31.12.19

चारण जाति की जानकारी और इतिहास:Charan jati itihas




  चारण एक जाति है जो सिंध, राजस्थान और गुजरात में निवास करती है। इस जाति का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। वेदों में चार वर्णो का उल्लेख मिलता है,जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई जाती है। जबकि चारण जाति की उत्पत्ति माता पार्वती से बताई जाती है, इसी कारण ये चारो वर्णो से अलग पांचवा वर्ण है । कई अज्ञात लेेेखक चारण जाति का भाटों से संबंध बताते है अथवा उनके परिवेश एवं संस्कृति की तुलना चारणों से करते है । जो कि स्पष्टतः गलत है,चारणों का संबंध केवल शाषक वर्ग के साथ था तथा उनका कर्म उन्हें उचित सलाह एवं मार्गदर्शन देना था। जबकि भाट जाति का कर्म हरएक जाति की वंशावली रखना एवं उसका वाचन करना था।
आने वाली पीढ़ियों के लिए ये विश्वास करना भी मुश्किल होगा कि कभी ऐसे स्त्री-पुरुष भी थे जो छोटी सी अनबन पर पलक झपकते ही अपने शरीर के टुकड़े टुकड़े कर देते। खून की नदी बहने लगती और दृश्य देखने वाला अपने होश खो बैठता।
जो क़ौमें अपने इतिहास को भुला देती है, अपने पूर्वजों के बलिदान को भुला देती है, अपने योद्धाओं और विद्वानों की कद्र नही करती और जो सिपाहियों और किसानों से ज्यादा नाचने गाने वालों को तवज्जो देती है उन्हें आखिरकार गुलाम बना दिया जाता है।
चारण जाति ही एक ऐसी जाति हैं जिसका वर्णन सभी पौराणिक ग्रन्थों में मिलता है, जो अपने गुणों और कर्मो द्वारा युगों-युगों से उच्‍च स्थान रखते आये है। और कलयुग में आज तक उच्‍च और पवित्र है। चारण जाति अपने ईष्ट और काव्य गुण से संसार के सभी राजा महाराजाओं में और पौराणिक काल से लेकर आज तक चारण जाति का इतिहास उनके रचे ग्रन्थ, काव्य, महाकाव्य बहुत सुन्दर, मार्मिक, सच्‍चाई और ओज गुणो वाला रहा है। चारण न केवल काव्य करते बल्की समय-समय पर तलवार के भी धनी थे। माँ भगवति की कृपा से चारण जाति में आज भी वह सत्यता, धर्म निष्ठा और स्पष्ट वादिता के गुण विद्यमान है। पौराणिक ग्रन्थ म‍द् भाग्वत के अनुसार सुमेरू पर्वत पर देवताओं के साथ चारण जाति की भी एक पुरी है। इसके लिए श्री मद भागवत के पंचम स्कंध के चौबीसवे अध्याय में लिखा है कि―
अधस्तात्सवितुर्योजनायुते स्वर्मानुर्नक्षत्रवच्‍चरतित्य के।
ततोअधस्तासित्सद्ध चारण विद्या धराणां सदनानी त्रावन्मात्र एव।
अर्थात् - सूर्य के १०००० हजार योजन नीचे राहु नक्षत्र भ्रमण करता है, उतना ही नीचे यानी राहु से १०००० योजन नीचे सिद्द चारण जो विद्या को जानने वाले है , उनकी पुरी विद्यमान है।
उस सिद्ध, पवित्र, ईष्‍टदायक चारण जाति की शाखा में आगे चलकर "बैह जी" चारण की संतान–
आढा जी सान्दू जी मैया जी वाचा जी मेघवाचा जी हुए। अत: चारणों की सान्दू शाखा में बरहवीं पीढ़ी में श्री जोगड़ जी के पुत्र करमानन्द जी के "हूँपकरण जी" सान्दू का जन्म हुआ। हूँपकरण जी सान्दू अपनी विलक्षण प्रतिभा के धनी थेऔर श्रेष्ठ कवि थे और माँ जोगमाया के उपासक थे।
हूँपकरण जी सान्दू मेंवाड़ राजगराने में राजकवि के रूप में प्रतिष्ठित थे और उनका खास गाँव मेंवाड़ में हूपाखेड़ी था जो आज भी विद्यमान है मेंवाड़ में उन्हे बहुत सम्मान मिला और बेड़च नदी के किनारे के आस-पास की जगह पसंद आयी तब मेंवाड़ के राणा रतनसिंह जी ने कविराज जी हूँपा जी सान्दू को मन-पसंद जगह पर एक गाँव जागीर में विक्रम संवत 1368 में 5651 बीघा जमीन जागीर में मिली। कविराज हूँपा जी सान्दू वहाँ आकर बस गये तब उस गाँव का नाम उनके नाम पर "हूँपाखेड़ी" रखा गया। कालान्तर में समय के साथ परिवर्तन होते हुए अब इस गाँव का नाम "हापाखेड़ी" के नाम से जाना जाता है। तब खिंवसर के रावल खिवसिंह जी मेंवाड़ आये तब हूँपकरण जी सान्दू को अपने साथ खिंवसर ले गये वहाँ जैसलमेर के रावल दुर्जनशाल जी और हूँपा जी सान्दू के गहरी मित्रता हो गई इसी दौरान हूँपाजी सान्दू को रावल दुर्जनशाल अपने साथ जैसलगिरा ( जैसलमेर) ले गये । हूँपकरण जी सान्दू न की मारवाड़ बल्की भारतवर्ष के सभी राजा-महाराजाओं के दरबार में सम्मानित कविराज के रूप में माने जाते थे। जैसलगिरा (जैसलमेर) के रावल दुर्जनशाल जी के और हूँपा जी सान्दू के बीच बहुत घनिष्ट मित्रता थी। एक बार दुर्जनशाल जी और अलाउद्दीन खिलजी के साथ बहुत भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में दुर्जनशाल जी वीरता के साथ लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हो गए और उनके साथ हूँपा जी सान्दू के पुत्र हरिसिंह जी सान्दू भी यद्ध में भाग लिया तथा वीरगति को प्राप्त हुए।
तब जैसलगिरा की रानियों ने जौहर करने की ठान ली। जौहर के समाचार जब खिंवसर पहुँचे तो दुर्जनशाल जी की रानी "लखांदे" ने सान्दू हूँपा जी को याद किया। दोनों रथ लेकर जैसलगिरा पहुँचे। वहाँ पहुँचे तो देखा कि चारों तरफ लाशों के ढेर पड़े है, मैदान में सैनिकों के कटे हुए सिर, धड़ तथा अस्त्र व शस्त्र बिखरे पड़े थे। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात शिव ने ताण्डव किया हो। यह सब देख लखांदे ने सती होने की ठान ली लेकिन उसके पति के सिर के बिना सती नहीं हो सकती थी तथा चारों तरफ बिखरे हुए शिरों में दुर्जनशाल जी का सिर ढूंढना अत्यंत कठिन था। तब राणी लखांदे ने कविराज सान्दू हूँपकरण जी से कहा की आज आपको मेरी लाज रखनी है, और इतिहास साक्षी है की चारण सदा राजपूतों के सहायक तथा मार्गदर्शक रहे है। तब रानी लखांदे ने सान्दू हूँपकरण जी से कहा की है कविराज जी दुर्जनशाल जी आपकी कविताओं तथा मुखवाणी पर हमेंशा रिझा करते थे अत: अब फिर से उनको रिझाने की घड़ी आ गई है। इतना सुनकर कविराज सान्दू हूँपा जी ने कहा कि में आज फिर से अपनी वाणी से उनको रिझाऊँगा और वे स्वयं अपने मुह से बात करेंगें।
तब सान्दूँ हूँपकरण जी ने अपने दोनों हात जोड़कर और आँखे बन्द करके अपनी आराध्य देवी कुलदेवी माँ मम्माय जी का स्मरण किया। रणभुमी में गंगाजल छिड़का तथा पुन: क्षणिक स्मरण करते हुए अपने ईष्ट माँ मम्माय को कहा की "हे माँ ! आज तेरे बैटे की परीक्षा है, तेरी वाणी की परीक्षा है, मेरे जप की और तेरे तप की परेक्षा है, एक देवी पुत्र की तथा चारणो और राजपूतों के सनातन सम्बन्ध की परीक्षा है तथा चारणो के सत्य की परीक्षा है। इतना कहते ही माँ भगवती स्वयं उनकी जिह्वा पर विराजमान हो गई। माँ भगवती के सान्दू हूँपकरण जी की जिह्वा पर विराजमान होते ही उस क्षण पवन ने बहना छोड़ दिया, नभचर उड़ते-उड़ते रूक गये, कैलाश में बैठे भगवान भोलेशंकर का ध्यान भंग हो गया, स्वयं विष्णु, ब्रम्हा, चारों वेद, देवीयाँ, समस्त देवतागण, यक्ष, नाग, किन्नर आदी सभी देवता अपने-अपने आसन त्याग कर महाकवि "हूँपा जी" की ओज भरी वाणी को सुनने के लिए युद्धभुमि पर अप्रत्यक्ष रूप से पहुँच गये तथा हुँपा जी की मुख वाणी को सुनने को आतुर हो रहे थे।
तभी देवीपुत्र सान्दू हूँपकरण जी ने ध्यान मग्‍न होते हुए अनेक दोहों का ओज मयी उच्‍चारण किया। जिनमें से कुछ प्रमुख पंक्तियाँ निम्‍न है―
क्रम केत स्वरग कज नह भारत कज
दुठ दुहड़े दळ्या दुजोण।
पह तिण भवणै त्रिणे पेखियो
धड़ पाखे नाचंतो ध्रोण॥१॥
हु हुपो मरण किम हेरु,धर सामी लीजती धर!
मेलु मुछ मिर पण माने कमल कहे जो हुवे सो कर!
कर विण मुछ भ्रौहसो, सुंज कर अड़व ओपियो अँजसियो !
गढां गिलेवा आदमगौरी,हङ हङ हङ दुदो हासियोँ ॥२॥
हूँपै सान्दू सेवियो साहब दुर्जण सल्ल।
बिड़दातां सिर बोलियो गीतां दुहां गल्ल॥
कविराज सान्दू हूँपकरण जी की ओज मयी शब्द सुनते ही दुर्जनशाल जी कटा हुआ मस्तक जो धड़ विहीन था वह बोल पड़ा―
व्हैता जै पग हाथ, उठ'र सांमी आवतौ।
मिळता बाथां घात, हिंयो मिलायर हूँफड़ा॥
दुर्जनशाल जी की वाणी सुनकर रानी लखांदे ने उनका सिर गोद में लिया और सती हो गई।
इसी कुल मे आगे चलकर "बोरम जी" सान्दू के पुत्र "अम्बादान जी सान्दू" और उनके पुत्र "धर्मा जी सान्दू" के अप्रतीम प्रतिभा के धनी "रामा जी सान्दू" का जन्म हूँपाखेड़ी में हुआ। रामा जी सान्दू अपने काल में बहुत बड़े विद्वान, ईष्टबली और एक कविराज के रूप में प्रख्यात थे। उन्होंने अपने काल में पूरे राजपूताना में अपनी विद्वता का परचम फहराया । रामा जी सान्दू मेंवाड़ के हिन्दवा सूरज महाराणा प्रताप की सेना में सेनानायक थे। वे विक्रम संवत 1576 में हल्दीघाटी के महासंग्राम में अकबर की सेना के साथ बड़ी वीरता से युद्ध लड़े। वे अकबर की सेना को सर्वाधिक क्षति पहुचाने वाले दल के सेनानायक थे। रामा जी सान्दू के बारे में दयालदास राव ने "राणरासौ" में हल्दीघाटी के युद्ध का विस्तृत्व वर्णन करते हुए लिखा है की–
भगी भीर भाऊं अशाऊं उकढ्यो।
महा मोर माँ झीनी के मुख्‍ख चढ्यो॥
जिते जुध्ध जोधा जुरै स्वामी कामां।
पचारे तिन्हे पेखि चारनुं रामा॥
इसी कुल में आगे चलकर "उदयकरण जी सान्दू" के पुत्र "मालादान जी सान्दू" का जन्म हुआ। मालादान जी ने अपनी विद्वता की धाक समस्त राजपुताना के राजों-रजवाड़ों में फैलाई और माला जी सान्दू न केवल कलम के धनी थे अपितु तलवार के धनी भी थे। उन्होने स्वयं कई युद्धों में भाग लेकर अपनी वीरता का अद्भुत परिचय दिया। माला जी सान्दू ने विक्रम संवत १६६८ में गोयन्ददास जी के नेतृत्व में महाराणा अमर सिंह जी से लड़ी लड़ाई में भाग लिया था। माला जी सान्दू का न केवल रजवाड़ों में अपितु मुगल दरबार में भी उनका उतना ही सम्मान था। खुद बादशाह अकबर ने अपने हाथों से उन्हें पाग बंधाकर सम्मानित किया। जिनका एक सोरठा मिलता है―
अकबर पेज अधार, पाग बन्धावे पात सा।
हे चारण चकार, मिणधर सान्दू मालदे॥
माला जी सान्दू बहुविज्ञ व बहुश्रुत थे। वे वेद, पुराण, स्मृति, व्याकरण, छन्द, शास्त्र, ज्योतिष, शालिहोत्र आदि के पूर्ण ज्ञाता थे।
बादशाह अकबर ने उनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही पृथ्वीराज राठौड़ की " वेली किशन रुकमणी री" के चार निर्णायक चारणो में माला जी सान्दू को भी शामिल किया था।
चारण जाति की सान्दू शाखा में आगे चलकर अनेक विद्वान हुए जिन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा, प्रज्ञा व सतत् साधना द्वारा काव्य रचना में अपुर्व योगदान देकर उत्कृष्ट ग्रंथों का प्रणयन किया। अत: आज भी चारण जाति के सान्दू कुल में जन्में व्यक्तियों में सच्‍ची निष्ठा, भक्ति, काव्यगुण, वीरता सत्यता के गुण विद्यमान है और रहते जायेंगें।

