25.6.25

मीणा जाति की उत्पत्ति ,संस्कृति ,इतिहास :संघर्ष और उत्थान की कहानी



मित्रों ,जाती इतिहास के विडियो की श्रृंखला में आज का विषय है "मीणा जाति की उत्पत्ति ,संस्कृति ,इतिहास :संघर्ष और उत्थान की कहानी "
मीणा समाज भारत की एक प्राचीन और गौरवशाली जनजाति है, जिसकी उत्पत्ति, संस्कृति और इतिहास अत्यंत समृद्ध और रोचक है।
 मीणा इतिहास और मीणा समाज के विविध पहलुओं की जानकारी से हमें इस समुदाय की समृद्धि और उनकी संस्कृति को समझने में सहायता मिलती है।


 
उत्पत्ति

"मीणा" शब्द संस्कृत के "मीन" (मछली) से लिया गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मीणा समाज की उत्पत्ति भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार से मानी जाती है। ऋग्वेद में वर्णित मत्स्य जनपद को मीणा समुदाय का ऐतिहासिक केंद्र माना जाता है, जिसकी राजधानी विराट नगर (वर्तमान बैराठ, जयपुर) थी

इतिहास



प्राचीन काल में मीणा समुदाय राजस्थान के कई हिस्सों में शासक रहा। आमेर (जयपुर), बूंदी, अलवर, और सवाई माधोपुर जैसे क्षेत्रों में मीणा राजाओं का शासन था। ब्रिटिश काल में उन्हें "आपराधिक जनजाति" घोषित किया गया, जो एक राजनीतिक साजिश मानी जाती है स्वतंत्रता के बाद 1952 में यह टैग हटा दिया गया और मीणा समाज को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा मिला।

संस्कृति




मीणा समाज की संस्कृति में लोकनृत्य, पारंपरिक वेशभूषा, और कुलदेवियों की पूजा प्रमुख है। पन्ना मीणा की बावड़ी

                            पन्ना मीणा की बावड़ी का दृश्य 


,                                        दांत माता मंदिर


और 
                                          बांकी माता मंदिर


 जैसे धार्मिक और स्थापत्य स्थल इनके सांस्कृतिक गौरव को दर्शाते हैं। समाज में गोत्र प्रणाली प्रचलित है, जिसमें 12 पाल, 32 तड़ और 5248 गोत्रों का उल्लेख मिलता है।

 संघर्ष और उत्थान

मीणा समाज ने सामाजिक न्याय और अधिकारों के लिए कई आंदोलनों में भाग लिया। मीणा जनजाति आंदोलन ने उन्हें शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आगे बढ़ने का अवसर दिया।

1. प्राचीन ग्रंथों में मीणा जाति का उल्लेख

मीणा जाति का वर्णन प्राचीन भारतीय ग्रंथों और पुराणों में मिलता है। ये ग्रंथ इस समुदाय के इतिहास को उजागर करते हैं और बताते हैं कि मीणा समाज का समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह जानकारी मीणा इतिहास को और भी मजबूती प्रदान करती है।

2. वैज्ञानिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से मीणा जाति के उद्भव पर कई शोध और अध्ययन हुए हैं। ये अध्ययन दर्शाते हैं कि मीणा समाज ने समय के साथ कई बदलाव देखे हैं, जैसे कि सामाजिक ढाँचा, आर्थिक गतिविधियाँ, और सांस्कृतिक पहचान।

3. नामकरण और गोत्र

मीणा जाति के नामकरण की प्रक्रिया और इसके विभिन्न गोत्रों की विशेषताएँ समाज में उनकी विविधता को दर्शाती हैं। प्रत्येक गोत्र का अपना इतिहास और पहचान होती है, जो मीणा समाज की सामाजिक संरचना को स्पष्ट करती है।

4. मीणा जाति का विस्तार

मीणा जाति का फैलाव मुख्य रूप से राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ है। समय के साथ, यह जाति अन्य राज्यों में भी फैली है। उनके निवास स्थानों की भौगोलिक विविधता और सामाजिक संबंधों ने मीणा समाज के विकास में योगदान दिया है।

5. मीणा जाति और फादर हैगस का योगदान

फादर हैगस एक प्रमुख व्यक्ति थे जिन्होंने मीणा जाति के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके प्रयासों से मीणा समुदाय ने शिक्षा और सामाजिक सुधार की दिशा में कदम बढ़ाए, जिससे उनकी पहचान को नई मजबूती मिली।

