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12.9.25

तम्बोली जाति का उद्भव ,इतिहास और वतमान

 


  मित्रों, भारत में जाती व्यवस्था वैदिक युग से ही चली आ रही है . आज तम्बोली समाज के उद्भव और इतिहास  प्रस्तुत कर रहे हैं 
तंबोली समाज का इतिहास मुख्य रूप से उनके पारंपरिक व्यवसाय, पान और सुपारी की खेती व वितरण से जुड़ा है, जैसा कि 'तंबूल' (पान) शब्द से ही पता चलता है। वे मूल रूप से एक कृषि-आधारित व्यवसायिक समुदाय हैं जो भारत और बांग्लादेश सहित विभिन्न देशों में फैले हुए हैं। ऐतिहासिक रूप से, तंबोली या ताम्बुली भारत की विभिन्न जनगणनाओं में दर्ज किए गए हैं और इन्हें अक्सर शुद्ध शूद्र जातियों में शामिल किया जाता है। इस समुदाय में कुमरावत और चौरसिया जैसी कई उपजातियाँ हैं, और आज यह समाज सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए एकजुट होने का प्रयास कर रहा है। 

तंबोली समाज की उत्पत्ति संस्कृत के 'तांबूल' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ पान होता है, और यह समाज पारंपरिक रूप से पान और सुपारी के व्यवसाय से जुड़ा है। वर्तमान में, गुटखे और तंबाकू के बाज़ार में आ जाने के कारण यह पारंपरिक व्यवसाय लगभग समाप्त हो गया है। इसलिए, तंबोली समाज के अधिकांश लोग अब दूसरे व्यवसायों, जैसे हार्डवेयर की दुकानें, और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। 

उत्पत्ति और इतिहास
  • नाम की उत्पत्ति:तंबोली नाम 'तांबूल' (पान) शब्द से निकला है, क्योंकि यह समुदाय पान के पत्ते उगाने, पैक करने और बेचने के पारंपरिक काम से जुड़ा था। 
  • पारंपरिक व्यवसाय:तंबोली समाज का मुख्य पारंपरिक व्यवसाय पान के पत्ते और सुपारी का उत्पादन और व्यापार करना था। 
  • सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व:पान का हिन्दू पूजा-पाठ में विशेष स्थान है, और नाग पंचमी इस समुदाय का विशेष त्योहार माना जाता है। 
  • विभिन्न क्षेत्रों में उपस्थिति:तंबोली समुदाय के लोग भारत के विभिन्न राज्यों, जैसे महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। मुस्लिम तंबोली समुदाय भी भारत में पाया जाता है। 



  • आर्थिक सशक्तिकरण:समुदाय के मजबूत सदस्य अब हार्डवेयर की दुकानें खोलने और विभिन्न प्रकार के व्यापार करने के अलावा इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में भी काम कर रहे हैं।
वर्तमान स्थिति
  • परिवर्तनशील व्यवसाय:गुटखे और तंबाकू के बढ़ते चलन के कारण पान का पारंपरिक व्यवसाय अब बहुत कम हो गया है, जिससे समुदाय के लगभग 85% लोग दूसरे व्यवसायों में चले गए हैं। 
  • आर्थिक सशक्तिकरण:समुदाय के मजबूत सदस्य अब हार्डवेयर की दुकानें खोलने और विभिन्न प्रकार के व्यापार करने के अलावा इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में भी काम कर रहे हैं। 
  • सामुदायिक प्रयास:समुदाय अपने लोगों को एकजुट करने और पहचान की समस्याओं का समाधान करने के लिए 'सकल तंबोली समाज' और परिवार पत्रिकाएं तथा वेबसाइटों जैसे माध्यमों का उपयोग कर रहा है। 
  • सरकारी सहायता:तंबोली समुदाय को सरकारी विकास कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक सहायता मिल रही है, हालाँकि उन्हें पहचान साबित करने में कुछ समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। 
  • धार्मिक विविधता:

  • तंबोली समुदाय में लगभग 90% हिंदू हैं, लेकिन कुछ प्रतिशत मुस्लिम तंबोली भी हैं। 
कुलदेवी का विवरण -




तंबोली समाज की कुलदेवी के रूप में श्री नानादेवी माता की पूजा की जाती है, और यह कुलदेवी विशेष रूप से राजस्थान के बांसवाड़ा क्षेत्र में मनाई जाती है। कुछ जगहों पर तंबोली समाज के लोग चिति माता और कुंडलिनी माता को भी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। 
विवरण:
  • नानादेवी माता:

  • यह तंबोली समाज की सबसे प्रमुख कुलदेवी मानी जाती है, खासकर राजस्थान के बांसवाड़ा और आसपास के क्षेत्रों में इनकी पूजा होती है। बांसवाड़ा में इनके प्रसिद्ध मंदिर भी हैं, जहाँ समाज के लोग नियमित रूप से पूजा-अर्चना करते हैं। 
  • चिति माता और कुंडलिनी माता:कुछ अन्य तंबोली समाज के लोग चिति माता और कुंडलिनी माता को भी अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। 

  • चौरसिया नागवंशी तम्बोली समाज
  • वास्तविकता में चौरसियातम्बोली समाज की एक उपजाति हैं। तम्बोली शब्द की उत्पति संस्कृत शब्द "ताम्बुल" से हुई हैं जिसका अर्थ "पान" होता हैं। चौरसिया समाज के लोगो द्वारा नागदेव को अपना कुलदेव माना जाता हैं तथा चौरसिया समाज के लोगो को नागवंशी भी कहा जाता हैं।
तंबोली जाति के अंतर्गत निम्न उपजातियां आती हैं -
1. कुमरावत (सूर्यवंशी)
2. चौरसिया (चंद्रवंशी)
3. कुर्मी (यदुवंशी)
तम्बोली प्राय: निम्नांकित उपनाम लगाते हैं -
तंबोली, कुमरावत, चौरसिया, मोदी, सूर्यवंशी, यदुवंशी, भाना, तांबूलकर, बरई, बारी, बारुजीवी, राऊत, महोबिया, थवाईत, नागवंशी, नाग, पंसारी, जैसवाल, कटियार, भगत, मालवी, मरमट, मंडकरिया, आदि।
पान की कई प्रजातियाँ/वैराइटी हैं, जैसे - देसी, मीठा पत्ता (बंगला), बनारसी, मगही, मालवी, मद्रास, कपूरी, देसी, गंगेरी, नागर, साँची, मिठुआ, महोबा, सोफ़िया आदि प्रमुख हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पानवालों के आराध्य देव नाग माने जाते हैं। समुद्र मंथन के पश्चात् जो अमृत-कलश निकला था, उस अमृत-कलश के निकलने पर देवताओं और राक्षसों द्वारा छीना-झपटी कर प्राप्त करने की कोशिश में जो लार रूप में अमृत धरती पर गिरा था, उसे नाग ने ग्रहण किया था। यह नाग द्वारा संजोकर भी रखा गया था। यह अमृत कालांतर में पान बना, जिसे नाग ने अपने सिर पर धारण किया।
भगवान विष्णु द्वारा जब प्रथम महायज्ञ का आयोजन किया गया था, तो पूजन के लिए पान की आवश्यकता थी। पान को त्रैलोक्य में ढूंढा गया, लेकिन कहीं नहीं मिला। अंततः काफी प्रयास के पश्चात् वह पान का पौधा नाग के सिर पर उगा हुआ दिखाई दिया, जिसके पत्ते को यज्ञ के लिए ले जाया गया। कालांतर में इसे नागों को सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई।
इसे जम्बूदीप, रेवाखंड के सागर के किनारे लगाया गया। पान की पवित्रता और अति शुद्धता को देखते हुए नागों ने इसकी रक्षा का दायित्व ऋषि-मुनियों को दिया। ऋषि-मुनियों ने इसका दायित्व तम्बोली जाति को दे दिया। तब से तम्बोली जाति के लोग पान की खेती लगातार करते आ रहे हैं।
पान को परम पवित्र पौधा माना जाता है, जिसके पत्ते तो होते हैं, लेकिन फल एवं फूल आज तक किसी ने नहीं देखा है।
नागमंचमी के दिन तम्बोली समाज नाग की पूजा कर अपने आराध्यदेव से अपने जीवन की खुशहाली के लिए तथा पान की लहलहाती खेती के लिए प्रार्थना करते हैं।


नाग भगवान शंकर के अंग आभूषण हैं। नागपंचमी के दिन शिवजी के साथ ही नागों की पूजा की जाती है। नाग पंचमी श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है।
इस पर्व के प्रभाव से जन्म-मृत्यु व सर्प भय नहीं रहता। नाग पंचमी के पर्व का सीधा संबंध उस नाग पूजा से भी है जो शेषनाग भगवान शंकर और भगवान विष्णु की सेवा में भी लगे हैं।



पौराणिक कथाओं के अनुसार विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर विश्राम करते हैं। शेषनाग ही राम अवतार में लक्ष्मण व कृष्ण अवतार में बलराम के रूप में अवतरित
सुमेरु मोहनजोदड़ो हड़प्पा और सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष साक्षी हैं कि नागों के पूजन की परंपरा आदि काल से प्रचलित है।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा कालिया मर्दन लीला


मान्यता है कि नाग पंचमी के दिन भगवान श्री कृष्ण द्वारा कालिया मर्दन लीला हुई थी।
नाग जाति का वैदिक युग में बहुत लंबा इतिहास रहा है जो भारत से लेकर चीन तक फैला है। चीन में आज भी ड्रेगन यानी नाग की पूजा होती है। चीन का राष्ट्रीय चिन्ह भी यही ड्रैगन है।


  •  समाज' और परिवार पत्रिकाएं तथा वेबसाइटों जैसे माध्यमों का उपयोग कर रहा