारूप 



समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

आद्यात्मिक दान-पथ

  साहित्य मनीषी  डॉ.दयाराम जी आलोक  राजस्थान और मध्यप्रदेश के 
मंदसौर,आगर नीमच ,झालावाड़ ,रतलाम और झाबुआ जिलों के  मंदिरों ,मुक्ति धाम और  गौशालाओं में निर्माण व विकास  हेतु नकद और  आगंतुकों के बैठने  हेतु  सीमेंट की बेंचें दान देने का अनुष्ठान संपन्न कर रहे हैं.
 डॉ.आलोक जी  एक  सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और वे अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने के संकल्प के साथ  आध्यात्मिक दान-पथ  पर अग्रसर हैं . १५१ से अधिक संस्थानों में बैठक व्यवस्था उन्नत करने  हेतु  सीमेंट  बेंचें और रंग रोगन के लिए नकद दान के अनुष्ठान में  आपकी वो राशि भी शामिल है जो  google कंपनी से उनके ब्लॉग  और  You tube चैनल  से  प्राप्त होती  है| समायोजित दान राशि और सीमेंट बेंचें  पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं.

मंशापूर्ण बालाजी मंदिर  के शुभचिंतक -

मंशापूर्ण  बालाजी मंदिर समिति  ढोढर 

श्री मदन सिंग जी तंवर  ढोढर

डॉ.अनिल कुमार दामोदर s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852,,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656  द्वारा  मंशापूर्ण बालाजी मंदिर  ढोढर हेतु दान सम्पन्न २६/9/२०२५  

बाबा राम देव मंदिर सगोरिया जागीर में बेंच व्यवस्था से हर्ष :डॉ.अनिल दामोदर शामगढ़ का दान

 

                           

बाबा राम देव मंदिर सगोरिया में बेंच व्यवस्था का विडियो 


                                

बाबा रामदेव मंदिर सगोरिया -शामगढ़ हेतु 

दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़  का 

नवरात्र  के पुनीत  उत्सव  पर 

सीमेंट बेंच का पावन दान 



दान दाता  की दान पट्टिका का प्रारूप 



समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

आद्यात्मिक दान-पथ

  साहित्य मनीषी  डॉ.दयाराम जी आलोक  राजस्थान और मध्यप्रदेश के 
मंदसौर,आगर नीमच ,झालावाड़ ,रतलाम और झाबुआ जिलों के  मंदिरों ,मुक्ति धाम और  गौशालाओं में निर्माण व विकास  हेतु नकद और  आगंतुकों के बैठने  हेतु  सीमेंट की बेंचें दान देने का अनुष्ठान संपन्न कर रहे हैं.
 डॉ.आलोक जी  एक  सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और वे अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने के संकल्प के साथ  आध्यात्मिक दान-पथ  पर अग्रसर हैं . 151 से अधिक संस्थानों में बैठक व्यवस्था उन्नत करने  हेतु  सीमेंट  बेंचें और रंग रोगन के लिए नकद दान के अनुष्ठान में  आपकी वो राशि भी शामिल है जो  google कंपनी से उनके ब्लॉग  और  You tube पर विडियो से  प्राप्त होती  है| समायोजित दान राशि और सीमेंट बेंचें  पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं.
                                    


बाबा राम देव मंदिर सगोरिया जागीर हेतु 
 
4 बेंच दान 

बाबा राम देव मंदिर के शुभचिंतक -

श्री  राम सिंग जी  चौहान सरपंच  साहब 
श्री बालाराम जी सूर्यवंशी  सगोरिया 
श्री   नन्दलाल जी मेघवाल  सगोरिया 
श्री   कन्हैया लाल जी सूर्यवंशी  सगोरिया 

डॉ.अनिल कुमार दामोदर s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852,,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656  द्वारा बाबा राम देव मंदिर सगोरिया  हेतु दान सम्पन्न २६/9/२०२५  


23.9.25

राड़ी वाला बालाजी का मंदिर खडावदा में सीमेंट बेंच की व्यवस्था से हर्ष

 राड़ी वाला  बालाजी  का  मंदिर ,खडावदा-गरोठ को 

डॉ.दयाराम आलोक द्वारा  

४ सीमेंट बेंचें भेंट 


   राड़ी वाला  बालाजी  का  मंदिर खडावदा
4 सिमेन्ट बेंच दान



दान दाता  की नाम पट्टिका  मंदिर मे  लगाई गई 



समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक

शामगढ़ का

आद्यात्मिक दान-पथ

  साहित्य मनीषी  डॉ.दयाराम जी आलोक  राजस्थान और मध्यप्रदेश के 
मंदसौर,आगर नीमच ,झालावाड़ ,रतलाम और झाबुआ जिलों के  मंदिरों ,मुक्ति धाम और  गौशालाओं में निर्माण व विकास  हेतु नकद और  आगंतुकों के बैठने  हेतु  सीमेंट की बेंचें दान देने का अनुष्ठान संपन्न कर रहे हैं.
 डॉ.आलोक जी  एक  सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और वे अपनी  पेंशन राशि दान करने के संकल्प के साथ  आध्यात्मिक दान-पथ  पर अग्रसर हैं . 151 से अधिक संस्थानों में बैठक व्यवस्था उन्नत करने  हेतु  सीमेंट  बेंचें और रंग रोगन के लिए नकद दान के अनुष्ठान में  आपकी वो राशि भी शामिल है जो  google कंपनी से उनके ब्लॉग  और  You tube  चैनल  से  प्राप्त होती  है| समायोजित दान राशि और सीमेंट बेंचें  पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं.

राडी वाले बालाजी के मंदिर में बेंच व्यवस्था का विडियो 



मंदिर के शुभचिंतक -

श्री राड़ी  वाला बालाजी मंदिर समिति ,खड़ावदा 

श्री बजरंग जी धाकड़  बड़ी देंथली 

डॉ. अनिल कुमार दामोदर s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852,,दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 98267-95656  द्वारा राडी वाला बालाजी मंदिर  खड़ा वदा हेतु दान सम्पन्न २३/9/२०२५