पिछले 1300 सालों से आज तक भारत निरंतर अनेकानेक धर्मों के हमले झेल रहा है परंतु चरणों,राजपूतों, सिक्खों , मराठाओं और भारत की अन्य वीर जातियों की वजह से आज तक सनातन हिन्दू धर्म जीवित है और रहेगा।
इस्लाम भारत मे उतनी तीव्रता से नही फैला जितना अरब, मिस्र, ईरान, इराक और तुर्की में। आर्यों की भूमि भारतवर्ष में इस्लाम का मुकाबला संसार के सबसे प्राचीन धर्म से हुआ और इतिहास गवाह है कि आज 1300 वर्षों के संघर्ष के बाद भी सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन हिंदू धर्म के अनुयायी अधिसंख्य हैं न कि किसी और धर्म के। चाहे इस्लाम हो या कोई और। अगर ऐसा न हुआ होता तो इस्लाम न केवल हिंदुस्तान बल्कि म्यांमार , चीन और जापान तक फैल जाता।
इस्लाम के हमले 650 ईसवी से ही शुरू हो गए थे। शुरुआत में राजपूतो के सैकड़ों युद्ध अरब, ईरानी, तूरानी और अफगान मुस्लिम आक्रमणकारियो से हुए और सभी हिंदुओ ने ही जीते।
गुजरात सम्राट नागभट्ट , सम्राट भीमपाल, कश्मीर के सम्राट ललितादित्य, कन्नौज के यशोवर्मन, मेवाड़ के बप्पा रावल और राणा कुम्भा और राणा सांगा, जालौर के वीरम देव सोनगरा, अजमेर के पृथ्वीराज चौहान, चालुक्यों के विक्रमादित्य द्वितीय, देहली के तंवर , कालिंजर के राजाओं आदि ने कई बार मुस्लिम आक्रमणकारियों को हराया परंतु चूंकि हमारा देश एक लोकतंत्र है अतः वोट बैंक का महत्व होने से इनका इतिहास नही पढ़ाया जाता ताकि अल्पसंख्यको को ठेस ना पहुँचे। परंतु इस वजह से अनेक भ्रांतिया उत्पन्न हो गयी है।
राजा डार की दो बेटियों ने इस्लामी आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम से ऐसा बदला लिया कि बगदाद के ख़लीफ़ा की अगले 200 सालों तक वापस हिम्मत नही हुई भारत पर हमला करने की।

जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार  भारत के इतिहास के एक अतिमहत्वपूर्ण पन्ने को विदेशियों ने अंधकारपूर्ण युग (dark ages) कह कर गायब ही कर दिया। ये समय था 600 से लेकर 1100 ईस्वी तक का। ये वो समय था जब इस्लाम को भारत मे बार बार हारना पड़ा था। ये हिन्दुओं की विजय का इतिहास था। इसे हिन्दुओ के आत्मबल को तोड़ने के लिए मिटा दिया गया। जब किसी सभ्यता का आत्मबल चला जाता है तब उसे गुलाम बनाने में आसानी रहती है क्योंकि इससे मनोवैज्ञानिक तौर पर वो सभ्यता पंगु हो जाती है और लड़ने की हिम्मत नही जुटा पाती।
हिन्दू धर्म की चारण जाति: चाह-रण
इन युद्धों में हिन्दू सेनाओ की विजय का प्रमुख कारण एक बेहद विशिष्ट जाति थी जो “चारण” कहलाती थी। राजपूत और क्षत्रिय उसे अपने हरावल (vanguard) में रखते थे। हरावल सेना की वो टुकड़ी होती है जो शत्रु से सबसे पहले भिड़ती है। अग्रिम पंक्ति में चारण योद्धाओं को रखा जाता था। इन्हीं के साथ राज चिन्ह, नक्कारे और पताकाऐं चलती थी।
ये योद्धा और कवि दोनों भूमिकाओं का निर्वाह करते थे। युद्ध मे हरावल के योद्धा और शांति में डिंगल भाषा के कवि और इतिहासकार।
कश्मीर ( चारणों का प्राचीन निवास स्थान)
जैसे कि, राजपूत शब्द राजा+पूत (अर्थात राजा का पुत्र) से बना है। उसी प्रकार, चारण शब्द चाह + रण से बना है अर्थात वह जो रण या युद्ध की चाह रखता है।
वर्ण ‘ह’ का उच्चारण थोड़ा मुश्किल है क्योंकि यह हलक से होता है अतः यह कालांतर में चाहरण से सिर्फ चारण रह गया।
ये एक बेहद खूंख्वार (fierce) जाति थी। ये युद्ध मे काले रंग के वस्त्र धारण करते थे और उन पर पशुबलि का रक्त या लाल रंग लगा होता था। ये दोनों ही हाथों में शस्त्र रखते थे क्योंकि वीरगति प्राप्त करना मोक्ष के समकक्ष समझा जाता था अतः ढाल का उपयोग बहुदा नही किया करते थे। स्त्रियां त्रिशूल धारण करती थी और युद्धों में नेतृत्व करती थी। इनकी वेशभूषा अत्यंत डरावनी होती थी। ये दिखने में भी बड़े खूंख्वार होते थे।
युद्ध होने पर ये अत्यंत रक्तपात करते थे । इस जाति की कुछ देवीयों को बली और शराब भी चढ़ाई जाती है जैसे आवड़ जी या करणी जी परंतु वही कुछ देवीयों जैसे गुजरात की खोडियार आदी को माँस और शराब निषिद्ध है। ऐसे भी उदाहरण मिलते है कि बलि इत्यादि में इनकी दैवीयां बलि दिए गए पशु का रक्तपान करती थी। युद्ध मे हारने पर या अपनी जिद पूरी ना होने पर ये जापान के समुराई योद्धाओं की भाँति स्वयं के शरीर के अंगों को स्वयं ही काट डालते और शत्रुओं को श्राप देकर अपनी जीवनलीला स्वयं समाप्त कर देते क्योंकि युद्ध से वापस आना अपमानजनक समझा जाता था । इस प्रक्रिया को “त्रगु” या “त्राग” कहा जाता था। जापान के समुराई योद्धा इसे ‘हाराकीरी’ कहते है। इस प्रकार ये हिन्दुओ के आत्मघाती हमलावर थे। जहाँ जहाँ भी ऐसा होता वहाँ उन योद्धाओं की याद में पत्थर लगा दिये जाते जिनको “पालिया” कहा जाता था। ये पत्थर अभी भी आप गुजरात और राजस्थान के चारणों के पुराने गाँवो में देख सकते है।
ये पालिये सैकड़ों की तादाद में हर छोटे मोटे गाँवो में लगे हुए है और इस बात की पुष्टि करते है कि सैकड़ों युद्ध हुए थे। परंतु अब ये पालिये ही रह गए हैं। लिखित इतिहास को काफी हद तक नष्ट कर दिया गया है।
चारणों का युद्ध इतिहास पूरी तरह से मिटाने की पुरजोर कोशिश इसलिए हुई क्योंकि युद्ध मे वीरता का सीधा जुड़ाव गौरव से है। अतः बड़ी जातियां ये नही चाहती थी कि कोई ये गौरव उनसे छीने । अतः चारणों को निरंतर हाशिये पर धकेलने की कोशिशें हुई और अभी तक जारी है। दरअसल ये ऐसी जाति थी जिसने अपने आप मे ब्राह्मणों और क्षत्रियों दोनों के अच्छे गुणों का सम्पूर्ण रूप से समावेश कर अपने आप को इस दोनों से अत्यधिक ऊंचा उठा लिया और आम जनमानस इन्हें देवताओं के समकक्ष रखने लगा। अतः ईर्ष्या स्वाभाविक थी और इसका दंश चारणों को झेलना पड़ा। दूसरा चारण अत्यधिक युधोन्मादी होने की वजह से निरंतर राजपूतों को लड़ने के लिए कहते जिससे राजपूतों में धीरे धीरे ये धारणा बनने लगी कि ये हमें अनावश्यक युद्धों में झोंकते रहते है और दोनो में दूरियां बढ़ने लगी।
शांति काल मे चारण वीरगति को प्राप्त योद्धाओं पर एक भाषा विशेष में वीर रस की कविताएं लिखती थी। इस भाषा को “डिंगल” कहते थे। इसका अर्थ होता है भारी-भरकम क्योंकि यह कविता अत्यंत भारी और डरावनी आवाज़ में बोली जाती थी और इसकी एक विशिष्ट शैली होती थी जो अब लुप्त हो चुकी है और अब केवल विरूपण देखने को मिलता है।
1000 ईस्वी के आसपास में डिंगल भाषा में लिखे हुए इस छद को पढ़े
तीखा तुरी न मोणंया, गौरी गले न लग्ग। जन्म अकारथ ही गयो, भड़ सिर खग्ग न भग्ग।।
अर्थात
यदि आपने अपने जीवन में तेज घोड़े नही दौड़ाये, सुंदर स्त्रियों से प्रेम नही किया और रण में शत्रुओं के सर नही काटे तो फिर आपका यह जीवन व्यर्थ ही गया।
एक और उदाहरण देखिए
लख अरियाँ एकल लड़े, समर सो गुणे ओज। बाघ न राखे बेलियां, सूर न राखे फौज।।
अर्थात
 चाहे लाखों शत्रु ही क्यों न हो एक योद्धा उसी तेज के साथ युद्ध करता है। जिस प्रकार बाघ को शिकार के लिए साथियों की जरूरत नही होती उसी प्रकार एक योद्धा भी युद्व के लिए फौज का मोहताज नही होता।
इस प्रकार के दोहो और कविताओं से आने वाली पीढ़ियों को युद्ध के लिए निरंतर प्रेरित किया जाता था।
युद्धकाल में ये जाति हिन्दू सेनाओं में अग्र पंक्ति में युद्ध करती थी।
इस प्रकार इस जाति में ब्राह्मणों और क्षत्रियों दोनों के गुण अपने पूरे रौब के साथ विद्यमान होते थे|
यही कारण है कि इतिहासकार इनको ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो ही जातियों से श्रेष्ठ मानते है और आम जन मानस में इन्हें अपनी विशेषताओं के कारण देवताओं का दर्जा प्राप्त है।
