3.12.19

सिख धर्म की जानकारी :Sikh dharm ki jankari




दुनियाभर में कई धर्म और जाति के लोग जाते है। सभी धर्म अपनी खास मान्यताओं और रिवाजों के लिए अपनी एक अलग पहचान रखते है। ऐसा ही एक धर्म है सिख धर्म। बाकी धर्मों में जहाँ लोगों के अलग-अलग सरनेम लगाए जाते है वहीं पर केवल सिख धर्म ही एक ऐसा धर्म है जहां सरनेम की जगह पुरुषों के नाम के साथ 'सिंह' लगाया जाता है, तो महिलाओं के नाम के साथ 'कौर' लगाने का रिवाज है। क्या आप जानना चाहेंगे कि ऐसा कब से शुरू हुआ।
हालांकि सिख धर्म में प्रारम्भ में ये रिवाज नहीं था, बल्कि बाद में इसे शुरू किया गया था। सिख धर्म के अनुसार ऐसा माना गया है कि सन् 1699 के आसपास भारतीय समाज में जाति प्रथा का इस कदर बोलबाला था कि ये एक-दूसरे के लिए अभिशाप बन गया था। जातिवाद की वजह से सिखों के दसवें गुरु 'गुरु गोविन्द सिंह' काफी चिंतित रहा करते थे। वे चाहते थे कि ऐसा कोई रास्ता निकले और किसी भी प्रकार से यह कुप्रथा समाप्त हो जाए। इसलिए उन्होंने 1699 में वैशाखी का पर्व मनाया।
 उस दिन उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को एक ही सरनेम रखने का आदेश दिया, ताकि इससे किसी की जाति का पता ना चले और जातिप्रथा पर लगाम लग सके। इसलिए गुरु गोविन्द सिंह ने पुरुषों को 'सिंह' और महिलाओं को 'कौर' सरनेम से नवाजा। कहा जाता है कि तभी सिख धर्म को मानने वाले पुरुष अपने नाम के साथ सिंह और महिलाएं अपने नाम के साथ कौर लगाती है। इतना ही नहीं सिंह और कौर सरनेम लगाने का भी एक खास अर्थ भी होता है। सिंह और कौर में सिंह का आशय होता है 'शेर' तो कौर का आशय होता है 'राजकुमारी'।गुरु गोविन्द सिंह जी चाहते थे कि उनके अनुयायी सिर्फ एक धर्म के नाम से जाने जाये ना कि अलग-अलग जाति से। इसलिए आप देखंगे कि सिख धर्म में जातिप्रथा ना के बराबर है लेकिन बाकी धर्म जैसे कि हिन्दू और मुस्लिम में जातिप्रथा की स्थिति काफी भयावह है।बेशक़ गुरु साहेबान (सिख गुरु) ने हिन्दू समाज की सबसे बड़ी लाहनत, जाति पाति प्रणाली का, सिद्धांत और अमल के स्तर पर ज़ोरदार खंडन करते हुए, सिख समाज में इसकी पूरी तरह से मनाही कर दी थी। गुरु काल के बाद धीरे धीरे सिखी के बुनियादी सिद्धांत कमज़ोर पड़ने शुरू हो गए। जिन हिंदूवादी अभ्यासों का गुरु साहेबान ने खंडन किया था, उन्होंने सिख धर्म और समाज को फिर से अपने क़ातिलाना शिकंजे में ले लिया। हिन्दूवाद के दुष्प्रभावों का सबसे गाढ़ा इज़हार सिख पंथ में जात पात प्रणाली की फिर से अमल के रूप में हुआ। ऐसे अनेक ऐतिहासिक प्रमाण और हवाले मिलते हैं जो उनीसवीं सदी तक सिख पंथ के फिर से जात-पात प्रबंध की मुकम्मल जकड़ में आ जाने की पुष्टि करते हैं।