6. मीणा सरदारों के प्रमुख निवास स्थान

                               महाराज बूंदा की तस्वीर 

मीणा सरदारों का इतिहास इस जाति की शक्ति और प्रतिष्ठा को दर्शाता है। उनके निवास स्थान (अथवा मेबासे) न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में भी उनकी भूमिका अहम रही है।

7. मीणा समुदाय के प्रमुख स्थल

                             मीणा राजा का किला 


मीणा जाति के प्रमुख गाँव और शहर जैसे दौसा, अलवर, और जयपुर उनकी सांस्कृतिक पहचान को दर्शाते हैं। यहाँ के रीति-रिवाज, त्योहार, और लोक कला मीणा समाज की समृद्धि का प्रतीक हैं।
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21.6.25

दर्जी जाति का गौरवशाली इतिहास : पीपा ,छीपा ,नामदेव ,दामोदर वंशी और उपजातियों की जानकारी

  



मित्रों ,भारत मे जाति व्यवस्था वैदिक काल से ही अस्तित्व मे है|जाति इतिहास के विडिओ के अंतर्गत आज "दर्जी जाति का इतिहास और जानकारी'  विषय पर चर्चा करेंगे 

दर्जी जाति का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की मानव का इतिहास।

विश्व इतिहास में यह माना गया है कि कपास का सर्वप्रथम उपयोग भारत में ही हुआ था अतः यह कहना सार्थक होगा की धागा बनाना और कपड़ा बनाना भी भारत में ही आरम्भ हुआ यही कला चीनियों ने भारत से सीखी किंतु वे इस कला को और अधिक विकसित कर सके |
जाति इतिहास लेखक डॉ ,दयाराम  आलोक के मतानुसार  2500 ईसा पूर्व से ही मनुष्य प्रजाति का एक तबका वस्त्र निर्माण और उसकी  डिजाइन बनाने के कार्य में लग गया| कालांतर में भारत में वैदिक और उत्तर वैदिक काल में जाति व्यवस्था प्रकाश में आई और दर्जी जाति भी इसी काल में आई। जाति व्यवस्था प्रचलित होने पर कपड़े से सम्बंधित कार्य करने वालो को दर्जी कहा गया लेकिन यह जाति बिना पहचान के ही सेकड़ो वर्षो पूर्व से ही कार्य में लगी हुई है।
Darji History Video in Hindi 



अब यह जाति अपने द्वारा सीखी गयी कलाकारी को अपनी सन्तानो को भी देने लगे और अगली पीढ़ी भी उन्नत कलाकारी कर पाई जिसमे कपड़ा निर्माण, छपाई, रँगाई, वस्त्र निर्माण आदि कार्य शामिल है और इसी कार्य से सम्बंधित लोगो में वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे। यह जाति एक विकसित जाति रही जिसके प्रमाण इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजा और सम्पन्न लोग अपने पर्सनल दर्जी रखते थे और यही प्रथा आधुनिक काल में अंग्रेजो ने भी रखी उन्होंने दर्जी जाति को भारत में टेलर नाम दिया।आज भी दर्जी जाति के लोग इस कार्य को बखूबी कर रहे है | 

पीपा क्षत्रिय दर्जी समाज

गागरोन रियासत के प्रतापी शासक जो राजा से बने संत




पीपा क्षत्रिय दर्जी समाज का इतिहास, संत पीपाजी महाराज से जुड़ा हुआ है, जो 14वीं शताब्दी के एक महान संत और भक्ति आंदोलन के नेता थे. वे गागरोनगढ़ के एक राजपूत राजा थे जिन्होंने बाद में सिंहासन त्यागकर संत बनने का फैसला किया.पीपा वंशीय दर्जी समाज क्षत्रीय गोत्र वाला सबसे अधिक संख्या वाला दर्जी  समाज है जो पीपा जी महाराज के अनुयायी हैं। 

