9.10.21

भील जनजाति के बारे मे जानकारी :Bhil janjati


bhil jan jati ka video 



भील शब्द की उत्पत्ति प्राचीन संस्कृत साहित्य में सभी वनवासी जातियों के लिये भील शब्द प्रयुक्त हुआ हैं। इस प्रकार प्राचीन संस्कृत साहित्य में उस वर्ग विशेष के लिये भील संज्ञा प्रयुक्त हुआ हैं जो धनुष बाण से शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे।
मेवाड़ ,गोडवाड़,बांगड़ प्रदेश में भील, मीणा, डामोर और गरासिया जनजाति निवास करती है । इन सभी जनजातियों के लिए विद्वान, लेखक एवं पत्रकार भील शब्द ही प्रयुक्त करते हैं।
लोगों की सामान्य धारणा है कि उपर्युक्त प्रदेशों में केवल भील जनजाति ही निवास करती हैं।
महाभारत काल में भीलों को निषाद कहा जाता था।
कर्नल जेम्स टॉड ने भीलों को 'वन पुत्र' कहा हैं।
रोने जैसे प्रसिद्ध लेखक ने अपनी पुस्तक 'वाइल्ड ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया' (wild Tribes Of India ) में भीलों का मूलनिवास मारवाड़ बताया हैं।
डॉ. डी. एन. मजूमदार ने अपनी पुस्तक 'रेसेज एंड कल्चरल ऑफ़ इंडिया' (races And Cultural Of India ) में भील जनजाति का सम्बन्ध प्राचीन 'नेग्रिटो' प्रजाति से बताया हैं।
भील जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में दो मत प्रचलित हैं।
1.प्रथम मत :-
भील द्रविड़ भाषा का शब्द है जो बिल शब्द से बना है विद्वानों के अनुसार भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ भाषा के बिल शब्द से हुई है जिसका अर्थ है तीर-कमान।
तीर-कमान भील जनजाति का मुख्य अस्त्र था इसलिए इस जनजाति को भील कहा जाने लगा।
2.द्वितीय मत :-
भील जनजाति भारत की सबसे प्राचीनतम जनजाति हैं। पुरातन काल में भील जनजाति की गणना राजवंशों में की जाती थी जिसे विहिल राजवंश के नाम से जाना जाता था। विहिल राजवंश का शासन पहाड़ी इलाकों में था।
ये मत भी सच हो सकता हैं क्योंकि आज भी ये जनजाति ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में निवास करती हैं।
इस संदर्भ में एक कहावत भी प्रचलित है कि संसार में केवल साढ़े तीन राजा ही प्रसिद्ध हैं। पहला इंद्र राजा,दूसरा राजा,तीसरा भील राजा और बिंद (दूल्हा)राजा (आधा)।
भील जनजाति की भाषा भील जनजाति मेवाड़ी,भीली तथा वागड़ी भाषा का प्रयोग करती हैं।
जी. एस. थॉमसन ने 1895 ई. में भीली भाषा की व्याकरण की रचना की। जिसमें इन्होंने इस समुदाय की भाषा को गुजराती से सम्बंधित बताया हैं
भारतीय जनजातियों में भील जनसंख्या के नज़रिए से दूसरे स्थान पर आते हैं। मध्य प्रदेश में भी गोंड जनजाति के बाद भील जनजाति जनसंख्या के आधार पर दूसरे स्थान पर है। श्याम रंग, छोटा-मध्यम कद, गठीला शरीर और लाल आंखें, यह सब इनकी शारीरिक रचना है। लेकिन इन्हें देखकर कोई भी इनके इतिहास के बारे अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पर… ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर इनका वजूद कुछ अलग ही दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। भारत जैसे संघर्षशील देश में इनका स्थान क्या है? यह अब भी जन सामान्य के लिए ग़ैरज़रूरी जानकारी सी मालूम होती है। लेकिन इतिहास ने आज भी इनके योगदान की स्मृतियों को स्वर्णाक्षरों में संजोकर रखा है। वर्तमान समाज भले ही इन्हें अपनी संस्कृति से दूर और अलग समझता हो, लेकिन वास्तविकता यह है, कि भील संस्कृति प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। इस जनजाति की संस्कृति की तुलना यदि किसी दूसरी संस्कृति से की जाए, तो शौर्य, साहस, भक्ति और विश्वास जैसे तत्व एक साथ भील संस्कृति के अलावा किसी में भी दिखाई नहीं देते। इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भीलों ने शौर्य की पराकाष्ठा तक प्रदर्शन किया है। प्राचीन भीलों से अब तक आखेट… इनकी जीविका का एक मात्र साधन रहा है, जिसके लिए ये अब भी जाने जाते हैं। जबकि शिकार में इस्तेमाल होने वाले शस्त्र धनुष-बाण भील संस्कृति की ही देन है। जहां तक इस हथियार के इस्तेमाल की बात है, तो धनुष-बाण के प्रयोग और निशानेबाज़ी में आज भी इनका कोई सानी नहीं है। धनुष-बाण का इस्तेमाल भील जनजाति के लोग सिर्फ शिकार के लिए ही इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि इतिहास में इसी हथियार से इन्होंने कई युद्ध लड़े और जीते भी हैं।
 एक नज़र अगर इनके इतिहास पर डाली जाए तो कई ऐसे तथ्य भी सामने आते हैं, जिनसे आधुनिक समाज आज भी परिचित नहीं है। वर्तमान दौर में सुनी जाने वाली किवदंतियों के पात्र भी भील संस्कृति की पृष्ठभूमि से हैं। महर्षि वाल्मिकी भी भील जनजाति के थे, जो रत्नाकर डाकू से आदिकवि के सिंहासन पर आसीन हुए। हालांकि आधुनिक समाज सिर्फ इतना जानता है, कि रामायण की रचना कर रामकथा की विश्व व्यापकता वाल्मिकी की देन है। जबकि वाल्मिकी वो व्यक्तित्व है, जिन्हें विश्व का पहला राष्ट्रकवि कहा जाए तो भी अतिश्योंक्ति नहीं होगी। राम भक्त सबरी की सराहना में भी सभी उपमान उस समय फीके पड़ जाते हैं, जब भगवान राम की भक्ति-भावना से अभीभूत सबरी उन्हें अपने झूठे बेर खिलाने में बिना किसी संकोच के आनंद की अनुभूति  करती है। वहीं महर्षि व्यास की रचना महाभारत के पात्र एकलव्य की गुरु भक्ति की गरिमा का जितना वर्णन किया जाए, उतना कम है। एकलव्य महाभारत में एक भील के रूप में चरितार्थ किया गया पात्र है। जिन्होंने अपने गुरु को दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ के अंगूठे का दान कर विश्व में अपनी श्रेष्ठ गुरुभक्ति का नगाड़ा बजा दिया। वहीं एकलव्य ने साधना और मेहनत से सीखने की लालसा और लगन का भी अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत किया है।


भील जनजाति एक परिचय – 

भील शब्द का आविर्भाव द्रविड़ भाषा के ‘बोल’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ“कमान’ से है। भारत में दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान पश्चिमी मध्य प्रदेश में एक मानव समूह रहता है जिसका प्राचीन काल से अब तक का प्रधान लक्षण तक कमान रखना रहा है, उन्हें ही भील कहते हैं। धनुर्विद्या में यह जाति सदा से ही बहुत ही कुशल रही है। इस जाति के मनुष्य ही नही वरन् स्त्रियाँ भी धनुर्विद्या में बहुत ही कुशल होती हैं। यदि हम अपने देश के प्राचीन साहित्य पर दृष्टि डालें तो इस जाति के सम्बन्ध में बहुत वर्णन मिलता है। रामायण में शबरी और निषाद तथा महाभारत में एकलव्य और घटोत्कच भील ही थे। मेवाड़ के साथ तो इस जाति का गहरा सम्बन्ध रहा है। बहुत समय तक मेवाड़ में राजपूत राजाओं को राजतिलक करने का अधिकार केवल भीलों को ही था।यही नहीं एक समय था जब इस जाति की अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता थी एवं मध्य में भील सरदारों के कई छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें कोटा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा एवं भीलवाड़ा आदि राज्य प्रमुख थे। धीरे-धीरे यह जाति सभ्यता के पथ पर अग्रसर हो रही थी। काश इस जाति को मरीठों एवं “सर जॉन मैल्कम’ ने तंग नहीं किया होता तो ये भील आज असभ्ध नहीं होते वरन् हमारी तरह सभ्य होते, लेकिन मराठों के अत्याचारों से घबड़ा कर ये दुबारा अपने निवास स्थान घने जंगल एवं पहाड़ियों पर निवास करने लग गये।
 लोग मराठों के अत्याचारों को न भूले और अवसर पाते ही गाँवों को  जलाने लगे और यात्रियों को लूटने लगे। इस तरह एक भयंकर जाति के रूप में भारत में प्रसिद्ध हो गये। “सर जॉन मैल्कम” के काल में इस जाति का दमन किया जाने लगा। “सर जान मैल्कम” ने खानदेश और मालवा को जीत कर इनकी रीढ़ तोड़ दी। अंग्रेजों ने भी भीलों को मैदानी भाग से जाने वाली रसद रोक दी  तथा लूटमार करने वालों को गिरफ्तार करना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन इस समस्या का स्थाई हल निकालने के लिए अंग्रेजी सरकार ने कुछ नम्र उपायों को अपनाया जिनमें आत्मसमर्पण करने वाले लोगों को माफ कर दिया जाता था एवं मैदानी भाग में उन्हें बसने के लिये भूमि दी जाती थी। तभी  से इनका जीवन-क्रम बदल गया और ये शान्तिपूर्वक रहने लगे।

भील जाति कई उप-जातियों में भी बंटी हुई है। इनकी मुख्य उप-जातियाँ निम्न हैं-नहाल, पॉगी, मोची, मटवारी, खोतील, कोतवाल, दांगची, नौरा, करीट, बरिया, पर्वी, पोवेरा, उल्वी उसांव, बुर्दा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भीलों में अनेक जातियाँ पाई जाती हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि जाति-पाँति के बन्धनों में भील भी विश्वास करते हैं। इन जातियों में अनेक गोत्र भी है जिनमें मुख्य रोहनिया, सोनगर, ऑवलिया, मरवाल, मोरी, पंवार, मेरा, मासरया, मेंहदा, सिसोदिया, राठौर, परमार, सोलंकी, अवाशा, जवास, भूमिया, कचेरा, जावरा और चौमड आदि हैं। भीलों के उपर्युक्त गोत्रों से स्पष्ट मालूम होता है कि इनका मिश्रण राजपूतों के साथ अधिक हुआ है। सोलंकी, राठौर, सिसोदिया, पंवार गोत्र भीलों में भी हैं और राजपूतों में भी।

