14.4.25

द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में अंगूठा देने वाले एकलव्य की कथा







एकलव्य  कहानी विडिओ 


  जब भी गुरु और एक आदर्श शिष्य की बात आती है तो हमेशा ही एकलव्य को याद किया जाता है। एकलव्य महाभारत के महान चरित्रों में से एक है। महाभारत के इस पात्र का जन्म एक भील जाति के राजा हिरण्यधनु के घर हुआ था। एकलव्य की माँ का नाम रानी सुलेखा था। एकलव्य के पिता हिरण्यधनु श्रृंगबेर राज्य में भील कबीले के राजा थे। एकलव्य का मूल नाम अभिद्युम्न था। भील एक धनुर्धारी और शूरवीर जाति होती है। इसीलिए वह बचपन से ही धुनष-बाण चलाने में काफी माहिर भी था।
  महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या में उच्च अभ्यास पाना चाहता था इसीलिए एक दिन द्रोणाचार्य के पास जाता है जो कौरव और पांडवों के भी गुरु थे। एकलव्य उनके पास बहुत निष्ठा और विश्वास लेकर जाता हैं लेकिन छोटे कुल के होने के कारण द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपना शिष्य स्वीकार करने से मना कर देते हैं। उसके बाद एकलव्य भी ठान लेता है कि वह धनुर्विद्या द्रोणाचार्य से ही सीखेंगे इसलिए वह एक वन में आश्रम (कुटिया) बनाकर रहने लगते हैं और वहीं पर पेड़ के नीचे गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा को बिठाकर उन्हीं के सामने प्रत्येक दिन धनुर्विद्या का अभ्यास करता हैं। इसी दौरान एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्यों और एक कुत्ते के साथ उसी वन में आखेट के लिए जाते हैं। बीच रास्ते में ही कुत्ता वन में भटक जाता है और भटकते भटकते जाकर वह एकलव्य के आश्रम तक पहुंच जाता है। उस समय एकलव्य एकाग्रचित्त होकर अपने धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। लेकिन कुत्ते के भोकने की आवाज़ से एकलव्य के अभ्यास में बाधा आ रही थी। तब एकलव्य ने अपने कौशल से कुत्ते के मुंह में इस तरह बाण चलाएं कि कुत्ते को जरा सी भी चोंट नहीं पहुंची और उसका मुंह भी बंद हो गया। उसके बाद कुत्ता भी असहाय होकर वापस द्रोणाचार्य के पास चला गया। वहां पर द्रोणाचार्य और पांडव कुत्ते के इस हालत को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उन्हें जानने की तिव्र इच्छा जागी कि आखिर किस धनुर्धर ने इतने कुशल तरीके से कुत्ते के मुंह में इस तरह बाण चलाएं हैं। उस धनुर्धर को खोजते-खोजते वे एकलव्य के पास पहुंच गए। एकलव्य को एकनिष्ठा से धनुर्विद्या का अभ्यास करते देख द्रोणाचार्य को उनके गुरु के बारे में जानने की इच्छा हुई।
एकलव्य द्रोणाचार्य की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए कहा कि वही उसके गुरु हैं। द्रोणाचार्य को उस समय की याद आ जाती है जब उन्होंने एकलव्य को अपना शिष्य स्वीकार करने से मना किया था। एकलव्य की एक निष्ठा और कुशाग्र धनु विद्या का कौशल देख द्रोणाचार्य को आशंका हुआ कि कहीं वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ना बन जाए। क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो द्रोणाचार्य ने अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने का जो वचन लिया था वह झूठ साबित हो जाएगा। इसलिए वे गुरु दक्षिणा की मांग करते हैं। एकलव्य गुरु दक्षिणा में अपनी प्राण देने की बात करते हैं। लेकिन द्रोणाचार्य उससे अंगूठा मांग लेते हैं और एकलव्य तत्क्षण बिना कुछ सोचे अपना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत कर देता है।


किसकी सेना में शामिल हुआ एकलव्य?
अंगूठा कटने के बाद भी एकलव्य अंगुलियों से तीर चलाने का अभ्यास करने लगा। इसमें भी पूरी तरह का पारंगत हो गया। युवा होने पर एकलव्य मगध के राजा जरासंध की सेना में शामिल हो गया। जरासंध भगवान श्रीकृष्ण को दुश्मन समझता था। जरासंध ने कईं बार मथुरा पर हमला किये । इन हमलों में एकलव्य भी जरासंध के  साथ था। एकलव्य ने भी द्वारिका की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया।

कैसे हुई एकलव्य की मृत्यु?
एक बार जब जरासंध ने मथुरा पर हमला किया तो उस समय एकलव्य ने यादव सेना के कईं बड़े योद्धाओं को मार दिया। एकलव्य के पराक्रम को देखकर श्रीकृष्ण को स्वयं उससे युद्ध करने आना पड़ा। श्रीकृष्ण और एकलव्य के बीच युद्ध हुआ, जिसमें एकलव्य मारा गया। एकलव्य के बाद उसका बेटा केतुमान निषाधों का राजा बना। महाभारत युद्ध में केतुमान ने कौरवों का पक्ष लेते हुए युद्ध किया और भीम के हाथों मारा गया।

13.4.25

लोक संत पीपाजी महाराज का जीवन परिचय: LIfe story of bhagat peepaji Maharaj



पीपाजी महाराज का विडियो 






    राजस्थान के प्रख्यात लोक संत एवं भक्त कवि पीपा का जन्म वि.सं. 1390 के आसपास झालावाड़ जिले के गागरौन नामक स्थान पर हुआ माना जाता है। खींची चौहान राजवंश में जन्मे पीपा आकर्षक व्यक्तित्व के धनी युवा थे। युवावस्था में ही पिता की मृत्यु के उपरान्त राजगद्दी पर आसीन हो गागरौन का राजकाज इन्होंने सँभाल लिया। कुशल शासक और धीर गंभीर स्वभाव के कारण ये प्रजा के चहेते थे। अपने शासन काल में इन्होंने कई विजय प्राप्त कर अपना राज्य विस्तार किया। सांसारिकता को त्याग कर ये प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर हुए तथा संत काव्य धारा में अभूतपूर्व योगदान देकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। मध्यकालीन भक्ति साहित्य में महान समाज सुधारक संत पीपा ने अपनी वाणी और विचारों से जहाँ एक ओर बाह्याडम्बरों का विरोध, रूढ़ि परम्पराओं का विरोध, दुर्व्यसनों का विरोध इत्यादि किया, वहीं दूसरी ओर निर्गुण निराकार परम ब्रह्म की भक्ति कर संत काव्य धारा में अपनी उपस्थिति से हिन्दी साहित्य के पूर्व मध्यकाल को गौरवान्वित किया। ये एक ऐसे संत कवि थे जिन्होंने मक्ति और समाज सुधार का अद्‌भुत रूप सामने रखा है। कबीर की परम्परा का अनुसरण करते हुए इन्होंने कबीर की मान्यताओं को भक्ति-प्रतिष्ठा के लिए सार्थक बताया है। अपनी वाणी में संत कबीर को ये झूठी सांसारिकता और कलियुग की अंधविश्वासी रीतियों के खण्डन के रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा कहते हैं कि कबीर न होते तो सच्ची भक्ति रसातल में पहुँच जाती-
'जै कलि नाम कबीर न होते।
तौ लोक बेद अरु कलिजुग मिलि करि। भगति रसातलि देते।"
  भगत पीपा गागरोन गढ़  के एक राजपूत शासक थे जिन्होंने हिंदू रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन के संत बनने के लिए राजगद्दी त्याग दी थी । 
* इनके बचपन का नाम राजकुमार "प्रतापसिंह" था और उनकी माता का नाम "लक्ष्मीवती" था
* पीपा जी ने रामानंद से दीक्षा लेकर राजस्थान में निर्गुण भक्ति परम्परा का सूत्रपात किया था।
*दर्जी समुदाय के लोग संत पीपा जी को अपना पूजनीय गुरुदेव मानते हैं।इन्हें पीपा वंशी  क्षत्रीय दर्जी कहा  जाता है |
* बाड़मेर ज़िले के समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर बना हुआ है, जहाँ हर वर्ष विशाल मेला लगता  है। इसके अतिरिक्त गागरोन (झालावाड़) एवं मसुरिया (जोधपुर) में भी इनकी स्मृति में मेलों का आयोजन होता है।
* संत पीपाजी ने "चिंतावाणी जोग" नामक गुटका की रचना की थी, जिसका लिपि काल संवत 1868 दिया गया है।
* पीपा जी ने अपना अंतिम समय टोंक के टोडा गाँव में बिताया था                                                                         
 एक योद्धा वर्ग और शाही परिवार में जन्मे, पीपा को एक प्रारंभिक शैव (शिव) और शाक्त (दुर्गा) अनुयायी के रूप में वर्णित किया गया है। इसके बाद, उन्होंने रामानंद के शिष्य के रूप में वैष्णववाद को अपनाया , और बाद में जीवन के निर्गुणी (गुणों के बिना भगवान) विश्वासों का प्रचार किया। भगत पीपा को 15वीं शताब्दी के उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के शुरुआती प्रभावशाली संतों में से एक माना जाता है। पीपा का जन्म राजस्थान के वर्तमान झालावाड़ जिले के गगरोन में एक राजपूत शाही परिवार में हुआ था । वे गागरोन गढ़  के राजा बने। पीपा हिंदू देवी दुर्गा भवानी की पूजा करते थे और उनकी मूर्ति को अपने महल के भीतर एक मंदिर में रखते थे। समय चक्र गतिमान रहा और महाराज पीपाजी  ने राज पाट का परित्याग कर सन्यासी बन  गए | पीपाजी ने रामानंद को अपना गुरु मान लिया। 
अपने बाद के जीवन में, भगत पीपा ने कबीर और दादू दयाल जैसे रामानंद के कई अन्य शिष्यों की तरह , अपनी भक्ति पूजा को सगुणी विष्णु अवतार ( द्वैत ) से निर्गुणी ( अद्वैत ) भगवान, यानी गुणों वाले भगवान से निर्गुण भगवान की ओर स्थानांतरित कर दिया। स्थानीय भाटों के पास मिले अभिलेखों के अनुसार, गोहिल , चौहान , दहिया , चावड़ा , डाभी , मकवाणा (झाला), राखेचा , भाटी , परमार , तंवर , सोलंकी और परिहार के कुलों के 52 राजपूत सरदारों ने अपनी उपाधियों और पदों  से इस्तीफा दे दिया और शराब, मांस और हिंसा का त्याग कर दिया  अपने जीवन को अपने गुरु  पीपा जी की शिक्षाओं को समर्पित कर दिया ।

*
प्रमुख शिक्षाएं और प्रभाव
पीपा ने सिखाया कि ईश्वर हमारे भीतर ही है और सच्ची पूजा हमारे भीतर देखना और प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखना है।
शरीर के भीतर ही देवता है, शरीर के भीतर ही मंदिर है,
शरीर के भीतर ही सब जंगम हैं
शरीर के भीतर ही धूप, दीप और नैवेद्य हैं,शरीर के भीतर ही पूजा -पत्र हैं।
इतने देश खोजने के बाद
मैंने अपने शरीर में ही नौ निधियाँ पाई हैं,
अब आगे आना-जाना नहीं होगा,
यह राम की सौगंध है ।


12.4.25

बजरंग बलि के अवतरण की कहानी ||हनुमान जन्म कथा





हनुमान जन्म कथा विडियो 



  वेदों और पुराणों के अनुसार, पवन पुत्र हनुमान जी का जन्म चैत्र मंगलवार के ही दिन पूर्णिमा को नक्षत्र व मेष लग्न के योग में हुआ था। इनके पिता का नाम वानरराज राजा केसरी थे। इनकी माता का नाम अंजनी थी। रामचरितमानस में हनुमान जी के जन्म से संबंधित बताया गया है कि हनुमान जी का जन्म ऋषियों द्वारा दिए गए वरदान से हुआ था। मान्यता है कि एक बार वानरराज केसरी प्रभास तीर्थ के पास पहुंचे। वहां उन्होंने ऋषियों को देखा जो समुद्र के किनारे पूजा कर रहे थे।
तभी वहां एक विशाल हाथी आया और ऋषियों की पूजा में खलल डालने लगा। सभी उस हाथी से बेहद परेशान हो गए थे। वानरराज केसरी यह दृश्य पर्वत के शिखर से देख रहे थे। उन्होंने विशालकाय हांथी के दांत तोड़ दिए और उसे मृत्यु के घाट उतार दिया। ऋषिगण वानरराज से बेहद प्रसन्न हुए और उन्हें इच्छानुसार रुप धारण करने वाला, पवन के समान पराक्रमी तथा रुद्र के समान पुत्र का वरदान दिया।

बजरंगबली के जन्म से जुड़ी कथा

धार्मिक कथा के अनुसार हनुमान जी भगवान शिव का 11वां रुद्र अवतार है। उनके जन्म को लेकर कहा जाता है कि, जब विष्णु जी ने धर्म की स्थापना के लिए इस धरती पर प्रभु श्री राम के रूप में जन्म लिया, तब भगवान शिव ने उनकी मदद के लिए हनुमान जी के रूप में अवतार लिया था। दूसरी ओर राजा केसरी अपनी पत्नी अंजना के साथ तपस्या कर रहे थे। इस तपस्या का दृश्य देख भगवान शिव प्रसन्न हो उठें और उन दोनों से मनचाहा वर मांगने को कहा।
शिव जी की बात से माता अंजना खुश हो गई और उनसे कहा कि मुझे एक ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो बल में रुद्र की तरह बलि, गति में वायु की गतिमान और बुद्धि में गणपति के समान तेजस्वी हो। माता अंजना की ये बात सुनकर शिव जी ने अपनी रौद्र शक्ति के अंश को पवन देव के रूप में यज्ञ कुंड में अर्पित कर दिया। बाद में यही शक्ति माता अंजना के गर्भ में प्रविष्ट हुई। फिर हनुमान जी का जन्म हुआ था।
  एक अन्य कथा के अनुसार, माता अंजनी एक दिन मानव रूप धारण कर पर्वत के शिखर की ओर जा रही थीं। उस समय सूरज डूब रहा था। अंजनी डूबते सूरज की लालीमा को निहारने लगी। इसी समय तेज हवा चलने लगी और उनके वस्त्र उड़ने लगे। हवा इतनी तेज थी वो चारों तरफ देख रही थीं कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। लेकिन उन्हें कोई दिखाई नहीं दिया। हवा से पत्ते भी नहीं हिल रहे थे। तब माता अंजनी को लगा कि शायद कोई मायावी राक्षस अदृश्य होकर यह सब कर रहा था। उन्हें क्रोध आया और उन्होंने कहा कि आखिर कौन है ऐसा जो एक पतिपरायण स्त्री का अपमान कर रहा है।
तब पवन देव प्रकट हुए और हाथ जोड़ते हुए अंजनी से माफी मांगने लगे। उन्होंने कहा, "ऋषियों ने आपके पति को मेरे समान पराक्रमी पुत्र का वरदान दिया है इसलिए मैं विवश हूं और मुझे आपके शरीर को स्पर्श करना पड़ा। मेरे अंश से आपको एक महातेजस्वी बालक प्राप्त होगा।" उन्होंने यह भी कहा कि मेरे स्पर्श से भगवान रुद्र आपके पुत्र के रूप में प्रविष्ट हुए हैं। वही आपके पुत्र के रूप में प्रकट होंगे। इस तरह की वानरराज केसरी और माता अंजनी के यहां भगवान शिव ने हनुमान जी के रूप में अवतार लिया।

कलियुग में हनुमान जी गंधमादन पर्वत पर रहते हैं

कलियुग के आगमन के समय हनुमान जी ने गंधमादन पर्वत पर ही निवास कर लिया। गंधमादन पर्वत हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में स्थित है। प्राचीन काल में सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक पर्वत को गंधमादन पर्वत कहा जाता था

11.4.25

राजा भरथरी और पिंगला की पौराणिक कथा



राजा भरथरी और पिंगला की पौराणिक कथा विडियो


   प्रजा हित और अपने जीवन से रुष्ट होने के बाद कई राजाओं के संन्यासी बनने की कथाएं हमने कई बार सुनी है. लेकिन आज हम एक ऐसे राजा के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसने अपने पत्नी प्रेम में धोखा खाने के बाद अपना संपूर्ण जीवन वैराग्य में बिता दिया और अंत में वह एक महान संत बनकर उभरे.
बहुत समय पहले की बात है जब उज्जैनी नगर (वर्तमान में उज्जैन) के राजा गंधर्व सेन हुआ करते थे. राजा गंधर्व सेन की दो पत्नियां थी जिनसे पहली पत्नी से उनके पुत्र का नाम भृर्तहरी और दूसरी पत्नी से उनके पुत्र का नाम विक्रमादित्य था. समय के चक्र में जब राजा गंधर्वसेना वृद्ध हो गए तो उन्होंने अपने बड़े पुत्र भृर्तहरी को राजपाठ सौंप दिया. और स्वयं सुख पूर्वक अपनी वृद्धावस्था व्यतीत करने लगे.
भृर्तहरी के राजा बनने के बाद प्रजा की खुशियों का कोई ठिकाना ना था, प्रजा उनके शासन से बेहद प्रसन्न थी. क्योंकि उनका राजा केवल राजा ना होकर धर्म और नीति शास्त्र का बहुत बड़ा ज्ञानी था इसलिए वह अपना शासन भी धर्म के अनुसार ही चला रहा था. इसी कड़ी में राजा भृर्तहरी ने दो विवाह किए.

दो विवाह होने के पश्चात राजा ने “पिंगला” नामक एक युवती से तीसरा विवाह रचाया. पिंगला अत्यंत सुंदर थी और राजा भृर्तहरी उसके प्रेम में पागल हो चुके थे. विवाह के पश्चात उनका ज्यादातर समय पिंगला के पास ही गुजरता था, तीनों रानियों में उन्हें पिंगला ज्यादा प्रिय थी. राजा के अपार स्नेह और प्रेम के बावजूद भी पिंगला उनसे प्रेम नहीं करती थी, वह तो उसी नगर के एक कोतवाल के प्रेम में पागल थी.
एक बार उस राज दरबार में गुरु गोरखनाथ पधारे. अपने महल में गुरु के आगमन के पश्चात राजा ने उनका खूब आदर सत्कार किया और उनकी सेवा की. कई दिनों तक गुरु गोरखनाथ राज दरबार में ही रहे आखिर में भृर्तहरी की सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे एक आदित्य फल भेंट किया. गुरु गोरखनाथ में कहां कि यह फल अद्भुत है यदि तुम इसका सेवन करोगे तो हमेशा तुम जवान बने रहोगे और कभी बुढ़ापा तुम्हारे निकट भी नहीं आयेगा.
राजा ने सोचा की मैं तो राजा हूं मुझे इस फल की क्या आवश्यकता! लेकिन यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदा इसी प्रकार सुंदर बनी रहेगी. इसलिए राजा ने वह फल अपनी रानी पिंगला को दे दिया, उसे यह भी बताया कि यदि वह इस फल का सेवन करेगी तो सदैव सुंदर बनी रहेगी.

पिंगला ने सोचा की यदि यह फल मैं अपने प्रेमी कोतवाल को दे दूं तो वह सदैव मुझे इसी प्रकार से प्रेम करेगा. इसलिए पिंगला ने वह फल ले जाकर कोतवाल को दे दिया. लेकिन कोतवाल पिंगला से प्रेम नहीं करता था वह तो नगर की एक वेश्या के प्रेम में पागल था. पिंगला ने वह फल कोतवाल को तो दे दिया, लेकिन कोतवाल ने वह ले जाकर उस वेश्या को यह फल दे दिया.
वेश्या ने सोचा कि यदि मैं इस फल का सेवन करूंगी और मैं सदैव जवान बनी रहूंगी तो आज ही भर मुझे इस नर्क भरे काम में शरीक रहना पड़ेगा. मैं कभी भी अपने जीवन में मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाऊंगी. लेकिन यदि यह फल मैं राजा को ले जा कर दे दूं और राजा इसका सेवन कर ले तो शायद में प्रजा हित में कुछ आवश्यक काम करेंगे. उसने ऐसा ही किया और वह फल उसने राजा को ले जाकर भेंट कर दिया. राजा ने जब उस फल को देखा तो वह आश्चर्य में पड़ गया. उन्होंने पूछा तुम्हें यह फल किसने दिया है? तब उसने बताया कि यह फल तो मुझे नगर के कोतवाल ने दिया है. राजा ने सोचा कि शायद किसी ने पिंगला से यह फल चोरी करके कोतवाल को दे दिया.
राजा ने कोतवाल को बुलवाया और पूछा कि तुम्हें यह फल किस प्रकार प्राप्त हुआ? कोतवाल ने बताया कि यह फल मुझे रानी पिंगला ने ला कर दिया है, वह मुझसे प्रेम करती है लेकिन मुझे उनसे कोई प्रेम नहीं है. यह सुनकर राजा के पैरों तले जमीन खिसक गई. उन्हें मानो कोई जोर का झटका लगा हो उन्होंने सोचा जिस स्त्री से मैंने इस संसार में सबसे ज्यादा प्रेम किया वही स्त्री मुझसे प्रेम नहीं करती! इस घटना ने राजा भर्तृहरि के जीवन को पूरी तरह से पलट कर रख दिया.
अब राजा की इस संसार में कोई रुचि नहीं रह गई थी. अपने साथ हुए इस धोखे के बाद राजा को महल में कोई आसक्ति नहीं थी. उन्होंने राजमहल त्याग कर वैराग्य ग्रहण करने का निश्चय किया. कुछ ही समय में उन्होंने अपना सारा राजपाठ अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप दिया और स्वयं तपस्या की ओर चल दिए.
वह गुफा में पहुंचे और उन्होंने वहां तपस्या शुरू की. एक बार भगवान इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने हेतु उन पर एक पत्थर गिरा दिया, लेकिन भृर्तहरी ने वह पत्थर अपने हाथ में धारण कर लिया. लंबे समय तक वह पत्थर उनके हाथ में ही रहा और जब अपनी तपस्या पूर्ण करके उन्होंने वह पत्थर नीचे रखा उस पर उनके हाथ का निशान बन गया. यह पत्थर आज भी उनके गुफा में उनकी मूर्ति के नीचे रखा हुआ है. समय के साथ उन्होंने कठिन से कठिन तपस्या की और गुरु गोरखनाथ को अपना गुरु बनाया.





8.4.25

गुरु घासीदास का इतिहास और जीवन परिचय


बाबा घासीदास के जीवन परिचय का विडिओ -


 


  गुरु घासीदास का जन्म 18 दिसंबर 1756 को गिरौदपुरी (छत्तीसगढ़) स्थित एक गरीब परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम महंगू दास एवं माता का नाम अमरौतिन था. उनकी पत्नी का नाम सफुरा था. बचपन से ही सत्य के प्रति अटूट आस्था एवं निष्ठा के कारण बालक घासीदास को कुछ दिव्य शक्तियां हासिल हो गईं, जिसका अहसास बालक घासी को भी नहीं था, उन्होंने जाने-अनजाने कई चमत्कारिक प्रदर्शन किये, जिसकी वजह से उनके प्रति लोगों की आस्था एवं निष्ठा बढ़ी. ऐसे ही समय में बाबा ने भाईचारे एवं समरसता का संदेश दिया. उन्होंने समाज के लोगों को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी. उन्होंने न सिर्फ सत्य की आराधना की, बल्कि अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान और शक्ति का उपयोग मानवता के लिए किया. उन्होंने छत्तीसगढ़ सतनाम पंथ की स्थापना की

गुरू घासीदास की शिक्षा और उपदेश

बाबा घासीदास को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के सारंगढ़ (बिलासपुर) स्थित एक वृक्ष के नीचे तपस्या करते समय ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. उन्होंने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को ही नहीं बल्कि ब्राह्मणों के प्रभुत्व को भी नकारा और विभिन्न वर्गों में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध भी किया. उनके अनुसार समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और महत्व दिया जाना चाहिए. घासीदास ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया. उनके अनुसार उच्च वर्गों एवं मूर्ति पूजकों में गहरा संबंध है. घासीदास जी पशुओं से भी प्रेम करने की शिक्षा देते थे. वे पशुओं पर क्रूर रवैये के खिलाफ थे. सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. घासीदास के उपदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा

क्या हैं गुरु घासीदास के सप्त सिद्धांत?

गुरु घासीदास के सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद एवं हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन का निषेध और दोपहर में खेत न जोतना आदि हैं. बाबा गुरु घासीदास द्वारा दिये गये उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति प्राप्त हुई
महान् सन्त एवं समाजसुधारक बाबा गुरुघासीदास का जीवन छत्तीसगढ़ की धरती के लिए ही नहीं, अपितु समूची मानव-जाति के लिए कल्याण का प्रेरक सन्देश देता है । सतनामी धर्म के प्रवर्तक छत्तीसगढ़ के यह महान् पुरुष एक सिद्धपुरुष होने के साथ-साथ अपनी अलौकिक शक्तियों एवं महामानवीय गुणों के कारण श्रद्धा से पूजे जाते है ।
छत्तीसगढ़ की जनता को नया जीवन-दर्शन, आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश देने वाले बाबा गुरुघासीदास धार्मिक सन्त और समाजसुधारक थे । उन्होंने सत्य को ही आत्मा माना है । सत्य ही आदिपुराण है, प्रकृति का तत्त्व है । अत: सतनाम (सत्यनाम) को ही पूजने पर ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है ।

सत्य से धरणी खड़ी, सत्य से खडा आकाश है ।

सत्य से उपजी पृथ्वी, कह गये घासीदास ।।


यूट्यूब विडिओ की प्लेलिस्ट -


*भजन, कथा ,कीर्तन के विडिओ

*दामोदर दर्जी समाज महासंघ  आयोजित सामूहिक विवाह के विडिओ 

*मंदिरों की बेहतरी हेतु डॉ आलोक का समर्पण भाग 1:-दूधाखेडी गांगासा,रामदेव निपानिया,कालेश्वर बनजारी,पंचमुखी व नवदुर्गा चंद्वासा ,भेरूजी हतई,खंडेराव आगर

*मंदिरों की बेहतरी के लिए डॉ आलोक का समर्पण खण्ड 7 गायत्री शक्ति पीठ खड़ावदा(मंदसौर),शिव हनुमान मंदिर लुका का खेडा,कायावर्नेश्वर महादेव मंदिर क्यासरा -डग,बैजनाथ शिवालयआगर-मालवा,हनुमान बगीची सुनेल,मोडी माताजी का मंदिर सीतामऊ,गायत्री शक्ति पीठ शामगढ़

जाति इतिहास : Dr.Aalok भाग २ :-कायस्थ ,खत्री ,रेबारी ,इदरीसी,गायरी,नाई,जैन ,बागरी ,आदिवासी ,भूमिहार

*मनोरंजन ,कॉमेडी के विडिओ की प्ले लिस्ट

*जाति इतिहास:Dr.Aalok: part 5:-जाट,सुतार ,कुम्हार,कोली ,नोनिया,गुर्जर,भील,बेलदार

*जाति इतिहास:Dr.Aalok भाग 4 :-सौंधीया राजपूत ,सुनार ,माली ,ढोली, दर्जी ,पाटीदार ,लोहार,मोची,कुरेशी

*मुक्ति धाम अंत्येष्टि स्थलों की बेहतरी हेतु डॉ.आलोक का समर्पण खण्ड १ :-सीतामऊ,नाहर गढ़,डग,मिश्रोली ,मल्हारगढ़ ,नारायण गढ़

*मुक्तिधाम की बेहतरी हेतु डॉ आलोक का समर्पण खण्ड 2 :-बगुनिया ,आगर मालवा ,बोलिया ,हतिनिया ,बाबुलदा 

*मुक्तिधाम  की बेहतरी हेतु डॉ  आलोक का समर्पण खण्ड 3:-मेलखेड़ा, कोटडा , सुसनेर ,डग ,गरोठ,सोयत,

*डॉ . आलोक का काव्यालोक

*दर्जी  वैवाहिक  महिला संगीत के विडिओ 

*मनोरंजन,शिक्षाप्रद ,उपदेश के विडिओ 

*मंदिरों की बेहतरी के लिए डॉ  आलोक का समर्पण भाग 4 -आशापूरा  गैलाना ,भूतेश्वर उमरिया ,बैजनाथ धाम आगर 


मेघवंश समाज के कर्णधार स्वामी गोकुल दास जी महाराज ?Story oj sant Gokuldas ji Majharaj





हिन्दू समाज के सभी वर्गों ने हिन्दू संस्कृति के उन्नयन हेतु अपना अपना योगदान दिया है , सभी वर्गों में संत , सती और सूरमा हुए हैं जिन का गौरवशाली इतिहास हमें प्रेरणा देता है । आज हम मेघवंश में जन्मे तपस्वी , महान भक्त , संत साहित्य के रचयिता , वेद - पुराण , दर्शन इत्यादि शास्त्रों के मर्मज्ञ , समाज सुधारक , सामाजिक समरसता के पुरोधा सनातन धर्म संस्कृति के ध्वजवाहक संत स्वामी श्री गोकुलदास जी महाराज के बारे में  जानकारी प्रस्तुत  कर रहे हैं 
स्वामी जी का जन्म अजमेर के निकट डूमाड़ा ग्राम की पवित्र धरा पर जमींदार श्री नन्दराम रामाजी सिंहमार मेघवंशी के घर मातुश्री छोटा देवी की पावन कोख से विक्रम संवत १९४८ फाल्गुन वदी चतुर्दशी ( शिवरात्रि ) शनिवार को हुआ .( सिंहमार मेघवंश चन्द्रवंशी भाटी राजपूतों से निकला है , जैसा कि पूर्व के लेखों में वर्णन किया जा चुका है कि भाटी राजपूत यदुवंशी हैं , यदुवंश चन्द्रवंशी क्षत्रियों की ही एक शाखा है , यदुवंश को पूर्णकलावतार भगवान श्रीकृष्ण का वंश होने का गौरव प्राप्त है अतः हम यह भी कह सकते हैं कि स्वामी गोकुलदास जी भी भगवान श्रीकृष्ण की पावन वंश परम्परा में ही जन्मे थे . ) निश्चित समय पर पवित्र मुहूर्त में आप का नामकरण हुआ शिशु के दिव्य भाल को देख कर गोकुल नाम रखा गया . माता पिता ने गोकुल को घर से छः किलोमीटर दूर सोमलपुर के जोधाजी सूबेदार पण्डित की पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा हेतु भर्ती करवा दिया , गोकुल अपनी शिक्षा पूरी भी नहीं कर पाया कि तब की प्रचलित परम्परा के अनुसार मात्र छः वर्ष की आयु में ही पालरां वाला गाँव के देवाजी देवगांवा की सुपुत्री बनड़ी से विवाह कर दिया गया . चूँकि आप जन्म से ही वीतराग थे अतः आप को गृहस्थी में कोई रूचि नहीं थी , गोकुल सदैव संत महात्माओं के सानिध्य में रहना , ध्यान समाधि धारण करना और हरिभजन करना पसन्द करते थे , एक तो स्वयं का विरक्त स्वभाव और तिस पर साधु संतों का सानिध्य मानो सोने में सुहागा हो गया । विक्रम संवत् १९६० की फाल्गुन सुदी द्वितीया के दिन आप ने वृहद् सत्संग सभा का आयोजन कर स्वामी रामहंस जी महाराज से दीक्षा प्राप्त की . आप ने हरिभजन को ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्धारित कर लिया , महावीर स्वामी , गौतम बुद्ध , भर्तृहरी जैसे कई महान व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने विवाह के पश्चात गृहस्थी का त्याग कर मोक्ष मार्ग का वरण किया था , गोकुल भी उसी परम्परा के वाहक बने |अब आप स्वच्छन्द रूप से साधु महात्माओं के सत्संग तथा वेद पुराणादि शास्त्रों के अध्ययन , योगादि के अभ्यास में अधिक से अधिक समय व्यतीत करने लगे | दूर दूर से लोग जाति , समाज के बन्धन तोड़ कर आप के दर्शन करने , दिव्य उपदेशों को सुनने और सानिध्य प्राप्त करने के उद्देश्य से आने लगे , अपने भक्तों तथा अनुयायियों के आग्रह पर आप ने अनेक स्थानों पर चातुर्मास किए तथा समाज को अपने उपदेशों से लाभान्वित किया . स्वामी जी मन वचन और कर्म से वीतराग थे किन्तु समाज के प्रति अपने दायित्व को भी भलीभांति जानते थे अतः आप ने समाज को संगठित , शिक्षित , संस्कारित तथा सदाचारी बनाने के उद्देश्य से विक्रम संवत् १९७७ में अजमेर राज्य के दो सौ दस गाँवों की एक सभा दौराई गाँव में आयोजित की तत्पश्चात आप ने तीर्थराज पुष्कर में मेघवंश महासभा की स्थापना कर उस का पंजीयन करवाया , इस महासभा के माध्यम से स्वामी जी ने समाज के सैंकड़ों युवाओं को समाज सेवा के लिए कटिबद्ध कर दिया , . स्वामी गोकुलदास जी के भगीरथ प्रयत्न से समाज में नूतन चेतना का संचार हुआ , समाज शिक्षित और सदाचारी होने लगा , युवक नशे से दूर होने लगे , संगठित होने लगे , समाज के पुराने मन्दिरों , देवस्थानों , धार्मिक और सामाजिक स्थानों का जीर्णोद्धार होने लगा , जहाँ आवश्यकता थी वहाँ नए मन्दिरों का निर्माण होने लगा , कुँए खुदवाए जाने लगे , सार्वजनिक महत्व के भवन बनाए जाने लगे और यह सब उस समाज के पुरुषार्थ से होने लगा जिस की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं कही जा सकती थी , समाज ने सदाचारी जीवन अपनाना प्रारम्भ किया तो निश्चित था कि समाज में लक्ष्मी की स्थिरता के साथ साथ सरस्वती का भी वास होने लगा . स्वामी जी ने ही समाज को मेघरिख , रिखिया , मेघ , मेघवाल , बलाई , भांबी , चान्दौर , जुलाहा , सालवी , चोपदार , कोटवाल , छड़ीदार , बुनकर , कोष्टी आदि विभिन्न उपनामों तथा वशिष्ट , जाटा , मारू , वसीका , म्हेर , देशी बारिया तथा मेवाड़ा इत्यादि भेदों से मुक्त कर आदर सूचक मेघवंशी नामकरण करते हुए  एकसूत्र में पिरो कर सुन्दर माला का निर्माण किया .
स्वामी जी ने अपना निजी सुख पूर्णतः त्याग दिया समाज सुधार के कार्यों के साथ आप ने अपना स्वाध्याय भी बरकरार रखा . आप स्नान ध्यान , भजन संध्योपासना , योगाभ्यास की नियमितता के प्रबल पक्षधर और अभ्यासी थे साथ ही घण्टों वेद , पुराण , उपनिषद , दर्शन , स्मृति , ज्योतिष , व्याकरण , वैद्यक , इतिहास तथा सत्साहित्य के स्वाध्याय में व्यतीत करते थे , आप में जन्मजात कवि और लेखक के गुण भरे हुए थे अतः आप ने कई ग्रथों की रचना की जिस में से प्रमुख ग्रन्थ निम्न हैं –
1. गोकुलदास भजनमाला 2. मेघवंश इतिहास ऋषि पुराण 3. अलख उपासना 4. बनजारा भास्कर 5. पड़दा प्रमाण
6. रामदेव जी महाराज चौबीस प्रमाण 7. भजन विलास आरोधि भजन 8. श्री रामदेव जी महाराज जमा जागरण विधि
9. धारुमाल रूपादे की बड़ी बेल 10. रामदेव जी का ब्यावला 11. रामदेव चालीसा 12. रामदेव भजन आराधना
विक्रम संवत् २०३४ की आश्विन कृष्ण एकादशी को स्वामी जी ने समाधिपूर्वक अपनी पावन आत्मा को परमात्मा में विलीन कर दिया , उन के समाधि स्थल पर इक्कावन फीट ऊँचा धवल संगमरमर से बना शिखरबन्द मन्दिर बना हुआ है साथ ही भव्य सत्संग भवन , साधुओं के लिए आश्रम , तीर्थयात्रियों के लिए सर्वसुविधाओं से युक्त आवास तथा निर्मल जलयुक्त कूप बना हुआ है ,स्वामी ने समाज के मूल में छुपी श्रेष्ठताओं को पहचाना और समाज को भी उन्हीं श्रेष्ठताओं से परिचित करवाया . स्वामी जी ने नकारात्मक संघर्ष के बजाय सदाचारी प्रयत्न का उपदेश दिया , 
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गुरु गोकुलदास महाराज का जन्म 6 जनवरी 1907 को उत्तरप्रदेश के बेलाताल गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम करणदास तथा इनकी माता का नाम श्रीमती हर्बी था।  गुरु गोकुलदास महाराज समाज में परिवर्तन की मुख्य भूमिका निभाने वाले मेघवंश, डोम, डुमार, बसोर, धानुक, नगारची, हेला आदि समाज के महान पुरोधा  ,संत और वे एक तपस्वी, बाल ब्रह्मचारी संत थे। अपने अनुयायियों के साथ सत्संग में रत रहने वाले गोकुलदासजी ने पूरे भारत देश का भ्रमण किया था। सन् 1964 में भारत के आक्रमण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से भेंट कर उन्होंने चित्रकूट की पहाड़ियों में भारत की विजय होने तक घोर तपस्या की थी। गुरु गोकुलदासजी के भीतर राष्ट्रभक्ति कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे एक सच्चे देशभक्त रहे। स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेने वालों का वे बहुत सम्मान करते थे। वे सदा यही कहा करते थे कि संकट की घड़ी में हर भारतीय को धर्म, जाति के भेदभाव से ऊपर उठकर देश की सेवा करना ही चाहिए। समाज के सजग प्रहरी और देशभक्त गोकुलदासजी महाराज समाज की पूजा-पद्धति, सामाजिक रीति-रिवाज, वैवाहिक पद्धति आदि को समान रूप से मानते थे। वे एक महान संत थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज को समर्पित कर उसे पहचान बनाई।गोकुल दस जी शांत स्वरूपा थे। उन्हें एकान्तवास बहुत प्रिय था। कहीं भी जाते थे तो शहर से बाहर, शोरगुल से दूर, एकांत स्थान पर रहते थे। उन्होंने बहुत तपस्या की थी और अधिकतर मौन रहा करते थे। महाराज जी का समस्त जीवन यज्ञमय था। उनका सम्पूर्ण जीवन लोगों के हित करने में ही बीता। ऐसे महान संत को नमन!

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7.4.25

महिषासुर मर्दिनी की कथा /Story of Mahishasur Mardini

Story of Mahishasur Mardini  video




महिषासुर एक संस्कृत शब्द है जो महिष अर्थात "भैंस" और असुर अर्थात "राक्षस" से मिलकर बना है, जिसका अनुवाद "भैंस राक्षस" होता है। एक असुर के रूप में, महिषासुर ने देवताओं के विरुद्ध युद्ध किया , क्योंकि देवता और असुर सदैव संघर्ष में रहते थे। महिषासुर को वरदान प्राप्त था कि कोई भी मनुष्य उसे नहीं मार सकता। देवों और दानवों (असुरों) के बीच युद्ध में, इंद्र के नेतृत्व में देवता , महिषासुर से हार गए। हारने के कारण, देवता पहाड़ों में इकट्ठे हुए जहाँ उनकी संयुक्त दिव्य ऊर्जा देवी दुर्गा में मिल गई । नवजात दुर्गा ने शेर पर सवार होकर महिषासुर के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व किया और उसे मार डाला। इसके बाद, उनका नाम महिषासुरमर्दिनी रखा गया, जिसका अर्थ है महिषासुर का वध करने वाली । लक्ष्मी तंत्र के अनुसार , यह देवी लक्ष्मी ही हैं जो महिषासुर का तत्काल वध करती हैं, और उनके पराक्रम का गुणगान करते हुए चिरस्थायी वर्चस्व प्रदान करने का वर्णन किया गया है। 

महिषासुर का जन्म

महिषासुर एक असुर था। महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से महिषासुर का आगमन हुआ। इस वजह से वश महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था।
महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को सताने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और सभी देवताओं को वहां से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुंचे। सारे देवताओं ने फिर मिलकर उसे परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गए।

महिषासुर मर्दिनी

देवता सर्वशक्तिमान होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति को समय-समय पर दानवों ने चुनौती दी है। कथा के अनुसार, दैत्यराज महिषासुर ने तो देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार भी कर लिया था। उसने इतना अत्याचार फैलाया कि देवी भगवती को जन्म लेना पड़ा। उनका यह रूप 'महिषासुर मर्दिनी' कहलाया।

देवताओं का तेज

देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोध से भर गए। इसी समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुंह से क्रोध के कारण एक महान तेज प्रकट हुआ। अन्य देवताओं के शरीर से भी एक तेजोमय शक्ति मिलकर उस तेज से एकाकार हो गई। यह तेजोमय शक्ति एक पहाड़ के समान थी। उसकी ज्वालायें दसों-दिशाओं में व्याप्त होने लगीं। यह तेजपुंज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट होने के कारण एक अलग ही स्वरूप लिए हुए था।

महिषासुर के अंत के लिए हुई उत्पत्ति

इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें 'महिषासुर मर्दिनी' कहा गया। समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। भगवान शिव ने त्रिशूल देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी चक्र देवी को प्रदान किया। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये। इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया।

फिर हुआ महिषासुर से युद्ध

थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वालीं और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही हैं। महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े। सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को नष्ट करने लगी 

इस युद्ध में महिषासुर का वध तो हो ही गया, साथ में अनेक अन्य दैत्य भी मारे गए। इन सभी ने तीनों लोकों में आतंक फैला रखा था। सभी देवी-देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से फूलों की वर्षा की।

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मौर्य, मुराव ,मुराई, मोरी ,मोरे समाज का गौरवशाली इतिहास ,मौर्य कुल की गोत्र सूचि

 मौर्य,  मुराव ,मुराई, मोरी ,मोरे समाज का गौरवशाली  इतिहास ,मौर्य  कुल  की गोत्र सूचि  Video




  मौर्य कौन सी जाति है: मौर्य समुदाय उत्तर प्रदेश और बिहार में कुशवाहा समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक उपनाम है। इस समुदाय के लोग कोएरी, कछी,शाक्य, मुराव और सैनी नाम से भी जाना जाता है यह एक क्षत्रिय जाति है ।
मौर्य शब्द का मतलब है क्षत्रियों का एक वंश और राजा या नेता। मौर्य साम्राज्य, प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था। इसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी
इनका बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवों के बाद दूसरा सबसे बड़ा OBC समुदाय है और ये जाट, यादव और कुर्मियों के बाद भारत में सबसे अधिक राजनीतिक रूप से संगठित किसान समुदाय में से एक हैं । बिहार में वे एक प्रमुख जाति हैं और राज्य की जनसंख्या का लगभग 9 प्रतिशत हिस्सा रखते हैं । उनका बिहार में 63 विधान सभा सीटों और कुछ सांसद सीटों पर प्रभाव होता है ।
मौर्य साम्राज्य, प्राचीन भारत के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली साम्राज्यों में से एक था , जिसने देश के इतिहास और संस्कृति को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से साम्राज्य की स्थापना की और फिर उसका विस्तार किया , 
मुराव ,मौर्य,मोरी यह एक क्षत्रिय और कृषक जाति है जो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में पाया जाने वाला एक जाति समुदाय हैं। जिन्हे मौर्य नाम से जाना जाता है। 
 मुराव जाति को कोइरी की उपजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है जो कुशवाहा नामक एक बड़े समुदाय का हिस्सा है जिसमें कछवाहा,‌ कोइरी, काछी व मुराव जातियां शामिल है। 
 जाति  इतिहासकार डॉ दयाराम आलोक  के अनुसार मुराव पारंपरिक रूप से जमींदार थे वर्तमान में इस समुदाय की ज्यादातर सदस्य जीवन यापन के लिए कृषि पर निर्भर हैं इनमें से कई पशुपालन व्यवसाय से भी जुड़े हुए हैं इनमें से कई शिक्षा और रोजगार के आधुनिक अवसरों का लाभ उठाकर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। मुराव जाति को उत्तर प्रदेश और बिहार में मौर्य, मुराई, मोरी नाम से भी जाना जाता है। यह प्राचीन मोरिय जनजाति के वंशज हैं जो शाक्य जनजाति की एक शाखा है चंद्रगुप्त मौर्य को मोरिय गणराज्य के राजा चंद्रवर्धन मौर्य का पुत्र माना जाता है, जो बाद में मौर्य साम्राज्य की स्थापना करते हैं। मौर्य शाक्यों की एक शाखा है, जो पिपलीवन में आकर मौर्य कहलाए जो बाद में समय अनुसार बदलकर मुराव बन गए।
  इतिहासकार गंगा प्रसाद गुप्त ने मुराव,कोइरी,काछी जाति को एक ही माना है। तथा महान इतिहासकार व साहित्य के प्रकांड विद्वान डॉक्टर शिवपूजन सिंह कुशवाहा ने अपनी किताब 'कुशवाहा क्षत्रियोंत्पत्ति मीमांसा' में कोइरी, काछी,मुराव जो कुशवाहा नाम से भी जानी जाती है। 

मुराव जाति का इतिहास

मुराव मौर्य जाति का इतिहास बहुत ही गौरवशाली रहा है। शाक्य गणराज्य में आने के कारण कुछ(काशी महाजनपद) के लोग अब शाक्य जाति के कहलाने लगे थे। बाद में शाक्य कुल में राजा शुद्धोधन का जन्म होता है जिनकी शादी कोलिय कुल के राजा अंजन की दो पुत्री महामाया व प्रजापति से होती है। शुद्धोधन महामाया से शाक्यमुनि गौतम बुद्ध सिद्धार्थ का जन्म होता है। जिन्होंने पूरे मानव कल्याण के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया। शाक्य कुल में भगवान बुद्ध का जन्म होने के कारण शाक्य गणराज्य की गरिमा पूरे जम्मू द्वीप  में और बढ़ गई थी।   पिपलीवन में अधिक मात्रा में मोर के पक्षियों के पाए जाने के कारण इसे मोरीय गणराज्य कहा जाने लगा धीरे-धीरे शाक्य भी मोरिय कहे जाने लगे और अपनी पूर्व पहचान को भुलाकर खुद को मोरीय बताने लगे।
    शाक्य जाति के लोगों के पीपलीवन में आकर बस जाने के कारण यह लोग मौर्य कहलाए क्योंकि पिपली वन में मोर पक्षियों की संख्या अधिक थी जिसके कारण शाक्यों को भी मौर्य कहा जाने लगा [मौर्य (संस्कृत),मोरिय (पाली)] शाक्य गणराज्य से विस्थापित चंद्रवर्धन मौर्य मोरीय गणराज्य के राजा हुआ करते थे। बौद्ध ग्रंथ ''उत्तरबिहारट्टकथायम्'' ( लेखक- थेर महिंद्र, सम्राट अशोक के पुत्र) के अनुसार मोरिय गणराज्य पर खत्तिय राजा चंद्रवर्धन   शासन था| इनकी प्रधान रानी धम्म मोरिया बनी। उनके पुत्र चंद्रगुप्त पैदा हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के पिता राजा चंद्रवर्धन 340 ईसा पूर्व 34 वर्ष की आयु में मगध के विस्तारवादी सीमा संबंधी युद्ध में मारे गए तथा मोरिय गणराज्य पर महापदमनंद का अधिकार हो गया| इस घटना के बाद रानी धम्म मोरिया बच निकली और अपने भाइयों की सहायता से पुत्र के साथ पुष्पपुर आ गई| यहीं पर चंद्रगुप्त मौर्य का बचपन मयूर पालको, शिकारियों तथा ग्वालो अर्थात चरवाहों के मध्य व्यतीत हुआ। वहीं से नंदो के द्वारा अपमानित चाणक्य ने चंद्रगुप्त को देखा तो वह समझ गया कि यह कोई साधारण बालक नहीं है। तथा चंद्रगुप्त को अपने साथ तक्षशिला ले जाते हैं और युद्ध विद्या की शिक्षा कूटनीति आदि ज्ञान देकर चंद्रगुप्त को अखंड भारत पर विजय प्राप्त करने के काबिल बनाते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए नंदों के साम्राज्य का अंत कर अखंड भारत का निर्माण कर दिया। उसके बाद चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म को अपना कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिंदुसार हुए जिन्होंने अपने पिता के साम्राज्य को आगे बढ़ाते हुए अपने पुत्र सम्राट अशोक को राजा बना दिया। सम्राट अशोक इस पूरी दुनिया का सबसे महान राजाओं में से एक हैं। जिन्होंने संपूर्ण मानव जगत की कल्याण के लिए अनेकों कार्य किए। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना कर तथा उसके प्रचार प्रसार में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। वैदिक धर्म को त्याग कर सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने की बात ब्राह्मणों को रास नहीं आई। इसीलिए कई सारे ब्राह्मणों ने अपनी किताबों में मौर्य को शूद्र घोषित करने की चेष्टा की है|  सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में खुद को क्षत्रिय व बुद्ध शाक्य का वशंज बताया है।  
  चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध राजवंश पर नंद राजाओं का शासन था और यह राजवंश उत्तर का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। चाणक्य नामक एक ब्राह्मण मंत्री, जिसे कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है, ने मौर्य परिवार के चंद्रगुप्त को प्रशिक्षित किया था। चंद्रगुप्त ने अपनी सेना संगठित की और नंद राजा को उखाड़ फेंका।
इसलिए, चंद्रगुप्त मौर्य को मौर्य वंश का पहला राजा और संस्थापक भी माना जाता है। उनकी माता का नाम मुर था, इसलिए उन्हें संस्कृत में मौर्य कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है मुर का पुत्र और इस प्रकार उनका वंश मौर्य वंश कहलाया।

मौर्य गोत्र सूची

चित्तोडिया(क्षत्रिय) कराडिया राजपूत(गुजरात),परमार,सक्तिया(सकटा) , भक्तिया(भगता) , ठाकुरिया , शाक्यसेनी , हल्दिया(मुराव) , पुर्विया , कछवाहा , उत्तराहा , दखिनाहा , प्रयागहा , तनराहा, कनौजिया , भदौरिया , ढंकुलिया , इत्यादि मौर्यों में पीरीवाल २३२ गोत्र हैं


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जाति इतिहास : Dr.Aalok भाग २ :-कायस्थ ,खत्री ,रेबारी ,इदरीसी,गायरी,नाई,जैन ,बागरी ,आदिवासी ,भूमिहार

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*मुक्ति धाम अंत्येष्टि स्थलों की बेहतरी हेतु डॉ.आलोक का समर्पण खण्ड १ :-सीतामऊ,नाहर गढ़,डग,मिश्रोली ,मल्हारगढ़ ,नारायण गढ़

*मुक्तिधाम की बेहतरी हेतु डॉ आलोक का समर्पण खण्ड 2 :-बगुनिया ,आगर मालवा ,बोलिया ,हतिनिया ,बाबुलदा 

*मुक्तिधाम  की बेहतरी हेतु डॉ  आलोक का समर्पण खण्ड 3:-मेलखेड़ा, कोटडा , सुसनेर ,डग ,गरोठ,सोयत,

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5.4.25

आदिशक्ति माँ दुर्गा की कथा ?माँ दुर्गा को बुलाने के मंत्र

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  दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, नवदुर्गा, देवी, शक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, पार्वती , जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं। शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है। वह अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली, ममतामई, मोक्ष प्रदायनी तथा कल्याणकारी हैं। उनके बारे में मान्यता है कि वे शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करतीं हैं।[

दुर्गा का निरूपण सिंह पर सवार एक देवी के रूप में की जाती है। दुर्गा देवी आठ भुजाओं से युक्त हैं जिन सभी में कोई न कोई शस्त्रास्त्र होते है। उन्होने महिषासुर नामक असुर का वध किया। महिषासुर (= महिष + असुर = भैंसा जैसा असुर) करतीं हैं। जिन ज्योतिर्लिंगों में देवी दुर्गा की स्थापना रहती है उनको सिद्धपीठ कहते है। वहाँ किये गए सभी संकल्प पूर्ण होते है। माता का दुर्गा देवी नाम दुर्गम नाम के महान दैत्य का वध करने के कारण पड़ा। माता ने शताक्षी स्वरूप धारण किया और उसके बाद शाकंभरी देवी के नाम से विख्यात हुई शाकंभरी देवी ने ही दुर्गमासुर का वध किया। जिसके कारण वे समस्त ब्रह्मांड में दुर्गा देवी के नाम से भी विख्यात हो गई। माता के देश में अनेकों मंदिर हैं कहीं पर महिषासुरमर्दिनि शक्तिपीठ तो कहीं पर कामाख्या देवी। यही देवी कोलकाता में महाकाली के नाम से विख्यात और सहारनपुर के प्राचीन शक्तिपीठ मे शाकम्भरी देवी के रूप में ये ही पूजी जाती हैं।

हिन्दुओं के शक्ति साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है)। वेदों में तो दुर्गा का व्यापाक उल्लेख है, किन्तु उपनिषद में देवी "उमा हैमवती" (उमा, हिमालय की पुत्री) का वर्णन है। पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है। दुर्गा असल में शिव की पत्नी आदिशक्ति का एक रूप हैं, शिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है। एकांकी (केंद्रित) होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवश अनेक हो जाती है। उस आदि शक्ति देवी ने ही सरस्वती(ब्रह्मा जी की पहली पत्नी), लक्ष्मी, और मुख्य रूप से पार्वती(सती) के रूप में जन्म लिया और उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश से विवाह किया था। तीन रूप होकर भी दुर्गा (आदि शक्ति) एक ही है।

देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं (सावित्री, लक्ष्मी एव पार्वती से अलग)। मुख्य रूप उनका "गौरी" है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप। उनका सबसे भयानक रूप "काली" है, अर्थात काला रूप। विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं।भगवती दुर्गा की सवारी शेर है।

मार्कण्डेय पुराण में ब्रहदेव ने मनुष्‍य जाति की रक्षा के लिए एक परम गुप्‍त, परम उपयोगी और मनुष्‍य का कल्‍याणकारी देवी कवच एवं व देवी सुक्‍त बताया है और कहा है कि जो मनुष्‍य इन उपायों को करेगा, वह इस संसार में सुख भोग कर अन्‍त समय में बैकुण्‍ठ को जाएगा। ब्रहदेव ने कहा कि जो मनुष्‍य दुर्गा सप्तशती का पाठ करेगा उसे सुख मिलेगा। भगवत पुराण के अनुसार माँ जगदम्‍बा का अवतरण श्रेष्‍ठ पुरूषो की रक्षा के लिए हुआ है। जबकि श्रीं मद देवीभागवत के अनुसार वेदों और पुराणों की  रक्षा के और दुष्‍टों के दलन के लिए माँ जगदंबा का अवतरण हुआ है। इसी तरह से ऋगवेद के अनुसार माँ दुर्गा ही आदि-शक्ति है, उन्‍ही से सारे विश्‍व का संचालन होता है और उनके अलावा और कोई अविनाशी नही है।

इसीलिए नवरात्रि के दौरान नव दुर्गा के नौ रूपों का ध्‍यान, उपासना व आराधना की जाती है तथा नवरात्रि के प्रत्‍येक दिन मां दुर्गा के एक-एक शक्ति रूप का पूजन किया जाता है। और जय अम्बे गौरी आरती माँ दुर्गा की सबसे प्रसिद्ध आरती में से एक है। मां अम्बे की यह प्रसिद्ध आरती मां दुर्गा जी से जुड़े ज्यादातर मौकों पर पढ़ी जाती है।
मां दुर्गा को बुलाने के लिए कई मंत्र हैं. इनमें से कुछ मंत्र ये हैं:

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते।।

ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

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3.4.25

इन्द्र ने छल से कैसे बनाया अहिल्या से अनैतिक संबंध |गौतम ऋषि का श्राप कैसे दूर हुआ?

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अहिल्या एक बहुत ही सुंदर स्त्री थी. अहिल्या को ये वरदान मिला हुआ था कि उसका योवन सदा बना रहेगा. अहिल्या की सुंदरता के आगे तो स्वर्ग की अप्सराएं भी कमतर थी, इसलिए देवता भी अहिल्या के कायल हुआ करते थें. लेकिन एक श्राप के कारण अहिल्या पत्थर की शिला में तब्दील हो गई थी.
  पुराणों के अनुसार अहिल्या ब्रह्मा की पुत्री थी. इसलिए वो काफी ज्ञानी और सुंदर थीं. अहिल्या के बड़ी होने पर ब्रह्माजी ने उनकी शादी किसी साधु से ही करने का फैसला किया. लेकिन शर्त यह रखी कि जो कोई पृथ्वी का चक्कर लगाकर सबसे पहले आएगा, उसी का विवाह अहिल्या से होगा.अति सुंदर अहिल्या को पाने के लिए सभी देवता और अन्य गणमान्य लोग शर्त पूरी करने के लिए निकल पड़ते हैं. लेकिन अहिल्या का ध्यान गौतम ऋषि की ओर जाता है. अहिल्या उनके चेहरे से इतनी प्रभावित होती हैं कि गौतम ऋषि से ही शादी करने की बात कहती है.

विवाह से इंद्र हुए नाराज : 

महर्षि गौतम और अहिल्या का आपस में विवाह होता है. लेकिन दूसरे देवता इस शादी से बिल्कुल भी खुश नहीं होते हैं और ऐसा भी कहा जाता है कि देवराज इंद्र को भी अहिल्या काफी पसंद थी .इसीलिए जब उन्हें अहिल्या प्राप्त नहीं हुई तो इंद्र ने अपनी वासना को शांत करने के लिए एक षड्यंत्र रचा. 
  गौतम रोजाना भोर होने से पहले जग जाते और अपने नित्यकर्म निपटाने के लिए नदी किनारे जाते थे। वहां 2-3 घंटे का समय बिताकर फिर कुटिया में आते थे। इंद्र ने इसी मौके का फायदा उठाने की योजना बनाई। एक रात जब गौतम ऋषि और अहिल्या सो गए, फिर कुछ समय बाद इंद्र ने अपनी शक्ति से भोर होने का कृत्रिम वातावरण रच दिया । ऋषि गौतम को लगा कि सुबह होने को है, वे रोजाना की तरह उठ गए और नित्यकर्म के लिए निकल पड़े।
  इधर इंद्र ने गौतम ऋषि का भेस धारण कर कुटिया में प्रवेश किया। अहिल्या को लगा कि उनके पति नित्यकर्म से निपटकर आ गए हैं। फिर इंद्र ने गौतम ऋषि के भेस में अहिल्या से प्यार भरी बातें की और उसके साथ समागम किया । दूसरी ओर, जब ऋषि नदी किनारे पहुंचे तो वहां के जनजीवन को देखकर उन्हें आभास हो गया कि किसी ने धोखे से सुबह का होने वातावरण बनाया है। वे तुरंत अपनी कुटिया में पहुंचे, जहां उनके भेस में इंद्र उनकी पत्नी के साथ सो रहे थे।

गौतम ऋषि ने दिया श्राप

अहिल्या के साथ समागम करने के बाद इंद्र आश्रम से निकले. इंद्र को अपने ही आश्रम से निकलते हुए गौतम ऋषि ने देख लिया, एक ही बार में उन्हें सारी बात समझ में आ गई. इसलिए उन्होंने बिना किसी से कारण जाने अहिल्या को पत्थर(शिला) बनने का श्राप दे दिया. 
अहिल्या ने गौतम ऋषि से कहा कि उन्हें बिल्कुल भी यह एहसास नहीं हुआ कि उनके भेस में कोई और शख्स उनके साथ सोया है। इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। उनके मन में छल की कोई भावना नहीं थी। गौतम ऋषि ने अहिल्या को वरदान दिया कि कालांतर में भगवान विष्णु का अवतार राम तुम्हारे पास आएंगे  और उनके छूने से तुम फिर से पहले जैसी बन जाओगी। सालों बाद श्रीराम ने विष्णु के अवतार के रूप में धरती पर जन्म लिया। राम ने ही बाद में अहिल्या को छूकर उन्हें श्राप से मुक्त किया।

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1.4.25

राजा शिवि और बाज की पौराणिक कहानी





दानवीर महाराजा शिवि की कहानी 

भारतीय धार्मिक कहानियों में महाराजा शिवि की कहानी (प्रमुख है। पुरुवंश में जन्मे उशीनर देश के राजा शिवि बड़े ही परोपकारी और धर्मात्मा थे । परम दानवीर राजा शिवि के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जाता था। प्राणियों के प्रति राजा शिवि का बड़ा स्नेह था। उनके राज्य में हमेशा सुख – शांति और स्नेह का वातावरण बना रहता था। ईश्वर भक्त राजा शिवि की चर्चा स्वर्गलोक तक होती थी। देवताओं के मुख से राजा शिवि की इस प्रसिद्धि के बारे में सुनकर इंद्र और अग्नि को विश्वास नहीं होता था। अतः उन्होंने उशीनर  नरेश की परीक्षा करने की ठानी और एक युक्ति निकाली।

महाराजा शिवि की परीक्षा

अग्नि ने कबूतर का रूप धारण किया और इंद्र ने एक बाज का रूप धारण किया। दोनों उड़ते – उड़ते राजा शिवि के राज्य में पहुँचे। उस समय राजा शिवि एक धार्मिक यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। कबूतर उड़ते – उड़ते आर्तनाद करता हुआ राजा शिवि की गोद में आ गिरा और मनुष्य की भाषा में बोला – “ राजन ! मैं आपकी शरण आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये।”
थोड़ी ही देर में कबूतर के पीछे – पीछे बाज भी वहाँ आ पहुँचा और बोला – “ राजन ! निसंदेह आप धर्मात्मा और परोपकारी राजा है। आप कृतघ्न को धन से, झूठ को सत्य से, निर्दयी को क्षमा से और क्रूर को साधुता से जीत लेते है, इसलिए आपका कोई शत्रु नहीं इसलिए आप अजातशत्रु नाम से प्रसिद्ध है। आप अपकार करने वाले का भी उपकार करते है, आप दोष खोजने वालों में भी गुण खोजते है। ऐसे महान होकर आप यह क्या कर रहे है ?
मैं क्षुधा से व्याकुल होकर भोजन की तलाश में भटक रहा था। तभी संयोग से मुझे यह पक्षी मिला और आप इसे शरण दे रहे है। यह आप अधर्म कर रहे है। कृपा करके यह कबूतर मुझे दे दीजिये। यह मेरा भोजन है।” इतने में कबूतर बोला – “ शरणार्थी की प्राण रक्षा करना आपका धर्म है । अतः आप इस बाज की बात कभी मत मानिये। यह दुष्ट बाज मुझे मार डालेगा।”

धर्मपरायण महाराजा शिवि  का जवाब


दोनों की बात सुनकर राजा शिवि बाज से बोले – “ हे बाज ! यह कबूतर तुम्हारे भय से भयभीत होकर मेरी शरण आया है, अतः यह मेरा शरणार्थी है। मैं अपनी शरण आये शरणार्थी का त्याग कैसे कर सकता हूँ ? जो मनुष्य भय, लोभ, ईर्ष्या, लज्जा या द्वेष से शरणागत की रक्षा नहीं करते या उसे त्याग देते है उन्हे ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। सभी जीवों को अपने प्राण प्रिय होते हैं। समर्थ और बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि असमर्थ व मृत्युभय से भयभीत जीवों की रक्षा करें। अतः हे बाज ! मृत्यु के भय से भयभीत यह कबूतर मैं तुझे नहीं दे सकता। इसके बदले तुम जो चाहो खाने के लिए मांग सकते हो। मैं तुझे वह अभीष्ट वस्तु देने को तैयार हूँ ।”
तब बाज बोला – “हे राजन ! मैं क्षुधा से पीड़ित हूँ । आप तो जानते ही है, भोजन से ही जीव उत्पन्न होता है और बढ़ता है। यदि मैं क्षुधा से मरता हूँ तो मेरे बच्चे भी मर जायेंगे। आपके एक कबूतर को बचाने से कई जीवों के प्राण जाने की संभावना है। हे राजन ! आप ऐसे कैसे धर्म का अनुसरण कर रहे है जो अधर्म को जन्म देने वाला है। बुद्धिमान मनुष्य उसी धर्म का अनुसरण करते है जो दुसरे धर्म का हनन न करें। आप अपने विवेक के तराजू से तोलिये और जो धर्म आपको अभीष्ट हो वह मुझे बताइए।”

शरणार्थी की रक्षा धर्म है

राजा शिवि बोले – “ हे बाज ! भय से व्याकुल हुए शरणार्थी की रक्षा करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जो मनुष्य दया और करुणा से द्रवित होकर जीवों को अभयदान देता है, वह देह के छूटने पर सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है। धन, वस्त्र, गौ और बड़े बड़े यज्ञों का फल यथासमय नष्ट हो जाता है किन्तु भयाकुल प्राणी को दिया अभयदान कभी नष्ट नहीं होता। अतः मैं अपने सम्पूर्ण राज्य और इस देह का त्याग कर सकता हूँ, परन्तु इस भयाकुल पक्षी को नहीं छोड़ सकता।”

हे बाज ! तुझे आहार ही अभीष्ट है सो जो चाहो सो आहार के लिए मांग लो।” बाज बोला – “ हे राजन ! प्रकृति के विधान के अनुसार कबूतर ही हमारा आहार है, अतः आप इसे त्याग दीजिये।“राजा बोला – “ हे बाज ! मैं भी विधान के विपरीत नहीं जाता । शास्त्र कहता है दया धर्म का मूल है, परोपकार पूण्य है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है। अतएव तुम जो चाहो सो दे सकता हूँ, परन्तु ये कबूतर नहीं दे सकता।”

कहानी विडिओ मे देखें 


बाज की मांग

तब बाज बोला – “ ठीक है राजन ! यदि आपका इस कबूतर के प्रति इतना ही प्रेम है तो मुझे ठीक इसके बराबर तोलकर अपना मांस दे दीजिये, जिससे मैं अपनी क्षुधा शांत कर सकूं। मुझे इससे अधिक और कुछ नहीं चाहिए ”। प्रसन्न होते हुए राजा शिवि ने कहा – “ हे बाज ! तुम जितना चाहो, उतना मांस मैं देने को तैयार हूँ। यदि यह क्षणभंगुर देह धर्म के काम न आ सके तो इसका होना व्यर्थ है।” यह कहकर राजा ने तराजू मंगवाया और उसके एक पलड़े में कबूतर को बिठा दिया और दुसरे पलड़े में वह अपना मांस काटकर रखने लगे। लेकिन कबूतर का पलड़ा जहाँ का तहाँ ही रहा। तब अंत में राजा शिवि स्वयं उस पलड़े में बैठ गये और बोले – “हे बाज ! ये लो मैं तुम्हारा आहार तुम्हारे सामने बैठा हूँ।”

पुष्प वर्षा और महाराजा शिवि 

इतने में आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, मृदंग बजने लगे। स्वयं भगवान अपने भक्त के इस अपूर्व त्याग को देखकर प्रसन्न हो रहे थे। यह देखकर राजा शिवि विस्मय से सोचने लगे कि इस सबका क्या कारण हो सकता है ? इतने मैं वह दोनों पक्षी अंतर्ध्यान हो गये और अपने असली रूप में प्रकट हो गये।
इंद्र ने कहा – “ हे राजन ! आपके जैसा धर्म परायण और त्यागी मैंने कभी नहीं देखा। मैं इंद्र हूँ जो बाज बना था और ये अग्नि देव हैं जो कबूतर बने थे। हम दोनों तुम्हारे त्याग की परीक्षा लेने आये थे। हे राजन ! ऐसे मनुष्य विरले ही होते है जो दूसरों के उपकार के लिए अपने प्राणों का भी मोह न करें। ऐसा मनुष्य उस लोक को जाता है, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता है। अपना पेट पालने के लिए तो पशु भी जीते है, किन्तु अभिनंदनीय तो वही मनुष्य है जो दूसरों के हित के लिए जीता है।” इतना कहकर इंद्र और अग्नि देव स्वर्ग को चले गये। राजा शिवि ने अपना यज्ञ पूरा और कई वर्षो तक पृथ्वी का राज्य भोगने के बाद परमपद को प्राप्त हुए।

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