भगवत गीता, रामायण और महाभारत में चारणों की उत्पत्ति देवताओं के साथ बतायी गयी है।
पुराणों को लिखने का श्रेय भी चारणों को दिया जाता है। (स्रोत: आईएएस परिक्षा हेतु Tata McGraw Hill की इतिहास की पुस्तकें)
  ये किले के द्वार पर हठ कर के अड़ जाते थे और भले राजा स्वयं किला छोड़ कर चला गया हो, शत्रुओं को भीतर नही जाने देते थे। इनकी इसी हठ के कारण कई बार ये सिर्फ अपने परिवार के साथ ही शत्रुओं से भिड़ जाते थे और पूरा कुटुंब लड़ता हुआ मारा जाता। एक बार औरंगजेब ने उदयपुर के जगदीश मंदिर पर हमला किया तो उदयपुर महाराणा अपनी समस्त फ़ौज और जनता के साथ जंगलों में चले गए परंतु उनका चारण जिसका नाम बारहठ नरुजी था, वहीं अड़ गया और औरंगजेब की सेना के साथ लड़ता हुआ अपने पूरे कुटुंब के साथ मारा गया। कहते है उसने कदंब युद्ध किया जिसमें की सर कटने के बाद भी धड़ लड़ता रहता है। उसके पराक्रम को देख कर जहां इनका धड़ गिरा वहाँ मुस्लिम योद्धाओं ने सर झुकाया और उनका एक स्थान बना दिया। जहां उनका सर गिरा वहाँ हिंदुओ ने समाधि बना दी और उस पर महादेव का छोटा सा मंदिर बना दिया। इस आशय का एक शिलालेख अभी भी जगदीश मंदिर के बाहर लगा हुआ है जिसकी कोई देखरेख नही करता। इनका आदमकद फ़ोटो जो कि जगदीश मंदिर में लगा हुआ था, भी महाराणा के वंशजों ने हटवा दिया क्योंकि उनके पूर्वज तो किला छोड़ कर चले गये थे और ये वीरगति को प्राप्त हुए तो इनकी ख्याति अत्यधिक बढ़ गयी थी जो महाराणा के वंशजों को रास नही आई।
  इस जाति की महिलाओं ने सैकड़ों बार राजपूत सेनाओं का नेतृत्व कर बाहरी आक्रमणकारियो को हराया और ये राजपूतो में पूजनीय होती थी। आपने राजपूत करणी सेना का नाम तो सुना ही होगा। ये करणी जी चारण जाति में उत्पन्न देवी है। इनका मंदिर देशनोक में है जो कि राजस्थान में बीकानेर के पास है । देखें गूगल पर।
 इस जाति की वजह से 800 वर्षो तक राजपूतो ने मुस्लिम आक्रमणकारियो से लोहा लिया। और लगातार युद्ध जीते। इस आशय का एक पत्र जो कि कर्नल जेम्स टॉड ने ब्रिटेन की महारानी को लिखा था आज भी उदयपुर के सिटी पैलेस म्यूजियम में दर्शनार्थ रखा हुआ है।
इस जाति के बारे में एक प्रसिद्ध दोहा है, जो इस प्रकार है
आवड़ तूठी भाटिया, श्री कामेही गौड़ा, श्री बरबर सिसोदिया,श्री करणी राठौड़ां।
अर्थात भाटी राजपूतों को राज, चारण देवी आवड़ ने दिया, श्री कामेही देवी ने राज गौड़ राजपूतों को दिया,श्री बरबर जी ने राज सीसोदियो को दिया,और श्री करणी जी ने राठोड़ों को।
ये सभी राज्य उपरोक्त चारण देवियों ने राजपूतो को दिये।
मामड़जी चारण की बेटी आवड़ ने सिंध प्रान्त के सूमरा नामक मुस्लिम शासक का सिर काट कर उसका राज्य भाटी राजपूतों के मुखिया तनु भाटी को दे दिया। उस राजा ने तनोट नगर बसाया और माता की याद में तनोट राय (तनोट की माता) मंदिर का निर्माण करवाया।
जिस समय आवड़ ये युद्ध सिंध प्रांत में लड़ रही थी उसी समय उसकी सबसे छोटी बहन खोडियार (The Criple) कच्छ के रण में अरब आक्रमणकारियों से युद्ध कर रही थी जिसमे हिन्दू सेनाओं को विजय प्राप्त हुई। कहते है खोडीयार ने अपने रिज़र्व धनुर्धारियों को एकदम से युद्ध मे उतारा जिससे शत्रुओं को लगा कि हज़ारों बाणों की वर्षा कोई अदृश्य धनुर्धारी कर रहे हों। आज पूरा गुजरात खोडीयार का उपासक है। खोडीयार भावनगर राज घराने की कुलदेवी भी है। ये युद्ध 8वीं शताब्दी के आसपास हुए थे। ये खोडीयार चारणों की सबसे शक्तिशाली खांप जिसे वर्णसूर्य (जातियों के सूर्य, अपभ्रंश वणसूर) कहा जाता है कि भी कुलदेवी है।
 ये कुल सात बहने थी और सातों जब एक साथ युद्ध के मैदान (जो किअक्सर कच्छ का रण या थार का रेगिस्तान होता था) में प्रवेश करतीं तो दूर से इनके हवा में हिलते काले वस्त्रों, काले अश्वों और चमकते शस्त्रों के कारण ये ऐसी दिखाई देतीं जैसे सात काले नाग एक साथ चल रहे हो। अतः आम जनमानस में ये नागणेचीयां माता अर्थात नागों के जैसी माताएं कहलाईं। इन सातो देवियों की प्रतिमा एक साथ होती है। इन्हें आप जोधपुर के मेहरानगढ़ किले के चामुंडा मंदिर में देख सकते हैं। आजकल इनके इतिहास को भी तहस नहस लड़ने की पुरजोर शाजिशें चल रही है और उल्टी सीधी किताबें भी लिखी जा रही है।
इसी जाति में मोमाय माता का जन्म हुआ। ये महाराष्ट्र में मुम्बादेवी कहलाईं और इन्ही के नाम पर मुंबई शहर का नाम पड़ा।
 बीकानेर के संस्थापक राव बीका को बीकानेर का राज्य करणी माता के आशीर्वाद से प्राप्त हुआ और उन्होंने करनी माता के लिये देशनोक में मंदिर का निर्माण भी करवाया। करणी माता ने ही जोधपुर के मेहरानगढ़ किले और बीकानेर के जूनागढ़ किले की नींव रखी और यही दोनों दुर्ग आज भी राठौड़ों के पास है जबकि बाकी राजपूतों के सभी किले उनके हाथ से जा चुके हैं। आम जनमानस इसे भी करणी का चमत्कार मानता है।
बिल गेट्स की सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने साम्राज्यों और युद्धों पर आधारित अपने विश्वविख्यात कंप्यूटर गेम ‘साम्राज्यों का युग’ (Age of Empires) में करणी माता को श्रद्धांजलि देते हुए उनका एक wonder (चमत्कार) बनाया है जो गेम में बनने के बाद साम्राज्य जीतने में मदद करता है। लिंक है
माइक्रोसॉफ्ट ने सिर्फ करणी को ही युद्ध की देवी माना है न कि दुर्गा, चामुंडा या भवानी आदि को। इसका कारण ये हो सकता है कि करणी जी मात्र एक मिथक न होकर वास्तव में मौजूद थी।
नारी सशक्तिकरण की शुरुआत चारणों ने 7वीं शताब्दी में ही कर दी थी। इनकी बेटियां जीती जागती देवियों के रूप में पूजी जाने लगी थीं।