स्वभाव तथा रहन-सहन-

 भील स्वभाव से वीर, साहसी और स्वामिभक्त होते होते हैं। इतिहास में हमें भीलों की वीरता, साहस एवं स्वामिभक्त का वर्णन मिलता है। भील अपने वचन के पक्के एवं मनमौजी स्वभाव के होते हैं। स्वाभाव से ये इतने सीधे होते हैं कि कोई भी इनको  ठग सकता है। भारतीय किसान के लिए कही गई कहावत कि “भारतीय किसान ऋण में जन्म लेता है, ऋण में पलता है एवं ऋण में ही मरता है’,  भील जाति कई उप-जातियों में भी बंटी हुई है। इनकी मुख्य उप-जातियाँ निम्न हैं-नहाल, पॉगी, मोची, मटवारी, खोतील, कोतवाल, दांगची, नौरा, करीट, बरिया, पर्वी, पोवेरा, उल्वी उसांव, बुर्दा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भीलों में अनेक जातियाँ पाई जाती हैं जो यह प्रमाणित करती हैं कि जाति-पाँति के बन्धनों में भील भी विश्वास करते हैं। इन जातियों में अनेक गोत्र भी है जिनमें मुख्य रोहनिया, सोनगर, ऑवलिया, मरवाल, मोरी, पंवार, मेरा, मासरया, मेंहदा, सिसोदिया, राठौर, परमार, सोलंकी, अवाशा, जवास, भूमिया, कचेरा, जावरा और चौमड आदि हैं। भीलों के उपर्युक्त गोत्रों से स्पष्ट मालूम होता है कि इनका मिश्रण राजपूतों के साथ अधिक हुआ है। सोलंकी, राठौर, सिसोदिया, पवार गोत्र भीलों में भी हैं और राजपूतों में भी। सरलता एवं निर्धनता के कारण इन पर भी लागू होती है कि “एक भील ऋण में जनम लेता है, ऋण में ही पलता है और ऋण में ही मरता है।” क्योंकि महाजन इनसे इतना अधिक ब्याज लेते हैंकि एक भील अपने जीवनकाल में 100 रुपये का कर्ज नहीं चुका पाता है, क्योंकि भील एक तो स्वभाव से सीधे होते हैं, दूसरे ये धर्मभीरू  भी होते हैं। ये अन्याय सह सकते हैं, परन्तु लिये हुए कर्ज को मय ब्याज के चुकाने से इंकार नहीं कर सकतें यही नहीं, ये दिल के धनी भी होते हैं। इनके दरवाजे से कोई भी अतिथि बिना भोजन पाये वापस नही जाता है।
 भील, परिश्रमी भी होते हैं भूखा टूटा भील यद्यपि शरीर से दुबला व कमजोर होता है, परन्तु मजदूती एवं साहस में कम नहीं होता जब हमें साधारण बुखार होता है तो चारपाई का सहारा लेते हैं, लेकिन भील बुखार के पूरे जोश में अपने सिर 5-10 सेर गीली मिट्टी थोपे हुए दिन भर  हल चलाता है। कड़कडाती ठंडी रातों को केवल एक लंगोटी में ही काट देते हैं। कई दिन भूखे परिश्रम करके मक्का का दलिया, खाकर सारे परिश्रम एवं भूख की पीड़ा को भूल जाता है।

भीलों का पहनावा तथा साज-सज्जा-

चूँकि भील निर्धन और पिछड़े हुए हैं, इसलिए इनकी वेशभूषा तथा साज-सज्जा इनके वातावरण एवं सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल ही है। भीलों  मे पुरुष एवं स्त्रियों के पहनावे में बहुत अन्तर पाया जाता है।
 भील पुरुष शरीर पर वस्त्र नहीं पहनते हैं। जंगलों में निवास करने वाले भील पुरुष प्रायः एक लंगोटी में ही अपना जीवन बिताते हैं, परन्तु जो भील परिवार खेती करते हैं और बस्तियों के समीप आकर रहने लगे हैं, वे मोटा कपड़ा पहनते हैं जिसे ये लोग अंगरखा कहते हैं।
 ऊंची कसी हुई धोती तथा मोटा साफा बांधते हैं। भ्रमण के समय तीर-कमान प्रत्येक भील के साथ रहती है जो इस प्रकार बनी होती है कि कमान बाँस की होती है तथा तीर भी बाँस का होता है, लेकिन इनकी नाम बहुत सीधी तथा तेज धार वाली लोहे की बनी होती है। भील. पुरुष तथा बालक हाथ पाँवों में लोहे या पीतल के कड़े पहनते हैं। सामाजिक अवसरों तथा उत्सवों पर चमकदार रंगों वाले कपड़े पहनते हैं। स्त्रियाँ अधिकतर लाल रंग के लहंगे एवं ओढ़नी ओढ़ती हैं। कुर्ते के स्थान पर एक प्रकार की अंगिया पहनती हैं जिसे ये अंगरखी कहती हैं। स्त्रियों के शरीर पर पिग्मी स्त्रियों की भाँति अनेक प्रकार के गुदने गुदे हुए होते हैं। स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के आभूषण भी पहनती हैं जैसे  हाथों में हाथी दाँत के मोटे कड़े, गले में चाँदी की मोटी हँसली, कानों में लम्बी-लम्बी बालियाँ, माथे पर लाख या चाँदी का झालर, हाथ और पाँवों की उंगलियों में पीतल या कगलट के छल्ले, नाक में नथ गले में मूंगों की माला पहनती हैं।

आवास-

भील जिन बस्तियों में रहते हैं, उन्हें “पाल” कहते हैं। हर एक “पाल” में भीलों का एक नेता होता है जिसे मध्य भारत में “तरबी” कहा जाता है एवं राजस्थान में उसे “गमेती’ के नाम से पुकारते हैं। जो भू-भाग पहाड़ी एवं ऊँचा होता है उसे ये लोग डौंगर (डूंगर) कहते हैं। भीलों के घर बांस, टट्ठरों या बेजोड़ पत्थरों के बने होते हैं। जो भील गाँवों में निवास करते हैं वे झोपड़ियों में रहते हैं और जो शहरों में रहते हैं वे मिट्टी या पत्थरों के मकानों में रहते हैं। मकान बनाने के लिए लोग ढालू स्थान चुनते हैं। प्रत्येक घर से मिले हुए ये एक या दो झोपड़े भी बनाते हैं। इन झोपड़ों में ये अपने मवेशी रखते हैं। वर्षा की कमी तथा उद्योगों के अभाव में ये इधर-उधर हटते-बढ़ते रहते हैं। जो भील परिवार गाँव के बन्धनों में बंधना नहीं चाहते, वे जंगलों में ही घूमते हैं।

जीवन-निर्वाह के साधन-

भील, जिनका भारतीय जनजातियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है, इनका मुख्य धन्धा एवं व्यवसाय कृषि करना है। वह भी एक फसली, क्योंकि इनके निवास-क्षेत्र में वर्षा कम होती है। शेष समय में इनका धन्धा जंगली जानवरों का शिकार करना, जंगल में शहद इकट्ठा करना, लाख एवं लकड़ी का संग्रह करना, पशु चराना और दूध की वस्तुएँ तैयार  करना, मछली पकड़ना, मजदूरी करना और डलिया तथा टोकरे आदि बनाकर कस्बों में बेचना होता है।

भोजन-सामग्री-


 भीलों की भोजन-सामग्री में मुख्य मक्का और प्याज है। ज्वार, जौ, लावा, कूरा और सांवा भी प्रयोग में लाते हैं। संकटकालीन समय में जंगली कन्द-मूल खाकर और यहाँ तक कि मरे हुए जानवरों का माँस खाकर निर्वाह करते हैं। इनमें जो सबसे बड़ा अवगुण है वह शराब पीना है। ये महुए, जौ और मकई की शराब बनाते है। देवी देवताओं की पूजा में भी ये शराब चढ़ाते हैं। शराब के मोह में ये अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु को भी छोड़ देते है। एक नहीं बीसियों उदाहरण ऐसे हैं जब इन्होंने अपने शराब के नशे  के लिए छोटे-छोटे नन्हें-नन्हें बच्चे को भी चन्द रुपयों में और शराब के लालच में विधर्मियों को बेच दिया, किन्तु अब यह प्रथा नष्ट होती जा रही है।

शादी-विवाह-

भीलों में 15 वर्ष की लड़की और 20 वर्ष के लड़के की शादी हो जानी चाहिए। इनमें शादी की तीन रीतियाँ हैं-

1. शादी जो माता-पिता द्वारा तय की जाती है-

 इस प्रथा में सम्बन्ध तय करने का भार लड़के के माता-पिता पर होता है। वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष वालों के यहाँ सगाई करने जाते हैं। यदि लड़की के माता-पिता उस सगाई को मान लेते हैं तो वर पक्ष के लोग पंचों को 5 से 7 रुपया देते हैं जिनसे गुड़ और शराब मंगाई जाती है, जिसे उस जाति के लोग खाते-पीते हैं। यह उनका बैट्रोडल कहलाता है।
बैट्रोडल तय होने पर वर-वधू दोनों के यहाँ उबटन आदि होता है और उसी दिन से 7 दिन तक वर और वधू दोनों अपने-अपने घर जमीन पर पैर नहीं रखते और उनके दोस्त उन्हें कंघों पर रखते हैं तथा अपने-अपने गाँव की परिक्रमा (कंधों पर ही) करते हैं।
इस अवसर पर वर वधू को मौन धारण करना पड़ता है, जबकि सभी अन्य लोग खूब हँसते हूँ। यदि वर या वधू हंस देती है तो बहुत बड़ा अपशकुल माना जाता है। इस उत्सव को बाना बैठना” कहते हैं।
 “बाना बैठना” के बाद पंडाल बनाया जाता है जिस पर जामुन और आम की पत्तियाँ डाली जाती हैं। कभी-कभी पंडाल को फलों से भी सजाया जाता है। इस पंडाल के नीचे सबसे पहले चार अविवाहित लड़के और लड़कियाँ खाना खाते हैं, इनके बाद दोस्त और सम्बन्धी खाना खाते हैं। इसके पश्चात् वर आता है और पण्डाल के नीचे बैठ जाता है फिर वर की माँ आती है और लड़की के ऊपर फिराकर पण्डाल के चारों किनारों पर रोटी के टुकड़े फेंकती है। इसके बाद दूल्हा बारात सहित लड़की के घर चल देता है। यह उत्सव “पण्डाल पूजा” कहलाता है।
जब बारात लड़की वाले के यहाँ पहुँच जाती है तो लड़की लड़के को अंगूठी देती है और लड़का लड़की को “कंगन” देता है। इसके बाद दोनों मण्डप की परिक्रमा करते हैं, यह “कनकन उत्सव” कहलाता है। इसके पश्चात् लड़की दीपक जलाती है तथा ज्यों ही वर मण्डप के अन्दर आता है उसका कर्त्तव्य होता है कि वह दीपक को बुझा दे इसके बाद पण्डितों द्वारा होम किया जाता है। इस अवसर पर वर और वधू दोनों खूब सजाये जाते हैं। इस प्रकार विवाह कार्यक्रम समाप्त हो जाता है।

2. शक्ति से शादी-

 भीलों में दूसरे तरह का विवाह शक्ति के द्वारा होता है, इसमें लड़का किसी लड़की को भगाकर ले जाता है। यदि लड़का और लड़की दोनों की इच्छा शादी  करने की होती है तो लड़के वाला लड़की के पिता और लड़की द्वारा माँगा हुआ धन देना पड़ता है। यदि वह धन चुका सकता है तो लड़के का पिता और खुद लड़का दोनों लडकी वाले के यहाँ जाते हैं और माँगा हुआ धन देते हैं एवं लड़की वालों को एक भोज देते हैं। इसके पश्चात् उनका विवाह ठीक उसी प्रकार से होता है, जिस प्रकार शादी जो माता-पिता द्वारा तय की जाती है।

3. होली-त्यौहार पर शादी-

जैसवाड़ा, तलुका पंचमहल, पंचवाड़ा जिलों में “गोल गधेडो” प्रथा का भी प्रचलन है। इसके अनुसार होली पर एक मजबूत लट्ठा गाड़ देजे हैं, उसके सिरे पर नारियल का फल और गुड़ बाँध देते हैं। युवक और युवतियाँ उसके चारों ओर नृत्य करते हैं। युवतियाँ लट्टे के चारों ओर एक गोला बनाकर नाचती हैं। जवयुवक बाहर से नाचता हुआ आता है। और युवतियों के बीच से निकलकर अन्दर से लट्ठे  के पास जाकर नारियल और गुड़ को लेने का प्रयत्न करता है। ऐसा करने में युवतियाँ उसकी बहुत बुरी हालत करती हैं। यदि वह लट्टे तक पहुँचने में सफल हो जाता है तो युवतियाँ उसको उसके कपड़ों से पकड़ती हैं। उसे बाँस की छड़ियों से मारती हैं। उसके सिर से बाल नोचती हैं। यही नही यह भी कि उसके शरीर के माँस तक नोच लेती हैं।


4. मनोरंजन-


  भील मनोरंजन के बड़े शौकीन होते हैं। विवाह और उत्सवों पर खूब नाचते और गाते हैं। जब कोई अतिथि आता तो उसके स्वागत में नाच-गानों का आयोजन किया जाता है। जब ये शहर से अपने  गाँव लौटते हैं तो रास्ते की थकान को दूर करने के लिये रास्ते में भील और भीलनी  निडर होकर हाथ में हाथ डाले नाचते-गाते आते हैं। नाच गाने के अलावा इनके खेल भी बड़े मनोरंजक होते हैं। मकर संक्रान्ति पर डोटादडी, मारदडी, दशहरा पर दशहरा की नकली लड़ाई, यमद्वितीया पर नेजा खेल बड़े प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा होली, दीपावली पर भी अनेक प्रकार के खेल खेले जाते हैं। इनमें चुटकले, मुहावरों एवं कहावतों का प्रचलन अधिक है। घोर दीनता और गरीबी में इनकी विनोद-प्रियता देखकर आश्चर्य होता है।