दामोदर वंशी दर्जी समुदाय की जानकारी 



दामोदर वंशी दर्जी समाज एक पारंपरिक भारतीय समुदाय है जो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और राजस्थान में पाया जाता है। यह समुदाय अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपराओं और व्यवसाय के लिए जाना जाता है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जो दामोदर वंशी दर्जी समाज के बारे में बताती हैं:
1. उत्पत्ति: दामोदर वंशी दर्जी समाज की उत्पत्ति गुजरात से हुई है, जहाँ से वे मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और जबरन इस्लामीकरण के दबाव के कारण पलायन कर मध्य प्रदेश और राजस्थान में बस गए।
2. व्यवसाय: दामोदर वंशी दर्जी समाज का मुख्य व्यवसाय दर्जी का काम है, जिसमें वे कपड़े सिलते और बनाते हैं।
3. संस्कृति: दामोदर वंशी दर्जी समाज की संस्कृति में हिंदू परंपराएं और रीति-रिवाज शामिल हैं, जिनमें वे अपने आराध्य संत दामोदर जी महाराज  की पूजा करते हैं और उनकी जयंती और  निर्वाण तिथि  मनाते है | 
   जूनागढ़ के मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और जबरन इस्लामीकरण की वजह से दामोदर वंशीय दर्जी समाज के दो जत्थे गुजरात को छोड़कर मध्य प्रदेश और राजस्थान में विस्थापित हुए।
 पहला जत्था 1505 ईस्वी में महमूद बेगड़ा के शासनकाल में विस्थापित हुआ, और दूसरा जत्था 1610 ईस्वी में नवाब मिर्जा जस्साजी खान बाबी के शासनकाल में विस्थापित हुआ।
इन दोनों जत्थों के लोगों की बोली और संस्कृति में अंतर होने के कारण, पहले जत्थे के लोग "जूना गुजराती" और दूसरे जत्थे के लोग "नए गुजराती" कहलाने लगे।
  दामोदर वंशी दर्जी समाज के परिवारों की गौत्र क्षत्रियों की है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इनके पुरखे क्षत्रिय थे। और जूना गुजराती समाज के लोग "सेठ" उपनाम का उपयोग करते हैँ 



उल्लेख योग्य है कि वैश्विक स्तर पर दर्जी समाज की सबसे बड़ी और सबसे अधिक पाठकों वाली website का Address

https://damodarjagat.blogspot.com

जिसकी पाठक  संख्या करीब  साढ़े पाँच  लाख है
ज्ञातव्य है कि डॉ. दयाराम आलोक ने दर्जी समाज के उत्थान और विकास के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने समाज को संगठित करने और उसकी गतिविधियों को सही दिशा देने के लिए अखिल भारतीय दामोदर दर्जी महासंघ का गठन 1965 मे  किया, जो एक महत्वपूर्ण कदम था। इस संस्था का  प्रधान कार्यालय 14,जवाहर मार्ग शामगढ़ है । 
   उन्होंने समाज की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए सामूहिक विवाह की परंपरा शुरू की, जिसमें 9 सामूहिक विवाह आयोजित किए गए। 2010 में उन्होंने स्ववित्त पोषित निशुल्क सामूहिक विवाह का आयोजन किया, जो एक बहुत ही सराहनीय कदम था।

नामदेव दर्जी समाज 




   सन्त नामदेव जो दर्जी जाति से थे उन्होंने भक्ति की पराकाष्ठा को पार कर ईश्वर को भोज कराया ततपश्चात नामदेव दर्जी जाति व अन्य जातियों के सन्त बन गए और मुख्य रूप से दर्जी जाति के लोगो ने तो नाम के साथ नामदेव लगाना भी आरंभ कर दिया वर्तमान में नामदेव समाज प्रकाश में आया जो कि  आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में विकसित हुआ।
दर्जी  जाति और समाज ने कलात्मक और आर्थिक रूप से राष्ट्र विकास में अहम भूमिका अदा की और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कला से जुड़ाव होने के कारण यह समाज किसी भी आपराधिक गतिविधियों से अछूता ही रहा, सरकारी नीतियों  के कुछ  नकारात्मक प्रभाव  इस जाति पर होने पर भी कभी विरोध के स्वर इस जाति में सुनाई नही पड़े। आज इस समाज ने यथार्थ  मानवतावाद को चरितार्थ किया


  सन्यासी दर्जी 

"सन्यासी दर्जी" शब्द का अर्थ है एक ऐसा दर्जी (दर्जी) जो संन्यास (सन्यास) के जीवन को अपनाता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो दर्जी के रूप में काम करने के साथ-साथ आध्यात्मिक मार्ग पर भी चलता है।यह दर्जी समुदाय अधिकांशत:  दक्षिण भारत के  राज्यों  मे निवास करता है 

काकुतस्थ  दर्जी - 

  काकुस्थ (Kakustha) वंश, जिसे दर्जी जाति भी कहा जाता है, सूर्यवंशी क्षत्रिय (सूर्यवंश के राजा) माने जाते हैं, जो अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश से संबंधित हैं. वे अपने आप को महाराज पुरंजय के वंशज मानते हैं और सूचीकार (दर्जी) भी कहलाते हैं. यह समाज संत नामदेव को भी अपने समाज का मानते हैं.

