13.9.17

सभी राजपूत कुल की कुलदेवी की सूची


List Of The Kuldevi Of Rajputs (सभी वंश की कुलदेवी)

राजपूतो को तीन वंशो में बांटा गया है सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, अग्निवंशी | इन तीनो में से प्रतियेक वंश वापस अलग अलग शाखा, वंश और कुल में बांटे गए है | कुल किसी भी राजपूत वंश की प्राथमिक पहचान होती है | प्रत्येक  कुल की रक्षा उनके परिवार के देवता या कुलदेवी करती है | नीचे अलग अलग कुल व उनकी कुलदेवी का नाम दिया गया है |
S. No.   Vansh   KuldeviS. No.   Vansh   Kuldevi
1.  राठौड़  नागणेचिया2.  गहलोत  बाणेश्वरी माता
3.  कछवाहा  जमवाय माता4.  दहिया  कैवाय माता
5.  गोहिल  बाणेश्वरी माता6.  चौहान  आशापूर्णा माता
7.  बुन्देला  अन्नपूर्णा माता8.  भारदाज  शारदा माता
9.  चंदेल  मेंनिया माता10.  नेवतनी  अम्बिका भवानी
11. शेखावत जमवाय माता12.  चुड़ासमा  अम्बा भवानी माता
13.  बड़गूजर  कालिका(महालक्ष्मी)माँ14.  निकुम्भ  कालिका माता
15.  भाटी स्वांगिया माता16.  उदमतिया  कालिका माता
17.  उज्जेनिया  कालिका माता18.  दोगाई  कालिका(सोखा)माता
19.  धाकर  कालिका माता20.  गर्गवंश  कालिका माता
21.  परमार  सच्चियाय माता22.  पड़िहार  चामुण्डा माता
23.  सोलंकी  खीवज माता24.  इन्दा  चामुण्डा माता
25.  जेठंवा  चामुण्डा माता26.  चावड़ा  चामुण्डा माता
27.  गोतम  चामुण्डा माता28.  यादव  योगेश्वरी माता
29.  कौशिक  योगेश्वरी माता30.  परिहार  योगेश्वरी माता
31.  बिलादरिया  योगेश्वरी माता32.  तंवर  चिलाय माता
33.  हैध्य  विन्ध्यवासिनि माता34.  कलचूरी  विन्धावासिनि माता
35.  सेंगर  विन्धावासिनि माता36.  भॉसले  जगदम्बा माता
37.  दाहिमा  दधिमति माता38.  रावत  चण्डी माता
39.  लोह थम्ब  चण्डी माता40.  काकतिय  चण्डी माता
41.  लोहतमी  चण्डी माता42.  कणड़वार  चण्डी माता
43.  केलवाडा  नंदी माता44.  हुल  बाण माता
45.  बनाफर  शारदा माता46.  झाला  शक्ति माता
47.  सोमवंश  महालक्ष्मी माता48.  जाडेजा  आशपुरा माता
49.  वाघेला  अम्बाजी माता50.  सिंघेल  पंखनी माता
51.  निशान  भगवती दुर्गा माता52.  बैस  कालका माता
53.  गोंड़  महाकाली माता54.  देवल  सुंधा माता
55.  खंगार  गजानन माता56.  चंद्रवंशी  गायत्री माता
57.  पुरु  महालक्ष्मी माता58.  जादोन  कैला देवी (करोली )
59.  छोकर  चन्डी केलावती माता60.  नाग  विजवासिन माता
61.  लोहतमी  चण्डी माता62.  चंदोसिया  दुर्गा माता
63.  सरनिहा  दुर्गा माता64.  सीकरवाल  दुर्गा माता
65.  किनवार  दुर्गा माता66.  दीक्षित  दुर्गा माता
67.  काकन  दुर्गा माता68.  तिलोर  दुर्गा माता
69.  विसेन  दुर्गा माता70.  निमीवंश  दुर्गा माता
71. निमुडी  प्रभावती माता72. नकुम  वेरीनाग बाई
73. वाला  गात्रद माता74. स्वाति  कालिका माता
75. राउलजी क्षेमकल्याणी माता
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12.9.17

देवल , प्रतिहार ,परिहार वंश की कुलदेवी का वर्णन



                         
 

इन्दा शाखा प्रतिहार ( पडिहार , परिहार राजपूत ) ये श्री चामुण्डा देवी जी को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है तथा वरदेवी के रूप में गाजन माता को भी पूजते है , तथा देवल शाखा प्रतिहार ( पडिहार ,परिहार राजपूत ) ये सुंधा माता को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है ,
पुराणो से ग्यात होता है कि भगवती दुर्गा का सातवा अवतार कालिका है , इसने दैत्य शुम्भ , निशुम्भ , और सेनापती चण्ड , मुण्ड का नाश किया था , तब से श्री कालिका जी चामुण्डा देवी जी के नाम से प्रसिद्द हुई , इसी लिये माँ श्री चामुण्डा देवी जी को आरण्यवासिनी , गाजन माता तथा अम्बरोहिया , भी कहा जाता है , पडिहार नाहडराव गाजन माता के परम भक्त थे , वही इनके वंशज पडिहार खाखू कुलदेवी के रूप में श्री चामुण्डा देवी जी की आराधना करते थे , प्रतिहार ,पडिहार , परिहार राजपूत वंशजो का श्री चामुण्डा देवी जी के साथ सम्बंधो का सर्वप्रथम सटीक पडिहार खाखू से मिलता है , पडिहार खाखू श्री चामुण्डा देवी जी की पूजा अर्चना करने चामुण्डा गॉव आते जाते थे , जो कि जोधपुर से ३० कि. मी. की दूरी पर स्थित है , घटियाला जहॉ पडिहार खाखू का निवास स्थान था , जो चामुण्डा गॉव से ४ कि. मी. की दूरी पर है ,श्री चामुण्डा देवी का मंदिर चामुण्डा गॉव में ऊँची पहाडी पर स्थित है , जिसका मुख घटियाला की ओर है , ऐसी मान्यता है कि देवी जी पडिहार खाखू जी के शरीर पर आती थी , 

** श्री चामुण्डा देवी जी ( गढ जोधपुर ) **
जोधपुर राज्य के संस्थापक राव जोधा के पितामाह राव चुण्डा जी का सम्बंध भी माता चामुण्डा देवी जी से रहा था , सलोडी से महज 5 कि. मी. की दूरी पर चामुण्डा गॉव है , वहा पर राव चुण्डा जी देवी के दर्शनार्थ आते रहते थे , वह भी देवी के परम भक्त थे , ऐसी मान्यता है कि एक बार राव चुण्डा जी गहरी नींद में सो रहे थे तभी रात में देवी जी ने स्वप्न में कहा कि सुबह घोडो का काफिला वाडी से होकर निकलेगा , घोडो कि पीठ पर सोने की ईंटे लदी होगीं वह तेरे भाग्य में ही है , सुबह ऐसा ही हुआ खजाना एवं घोडे मिल जाने के कारण उनकी शक्ति में बढोत्तरी हुई , आगे चलकर इन्दा उगमसी की पौत्री का विवाह राव चुण्डा जी के साथ हो जाने पर उसे मण्डौर का किला दहेज के रूप में मिला था , इसके पश्चात राव चुण्डा जी ने अपनी ईष्टदेवी श्री चामुण्डा देवी जी का मंदिर भी बनवाया था , यहा यह तथ्य उल्लेखनीय है कि देवी कि प्रतिष्ठा तो पडिहारो के समय हो चुकी थी , अनंतर राव चुण्डा जी ने उस स्थान पर मंदिर निर्माण करवाया था मंदिर के पास वि. सं. १४५१ का लेख भी मिलता है ।
अत: राव जोधा के समय पडिहारों की कुलदेवी श्री माँ चामुण्डा देवी जी की मूर्ति जो कि मंडौर के किले में भी स्थित थी , उसे जोधपुर के किले में स्थापित करबाई थी , राव जोधा जी तो जोधपुर बसाकर और मेहरानगढ जैसा दुर्ग बनाकर अमर हो गये परंतु मारवाड की रक्षा करने वाली परिहारों की कुलदेवी श्री चामुण्डा देवी जी को अपनी ईष्टदेवी के रूप में स्वीकार कर संपूर्ण सुरक्षा का भार माँ चामुण्डा देवी जी को सौप गये , राव जोधा ने वि. सं. १५१७ ( ई. १४६० ) में मण्डौर से श्री चामुण्डा देवी जी की मूर्ति को मंगवा कर जोधपुर के किले में स्थापित किया ,
श्री चामुण्डा महारानी जी मूलत: प्रतिहारों की कुलदेवी थी राठौरों की कुलदेवी श्री नागणेच्या माता जी है , और राव जोधा जी ने श्री चामुण्डा देवी जी को अपनी ईष्टदेवी के रूप में स्वीकार करके जोधपुर के किले में स्थापित किया था , ।।

** देवल ( प्रतिहार , परिहार ) वंश **
सुंधा माता जी का प्राचीन पावन तीर्थ राजिस्थान प्रदेश के जालौर जिले की भीनमाल तहसील की जसवंतपुरा पंचायत समिती में आये हुये सुंधा पर्वत पर है , वह भी भीनमाल से २४ मील रानीवाडा से १४ मील और जसवंतपुरा से ८ मील दूर है । सुंधा पर्वत की रमणीक एवं सुरम्य घाटी में सांगी नदी से लगभग ४०-४५ फीट ऊँची एक प्राचीन सुरंग से जुडी गुफा में अषटेश्वरी माँ चामुण्डा देवी जी का पुनीत धाम युगो युगो से सुसोभित है , इस सुगंध गिरी अथवा सौगंधिक पर्वत के नाम से लोक में " सुंधा माता " के नाम से विख्यात है , जिनको देवल प्रतिहार अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा अर्चना करते है ।।
वंश - अग्निवंश
गोत्र - कपिल
कुलदेवी - चामुण्डा देवी ( सुंधा माता)
वरदेवी - गाजन माता
कुलदेव - विष्णु 
भगवान


सोलंकी वंश की कुलदेवी खीमज माता की जानकारी




                                                 

भीनमल की खीमज माता
सोलंकी वंश की कुलदेवी
सोलंकी वंश की कुलदेवी श्री खींवज माता हैं। पूर्व नाम क्षेमकरी माता से ही नाम धीरे-धीरे लोकभाषा में क्षेमजा, खेमज, खींमेल और खींवज हुआ है। आध शकित 'क्षेमकरी नवदुर्गाओं में से एक हैं जो अपने भक्तों को सब प्रकार के कष्टों से मुक्त करती हैं। अत: शुभ करने से इस माता का नाम 'शुभंकरी भी हैं यह माता विधुत संदृश है। इस माता के स्वरूप का वणर््न इस प्रकार है - इसके शरीर का रंग अंधकार की तरह गहरा काला है। इसके सिर के केश बिखरे हुए हैं। इनके गले में विधुत संदृश चमकीली माला है। इन तीनों नेत्रों से विधुत की ज्योति चमकती रहती है ये गधे की सवारी करती हैं ऊपर उठने वाले हाथ में चमकती तलवार है उसके नीचे वाले हथ में वरमुद्रा है जिससे भक्तों को अभीष्ट वर देती हैं। बायें हाथ में जलती हुर्इ मशाल है और उसके नीचे वाले बायें हाथ में अभय मुद्रा हैं जिससे अपने सवकों को अभयदान करती हैं तथा अपने भक्तों को सब प्रकार के कष्टों से मुक्त करती हैं माता सदैव शुभ फल ही देने वाली है। अतएव शुभकरने से इसका एक नाम शुभंकरी भी हैं। खींवज माता के राजस्थान में कर्इ मंदिर हैं। सोलंकी कुल गौत्रीय राजपूतों की यह कुलदेवी है। वैसे इस माता की मान्यता सभी जातियों में हैं खींवज माता का प्रमुख मंदिर कठौती गांव में है जो डीडवाना से पशिचम में 33 किमी तथा नागौर से पूर्व में 63 किमी हैं। माता का मंदिर एक टीले पर अवसिथत है। क्षेमंकरी माता का एक मंदिर इन्द्रगढ (कोटा-बूंदी) स्टेशन से 5 मील दूरी पर भी है। यहां माता का विशला मंदिर हैं तथा नवरात्रों में मेला लगता है। क्षेमंकरी माता का अन्य मंदिर बसंतपुर के पास पहाड़ी पर है। भीनमाल में भी क्षेमंकरी माता का भव्य मंदिर था। ओसिया में भी सचिचयाय माता के मंदिर में अन्य माताओं के मंदिरों के साथ-साथ क्षेमंकरी माता का मंदिर हैं एक मंदिर झीलवाड़ा राजसमन्द में भी है। राजस्थान से बाहर गुजरात प्रांत के रूपनगर में भी एक सुप्रसिद्ध मंदिर है।
सोलंकी वंश के गौत्र प्रवरादि :-
वंश ृ - अगिनवंश (पहले चन्द्रवँशी)
गौत्र - वशिष्ठ, भारद्वाज
प्रवर तीन - भारद्वाज, बार्हस्पत्य, अंगिरस
वेद - यजुर्वेद
शाखा - मध्यनिदनी
सूत्र - पारस्कर ग्रहासूत्र
इष्टदेव - विष्णु
कुलदेवी - चण्डी, काली, खींवज
नदी - सरस्वती
धर्म - वैष्णव
गादी - अणहिलवाड़ा पाटन
उत्पत्ति - आबू पर्वत
मूल पुरुष - चालुक्यदेव
इष्टदेवी - बहुचरजी
निशान - पीला
राव - लूतापड़ा
घोड़ा - जर्द
ढोली - बहल
शिखापद - दाहिना
दशहरा पूजन - खांडा

     क्षेमाचर्या क्षेमंकारी देवी जिसे स्थानीय भाषाओं में क्षेमज, खीमज, खींवज आदि नामों से भी पुकारा व जाना जाता है। इस देवी का प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर राजस्थान के भीनमाल कस्बे से लगभग तीन किलोमीटर भीनमाल खारा मार्ग पर स्थित एक डेढ़ सौ फुट ऊँची पहाड़ी की शीर्ष छोटी पर बना हुआ है। मंदिर तक पहुँचने हेतु पक्की सीढियाँ बनी हुई है। भीनमाल की इस देवी को आदि देवी के नाम से भी जाना जाता है। भीनमाल के अतिरिक्त भी इस देवी के कई स्थानों पर प्राचीन मंदिर बने है जिनमें नागौर जिले में डीडवाना से 33 किलोमीटर दूर कठौती गांव में, कोटा बूंदी रेल्वे स्टेशन के नजदीक इंद्रगढ़ में व सिरोही जालोर सीमा पर बसंतपुर नामक जगह पर जोधपुर के पास ओसियां आदि प्रसिद्ध है। सोलंकी राजपूत राजवंश इस देवी की अपनी कुलदेवी के रूप में उपासना करता है|
देवी उपासना करने वाले भक्तों को दृढविश्वास है कि खीमज माता की उपासना करने से माता जल, अग्नि, जंगली जानवरों, शत्रु, भूत-प्रेत आदि से रक्षा करती है और इन कारणों से होने वाले भय का निवारण करती है। इसी तरह के शुभ फल देने के चलते भक्तगण देवी माँ को शंभुकरी भी कहते है। दुर्गा सप्तशती के एक श्लोक अनुसार-“पन्थानाम सुपथारू रक्षेन्मार्ग श्रेमकरी” अर्थात् मार्गों की रक्षा कर पथ को सुपथ बनाने वाली देवी क्षेमकरी देवी दुर्गा का ही अवतार है।
जनश्रुतियों के अनुसार किसी समय उस क्षेत्र में उत्तमौजा नामक एक दैत्य रहता था। जो रात्री के समय बड़ा आतंक मचाता था। राहगीरों को लूटने, मारने के साथ ही वह स्थानीय निवासियों के पशुओं को मार डालता, जलाशयों में मरे हुए मवेशी डालकर पानी दूषित कर देता, पेड़ पौधों को उखाड़ फैंकता, उसके आतंक से क्षेत्रवासी आतंकित थे। उससे मुक्ति पाने हेतु क्षेत्र के निवासी ब्राह्मणों के साथ ऋषि गौतम के आश्रम में सहायता हेतु पहुंचे और उस दैत्य के आतंक से बचाने हेतु ऋषि गौतम से याचना की। ऋषि ने उनकी याचना, प्रार्थना पर सावित्री मंत्र से अग्नि प्रज्ज्वलित की, जिसमें से देवी क्षेमकरी प्रकट हुई। ऋषि गौतम की प्रार्थना पर देवी ने क्षेत्रवासियों को उस दैत्य के आतंक से मुक्ति दिलाने हेतु पहाड़ को उखाड़कर उस दैत्य उत्तमौजा के ऊपर रख दिया। कहा जाता है कि उस दैत्य को वरदान मिला हुआ था वह कि किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मरेगा। अतः देवी ने उसे पहाड़ के नीचे दबा दिया। लेकिन क्षेत्रवासी इतने से संतुष्ट नहीं थे, उन्हें दैत्य की पहाड़ के नीचे से निकल आने आशंका थी, सो क्षेत्रवासियों ने देवी से प्रार्थना की कि वह उस पर्वत पर बैठ जाये जहाँ वर्तमान में देवी का मंदिर बना हुआ है तथा उस पहाड़ी के नीचे नीचे दैत्य दबा हुआ है।
देवी की प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर वर्तमान में जो प्रतिमा लगी है वह 1935 में स्थापित की गई है, जो चार भुजाओं से युक्त है। इन भुजाओं में अमर ज्योति, चक्र, त्रिशूल तथा खांडा धारण किया हुआ है। मंदिर के सामने व पीछे विश्राम शाला बनी हुई है। मंदिर में नगाड़े रखे होने के साथ भारी घंटा लगा है। मंदिर का प्रवेश द्वार मध्यकालीन वास्तुकला से सुसज्जित भव्य व सुन्दर दिखाई देता है। मंदिर में स्थापित देवी प्रतिमा के दार्इं और काला भैरव व गणेश जी तथा बाईं तरफ गोरा भैरूं और अम्बाजी की प्रतिमाएं स्थापित है। आसन पीठ के बीच में सूर्य भगवान विराजित है।
नागौर जिले के डीडवाना से 33 कि.मी. की दूरी पर कठौती गॉव में माता खीमज का एक मंदिर और बना है। यह मंदिर भी एक ऊँचे टीले पर निर्मित है ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में यहा मंदिर था जो कालांतर में भूमिगत हो गया। वर्तमान मंदिर में माता की मूर्ति के स्तम्भ’ के रूप से मालुम चलता है कि यह मंदिर सन् 935 वर्ष पूर्व निर्मित हुआ था। मंदिर में स्तंभ उत्तकीर्ण माता की मूर्ति चतुर्भुज है। दाहिने हाथ में त्रिशूल एवं खड़ग है, तथा बायें हाथ में कमल एवं मुग्दर है, मूर्ति के पीछे पंचमुखी सर्प का छत्र है तथा त्रिशूल है।
क्षेंमकरी माता का एक मंदिर इंद्रगढ (कोटा-बूंदी ) स्टेशन से 5 मील की दूरी पर भी बना है। यहां पर माता का विशाल मेला लगता है। क्षेंमकरी माता का अन्य मंदिर बसंतपुर के पास पहाडी पर है, बसंतपुर एक प्राचीन स्थान है, जिसका विशेष ऐतिहासिक महत्व है। सिरोही, जालोर और मेवाड की सीमा पर स्थित यह कस्बा पर्वत मालाओ से आवृत्त है। इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 682 में हुआ था। इस मंदिर का जीर्णोद्वार सिरोही के देवड़ा शासकों द्वारा करवाया गया था। एक मंदिर भीलवाड़ा जिला के राजसमंद में भी है। राजस्थान से बाहर गुजरात के रूपनगर में भी माता का मंदिर होने की जानकारी मिली है।
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परमार ( पंवार ) राजवंश की उतपत्ति और इतिहास



                                               


   

parmar kuldevi sachiyay mataji 
परमार ( पंवार ) राजवंश की उतपत्ति और राज्य
परमार पंवार राजवंश
परमार 36 राजवंशों में माने गए है | ८वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी विक्रमी तक इनका इस देश में विशाल      सम्राज्य था इन वीर क्षत्रियों के इतिहास का वर्णन करने से पूर्व उतपत्ति के सन्दर्भ देखे | परमारों तणी प्रथ्वी
उत्पत्ति :- परमार क्षत्रिय परम्परा में अग्निवंशी माने जाते है इसकी पुष्टि साहित्य और शिलालेख और शिलालेख भी करते है | प्रथमत: यहाँ उन अवतरणों को रखा जायेगा जिसमे परमारों की उतपत्ति अग्निकुंड से बताई गयी हे बाद में विचार करेंगे | अग्निकुंड से उतपत्ति सिद्ध करने वाला अवतरण वाक्पतिकुंज वि. सं. १०३१-१०५० के दरबारी कवी पद्मगुप्त द्वारा रचित नवसहशांक -चरित पुस्तक में पाया जाता है जिसका सार यह है की आबू -पर्वत वशिष्ठ ऋषि रहते थे | उनकी गो नंदनी को विश्वामित्र छल से हर ले गए | इस पर वशिष्ठ मुनि ने क्रोध में आकर अग्निकुंड में आहूति दी जिससे वीर पुरुष उस कुंड से प्रकट हुआ जो शत्रु को पराजीत कर गो को ले आया जिससे प्रसन्न होकर ऋषि ने उस का नाम परमार रखा उस वीर पुरुष के वंश का नाम परमार हुआ |
भोज परमार वि. १०७६-१०९९ के समय के कवि धनपाल ने तिलोकमंजरी में परमारों की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रसंग इस प्रकार है |
वाषिष्ठेसम कृतस्म्यो बरशेतरस्त्याग्निकुंडोद्रवो |
भूपाल: परमार इत्यभिघयाख्यातो महिमंडले ||
अधाष्युद्रवहर्षगग्दद्गिरो गायन्ति यस्यार्बुदे |
विश्वामित्रजयोजिझ्ततस्य भुजयोविस्फर्जित गुर्जरा: ||
मालवा नरेश उदायित्व परमार के वि.सं. ११२९ के उदयपुर शिलालेख में लिखा है |
''अस्त्युवीर्ध प्रतीच्या हिमगिरीतनय: सिद्ध्दं: (दां) पत्यसिध्दे |
स्थानअच ज्ञानभाजामभीमतफलदोअखर्वित: सोअव्वुर्दाव्य: ||४||
विश्वमित्रों वसिष्ठादहरत व (ल) तोयत्रगांतत्प्रभावाज्यग्ये वीरोग्नीकुंडाद्विपूबलनिधनं यश्चकरैक एव ||५||
मारयित्वा परान्धेनुमानिन्ये स ततो मुनि: |
उवाच परमारा (ख्यण ) थिर्वेन्द्रो भविष्यसि ||६||
बागड़ डूंगरपुर बांसवाडा के अर्थुणा गाँव में मिले परमार चामुंडाराज द्वारा बनाये गए महादेव मंदिर के फाल्गुन सुदी ७ वि. ११३७ के शिलालेख में लिखा है - कोई प्रचंड धनुषदंड को धारण किया हुआ था और अपनी विषम द्रष्टि से यज्ञोपवित धारण कीये हुए था और अपनी विषम द्रष्टि से जीवलोक को डराने का पर्यत्न करता हुआ शत्रुदल के संहार्थ पसमर्थ था | ऐसा कोई प्रखर तेजस्वी अद्भुत पुरुष उस यज्ञ कुंड से मिला |
यह वीर पुरुष वसिष्ठ की आज्ञा से शत्रुओं का संहार करके और कामधेनु अपने साथ में लेकर ऋषि वशिष्ठ के चरण कमलों में नत मस्तक होता हुआ उपस्थित हुआ |उस समय वीर के कार्यों से संतुष्ट होकर ऋषि ने मांगलिक आशीर्वाद देते हुए उसको परमार नाम से अभिहित किया |
परमारों के उत्पत्ति सम्बन्धी ऐसे हि विवरण बाद के शिलालेख व् प्रथ्वीराज रासो आदी साहित्यिक ग्रंथो में भी अंकित किया गया है |
इन विवरणों के अध्धयन से मालूम होता हे की 11वि, १२ वि. शताब्दी के साहित्यिक व् शिलालेखकार उस प्राचीन आख्यान से पूरी तरह प्रभावित थे जिसमे कहा गया है की ऐक बार वशिष्ठ की कामधेनु गाय को विश्वामित्र की सेना को पराजीत करने के लिए कामधेनु ने शक, यवन ,पल्ह्व ,आदी वीरों को उत्पन्न किया |
फिर भी यह निस्संकोच कहा जा सकता है की 11वि. सदी में परमार अपनी उत्पति वशिष्ठ के अग्निकुंड से मानते थे और यह कथानक इतना पुराना हो चूका था जिसके कारन 11वि. शताब्दी के साहित्य और शिलालेखों में चमत्कारी अंश समाहित हो गया था वरना प्रकर्ति नियम के विरुद्ध अग्निकुंड से उत्पत्ति के सिद्धांत को कपोल कल्पित मानते है पर ऐसा मानना भी सत्य के नजदीक नहीं हे कोई न कोई अग्निकुंड सम्बन्धी घटना जरुर घटी है जिसके कारन यह कथानक कई शताब्दियों बाद तक जन मानस में चलता रहा है और आज भी चलन रहा है | अग्निवंश से उत्पत्ति सम्बन्धी इस घटना को भविष्य पुराण ठीक ढंग से प्रस्तुत करता है | इस पुराण में लिखा है |
''विन्दुसारस्ततोअभवतु |
पितुस्तुल्यं कृत राज्यमशोकस्तनमोअभवत ||44||
एत्सिमन्नेत कालेतुकन्यकुब्जोद्विजोतम: |
अर्वूदं शिखरं प्राप्यबंहाहांममथो करोत ||45|
वेदमंत्र प्रभाववाच्चजाताश्च्त्वाऋ क्षत्रिय: |
प्रमरस्सामवेदील च चपहानिर्यजुर्विद: ||46||
त्रिवेदी चू तथा शुक्लोथर्वा स परीहारक: |
भविष्य पुराण

भावार्थ यह हे की विंदुसार के पुत्र अशोक के काल में आबू पर्वत पर कान्यकुब्ज के ब्राह्मणों में ब्रह्म्होम किया और वेद मन्त्रों के प्रभाव से चार क्षत्रिय उत्पन्न किये सामवेद प्रमर ( परमार ) यजुर्वेद से चाव्हाण ( चौहान ) 47 वें श्लोक का अर्थ स्पष्ट नहीं है परन्तु परिहारक से अर्थ प्रतिहार और चालुक्य ( सोलंकी) होना चाहिए | क्यूंकि प्रतिहारों को प्रथ्विराज रासो आदी में अग्नि वंशी अंकित किया गया है और परम्परा में भी यही माना जाता है |
भविष्य पुराण के इन श्लोकों से कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आती है | प्रथमतः आबू पर किये गए इस यज्ञ का समय निश्चिन्त होता हे यह यज्ञ माउन्ट आबू पर सम्राट अशोक के पत्रों के काल में २३२ -से २१५ ई. पू. हुआ था |दुसरे यह यज्ञ वशिष्ठ और विश्वामित्र की शत्रुता के फलस्वरूप नहीं हुआ | बल्कि वेदादीधर्म के प्रचार प्रसार के लिए ब्रहम यज्ञ किया और यह यज्ञ वैदिक धर्म के पक्ष पाती चार पुरुषार्थी क्षत्रियों के नेतृत्व में विश्वामित्र सम्बन्धी प्राचीन ट=यज्ञ घटना को भ्रम्वंश अंकित किया गया | वशिष्ठ की गाय सम्बन्ध घटना के समय यदि परमार की उत्पत्ति हो तो बाद के साहित्य रामायण ,महाभारत ,पुराण आदी में परमारों की उतपत्ति का उल्लेख आता पर ऐसा नहीं है | अतः परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ -विश्वामित्र सम्बन्धी घटना के सन्दर्भ में हुए यज्ञ से नहीं , अशोक के पुत्रों के काल में हुए ब्रहम यग्य से हुयी मानी जानी चाहिए |
आबू पर हुए यज्ञ को सही परिस्थतियों में समझने पर यह निश्किर्य है की वैदिक धर्म के उत्थान के लिए उसके प्रचार प्रसार हेतु किसी वशिष्ठ नामक ब्राहमण ने यग्य करवाया , चार क्षत्रियों ने उस यज्ञ को संपन्न करवाया ,उनका नवीन ( यज्ञ नाम ) परमार ,चौहान . चालुक्य और प्रतिहार हुआ | अब प्रसन्न यह हे की वे चार क्षत्रिय कोन थे ? जो इस यज्ञ में सामिल हुए थे | अध्धयन से लगया वे मूलतः सूर्य एवम चंद्र वंश क्षत्रिय थे |
अग्नि यज्ञ की घटना से पूर्व परमार कोन था ? इसकी विवेचना करते हे | पहले उन उदहारण को रखेंगे जो परमारों के साहित्य ,ताम्र पत्रादि में अंकित किये गए है और तत्वपश्चात उनकी विवेचना करेंगे|
सबसे प्राचीन उल्लेख परमार सियक ( हर्ष ) के हरसोर अहमदाबाद के पास में मिले है वि. सं. १००५ के दानपत्र में पाया गया हे जो इस प्रकार है -
परमभट्टारक महाराजाधिराज राज परमेश्वर
श्रीमदमोघवर्षदेव पादानुधात -परमभट्टारक्
महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमदकालवर्षदेव -
प्रथ्वीवल्लभ- श्रीवल्लभ नरेन्द्रपादनाम
तस्मिन् कुलेककल्मषमोषदक्षेजात: प्रतापग्निहतारिप्क्ष:
वप्पेराजेति नृप: प्रसिद्धस्तमात्सुतो भूदनु बैर सिंह (ह) |१ |
द्रप्तारिवनितावक्त्रचन्द्रबिम्ब कलकतानधोतायस्य कीतर्याविहरहासावदातया ||२||
दुव्यरिवेरिभुपाल रणरंगेक नायक: |
नृप: श्री सीयकसतमात्कुलकल्पद्र मोभवत |३|
यह सियक परमार जिसके पिता का नाम बैरसी तथा दादा का नाम वाक्पति "( वप्पेराय ) था , या वाक्पति मुंज परमार ( मालवा ) का पिता था और राष्ट्रकूटों का इस समय सामंत था | अतः इस ताम्रपत्र में पहले आपने सम्राट के वंश का परिचय देता हे और तत्त्व पश्चात् आपने दादा और आपने पिता का नाम अंकित करता है | भावार्थ यह है की - परमभट्टारक महाराजाधिराज राज परमेश्वर श्री मान ओधवर्षदेव उनकें चरणों का ध्यान करने वाला परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमान अकालवर्षदेव उस कुल में वप्पेराज ,बैरसी ,व् सियक हुए | इससे अर्थ निकलता है परमार भी राष्ट्रकूटों से निकले हुए है थे | अधिक उदार अर्थ करें तो राष्ट्र कूटों की तरह परमार भी यादव थे यानी चन्द्रवंशी थे |
ब्रहमक्षत्रकुलीन: प्रलीनसामंतचक्रनुत चरण: |
सकलसुक्रतैकपूजच श्रीभान्मुज्ज्श्वर जयति ||
इस प्रकार विक्रमी की 11वि. सदी सो वर्ष की अवधि में हि परमारों की उत्पति के सन्दर्भ में तीन तरह के उल्लेख मिलते हेई अग्निकुंड से उत्पत्ति ,राष्ट्र कूटों से उत्पति ब्रहम क्षत्र कुलीन | इतिहासकार सो वर्ष की अवधि के हि इन विद्वानों ने तीन तरह की बाते क्यूँ लिख दी ? क्या इन्होने अज्ञानवश ऐसा लिखा ? हमारा विचार यह हे की तीनो मत सही है | मूलतः चंद्रवंशी राष्ट्रकूटों के वंश में थे | अतः प्रसंगवश १००५ वि.के ताम्र पात्र अपने लिए लिखा की जिस कुल में अमोध वर्ष आदी राष्ट्र कूट राजा थे उस कुल में हम भी है | परमार आबू पर हुए यज्ञ की घटना से सम्बंधित था अतः परमारों को अग्निवंशी भी अंकित किया गया | ओझाजी ने ब्रहमक्षत्र को ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों गुणों युक्त बताया है | परमार पहले ब्राहमण थे फिर क्षत्रिय हो गए |
हमारे प्राचीन ग्रन्थ यह तो सिद्ध करते हे की बहुत से क्षत्रिय ब्राहमण हो गए मान्धाता क्षत्रिय के वंशज , विष्णुवृद्ध हरितादी ब्राहमण हो गए | चन्द्रवंश के विश्वामित्र , अरिष्टसेन आदी ब्राहमण को प्राप्त हो गए | पर ऐसे उदहारण नहीं मिल रहे हे जिनसे यह सिद्ध होता हे की कोई ब्राहमण परशुराम में क्षत्रिय के गुण थे | फिर भी ब्राहमण रहे ,शुंगो ,सातवाहनो ,कन्द्वों आदी ब्राहमण रहे | परमारों को तो प्राचीन साहित्य में भी क्षत्रिय कहा गया हे | यशोवर्मन कन्नोज ८वीं शताब्दी के दरबारी कवी वप्पाराव ( बप्पभट ) ने राजा के दरबारी वाक्पति परमार की क्षत्रियों में उज्वल रत्न कहा है | अतः परमार कभी ब्राहमण नहीं थे क्षत्रिय हि थे | ब्राहमण से क्षत्रिय होने की बात कल्पना हि है | इसका कोई आधार नहीं है ओझाजी ने ब्रहमक्षत्र का अर्थ ब्राहमण व् क्षत्रिय दोनों गुणों से युक्त बतलाया हे पर हमारा चिंतन कुछ दूसरी तरह मुड़ रहा हैं | यहाँ केवल '' ब्रह्मक्षेत्र '' शब्द नहीं है | यह ब्रहमक्षत्र कुल है | प्राचीन साहित्य की तरह ध्यान देते हे तो ब्रहमक्षत्र कुल की पहचान होती है |
श्रीमद भगवद गीता में चंद्रवंशी अंतिम क्षेमक के प्रसंग में लिखा है -
दंडपाणीनिर्मिस्तस्य क्षेमको भवितानृप:
ब्रहमक्षत्रस्य वे प्राक्तोंवशों देवर्षिसत्कृत: ||( भा.१ //22//44 )
इसकी व्याख्या विद्वानो ने इस प्रकार की है -
तदेव ब्रहमक्षत्रस्य ब्रहमक्षत्रकुलयोयोर्नी: कारणभूतो
वंश सोमवंश: देवे: ऋषिभिस्रचसतत्कृत अनुग्रहित इत्यर्थ |
अर्थात इस प्रकार मेने तुम्हे ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों की उत्पति स्थान सोमवंश का वर्णन सुनाया है |
( अनेक संस्क्रत व्यख्यावली टीका भागवत स्कंध नवम के ४८६ प्र. ८७ के अनुसार ) इस प्रकार विष्णु पुराण अंश ४ अध्याय २० वायु पुराण अंश 99 श्लोक २७८-२७९ में भी यही बात कही गयी है | बंगाल के चंद्रवंशी राजा विजयसेन ( सेनवंशी ) के देवापाड़ा शिलालेख में लिखा गया है -
तस्मिन् सेनान्ववाये प्रतिसुभटतोत्सादन्र्व (ब्र) हमवादी |
स व्र ह्क्षत्रियाँणजनीकुलशिरोदाम सामंतसेन: ए . इ. जि . १ प्र ३०७
इसमें विजयसेन के पूर्वज सामंतसेन को ब्रहमवादी को ब्रहमवादी और ब्रहमक्षत्रिय कुल का शिरोमणि कहा है |
इन साक्ष्यों में ब्रहमक्षत्र कुल चन्द्रवंश के लिए प्रयोग हुआ है | किसी सूर्यवंशी राजा के लिए ब्रहमक्षत्र ? कुल का प्रयोग नजर नहीं आया |इससे मत यह हे की चंद्रवंशी को ब्रहमक्षत्र कुल भी कहा गया है | सोम क्षत्रिय + तारा ब्राहमनी =बुध | इसी तरह ययाति क्षत्रिय क्षत्रिय + देवयानी ब्राह्मणी =यदु | इस प्रकार देखते हे की चन्द्रवंश में ब्राहमण और क्षत्रिय दोनों जातियों का रक्त प्रवाहित था | संभवतः इस कारन चन्द्रवंश की और हि संकेत है | इस प्रकार परमार मूलतः चंद्रवंशी आधुनिक आलेख इस बात का समर्थन करते है - पंवार प्रथम चंद्रवंशी लिखे जाते थे | बहादुर सिंह बीदासर
पंजाब में अब भी चंद्रवंशी मानते है| अम्बाराया परमार ( पंवार ) चंद्रवंशी जगदेव की संतान पंजाब में है | और फिर परमार आबू के ब्रहमहोम में शामिल होने से अग्निवंशी भी कहलाये | आगे चलकर अग्निवंशी इतना लोकपिर्य हो गया की परमारों को अग्निवंशी हि कहने लग गए और शिलालेखों और साहित्य में अग्निवंशी हि अंकित किया गया |
इसके विपरीत परमारों के लिए मेरुतुन्गाचार्य वि. १३६१ स्थिवरावली में उज्जेन के गिर्दभिल्ल को सम्प्रति ( अशोक का पुत्र ) के वंश में होना लिखता है | गर्दभिल्ल ( गन्धर्वसेन ) विक्रमदित्य ( पंवार ) का पिता माना जाता है इससे परमार मोर्य सिद्ध होते है परन्तु सम्प्रति के पुत्रों में कोई परमार नामक पुत्र का अस्तित्व नहीं मिलता है | दुसरे सम्प्रति jain धरम अनुयायी था और उसका पिता अशोक ऐसा सम्राट था जिसने इस देश में नहीं ,विदेशों तक बोध धर्म फैला दिया था | अतः सम्प्रति के पुत्र या पोत्र का वैदिक धरम के लिए प्रचार के लिए होने वाले ब्रहम यज्ञ में शामिल होना समीचीन नहीं जान पड़ता | दुसरे यह आलेख बहुत बाद का 14वीं शताब्दी का है जो शायद परमारों की ऐक शाखा मोरी होने से परमारों की उत्पत्ति मोर्यों से होना मान लिया लगता है | अन्य पुष्टि प्रमाणों के सामने यह साक्ष्य विशेष महत्व नहीं रखता | अतः मूलतः परमार चन्द्रवंशी और फिर अग्निवंशी हुए |
प्राचीन इतिवृत -
परमारों का प्राचीन इतिवृत लिखने से पूर्व यह निश्चिन्त करना चाहिए की उनका प्राचीन इतिहास किस समय से प्रारंभ होता है | इतिहास के प्रकंड विद्वान् ओझाजी ने शिलालेखों के आधार पर परमारों का इतिहास घुम्राज के वंशज सिन्धुराज से शुरू किया है | जिसका समय परमार शासक पूर्णपाल के बसतगढ़ ( सिरोही -राजस्थान ) में मिले शिलालेखों की वि. सं. १०९९ के आधार पर पूर्णपाल से ७ पीढ़ी पूर्व के परमार शासक सिन्धुराज का समय ९५९ विक्रमी के लगभग होता है | और इस सिन्धुराज को यदि मुंज का भाई माना जाय तो यह समय १०३१ वि. के बाद का पड़ता है | इससे पूर्व परमार कितने प्राचीन थे ? विचार करते है |
चाटसु ( जयपुर ) के गुहिलों के शिलालेखों में ऐक गुहिल नामक शासक की शादी परमार वल्लभराज की पुत्री रज्जा से हुयी थी | इस हूल का पिता हर्षराज राजा मिहिर भोज प्रतिहार के समकालीन था जिसका समय वि. सं. ८९३ -९३८ था | यह शिलालेख सिद्ध करता है की इस शिलालेख का वल्लभराज ,सिन्धुराज परमार ( मारवाड़ ) का वंशज नहीं था इससे प्राचीन था |राजा यशोवर्मन वि. ७५७-७९७ लगभग कन्नोज का सम्राट था उसके दरबारी वाक्पति परमार के लिए कवी बप्पभट्ट आपने ब्प्पभट्ट चरित में लिखता है की वह क्षत्रियों में महत्वपूर्ण रत्न तथा परमार कुल का है इससे सिद्ध होता हे की कन्नोज में यशोवर्मन के दरबारी वाक्पति परमार चाटसु शिलालेख से प्राचीन है | शिलालेख और तत्कालीन साहित्य के विवरण के पश्चात अब बही व्=भाटों के विवरणों की तरह ध्यान दे |
भाटी क्षत्रियों के बहीभाटों के प्राचीन रिकार्ड के आधार पर इतिहास में टाड ने लिखा हे - भाटी मंगलराव ने शालिवाहनपुर ( वर्तमान में सियाल कोट भाटियों की राजधानी ) जब छूट गयी तो पूरब की तरह बढ़े और नदी के किनारे रहने वाले बराह तथा बूटा परमारों के यहाँ शरण ली | यह किला यदु - भाटी इतिहास्वेताओं के अनुसार सं. ७८७ में बना था वराहपती ( परमार के साथ मूलराज की पुत्री की शादी हुयी | केहर के पुत्र तनु ने वराह जाती को परास्त किया और अपने पुत्र विजय राज को बुंटा जाती की कन्या से विवाह किया | ये परमार हि थे |
देवराज देरावर के शासक को धार के परमारों से भी संघर्ष हुआ |
वराह परमारों के साथ इन भाटियों के सघर्ष का समर्थन राजपूताने के इतिहास के लेखक जगदीस सिंह गहलोत भी करते हे | देवराज का समय प्रतिहार बाऊक के मंडोर शिलालेख ८९४ वि. के अनुसार वि. ८९४ के लगभग पड़ता है | इस शिलालेख में लिखा हे की शिलुक प्रतिहार ने देवराज भट्टीक वल्ल मंडल ( वर्तमान बाड़मेर जैसलमेर क्षेत्र ) के शासक को मार डाला | इस द्रष्टि से देवराज से ६ पढ़ी पूर्व मंगलराव का समय 700 वि. के करीब पड़ता है | इस हिसाब से ७वीं शताब्दी में भी परमारों का राज्य राजस्थान के पश्चमी भाग पर था |
उस समय परमारों की वराह और बुंटा खांप का उल्लेख मिलता है नेणसी ऋ ख्यात बराह राजपूत के कहे छ; पंवारा मिले इसी प्रष्ट पर देवराज के पिता भाटी विजयराज और बराधक संघर्ष का वर्णन है | नेणसी ने आगे लिखा हे की धरणीवराह परमार ने अपने नो भाइयों में अपने राज्य को नो कोट ( किले ) में बाँट दिया | इस कारन मारवाड़ नोकोटी मारवाड़ कहलाती है |
नेणसी ने नोकोट सम्बन्धी ऐक छपय प्रस्तुत किया है -
मंडोर सांबत हुवो ,अजमेर सिधसु |
गढ़ पूंगल गजमल हुवो ,लुद्र्वे भाणसु |
जोंगराज धर धाट हुयो ,हासू पारकर |
अल्ह पल्ह अरबद ,भोजराज जालन्धर ||
नवकोटी किराडू सुजुगत ,थिसर पंवारा हरथापिया |
धरनो वराह घर भाईयां , कोट बाँट जूजू किया ||
अर्थात मंडोर सांवत ,को सांभर ( छपय को ,पूंगल गजमल को ,लुद्र्वा भाण को ,धरधाट ( अमरकोट क्षेत्र ) जोगराज को पारकर ( पाकिस्तान में ) हासू को ,आबू अल्ह ,पुलह को जालन्धर ( जालोर ) भोजराज को और किराडू ( बाड़मेर ) अपने पास रखा |
धरणीवराह नामक शासक शिलालेखीय अधरों पर वि १०१७ -१०५२ के बीच सिद्ध होता है | परन्तु परमारों के नव कोटों पर अधिकार की बात सोचे तो यह धरणीवराह भिन्न नजर आता है | मंडोर पर सातवीं शताब्दी के लगभग हरिश्चंद्र ब्राहमण प्रतिहार के पुत्रों का राज्य बाऊक के मंडोर के शिलालेख ८९४ वि. सं. सिद्ध होता है अतः धरणीवराह के भाई सांवत करज्य इस समय से पूर्व होना चाहिए | इस प्रकार लुद्रवा पर भाटियों का अधिकार 9वि. शताब्दी वि. में हो गया था | इस प्रकार भटिंडा क्षेत्र पर जो वराह पंवार शासन कर रहे थे | मेरी समझ धरणीवराह के हि वंशज थे जो अपने पूर्व पुरुष धरणीवराह के नाम से आगे चलकर वराह पंवार ( परमार ) कहलाने लगे थे | ऐसी स्थति में धरणीवराह का समय ६टी ७वि शताब्दी में परमार पश्चमी राजस्थान पर शासन कर रहे थे | परमारों ने यहाँ का राज्य नाग जाती से लिया होगा जेसे निम्न पद्य में संके
परमांरा रुधाविया ,नाग गिया पाताल |
हमें बिचारा आसिया किणरी झूले चाल ||
मंडोर की नागाद्रिन्दी ,वहां का नागकुंड ,नागोर (नागउर ) पुष्कर का नाम ,सीकर के आसपास का अन्नत -अन्नतगोचर क्षेत्र आदी नाम नाग्जाती के राजस्थान में शासन करने की और संकेत करते हें | तक्षक नाग के वंशज टाक नागोर जिले में 14वीं शताब्दी तक थे | उनमे से हि जफ़रखां गुजरात का शासक हुआ | यह नागों का राज्य चौथी पांचवी शताब्दी तक था | इसके बाद परमारों का राज्य हुआ | चावड़ा व् डोडिया भी परमारों की साखा मानी जाती है | चावडो की प्राचीनता विक्रम की ७वि चावडो का भीनमाल में राज्य था | उस वंश का व्याघ्रमुख ब्रह्मस्पुट सिद्धांत जिसकी रचना ६८५ वि. में हुयी उसके अनुसार वह वि. ६८५ में शासन कर रहा था इन सब साक्ष्यों से जाना जा सकता हे की राजस्थान के पश्चमी भाग पर परमार ६ठी शताब्दी से पूर्व हि जम गए थे और 700 वि. सं. पूर्व धरणीवराह नाम का कोई प्रसिद्द परमार था जिसने अपना राज्य अपने सहित नो भागो में बाँट दिया था |
इन श्रोतों के बाद जब पुरानो को देखते हे तो भविष्य पुराण के अनुवाद मालवा पर शासन करने वाले शासकों के नाम मिलते हे - विक्रमादित्य ,देवभट्ट ,शालिवाहन ,गालीहोम आदी | विक्रमादित्य परमार माना जाता था | इसका अर्थ हुआ विक्रम संवत के प्रारंभ में परमारों का अस्तित्व था | भविष्य पुराण के अनुसार अशोक के पुत्रों के काल में आबू पर्वत पर हुए ब्रहमयज्ञ में परमार उपस्थित था | इस प्रकार परमारों का अस्तित्व दूसरी शादी ई.पू. तक जाता है |
अब यहाँ परमारों के प्राचीन इतिवृत को संक्षिप्त रूप से अंकित किया जा रहा है | अशोक के पुत्रों के काल २३२ से २१४ ई.पू. आबू पर ब्रहमहोम (यज्ञ ) हुआ | इस यज्ञ में कोई चंद्रवंशी क्षत्रिय शामिल हुए | ऋषियों ने सोमवेद के मन्त्र से उसका यज्ञ नाम प्रमार( परमार ) रखा | इसी परमार के वंशज परमार क्षत्रिय हुए | भविष्य पुराण के अनुसार यह परमार अवन्ती उज्जेन का शासक हुआ | ( अवन्ते प्रमरोभूपश्चतुर्योजन विस्तृताम | अम्बावतो नाम पुरीममध्यास्य सुखितोभवत ||49|| भविष्य पुराण पर्व खंड १ अ. ६ इसके बाद महमद ,देवापी ,देवहूत ,गंधर्वसेन हुए | इस गंधर्वसेन का पुत्र विक्रमदित्य था भविष्य पुराण के अनुसार यह विक्रमादित्य जनमानस में बहुत प्रसिद्द रहा है | इसे जन श्रुतियों में पंवार परमार माना है | प्रथम शताब्दी का सातवाहन शासक हाल अपने ग्रन्थ गाथा सप्तशती में लिखता हे -
संवाहणसुहरतोसीएणदेनतण तुह करे लक्खम |
चलनेण विक्कमाईव् चरीऊँअणु सिकिखअंतिस्सा ||
भविष्य पुराण १४वि शदी विक्रम प्रबंध कोष आदी ग्रन्थ विक्रमादित्य के अस्तित्व को स्वीकारते हे | संस्कृत साहित्य का इतिहास बलदेव उपाध्याय लिखते हे -
सरम्या नगरीमहान न्रपति: सामंत चक्रंतत |
पाश्रवेततस्य च सावीग्धपरिषद ताश्र्वंद्र बिबानना |
उन्मत: सच राजपूत: निवहस्तेवन्दिन: ताकथा |
सर्वतस्यवशाद्गातस्स्रतिपंथ कालाय तस्मे नमः ||
उस काल को नमस्कार है जिसने उज्जेनी नगरी ,राजा विक्रमादित्य ,उसका सामंतचक्र और विद्वत परिषद् सबको समेट लिया | यह सब साक्ष्य विक्रमादित्य ने शकों को पराजीत कर भारतीय जनता को बड़ा उपकार किया | मेरुतुंगाचार्य की पद्मावली से मालूम होता हे की गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों से उज्जयनी का राज्य लोटा दिया था |विक्रमादित्य का दरबार विद्वानों को दरबार था |विद्वानों की राय में इस समय पुन: कृतयुग का समय आ रहा था | अतः शकों पर विजय की पश्चात् विक्रमादित्य का दरबार पुनः विद्वानों का दरबार था | विद्वानों की राय से कृत संवत का सुभारम्भ किया | फिर यही कृत संवत ( सिद्धम्कृतयोद्ध्रे मोध्वर्षशतोद्ध्र्यथीतयो २००८५ ( २ चेत्र पूर्णमासी मालव जनपद के नाम से मालव संवत कहलाया |उज्जेन के चारों और का क्षेत्र मालव ( मालवा ) कहलाता था | उसी जनपद के नाम से मालव संवत कहलाया | फिर 9वीं शताब्दी में विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत हो गया | कथा सरित्सागर में विक्रमादित्य के पिता का नाम महेंद्रदित्य लिखा गया है |
विक्रमादित्य के बाद भविष्य पुराण के अनुसार रेवभट्ट ,शालिवाहन ,शालिवर्धन ,सुदीहोम ,इंद्रपाल ,माल्यवान ,संभुदत ,भोमराज ,वत्सराज ,भाजराज ,संभुदत ,विन्दुपाल ,राजपाल ,महिनर,शकहंता,शुहोत्र ,सोमवर्मा ,कानर्व ,भूमिपाल ,रंगपाल ,कल्वसी व् गंगासी मालवा के शासक हुए | इसी प्रकार करीब ५वि ६ठी शताब्दी तक परमारों का मालवा पर शासन करने की बात भविष्य पुराण कहता हे | मालूम होता हे हूणों ने मालवा से परमारों का राज्य समाप्त कर दिया होगा | संभवत परमार यहाँ सामंत रूप थे
पश्चमी राजस्थान आबू ,बाड़मेर ,लोद्रवा ,पुगल आदी पर भी परमारों का राज्य था और उन्होंने संभतः नागजाती से यह राज्य छीन लिया था | इन परमारों में धरणीवराह नामक प्रसिद्द शासक हुआ जिसने अपने सहित राज्य को नो भागो में बांटकर आपने भाइयों को भी दे दिया था | वी .एस परमार ने विक्रमादित्य से धरणीवराह तक वंशावली इस प्रकार दी हे
विक्रमादित्य के बाद क्रमशः ,विक्रम चरित्र ,राजा कर्ण, अहिकर्ण ,आँसूबोल ,गोयलदेव ,महिपाल ,हरभान.,राजधर ,अभयपाल ,राजा मोरध्वज ,महिकर्ण ,रसुल्पाल,द्वन्दराय ,इति , यदि यह वंशावली ठीक हे तो वंशावली की यह धारा विक्रमादित्य के पुत्र या पोत्रों से अलग हुयी | क्यूँ की यह वंशवली भविष्य पुराण की वंशवली से मेल नहीं खाती हे | नवी शताब्दी में वराह परमारों से देवराज भाटी ने लोद्रवा ले लिया था तथा वि. की सातवीं में ब्राहमण हरियचंद्र के पुत्रों मंडोर का क्षेत्र लिया | सोजत का क्षेत्र हलो ने छीन लिया था तब परमारों का राज्य निर्बल हो गया था | आबू क्षेत्र में परमारों का पुनरुथान vikram की 11वीं शताब्दी में हुआ | पुनरुत्थान के इस काल में आबू पश्चमी राजस्थान के परमारों में सर्वप्रथम सिन्धुराज का नाम मिलता है इस प्रकार मालवा व् पश्चमी राजस्थान के परमारों का प्राचीन राज्य वर्चस्वहीन हो गया |