5. विश्वास-

भील लोग देवी-देवताओं का बहुत मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। माता की पूजा प्रायः होती रहती है। ये लोग शिवजी और हनुमान जी के बड़े भक्त होते हैं। ये लोग जादू- टोने के अधिक शिकार हैं तथा ये शकुन और अपशकुन में बहुत विश्वास करते हैं। ये भूत-प्रेतों में भी अधिक विश्वास करते हैं। पुनर्जनम में भी अधिक विश्वास करते हैं। ये मृतकों को जलाते हैं, गाड़ते नहीं है।

निवास स्थान-

यदि हम भारत के मानचित्र पर 22° उत्तरी अक्षांश से 28° उ. अक्षांश तक एवं 74° पूर्वी देशान्तर से 80° पूर्वी देशान्तर तक दृष्टि डालें तो यह क्षेत्र भीलों का निवास-स्थान है। इसमें दक्षिणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश सम्मिलित हैं। भीलों के प्रमुख क्षेत्रों के नाम भीलवाड़ा, भीलपुर, भीलगाँव, भीलना, भीलसी, बड़ी सपरी, बरन, बीना, भोपाल,  इन्दौर एवं बाँसवाड़ा हैं।

भीलों का रंग सांवला, कद छोटा, चेहरा चौड़ा, नथुने बड़े, नाक चपटी और बड़ी, शरीर गठा हुआ, बाल लम्बे और  धुंघराले होते हैं।

“भील लोग आर्यन तथा द्राविड़ियन से भी पहले भारत में निवास करते थें सम्भवतः ये लोग सहारा के जलवायु सम्बन्धी संकट के समय इधर-उधर फैलते हुए भारत में पहुंचे थे। भील मुंडा जाति का एक उपविभाग है जो आदि द्राविड़ियन भारत में फैला हुआ था।”

भील जाती के मेले

बेणेश्वर मेला :-


'आदिवासियों का कुम्भ' नाम से प्रसिद्ध बेणेश्वर का मेला भीलों का सबसे बड़ा मेला है जो माघ माह की पूर्णिमा को डूंगरपुर जिले में सोम,माही एवं जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर भरता हैं।

घोटिया अम्बा :-


बेणेश्वर के अलावा एक और बड़ा मेला भरता है 'घोटिया अम्बा मेला'। यह मेला बांसवाड़ा जिले में घोटिया नामक स्थान पर चैत्र अमावस्या को भरता हैं।

गोतमेश्वर मेला :-


गौतमेश्वर का मेला प्रतापगढ़ जिले में अरनोद कस्बे के पास वैशाख पूर्णिमा को भरता  हैं।

ऋषभदेव मेला :-


ऋषभदेव का मेला उदयपुर जिले में धुलैव में चैत्र कृष्ण अष्टमी को प्रतिवर्ष भरता है जिसमे बड़ी मात्रा में भील स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। यहां पर प्रथम जैन तीर्थंकर भगवन आदिनाथ की काले पत्थर की मूर्ति हैं। काले रंग की होने के कारण भील जाति के लोग इन्हें 'काला' बाबा के नाम से जानते हैं। भील जाति के लोग केसरियानाथ (काला बाबा) को चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते।
Disclaimer: इस content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे

****************


16.9.21

ब्राह्मण वंशावली (गोत्र प्रवर परिचय):Brahman gotra parichay

ब्राह्मण जाति का इतिहास का विडिओ -




ब्राह्मण वंशावली (गोत्र प्रवर परिचय)


सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणो कि शाखा है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। ईसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।
एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने कान्यकुब्जो को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन ओर दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए ओर भोजन तथा दान समंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए।
सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव :

गर्ग (शुक्ल- वंश)

गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है|
(१) मामखोर (२) खखाइज खोर (३) भेंडी (४) बकरूआं (५) अकोलियाँ (६) भरवलियाँ (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं।
उपगर्ग (शुक्ल-वंश):

उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं|
(१)बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार
यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।

गौतम (मिश्र-वंश):

गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे |
(१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी
इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।

उप गौतम (मिश्र-वंश):

उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं|
(१) कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े (६) कपीसा
इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाति है।

वत्स गोत्र (मिश्र- वंश):

वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे|
(१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा
बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।

कौशिक गोत्र (मिश्र-वंश):

तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है।
(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी

वशिष्ठ गोत्र (मिश्र-वंश):

इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है।
(१) बट्टूपुर मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी

शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)

शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं।
(१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है।
इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है , इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है।

उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश):

इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं।
(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा
भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश):
भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है|
(१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक (३) चेतियाँ (४) मदनपुर।

भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश):

भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है|
(१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार
कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें। सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।

सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश)

सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं|
(१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)
सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश)

सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बाते जाते हैं|
(१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँ

कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)

इन तीन गांवों से बताये जाते हैं।
(१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ (३) ढडमढीयाँ

ओझा वंश

इन तीन गांवों से बताये जाते हैं।
(१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां

चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)

इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है।
(१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां
एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है।

ब्राह्मणों की वंशावली

भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी
सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें
वरदान दिया। वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था
उपाध्याय,
दीक्षित,
पाठक,
शुक्ला,
मिश्रा,
अग्निहोत्री,
दुबे,
तिवारी,
पाण्डेय,
और
चतुर्वेदी।
इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की।
वे क्रमशः
उपाध्यायी,
दीक्षिता,
पाठकी,
शुक्लिका,
मिश्राणी,
अग्निहोत्रिधी,
द्विवेदिनी,
तिवेदिनी
पाण्ड्यायनी,
और
चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -
कष्यप,
भरद्वाज,
विश्वामित्र,
गौतम,
जमदग्रि,
वसिष्ठ,
वत्स,
गौतम,
पराशर,
गर्ग,
अत्रि,
भृगडत्र,
अंगिरा,
श्रंगी,
कात्याय,
और
याज्ञवल्क्य।
इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।
मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-
(1) तैलंगा,
(2) महार्राष्ट्रा,
(3) गुर्जर,
(4) द्रविड,
(5) कर्णटिका,
यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाय जाते हैं। तथा विंध्यांचल के उत्तर मं पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण
(1) सारस्वत,
(2) कान्यकुब्ज,
(3) गौड़,
(4) मैथिल,
(5) उत्कलये,
उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं। वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है।
ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है।
यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं,
फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है। तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है 81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है -
(1) गौड़ ब्राम्हण,
(2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा)
(3) श्री गौड़ ब्राम्हण,
(4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण,
(5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण,
(6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण,
(7) शोरथ गौड ब्राम्हण,
( दालभ्य गौड़ ब्राम्हण,
(9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण,
(10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण,
(11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर),
(12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण,
(13) वाल्मीकि ब्राम्हण,
(14) रायकवाल ब्राम्हण,
(15) गोमित्र ब्राम्हण,
(16) दायमा ब्राम्हण,
(17) सारस्वत ब्राम्हण,
(18) मैथल ब्राम्हण,
(19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण,
(20) उत्कल ब्राम्हण,
(21) सरवरिया ब्राम्हण,
(22) पराशर ब्राम्हण,
(23) सनोडिया या सनाड्य,
(24)मित्र गौड़ ब्राम्हण,
(25) कपिल ब्राम्हण,
(26) तलाजिये ब्राम्हण,
(27) खेटुवे ब्राम्हण,
(28) नारदी ब्राम्हण,
(29) चन्द्रसर ब्राम्हण,
(30)वलादरे ब्राम्हण,
(31) गयावाल ब्राम्हण,
(32) ओडये ब्राम्हण,
(33) आभीर ब्राम्हण,
(34) पल्लीवास ब्राम्हण,
(35) लेटवास ब्राम्हण,
(36) सोमपुरा ब्राम्हण,
(37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण,
(38) नदोर्या ब्राम्हण,
(39) भारती ब्राम्हण,
(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण,
(41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण,
(42) भार्गव ब्राम्हण,
(43) नार्मदीय ब्राम्हण,
(44) नन्दवाण ब्राम्हण,
(45) मैत्रयणी ब्राम्हण,
(46) अभिल्ल ब्राम्हण,
(47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,
(48) टोलक ब्राम्हण,
(49) श्रीमाली ब्राम्हण,
(50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण,
(51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण
(52) तांगड़ ब्राम्हण,
(53) सिंध ब्राम्हण,
(54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,
(55) इग्यर्शण ब्राम्हण,
(56) धनोजा म्होड ब्राम्हण,
(57) गौभुज ब्राम्हण,
(58) अट्टालजर ब्राम्हण,
(59) मधुकर ब्राम्हण,
(60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण,
(61) खड़ायते ब्राम्हण,
(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(64) लाढवनिये ब्राम्हण,
(65) झारोला ब्राम्हण,
(66) अंतरदेवी ब्राम्हण,
(67) गालव ब्राम्हण,
(68) गिरनारे ब्राम्हण


ब्राह्मण गौत्र और गौत्र कारक 115 ऋषि

(1). अत्रि, (2). भृगु, (3). आंगिरस, (4). मुद्गल, (5). पातंजलि, (6). कौशिक,(7). मरीच, (. च्यवन, (9). पुलह, (10). आष्टिषेण, (11). उत्पत्ति शाखा, (12). गौतम गोत्र,(13). वशिष्ठ और संतान (13.1). पर वशिष्ठ, (13.2). अपर वशिष्ठ, (13.3). उत्तर वशिष्ठ, (13.4). पूर्व वशिष्ठ, (13.5). दिवा वशिष्ठ, (14). वात्स्यायन,(15). बुधायन, (16). माध्यन्दिनी, (17). अज, (18). वामदेव, (19). शांकृत्य, (20). आप्लवान, (21). सौकालीन, (22). सोपायन, (23). गर्ग, (24). सोपर्णि, (25). शाखा, (26). मैत्रेय, (27). पराशर, (28). अंगिरा, (29). क्रतु, (30. अधमर्षण, (31). बुधायन, (32). आष्टायन कौशिक, (33). अग्निवेष भारद्वाज, (34). कौण्डिन्य, (34). मित्रवरुण,(36). कपिल, (37). शक्ति, (38). पौलस्त्य, (39). दक्ष, (40). सांख्यायन कौशिक, (41). जमदग्नि, (42). कृष्णात्रेय, (43). भार्गव, (44). हारीत, (45). धनञ्जय, (46). पाराशर, (47). आत्रेय, (48). पुलस्त्य, (49). भारद्वाज, (50). कुत्स, (51). शांडिल्य, (52). भरद्वाज, (53). कौत्स, (54). कर्दम, (55). पाणिनि गोत्र, (56). वत्स, (57). विश्वामित्र, (58). अगस्त्य, (59). कुश, (60). जमदग्नि कौशिक, (61). कुशिक, (62). देवराज गोत्र, (63). धृत कौशिक गोत्र, (64). किंडव गोत्र, (65). कर्ण, (66). जातुकर्ण, (67). काश्यप, (68). गोभिल, (69). कश्यप, (70). सुनक, (71). शाखाएं, (72). कल्पिष, (73). मनु, (74). माण्डब्य, (75). अम्बरीष, (76). उपलभ्य, (77). व्याघ्रपाद, (78). जावाल, (79). धौम्य, (80). यागवल्क्य, (81). और्व, (82). दृढ़, (83). उद्वाह, (84). रोहित, (85). सुपर्ण, (86). गालिब, (87). वशिष्ठ, (88). मार्कण्डेय, (89). अनावृक, (90). आपस्तम्ब, (91). उत्पत्ति शाखा, (92). यास्क, (93). वीतहब्य, (94). वासुकि, (95). दालभ्य, (96). आयास्य, (97). लौंगाक्षि, (98). चित्र, (99). विष्णु, (100). शौनक, (101).पंचशाखा, (102).सावर्णि, (103).कात्यायन, (104).कंचन, (105).अलम्पायन, (106).अव्यय, (107).विल्च, (108). शांकल्य, (109). उद्दालक, (110). जैमिनी, (111). उपमन्यु, (112). उतथ्य, (113). आसुरि, (114). अनूप और (110). आश्वलायन।
कुल संख्या 108 ही हैं, लेकिन इनकी छोटी-छोटी 7 शाखा और हुई हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इनकी पूरी सँख्या 115 है।
ब्राह्मण कुल परम्परा के 11 कारक

