रघुवंश में एक संस्कृति नाम के परम प्रतापी राजा थे | उनके गुरु और रन्तिदेव नामक दो पुत्र थे | रन्तिदेव दया के मूर्तिमान स्वरूप थे | उनका एकमात्र लक्ष्य था -संसार के सभी प्राणियों के दुःख का निदान | वह भगवान से प्रार्थना करते हुए कहते थे “मै आपसे अष्टसिद्धि या मोक्ष की भी कामना नही करता |मेरी आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि समस्त प्राणियों के अन्त:करण में स्थित होकर मै ही उनके दुखो को भोग लू ,जिससे सब दुःख रहित हो जाए “|
इसलिए महाराज रन्तिदेव यही सोचते थरहते थे कि मेरे माध्यम से दीनो का उपकार कैसे हो , मै दुखी प्राणियों के दुःख किस प्रकार दूर करू | अंत: उनके द्वार से कोई भी याचक कभी निराश नही लौटता था | यह सबकी यथेष्ट सेवा करते थे इसलिए उनका यश सम्पूर्ण भूमंडल पर फ़ैल गया | संसार की वस्तुए चाहे कितनी ही अधिक ना हो , उन्हें निरंतर खर्च करने पर के न एक दिन समाप्त हो ही जाती है |
महाराज रन्तिदेव का राजकोष भी दीन को बांटते बांटते एक दिन खाली हो गया | यहा तक कि उनके पास खाने के लिए मुट्ठी भर अन्न भी नही रहा | वह अपने परिवार के साथ जंगल में निकल गये | एक बार उन्हें अन्न की कौन कहे , पीने के लिए जल की एक बूंद भी नही मिली | परिवार सहित बिना कुछ खाए पीये 48 दिन हो गये
भगवान की कृपा से 49वे दिन महाराज रन्तिदेव को कही से खीर ,हलवा और जल प्राप्त हुआ | भगवान का स्मरण करके वह उसे अपने परिवार में वितरित करना ही चाहते थे कि अचानक एक ब्राह्मण देव आ गये | उन्होंने कहा “राजन ! मै भूख से अत्यंत व्याकुल हु | कृपया मुझे भोजन देकर तृप्ति प्रदान करे |” महाराज ने ब्राह्मण को बड़े ही सत्कार से भोजन कराया और ब्राह्मण देव संतुष्ट होकर और राजा को आशीर्वाद देकर चले गये |
महाराज ने बचा हुआ अन्न अपने परिवार में वितरित करने के लिए सोचा | इतने में एक निर्धन आकर अन्न की याचना करने लगा | महाराज ने उसे भी तृप्त कर दिया | तदन्तर एक व्यक्ति कई कुत्तो के साथ वहा आया और बोला “महाराज ! मै और मेरे ये कुत्ते अत्यंत भूखे है | हमे अन्न देकर हमारी आत्मा को तृप्त करे “|
महाराज रन्तिदेव अपनी भूख प्यास भूल गये और बचा हुआ सारा अन्न उस व्यक्ति को दे दिया | अब उनके पास मात्र एक व्यक्ति की प्यास बुझाने लायक जल शेष था | महाराज उस जल को अपने परिवार में बांटकर पीना चाहते थे कि तभी एक चांडाल ने उनके पास आकर जल की याचना की | महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक वह जल भी उसे पिलाकर तृप्त कर दिया |
वास्तव में ब्राह्मण ,निर्धन और चंडाल के वेश में स्वयं भगवान विष्णु ,ब्रह्मा और महेश जी महाराज की परीक्षा की परीक्षा लेने आये थे | प्राणीमात्र पर दया के कारण महाराज रन्तिदेव को अपने परिवार सहित योगियों के लिए दुर्लभ भगवान का परम धाम प्राप्त हुआ | भगवान अपने अंशभुत जीवो से प्रेम करने वालो पर ही अधिक संतुष्ट होते है |संसार में समस्त प्राणी भगवान के ही विभिन्न रूप है जो भगवत बुद्धि से सबकी सेवा करते है वे दुस्तर संसार सागर में सहज ही तर जाते है |
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