 उनीसवीं सदी के दुसरे अर्ध दौरान बेशक़ सिंह सभा लहर द्वारा आरंभ सुधारमुखी गतिविधियों ने सिख समाज को हिंदूवादी प्रभावों से मुक्त करने में कुछ काबिले-तारीफ़ सफलताएं हांसिल की। लेकिन जात-पात का कोढ़ सिख समाज में इस कदर फ़ैल चुका था कि 'सिंघ सभा लहर' के आगूओं की इंक़लाबी कोशिशों के बावजूद सिख पंथ इस नामुराद रोग के असरों से मुक्त न हो सका। फिर भी सिंह सभा लहर द्वारा सिखी के मूल सिद्धान्तों और मौलिक परम्पराओं की फिर से स्थापति के लिए चलाई वैचारिक मुहीम का इतना असर ज़रूर हुआ कि पंथ के रौशन ख्याल हिस्सों में जात-पात को ख़त्म करने ले लिए न्या जोश और उत्साह पैदा हो गया और उन्होंने सिख समाज को इस हिंदूवादी लाहनत से जुदा करने के लिए तीखी वैचारिक मुहीम शुरू कर दी। नतीजतन, सिख पंथ में जात-पात की खुली तारीफ करने वाले तत्व, खासतौर पर सिखी में, ब्राह्मणवादी खोट मिलाने वाला मुख्य वाहक बना। महंत-पुजारी 'परिवार' सिखी सुधार लहर के हमले की सीधी मार तले आ गया और सिख पंथ के धार्मिक केंद्रों और अभ्यासों में जात-पातिए भेदभाव का खुला प्रदर्शन पहले जितना आम नहीं रहा। पर जहाँ तक आम सामाजिक जीवन का संबंध है, वहां जात पातिए भेदभाव और बाँट-अलगता जैसे की तैसी बरकरार रही। खासतौर पर ग्रामीण समाज में कथित ऊँची जात वर्गों के 'नीच' और 'अछूत' समझे जाते वर्गों के प्रति जातिय अभिमानी तरीकों और बर्ताव में कोई कमी नहीं आई।
 सच यह था कि सिख पंथ में से ब्राह्मण वर्ग जिस्मानी तौर पर भले ही गायब हो चुका था लेकिन सोच के स्तर पर वह सिख समाज में ज्यों का त्यों हाज़िर-नाज़िर था। रोज़मर्रा ज़िन्दगी में जात पातिए भेदभाव और विरोध-अलगता के हिसाब से हिन्दू और सिख समाज में कोई मूलभूत अंतर नहीं रहा। हाँ, गुरु साहेबान की इंक़लाबी विचारधारा की प्रेरणा और प्रभाव तले सिख लहर द्वारा अपने आरंभिक दौर में पूरे किये इंक़लाबी कार्यों की बदौलत सिख समाज में जात पातिए दर्जाबंदी की बुन-बनावट में ज़रूर बड़ा बदलाव आ गया था। जहाँ हिन्दू समाज में ब्राह्मण वर्ग का समाजी दर्जा सब से ऊँचा माना जाता है, वहां सिख समाज में धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में ब्राह्मण वर्ग के प्रभुत्व को पूरी तरह से नकारा है।लेकिन समय पड़ने से जैसे ही सिख समाज फिर से जात पातिए प्रणाली की जकड़ में आ गया तो वह वर्ग जिन्होंने खालसा पंथ के इंक़लाबी दौर में ज़्यादा गतिशील भूमिका निभाने का नाम कमाया था और जिन्हें रिवायती हिन्दू जात पातिए दर्जाबंदी में ब्राह्मण वर्ग से एक या दो दर्ज नीचे समझा जाता था, वह सिख समाज में ऊँचा सामाजिक दर्जा हासिल कर गए। इस तरह, ग्रामीण सिख समाज में जट्ट वर्ग ने और शहरी सिख समाज में खत्री-अरोड़ा वर्ग ने 'सवर्ण जातियों' वाला सामाजिक रुतबा हासिल कर लिया जबकि जात पात की जकड़ में आये वर्गों का पहले वाला दर्जा ही बरक़रार रहा। 'पछड़ी' समझी जाने वाली और अन्य जातियों के सामाजिक दर्जे में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। इस सामाजिक यथार्थ की राजनीतिक क्षेत्र में परछाईं पड़नी स्वाभाविक थी। ख़ास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में यह बात ज़्यादा चुभनिए रूप में सामने आई।