सोरठिया  दर्जी -

  सोरठिया दर्जी, गुजरात में पाई जाने वाली अहीर/यादव जाति का एक वंश है। वे यदुवंशी अहीरों के वंशज माने जाते हैं और उनके 484 उपनाम हैं, जो किसी भी अन्य गुजराती अहीर/यादव शाखा से अधिक हैं। वे मुख्य रूप से किसान और जमींदार हैं, लेकिन परिवहन और भारी निर्माण मशीनरी व्यवसाय में भी सक्रिय हैं|
दक्षिण भारत में दर्जी समुदाय को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे कि दर्जी, चित्तार, सना, चिकवा आदि.
पिस्से (Pissey) कर्नाटक में दर्जी समुदाय का एक उपनाम है, जिसे वेड, काकाडे, और सन्यासी के साथ उपयोग किया जाता है.

टाँक ,रूहेल ,इदरिसी 

  रूहेला दर्जी समुदाय, जिसे "टांक" या "इदरीसी" दर्जी भी कहा जाता है, एक भारतीय समुदाय है जो दर्जी (सिलाई) का काम करता है। वे मूल रूप से क्षत्रिय राजपूत वंश से माने जाते हैं। कुछ इतिहास के अनुसार, वे अफगानिस्तान के रोह क्षेत्र से आए थे और 18वीं शताब्दी में रोहिलखंड क्षेत्र में बस गए थे। दर्जी समुदाय में, वे वस्त्र निर्माण और सिलाई के काम के लिए जाने जाते हैं।
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Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे। 

14.6.25

युधिष्ठिर ने स्त्रियों को क्या श्राप दिया था? औरतों के पेट में इसलिए नहीं पचती कोई बात.

 Mahabharat

विडिओ मे कहानी -


से जुड़े कई किस्से ऐसे हैं जो हैरान करने के साथ-साथ सीख भी देते हैं। ऐसा ही एक किस्सा युधिष्ठिर और मां कुंती से जुड़ा है। 


मित्रों ,पौराणिक कथा कहानियाँ के विडिओ की शृंखला मे आज का टॉपिक है
"युधिष्ठिर ने स्त्रियों को क्या श्राप दिया था? औरतों के पेट में इसलिए नहीं पचती कोई बात." 
  महाभारत के युद्ध को जीतने के बाद इसे धर्म की विजय माना गया लेकिन जीत के बावजूद भी धर्मराज युधिष्ठिर को अत्यंत दुख से गुजरना पड़ा था. धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी ही मां कुंती और संसार की सभी नारियों  को श्राप दे दिया था. आइए जानते हैं कि आखिर युधिष्ठिर ने ऐसा क्यों किया था.
  इतिहास (History) के सबसे बड़े युद्ध के रुप में जाने जानें वाले द्वापर युग के महाभारत की कहानियां आज भी लोगों की जुबान पर है। इस युद्ध से जुड़े कई किस्से अक्सर ही सुनने को मिलते हैं, जो न सिर्फ व्यक्ति को हैरान कर जाते हैं, बल्कि वह जीवन की सीख भी देते हैं। वहीं कई बार इन किस्सों के जरिए कुछ ऐसी बातों का भी पता चलता है, जो आज के युग यानी कलयुग में भी देखने को मिलती है। ऐसा ही एक किस्सा पांडव के जेष्ठ पुत्र यानी धर्मराज युधिष्ठिर से भी जुड़ा है। जिसे जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे। आइए उसके बारे में जानते हैं।
पौराणिक कथाओं (Mythology) के मुताबिक, द्वापर युग में हुआ महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक चला था और युद्ध के हर दिन कुछ न कुछ विशेष घटना घटित हुई थी, जो लोगों के लिए आज भी शिक्षा, संदेश और उपदेश की तरह है। वहीं इस युद्ध के अंत में धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी ही मां कुंती को एक भयंकर श्राप तक दे दिया था, जिसका परिणाम महिलाएं आज तक भुगत रही हैं। तो चलिए जानते हैं कि वह कौन सा श्राप था और युधिष्ठिर ने अपनी ही मां को क्यों दिया था?
अपनी ही मां कुंती को युधिष्ठिर ने क्यों दिया था श्राप, क्या है कहानी?