एक और सत्य घटना:

1965 के भारत पाक युद्ध मे चारण देवी माँ आवड़ के तनोट स्थित मंदिर जिसे तनोटराय (अर्थात तनोट की माता) के नाम से जाना जाता है, में पाकिस्तान ने 3000 बम भारतीय सेना की टुकड़ी पर गिराए पर एक भी बम नही फटा। इसे सेना ने माता का भारी चमत्कार माना। आज भी माता आवड़ को सेना और BSF की आराध्य देवी माना जाता है। हर शाम BSF के जवान माँ की बेहद ओज पूर्ण आरती करते है जो देखने लायक होती है।
बाद में इस अत्यंत छोटी जाति की अत्यधिक ख्याति देख बड़ी जातियां इनसे ईर्ष्या करने लग गयीं। इससे चारणों के प्रति षडयंत्र होने लगे। मसलन एक ब्राह्मण ने मेवाड़ राज्य के शासक महाराणा कुम्भा से कह दिया कि उसका वध एक चारण करेगा। जिससे डरे हुए कुंभा ने सभी चारणों को मेवाड़ से चले जाने को कहा। जबकि हमीर के जन्म के समय एक चारण देवी ने भविष्यवाणी की थी कि हमीर का यश सब ओर फैलेगा और वो राजा बनेगा। इस पर हमीर की माँ ने कहा कि है देवी यह तो असम्भव है। परंतु असम्भव सम्भव हुआ और हमीर राजा बना। ये गाथा आज भी कुम्भल गढ़ के लाइट एंड साउंड शो में दिखाई जाती है। आप यूट्यूब पर देख सकते हैं।
राजपूतों के लिए चारण दुधारी तलवार के समान थे। पक्ष में लड़ते तो शत्रुओं पर कहर बन कर टूट पड़ते और आत्मघाती हमलावर बन जाते।
वहीं जब अपनी जिद पर अड़ जाते तो राजपूतों के लिए मुश्किल बन जाते। खासकर शादी ब्याह के मौकों पर जब अपनी मांगे पूरी न होने पर रंग में भंग कर देते। युद्ध और त्रगु की धमकी देते। ऐसी घटनाओं से राजपूतों और चारणों में दूरियां बढती गयीं। अब चारण सिर्फ उन्हीं राजपूतों के यहाँ जाते थे जहाँ उनका मान सम्मान बरकरार था। इससे अधिकतर राजपूतों का पतन होता गया जो आज तक जारी है। इसका कारण है कि चारण राजपूतों के गुरू भी थे और उन्हें बचपन से ही वीरता के संस्कार देते थे। बच्चों को बचपन से ही कविताओं, गीतों और दोहो इत्यादि के द्वारा बताया जाता था कि उनके पूर्वज कितने बड़े योद्धा थे और उन्हें भी ऐसा ही बनना है। ये कवित्त चारण स्वयं लिखते थे और इसमे अतिश्योक्ति जानबूझकर की जाती थी क्योंकि ये मानव का स्वभाव है कि वह महामानव का अनुसरण करता है न कि साधारण मनुष्य का। यही कारण है कि हम फिल्मो में नायक को पसंद करते हैं। महान राजपूत और चारण योद्धाओं पर काव्य की रचना कर चारणों ने उन्हें अमर कर दिया। इसलिये हर राजपूत की ये चाह होती थी कि कोई चारण कवि उस पर कविता लिखे। इसके लिए राजपूत मरने को भी तैयार रहते थे। यही कारण है की इन्हें कविराज भी कहा जाता था।
मध्यकाल में भी कई बार चारणों ने राजपूतों को राजा बनाया।
 जोधपुर के महाराजा मान सिंह ( शासन 1803–1843) को चारण ठाकुर जुगता वर्णसूर्य ने राज गद्दी दिलवाई। मान सिंह जब केवल नौ साल के थे उनके बड़े भाई जोधपुर महाराजा भीम सिंह ने उन्हें मारने की कोशिश की क्योंकि उनके पुत्र नही हो रहा था तो उनको लगा कि कहीं मान सिंह बड़ा होकर उनसे राज गद्दी न छीन ले। मान सिंह को उनके चाचा शेर सिंह जोधपुर के किले से निकाल कर कोटड़ा ठिकाने के चारण जुगता वर्णसूर्य के पास जालोर के किले में छोड़ आये। पता चलने पर शेर सिंह की दोनों आँखे उनके भतीजे भीम सिंह ने निकलवा दी और प्रताड़ना देकर मार दिया। मारवाड़ की सेना ने जालौर की घेराबंदी कर दी जो कि 11 साल तक रही। अतः मान सिंह करीब 11 साल तक जालौर के किले में रहे और जुगता वणसूर के प्रशिक्षण की बदौलत उन्होंने भाषाओं, शस्त्र और शास्त्र सभी पर भारी महारथ हासिल कर ली। जुगतो जी ने भारी वित्तीय मदद भी मान सिंह जी को दी। ये सब मदद जुगतो जी ने बिल्कुल निःस्वार्थ की क्योंकि न तो मान सिंह गद्दी के उत्तराधिकारी थे न ही उनके राजा बनने की कोई उम्मीद थी। चौबीसों घंटे जालौर जोधपुर की सेना के घेरे में रहता था और निरंतर हमले होते रहते थे। बाद में दैवयोग से भीम सिंह अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए और मान सिंह राजा बन गए। राजा बनते वक्त मान सिंह ने जुगतो जी से आशीर्वाद लिया और उन्हें कई प्रकार के विशेषाधिकारों से नवाजा जैसे दोहरी ताज़ीम, लाख पसाव, हाथी सिरोपाव और खून माफ आदि। जुगतो जी को हाथी पर बैठा कर स्वयं मान सिंह आगे आगे पैदल चले और किले के अंतिम द्वार तक छोड़ने आये। उनके गांव कोटड़ा में एक दुर्ग का निर्माण करवाया जो आज भी जुगतो जी के वंशजों के पास है जो कि जुगतावत कहलाते है । मान सिंह आगे चल कर जोधपुर के सबसे काबिल राजा बने। राठौड़ सम्राटों में उनके जैसा विद्वान कोई नही हुआ। उन्होंने ने कई गीतों, कविताओं और दोहों की रचनाएं कीं। राठौड़ शिरोमणि मान सिंह ने जयपुर, उदयपुर और बीकानेर की सयुंक्त सेनाओं को एक साथ युद्ध मे बुरी तरह पराजित किया और जयपुर वालों से तो दो लाख का मुआवजा भी वसूल किया। चूंकि वे राज गद्दी के उत्तराधिकारी नही थे अतः उनके समय मे भरपूर षडयंत्र राजपूत ठाकुरों ने किए। परंतु अपने सुदृढ़ प्रशिक्षण की बदौलत उन्होंने 40 वर्ष तक मारवाड़ पर एकछत्र राज किया जो कि अपने आप मे एक उदाहरण है। जुगतो जी समेत 17 चारण हर वक्त मान सिंह जी के साथ रहते थे। चाहे युद्ध हो या आमोद प्रमोद। महाराजा मान सिंह ने बड़े मार्मिक शब्दों में अपने चारणों का गुणगान किया है और अपनी कविताओं में कहा है कि विकट समय मे जब सभी बंधु बांधवों ने मेरा साथ छोड़ दिया था तब भी ये 17 चारण योद्धा मेरे साथ डटे रहे।
इसी तरह मेवाड़ में राणा हमीर की मदद एक चारण ठाकुर ने पांच सौ घुड़सवार की सेना देकर की।
एक बार गुजरात के पालनपुर राज्य में विद्रोह हो गया। राजा पर उसकी सेना ने ही हमला कर दिया। ऐसी विकट घड़ी में उसने अपने चारण ठाकुर से मदद की गुहार लगाई। इस पर उस चारण ने जो कि बेहद सामर्थ्यवान था ने अरब सिपाहीयों की एक सेना खड़ी कर डाली और विद्रोह को कुचल दिया और राजा का वापस राज तिलक कर दिया। ( स्रोत: पालनपुर राजयानो इतिहास, पेज 9) ऐसी स्थिति में वह चारण स्वयं भी राजा बन सकता था परंतु उसने केवल अपनी मित्रता का मान रखा और विश्वासघात नही किया। चारणों को वैसे भी आम जनमानस देवताओं के समकक्ष रखता था और स्वयं राजा उनके आगे नतमस्तक होते थे अतः उनमे राजा बनने की कोई चाह प्रायः नही होती थी।
करणी द्वारा राव बीका को बीकानेर का राज दिलवाने में मदद करना सर्वविदित है।
 जाति इतिहासविद डॉ. आलोक के अनुसार चारण बड़े से बड़े राजा को भी गलत बात पर भरे दरबार मे डाँटने से नही हिचकते थे। बड़ी बेबाक और सही राय देते थे चाहे वो कितनी ही बुरी क्यों न लगे। कई बार इसके लिए वे एक विशेष छंद का प्रयोग करते थे जिसे “छंद भुजंग” (serpentine stanza) कहा जाता था। इसका दोहे का प्रभाव काले नाग के डसने जैसा होने से ऐसा नाम दिया गया है। सही और निडर राय देने के कारण हर राजपूत राजा और ठाकुर अपने यहाँ चारण को अवश्य आमंत्रित करता था और बड़ी मान मनुहार के बाद चारण सरदार आते थे। इनको जागीरे और बड़े बड़े सम्मान भेंट में देकर राजपूत प्रसन्न रखते और दरबार मे पास में बिठाते थे। चारणों से दूरियों के कारण राजपूतों में संस्कार समाप्त होते गए और कुरीतियों ने घर कर लिया। अब वे योद्धाओं से गिरकर व्यसनी हो गए। खास कर अंग्रेजो के समय मे। इनको रोकने टोकने वाला कोई नही रहा। जिस जीवन को स्वाभिमानी राजपूत “मुट्ठी भर मिट्टी” से अधिक कुछ नही समझता था उसे अब वह “जिंदगी एक बार मिलती है” में बदल कर देखने लगा। और जैसा कि इतिहास गवाह है अतंतः राजपूतों का पतन हो गया और सत्ता इनके हाथ से निकल कर मुग़लो के पास चली गयी।
राजस्थानी में दरवाजे को बारणा कहा जाता है और चूंकि चारण दरवाजे पर हठ करके अड़ जाते थे इनको बारहठ (बार +हठ) भी कहा जाता है जो कि एक पदवी या उपाधि है। राजपूतों के शादी के समय भी ये दूल्हे को तभी अंदर जाने देते जब वो इनका टैक्स जिसे नेग या त्याग या हक कहा जाता था, इनको भेंट में देता था। ये हक या टैक्स इसलिये कहलाता थे क्योंकि चारण उसी गढ़ या किले की रक्षा करते हुए मारे जाते थे। अतः इनको गढ़वी भी कहा जाता है। विवाह समारोहों में कई बार चारण जिद पर अड़ जाते और टैक्स के रूप में बेहद गैर वाज़िब मांग रखते और पूरा न होने पर बारात से युद्ध या त्रगु की धमकी देते। रंग में भंग के डर से ऐसी मांगो को पूरा करने में राजपूतों के पसीने छूट जाते। चारण ‘वीरमूठ’( वीर की मुट्ठी) भी भरते थे जिसमे स्वर्ण मुद्राएं एक चारण मुट्ठी में भर के लेता था, टैक्स के रूप में। ब्राह्मण सभी जातियों से दान, दक्षिणा और भेंट स्वीकार करते है परन्तु चारण सिर्फ राजपूत की भेंट स्वीकार करते थे अन्य किसी की नही। बाद में राजपूत इनके अत्याचार से परेशान हो गए और चारणों से विनती करके दोनों जातियों के बड़े बुजुर्गों ने ये टैक्स शादी का 2% नियत कर दिया जिससे तोरण के द्वार पर गरीब राजपूत की बेइज्जती न हो । बाद में 1857 के महान क्रांतिकारी चारण, बारहठ केसरी सिंह ने चारणों को त्याग लेने से मना कर दिया। जिसे बड़े पैमाने पर मान लिया गया परंतु गरीब चारण अपना हक लेते रहे।
चारणों को हाशिये पर धकेलने से हिन्दू योद्धाओं की प्रेरणा को भारी आघात पहुँचा। अंग्रेजो के राज के आते ही स्थिति और खराब हो गयी। अब युद्ध समाप्त हो गए जिससे राजपूत राजा आलसी और आरामपसंद हो गए क्योंकि अंग्रेजों ने शांति स्थापित कर दी। युद्ध बंद होने से चारणों की जरूरत और कद्र दोनों कम हो गयी।
मुग़ल राजपूत युद्ध:

खानवा का युद्ध:

इस युद्ध मे बाबर बड़ी मुश्किल से जीता। एलफिंस्टन लिखता है कि संग्राम सिंह अगर एक दिन पहले हमला कर देता तो भारत का इतिहास बदल जाता। राणा (जिसका एक हाथ, एक आँख और एक पैर काम नही करते थे और शरीर पर अस्सी घाव थे) ने बाबर से हुई आमने सामने की भिड़न्त में बाबर का एक हाथ करीब करीब उड़ा ही दिया था। भयंकर रूप से घायल बाबर अपनी जान बचाने तुरंत पीछे हटा। तोपो, तुलगुमा युद्ध पद्धति और अपने सैनिकों को जिहाद के नाम का वास्ता देकर बाबर किसी प्रकार बड़ी मुश्किल से जीता। युद्ध से पहले बाबर ने कुरान हाथ मे लेकर शराब छोड़ने की कसम खायी। राणा सांगा युद्ध मे हारने पर अत्यंत निराश हो गए थे। ऐसे में एक चारण ठाकुर इनसे मिलने गया जिसको इनके सामन्तो ने बड़ी मुश्किल से इनसे मिलवाया क्योंकि उनको डर था कि ये कहीं फिर से राणा को युद्ध के लिये न उकसा दे। वही हुआ। चारण ने महाभारत का दृष्टांत देकर कहा कि धर्म की रक्षा एक क्षत्रिय का कर्तव्य है चाहे उसमे अपने प्राणों की आहुति ही क्यों न देनी पड़े।उसकी प्रेरणा से राणा सांगा फिर लड़ने को उद्धत हो गया। परंतु राणा के ही सामन्तों ने राणा को जहर दे दिया, यह सोच कर की ये और रक्तपात करवाएगा। इस प्रकार मेवाड़ का राणा संग्राम सिंह, जो कि हिंदुओं का सूर्य था, अस्तांचल को चला गया।
इसी राणा संग्राम सिंह का एक चारण सेनापति हरिदास महियारिया, मुस्लिम शासक महमूद मालवा को युद्ध मे हरा कर बंदी बना लाया जिससे राणा अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने चारण को चित्तौड़ का राज्य ही भेंट में दे दिया। जिसे चारण ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए सिर्फ 12 गांव स्वीकार किये। परंतु ये तथ्य आपको इतिहास की पुस्तकों में मिलेगा न कि पाठ्य पुस्तकों में।

हल्दीघाटी:

हर युद्ध एक प्रयोजन से लड़ा जाता है। दूसरे युद्ध यानी हल्दीघाटी के युद्ध का मुख्य मकसद था राणा सांगा के प्रपौत्र यानी राणा प्रताप का वध । मात्र इसी प्रयोजन से मुगलों ने मेवाड़ पर हमला किया। परंतु मुग़ल इसमे असफल रहे। न तो वे प्रताप को मार पाए और न ही पकड। कहते है कि अकबर इतना नाराज हुआ की उसने छह महीने तक हल्दीघाटी के युद्ध मे मुग़ल सेना के जनरल मान सिंह से बात तक नही की। चूँकि युद्ध के प्रयोजन को सिद्ध नही किया जा सका अतः ये युद्ध हारा हुआ माना जाएगा।
 मेवाड़ के राणाओं का हिंदुओ में वही स्थान है जो इस्लाम मे बगदाद के खलीफा का है अर्थात सिरमौर। जिस अकबर से बगदाद का खलीफा भी थर्राता था उसको महाराणा प्रताप ने बार बार अपमान का घूट पीने को विवश किया। अकबर के साम्राज्य के नक्शे में मेवाड़ एक रक्त बूंद की भाँति स्वतंत्र दिखाई देता था।
इसके अलावा मुग़लो और राजपूतो में कोई खास युद्ध नही हुए। औरंगजेब के समय की एक छोटी लड़ाई में दुर्गादास राठौड़ जब जोधपुर महाराजा बालक अजीत सिंह जी को लेकर आ रहे थे तब मुग़लो से भिड़ंत हुई और मुग़लो को भागना पड़ा। अंग्रेज इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि राठौड़ सामन्त दुर्गादास के साथ एक चारण योद्धा भी था जो अपने दोनों हाथों में तलवारें लेकर बड़ा ही भयंकर युद्ध कर रहा था और अंततः वह भी चंद्रलोक को गया अर्थात वीरगति को प्राप्त हुआ। दुर्गादासजी अजीत सिंह जी को लेकर मारवाड़ आ गए।
अकबर बेहद बुद्धिमान था और तुरंत समझ गया कि हिंदुस्तान में रहकर राजपूतो से लगातार लड़ना मुश्किल है इसलिए उसने आगे बढ़कर वैवाहिक संबंध स्थापित करने की प्रार्थना की।
एकता न होने के कारण अपना स्वाभिमान काफी हद तक खो चुके राजपूतो ने भी समझौता कर लिया। छाती पर पत्थर रख के बेटीयों की बली इन्होंने दी । पर इससे इन्होंने दोनों ओर के हज़ारों निर्दोष लोगों के रक्तपात को भी रोक लिया और इसका श्रेय उनको जाता है और जाना भी चाहिये।
राजपूतों ने स्वयं मुग़लो की बेटियों से कभी विवाह नही किया ताकि उनका स्वयं का वंश खराब न हो। क्योंकि इस्लाम के अनुसार कोई मुस्लिम लड़की सिर्फ मुस्लिम से ही शादी कर सकती है। अतः यदि कोई राजपूत राजा किसी शहजादी से विवाह करता तो उसे पहले इस्लाम कुबूल करना पड़ता। ऐसा करने से तो धर्मपरिवर्तन हो जाता। अतः ऐसा विवाह सम्भव नही था। अतः इस प्रकार का विवाह न करके हिन्दुत्व को जीवित रखा गया।
अकबर का चित्तौड़ अभियान एक पूर्ण रूप से दो सेनाओं के मध्य युद्ध नहीं था। क्योंकि महाराणा उदय सिंह के केवल दो जनरल मेड़तिया राठौड़ जयमल और पत्ता ही वहाँ तैनात थे अपने कुछ 4–5 हज़ार सैनिकों के साथ। बाक़ी ज़्यादातर मज़दूर ही थे क़िले में जब युद्ध हुआ। इसलिए मेवाड़ की सिसोदिया सेना ने युद्ध नही किया। ये पूर्ण रूप से एक तरफा कार्यवाही थी।
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नीदरलैंड की स्कॉलर जेनेट कंफ्रोस्ट जिन्होंने चारणों पर शोध किया।
चारणों के बारे में यदि आप शोध के इच्छुक हों तो जर्मन या नॉर्डिक स्कॉलर्स के लिखे आर्टिकल पढ़ें क्योंकि वे ही इस जाति को ठीक से समझ पाए हैं। इसका कारण है कि ये वाइकिंग्स (8वीं से 11वीं शताब्दि) के वंशज है और वाइकिंग्स भी योद्धा और कवि थे और चारणों के समकालीन भी थे। वाइकिंग्स और चारणों में काफी समानताए है।
चारण भी विशुद्ध आर्य थे और इनका उदगम मध्य एशिया बताया जाता है जहां से ये सर्वप्रथम बैक्ट्रीया और हिमालय में आये और वहाँ आकर इन्होंने पुराणों आदि की रचना की। गीता, रामायण, महाभारत सभी मे इनका उल्लेख मिलता है। विद्वान होने के कारण क्षत्रियों ने इनको अपने साथ रखना शुरू कर दिया और राजा पृथु ने इन्हें तैलंग राज्य सौंप दिया जहां से ये पूरे उत्तर भारत मे फैल गए।
Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे


24.12.19

रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय:Ramkrishna paramhans jeevan parichay

Dr.Dayaram Aalok Shamgarh donates sement benches to Hindu temples and Mukti Dham 




रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय (जन्म, परिवार, मृत्यु), धार्मिक यात्रायें और प्रमुख शिष्यों की जानकारी | 

उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान भारत के सबसे प्रमुख धार्मिक शख्सियतों में से एक रामकृष्ण परमहंस एक रहस्यवादी और योगी थे. जिन्होंने जटिल आध्यात्मिक अवधारणाओं को स्पष्ट और आसानी से समझदारी से अनुवादित किया. 1836 में एक साधारण बंगाली ग्रामीण परिवार में जन्मे रामकृष्ण सरल योगी थे. उन्होंने अपने जीवन भर विभिन्न रूपों में दिव्यांगों का पीछा किया और प्रत्येक व्यक्ति में सर्वोच्च व्यक्ति के दिव्य अवतार में विश्वास किया. कहीं-कहीं उन्हें भगवान विष्णु के आधुनिक दिन के पुनर्जन्म को माना जाता था. रामकृष्ण जीवन के सभी क्षेत्रों से परेशान आत्माओं को आध्यात्मिक मुक्ति का अवतार थे. वह बंगाल में हिंदू धर्म के पुनरुद्धार में एक प्रमुख व्यक्ति थे, जब गहन आध्यात्मिक संकट ब्राह्मणवाद और ईसाई धर्म को अपनाने वाले युवा बंगालियों की प्रबलता के कारण प्रांत को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था.
1886 में उनकी मृत्यु के साथ उनकी विरासत समाप्त नहीं हुई. उनके सबसे प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन के माध्यम से उनकी शिक्षाओं और दर्शन को दुनिया तक पहुंचाया. संक्षेप में उनकी शिक्षाएँ प्राचीन ऋषियों और द्रष्टाओं की तरह पारंपरिक थीं, फिर भी वे उम्र भर समकालीन बने रहे.
बिंदु (Point) जानकारी (Information)
नाम (Name) रामकृष्ण परमहंस
असली नाम (Real Name) गदाधर चट्टोपाध्याय
जन्म दिनांक(Birth Date) 18 फरवरी 1836
जन्म स्थान (Birth Place) कमरपुकुर गाँव, हुगली जिला, बंगाल प्रेसीडेंसी
पिता का नाम (Father) खुदीराम चट्टोपाध्याय
माता का नाम (Mother Name) चंद्रमणि देवी
पत्नी (Wife) सरदमोनी देवी
धार्मिक दृश्य (Religion) हिंदू धर्म
दर्शन शक्तो, अद्वैत वेदांत, सार्वभौमिक सहिष्णुता
मृत्यु (Death) 16 अगस्त 1886
मृत्यु का स्थान (Death Place) कोसीपोर, कलकत्ता
स्मारक (Memorial) कमरपुकुर गाँव जिला हुगली, पश्चिम बंगाल
दक्षिणेश्वर काली मंदिर परिसर कोलकाता, पश्चिम बंगाल

रामकृष्ण परमहंस का प्रारंभिक जीवन 

रामकृष्ण का जन्म गदाधर चट्टोपाध्याय के रूप में 18 फरवरी 1836 को खुदीराम चट्टोपाध्याय और चंद्रमणि देवी के यहाँ हुआ था. यह गरीब ब्राह्मण परिवार बंगाल प्रेसीडेंसी में हुगली जिले के कामारपुकुर गांव में निवास करता था.
 युवा गदाधर को पढ़ने-लिखने के लिए गाँव के स्कूल में भर्ती गया लेकिन उन्हें खेलना पसंद था. उन्हें हिंदू देवी-देवताओं के मिट्टी की मूर्तियों को चित्रित करना और बनाना पसंद था. वह लोक और पौराणिक कहानियों से आकर्षित थे जो उन्होंने अपनी माँ से सुनी थी. वह धीरे-धीरे रामायण, महाभारत, पुराणों और अन्य पवित्र साहित्य को केवल पुजारियों और ऋषियों से सुनकर हृदय से लगाते हैं. युवा गदाधर को प्रकृति से इतना प्यार था कि वे अपना अधिकांश समय बागों में और नदी-तटों पर व्यतीत करते थे.
 बहुत कम उम्र से, गदाधर धार्मिक ओर झुके हुए थे और उन्हें हर रोज़ की घटनाओं से आध्यात्मिक परमानंद का अनुभव होता था. वह पूजापाठ करते हुए या किसी धार्मिक नाटक का अवलोकन करते हुए भाग जाता थे.
 1843 में गदाधर के पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई रामकुमार पर आ गई. परिवार के लिए कमाने के लिए रामकुमार ने कलकत्ता की ओर रुख किया और घर छोड़ दिया. गदाधर गाँव में अपने परिवार की देखभाल और देवता की नियमित पूजा करने लगे, जो पहले उनके भाई द्वारा संभाला जाता था. वह गहराई से धार्मिक थे और पूजा-पाठ करते थे. इस बीच उनके बड़े भाई ने कलकत्ता में संस्कृत पढ़ाने के लिए एक स्कूल खोला और विभिन्न सामाजिक-धार्मिक कार्यों में एक पुजारी के रूप में कार्य किया.
रामकृष्ण का विवाह पड़ोस के गाँव के पाँच वर्षीय सरदामोनी मुखोपाध्याय से हुआ था जब वे 1859 में तेईस वर्ष के थे. दंपति तब तक अलग रहे जब तक कि सारदामोनी की उम्र नहीं हो गई और वह अठारह साल की उम्र में दक्षिणेश्वर में अपने पति के साथ जुड़ गईं. रामकृष्ण ने उन्हें दिव्य माँ के अवतार के रूप में घोषित किया और देवी काली की सीट पर उनके साथ षोडशी पूजा की. वह अपने पति के दर्शन का एक उत्साही अनुयायी थी और बहुत आसानी से अपने शिष्यों के लिए माँ की भूमिका निभाती थी.