 गाँव की ग्रामीण ज़िन्दगी की सामाजिक एवं आर्थिक हक़ीक़त यह है कि ग्रामीण दलित वर्ग ज़मीन जायदाद से वंचित, सामाजिक तौर पर सबसे ज़्यादा लताड़ा हुआ, तीखी आर्थिक लूट-खसोट और चुभनिए सामाजिक ज़बर और दबाव का शिकार है। उसकी ज़िन्दगी में हिन्दू सवर्ण जातियों का बहुत सीधा दख़ल नहीं। खेती में मेहनत मज़दूरी करते और ग्रांव में आम जीवन बसर करते उसका ज़्यादातर सीधा वास्ता जट्ट से ही पड़ता है। इस तरह आर्थिक लूट-खसोट और सामाजिक ज़बर, दोनों ही पक्षों से उसका तुरंत विरोध जट्ट किसान से ही है। इस में सीधे रूप में हिन्दू सवर्ण जातियां कहीं भी नहीं आतीं (सिवा ग्रामीण बनिए के, जो दलित वर्ग की आर्थिक मजबूरियों का फायदा उठा के सूदखोरी आदि के ज़रिये उसकी आर्थिक लूट-खसोट में सहभागी बनता है). सो, यह सामाजिक आर्थिक फैक्टर ग्रामीण दलित वर्ग को राजनीतिक तौर पर अकाली दल जिसे कि ग्रामीण क्षेत्र में जट्ट किसानों की राजनीतिक जमात के रूप में ही पहचाना जाता है, के विरोध की तरफ धकेलते हैं। दूसरी तरफ, समूचे भारत में दलित वर्ग, जैसे पंजाब का दलित भाईचारा, भी कोंग्रेस पार्टी को अपना हितैषी पक्ष के रूप में देखता है। उसकी यह धारणा कई पक्षों के मिलेजुले प्रभाव का नतीजा है।
 सब से बड़ी बात यह है कि मोहन दास कर्मचंद गाँधी ने आज के इतिहास में छुआछूत विरुद्ध तीखी लड़ाई शुरू करने और भारत में युगों युगों से मानवीय हक़ों से वंचित किये हुए कर्मों के मारे करोड़ों जनों को भारतीय समाज और राज्य में बराबरी के मानवीय अधिकार उपलब्ध कराने का 'पूण्य' कमा के दलित वर्गों के सर पर अहसानों का कर्ज़ चढ़ा दिया कि कोंग्रेसी लीडर पचास सालों तक निरंतर इस कर्ज़े का सूद वसूल करते आ रहे हैं। कांग्रेस पार्टी की तरफ से दलित वर्ग को सरकारी नौकरियों से ले कर चुने हुए महकमों तक आरक्षण की सहूलियत और ऐसी ही और रियायतें देने से इस वर्ग की कांग्रेस पार्टी से सांझ और पक्की हो गई। इस के उलट, सिंह सभा लहर द्वारा शुरू सिखी सुधार लहर का यश घट जाने के बाद सिख लीडरों ने जात पात के खात्मे के कार्य को लगभग नज़रअंदाज़ ही कर दिया। भारत की आज़ादी के संग्राम के दौरान सिख लीडरों की तरफ से दलित वर्ग के हितों की पैरवी की शायद ही कोई उत्साहित उदहारण मिलती हो। आज़ादी के बाद बेशक़ अकाली लीडरों ने कांग्रेस पार्टी की दलित वर्ग को रिजर्वेशन देने जैसी नीतियों का खुल्लम-खुल्ला विरोध तो नहीं किया पर सिख समाज के अंदर ही कथित उच्च जातियां की इस मसले पर असली भावनाएं कभी भी गुप्त नहीं रहीं। उनकी जात-पातिए भड़ास अक्सर तहज़ीब की हदें पर पार करतीं और दलित संवेदना को रह रह कर घायल करती रहीं। इस से दलित वर्ग, डर और असुरक्षा की भावना से, कांग्रेस पार्टी का और ज़्यादा आसरा क़ुबूल करने की और धकेला जाता रहा।
1966 में पंजाब के पुनर्गठन के बाद अकाली दल को राजनीतिक सत्ता की और बढ़ता देखके पंजाब का दलित वर्ग, ख़ास तौर पर इसके भीतरी ग़ैर-सिख हिस्से अपने आप को खतरे के मुहँ में आया महसूस करने लगे। इसी दौरान आर्थिक तौर पर ज़्यादा मालामाल और राजनीतिक तौर पर अधिक बलशाली हुए धनाढ्य किसान वर्ग में अहंकार का पारा ओर ऊँचा चढ़ चला और 'हरे इंक़लाब' के आरंभिक वर्षों दौरान गाँवों में जट्टों द्वारा दलितों की नाकाबंदी की घटनाएं आम हो गईं। इस तरह पंजाब के ग्रामीण क्षेत्र में जाति-पाति की लकीरों पर राजनीतिक धड़ेबंदी का रुझान और बल पकड़ गया जो अकाली दल के लिए एक बेहद घाटे वाली और कांग्रेस पार्टी के लिए बड़े राजनीतिक फायदे वाली बात थी।
 इसलिए, पंजाब में राजनीतिक सत्ता के ऊपर काबिज़ होने के लिए अपने सामाजिक आधार को ज़्यादा खुला करना और अपनी राजनीतिक हिमायत के घेरे को और ज़्यादा वर्गों तक फैलाना अकाली दल की यकदम राजनीतिक ज़रुरत थी। इसके लिए सचेतन सुघड़ रणनीति घड़ने और फिर उसका दृढ़तापूर्वक पालन और पैरवी करने का काम अकाली लीडरशिप का सब से अहम और तुरंत सरोकार वाला काम बनना चाहिए था। सचेत स्तर पर रणनीति घड़ने का मतलब था कि सिख धर्म के बुनियादी सिद्धांतों को मद्देनज़र रखते हुए अकाली दल के दूरअंदेशी उद्देश्यों और तुरंत करने वाले कार्यों में जंचने वाला तालमेल बिठाया जाता और सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए राजनीतिक दावपेंचों के मामले में उपयुक्त लचक लाकर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी का आकर्षक मॉडल ले करके आया जाता। ऐसा करने से पहले सबसे पहले ज़रुरत (और शर्त) यह थी कि सिख राजनीति के सामने इस गंभीर चुनौती को सचेतन क़ुबूल किया जाता और पैदा हुए नए हालातों और समस्याओं के सामने अकाली राजनीति की दरुस्त मार्ग-दिशा तय करने के लिए बौद्धिक स्तर पर गहरे एवं गंभीर यतन किये जाते।
 लेकिन अकाली लीडरशिप या सिख बुद्धिजीवियों के स्तर पर ऐसा कोई सचेतन यतन किया हुआ नज़र नहीं आता। इस महत्वपूर्ण मसले के बारे में अकाली दल या उसके अंदर गंभीर विचार -चर्चा छूने और विचार मंथन के ज़रिये सही निर्णय पर पहुँचने का, किसी भी तरफ से, कोई संजीदा कोशिश नहीं हुई। लेकिन समस्या क्योंकि ख़्याली नहीं बल्कि हक़ीक़त में थी और राजनीति की ज़रूरतें इसके तुरंत हल की मांग करती थीं, इस लिए इसे बिना गहरी सोच-विचार के, मौके पर जैसे और जो ठीक लगा वैसे हल कर लेने की अटकलपच्चू (random) पहुँच अपना ली गई। गहरी और गंभीर मसलों के प्रति अपनाई ऐसी बेकायदा पहुँच पर विवेक के मुक़ाबले अंतरप्रेरणा (instinct and/ or intuition) का तत्व ज़्यादा हावी हो गुज़रता है और फैसले लेते समय अक्सर दूरगामी उद्देश्यों और निशानों के मुक़ाबले सामने पड़े मतलब ज़्यादा वज़नदार हो जाते हैं। अकाली दल के मामले में ठीक यही बात हुई।
 पंजाब में कांग्रेस पार्टी सिख पंथ की अव्वल दुश्मन और अकाली दल की मुख्य विरोधी है। सही अर्थों में बात करनी हो तो पंजाब में सिख पंथ की असली दुश्मन ताक़त आर्य समाजी वर्ग था जो पंजाब के लगभग समूचे हिन्दू भाईचार को अपनी सांप्रदायिक विचारधारा मिलावटीपन चढ़ाने और अपनी सांप्रदायिक चालबाज़ी के गिर्द लामबंद करने में कमाल की हद तक सफल हो गया था। दरअसल पंजाब में कांग्रेस पार्टी आर्य समाज के एक राजनितिक विंग विचर रही रही। पंजाबी हिंदू वर्ग की असली वचनबद्धता आर्य समाजी विचारधारा से है और कांग्रेस पार्टी उसके लिए एक 'फ्रंट जत्थेबंदी' से ज़्यादा और कोई अहमियद नहीं रखती। पंजाब के हिंदू वर्ग और कांग्रेस पार्टी के आपसी संबंधों को समझने के लिए यह तथ्य बहुत ही महत्वपूर्ण है।
 यह कहना कि कांग्रेस पार्टी पंजाब के हिंदू वर्ग को बरगला रही है या अपने संकुचित राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर रही थी या है, सच्चाई को बिगड़े हुए रूप में देखना है। सिख पंथ के संबंध में पंजाबी हिंदू तबके और कांग्रेसी लीडरशिप की बुनियादी पहुँच में कोई टकराव नहीं। दोनों ही हिंदू मत को एक बानगी मानके चलते हैं। दोनों ही सिख धर्म को हिन्दू समाज में जज़्ब कर लेने के सांझे उदेश्य पर पहरा देते हैं। सो, इस दृष्टि से दोनों ही सिख कौम के प्रति बराबर दुर्भावना रखते हैं। भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान पंजाबी हिंदू वर्ग के बड़े हिस्से राजनीतिक तौर पर कांग्रेस पार्टी से जुड़े होने के बावजूद गाँधी की विचारधारा से आर्य समाजी विचारधारा के ज़्यादा प्रभाव तले थे। लाल लाजपत राय से लेकर जगत नारायण तक, सभी आर्य समाजी 'परिवार' की सोच पर सांप्रदायिकता का एक-सामान गाढ़ा रंग चढ़ रखा था। भारत के बंटवारे से पहले सांप्रदायिकता की यह धारा मुख्य रूप से मुस्लिम भाईचारे के खिलाफ इंगित रही। वैसे बीच-मध्य जब भी सिख पंथ ने हिंदू वर्ग से अपनी अलग पहचान जतलाने की कोशिशें की तो उसे तुरंत ही आर्य समाजी वर्ग के क्रोध का सामना करना पड़ा।
 भारत की आज़ादी के बाद पंजाब में मुस्लिम फैक्टर नदारद हो जाने से इस सांप्रदायिक धारा का सारा कहर सिख कौम पर टूट पड़ा। भारतीय सरकार की बागडोर कांग्रेस पार्टी के हाथों में आ जाने से पंजाबी हिन्दू वर्ग, अपने सांप्रदायिक उद्देश्यों और हितों को पूरा करने के लिए, कांग्रेस पार्टी का और भी ज़्यादा जोशीला हिमायती बन गया। उधर कांग्रेसी शासकों को भी पंजाब में सिख कौम के संबंध में अपने फिरकापरस्त मंसूबों को अंजाम देने के लिए पंजाब के हिन्दू वर्ग के सहयोग और हिमायत की भारी ज़रुरत थी। विचारधारक समरसता के साथ ही यह एक परस्पर उदेश्य था जो पंजाबी हिंदू वर्ग और कांग्रेस पार्टी में मजबूत संयोग-कड़ी बना हुआ था।
पंजाबी हिंदू वर्ग कांग्रेस पार्टी से एक तरफ से थोड़ी लाभकारी पोज़िशन में था। उस की सारी जान कांग्रेस पार्टी की मुट्ठी में नहीं थी। कांग्रेस पार्टी के पंजाबी हिंदू वर्ग की उम्मीदें और मांगों पर पूरा न उतर सकने की सूरत में, उसके लिए कांग्रेस का पल्ला छोड़ किसी अन्य राजनीतिक पाले में चले जाने का रास्ता खुला था। इसके विपरीत पंजाब में कांग्रेस पार्टी के लिए हिन्दू वर्ग की बाजू छोड़ के ज़िंदा रह पाना मुमकिन नहीं था। सिख कौम को ग़ुलाम बना के रखने और अकाली दल को राज्यसत्ता से पर रखने के लिए कांग्रेस शासकों को पंजाब के हिन्दू वर्ग का सहयोग हासिल करना निहायत ज़रूरी था। हिन्दू वर्ग के इलावा कांग्रेस पार्टी का पंजाब में सामाजिक तौर पर पछड़े वर्गों में भी मजबूत आधार था। इस तरह इन वर्गों की मिश्रित हिमायत के साथी ही कांग्रेस पार्टी अकाली दल को राज्यसत्ता से परे रखने के उदेश्य में सफल रही थी। सो अकाली दल के सामने कांग्रेस पार्टी की इस राजनीतिक किलेबंदी में दरार डालने की राजनीतिक चुनौती थी। केवल ऐसा करके ही वह अपने लिए राज्यसत्ता तक पहुँचने का रास्ता समतल कर सकता था।