(1) गोत्र व्यक्ति की वंश-परम्परा जहाँ और से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। इन गोत्रों के मूल ऋषि :– विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप। इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भरद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है।
(2) प्रवर अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए, वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि कुल परम्परा में गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।
(3) वेद वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है। इनको सुनकर कंठस्थ किया जाता है। इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया, इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे, तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन-अध्यापन करता है। इस परम्परा के अन्तर्गत जातक, चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी आदि कहलाते हैं।
(4) उपवेद प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये।
(5) शाखा वेदों के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है। कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था, तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होंने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
6) सूत्र प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं। श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।
(7) छन्द  उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परा सम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए।
( शिखा अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा-चुटिया को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बाँधने की परम्परा शिखा कहलाती है।
(9)पाद अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं। ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है। अपने-अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं।
(10) देवता प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते हैं, वही उनका कुल देवता यथा भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, माँ दुर्गा, भगवान् सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक आराध्‍य देव हैं।
(11)द्वार यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है।
सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में सेयर करे हम क्या है इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये।
ब्राह्मण बिना धरती की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करें।
Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे

23.8.21

ब्राह्मण जाति (समाज) की उत्पत्ति एवं इतिहास


 ब्राह्मण जाति का इतिहास का विडिओ 


  ब्राह्मण समाज दुनिया के सबसे पुराने संप्रदाय एवं जाति में से एक है। पुराने वेदो एवं उपनिषदों के अनुसार "ब्राह्मण समाज का इतिहास", सृष्टि के रचयिता "ब्रह्मा" से जुड़ा हुआ है। वेदों के अनुसार ऐसा बताया जाता है कि "ब्राह्मणों की उत्पत्ति" हिंदू धर्म के देवता "ब्रह्मा" से हुई थी। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान समय में जितने भी ब्राह्मण समाज के लोग हैं वे सब भगवान ब्रह्मा के वंशज हैं।
जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम आलोक के मतानुसार ब्राह्मण जाति का इतिहास प्राचीन भारत से भी पुराना माना जाता है, ब्राह्मण जाति की जड़े वैदिक काल से जुड़ी हुई हैं। प्राचीन काल से ही ब्राह्मण जाति के लोगों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था, उस समय ब्राह्मण जाति के लोग सबसे ज्ञानी माने जाते थे। इस जाति के लोगों को प्राचीन काल से ही उच्च एवं बड़े लोगों की श्रेणी में देखा जाता रहा है।
उस दौर में धार्मिक एवं जाति मतभेद वर्तमान समय के मुकाबले चरम सीमा पर था, हिंदू धर्म के लोगों को "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र" चार हिस्सों में बांटा गया था। इस जाति के बंटवारे में ब्राह्मण समाज के लोगों को सबसे उच्च स्थान प्राप्त हुआ। उस दौर में ब्राह्मण जाति के लोगों को सबसे ज्ञानी एवं कर्मठ माना जाता था इसलिए इनका मुख्य कार्य ज्ञान धर्म और आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा देना एवं राजकुमारों एवं राजघराने के लोगों को आचार्य बनकर ज्ञान देना होता था।
ब्राह्मणों को राज परिवारों में सबसे अधिक शोहरत और इज्जत दी जाती थी। इतिहासकारों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि एक हिंदू राजा के राज दरबार में राजगुरू (ब्राह्मण) की आज्ञा के बिना राजा कोई कार्य नहीं करता था। इस बात का सबसे प्रमुख उदाहरण चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य की जोड़ी थी।
प्राचीनकाल से वर्तमान काल तक ब्राह्मण समाज के लोगों ने कला, साहित्य, विज्ञान, राजनीति, संस्कृति और संगीत जैसी प्रमुख क्षेत्रों में अपना अहम योगदान दिया। प्राचीन भारत से आधुनिक भारत तक ब्राह्मण समाज में अनेकों महान व्यक्तियों एवं महान आत्माओं ने जन्म लिया जिनमें से परशुराम चाणक्य बाल गंगाधर तिलक आदि प्रमुख थे।

ब्राह्मण निर्धारण ब्राह्मण कौन है?

जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक का मतानुसार प्राचीन समय से ब्राह्मणों का निर्धारण माता पिता की जाति के आधार पर होने लगा है, लेकिन स्कंदपुराण के अनुसार 'ब्राह्मण' जाति नहीं है। स्कंद पुराण में आध्यात्मिक दृष्टि से बताया गया है कि जो व्यक्ति ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के पश्चात भी ब्राह्मण वाले कर्मकांड ना करें या फिर मदिरा एवं मांस का सेवन करें तो वह व्यक्ति एक शूद्र के समान है, ऐसे व्यक्ति को ब्राह्मण का दर्जा देने का कोई अधिकार नहीं है।

ब्राह्मण का व्यवहार एवं दिनचर्या

ब्राह्मण समाज के लोगों की जो पारंपरिक दिनचर्या और व्यवहारिक स्थिति थी, वह अपने आप में एक आदर्श दिनचर्या थी। लेकिन वर्तमान समय में पारंपरिक दिनचर्या में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। पारंपरिक दिनचर्या के अनुसार हिंदू ब्राह्मण अपनी धारणा और धर्म आचरण को महत्व देते थे, यह दिनचर्या कुछ इस प्रकार थीं - "सुबह जल्दी उठकर स्नान करना, संध्या वंदना करना, व्रत एवं उपासना करना आदि।
व्यवहारिक दृष्टि से ब्राह्मण काफी सरल होते हैं, वे मांस शराब आदि का सेवन एवं धर्म के विरुद्ध हो वह काम नहीं करते हैं। ब्राह्मण स्वाभाविक रूप से सकारात्मक होते हैं और वे दूसरों के सुखी और संपन्न होने की कामना करते हैं। सामान्यतः ब्राह्मण केवल शाकाहारी होते हैं लेकिन वर्तमान समय में ब्राह्मण जाति के लोगों में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है जो समय के साथ जारी हैं।

ब्राह्मणों की वर्तमान स्थिति

ब्राह्मण जाति के लोग मुख्यत उत्तर और मध्य भारत के ज्यादातर पठार इलाकों में पाए जाते हैं, इसके अलावा ब्राह्मणों की कुछ संख्या पूरे भारत में पाई जाती है। ब्राह्मणों की वर्तमान स्थिति बेहतर है, इस जाति के लोग अपनी जीविका चलाने के लिए व्यवसाय, नौकरी, खेती, ज्योतिष शास्त्र आदि पर निर्भर होते हैं। इसके अलावा ब्राह्मण जाति से कई बड़ी हस्तियां हैं जो बॉलीवुड, क्रिकेट अन्य क्रिएटिव फील्ड एवं खेल जगत आदि में आसीन है।

ब्राह्मणों की उपजातियाँ


ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों से जाना जाता है, जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में शुक्ल,त्रिवेदी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में खाण्डल विप्र, ऋषीश्वर (GOUR),वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज ,सनाढ्य ब्राह्मण, राय ब्राह्मण त्यागी अवध (मध्य उत्तर प्रदेश) तथा मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड से निकले जिझौतिया ब्राह्मण,रम पाल मध्य प्रदेश में कहीं कहीं वैष्णव (बैरागी)(, बाजपेयी, बिहार व बंगाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में श्रीखण्ड,भातखण्डे अनाविल, महाराष्ट्र के महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, मुख्य रूप से देशस्थ, कोंकणस्थ , दैवदन्या, देवरुखे और करहाड़े है. ब्राह्मणमें चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव, उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि, बिहार में मैथिल ब्राह्मण आदि तथा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार में शाकद्वीपीय (मग)कहीं उत्तर प्रदेश में जोशी जाति भी पायी जाती है।

ब्राह्मणों के चार प्रकार कौन से होते हैं?

वैष्णव: 

विष्णु उपासक

शैव:

शिव उपासक
शाक्तः 

दुर्गा, काली आदि शक्ति का उपासक

सूर्योपासकः

सूर्य की उपासना करने वाला
सबसे महत्वपूर्ण ब्राह्मण गोत्र  कौन सी है ?
शांडिल्य एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण गोत्र है, ये वेदों में श्रेष्ठ, तथा ऊँचकुलिन घराने के ब्राह्मण हैं। यह गोत्र ब्राह्मणों के तीन मुख्य ऊँचे गोत्रो में से एक है। महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है। 

गोत्र और वर्ण अलग क्यों है

गोत्र पहले आया फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई. वर्ण व्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे. बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्ण बदलता रहा. किसी क्षेत्र में किसी गोत्र-विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया.बाद में जन्म के आधार पर जाति स्थिर हो गयी.
यही वजह है कि सभी गोत्र सभी जातियों और वर्णों में हैं. कौशिक ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी. कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी, पिछड़ी जाति वाले भी. वशिष्‍ठ ब्राह्मण भी हैं, दलित भी. दलितों में राजपूतों और जाटों के अनेक गोत्र हैं. सिंहल-गोत्रीय क्षत्रिय भी हैं, बनिए भी. राणा, तंवर, गहलोत-गोत्रीय जाट हैं, राजपूत भी. राठी-गोत्रीय जन जाट भी हैं,

गोत्र का इस्तेमाल किन कामों में होता है

गोत्र का इस्तेमाल आमतौर पर पर विवाह संबंधों और धार्मिक कार्यों में होता है. माना जाता है कि एक ही गोत्र में विवाह नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि मान्यतानुसार इसके सारे सदस्य एक ही मिथकीय पूर्वज की संतान होते हैं. हालांकि मौजूदा दौर में ये शर्त औऱ परंपरा शिथिल हुई है लेकिन कई जातियां अब भी इसका कड़ाई से पालन करती हैं. गोत्र को एक तरह से रक्त संबंध भी माना जाता है.

ब्राह्मणो के बारे में

ब्राह्मण जाति को हिन्दू धर्म में शीर्ष पर रखा गया है। लेकिन ब्राह्मणो के बारे में आज भी बहुत ही कम लोग जानते है, कि ब्राह्मण कितने प्रकार के होते है। और उनके गोत्र कौन-कौन से होते है। आज के दौर में 90% ब्राह्मण भी ब्राह्मणो की वंशावली को नहीं जानते।
ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को आज भी है। चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो वह गायत्री दीक्षा लेकर ब्रह्माण बन सकता है, लेकिन नियमों का पालन करना होता है। अपने ब्राह्मण कर्म छोड़कर अन्य कर्मों को अपना लिया है। हालांकि अब वे ब्राह्मण नहीं रहे कहलाते अभी भी ब्राह्मण है।  स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।


उपनाम में छुपा है पूरा इतिहास

1. मात्र : 
ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे "मात्र" हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी भी हो सकते हैं।

2. ब्राह्मण :

 ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय :

 स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : 

कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : 

अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : 

जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : 

ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि :

 जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं।
उपरोक्त में से अधिकतर ‘मात्र’नामक ब्राह्मणों की संख्‍या ही अधिक है।
सबसे पहले ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के उच्चारण कर्ता ऋषियों के लिए किया गया था। फिर प्रत्येक वेद को समझने के लिए ग्रन्थ लिखे गए उन्हें भी ब्रह्मण साहित्य कहा गया। ब्राह्मण का तब किसी जाति या समाज से नहीं था।
“मनु-स्मॄति” के अनुसार आर्यवर्त वैदिक लोगों की भूमि है। “गोत्र” शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा में “वंश” है। ब्राह्मण जाति के लोगों में, गोत्रों को पितृसत्तात्मक रूप से माना जाता है। प्रत्येक गोत्र एक प्रसिद्ध ऋषि या ऋषि का नाम लेता है जो उस कबीले के संरक्षक थे।
समाज बनने के बाद अब देखा जाए तो भारत में सबसे ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही है जैसे:- सरयूपारीण, कान्यकुब्ज , जिझौतिया, मैथिल, मराठी, बंगाली, भार्गव, कश्मीरी, सनाढ्य, गौड़, महा-बामन और भी बहुत कुछ। इसी प्रकार ब्राह्मणों में सबसे ज्यादा उपनाम (सरनेम या टाईटल ) भी प्रचलित है। कैसे हुई इन उपनामों की उत्पत्ति जानते हैं उनमें से कुछ के बारे में।

