8.5.21

कंजर जन जाति की जानकारी:Kanjar caste history



 प्राचीन काल की एक संकर जाति । विशेष—इसकी उत्पत्ति शौचकी स्त्री और शौंडिक पुरुष से मानी गई है और इसका काम गाना बजाना बतलाया गया है । ३. मनु के अनुसार क्षत्रियों की एक जाति जिसकी उत्पत्ति ब्रात्य क्षत्रियों से मानी जाती है । संपूर्ण उत्तर भारत की ग्राम्य और नगरीय जनसंख्या में छितराए कंजर जनजाति ऐसे कबीला हैं, जिनके कुछ समुदाय अपराध करना अपना मूल पेशा मानते हैं। माना जाता है कि कंजर अपराध करने से पहले ईश्वर का आशीर्वाद लेते हैं, जिसे पाती मांगना कहा जाता है। संगठित अपराधियों के सबसे क्रूर कबीलों में से एक कंजर प्रदेश के जिलों को पहले इलाकों में बांटते हैं। परिवार व रिश्तेदारों को मिलाकर तैयार की गई गैंग दीपावली की रात तांत्रिक अनुष्ठान करने के बाद घर से निकलती है। ठंड के मौसम में लूटपाट करने के बाद बसंत पंचमी से पहले घरों को लौट जाते हैं। 
 इतिहास विद् डा. रत्नाकर शुक्ल बताते हैं कि कंजरों तथा सांसिया,हाबूरा, बेरिया, भाट, नट, बंजारा, जोगी और बहेलिया आदि अन्य घुमक्कड़ कबीलों से कंजरों के बीच पर्याप्त सांस्कृतिक समानता मिलती है। एक ¨कवदंती के अनुसार कंजर दिव्य पूर्वज'मान'गुरु की संतान हैं। मान अपनी पत्नी नथिया कंजरिन के साथ जंगल में रहता था।  समाजशास्त्री डा. विद्याधर के मुताबिक इन कबीलों के पुरूष व घर की महिलाएं मिलकर अवैध शराब बनाती हैं। जिसे घर के पुरुष कबीले और कबीले के बाहर बेचते हैं। रोजाना रात को इस जाति की औरत और पुरुष दोनों ही साथ में शराब भी पीते हैं। पुलिस से बचने के लिए यह अपने घरों में सुरक्षा के काफी प्रबंध रखते हैं। भागने के लिए पीछे की तरफ खिड़की जरूर होती है परंतु चौखट पर दरवाजे नहीं होते हैं।
  
जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम आलोक के मतानुसार कंजर जाति के लोग हनुमान और चौथ माता की पूजा करते हैं। कंजरों की कबीला पंचायत शक्तिशाली और सर्वमान्य सभा है। सभ्य समाज की दृष्टि से पेशेवर अपराधी माने जाने वाले कंजरों में भी कबीलाई नियमों के उल्लंघन पर कड़ी सजा मिलती है।
  कंजर एक घुमक्कड़ कबीला है जो सम्पूर्ण उत्तर भारत की ग्राम्य और नागरकि जनसंख्या में छितराया हुआ है। ये संभवत: द्रविड़ मूल के हैं। ' कंजर ' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत 'कानन-चर' से हुई भी बताई जाती है। वैसे भाषा, नाम, संस्कृति आदि में उत्तर भारतीय प्रवृत्तियाँ कंजरों में इतनी बलवती हैं कि उनका मूल द्रविड़ मानना वैज्ञानिक नहीं जान पड़ता। कंजरों तथा साँसिया, हाबूरा, बेरिया, भाट, नट, बंजारा, जोगी और बहेलिया आदि अन्य घुमक्कड़ कबीलों में पर्याप्त सांस्कृतिक समानता मिलती है। एक किंवदंती के अनुसार कंजर दिव्य पूर्वज 'मान' गुरु की संतान हैं। मान अपनी पत्नी नथिया कंजरिन के साथ जंगल में रहता था। मान गुरु के पुरावृत्त को ऐतिहासिकता का पुट भी दिया गया है, जैसा उस आख्यान से विदित है जिसमें मान दिल्ली सुल्तान के दरबार में शाही पहलवान को कुश्ती मेंरों का कबीली संगठन विषम है। वे बहुत से अंतिर्विवाही (एंडोगैमस) विभागों और बहिर्विवाही (एक्सोगैमस) उपविभागों के नाम 1891 की जनगणना में दर्ज किए गए 106 कंजर उपविभागों के नाम हिंदू और छह के नाम मुसलमानी थे। कंजरों का विभाजन पेशेवर विभागों में हुआ है, जैसा उनके जल्लाद, कूँचबंद, पथरकट, दाछबंद आदि विभागीय नामों से स्पष्ट होता है। कंजरों में वयस्क विवाह प्रचलन है। यद्यपि स्त्रियों को विवाहपूर्व यौन स्वच्छंदता पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है, तथापि विवाह के पश्चात्‌ उनसे पूर्ण पति व्रता  की अपेक्षा की जाती है। स्त्रीं एवं पुरुष दोनों के विवाहेतर यौन संबंध हेय समझे जाते हैं और दंडस्वरूप वंचित पति को अधिकार होता है कि वह अपराधी पुरुष की न केवल संपत्ति वरन संतान भी हस्तगत कर ले। विवाह वधू मूल्य देकर होता है। रकम का भुगतान दो किस्तों में होता है, एक विवाह के समय और दूसरी संतोनात्पत्ति के पश्चात्‌। परंपरागत विवाहों के अतिरिक्त पलायन विवाह (मैरिज बाई एलोपमेंट) का भी चलन है। अज्ञातवास से लौटने पर युग्म पूरे गाँव को भोज पर आमंत्रिक कर वैध पति-पत्नी का पद प्राप्त कर सकता है। विधवा विवाह संभव है और विधवा अधिकतर अपने अविवाहित देवर से ब्याही जाती है।
  पेशेवर नामधारी होने पर भी कंजरों ने किसी व्यवसाय विशेष को नहीं अपनाया। कुछ समय पूर्व तक ये यजमानी करते थे और गाँव वालों का मनोरंजन करने के बदले धन और मवेशियों के रूप में वार्षिक दान पाते थे। प्रत्येक कंजर परिवार की यजमानी में कुछ गाँव आते थे जहाँ वे उत्सव और विशेष अवसरों पर नाच गाकर गाँववालों का मनोरंजन करते थे। इनमें से कुछ परिवार गाँव की, मीना और अन्य जातियों के परंपरागत भाट और वंशावली संग्रहकर्ता का काम करते थे। कुछ कंजर स्त्रियाँ भीख माँगने के साथ-साथ वेश्यावृत्ति भी करती थीं। किंतु वर्तमान कंजर अपने परंपरागत धंधों को छोड़ आर्थिक दृष्टि से अधिक लाभदायक पेशों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं।
वेशभूषा में कंजर अन्य ग्रामीण समुदायों के सदृश होते हैं। समय के साथ साथ दूसरो की तरह इनकी वेशभूषा भी बदल रही हैं|इनकी स्त्रियाँ मुसलमान स्त्रियों की भाँति लहँगे की बजाया लंबा कुरता और पाजामा पहनती हैं। खान-पान में ये कबीले जौ, बाजरे, कन्द, मूल, फल से लेकर छिपकली,बिल्ली गिरगिट और मेढ़क का मांस तक खाते हैं। छिपकली, साँडा, साँप और गिद्ध की खाल से विशेष प्रकार का तेल निकालकर ये उसे दु:साध्य रोगों की दवा कहकर बेचते हैं। भीख माँगनेवाली कंजर स्त्रियाँ प्राय: संभ्रांत कृषक महिलाओं को अपनी बातों फँसाकर बाँझपन तथा अन्य स्त्री रोगों की दवा बेचती हैं और हाथ देखकर भाग्य बताती हैं।
 कंजरों की कबीली पंचायत शक्तिशाली और सर्वमान्य सभा है। सभ्य समाज की दृष्टि से पेशेवर अपराधी माने जानेवाले कंजरों में भी कबीली नियमों के उल्लंघन की कड़ी सजा मिलती है। अपराध स्वीकृति के निराले और यातना पूर्ण ढंग अपनाए जाते हैं। कंजर कबीली देवी-देवताओं के साथ हिन्दू देवी देवताओं की भी मनौती करते हैं। विपत्ति पड़ने पर कबीली देवता 'अलमुंदी' और 'आसपाल' के क्रोध-शमन-हेतु बकरे, सुअर और मुर्गे की बलि दी जाती है। संपूर्ण भारत में एक गांव ऐसा है जहां पर इस घुमंतू जाति को स्थायी तौर पर बसाया गया है, यह ऐतिहासिक कार्य ग्राम पंचायत उमरिया, तहसील राठ जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश में लोधी समाज के बड़े जमींदार रघुवर दयाल लोधी व उनके पुत्र बृजेन्द्र सिंह उमरिया द्वारा आज से अस्सी वर्ष पूर्व किया गया था।आज भी वहां सैकड़ों कुंचबदिया परिवार स्थायी तौर पर निवास कर रहे हैं।
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बेड़िया जनजाति की जानकारी:Bediya jati ka itihas