दक्षिणेश्वर और पुजारिन में प्रेरण पर आगमन

1855 में दक्षिणेश्वर में काली मंदिर की स्थापना जनेबाजार (कलकत्ता) की प्रसिद्ध परोपकारी रानी रश्मोनी की द्वारा की गई थी. चूंकि रानी का परिवार उस समय के बंगाली समाज द्वारा नीची जाति माने जाने वाली कैबार्टा कबीले से संबंध रखता था, इसलिए रानी राशमौनी का परिवार था. मंदिर के लिए पुजारी खोजने में भारी कठिनाई थी. रश्मोनी के दामाद माथुरबाबू कलकत्ता में रामकुमार के पास आए और उन्हें मंदिर में मुख्य पुजारी का पद के लिए बाध्य किया. जिसके बाद दैनिक अनुष्ठान में सहायता करने के लिए गदाधर भी दक्षिणेश्वर पहुँच गए. वह मंदिर में देवता को सजाने का काम किया करते थे.
 1856 में रामकुमार की मृत्यु हो गई जिसके बाद गदाधर (रामकृष्ण) मंदिर में प्रधान पुजारी का पद संभालने लगे. इस प्रकार गदाधर के लिए पुरोहिती की लंबी, प्रसिद्ध यात्रा शुरू हुई. कहा जाता है कि गदाधर की पवित्रता और कुछ अलौकिक घटनाओं के साक्षी रहे. मथुराबाबू ने युवा गदाधर को रामकृष्ण नाम दिया.
रामकृष्ण परमहंस की धार्मिक यात्रा (Ramakrishna Paramahamsa Religious Tours)
देवी काली के उपासक के रूप में रामकृष्ण को ‘शक्तो’ माना जाता था लेकिन कुछ लोगों ने उन्हें अन्य आध्यात्मिक दृष्टिकोण के माध्यम से परमात्मा की पूजा करने के लिए सीमित नहीं किया. रामकृष्ण शायद बहुत कम योगियों में से एक थे. जिन्होंने अलग-अलग रास्ते के मेजबान के माध्यम से देवत्व का अनुभव करने की कोशिश की थी. उन्होंने कई अलग-अलग गुरुओं के अधीन स्कूली शिक्षा ली और समान उत्साह के साथ उनके दर्शन को आत्मसात किया. उन्होंने हनुमान के रूप में भगवान राम की पूजा की. वह राम के सबसे समर्पित अनुयायी थे.
उन्होंने 1861-1863 के दौरान तंत्र साधना की बारीकियों और महिला साधु, भैरवी ब्राह्मणी से तांत्रिक तरीके सीखे. उनके मार्गदर्शन में रामकृष्ण ने तंत्र के सभी 64 साधनों को पूरा किया. यहां तक ​​कि सबसे जटिल और उन्होंने भैरवी से कुंडलिनी योग भी सीखा.
 रामकृष्ण ने आगे चलकर वैष्णव आस्था के आंतरिक यांत्रिकी पर झुकाव किया. एक विश्वास जो दर्शन और प्रथाओं को शक्तो तांत्रिक प्रथाओं के विपरीत था. उन्होंने 1864 के दौरान गुरु जटाधारी के संरक्षण के तहत सीखा. उन्होंने ‘बशाल्या भाव’ का अभ्यास किया. उन्होंने वैष्णव आस्था की केंद्रीय अवधारणाओं मधुराभव का भी अभ्यास किया, जो राधा ने कृष्ण के लिए महसूस किए गए प्रेम का पर्याय है. उन्होंने नादिया का दौरा किया और एक दृष्टि का अनुभव किया कि वैष्णव धर्म के संस्थापक चैतन्य महाप्रभु उनके शरीर में विलय कर रहे थे.
1865 में रामकृष्ण सन्यासी के औपचारिक दीक्षा भिक्षु तोतापुरी से लेना शुरू की. तोतापुरी ने त्याग के कर्मकांड के माध्यम से रामकृष्ण का मार्गदर्शन किया और उन्हें अद्वैत वेदांत, हिंदू दर्शन की शिक्षा और आत्मा के गैर-द्वैतवाद और ब्रह्म के महत्व से निपटने के निर्देश दिए.

उल्लेखनीय शिष्य

उनके असंख्य शिष्यों में सबसे आगे स्वामी विवेकानंद थे. जिन्होंने वैश्विक मंच पर रामकृष्ण के दर्शन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण के दर्शन करने के लिए 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और समाज की सेवा में स्थापना को समर्पित किया.
अन्य शिष्य जिन्होंने पारिवारिक जीवन से सभी संबंधों को त्याग दिया और विवेकानंद के साथ रामकृष्ण मठ के निर्माण में भाग लिया, वे थे कालीप्रसाद चंद्र (स्वामी अभेदानंद), शशिभूषण चक्रवर्ती (स्वामी रामकृष्णनंद), राकल चंद्र घोष (स्वामी ब्रह्मानंद), शरतचंद्र चक्रवर्ती और चर्तुदत्त. दूसरों के बीच में वे सभी न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और सेवा के अपने दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते थे.
रामकृष्ण ने अपने प्रत्यक्ष शिष्यों के अलावा एक प्रभावशाली ब्रह्ममोहन नेता श्री केशबचंद्र सेन पर भी गहरा प्रभाव डाला. रामकृष्ण की शिक्षा और उनकी कंपनी ने केशब चंद्र सेन को ब्रह्मो आदर्शों की कठोरता को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित किया, जो वे शुरू में संलग्न थे. उन्होंने बहुदेववाद को मान्यता दी और ब्रह्म आदेश के भीतर नबा बिधान आंदोलन की शुरुआत की. उन्होंने अपने नाबा बिधान काल में रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार किया और समकालीन बंगाली समाज के कुलीनों के बीच रहस्यवादी की लोकप्रियता के लिए जिम्मेदार थे.
रामकृष्ण के अन्य प्रसिद्ध शिष्यों में महेंद्रनाथ गुप्ता (एक भक्त थे, जो पारिवारिक व्यक्ति होने के बावजूद रामकृष्ण का अनुसरण करते थे), गिरीश चंद्र घोष (प्रसिद्ध कवि, नाटककार, रंगमंच निर्देशक और अभिनेता), महेंद्र लाल सरकार (उन्नीसवीं शताब्दी के सबसे सफल होम्योपैथ डॉक्टरों में से एक) और अक्षय कुमार सेन (एक रहस्यवादी और संत) आदि थे.

रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु 

1885 में रामकृष्ण गले के कैंसर से पीड़ित हो गए. कलकत्ता के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सकों से परामर्श करने के लिए रामकृष्ण को उनके शिष्यों द्वारा श्यामपुकुर में एक भक्त के घर में स्थानांतरित कर दिया गया था. लेकिन समय के साथ उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और उन्हें कोसीपोर के एक बड़े घर में ले जाया गया. उनकी स्थिति बिगड़ती चली गई और 16 अगस्त 1886 को कोसीपोर के बाग घर में उनका निधन हो गया.

  • हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-
  • विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)
  • स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"
  • यात्रा और यात्री - हरिवंशराय बच्चन
  • शक्ति और क्षमा - रामधारी सिंह "दिनकर"
  • राणा प्रताप की तलवार -श्याम नारायण पाण्डेय
  • वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान
  • सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल
  • कुछ बातें अधूरी हैं, कहना भी ज़रूरी है-- राहुल प्रसाद (महुलिया पलामू)
  • पथहारा वक्तव्य - अशोक वाजपेयी
  • कितने दिन और बचे हैं? - अशोक वाजपेयी
  • उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
  • राधे राधे श्याम मिला दे -भजन
  • ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का
  • हम आपके हैं कौन - बाबुल जो तुमने सिखाया-Ravindra Jain
  •  नदिया के पार - जब तक पूरे न हो फेरे सात-Ravidra jain
  • जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक
  • जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन
  • अँखियों के झरोखों से - रविन्द्र जैन
  • किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है - साहिर लुधियानवी
  • सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक
  • वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी
  • बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा
  • मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा
  • प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक
  • गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी
  • तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन
  • सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
  • हम पंछी उन्मुक्त गगन के-शिवमंगल सिंह 'सुमन'
  • जंगल गाथा -अशोक चक्रधर
  • मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर
  • सूरदास के पद
  • रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक
  • घाघ कवि के दोहे -घाघ
  • मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी
  • बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
  • आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक
  • प्रेयसी-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • राम की शक्ति पूजा -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
  • आत्‍मकथ्‍य - जयशंकर प्रसाद
  • गांधी के अमृत वचन हमें अब याद नहीं - डॉ॰दयाराम आलोक
  • बिहारी कवि के दोहे
  • झुकी कमान -चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'
  • कबीर की साखियाँ - कबीर
  • भक्ति महिमा के दोहे -कबीर दास
  • गुरु-महिमा - कबीर
  • तु कभी थे सूर्य - चंद्रसेन विराट
  • सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक
  • बीती विभावरी जाग री! jai shankar prasad
  • हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
  • मैं अमर शहीदों का चारण-श्री कृष्ण सरल
  • हम पंछी उन्मुक्त गगन के -- शिवमंगल सिंह सुमन
  • उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक
  • रश्मिरथी - रामधारी सिंह दिनकर
  • अरुण यह मधुमय देश हमारा -जय शंकर प्रसाद
  • यह वासंती शाम -डॉ.आलोक
  • तुमन मेरी चिर साधों को झंकृत और साकार किया है.- डॉ॰दयाराम आलो
  • स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से ,गोपालदास "नीरज"
  • सूरज पर प्रतिबंध अनेकों , कुमार विश्वास
  • रहीम के दोहे -रहीम कवि
  • जागो मन के सजग पथिक ओ! , फणीश्वर नाथ रेणु
  • रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक