कई जानकारों ने भारत में ऊंची जाति के मुसलमानों को चार प्रमुख समूहों में बांटा था जो कि सैयद, शेख, मुग़ल और पठान के नाम से जाने जाते हैं.
यह सच है कि इस्लाम में किसी भी जातिगत भेदभाव के लिए जगह नहीं. हालांकि हिंदुस्तानी मुसलमानों में जाति व्यवस्था देखने को मिलती है. मगर आमतौर पर बड़ी राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों की जातीय व्यवस्था, फिरक़े और दूसरे समूहों की राजनीति को कहने-सुनने से कतराती रही हैं. मुसलमानों में जाति व्यवस्था का मामला साल 1936 में ही अंग्रेजों के सामने आ गया था, इसके बाद से लगातार काका कालेकर समिति, मंडल कमीशन और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी इस पर तफसील से चर्चा की गई है.
बता दें कि मुसलमानों की जाति व्यवस्था पर 1960 में ग़ौस अंसारी ने 'मुस्लिम सोशल डिवीजन इन इंडिया' नाम की एक किताब लिखी थी. इसमें ग़ौस ने उत्तर भारत में मुसलमानों को चार प्रमुख समूहों में बांटा था- सैयद, शेख, मुग़ल और पठान. हालांकि मुसलमानों ने भी हिंदू जाति व्यवस्था की तरह ही एक सिस्टम अपना लिया जो तीन स्तरों पर काम करता है:
कौन हैं अशराफ, अजलाफ और अरजाल?
इस व्यवस्था में सैयद ख़ुद को इसमें सबसे ऊपर रखते हैं और ख़ुद को पैग़ंबर मोहम्मद साहब के खानदान से जुड़ा बताते हैं. दूसरे नंबर पर हैं शेख, जो ख़ुद को पैग़ंबर मोहम्मद के क़बीले 'क़ुरैश' से संबंधित बताते हैं. इनमें सिद्दीक़ी, फारुख़ी और अब्बास कुलनाम नाम इस्तेमाल करने वाले लोग हैं. तीसरे पर मुग़ल हैं, जो बाबर के नेतृत्व में भारत आए थे. चौथे नंबर पर पठान हैं जो पश्तो बोलते हैं और फिलहाल पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान के पख़्तूनखा इलाक़े से माने जाते हैं. बहरहाल. इसके अलावा हिंदुओं की तरह ही एक जातीय व्यवस्था भी है, जहां अशराफ, अजलाफ और अरजाल नाम की तीन श्रेणियां हैं.
1. अशराफ़: ख़ुद को भारत के बाहर की नस्लों जैसे अफगान, अरब, पर्शियन या तुर्क बताने वाले
मुग़ल, पठान, सैयद, शेख
2. भारतीय ऊंची जातियों से कन्वर्ट:
मुस्लिम राजपूत
3. अजलाफ: भारतीय गैर-सवर्ण जातियों से कन्वर्ट
दर्जी, धोबी, धुनिया, गद्दी, फाकिर, हज्जाम (नाई), जुलाहा, कबाड़िया, कुम्हार, कंजरा, मिरासी, मनिहार, तेली
4. अरजाल: भारतीय दलित जातियों से कन्वर्ट
हलालखोर, भंगी, हसनती, लाल बेगी, मेहतर, नट, गधेरी
ग़ौस अंसारी के अलावा इम्तियाज़ अहमद ने भी 1978 में 'कास्ट एंड सोशल स्टार्टिफिकेशन अमंग द मुस्लिम्स' में बताया था कि कैसे इस्लाम क़ुबूल करने के बावजूद हिंदू जातीय संरचना ज्यों के त्यों मुस्लिम समाज में भी जगह पा गई.
सोशियोलॉजिस्ट एमएन श्रीनिवासन भी मानते हैं कि भारत या दक्षिण एशिया में मौजूद जाति व्यवस्था इतनी मज़बूत थी कि कई बाहर से आए धर्मों ने इसे न चाहते हुए भी अपना लिया. हिंदू धर्म से इस्लाम में आने वाले सामान्य जीवन में इस जाति व्यवस्था के इतने आदी थे तो मुसलमान होने के बाद भी इन्हें इस सिस्टम को मानते रहने में दिक्कत महसूस नहीं हुई.
कई जातियां जैसे- आतिशबाज़, बढ़ई, भांड, भातिहारा, भिश्ती, धोबी, मनिहार, दर्जी हिंदुओं और मुसलमानों में एक जैसी हैं. ग़ौस ने बताया कि सैयद और शेख आमतौर सबसे ऊपर माने जाते हैं और धर्म से जुड़े कामों की ज़िम्मेदारी भी इनकी ही होती है. मुग़लों और पठानों को क़रीब-क़रीब हिंदुओं की क्षत्रिय जातियों की तरह ही समझा जाता रहा है. इसके अलावा ग़ौस ने ओबीसी मुस्लिम और दलित मुस्लिम को - क्लीन ऑक्युपेशनल कास्ट और नॉन-क्लीन ऑक्युपेशनल कास्ट में बांटा है. क्लीन ऑक्युपेशनल कास्ट में हिंदुओं की ओबीसी जातियों से आए लोग हैं जबकि नॉन-क्लीन ऑक्युपेशनल कास्ट में दलित जातियों से मुस्लिम समाज में आए लोग हैं. हालांकि दलित मुसलमानों को अभी भी एससी रिजर्वेशन हासिल नहीं हो पाया है.
दलित मुस्लिमों को ओबीसी रिज़र्वेशन क्यों ?
एससी कमीशन के सदस्य योगेंद्र पासवान इसकी तस्दीक करते हैं कि फिलहाल दलित मुसलमानों को रिजर्वेशन हासिल नहीं है. हालांकि ऐसी 30 जातियों को ओबीसी रिज़र्वेशन का फ़ायदा ज़रूर मिलता है. बता दें कि ब्रिटिश राज में ही मुस्लिम दलितों को हिंदू दलितों की तरह सरकारी योजनाओं में प्रोत्साहन और रिज़र्वेशन देने जैसी बहस शुरू हो गई थी. सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक़ 1936 में जब अंग्रेजों के सामने ये मामला गया तो एक इंपीरियल ऑर्डर के तहत सिख, बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई दलितों को बतौर दलित मान्यता दी गई लेकिन इन्हें हिंदू दलितों को मिलने वाले फ़ायदों से महरूम कर दिया गया. 1950 में आज़ाद भारत के संविधान में भी व्यवस्था यही रही. हालांकि 1956 में सिख दलितों और 1990 में नव-बौद्धों को दलितों में शामिल तो कर लिया गया पर मुस्लिम दलित जातियों को मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद ओबीसी लिस्ट में ही जगह मिल पाई.
काका कालेलकर कमीशन (1955) ने क्या कहा ?
इस कमीशन ने 2399 पिछड़ी जातियों की एक लिस्ट बनाई थी जिनमें से 837 जातियों को 'अति पिछड़ा' की श्रेणी में रखा गया था. कमीशन ने पिछड़ी जातियों की इस सूची में न सिर्फ़ हिंदू ओबीसी बल्कि मुस्लिम ओबीसी जातियों को भी जगह दी थी. कमीशन ने इन जातियों को पिछड़ा तो माना, लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों में मौजूद इन जातियों के साथ जातिगत भेदभाव होता है, इसे मानने से इनकार कर दिया था. कमीशन ने माना कि पिछड़ापन है लेकिन ये भी कहा कि जाति आधारित क़ानूनी व्यवस्था या ऐसी कोई सिफ़ारिश इन धर्मों में भी इस 'अनहेल्दी प्रैक्टिस' को बढ़ावा दे सकती है.
मंडल कमीशन (1980) ने क्या कहा ?
इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में देश की 3743 जातियों को ओबीसी लिस्ट में शामिल किया था. कमीशन ने माना कि जातिगत भेदभाव सिर्फ़ हिंदुओं तक सीमित नहीं बल्कि मुस्लिम, सिख और ईसाइयों में भी है. कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 82 मुस्लिम जातियों को ओबीसी में जगह दी थी. दलितों से जो मुसलमान बने उन्हें 'अरजाल' और ओबीसी जातियों से मुसलमान बने लोगों को 'अजलाफ' की श्रेणी में रखा गया था. हालांकि कमीशन ने सिफारिश की कि 'अरजाल' को एससी कैटेगरी में फ़ायदा मिलना चाहिए. साथ ही इन्हें एमबीसी (मोस्ट बैकवर्ड कास्ट) कैटेगरी में शामिल कर दिया. इसी के बाद से मुस्लिम जातियों को ओबीसी आरक्षण का लाभ मिलने लगा. बाद में सच्चर कमेटी रिपोर्ट में भी माना गया कि मुस्लिम ओबीसी में ग़रीबी सबसे ज़्यादा है. सोशल इंडीकेटर्स जैसे कुपोषण, हाउसहोल्ड और सामजिक पिछड़ेपन के मामले में भी मुस्लिम ओबीसी की हालत देश में हिंदू दलितों से भी बदतर है.
ओबीसी-दलित मुस्लिम नुकसान में
युसूफ कहते हैं कि पसमांदा मुसलमान तो लगातार एक चक्रव्यूह में फंसा है. लगातार 'इस्लाम खतरे में' रहता है जिसके बदले ओबीसी-दलित मुसलमानों को अपने मुद्दों पर बोलने से रोका जाता रहा है. हिंदू दलितों को जब आबादी के हिसाब से रिजर्वेशन मिला है तो मुस्लिमों को इससे महरूम क्यों रखा जा रहा है. अभी कुछ सालों से 'हिंदू' भी खतरे में हैं तो मुसलमानों से उम्मीद की जाती है कि वो एकजुट रहें और इसी नाम पर मुस्लिम समाज का पिछड़ा तबका लगातार ठगा जाता है. जबकि सच तो ये है कि मुस्लिम भी अन्य समुदायों की तरह वोट करते हैं और 2014 में यूपी में एक भी सीट न आना ये साबित करता है.
ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के एमए खालिद कहते हैं, '2019 में मुस्लिमों को अपनी स्ट्रैटिजी बदलनी होगी और अपने विकल्प खुले रखने होंगे.' बता दें कि 2014 लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने अपनी रणनीति में सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवारों को टिकट देने और मुस्लिम वोटों को बांटने का फैसला किया था. बीजेपी की रिकॉर्ड जीत ने मुसलमानों को टिकट देने वाली पार्टियों का सूपड़ा साफ़ कर दिया. ऐसे में मुस्लिम सांसदों की संख्या लगातार कम होते जाने के पीछे ठोस वजह गैर-बीजेपी पार्टियों की मुस्लिमों को लेकर सीमित सोच का नतीजा है.
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