बेडिया जनजाति मध्यप्रदेश की एक ऐसी जरायमपेशा जाति है, जो लड़कियों से सदियों से वेश्यावृत्ति कराते हैं। बेडिया की तरह ही बचड़ा, कंजर, सासी और नट तमाम ऐसी जनजातियां हैं जो इस पेशे को अपनाये हुए हैं और राजगढ़, शाहजहांपुर, गुना, सागर, शिवपुर, मुरैना, शिवपुरी सागर और विदिशा में इनका अच्छा खासा नेटवर्क फैला हुआ है, यहां से लड़कियां देश के अलग-अलग हिस्सों में खासतौर पर उत्तर प्रदेश के मेर", आगरा और राजस्थान वेश्यावृत्ति के बाजारों में भेजी जाती हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश के लगभग 16 जिलों में लगभग 18,000 बेडिया जनजाति के लोग फैले हुए हैं। मूलरूप से यह नृत्य और संगीत, काला जादू के काम से जुड़ी ऐसी जनजाति है, जो घर की बड़ी बेटी से वेश्यावृत्ति कराकर अपना गुजारा चलाते हैं। लेकिन उनका यह धंधा अब इस कदर फल फूल रहा है कि आजकल बेडिया लड़कियां दिल्ली और मुंबई और दूसरे बड़े शहरों के रेट लाइट एरिया में इस धंधे को करती हैं।

बेडिया समाज सुधार संघ के अध्यक्ष डॉ. अशोक सिंह बेडिया के शब्दों में `बेडिया जनजाति की लड़कियां आज पढ़ लिखकर बड़ी-बड़ी नौकरियां कर रही हैं, लेकिन उनकी स्थिति संतोषप्रद नहीं है; क्योंकि अगर बेडिया पुरुष इस काम को छोड़कर कुछ दूसरे काम करना चाहें तो सरकारी सहयोग न के बराबर है। सरकार केवल उनकी मदद करने का ढकोसला भर करती है। हां, इतना जरूर है कि प्राइवेट स्कूलों में लड़कियां पढ़ लिख रही हैं और सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों की संख्या इनकी संख्या के हिसाब से बहुत कम है। स्थिति में काफी फर्क आया है। स्वयं सेवी संस्थाएं भी अपने स्तर पर काम कर रही हैं लेकिन वे सिर्फ रिसर्च वर्क करके इस जनजाति से संबंधित सर्वे ही करते हैं।' बेडिया जनजाति के उत्थान में मुरैना के राम स्नेही का अदभुत योगदान है, `उन्होंने अपनी जनजाति की लड़कियों के लिए बहुत कुछ किया है। उन्हें इस धंधे से बाहर निकाला है और उन्हें पढ़ लिखकर दूसरे काम करने के लिए कई प्रयास किये हैं।'

बेडिया जनजाति के बारे में यह कहा जाता है कि साल 1631 में मुमताज महल की मौत के अगले साल से ताजमहल बनना शुरु हो गया। इसके लिए ताजमहल के मुख्य आर्किटेक्ट उस्ताद अहमद लाहौरी समेत हजारों मजदूरों को दूर-दूर से बुलाया गया। बेडिया जाति के लोग दावा करते हैं कि ताजमहल को बनाने में जुटे राज मिस्त्रियों का दिल बहलाने के लिए बादशाह ने बेडिया जाति की वेश्याओं के छह गांव बसाये थे और करीब 21 साल तक ताजमहल बनता रहा और बेडिया जाति के ये गांव जिस्म फरोशी करके राज मिस्त्रियों का दिल बहलाते रहे। 21 साल के इस अरसे में एक पीढ़ी गुजर गई थी। आगरा के इतिहासविद वीरेश्वर नाथ त्रिपा"ाr के मुताबिक `बेडिया जाति के लोग इन 21 सालों में पूरी तरह जिस्म फरोश बनकर रह गये हैं। इसके पहले नाच गाना गाकर अपना पेट भरते थे, लेकिन आगरा में बेडिया जाति के लोगों को सिर्फ और सिर्फ जिस्म फरोशी के लिए जाना जाता रहा है।'

भारतीय पतिता उद्धार सभा के अध्यक्ष खैराती लाल भोला की अध्यक्षता में हुए एक सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि बेडिया लड़कियां बाहरी लोगों का मनोरंजन करती हैं, वह अपनी जाति के पुरुषों के साथ धंधा नहीं करती। उनके अनुसार `बेडिया जनजाति में लड़की का जन्म शुभ माना जाता है और जैसे ही यहां लड़की के जन्म की सूचना मिलती है, चारो ओर इसका जश्न मनाया जाता है, पुरुषों को एक जिम्मेदारी माना जाता है। आगरा पुलिस द्वारा भी इस बात का खुलासा किया गया है कि पूरे देश में जहां कन्याओं को कोख में मार दिया जाता है, उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी समझकर उनकी भ्रूण हत्या कर दी जाती है, वहीं बेडिया जाति की महिलाएं पुरुषों के भ्रूण गिरवा देती है; क्योंकि यहां पुरुष कोई काम नहीं करते, सिर्फ बेटियों और बहनों की दलाली भर करते हैं। डॉ. अशोक सिंह बेडिया का कथन है कि `बेडिया जनजाति के उत्थान में चंपा बेन ने बहुत काम किया है। पुरुष अगर यहां अपनी बेटियों से वेश्यावृत्ति छुडवाना चाहें तो भी वह उनकी कमायी खाने का मोह नहीं त्याग पाते। क्योंकि उनके लिए सरकार के पास रोजगार की कोई "ाsस योजना नहीं है। यदि वह इस पेशे को छोड़ना चाहें तो भी यहां के पुरुष एक दूसरे को ही बरगलाते रहते हैं और वह खुद नहीं चाहते कि वे इस नरक से बाहर आयें। अगर सरकार इन्हें रोजगार दे और इनकी पहचान बेटियों से धंधा कराने वाले या बेटियों की कमायी खाने वालों की न हो चूंकि यह जो "प्पा इन पर लगा हुआ है, यही इन्हें वापस इस धंधे की ओर ले जाता है। अगर वह इससे बाहर आ जाएं तो काफी सुधार हो सकता है। बेडिया समाज के ऊपर लगा सदियों से यह धब्बा अगर मिट जाए तो उन्हें भी मुख्य धारा में लाया जा सकता है। बेडिया जनजाति की इस दूर्दशा को देखा जाए तो सवाल पैदा होता है, क्या सचमुच मोदी का नारा कि भारत बदल रहा है, सच और सार्थक हो सकता है? परंपरागत पेशे की आड में सदियों से बेडिया नट, और अन्य पिछड़ी जनजाति द्वारा किये जाने वाले देहव्यापार के धंधे ने एक नया रूप अख्तियार कर लिया है। विभिन्न सूत्र बताते हैं कि जो बेडिया पहले अपनी बेटियों से वेश्यावृत्ति कराते थे, वह राज्य के दूसरे हिस्सों से छोटी-छोटी बच्चियों को पकड़कर लाते हैं या इन्हें देहव्यापार की मंडियों से खरीदकर इन्हें देहव्यापार के लिए तैयार करते हैं। अब बेडिया अपनी बेटियों को पढ़ाकर उन्हें शिक्षा दिलाकर उनकी शादियां करके उनके घर बसाने की ख्वाहिश रखते हैं, लेकिन यही बेडिया पुरुष अपनी आरामतलबी, काहिली और मक्कारी के चलते दूसरों की बेटियों को इधर-उधर से अगुवा करके उनसे देहव्यापार कराते हैं, सच है अनादि काल से देहव्यापार का यह धंधा चला आ रहा है, पीढ़ियां बदल गई, देश बदलें, सरकारें बदली लेकिन यह धंधा नहीं बदला।

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सांसी जाती का इतिहास:sansi jati ka itihas




सांसी एक ख़ानाबदोश आपराधिक जनजाति है, जो मूलत: भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र राजपूताना में केंद्रित रही, लेकिन 13वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा खदेड़ दी गई। अब यह जनजाति मुख्यत: राजस्थान में संकेंद्रित है और शेष भारत में बिखरी हुई भी है।
यह जनजाति अधिकांशत: राजस्थान के भरतपुर ज़िले में निवास करती है।
सांसी लोग राजपूतों से अपनी वंशोत्पत्ति का दावा करते हैं, लेकिन लोककथा के अनुसार इनके पूर्वज बेड़िया थे, जो एक अन्य आपराधिक जाति है।
एक अन्य मत के अनुसार सांसी जनजाति की उत्पति 'सांसमल' नामक व्यक्ति से मानी जाती है।
जीवन यापन के लिए पशुओं की चोरी तथा अन्य छोटे-छोटे अपराधों पर निर्भर रहने वाले सांसियों का उल्लेख अपराधी जनजाति क़ानूनों 1871, 1911 और 1924 में किया गया है, जिनमें उनके ख़ानाबदोश जीवन को ग़ैर क़ानूनी कहा गया।
'भारत सरकार' द्वारा प्रारंभ किए गए सुधारों के कार्यान्वयन में भी कठिनाई आती रही, क्योंकि इन्हें अछूत जाति में गिना जाता है और इन्हें दी गई कोई भी भूमि या पशु इनके द्वारा बेच दी जाती है या ये उसका विनिमय कर लेते हैं।
वर्ष 1961 में इनकी संख्या लगभग 59,073 थी।
सांसी जनजाति के लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं और स्वयं को दो वर्गों में विभाजित करते हैं-
'खरे' यानी शुद्ध
अपहरणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न 'मल्ला' यानी अर्द्ध जातीय
इस जनजाति में कुछ लोग कृषक और श्रमिक हैं, यद्यपि अधिकांश लोग अभी भी घुमंतू जीवन जीते हैं।
सांसी लोग अपनी वंश परंपरा पितृ सत्तात्मक मानते हैं और जाटों की पारिवारिक परंपरा के अनुसार चलते हैं।
इन लोगों में युवक-युवतियों के वैवाहिक संबंध उनके माता-पिता द्वारा किये जाते है। विवाह पूर्व यौन संबंध को अत्यन्त गंभीरता से लिया जाता है।
सगाई की रस्म इनमें अनोखी होती है, जब दो खानाबदोश समूह संयोग से घूमते-घूमते एक स्थान पर मिल जाते हैं, तो सगाई हो जाती है।
सांसी जनजाति में होली और दीपावली के अवसर पर देवी माता के सम्मुख बकरों की बली दी जाती है। ये लोग वृक्षों की पूजा करते हैं।
मांस और शराब इनका प्रिय भोजन है। मांस में ये लोमड़ी और सांड़ का मांस पसन्द करते हैं।
इनका धर्म सामान्य हिन्दू धर्म है, लेकिन कुछ लोग इस्लाम में धर्मान्तरित हो गए हैं।
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13.1.21

ओशो रजनीश की जीवन गाथा:Osho jeevan Gatha






भगवान श्री रजनीश साधारणतः ओशो आचार्य रजनीश और रजनीश के नाम से भी जाने जाते है, वे एक भारतीय तांत्रिक और रजनीश अभियान के नेता थे। अपने जीवनकाल में उन्हें एक विवादास्पद रहस्यवादी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक माना गया था। 1960 में उन्होंने सार्वजनिक वक्ता के रूप में पुरे भारत का भ्रमण किया था और महात्मा गाँधी और हिन्दू धर्म ओथडोक्सी के वे मुखर आलोचक भी थे। मानवी कामुकता पर भी वे सार्वजनिक जगहों पर अपने विचार व्यक्त करते थे, इसीलिए अक्सर उन्हें “सेक्स गुरु” भी कहा जाता था, भारत में उनकी यह छवि काफी प्रसिद्ध थी, लेकिन बाद में फिर इंटरनेशनल प्रेस में लोगो ने उनके इस स्वभाव को अपनाया और उनका सम्मान किया।


आरंभिक जीवन :

        एक बार ओशो के जन्म के समय उनके माता पिता को उनके ज्योतिष ने कहा था कि ये बालक सात वर्ष से अधिक जीवित रह गया तो वो उसकी जन्म कुंडली बनायेंगे क्योंकि उनके अनुसार ओशो साथ वर्ष से अधिक जीवित नही रह सकते थे और यदि जीवित रहते है तो हर साथ वर्ष में उनको मौत का सामना करना पड़ेगा | इसलिए उनके माता पिता हमेशा उनकी चिंता करते रहते थे | इसी कारण जब वो 14 वर्ष के हुए थे तब वो एक मन्दिर में जाकर मौत का इंतजार करने लगे | सात दिनों तक एक वक़्त का खाना खाकर मौत का इंतजार किया लेकिन उनका बाल भी बांका नही हुआ था |
        1953 में 21 वर्ष की आयु में ओशो को मौलश्री वृक्ष के नीचे प्रबोध प्राप्त हुआ | उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से दर्शन में स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधि ली | उसके बाद वो रामपुर संस्कृत कॉलेज और जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र पढ़ाने लगे | इसी दौरान उन्होंने पुरे देश का भ्रमण किया और गांधी व् समाजवाद पर भाषण दिया | 1962 में उनका पहला ध्यान शिविर आयोजित हुआ | दो वर्ष बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और ध्यान के मार्ग पर चल दिए | ओशो ने हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख , इसाई , सूफी , जैन जैसे कई धर्मो पर प्रवचन दिया था और वो अक्सर येशु ,मीरा नानक , कबीर ,गौतम बुद्ध  ,दादू ,रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे कई महापुरुषों के रहस्यों के बारे में प्रवचन देते थे |
        1970 में रजनीश ने ज्यादातर समय बॉम्बे में अपने शुरुवाती अनुयायीओ के साथ व्यतीत किया था, जो “नव-सन्यासी” के नाम से जाते थे। इस समय में वे ज्यादातर आध्यात्मिक ज्ञान ही देते थे और दुनियाभर के लोग उन्हें रहस्यवादी, दर्शनशास्त्री, धार्मिक गुरु और ऐसे बहुत से नामो से बुलाते थे। 1974 में रजनीश पुणे में स्थापित हुए, जहाँ उन्होंने अपने फाउंडेशन और आश्रम की स्थापना की ताकि वे वहाँ भारतीय और विदेशी दोनों अनुयायीओ को “परिवर्तनकारी उपकरण” प्रदान कर सके। 1970 के अंत में मोरारी देसाई की जनता पार्टी और उनके अभियान के बीच हुआ विवाद आश्रम के विकास में रूकावट बना।1981 में वे अमेरिका में अपने कार्यो और गतिविधियों पर ज्यादा ध्यान देने लगे और रजनीश फिर से ऑरेगोन के वास्को काउंटी के रजनीशपुरम में अपनी गतिविधियों को करने लगे।


अध्यात्मिक जीवन :

        वे 1958 में जबलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर बने और बाद में 1960 में उन्हें प्रोफेसर के पद पर प्रमोट कर दिया गया। अपने शिक्षक होने के साथ-साथ वे पुरे भारत के राज्यों में “आचार्य रजनीश” के रूप में जाकर अपने अध्यात्मिक भाषण दिया करते थे। उन्होंने समाजवाद का विरोध किया और महसूस किया कि भारत मात्र पूंजीवाद, विज्ञानं, प्रोद्योगिकी और जन्म नियंत्रण के माध्यम से ही समृद्ध हो सकता है। उन्होंने अपने भाषणों में कई प्रकार के मुद्दों को उठाया जैसे उन्होंने रुढ़िवादी भारतीय धर्म और अनुष्ठानों की आलोचना की और कहा सेक्स(Osho Quote on Sex) अध्यात्मिक विकास को प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम है।
        इस भाषण के कारन उनकी बहुत आलोचना हुई पर इसकी वजह से उन्होंने और भी लोगों को अपने विचारों की ओर आकर्षित किया। उसके बाद आमिर व्यक्ति उनसे अध्यात्मिक विकास पर विचार करने के लिए आने लगे और उन्होंने बहुत दान भी किया और साथ ही उनके इस कार्य में भी वृद्धि हुई। 1962 में वे 3-10 दिन के ध्यान शिविर(Osho Meditation) करने लगे और जल्द ही ध्यान केन्द्रित करना उनकी शिक्षाओं में जाना-जाने लगा।
         अगर हम खुले मन से सोचें तो वे एनी अध्यात्मिक नेताओं पूरी तरीके से अलग थे। 1960 के दशकों तक वे एक प्रमुख अध्यात्मिक गुरु बन गए थे और 1966 में उन्होंने अपने शिक्षण नौकरी को छोड़ कर खुद को पूर्ण रूप से आध्यात्मिकता के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया। 1970 में उन्हें हिन्दू नेताओं नेंकंद के तहत भारतीय प्रेस द्वारा “सेक्स गुरु” का नाम करार दिया।
        जून 1964 में रणकपुर शिविर में पहली बार ओशो के प्रवचनों को रिकॉर्ड किया गया और किताब में भी छापा गया। इसके बाद ओशो ने सैकड़ों पुस्तकें लिखीं, हजारों प्रवचन दिए। उनके प्रवचन पुस्तकों, ऑडियो कैसेट तथा वीडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध हैं। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों से दुनियाभर के वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, और साहित्यकारों को प्रभावित किया। 1969 में ओशो के अनुयायियो ने उनके नाम पर एक फाउंडेशन बनाया जिसका मुख्यालय मुंबई था। बाद में उसे पुणे के कोरेगांव पार्क में स्थानांतरित कर दिया गया। वह स्थान “ओशो इंटरनेशनल मैडिटेशन रिसोर्ट ” के नाम से जाना जाता है। 1980 में ओशो “अमेरिका” चले गए और वहां सन्यासियों ने “रजनीशपुरम” की स्थापना की।
        ओशो ने हर एक पाखंड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने भारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब लताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनरुज्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। सन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ओशो के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है। उनकी नजर में संन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है।
        ओशो ने हजारों प्रवचन दिये। उनके प्रवचन पुस्तकों के रूप में उपलब्ध है, आडियो कैसेट तथा विडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध हैं। अपने क्रान्तिकारी विचारों से उन्होने लाखों अनुयायी और शिष्य बनाये। अत्यधिक कुशल वक्ता होते हुए इनके प्रवचनों की करीब ६०० पुस्तकें हैं। संभोग से समाधि की ओर इनकी सबसे चर्चित और विवादास्पद पुस्तक है। इनके नाम से कई आश्रम चल रहे है। अमेरिका के लोगों की तो उनके प्रति अटूट भक्ति-भावना थी । सन् 1966 से सन् 197० तक रजनीश के अनुयायी उन्हें आचार्य कहते थे, परंतु सन् 1970 के बाद वे भगवान रजनीश हो गए । नाम के आगे भगवान शब्द जुड़ने के कारण उनकी काफी आलोचना हुई । उन्होंने अपनी सफाई में कहा-‘भगवान शब्द का अर्थ ईश्वर नहीं है, प्रत्येक उस व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है, जो उरानंद की अवस्था में पहुंच चुका है ।’


विचार :

• अगर आप सत्य देखना चाहते हैं तो न सहमती में राय रखिये और न असहमति में.
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केवल वह लोग जो कुछ भी नहीं बनने के लिए तैयार हैं वह प्रेम कर सकते हैं.
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जेन लोग बुद्ध से इतना प्रेम करते हैं कि वो उनका मज़ाक भी उड़ा सकते हैं. यह अथाह प्रेम कि वजह से है, उनमे डर नहीं है.
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किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है. आप स्वयं में जैसे भी हैं एकदम सही हैं. खुद को स्वीकार करिए.
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सवाल यह नहीं है कि कितना सीखा जा सकता है बल्कि इसके उलट, सवाल यह है कि कितना भुलाया जा सकता है.
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दोस्ती शुद्ध प्रेम है. यह प्रेम का सर्वोच्च रूप है जहाँ कुछ भी नहीं माँगा जाता, कोई भी शर्त नहीं होती, जहां बस देने में आनंद आता है.
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प्रसन्नता सदभाव की छाया है, वो सदभाव का पीछा करती है. प्रसन्न रहने का कोई और तरीका नहीं है.
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जीवन कोई दुखद घटना नहीं है, यह एक हास्य है. जीवित रहने का मतलब है हास्य का बोध होना.
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अगर आप एक दर्पण बन सकते हैं तो आप एक ध्यानी भी बन सकते हैं. ध्यान दर्पण में देखने की कला है.
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आत्मज्ञान एक समझ है कि यही सबकुछ है, यही बिलकुल सही है, बस   यही है. आत्मज्ञान यह जानना है कि ना कुछ पाना है और ना कहीं जाना है.
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जेन एकमात्र वह धर्म है जो एकाएक आत्मज्ञान सीखाता है. इसका कहना है कि आत्मज्ञान में समय नहीं लगता, ये बस कुछ ही क्षणों में हो सकता है.
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आप जितने लोगों को चाहें उतने लोगों को प्रेम कर सकते हैं- इसका ये मतलब नहीं है कि आप एक दिन दिवालिया हो जायेंगे, और कहेंगे, “अब मेरे पास प्रेम नहीं है”. जहाँ तक प्रेम का सवाल है आप दिवालिया नहीं हो सकते
म्रुत्यू :
        आचार्य रजनीश ने मुंबई और पूना में अपने आश्रम बनवाए । उन्होंने 1981 में अपने शिष्यों सहित अमेरिका जाकर रजनी-पुरम की स्थापना की, लेकिन अमेरिका सरकार ने उनके कुछेक शिष्यों को गैर-कानूनी कार्यों के कारण उन्हें वहां से जाने पर विवश कर दिया । उसके बाद आचार्य रजनीश भारत लौट उगए और फिर यही उन्होंने अपने अनुयायियों को शिक्षा दी । 19 जनवरी 1990 को उगचार्य रजनीश ने अंतिम समाधि ले ली । उनके अनुयायियों को इस समाचार से काफी दुख हुउग । ओशो तो चले गए, परंतु उनके द्वारा दिए ज्ञान की राह पर चलकर उगज भी मानव जीवन को सफल बनाया जा सकता है ।
विकिपेडिया अनुसार-
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश,या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलोचक रहे। उन्होंने मानव कामुकता के प्रति एक ज्यादा खुले रवैया की वकालत की, जिसके कारण वे भारत तथा पश्चिमी देशों में भी आलोचना के पात्र रहे, हालाँकि बाद में उनका यह दृष्टिकोण अधिक स्वीकार्य हो गया।
चन्द्र मोहन जैन का जन्म भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में हुआ था। ओशो शब्द की मूल उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई धारणायें हैं। एक मान्यता के अनुसार, खुद ओशो कहते है कि ओशो शब्द कवि विलयम जेम्स की एक कविता 'ओशनिक एक्सपीरियंस' के शब्द 'ओशनिक' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'सागर में विलीन हो जाना। शब्द 'ओशनिक' अनुभव का वर्णन करता है, वे कहते हैं, लेकिन अनुभवकर्ता के बारे में क्या? इसके लिए हम 'ओशो' शब्द का प्रयोग करते हैं। अर्थात, ओशो मतलब- 'सागर से एक हो जाने का अनुभव करने वाला'। १९६० के दशक में वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से एवं १९७० -८० के दशक में भगवान श्री रजनीश नाम से और १९८९ के समय से ओशो के नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक गुरु थे, तथा भारत व विदेशों में जाकर उन्होने प्रवचन दिये।
रजनीश ने अपने विचारों का प्रचार करना मुम्बई में शुरू किया, जिसके बाद, उन्होंने पुणे में अपना एक आश्रम स्थापित किया, जिसमें वे विभिन्न प्रकार के उपचारविधान पेश किये जाते थे. तत्कालीन भारत सरकार से कुछ मतभेद के बाद उन्होंने अपने आश्रम को ऑरगन, अमरीका में स्थानांतरण कर लिया। १९८५ में एक खाद्य सम्बंधित दुर्घटना के बाद उन्हें संयुक्त राज्य से निर्वासित कर दिया गया और २१ अन्य देशों से ठुकराया जाने के बाद वे वापस भारत लौटे और पुणे के अपने आश्रम में अपने जीवन के अंतिम दिन बिताये।
उनकी मृत्यु के बाद, उनके आश्रम, ओशो इंटरनॅशनल मेडिटेशन रेसॉर्ट को जूरिक आधारित ओशो इंटरनॅशनल फाउंडेशन चलाती है, जिसकी लोकप्रियता उनके निधन के बाद से अधिक बढ़ गयी है।
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11.1.21

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय:Dayanand sarswati jeevan parichay







   भारत के महान ऋषि मुनियों की परम्परा में, जिन्होंने इस देश जाति की जाग्रति और उन्नति के लिए अत्यंत विशेष कार्य किया उनमें महर्षि दयानंद सरस्वती जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
  महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा (गुजरात) में हुआ। पिता का नाम करसन जी तिवारी तथा माता का नाम अमृतबाई था। जन्मना ब्राह्मण कुल में उत्पन्न बालक मूल शंकर को शिवरात्रि के दिन व्रत के अवसर पर बोध प्राप्त हुआ। वह सच्चे शिव की खोज के लिए 16 वर्ष की अवस्था में अचानक गृह त्याग कर एक विलक्षण यात्रा पर चल दिए ।
  मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से शिक्षा प्राप्त की एवं इस मूल बात को समझा कि देश की वर्तमान अवस्था में दुदर्शा का मूल कारण वेद के सही अर्थों के स्थान पर गलत अर्थों  का  प्रचलित हो जाना है। इसी कारण से समाज में धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों का जाल फैल चुका है और हम अपने भारत देश में ही दूसरों के गुलाम हैं। देश की गरीबी, अशिक्षा, नारी की दुर्दशा, भाषा और संस्कृति के विनाश को देखकर दयानन्द अत्यन्त द्रवित हो उठे। कुछ समय हिमालय का भ्रमण कर और तप, त्याग, साधना के साथ वे हरिद्वार के कुम्भ के मेले से मैदान में कूद पड़े। उन्होंने अपनी बात को मजबूती और तर्क के साथ रखा। विरोधियों के साथ शास्त्रार्थ वार्तालाप करके सत्य को स्थापित करने का प्रयास किया। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था कि जो सत्य है उसको जानो और फिर उसको मानो उन्होंने"सत्य को ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए" का प्रेरक संदेश भी दिया। सभी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर अपनी बात कहने के लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश नाम के कालजयी ग्रन्थ की रचना की। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया और सारा भारत उनका कार्यक्षेत्र रहा। गौरक्षा, हिन्दी रक्षा, संस्कृत भाषा की उपयोगिता, स्वदेश, स्वदेशी, स्वभाषा, स्वाभिमान के सन्दर्भ में उन्होंने पहली बार जागृति पैदा की।   उन्होंने अपने कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए 1875 में आर्य समाज की मुम्बई में स्थापना की।
वेद के गलत अर्थों की हानि देखकर उन्होंने वेद के वास्तविक भाष्य को दुनिया के सामने रखा और लिंग भेद और जाति भेद से उठकर "वेद पढ़ने का अधिकार सबको है "की घोषणा की।
  धार्मिक अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों आदि पर जमकर प्रहार किया। स्त्री शिक्षा जो उस समय की सबसे बड़ी जरूरत थी, उसकी उन्होंने सबसे बड़ी वकालत की और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को उंच-नीच के भेद-भाव के चलते अलग-थलग कर दिया था, उसको उन्होंने समाज की मुख्य धारा के साथ लाने के लिए छुआ-छूत और ऊँच नीच  की भावना को समाज की सबसे बड़ी बुराई बताते हुए उनके जीवन स्तर को उठाने तथा शिक्षा के लिए कार्य करने का आह्वान किया।
अपनी बातों को स्पष्टवादिता से कहने के कारण अनेक लोग उनके विरोधी बन गए और अलग-अलग स्थानों पर, अलग-अलग तरीकों से 17 बार जहर देकर प्राण हरण की कोशिश की। लेकिन दयानन्द ने कभी अपने नाम के अनुरूप किसी को दण्ड देना या दिलवाना उचित नहीं  समझा।
  ब्रह्मचर्य का बल, सत्यवादिता का गुण उनके जीवन की एक विशेष पहचान थी। भक्तों के यह कहने पर कि आप 
अनेक राजाओं द्वारा जमीन देने की, मन्दिरों की गद्दी देने की इच्छा के बावजूद दयानन्द ने कभी किसी से कुछ स्वीकार करना उचित नहीं समझा। 1857 के क्रान्ति संग्राम से वे लगातार देश को आजाद कराने के लिए प्रयत्नशील रहे और अपने शिष्यों को इसकी निरन्तर प्रेरणा दी। परिणाम स्वरूप श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह, स्वामी श्रद्धानन्द लाला लाजपत राय जैसे महान बलिदानियों की एक लम्बी श्रृंखला पैदा की।
   वे देश के नवयुवाओं को कौशल सीखने के लिए जर्मनी भेजने के इच्छुक थे। वे अपने देश में स्वदेशी वस्त्रों के पहनने और कारखाने लगाने के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अनेक देशी राजाओं के साथ वार्तालाप कर उन्हें स्वदेशी के लिए प्रेरित किया। साथ ही तत्कालीन सभी मुख्य महानुभावों केशवचन्द्र सेन, गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के पिता, महादेव गोविन्द रानाडे, पण्डिता रमाबाई, महात्मा ज्योतिबा फूले, एनिबेसेंट, मैडम ब्लेटवस्की आदि के साथ वार्ता कर उन्हें एक सत्य के मार्ग पर सहमत करने का प्रयास किया। विभिन्न मतों के मुख्य महानुभावों के साथ चर्चा करके सहमति के बिन्दुओं पर एक साथ कार्य करने के लिए आह्वान किया। मानव मात्र की उन्नति के लिए निर्दिष्ट 16 संस्कारों पर विस्तृत व्याख्या लिखी।
  प्रजातन्त्र की आवश्यकता पर योग की आवश्यकता पर पर्यावरण के सन्दर्भ में, हर विषय पर अपनी बात रखी।
6 फुट 9 इंच के ऊँचे कद के साथ गौर वर्ण धारी, अद्भुत ब्रह्मचर्य के स्वामी एवं योगी महर्षि दयानन्द सरस्वती ने प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति के लिए शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति को आवश्यक बताया। मात्र 59 वर्ष की आयु में वैदिक सत्य की निर्भीक उदघोषणा के कारण षडयन्त्रों के चलते 1883 के अंत में उन्हें जोधपुर में जहर दे दिया गया। जिस विष से वे अपने शरीर की रक्षा न कर सके। विष देने वाले को अपने पास से धन देकर विदा किया, ताकि राजा उसे दण्डित न कर दे,  यह एक  विलक्षण उदाहरण है दयानन्द की दया भावना का  । अन्ततः दीपावली की सांय 30 अक्तूबर 1883 में उनका निर्वाण अजमेर में हुआ।

उनके जीवन की बहुत बड़ी सफलता उनके शिष्यों द्वारा किये गए कार्यों में दिखती  है | हजारों शिष्यों की लम्बी श्रृंखला ने सारे विश्व में उनकी आदर्शों  अनुरूप  संस्थाएं  स्थापित की | देश के लिए बलिदान होने वालों की लम्बी श्रंखला में उनकी शिष्यावली  ज्यादा संख्या मे थी। आज उनके द्वारा बनाए गए आर्य समाज की शिक्षा के क्षेत्र में, सामाजिक कार्यों में स्वास्थ्य सेवा में, महिला उत्थान में, युवा निर्माण में, एवं राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियों के काम में विश्व के 30 देशों और भारत के सभी राज्यों में 10 हजार  से अधिक सशक्त सेवा इकाइयों के साथ सेवारत हैं।




29.11.20

जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ:jadon vansh kuldevi

 




जादौन वंश की कुलदेवी श्री कैला माँ

करौली - राजस्थान के जादौन राजवंश की कुलदेवी मॉं भवानी राज राजेश्वरी श्री कैलादेवी - चामुण्डा , यहॉं पर दोनों देवियां श्री कैलादेवी जिन्हें सतोगुणी और सौम्य देवी माना गया है और दूसरी श्री चामुण्डा भवानी की प्रतिमायें स्थापित व प्रतिष्ठित हैं, करौली के जादौन राजवंश का यह परम पूज्य कुलदेवी मंदिर है , श्री कैलादेवी को सौम्य मूर्ति राज राजेश्वरी भगवती दक्षिण काली का स्वरूप माना जाता है और बाद में एक उजड़ चुके वीरान हो चुके करौली के ही पास के एक गॉंव से वीरान व सूनसान पड़े मंदिर से मॉं चामुण्डा (चामड़) की प्रतिमा भी लाकर यहॉं मॉं कैलादेवी के साथ ही स्थापित की गई , मॉं चामुण्डा (चामड़) उग्र व तामसी स्वभाव की हैं ,
जब यदुवंशी महाराजा अर्जुन देव जी ने १३४८ ई. में करौली राज्य की स्थापना की तभी उन्होने करौली से उत्तरी दिशा में २या ३ कि.मी. की दूरी पर पांचना नदी के किनारे पहाडी पर श्री अंजनी माता का मंदिर बनवा कर अपनी कुलदेवी के रूप में पूजने लगे और अंजनी माता जादौन राजवंश की कुलदेवी के रूप में पूजित हुई ।।
एक लेख यह मिलता है कि करौली राज्य के दक्षिण - पश्चिम के बीच में २३ कि. मी. की दूरी पर चम्बल नदी के पास त्रिकूट पर्वत की मनोरम पहाडियों में सिद्दपीठ श्री कैला देवी जी का पावन धाम है , यहॉ प्रतिवर्ष अधिकाधिक लाखो श्रृदालु माँ के भक्त दर्शनार्थ एकत्रित होते है ,
जिस स्थान पर माँ श्री कैला देवी जी का मंदिर बना है वह स्थान खींची राजा मुकुन्ददास की रियासत के अधीन थी वे संभवत चम्बल पार कोटा राज्य की भूमि के स्वामी थे जो गागरोन के किले में रहते थे , उन्होने बॉसीखेडा नामक स्थान पर चामुण्डा देवी की बीजक रूपी मूर्ति स्थापित करबाई थी और वो वहा अक्सर आराधना के लिये आते थे , ये बात सम्वत १२०७ की है ,
एक बार खींची राजा मुकुन्ददास जी अपनी रानी सहित चामुण्डा देवी जी के दर्शनार्थ आये उन्होने कैला देवी जी की कीर्ति सुनी तो माता के दर्शनार्थ आये , माता के दर्शनार्थ पश्चात उनके मन में माता के प्रति आगाध श्रृदा बड गयी , राजा ने देवी जी का पक्का मठ बनवाने का उसी दिन निर्माण शुरू करवा दिया जब माता का मठ बनकर तैयार हो गया तो उसके बाद श्री कैला देवी जी की प्रतिमा को मठ में विधि पूर्वक स्थापित करवा दिया ।
कुछ समय बाद विक्रम संवत १५०६ में यदुवंशी राजा चन्द्रसेन जी ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा कर लिया तब उसी समय एक बार यदुवंशी महाराजा चन्द्रसेन जी के पुत्र गोपाल दास जी दौलताबाद के युद्द में जाने से पूर्व श्री कैला माँ के दरबार में गये और माता से प्राथना करी कि माता अगर मेरी इस युद्द में विजय हुई तो आपके दर्शन करने के लिये हम फिर आयेंगे । जब राजा गोपाल दास जी दौलताबाद के युद्द में फतह हासिल कर के लौटे तब माता जी के दरबार में सब परिवार सहित एकत्रित हुये ।
तभी यदुवंशी महाराजा चन्द्रसेन जी ने कैला माँ से प्राथना करी कि हे कैला माँ आपकी कृपा से मेरे पुत्र गोपाल दास की युद्द में फतह हासिल हुई है । आज से सभी यदुवंशी राजपूत अंजनी माता जी के साथ साथ श्री कैला देवी जी को अपनी कुलदेवी ( अधिष्ठात्री देवी के रूप में ) पूजा किया करेंगे , और आज से मैया का पूरा नाम श्री राजराजेश्वरी कैला महारानी जी होगा ( बोल सच्चे दरबार की जय ) तभी से करौली राजकुल का कोई भी राजा युद्द में जाये या राजगद्दी पर बैठे अपनी कुलदेवी श्री कैला देवी जी का आशीर्वाद लेने जरूर जाता है , और तभी से मेरी मैया श्री राजराजेश्वरी कैला देवी जी करौली राजकुल की कुलदेवी के रूप में पूजी जा रही है ।।
यद्यपि चामड़ माता भी महाकाली का ही स्वरूप मानी जाती हैं तथा इनकी वाममार्गी पूजा पद्धति ही अधिक मान्य व प्रचलित है , जबकि कैलादेवी सौम्य स्वरूपा की पूजा पद्धति दक्षिण मार्गी है , मॉं चामुण्डा (चामड़) को पहले यहॉं पशु बलि आदि दी जाती थी तथा वाममार्गी पूजा प्रचलित थी और इसके लिये यहॉं मंदिर के पिछवाड़े परिसर में ही एक बहुत विशाल बलि कुण्ड भैंसादह , भैंसा कुड बना हुआ है लेकिन बहुत बरसों से मंदिर में बलि प्रथा बंद है और अब यहॉं अनेक बरसों से कोई बलि नहीं दी जाती है , यहॉं यह किंवदंती प्रचलित है कि पहले कैलादेवी जी की प्रतिमा का मुख (चेहरा) एकदम सीधा था , लेकिन जब बाद में चामुण्डा की प्रतिमा यहॉं स्थापित की गई तो दोनों देवियों में स्वभाव भेद होने के कारण कैलादेवी ने चामुण्डा से नाराजगी दिखाते हुये अपना चेहरा विपरीत दिशा में मोड़ कर झुका लिया, तब से ही कैलादेवी का सिर एक तरफ को झुका हुआ है, करौली के जादौन राजवंश के राजा व वंशज एवं उत्तराधिकारी जो कि पेशे से एडवोकेट हैं , प्रत्येक नवरात्रि की नवमी के दिन यहॉं पूजन ने आते हैं , बताया जाता है कि केवल उसी वक्त ही कुछ समय के लिये पूजनकाल में कैलादेवी का चेहरा सीधा और दृष्टि सीधी हो जाती है , यहीं कैलादेवी में ही मॉं महाकाली की रक्तबीज नामक राक्षस से लड़ाई हुई थी , आठ दिन युद्ध चला था और नवमी के दिन यानि नौंवें दिन मॉं काली को रक्तबीज राक्षस पर विजय प्राप्त हुई थी और रक्तबीज मॉं के हाथों मारों गया था , यहीं पर वह काली शिला मोजूद है जहॉं देवी का और असुर का संग्राम हुआ , वह शिला भी मौजूद है जिस पर मॉं काली के और असुर के चरणों के चिह्न छपे हुये हैं , काली शिला पर से ही काली शिल नामक नदी प्रवाहि होती है , इस नदी में स्नान के बाद ही मंदिर में दश्रन के लिये लोग जाते हैं , यहीं पर भैरों बाबा सहि अनेक पज्य मंदिर हैं , कैलादेवी मंदिर के सामने ही मॉं के एक अनन्य व एकाकार एक गूजर भगत की प्रतिमा भी मौजूद है , कैलादेवी पर हर नवरात्रि पर लाखों लोग अटूट रूप से पहुँचते हैं , भारत के सभी राजपूतानों में मॉं की काफी अधिक मान्यता है , मंदिर के पीछे ही मनोकामना पूर्ति के लिये लोग उल्टे स्वास्तिक बना कर जाते हैं और मनोकामना पूर्ति के बाद आकर चांदी के स्वास्तिक चढ़ा कर स्वास्तिक यानि सांतिया सीधा करते हैं , जिनके विवाह न हो रहे हों , जिनकी संतान न हो रही हो , पुत्र की कामना हो , दांपत्य संबंध बिगड़ गये हों आदि आदि के लिये गोबर (गाय के गोबर) के सांतियें (स्वास्तिक) बनाये जाते हैं , ताजा गोबर वही पर पया्रप्त मात्रा में पड़ा मिल जाता है , इसी प्रकार अन्य कामनाओं के लिये सिन्दूर के सांतिये भैरों बाबा के मंदिर पर ( लाट पर या चौकी पर) बनाये जाते हैं, या फिर स्वयं देवी के मंदिर पर ही बना दिये जाते हैं , अपनी अर्जी मॉं के गले में या चरणों में डालने आदि कार्य भी लोग यहॉं करते हैं , मंदिर परिसर के प्रांगण में हवन , धूप , दीप आदि के लिये समुचित व्यवस्था है , रहने रूकने के लिये अनेक मुफ्त धर्मशालायें यहॉं मौजूद हैं , भोग प्रसाद आदि की थाली तैयार कराने , मिलने की समुचित व बेहतरीन व्यवस्था है, खाने पीने भोजन चाय नाश्ता आदि के लिये भी बहुत सस्ती और उत्तम व्यवस्था मंदिर पर उपलब्ध है .... जय श्री मॉं कैला देवी चामुण्डा , जय भवानी
यह विवरण विभिन्न समाजों की प्रतिनिधि संस्थाओं तथा लेखकों द्वारा संकलित एवं प्रकाशित सामग्री पर आधारित है। इसके बारे में प्रबुद्धजनों की सम्मति एवं सुझाव सादर आमन्त्रित हैं।

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा-

विशिष्ट कवियों की चयनित कविताओं की सूची (लिंक्स)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से -गोपालदास "नीरज"

वीरों का कैसा हो वसंत - सुभद्राकुमारी चौहान

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा-अल्लामा इकबाल

उन्हें मनाने दो दीवाली-- डॉ॰दयाराम आलोक

जब तक धरती पर अंधकार - डॉ॰दयाराम आलोक

जब दीप जले आना जब शाम ढले आना - रविन्द्र जैन

सुमन कैसे सौरभीले: डॉ॰दयाराम आलोक

वह देश कौन सा है - रामनरेश त्रिपाठी

किडनी फेल (गुर्दे खराब ) की रामबाण औषधि

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ -महादेवी वर्मा

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा

प्रणय-गीत- डॉ॰दयाराम आलोक

गांधी की गीता - शैल चतुर्वेदी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -शिवमंगलसिंह सुमन

सरहदें बुला रहीं.- डॉ॰दयाराम आलोक

जंगल गाथा -अशोक चक्रधर

मेमने ने देखे जब गैया के आंसू - अशोक चक्रधर

सूरदास के पद

रात और प्रभात.-डॉ॰दयाराम आलोक

घाघ कवि के दोहे -घाघ

मुझको भी राधा बना ले नंदलाल - बालकवि बैरागी

बादल राग -सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

आओ आज करें अभिनंदन.- डॉ॰दयाराम आलोक