ब्राह्मणों की श्रेणियां

ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों से जाना जाता है, जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में दीक्षित, शुक्ल, द्विवेदी त्रिवेदी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल में उप्रेती, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में खाण्डल विप्र, ऋषीश्वर, वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, सनाढ्य ब्राह्मण, राय ब्राह्मण, त्यागी , अवध (मध्य उत्तर प्रदेश) तथा मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड से निकले जिझौतिया ब्राह्मण,रम पाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश व अन्य राज्यों में बैरागी वैष्णव ब्राह्मण, बाजपेयी, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश ,बंगाल व नेपाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में श्रीखण्ड,भातखण्डे अनाविल, महाराष्ट्र के महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, मुख्य रूप से देशस्थ, कोंकणस्थ , दैवदन्या, देवरुखे और करहाड़े है. ब्राह्मण में चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में निषाद अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव, उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि तथा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार में शाकद्वीपीय (मग) कहीं उत्तर प्रदेश में जोशी जाति भी पायी जाती है,आदि।

ब्राह्मणों में कई जातियां है।इससे मूल कार्य व स्थान का पता चलता है

सामवेदी: 

ये सामवेद गायन करने वाले लोग थे।
अग्निहोत्री: 

अग्नि में आहुति देने वाला।
त्रिवेदी: 

वे लोग जिन्हें तीन वेदों का था ज्ञान वे त्रिवेदी है
चतुर्वेदी:

 जिन्हें चारों वेदों का ज्ञान था।वे लोग चतुर्वेदी हुए।

*एक वेद को पढ़ने वाले ब्रह्मण को पाठक कहा गया।

वेदी:

 जिन्हें वेदी बनाने का ज्ञान था वे वेदी हुए।

द्विवेदी:

जिन्हें दो वेदों का ही ज्ञान था वे लोग द्विवेदी कहलाएं
*शुक्ल यजुर्वेद को पढ़ने वाले शुक्ल या शुक्ला कहलाए।

कैसे शुरू हुआ गोत्र

गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशों से संबंधित होता है, जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं। ये सात ऋषि थे- 1.अत्रि, 2. भारद्वाज, 3. भृगु, 4. गौतम, 5.कश्यप, 6. वशिष्ठ, 7.विश्वामित्र.
बाद में इसमें एक आठवां गोत्र अगस्त्य भी जोड़ा गया और गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई. जैन ग्रंथों में 7 गोत्रों का उल्लेख है-
कश्यप,
गौतम,
वत्स्य,
कुत्स,
कौशिक,
मंडव्य
वशिष्ठ.
लेकिन छोटे स्तर पर साधुओं से जोड़कर हमारे देश में कुल 115 गोत्र पाए जाते हैं.

क्या सारे गोत्र एक ही समय पैदा हुए

एक समय और एक स्‍थान पर गोत्रों की उत्‍पत्ति नहीं हुई है. महाभारत के शान्‍तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्‍यप, वशिष्‍ठ तथा भृगु. बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्‍वामित्र तथा अगस्‍त्‍य के नाम जुड़ गए. गोत्रों की प्रमुखता उस समय और बढ़ गई जब जाति व्‍यवस्‍था कठोर हो गई. लोगों को यह विश्‍वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे.

गोत्रों में वैवाहिक स्थिति

एक ही गोत्र के सदस्यों के बीच विवाह निषेध का उद्देश्य निहित दोषों को दूर रखने के अलावा ये भी था कि अन्य प्रभावशाली गोत्रों के साथ संबंध स्थापित कर अपना प्रभाव बढ़ा सकें.
बाद में ग़ैर ब्राह्मण समुदायों ने भी इसी प्रथा को अपनाया. बाद में क्षत्रियों और वैश्यों ने भी इसे अपनाया. इसके लिए उन्होंने अपने निकट के ब्राह्मणों या अपने गुरुओं के गोत्रों को अपना गोत्र बना लिया.

विवाह में आमतौर पर गोत्र को किस तरह देखा जाता है

एक लड़का-लड़की की शादी के लिए सिर्फ विवाह के लायक लड़के-लड़की का गोत्र ही नहीं मिलाया जाता, बल्कि मां और दादी का भी गोत्र मिलाते हैं. इसका अर्थ है कि तीन पीढ़ियों में कोई भी गोत्र समान नहीं होना चाहिए तभी शादी तय की जाती है.
यदि गोत्र समान हैं तो विवाह न करने की सलाह दी जाती है. हिन्दू शास्त्रों में एक गोत्र में विवाह करने पर प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि यह मान्यता है कि एक ही गोत्र या कुल में विवाह होने पर दंपत्ति की संतान अनुवांशिक दोष के साथ उत्पन्न होती है. ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता.
Disclaimer: इस content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे


कुर्मी जाती का इतिहास :kurmi jati ka itihas



 कुर्मी एक अति प्राचीन जाति है । दरअसल यह सभी भारतीय जातियों की जननी है उसी तरह जैसे संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहा गया है । कुरमी समुदाय आदिकाल से चला आ रहा वह कृषक समाज है , जो भिन्न - भिन्न दौर से गुजरता हुआ , काल - चक्र के अनगिनत उतार - चढ़ाव देखता हुआ तथा परिस्थितियों से अनवरत जूझता रहा । इन आदि कृषकों ने क्षत्रित्व / राजसी जीवन प्रणाली तजकर अपने कुटुम्ब परिवारों के साथ ग्राम बसाकर एक स्थान पर जम कर रहना प्रारम्भ किये । इन परिवारों को कुटुम्ब कहा जाता था और परिवार के सदस्यों की जाति - बोधक संज्ञा कुटुम्बिन बन गयी । कालान्तर में कुनबी समुदाय देश में अन्यान्य क्षेत्रों में जहाँ अन्य लोग बसे , पहुंचे व कृषि कार्य को अपनाये रखा और स्थानान्तरण के कारण भाषा भेद से प्रभावित होकर उनका जाति - बोधक नाम कूर्मि , कुर्मी , कुरमी , कुनवी , कण्वी , कणयी , कुरमी , कुलमी , कुलवी , कुम्मा , कावू , कूर्मा , कोमरी , आदि होता चला गया । वर्तमान कुरमी और कुनवी शब्द प्राचीन कुटम्बिन शब्द के अपभ्रंश है । हिन्दी भाषी क्षेत्र के प्रमुख कुर्मी कुल : - चन्देल , चन्द्रनाहुँ , धमैला , अवधिया , पाटनवार , कोचैसा , मनवा , दिल्लीवार , बैसवार , गंगवार , तेलंग , घोड़चढ़े , दोजवार , क्षत्रिय , सवान , सोनवान , सैंभवार , कनुक , कटियार , रमैया , गौहाई , समसवार , जयसवार , बड़गैहा , सिंगरौल , गभेल , गहवई , तिरहुती , चन्द्रौल , कनौजिया , राजवाड़े , सराठे , श्रेष्ठी , मतालिया , देशहा , कुड़मी , मधुरवार , बड़वार , शंखवार , टिंडवार ,  गौर , उसरेटे , सिंगौर , सनोढ़िया , निरंजन , कैवर्त , अथरिया , खरेविन्द , गुजराती , यदुवंशी , पटेल , ठाकुर , राठौर , परिहार , गहरवार , शिरंगा , चन्द्रा इत्यादि है । कृषि के आविष्कार के साथ ही कुटुम्ब या परिवार नामक संस्था का आविर्भाव और विकास हुआ ; जो आज भी सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण इकाई के रूप में स्थापित है । कुटुम्ब के सदस्य को कुटुम्बिक कहा जाता था । धीरे - धीरे बोलचाल की भाषा में जिस प्रकार ब्राम्हण से बाभन , बम्भन , बरहमन आदि शब्द बनते गये , लक्ष्मण से लखन , स्वर्णकार से सोनार , कुम्भकार से कुम्हार शब्द बन गये वैसे ही लोक चलन में कुटुम्बी का टु गायब हो गया और कुम्बी , कुरमी , कुणबी , कणवी आदि शब्द चलन में आने लगे । व्याकरण सम्मत में बोले तो कुटुम्बिक तत्सम शब्द है ; जिसका अपभ्रंश रूप अर्थात् तत्भव शब्द कुम्बी , कुरमी , कुणबी , कणवी है । कुटुम्ब को कुल भी कहा जाता था । कुल से कुलम्बी , कुलवदी , कुलमी , कुरमी , कूर्मा , कापू . कम्मा , कूर्मि क्षत्रिय आदि शब्द भारत के विभिन्न क्षेत्रों / भागों में उच्चारण और योग भेद से चलित होते गये । कृर्मि जाति का इतिहास उतना ही पुरातन है , जितना कि मानव जाति । महाभारत , आदिपर्व 65 / 11 में " कश्यपातु तु इमा प्रजाः । " अर्थात कूर्म कश्यप मानव जाति का आदि पुरूष था । सम्पूर्ण प्रजाएँ कूर्म कश्यप से ही उत्पन्न कहा गया है । अत : कूर्म कश्यप को सम्पूर्ण मानव जाति का पूर्वज माना गया है । संसार की सारी ही जातियाँ कूर्म - कश्यप से उत्पन्न हुई हैं , परन्तु वे देश काल और परिस्थितियों के कारण अपने मूल पुरूष को भूल गये हैं । लेकिन कूर्मि जाति , आज भी अपने आदि पुरूष को गौरव के साथ नाम धारण करके उसकी कीर्ति को अमर किये हुए हैं । कूर्म कश्यप की सन्तान उस आदि पूर्वज के नाम पर स्वयं को कूर्मि , कुर्मी , कर्मवंशी , कण्वी , कश्यप , कश्यपगोत्री , कापु , कापेचार , कुड़मी आदि मानते और कहते हैं । सृष्टि के आदिकाल में “ कूर्म कश्यप " ने सृष्टि प्रारम्भ किया और तमसावृत वाष्पी वातारण में अभेद्य अंधकार और अपार तरल सलिल के भीतर प्रविष्ठ हो उत्पत्ति के उपयुक्त उपादानों को संग्लन किया , जिससे क्रमशः पृथ्वी का ठोस रूप में प्रादुर्भाव हुआ और उस पर प्रजोत्पत्ति हुई । कूर्म कश्यप की संतानों ने अपने जनक से पूछा कि वे पृथ्वी पर किस नाम से जाने जायेंगे और उनका क्या काम होगा । कूर्म कश्यप ने अपनी संतानों को पृथ्वी रमण करने और दोहन करने का काम सौंपा और कहा कि चूँकि तुम्हारा काम पृथ्वी पर रमण करने का है , इसलिए तुम कूर्मि नाम से जाने और पहचाने जाओगे । ' कू ' का अर्थ पृथ्वी होता है और ' रमी का अर्थ रमण करने वाला अर्थात पृथ्वी पर रमण करने वाला ही कूर्मि , कुर्मी या कुरमी , कुलमी कहलाता है । कूर्म अर्थात पृथ्वीदाता , भूमिपुत्र जिसका कर्म ( क्षेत्र ) भूमि हो , कृषि हो - कृषक कहलाता है । ्याकरण की दृष्टि से कूर्म शब्द में इनि ( इन् ) प्रत्यय लगाने से कृर्मिन शब्द बनता है । कर्मिनसे प्रथम विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग ' कर्मि " कर्मी ' शब्द बनता है , जो अत्यन्त प्राचीन शब्द है । कर्म शब्द का अर्थ स्वर्ग , पृथ्वी , रस और प्राण इत्यादि होता है । जो अत्यन्त प्राचीन शब्द है । कूर्म शब्द का अर्थ स्वर्ग , पृथ्वी , रस और प्राण इत्यादि होता है । अत : कूर्मि शब्द का अर्थ हुआ अत्यन्त पराक्रमी , तेजस्वी , प्राणवान , बलवान , पृथ्वीपति ( भूपति या राजा ) । स्पष्ट है कि ये सभी गुण एक क्षत्रिय के हैं , जिसकी प्राचीनता का प्रमाण वेद और पुराणों में भी अनेक मन्त्रों से मिलता है । कर्मि इन्द्रवाची है । कर्म , कश्यप और ब्रह्म तीनों एक ही है , और वे ही सष्टि के मल निर्मात हैं । वेदशास्त्रों के अनुसार कूर्म का अर्थ सूर्य , इन्द्र तथा कश्यप होता है । कूर्मि शब्द का अवतरण कूर्म शब्द से हुआ है । अत : कूर्म , कश्यप और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है और वे ही मानव जाति के आदि पुरूष थे । शतपथ ब्राम्हण 7 / 5 / 1 / 5 में भी कहा गया है कि - " स यत्कर्मो नाम एतदै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत यदसृजत । करोतंद्यद करोत्तस्मात्कूर्मः कश्ययो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाःप्रजा : काश्यप्य इति । " अर्थात् " उस सृष्टिकर्ता का नाम कूर्म है । कूर्म का रूप धारण करके ही प्रजापति ने सम्पूर्ण प्रजाओं का सृजन किया । सृष्टि का सृजन करने के कारण ही उसे कूर्म कहा जाता है । कश्यप ही कूर्म हैं । इ ी कारण समस्त प्रजाएँ कश्यप अर्थात् कश्यप से उत्पन्न कही जाती है । " ऋग्वेद8 / 16 / 8 में कहा गया है कि " सस्तोभ्यः सहव्य सत्व : सत्वा । तुविकूर्मि : एकश्चित् सत्रभिभूति ॥ " अर्थात् “ महान कूर्मि कर्मयोगी है और वह स्तुति सत्कार तथा आह्वान के योग्य होता है , वह सत्य स्वरूप और महाबली होता है । वह अकेले भी विघ्न बाधाओं और शत्रु समूहों से कभी पराजित नहीं होता - सदा विजयी होता है । कर्मि प्रागैतिहासिक काल से है , तब तक तो वर्ण - व्यवस्था अनुसार समाज का विभाजन भी नहीं हुआ था , तब समाज में समता थी । कूर्मियों का अतीत प्रागवैदिक काल से , वैदिक काल और उससे पीछे इधर बौद्ध काल तक बड़ा उत्कृष्ट तथा शानदार रहा है । बौद्धकालीन भारत को पुनः सनातनी ढाँचे nindra Rise मद कूर्मि चेत सरोजनी नायडू कभि छत्रपति शिवाजी महाराज 13 फरवरी 1879 जान । ७करकटी 1630 112949 निर्वाण अप्रैल 1680 कूर्मियों की दिशा , दशातर विक्रम संवत् 2075 शक संवत् 1940 फरवरी कूर्मि समाज के संबंध में महत्वपूर्ण इम्पीरियल गजेटियर आफ इण्डिया ( एडीशन ) वाल्यूम 16 अनुसार - महाराष्ट्र मराठों का देश है जिनकी जनसंग समुदाय से उत्पन्न जनों के लिए रक्षित है , जो युद्ध प्रिय , परिश्रमी एवं बलवान होते हैं । एक बार जिनका भारत में आ में हैं । जो कुनवी ( कुरुवंशीय ) नाम से विख्यात है ।में बदलने में सामाजिक आपाधापी मची , जिस बहुत से जातियों को कट्टर पुरोहितवाद का कोप भाजन बनना पड़ा । ऐसे लोगों को किसी काल में समाज का सर्वेसर्वा बनाने का कार्य किया गया , जिन्होंने ब्राम्हणों को श्रेष्ठ माना और उनके अच्छे , बुरे आदेशों का पालन करते रहे । मध्यकालीन भारत में विशेष रूप से राजपूतों की मदद से ब्राम्हणों ने वैमनस्य तथा स्वार्थवश उनके वर्चस्व को अस्वीकार्य करने वाली अनेक जातियों को वर्णच्युत तक करने का कुत्सित प्रयास किया , जिसमें उन्हें अच्छी सफलता भी मिली । इसी काल में अन्य प्राचीन क्षत्रिय जातियों के साथ ही कूर्मियों के संबंध में भी अनेक भ्रान्तियाँ फैलाई गई । जिस समय संसार की अन्य जातियाँ सभ्यता की प्राचीन अवस्था में थी , उस समय भारत में कुर्मि क्षत्रिय महान साम्राज्यों के स्वामी थे तथा वे कला और साहित्य के संरक्षक थे । विश्व में ऐसी कोई भी अन्य जाति नहीं , जिसने इतने लम्बे समय से क्षत्रिय धर्म का मनसा , वाचा और कर्मणा पालन करता आ रहा हो । लेकिन सभी क्षत्रिय कूर्मि नहीं हैं , जबकि सभी कूर्मि जाति के लोग नि : सन्देह क्षत्रिय हैं । कर्मि मूल क्षत्रिय जाति है जो वैदिक काल से ही कर्मि जाति को स्थिर जीवी में परिणित किया है । लोग देश , काल और परिस्थितियों के कारण अपने मूल पुरूष कूर्म कश्यप को छोड़ते चले गये हैं । लेकिन कृर्मि या कूर्मी जाति के लोग आज भी अपने आदि पुरूष को गौरव के साथ धारण करके उसकी कीर्ति को अमर किये हुए हैं । कूर्म - कश्यप की कीर्ति महान गोत्र प्रवर्तक के रूप में भी अमर है । महाभारत , शाति - पर्व 296 / 17 , " मूल गोत्राणि चत्वरी सकुत्पन्ननि भारत । अंगिरा कश्यपश्चैव वसिष्ठो भूगरेव च । । " के अनुसार आरम्भ में अंगिरा , कश्यप , वशिष्ठ और भृगु नामक चार ऋषि ही कूल गोत्र प्रवर्तक थे , और - शेष गोत्रों के प्रवर्तक बाद में हुए । कश्यप चूँकि मानव जाति के आदि पुरूष थे , अत : जिस व्यक्ति को अपने गोत्र का ज्ञान नहीं होता वह भी बिना किसी संकोच के कश्यप को ही अपना गोत्र प्रवर्तक मानकर कश्यप गोत्र रख लेता है , क्योंकि कश्यप  सभी के पूर्वज हैं । आज भी कश्यप गोत्र सर्वाधिक लोकप्रिय और बड़ा है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अति प्राचीन काल में उसी महान कूर्म कश्यप के वंशज कूर्मवंशी कहलाए । अत : कूर्मि निःसन्देह क्षत्रिय हैं । कूर्मि शब्द का अपभ्रंश कालान्तर एवं स्थानांतरण द्वारा कुर्मी , कुरमी , कुण्वी , कनवी , कुडमी , कालवी आदि होता गया । कूर्मि शब्द का अस्तित्व वेद और पुराणों में अनेक मन्त्रों में मिलता है । देवराज इन्द्र को तुवि कूर्मि अथवा महान कूर्मि वेद के अनेक मंन्त्रों में कहा गया है । कृर्मि ऋषि तथा इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी भी वेद के अनेक मन्त्रों की दृष्टा एवं प्रकटकर्ता रही है । सूर्यवंश या कूर्मवंश ही प्रमुख क्षत्रिय वंश है । समूचे भारत में इसके अनेक कुल और वंश आज कूर्मि जाति के कुलों और वंशों के रूप में मिलते हैं । कालान्तर में किसी प्रसिद्ध राजा या ऋषि आदि के नाम पर भी कुछ कूर्मि लोग अपनी वंश परम्परा मानते हैं ; किन्तु समस्त कूर्मि जाति का उद्भव मुख्य रूप से कूर्मवंश या सूर्यवंश से होने के कारण कूर्मि जाति अपने को कूर्मवंशी कहती है । जिस प्रकार कुरू के वंशज कौरव , पाण्डु के वंशज पाण्डव तथा यदु के वंशज यादव कहलाये , उसी प्रकार महर्षि कूर्म के वंशज कौर्मि के नाम से विख्यात हुए । वर्तमान समय में कूर्मि , कुटुम्बी , कुनबी , कुलंबी आदि उसी के ही अपभ्रंश रूप हैं । महर्षि कूर्म के वंशज कूर्मवंशीय क्षत्रिय के नाम से जाने जाते हैं । बाम्बे गजेटियर बेलगाम जिल्द - 21 के अनुसार कुनबी ( कुर्मी ) लोगों के कुल सम्बन्धी नाम 292 हैं । सम्पूर्ण संख्या में से 102 की उत्पत्ति चन्द्र वंश से , 78 की उत्पत्ति सूर्य वंश से तथा 81 की उत्पत्ति ब्रम्ह वंश से मानी जाती है । शेष 31 कुलों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनका सम्बन्ध विविध वंशों से है । महर्षि पंतजलि ने व्याकरण महाभाष्य ( 1 . 1 . 1 ) में ' गो ' शब्द का उदाहरण देकर बतलाया है कि किस प्रकार एक मूल शब्द अपभ्रंश के कारण अनेक रूप धारण कर लेता है । मूलतः यह कृर्मि क्षत्रिय जाति उस सभ्यता की जनक है ; जिसने कृषि का आविष्कार करके उसकी गति की और आर्यो को यायावर ( घुमक्कड़ ) जीवन की अवस्था से स्थिर जीवन शैली वाली श्रेष्ठ और सुसंस्कृत जाति के रूप में परिणित किया । आर्यों के पूज्यतम देवराज इन्द्र थे , जिन्हें अनेक वैदिक मंत्रों में ' तुवि कूर्मि ' अर्थात महान पराक्रमी कर्मयोगी कहा गया है ( ऋवेद , 3 . 10 . 3 ) । कूर्मि का शाब्दिक अर्थ है - कर्मशील , पराक्रमी । तुवि कूर्मि का अर्थ है - अत्यन्त कार्यकुशल ,महान पराक्रमी , महान कर्मयोगी । महान कूर्मि कर्मयोगी है और वह स्तुति , सत्कार तथा आह्वान के योग्य है । वह सत्यस्वरूप और महाबली है । वह अकेले भी विघ्नबाधाओं और शत्रुसमूहों से कभी भी पराजित नहीं होता , सदैव विजयी होता है ( अवेद , 8 . 16 . 8 ) । वैदिक कालीन सुप्रसिद्ध मनीषी महर्षि कूर्म की वंशधर कूर्मवंशी क्षत्रिय जाति भारत की ही नहीं अपितु विश्व की प्राचीनतम विशुद्ध क्षत्रिय जाति है । कुरमी का शाब्दिक अर्थ भी सार्थक है । कु अर्थात पृथ्वी , रमी अर्थात रमी हुई या संलग्न । कुरमी अर्थात वह व्यक्ति या जाति जिसका कर्मक्षेत्र भूमि ऐतिहासिक प्रमाणों से यह तथ्य उजागर होता है कि कूर्मि जाति के पूर्वज उच्च कोटि के विशुद्ध पराक्रमी तथा शूरवीर क्षत्रिय थे । कूर्मि जाति विशुद्ध क्षत्रिय वर्ण की है , इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । कूर्मि जाति के आदि पूर्वज महर्षि कूर्म क्षत्रिय थे । अत : उनके वंशजों का क्षत्रित्व स्वयं सिद्ध है ( लघु नारदीय उपपुराण , चन्द्रवंशीय राजर्षि वर्णन , श्लोक 41 और 56 ) । यह अप्रतीम , अद्वितीय एवं वज्रबाहु महान कूर्मि सनातन काल से जगत को जीवनोपयोगी पदार्थ निश्चित तथा निर्बाध रूप से प्रदान करता आ रहा है ( ऋवेद , 8 . 2 . 31 ) । कूर्मि का जीवन कर्मशीलता , साहस , संग्राम , संघर्ष , आशा , उत्साह , उमंग तथा उल्लास का होता है । वह साहस के साथ संकटों का सामना करता है । वह संसार में परिस्थितियों का कभी दास नहीं बनता , अपितु उनका स्वामी बनकर जीवन को ज्योतिर्मय बना लेने में समर्थ होता है । वह मंगलमयी , आशामयी , उदात्त भावनाओं का केन्द्र है । वह अपने चारों ओर , न केवल अपनी जाति में , न केवल अपने देश या राष्ट्र में , न केवल पृथ्वी पर , अपितु समस्त विश्व में सुख , शान्ति , सौमनस्य , सौहार्द तथा प्रकाश का साम्राज्य चाहता है । उसका दृष्टिकोण अत्यधिक विशाल होता है ( ऋवेद , 6 . 52 . 5 ) .बृहत् हिन्दी कोश ( सम्पादक कालिका प्रसाद , ज्ञानमण्डल , वाराणसी , पृष्ठ - 303 ) में कूर्म शब्द के अर्थ हैं - कूर्म - विष्णु के दस अवतारों में से दूसरा कच्छपावतार , कूर्मक्षेत्र - एक हिन्दू तीर्थ , कूर्म पुराण - 18 पुराणों में से एक , जिसमें कूर्मावतार की कथा है । कूर्म कश्यप चूंकि प्रजापालक और सृष्टा थे , अत : उन्हें प्रजापति भी कहा गया है ( शतपथ ब्राम्हण , 7 . 5 . 1 . 5 ) । कूर्म शब्द इतना व्यापक हुआ कि आकाश और पृथ्वी का नाम ही कूर्म पड़ गया ( यजुर्वेद , 24 . 34 और शतपथ ब्राम्हण , 7 . 5 . 1 . 5 ) । कूर्मि - कु अर्थात पृथ्वी और उर्मि अर्थात गोद । इस प्रकार कूर्मि शब्द से तात्पर्य है पृथ्वी की गोद में पलने वाला या पृथ्वीपुत्र । कहा भी गया है - भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ । कूरम - कु अर्थात पृथ्वी और रम अर्थात पति या बल्लभ । अत : करम शब्द का अर्थ है भूपति या पृथ्वीपति जो कि क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है । कहा गया है - क्षेत्रात रमेत सः क्षत्रियः । इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ( चौदहवां संस्करण , 1768 ई . जिल्द - 13 , पृष्ठ - 517 ) में कुनबी जाति के बारे में कहा गया है - कुनबी , महान हिन्दू कृषक जाति है , जो मुख्यत : पश्चिमी भारत में पायी जाती है । यह मद्रास के तेलगू प्रदेश के कापू , बेलगाम के कुलबी , दक्षिण के कुलम्बी , दक्षिणी कोकण के कुलवदी , गुजरात के कणबी तथा भडोच के पाटीदारों के समरूप है । कुनबियों में विधवा पुनर्विवाह तथा बहुपत्नी प्रथा को सामाजिक स्वीकृति है ; किन्तु बहुपत्नी प्रथा बहुत कम व्यवहार में है । वर्षाऋतु के मध्य में मनाया जाने वाला ' पोला ' कूर्मियों का प्रमुख त्योहार है । इसमें वे हल बैलों का जुलुस निकालते हैं । नृवंशीय दृष्टि से महरट्टा ( मराठा ) तथा कृषिकर्मी कुनबी समान हैं । दोनों में ही विशिष्ट मौलिक पैतृक गुण हैं । कुनबी ( गृहस्थ वैदिकोत्तर संस्कृत कुटुम्बिक ; जो आदिम शब्द का संस्कृत रूप हो सकता है ) पश्चिमी भारत की महान कृषक जाति है । उत्तर में , जहाँ गंगा के अगल - बगल तथा उसके दक्षिण में यह जाति अधिक संख्या में है , वहाँ पर कुनबी नाम कुरमी हो जाता है । वेदों के भाष्यकाराचार्य कूर्म ' तथा ' कूर्मि ' शब्दों की व्याकरण सम्मत व्याख्या करते हुए लिखते हैं - कूर्म : ( रसो वीर्य तेजो वा ) अस्ति अस्य इति कूर्मी अर्थात रसवान , वीर्यवान , तेजवान कूर्मी । जिसके पास जीवनरस , वीर्यबल तथा तेजस्विता रहती है , वही कूर्मि है । कूर्मः ( प्रप्राणी बलं क्षत्रं राष्ट्र वा ) अस्ति अस्य इति कूर्मी अर्थात प्राणवान , बलवान , क्षत्रिय ( क्षत्रपति ) , राष्ट्री ( राष्ट्रपति ) कूर्मी । जिसके अधिपत्य में प्रप्राण , बल , क्षत्र ( क्षत्रियत्व अथवा राष्ट्रपतित्व ) है , वही कूर्मि है । कूर्मः ( भारतवर्ष देशो ) अस्ति अस्य इति कूर्मी अर्थात कूर्म नामक भारतवर्ष जिसके आधिपत्य में है , वही कूर्मि है । _ _ _ _ कर्मशीलता और दूरदर्शिता के बल पर ही परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की , इसलिए उसे ' कूर्म ' और ' कश्यप ' कहा जाता है । कूर्म ' का शाब्दिक अर्थ कर्मशील ' और ' कश्यप का शाब्दिक अर्थ ' दृष्टा ' है । कर्म और ज्ञान दोनों की समन्वित शक्तियों के बल पर अभी भी सृष्टि का विकास हो रहा है । सृष्टिकर्ता को कूर्म कहा जाता है क्योंकि उसमें श्रेष्ठ कर्मशीलता और पराक्रम है । साथ ही वह महान ज्ञानी , सर्वदृष्टा और सूक्ष्मदर्शी है , इसलिए उसे कश्यप भी कहा जाता है । इस प्रकार कूर्म और कश्यप दोनों एक ही शक्ति के दो पहलू हैं । कश्यप ही कर्म है और परमेश्वर का ही नाम कश्यप है ( ऋवेदादि भाष्य भूमिका , पृष्ठ - 315 ) । _ _ कश्यप , पश्यक अर्थात सर्वद्रष्टा होता है क्योंकि वह सब कुछ सूक्ष्मता के साथ देख लेता है ( तैत्तिरीय अरण्यक , 1 . 8 . 8 ) । उस सृष्टिकर्ता का नाम कूर्म है । कूर्म का रूप धारण करके ही प्रजापति ने सम्पूर्ण प्रजाओं का सृजन किया । सृष्टि का सृजन करने के कारण ही उसे कूर्म कहा जाता है । कश्यप ही कूर्म है । इसी कारण समस्त प्रजाएँ काश्यप्य अर्थात कश्यप से उत्पन्न कही जाती है ( शतपथ ब्राम्हण , 7 . 5 . 1 . 5 ) सृष्टि और प्रजा का पालनकर्ता होने के कारण ही कूर्म को प्रजापति कहा गया है । कूर्म के अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण उस आदित्य अर्थात सूर्य भी कहा गया है ( शतपथ ब्राम्हण , 7 . 5 . 1 . 6 ) । कूर्म - कश्यप , मानव जाति का आदि पुरूष था । सम्पूर्ण प्रजाएँ कूर्म - कश्यप से ही उत्पन्न हुई ( महाभारत , आदिपर्व , 65 . 11 ) । यजुर्वेद में भी उसे प्रजापति और आदित्य दोनों कहा गया है ( यजुर्वेद , 13 . 30 का महीधर भाष्य ) । राजर्षि कूर्म सुप्रसिद्ध वैदिक ऋषि गृत्समद के पुत्र थे ( ऋवेद , 1 . 27 ) । अति प्राचीन काल में उसी महान ऋषि कूर्म के वंशज कूर्मवंशी कहलाये । चूंकि कूर्म और सूर्य अर्थात आदित्य एक हैं इसलिए उन्हें सूर्यवंशी भी कहा जाता है । संसार की सारी जातियाँ कूर्म - कश्यप से उत्पन्न हुई हैं ; परन्तु वे अपने मूल पुरूष को भूल गईं हैं । महान गोत्र प्रवर्तक के रूप में कूर्म कश्यप की कीर्ति अमर है । .' सयः स कूर्मोऽसौस आदित्यः ' के अनुसार आदित्य ( सूर्य ) का नाम कूर्म है । अत : सूर्यवंश , कूर्मवंश का ही नामान्तरण है । उपरोक्त वंश संरचना से स्पष्ट है कि वैवस्वत मन्वन्तर के आद्य त्रेता युग के प्रारम्भ में मारीचि कश्यप हुए हैं ( वायु पुराण , 6 . 43 ) । सम्पूर्ण मानव जाति के आदि पुरूष कूर्म कश्यप अत्यन्त पुरातन काल में विद्यमान थे । महर्षि कश्यप की पत्नी मनुर्भरतवंश के 45वीं पीढ़ी में उत्तानपाद शाखा के प्रजापति दक्ष की पुत्री अदिति थी ( बृहद्वेता , 3 . 