दरअसल युद्ध में कौरवों और पांडवों दोनों ही पक्ष के इतने परिजन मारे गए थे कि मात्र एक दिन में किसी का भी तर्पण करना संभव न था। धीरे-धीरे दिन बीतते गए और पांडव एक-एक कर कौरव पक्ष एवं पांडव पक्ष के परिजनों और सगे सम्बन्धियों का तर्पण करते गए।एक माह पूरे होने के साथ-साथ सभी रिश्तेदारों का तर्पण हो गया लेकिन कर्ण का तर्पण युधिष्ठिर ने नहीं किया। युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण और माता कुंती को यह कहते हुए कर्ण का तर्पण करने के लिए मना कर दिया कि वह न तो कोई परिजन था और न ही रिश्तेदार।
  माता कुंती यह सुन व्याकुल हो उठीं। वह चाहती थीं कि पांडवों द्वारा कर्ण का भी तर्पण हो क्योंकि कर्ण वास्तव में पांडवों का भाई थे लेकिन वह इस सत्य को अपने पांचों पुत्रों को बताने से भयभीत हो रही थीं।लेकिन  श्री कृष्ण अपनी बुआ यानी कि माता कुंती की दुविधा समझ गए थे।
  श्री कृष्ण ने माता कुंती को विश्वास दिलाया कि वह उनके साथ हैं और माता कुंती अब अपने पुत्रों को कर्ण का सत्य बता दें। माता कुंती ने भी अपना हृदय कठोर कर पांडवों को इस बात का बोध कराया कि कि कर्ण पांडवों का भाई और माता कुंती का पुत्र था।कथा के अनुसार, जब कर्ण (Karna) की मृत्यु के बाद माता कुंती कर्ण के शव को अपनी गोद में लेकर रो रही थीं, तो पांडवों ने इसे देखा और कारण पूछा। कुंती ने उन्हें बताया कि कर्ण उनका सबसे बड़ा पुत्र था, जिसे उन्होंने छुपकर जन्म दिया था। वह यह रहस्य लंबे समय तक छुपाए रखी थीं, क्योंकि कर्ण को द्रुपद के घर में छोड़ दिया गया था और वह नहीं चाहती थीं कि यह तथ्य कभी सामने आए।

युधिष्ठिर ने मां कुंती को क्या श्राप दिया था?


 माता कुंती की बातें सुनकर युधिष्ठिर को क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी माता से कहा कि आपने  इतनी बड़ी बात हमसे छिपाकर रखी |हमे  अपने बड़े भाई कर्ण का  हत्यारा बना दिया.उन्होंने अपनी माता कुंती सहित संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप दे दिया और कहा कि आज मैं संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप देता हूं कि वे चाहकर भी अपने दिल में कोई बात छिपाकर नहीं रख पाएंगी।
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23.5.25

जैन पंथ के 24 तीर्थंकर: जैन धर्म के सिद्धांत और महत्व

            जैन पंथ के 24 तीर्थंकर: जैन धर्म के सिद्धांत और महत्व
                                                               





मित्रों ,धर्म -आध्यात्म के विडिओ प्रस्तुत करने की शृंखला मे आज हम "जैन पंथ के 24 तीर्थंकर: जैन धर्म के सिद्धांत और महत्व : की चर्चा कर रहे हैं -
जैन धर्म श्रमण संस्कृति से निकला धर्म है। इसके प्रवर्तक  २४ तीर्थंकर हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान वर्धमान महावीर हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यों में प्रचुर मात्रा में हैं।
 श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं। 
समयसार एवं तत्वार्थ सूत्र आदि इनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। 
जैनों के प्रार्थना - पूजास्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं।
'जैन' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित '। जो 'जिन' के अनुयायी हैं उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' का अर्थ   जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन, मन, वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त अर्हंत भगवान को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। जिन का अन्य पर्यायवाची शब्द अर्हत/अर्हंत भी है प्राचीन काल में जैन धर्म को आर्हत् धर्म कहा जाता था।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है‌। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सृष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है 

जैन धर्म में भगवान

   जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही | जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है।

तीर्थंकर

जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-
क्रमांक तीर्थंकर


1 ऋषभदेव- इन्हें 'आदिनाथ' भी कहा जाता है


2 अजितनाथ
3 सम्भवनाथ
4 अभिनंदन जी
5 सुमतिनाथ जी
6 पद्मप्रभु जी

                                                        पद्मप्रभु जी भगवान 



7 सुपार्श्वनाथ जी
8 चंदाप्रभु जी
9 सुविधिनाथ- इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है
10 शीतलनाथ जी
11 श्रेयांसनाथ

                                                    Bhagwan Shreyansnath 




12 वासुपूज्य जी
13 विमलनाथ जी
14 अनंतनाथ जी
15 धर्मनाथ जी
16 शांतिनाथ

                                                           शांतिनाथ  भगवान 


17 कुंथुनाथ
18 अरनाथ जी
19 मल्लिनाथ जी
20 मुनिसुव्रत जी
21 नमिनाथ जी                                                    
22 अरिष्टनेमि जी - इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।



23 पार्श्वनाथ
24 वर्धमान महावीर - इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।

जैन पन्थ के सिद्धान्त:-

रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण 'वर्धमान महावीर' की उपाधि 'जिन' थी। अतः उनके द्वारा प्रचारित धर्म 'जैन' कहलाता है। जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन पन्थ में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।

जैन धर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कर्म महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।

जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं 

श्वेताम्बर (उजला वस्त्र पहनने वाला)और
 दिगम्बर (नग्न रहने वाला) ।
जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। 
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध सँवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। 
इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर व्रत, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। 
जैन सिद्धान्त में रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। 
ये 'रत्नत्रय ' हैं-सम्यक् दर्शन ,सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र्य।
मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अनन्तकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।
अनेकान्तवाद जैन पन्थ का तीसरा मुख्य सिद्धान्त है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी मत या सिद्धान्त को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकान्तवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है।
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18.5.25

महाभारत की कथा सिर्फ 8 मिनिट मे



                        महाभारत की संक्षिप्त कथा 



मित्रों ,पौराणिक कहानियाँ  के विडिओ प्रस्तुत करने की शृंखला मे आज "महाभारत की संक्षिप्त  कथा "पर चर्चा कर रहे हैं 
महाभारत प्राचीन भारत का एक विशाल और प्रसिद्ध महाकाव्य है, जिसकी कथा पांडवों और कौरवों के बीच हुए युद्ध से संबंधित है | यह कथा हस्तिनापुर की गद्दी के लिए हुए संघर्ष को दर्शाती है। इस महाकाव्य के रचयिता वेदव्यास हैं, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास के नाम से भी जाना जाता है।
महाभारत की रचना वेदव्यास के सबसे मूल्यवान कार्यों में से एक है जो युगों से लोगों को प्रबुद्ध कर रहा है।
यह कई महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ बनाया गया है जो एक व्यक्ति को समृद्ध जीवन के लिए
आवश्यक मानव और नैतिक और नैतिक मूल्यों को सीखने और बनाए रखने के लिए सिखाता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज के नियमों का पालन करना चाहिए।



यह तथ्य महाभारत की लघु कथाओं में स्पष्ट रूप से स्थापित है।
महाभारत अनंत ज्ञान और जीवन जीने के तरीके का स्रोत है।
यह चचेरे भाइयों के बीच निरंतर घृणा और प्रतिशोध के इर्द-गिर्द घूमती है,
जो अंततः कुरुक्षेत्र की सबसे बड़ी लड़ाई की ओर ले जाती है।
अब हम  बच्चों के लिए संक्षेप में महाभारत की कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं  
हस्तिनापुर के राजा शांतनु का विवाह सुंदर नदी देवी गंगा से हुआ है,
जो एक बुद्धिमान और मजबूत राजकुमार देवव्रत (भीष्म) को जन्म देती हैं।
आखिरकार, शांतनु व्यास की मां सत्यवती से शादी करता है,
शांतनु वादा करता है  सत्यवती से कि उसका भविष्य का बेटा राजा होगा।
सत्यवती से शांतनु के दो पुत्र हैं, लेकिन दोनों अल्पायु हैं।
सत्यवती अपने बड़े पुत्र व्यास से अपने मृत पुत्र विचित्रवीर्य की विधवाओं अंबिका और
अम्बालिका के साथ बच्चों को जन्म देने के लिए कहती है।
अंबिका एक अंधे बच्चे को जन्म देती है, जिसका नाम धृतराष्ट्र और
उसकी बहन अम्बालिका ने एक बच्चे को जन्म दिया जिसका नाम पांडु  था| 
धृतराष्ट्र, अपने अंधेपन के कारण, सिंहासन लेने के लिए अयोग्य हो जाता है,
और उसका सौतेला भाई पांडु राजा बन जाता है।
पांडु को श्राप है कि यौन संबंध बनाने पर उसकी मृत्यु हो जाएगी।
पांडु की पहली पत्नी कुंती को संतान प्राप्ति का विशेष वरदान प्राप्त है और वह गुणी युधिष्ठिर,
अत्यधिक मजबूत भीम और महान योद्धा अर्जुन को जन्म देती है। पांडु से विवाह करने से पहले,
कुंती अपने वरदान की परीक्षा लेने की कोशिश करती है, और कर्ण को जन्म देती है।
बदनामी के डर से वह उसे छोड़ देती है।
पांडु की दूसरी पत्नी माद्री, संतान प्राप्ति के कुंती के रहस्य को उधार लेती है और
जुड़वां नकुल और सहदेव को जन्म देती है।
ये पांचों भाई पांडव हैं और कथा के नायक हैं। उनके बीच  एक सामान्य पत्नी द्रौपदी है।
राजा पांडु अपनी दूसरी पत्नी के साथ संभोग के बाद मर जाते हैं,
और उनके भाई धृतराष्ट्र राजा बन जाते हैं।
धृतराष्ट्र और उनकी पत्नी गांधारी के सौ बच्चे कौरव हैं। दुर्योधन उनमें सबसे बड़ा है।
पांडव और कौरव दोनों एक-दूसरे के प्रति नापसंदगी के साथ बड़े होते हैं।
पांडव अपनी शारीरिक शक्ति, सकारात्मक दृष्टिकोण और अच्छे कर्मों से देश की प्रजा के बीच लोकप्रिय हो गए।
दूसरी ओर, कौरवों को ईर्ष्यालु और दुष्ट  के रूप मे  देखा जाता है।
ईर्ष्यालु और दुष्ट
सबसे बड़ा कौरव, दुर्योधन, अपने छोटे भाई दुस्यासन, करीबी दोस्त
(और पांडवों के सौतेले भाई) कर्ण और मामा शकुनि के साथ मिलकर पांडवों को उनके राज्य से दूर करता है।
वे पांडवों को पासे के खेल में चुनौती देते हैं, और उन्हें विश्वासघात से हरा देते हैं।
पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी सहित सब कुछ कौरवों के हाथों खो देते हैं।
कौरव पांडवों पर 12 साल का वनवास लगाते हैं जिसके बाद एक साल का अज्ञातवास होता है। इस अवधि के दौरान, कौरव अपने चचेरे भाइयों को मारने के लिए कई प्रयास करते हैं लेकिन पांडव अपने मामा भगवान श्री कृष्ण के समर्थन से बच जाते हैं
अपने 13 साल के वनवास को पूरा करने के बाद, पांडव साम्राज्य के अपने हिस्से को वापस मांगते हैं। लेकिन उनके चचेरे भाई इसे देने से इनकार कर देते हैं, जिससे कुरुक्षेत्र का महान युद्ध होता है।
कुरु कुल के खेतों में लगभग 18 दिनों तक युद्ध चला और इसलिए इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कृष्ण द्वारा अर्जुन को बताई गई पवित्र हिंदू ग्रंथ, भगवद गीता, इस प्रकरण के दौरान विकसित हुई है।
पांडव कृष्ण के समर्थन से युद्ध जीतते हैं लेकिन जीत उनके रिश्तेदारों और प्रियजनों के जीवन की कीमत पर होती है।
महाभारत एक महान शिक्षा ग्रंथ है। इसमें अनेक ऐसे सबक हैं जो जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी हैं। महाभारत से हम एकजुटता, अहंकार, और सही-गलत के बीच अंतर समझने जैसी कई बातें सीख सकते हैं।

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6.5.25

सैनी समाज की उत्पत्ति का गौरवशाली असली इतिहास |कोइरी जाति?कुशवाहा



विडियो अवलोकन करें




सैनी समाज की  उत्पति को लेकर काफी मान्यताए है लेकिन सबसे प्रचलित मान्यता यह है कि यह शूरसेन के वंशज है।
सैनी समाज एक सामाजिक समूह है जो मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के भारतीय राज्यों में पाया जाता है। सैनी समुदाय की उत्पत्ति का पता प्राचीन काल से लगाया जा सकता है, और उनका इतिहास अक्सर राजपूतों से जुड़ा होता है।

सैनी क्षत्रिय (योद्धा) वर्ण के वंशज होने का दावा करते हैं, जो हिंदू धर्म में चार मुख्य सामाजिक विभाजनों में से एक है। अपनी पारंपरिक कथा के अनुसार, वे खुद को पौराणिक राजा शूरसेन के वंशज मानते हैं, जिन्होंने वर्तमान उत्तर प्रदेश के एक ऐतिहासिक शहर मथुरा पर शासन किया था।

ऐतिहासिक रूप से, सैनी सैन्य और कृषि व्यवसायों से जुड़े रहे हैं। उनके पास एक मजबूत मार्शल परंपरा है और पूरे इतिहास में विभिन्न सैन्य अभियानों में भाग लिया है। सैनी परिवार खेती से भी जुड़ा हुआ है, जिनमें से कई ज़मीन के मालिक हैं और खेती करते हैं।

सैनी कौन सी बिरादरी में आते हैं?

सैनी एक भारतीय उपनाम है, जिसका प्रयोग उत्तर भारत में विभिन्न समुदायों द्वारा किया जाता है। उत्तर प्रदेश में इसका प्रयोग कुशवाह या कोइरी जाति के लोग करते हैं। राजस्थान और हरियाणा में इसे अक्सर माली जाति से जोड़ा जाता है। सैनी भी पंजाब का एक समुदाय है, जिसे 2016 से राज्य की अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल किया गया है।

सैनी के पूर्वज कौन हैं?

सैनियों का मानना ​​है कि उनके पूर्वज यादव थे और यह वही वंश था जिसमें कृष्ण का जन्म हुआ था। यादवों की 43वीं पीढ़ी में राजा विदार्थ के पुत्र शूर या सूर नामक राजा हुए। राजा शूर के एक पुत्र का नाम 'सैन' था।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सैनी समाज की उत्पत्ति और इतिहास मौखिक परंपराओं, किंवदंतियों और सामुदायिक लोककथाओं पर आधारित हैं, जो हमेशा प्रलेखित ऐतिहासिक रिकॉर्ड के साथ संरेखित नहीं हो सकते हैं। नतीजतन, समुदाय के भीतर उनके इतिहास और मूल कहानियों के विभिन्न संस्करण मौजूद हो सकते हैं।

राजपूत और सैनी में क्या अंतर है?

वे भारत में दो अलग-अलग समुदाय हैं, जिनकी ऐतिहासिक उत्पत्ति और सामाजिक स्थिति अलग-अलग है। सैनी समुदाय को कई राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का हिस्सा माना जाता है, जबकि राजपूतों को पारंपरिक रूप से भारतीय जाति व्यवस्था में एक अगड़ी जाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। 

क्या माली और सैनी एक ही हैं?

क्या माली और सैनी एक ही है : नहीं माली और सैनी सनातन धर्म की दो अलग-अलग जातियां हैं , माली बगीचे में काम करने वाले व्यक्ति को कहा जाता है माली कार्य है और सैनी एक क्षत्रिय जाती है जो कि उत्तर भारत में पाई जाती है ।

सैनी समाज की कुलदेवी कौन थी?

सैनी समाज की कुलदेवी नाग माता मानी जाती है। कुछ सैनी परिवारों के लिए, चामुंडा माता भी कुलदेवी हो सकती है। कई सैनी परिवारों में, अपनी गोत्र के अनुसार, अलग-अलग कुलदेवियाँ पूजी जाती हैं.

सैनी के कितने गोत्र होते हैं?

सैनी समाज में रिश्ते तय करते समय स्वयं, माँ, एवं दादी का गोत्र ही छोड़ा जायेगा। अब सैनी समाज में शादी नानी के गोत्र में भी हो सकेगी। समाज की बैठक में व्यापक चिन्तन ओर मंथन के बाद तय किया गया की केवल तीन गोत्र छोडने होंगे।

सैनी समाज के गुरु कौन हैं?

सैनी समाज के गुरु कौन हैं : सैनी समाज के गुरु प्रभु महादेव हैं ।

क्या सैनी सूर्यवंशी हैं?

भगवान बुद्ध के भी पूर्वज थे, अशोक महान के भी पूर्वज थे। समय की गति के साथ शाखाएं फूटती हैं किन्तु जड़ एक और स्थिर रहती है। सैनी सूर्यवंशी हैं सैनी नाम के भीतर भागीरथी,गोला, शुरसेन, माली, कुशवाह, शाक्य, मौर्य, काम्बोज आदि समाहित हैं।

सैनी किस धर्म को मानते हैं?

सैनी का भगवान कौन है : सैनी सनातन धर्म के सभी भगवानों को मानते हैं , सैनी जाति का एक हिस्सा सिख धर्म को भी मानता है सिख सैनी अपने धर्म गुरुओं के बताएं धर्म मार्ग पर चलते हैं
 
यह ध्यान देने योग्य है कि ऐतिहासिक और सामाजिक उत्पत्ति का अध्ययन जटिल हो सकता है और अलग-अलग व्याख्याओं के अधीन हो सकता है। इसलिए, विषय की व्यापक समझ के लिए विद्वानों के स्रोतों, ऐतिहासिक ग्रंथों और मानवशास्त्रीय अध्ययनों को संदर्भित करने की हमेशा सिफारिश की जाती है।

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