 पंजाब ऐसा प्रांत है जहां दलितों की आबादी सबसे ज्यादा है- करीब 29 प्रतिशत। ये हिंदू, सिख, बौद्ध और ईसाई धर्म में बंटे हुए हैं। लेकिन इतनी आबादी वाले दलितों की खेतिहर जमीन में हिस्सेदारी केवल 2.5 फीसदी है। दूसरी ओर राज्य की कुल 64 फीसदी सिख आबादी में जाट सिख करीब 32 फीसदी हैं, लेकिन उनके पास 80 फीसदी उपजाऊ जमीनें हैं। भूमि वितरण का यह असंतुलन राजनीति और धार्मिक संगठनों में भी दिखता है, जहां ज्यादातर बड़े पद जाट सिखों के पास हैं। वैसे तो सिख धर्म में जाति व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं है और हिंदू वर्णव्यवस्था के उलट वहां सभी की समानता की बात कही गई है। इसके बावजूद भूमि, संख्यात्मक बहुलता और परंपरागत रौबदाब के चलते जाति की चेतना ने गहराई से जड़ें जमाई हुई हैं। खास बात यह है कि पंजाब में व्यापार और साहूकारी से जुड़े रहे खत्रियों के अलावा सभी जातियां हिंदू धर्म व्यवस्था में निम्न जातियां मानी गई हैं, पर कृषि से जुड़े सभी महत्वपूर्ण संसाधनों पर कब्जा कर स्थानीय संस्कृति व राजनीति में उन्होंने ऊंची जाति का दर्जा हासिल कर लिया है। जातिगत चेतना का असर इतना व्यापक है कि विभिन्न सिख जातियों में आपस में विवाह भी नहीं होता। जाट, खत्री और रामगढ़िया सिखों को प्रभुत्वशाली जाति माना जाता है जो मजहबी, रामदसिया और रंगरेता सिखों को अपने से नीचे समझते हैं। जाट सिख व दलित सिखों के बीच टकराव में ही डेरा विवाद की वजहें छिपी हैं।
 पंजाब में करीब नौ हजार सिख व गैर सिख डेरे हैं। गैर सिख डेरों से ज्यादातर दलित समझे जाने वाले अनुयायी हैं और बताया जाता है कि डेरा सच्चा सौदा के 70 फीसदी अनुयायी सिख और गैर सिख दलित व अन्य निम्न जातियों से हैं। डेरों की ओर निम्न जातियों के झुकाव को जाट सिखों के दबदबे वाले गुरुद्वारों से अलग एक 'वैकल्पिक आध्यात्मिक-धार्मिक स्थान' की तलाश के रूप में देखा जाता है। विदेशों में बसे कई दलित परिवारों से इन डेरों को मदद मिलती है और दलित पहचान को उभारने में ये डेरे अपना योगदान देते हैं। इससे सिख संगठनों में इन डेरों के प्रति गुस्सा बढ़ रहा है। गांवों में जाट सिखों और दलितों के बीच टकराव बढ़े हैं और दलितों के बहिष्कार की अपीलें भी जारी होती है। 1920 के दशक के मंगूराम के आदिधर्म आंदोलन व आम्बेडकरवाद के असर ने भी पंजाबी दलितों में संसाधनों में हिस्सेदारी की चेतना को बढ़ाया है। इसके अलावा हरित क्रांति ने भी खेत मजदूरी को बढ़ाने और सम्मान की मांगों को उभारने में योगदान दिया है। दलितों को गुरुद्वारों की राजनीति में भी गैरबराबरी का अहसास होता है, इसलिए कई गांवों में अगर वे गुरुद्वारों की प्रबंधन कमिटी में जाट सिखों के दबदबे को चुनौती दे रहे हैं तो कई जगह उन्होंने अपने अलग गुरुद्वारे बना लिए हैं। पंजाबी समाज की बनावट का अध्ययन कर रहे कई रिसर्चरों ने पाया है कि राज्य के करीब 12 हजार गांवों में से 10 हजार में दलितों ने अपने अलग गुरुद्वारे निमिर्त कर लिए हैं। हाल के बरसों में हुई कई और घटनाएं भी जाट-दलित टकराव को सामने लाती हैं। 2003 में जालंधर के तल्हण गांव में दलितों ने स्थानीय गुरुद्वारे की प्रबंधन कमिटी में अपने प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग की थी जिसे ठुकरा दिया गया। इसके बाद दोनों पक्ष उग्र हो उठे और कई दिनों तक हिंसा जारी रही। इस घटना ने एक बार फिर सिर्फ राजनीति ही नहीं बल्कि धार्मिक संगठनों के अंदर की राजनीति में भी समान भागीदारी की दलितों की मांग को प्रमुखता से उभारा था। इसके अलावा मेहम की घटना भी काफी चर्चा में रही जहां बाबा खजान सिंह उदासी के डेरे को गांव के अल्पसंख्यक लेकिन शक्तिशाली जाट सिखों ने जबरन अपने नियंत्रण में ले लिया था और वहां सिख-खालसा प्रतीकों की स्थापना कर दी थी। बाद में दलित सिखों के प्रचंड विरोध के बाद विवाद के हल के लिए डेरे की प्रबंधन कमिटी के संचालन के लिए सरकार ने एक अधिकारी नियुक्त कर दिया। डेरा सच्चा सौदा मामले में भड़की हिंसा में भी जाट सिखों के राजनीतिक दबदबे को स्थापित करने का मकसद था, क्योंकि ये डेरे पंजाब की शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी और अकाल तख्त की राजनीति को भी चुनौती देते हैं। इनमें 'गॉडमैन' पनपने के कारण कई विवाद भी खड़े होते हैं, डेरों के कामकाज पर गंभीर सवाल लगते रहे हैं, लेकिन हाशिए पर रहने वाले निम्न जाति के लोग इन्हें सम्मान व प्रतिष्ठा हासिल करने के साधन के रूप में भी देखते हैं।

अवतारवाद और पैगम्बरवाद का खंडन-

सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है "मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान"। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं।
पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान आम लोकई में बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि "हर जुग जुग भक्त उपाया"। भक्त समे दर समे पैदा होते हैं और निरंकार का सन्देश लोगों तक पहुंचाते हैं। सिखमत "ला इलाहा इल्ल अल्लाह (अल्लाह् के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है )" से सहमत है लेकिन सिर्फ़ मुहम्मद ही रसूल अल्लाह है इस बात से सहमत नहीं। अर्जुन देव जी कहते हैं "धुर की बानी आई, तिन सगली चिंत मिटाई", अर्थात मुझे धुर से वाणी आई है और मेरी सगल चिंताएं मिट गई हैं किओंकी जिसकी ताक में मैं बैठा था मुझे वो मिल गया है।

धार्मिक ग्रंथ-

मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |
यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |
आदि ग्रंथ

गुरु ग्रंथ साहिब

आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |
भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |
आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |
दसम ग्रंथ
दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है।
दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है।
अन्य ग्रन्थ
सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैं
सिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी इतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ इतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |




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