57 ) । इनसे 12 आदित्यों का जन्म हुआ । सबसे बड़े आदित्य वरूण तथा सबसे छोटे आदित्य विवस्वान ( सूर्य ) थे । इन्हीं विवस्वान या सूर्य से सूर्यवंश चला । विवस्वान के पुत्र मनु , वैवस्वत मनु जिनका मन्वन्तर चल रहा है . . . . . विभिन्न पुराण , ग्रंथ , साहित्य , दस्तावेज में कर्मियों के ऐतिहासिक प्रमाण रामायण काल में कूर्म , कूर्मि - इन्दतु मम दीस्य , मनोभूयः प्रकर्षति । यदि हास्य प्रिया ख्यातुन कूर्मि सदृशं प्रियम् । । रामभक्त हनुमान के लिए भी कूर्मि शब्द विशेषण के रूप में वाल्मीकी रामायण में मिलता है । श्री राम कहते हैं कि मुझ दीन का मन फिर हनुमान की ओर आकर्षित होता है , क्योंकि प्रिय हित करने वाले हनुमान कूर्मि समान प्रिय मुझे और कोई नही है । वाल्मीकी ऋषि ने यहाँ हनुमान को महावीर तथा अन्य गुणों को ध्यान रखकर कूर्मि विशेषण से संबोधित किया है । हरिवंशपुराण हरिवंश पुराण के अध्याय 53 श्लोक 6 / 7 में रूक्मिनी के स्वयंवर में अतिबलशाली योद्धा के लिए महाकर्म कहा गया हैजरासंधः सुनीथश्च , दन्त वार्यवान साल्व सौभपतिश्चैव । महाकूर्मश्च पार्थिक , कथकैशिक मुख्याश्च , नृपाः प्रवरवंशजा । । अर्थात् जरासंध , सुनीथ , पराक्रमी दन्तवक्र , साल्व , सौभपति , राजा महाकूर्म ( मरूत , कुन्ति , भोज ) और श्रेष्ठ वंशोत्पन्न कथ तथा कैशिक आदि राजेमहाराजे रूक्मिनी के स्वयंवर में शामिल हए । मार्कण्डेयपुराण मार्कण्डेय पुराण के 57 / 50 में पुलिन्द तथा सुमीन देशों के पश्चात् कुरूमी ( कुरूमिन ) देश का उल्लेख किया गया है पुलिन्दाश्च सुमीनाश्च रूपया : स्वापदै सह । तथा कुरूमिनश्चैव सर्व चैव कठाक्षराः । इस श्लोक में प्रयुक्त कुरूमिन शब्द भी कृर्मियों की प्राचीनता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है । कूर्मावतार भगवान विष्णु के दशावतारों में प्रथम मत्स्यावतार और दूसरा कूर्मावतार कहा गया है । कूर्म भगवान का अवतार उत्तराखंड में हुआ था , इसी से वह भूभाग पुराणों में कूमांचल कहलाया । आजकल इसे कुमाऊँ कहा जाता है । जिस स्थान पर कूर्म भगवान अवतरित हुए थे , उस स्थान का नाम चम्पावत है । वहाँ पर कूर्म भगवान का भी मंदिर है जिसमें उनके चरण चिन्ह शिला पर अंकित है । राजतरंगिनी एवं नीलमत पुराण में उल्लेख है कि कश्मीर की भूमि पहले जलमग्न थी । ऋषि कश्यप ( कूर्म ) ने उस जल को सोख लिया था । पं भगवदत्त कृत भारतवर्ष का इतिहास ' द्वितीय संस्करण 1946 पृ . 44 अनुसार कश्यप और कूर्म एक ही शक्ति के द्योतक हैं । अर्थात् दोनों भिन्न रूप में न होकर एक रूपा है - कश्यपो वै कूर्म ( श . ब्रा . 7 / 7 / 1 / 5 ) | सागर मंथन के अवसर पर कूर्म - कच्छप का रूप धारण करके जगत का कल्याण व रक्षा करने वाले विष्णु भगवान को इसी कारण ' आदि कूर्म ' विशेषण से संबोधित किया जाता है । अनन्तो वासुकि : शेषो कराहो धरणीधरः । पयः क्षीर विवेकाढ्यो हंसो हैमगिरि स्थितः । । हयग्रीवो विशालाक्षो हयकर्णो हमाकृतिः । मन्थनो रलहारी चंकूर्मोधर धराधरः । । - विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र भार्गव उपपुराण उत्तरार्द्ध सूर्यवंशीय राजर्षि वर्णन अध्याय 15 में अंकित कृर्मि संज्ञां लभन्ते ते क्षत्रियाः कर्म संज्ञका : वंशजा : । भूमिधारण कर्तारस्तुवि कूर्मि यथा दिवि । । भार्गव उपपुराण उत्तरार्द्ध सूर्यवंशीय राजर्षि वर्णन अध्याय 15 श्लोक 25 , 26 , 27 में वर्णन है वीतहव्यो नृपः कौर्मः सूर्यवंशस्य भूषणः । तत्पन्यां गृत्समदोऽभूह ह्याम्बिकायां महाबलः । । तत्पुत्रोनामतः कूर्मो राजर्षि प्रवरःशुभः । मंत्र दृष्टा सदाचारः क्षात्रधर्मपरायणः । । तत्पुत्रा विष्णुसेनांद्या : कूर्मवंश विवर्धनाः । तत्पुत्रैश्च प्रपोत्रैश्च व्याप्तं पण्डलम् । । _ _ _ अर्थात् कूर्मवंश में उत्पन्न सूर्यवंश की शोभा बढ़ाने वाला वीतहव्य नामक राजा हुआ । उनकी पत्नी अम्बिका से महाबली गृत्समद उत्पन्न हुए । उनके पुत्र कूर्म नामक अति श्रेष्ठ राजर्षि हुए । वे क्षात्र धर्मपरायण , सदाचारी और मंत्रदृष्टा हुए । कूर्म वंश की समृद्धि करने वाले विष्णु सेना आदि अनेक पुत्र हुए । उनके पुत्रों और प्रपौत्रों से भू - मण्डल भर गया । शतपथ ब्राह्मण प्राणो वै कूर्मो ! कूर्म को प्राण कहा गया है । इसी ब्राह्मण ग्रंथ में आगे प्राणो वै क्षत्रम् ! प्राण क्षेत्र के वाचक रूप में प्रयुक्त है । पन : इसी ग्रंथ में - प्राणो वै बलम् ! प्राण , बल का वाचक है । " सयःस कूर्मो वयं सौ आदित्यः " " वृषा वैकूर्मो योषा साढ़ ' । तदानुसार कूर्म , आदित्य सूर्य और वृषा यानी इन्द्र के नाम हैं । " द्यावा पृथ्वीयो ही कूर्म : " यानि स्वर्ग ( यौ ) और पृथ्वी का नाम कूर्म है । अब प्रश्न - कूर्म शब्द से कूर्मि कैसे संबंधित है ? स्व . देवी प्रसाद सिंह चौधरी द्वारा रचित छत्र प्रभाकर से निम्न समाधान कूर्मि शब्द में तदस्यास्ति इति मतुप् अर्थ में संज्ञायांमन्माभ्याम् ( पाणि नी 5 / 2 / 137 ) द्वारा इनी ( इन ) प्रत्यय लगाने से कूर्मिन शब्द बनता है । फिर सौच ( पाणिनी 6 / 4 / 13 ) हलढ्याभ्यो ,दीर्घात्सुतिस्य पृक्तं हल् ( पा . 8 / 1 / 68 ) और न लोप : प्रातिपदिक कांतस्य ( प्रा . 8 / 2 / 17 ) द्वारा कूर्मिन से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में कूर्मि शब्द सिद्ध होता है । उक्त विवेचना के उपरांत लेखक द्वारा निम्न निर्णय दर्शित है - कूर्म : ( द्यौ स्वर्गों वा ) अस्तस्य कूर्म : दिवस्पति : इन्द्र । । कूर्मि : ( पृथ्वी ) अस्तस्य कूर्मि - पृथ्वीपतिः | Lord of the earth king | कूर्म : ( रसोविर्यवा ) अस्तस्य कृर्मि - रसवान , वीर्यवान | Spints , Vigorous | कूर्म : ( प्राणोबलं छत्रं वा ) अस्तस्य कूर्मि - प्राणवान , बलवान , क्षत्रिय , स्ट्रांग , स्टाऊट । कूर्मि ( प्रतिपादिक कूर्मिन ) अति प्राचीन शब्द है और वेद में क्षत्रिय राज इन्द्र की संज्ञा में प्रयुक्त पाया जाता है ।
जाति भेद और छुआछूत की मार से बचनेके लिए 1909 में चुनार (उत्तर प्रदेश) महासभा में कुर्मी के साथ क्षत्रिय शब्द जोडा गया . जब कि पहले जाति का नाम ऐसा नहीं था कुर्मी जाति का प्राचीन नाम शायद कुडमी(कुलमी) था उत्तर-प्रदेश मध्य -प्रदेश में इसकी भनक मिलती है झारखंड क्षेत्र में इनकी मातृ भाषा कुड़माली में इस जाति का नाम कुड़मी है. इग्लिश में ड़ के लिए कोई अक्षर नहीं है. इसलिए अंग्रेजी मे इस जाति का नाम KURMI लिखा गया और भारतीय इसे कूर्मि पढ़ने लगे. वेद पुराण शास्त्र का तुवि कूर्मि(ईन्द्र) , कूर्म कश्यप , कूर्म कृषि से समानता होने से कुरिमी इनकी वंशज और क्षत्रिय मानना शुरू किया और अपने पूर्व पुरुष की महतो उपाधि को छोड़कर सिंह, वर्मा, पटेल आदि उपाधि धारण किया ताकि शूद्र वर्ण से छुटकारा मिले . क्षत्रिय के ढेर सारे गौत्र में से इनको सिर्फ कश्यप गोत्र मिला. हिन्दुओं में सगोत्र विवाह वर्जित है, मात्र कुर्मियों में एक कश्यप गोत्र में विवाह चालू है. इसीलिए झारखण्डी कुड़मी (कुर्मी) अपने टोटेमिक वंश को छोड़ते नहीं . हैं .
शिवाजी :- शिवाजी1627-1687) छत्रपति महाराज थे तो उनके वंशज कुनबी कूर्मिक्षत्रिय हैं
शिवाजी अपने अदम्य पुरुषार्थ से महाराजा तो बन गए , परन्तु राजा मानने में द्विजाति सवर्णों में शंका थी, क्योंकि उनका जनेऊ नहीं हुआ था. क्षत्रियों का का जनेऊ संस्कार और राज्याभिषेक होता  था . मराठा चितपावन ब्राह्मणें ने शिवाजी को शूद्र कुुनबी किसान का वशज माना और क्षत्रिय वर्ण का संस्कार न देने का फैसला किया .
मनुस्मृति के ये दो द्रष्टव्य विधान ;-
शूद्राय मतिं ददयाग्रोच्छिष्ट न हविष्कृतम
न च अस्य उपदिश : धर्म न चास्य व्रतमासिशेत(४/८०)
शूद्र को ग्यान हविष, धर्मवाणी व्रत (जनेऊ संस्कार) नहीं देना चाहिए
योद्दयस्य धर्ममाचष्टे यशेयदिशाति व्रतम
सोs संवृतं नाक तम: सह तनैव मज्जति (४/८१)
जो इस (शूद्र) को धर्म -उपदेश, व्रतसंस्कार देगा , वह (पुरोहित) उस शूद्र के साथ असंवृत नरक दंड भोगेगा.
शिवाजी को धर्न के अनुसार राजा बनाने के लिए उनके एक कायस्थ मंत्री बालाजी अबजी वाराणसी के एक पतित पंडित गागाभट्ट को तीन लाख रुपए देकर अभिषेक के लिए राजी कराया उसने प्रमाण दिया कि शिवाजी चित्तोर के सिसौदिया राजपूत राणाप्रताप के वंशज हैं यानी जन्म से वह क्षत्रिय कुल से हैं , शूद्र कुल से नहीं हैं तो ब्रत,अभिषेक का कोई पाबंदी नहीं
अत: शिवाजी का व्रतऔर अभिषेक ४७ वर्ष की आयु में हुआ ,किन्तु वाद में गागाभट्ट के सहयोग से बनायी गई वंशावली झूठी निकली , क्योंकि शिवाजी और राणाप्रताप के गोत्र इतिहासकारों ने अलग -अलग प्रमाणित
किए हैं.
छत्रपति शाहूजी महाराज(१८७४-१९२२)
१८९९ में ब्राह्मण को दान करते वक्त देखा कि वह बिना स्नान किए आया था. शाहूजी महाराज ने पूछा तो उसने बताया कि शद्र राजा से दान लेने में नहाना जरूरी नहीं . शाहू जी बोले वे शिवाजी के वंशज क्षत्रिय हैं उसने कहा शिवाजी एक शूद्र कुनबी किसान का बेटा अक्षत्रिय राजा था ब्राह्मण समाज और शंकराचार्य की मान्यता बिना किसी को क्षत्रिय नहीं माना जाएगा
राजाजी सदमा से उठे और देखा कि उनके ७१ पदाधिकारियों में से ६१ ब्राह्मण थे १९०२ में उन्होंने अब्राह्मण के लिए ५० प्रतिशत आरक्षण दिया अपने कोल्हापुर राज्य में इसलिए उन्हें आरक्षण का जनक कहा जाता है.उन्होंने जनेऊ छोडा़,व्रत संस्कार छोड दिया. मठकी संपत्ति जप्त कर साधारण वर्गों की शिक्षा में विनीयोग किया तिलक की पत्रिका केशरी ने उन्हें हिन्दू विरोधी बताया उनको मारने के लिए उनकी कार पर बम फेका गया ,पर वे बच गए.
अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा के १९१९ के अधिवेशन में उनको सभापति बनाकर राजर्षि उपाधि दिया गया . क्या उनको ब्राह्मण पदोन्नति मिला ?
अरविंद स्वामी विवेकानंद आदि महामनिषियों को भी शूद्र संतान कहा गया . उनको ब्राह्मण पदोन्नति नहीं मिली.
अभी मातृभूमि की रक्षा के लिए शहीद हो जीने वाले जवानों को हिन्दूधर्म  क्षत्रिय की मान्यता नहीं दे रहा है.
उत्तर भारत में एक कहावत प्रचलित है :-
भले जात कुनबीन कि खुरपि हाथ!
खेत निरावे अपने पी के साथ !
कुर्मी (कुनबी ) औरतों का अपने पति  के साथ खेत में काम करना एक आम बात है. इस किसान जाति में कभी राजा , महाराजा हुए होंगे , कोई सिपाई सैनिक होंगे , आम कुर्मी तो किसान ही है. इन्हें  ब्राह्मण समाज या शंकराचार्य ने क्षत्रिय की मान्यता नहीं दी है. 
इसी कूर्म वंश में छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रपति संभाजी महाराज, राजा मिहिरभोज, राजा चोलम प्रथम जैसे वीरो ने जन्म लिया।विश्व की प्राचीनतम पुस्तक वेदों में भी कूर्म वंश का उल्लेख मिलता है जोकि कुर्मी समाज की प्राचीनता को रेखांकित करता  है।
  पूरा दक्षिण-एशिया कूर्म वंश के राज के अंदर रह चुका हैं।  राजा चोलम प्रथम व राजेन्द्र चोल जैसे कुर्मी वीरो ने दक्षिण-पूर्व देशों के ऊपर भी विजय प्राप्त की और भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म का प्रचार किया
जिसका अंश आज भी मलेशिया, थाईलैंड जैसे कई अन्य दक्षिण-पूर्वी देशों में दिखाई देती है।भारतीय संस्कृति व कला में कुर्मियों का एक बड़ा योगदान है

पूरे विश्व मे कुर्मियों की आबादी 33 करोड़ है जो कि अमेरिका की जनसंख्या से भी ज़्यादा है। प्राचीनकाल से ही कुर्मी वंश ने आर्यावर्त की सीमाओं की रक्षा की ही और आज भी कर रहे है।
भारत के 29 राज्यो में से 6 राज्यो के मुख्यमंत्री कुर्मी समाज से हैं (गोवा, बिहार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़)।
क्षेत्र के हिसाब से कुर्मी समाज के अनेको नाम है जैसे मराठा, पटेल, पाटीदार, गूर्जर, मलिंगा, कम्मा, कापू, वोकलिंग, कुडुम्बर, कलबी, कुनबी, कुड़मी, कंबोज ।
Disclaimer: इस  content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे