15.3.25

कोइरी जाति का गौरव शाली इतिहास /History of Koiri caste

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कोइरी (Koeri, Koiry or Koiri) भारत में पाया जाने वाला एक जाति समुदाय है. यह एक मूल निवासी क्षत्रिय जाति है. परंपरागत रूप से यह प्रभावशाली जाति है.आजादी के बाद बिहार, झाारखण्ड और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में राजनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं. इनमें से कई अब अपने परंपरागत व्यवसाय कृषि को छोड़कर व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, सेना और पुलिस सेवा आदि में कार्यरत हैं. इन्हें सेना में शामिल होकर देश की रक्षा करना बहुत पसंद है

कोइरी की उत्पत्ति कैसे हुई?

कोइरी भगवान राम के पुत्र कुश से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं. एक अन्य मान्यता के अनुसार, यह गौतम बुध के वंशज हैं. कोइरी समाज में कई प्रसिद्ध लोगों ने जन्म लिया है, जिनमें प्रमुख हैं- उपेन्द्र कुशवाहा, केशव प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, महाबली सिंह, सम्राट चौधरी, संघमित्रा मौर्या
स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबा सत्यनारायण मौर्य.

 कोइरी जाति के लोग, बिहार और उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से पाए जाते हैं.
  बिहार के कोइरी भारत की स्वतंत्रता से पहले कई किसानों के विद्रोह में भाग लेते थे। प्रसिद्ध चंपारण विद्रोह के दौरान चंपारण में वे किसी भी अन्य समुदाय की तुलना में अधिक थे। हालांकि मुख्य रूप से कृषक कोइरी लोगों का भारतीय सेना में व्यापक रूप से प्रतिनिधित्व है। भारतीय सेना की बिहार रेजिमेंट का गठन अन्य बिहारी समुदायों के लोगों के अलावा कोइरी जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है;भूमि सुधार के बाद के दौर में जब भूमिहीन दलितों के पक्ष में भूमि सीलिंग और भूमि अवाप्ति का मुद्दा चरम पर था, नक्सलियों की हिंसा को विफल करने के लिए और कुर्मियों (उत्तर भारत की एक कृषक जाति) के साथ-साथ अपनी भूमि को बचाने के उद्देश्य से कोईरिओ ने एक उग्रवादी संगठन का गठन किया जिसे भूमि सेना कहा जाता है, जो नालंदा और बिहार में जाति के अन्य गढ़ों के आसपास सक्रिय थी।भूमि सेना पर दलितों और कभी-कभी उच्च जातियों के खिलाफ अत्याचार में शामिल होने का आरोप लगाया गया था।
कोइरी लोग, भूमि अधिग्रहण करके, उन्नत कृषि तकनीक को अपनाकर, और राजनीतिक शक्ति हासिल करके कृषि समाज में उभरे हैं.
कोइरी लोग, व्यापार, शिक्षा, और दूसरे क्षेत्रों में भी सक्रिय हैं.
कोइरी लोग, पारंपरिक जजमानी प्रणाली को अस्वीकार करते हैं.
कोइरी लोग, अपने अनुष्ठानों के लिए कोइरी पुजारी को नियुक्त करते हैं.
कोइरी लोग, विधवा पुनर्विवाह को मंज़ूरी देते हैं.
स्वतंत्रता के बाद के भारत में, कोइरी को बिहार के चार ओबीसी समुदायों के समूह का हिस्सा होने के कारण उच्च पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिन्होंने समय के साथ भूमि अधिग्रहण किया, उन्नत कृषि तकनीक को अपनाया और भारत के कृषि समाज में उभरते कुलकों का एक वर्ग बनने के लिए राजनीतिक शक्ति प्राप्त की।

राजनीति

राजनीति के क्षेत्र में इनका वर्चस्व मुख्यता 1980 से शुरू हुआ परन्तु 1934 में, तीन मध्यवर्ती कृषि जातियों कोएरी , यादव और कुर्मीयो ने एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया, जिसे त्रिवेणी संघ कहा गया, जो कि लोकतांत्रिक राजनीति में सत्ता साझा करने की महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए थी, जिस पर तब तक उच्च जातियां हावी थी। नामकरण त्रिवेणी संगम से लिया गया था, जो तीन शक्तिशाली नदियों गंगा, यमुना और आदिम नदी सरस्वती के संगम है। । इस राजनीतिक मोर्चे से जुड़े नेता क्रमशः "चौधरी यदुनंदन प्रसाद मेहता" "सरदार जगदेव सिंह यादव"," और "डॉ। शिवपूजन सिंह" कोइरी , यादव और कुर्मीयो के जातिय नेता थे। त्रिवेणी संघ केवल एक राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य समाज के सभी रूढ़िवादी तत्वों को दूर करना था, जो उच्च जाति के जमींदारों और पुरोहित वर्ग द्वारा समर्थित थे। अरजक संघ संगठन भी इस क्षेत्र में सक्रिय था, जो इन मध्यवर्ती जातियों द्वारा बनाया गया था। । इसके अलावा, यदुनंदन प्रसाद मेहता और शिवपूजन सिंह ने भी प्रसिद्ध जनेऊ अंदोलन में भाग लिया था, जिसका उद्देश्य "पवित्र धागा" पहनने के लिए पुजारी वर्ग के एकाधिकार को तोड़ना था। "यदुनंदन प्रसाद मेहता" ने 1940 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की टिकट नीति को उजागर करने के लिए त्रिवेणी संघ का बिगुल नामक एक किताब भी लिखी थी, जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर पिछड़ों के खिलाफ भेदभाव करने का दावा किया। त्रिवेणी संघ के सदस्यों ने गांधीजी को भी आश्वस्त किया कि स्वतंत्रता की जड़ें समाज के बुद्धिजीवी और उच्च वर्ग के बजाय उनमें निहित हैं।
बाद में 1980 में ये तीन जातियां फिर से एक हुई और सफतापूर्वक राजनीति में अपना प्रभाव स्थापित किया।व्यक्तिगत टकराव की वजह से कोइरी कुर्मी जाति के नेता यादवों से अलग हुए और दो प्रमुख राजनीतिक दल जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल का निर्माण हुआ। .कोइरी जाति के नेता बी पी मौर्य उत्तर प्रदेश की राजनीति के पुरोधा रहे है।उन्हें अपनी जाति के साथ साथ दलित वर्ग का भी समर्थन प्राप्त था। बिहार के राजनीतिक इतिहास में बाबू जगदेव प्रसाद का भी खासा नाम रहा है जो कोइरी समुदाय से ही थे उन्हें बिहार के लेनिन के नाम से जाना जाता है। 

सामाजिक स्थिति

1896 में कोइरी की आबादी लगभग 1.75 मिलियन थी। वे बिहार में बहुत थे, और उत्तर पश्चिमी प्रांतों में भी पाए जाते थे। आनंद यांग द्वारा तैयार सारणीबद्ध आंकड़ों के अनुसार, 1872 और 1921 के बीच उन्होंने सारण जिले में लगभग 7% आबादी का प्रतिनिधित्व किया। बिहार के सारण जिले में आनंद यांग द्वारा किए गए ब्रिटिश राज के दौरान अध्ययन से पता चला कि कोइरी केवल राजपूतों और ब्राह्मणों के बाद प्रमुख भूस्वामियों में से थे। उनके अनुसार, राजपूत (24%), ब्राह्मण (11%) और कोइरी (9%) पासी और यादवों के लगभग बराबर, क्षेत्र पर काम करते थे। जबकि भूमिहार और कायस्थ जैसे अन्य लोग अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर काम करते थे। 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के बाद, कोइरी, कुर्मी और यादव जैसी मध्यम जातियों की पहली जीत जमींदारी प्रथा का उन्मूलन और भूमि की आकार को ठीक करना था। उच्च जाति खुद को जमींदार मानती थी और अपने विशाल क्षेत्रों में काम करना उनके लिए सम्मान की हानि थी। किसान जातियों में ऐसा कोई रूढ़िवादी नहीं था जिसके बजाय उन्होंने अपनी किसान पहचान पर गर्व किया। इन तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों ने धीरे-धीरे अपनी जमींदारी को बढ़ाया और उच्च जातियों की कीमत पर अन्य व्यवसायों में भी अपने पदचिन्हों को बढ़ाया। वे "'उच्च वर्गीय पिछड़े'" के रूप में माने जाते हैं, चूंकि वे यादव और कुर्मी जातियों के साथ बिहार की राजनीति में प्रमुख हैं। जमींदारी उन्मूलन के बाद, उन्होंने अपनी जमींदारी को भी बढ़ाया. वे बिहार राज्य के दो महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों यानी जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी में प्रमुख भूमिका में हैं।


कोइरी जाति की वर्तमान परिस्थिति

भारत सरकार के सकारात्मक भेदभाव की प्रणाली आरक्षण के अंतर्गत इन्हें बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. बिहार और उत्तर प्रदेश में इनकी बहुतायत आबादी है. बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में कोइरी समाज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आगरा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर तक फैला हुआ है. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, गाजीपुर, वाराणसी, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, मिर्जापुर, बस्ती, बलिया, महाराजगंज, प्रयागराज और कुशीनगर जिलों में इस समाज की अच्छी खासी आबादी है. इन क्षेत्रों में यह राजनीतिक रूप से मजबूत हैं और हार और जीत का निर्णय करते हैं. बिहार में इनकी अनुमानित आबादी 7-8% है. राज्य के लगभग हर जिले में इनकी अच्छी खासी आबादी है. राज्य में मुसलमानों (17%), दलितों (15%) और यादवों (14 %) के बाद यह चौथा सबसे बड़ा जाति समूह है. राजनीतिक जानकारों के अनुसार, बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 15 से 20 पर उनका दबदबा है.भारत के बाहर, मॉरीशस और नेपाल में भी इनकी महत्वपूर्ण आबादी है. अधिकांश कोइरी हिंदू धर्म का पालन करते हैं. यह हिंदी, भोजपुरी और नेपाली भाषा बोलते हैं. यह कई उपनाम का प्रयोग करते हैं. कोइरी समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला प्रमुख उपनाम है- शाक्य सैनी, मेहता, मौर्य, रेड्डी, महतो, वर्मा और कुशवाहा.
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13.3.25

बेलदार समाज का इतिहास /History of Beldar samaj

 बेलदार समाज का इतिहास विडिओ 





महाराणा प्रताप जी के गुप्तचर के रूप मे बेलदार जाती को जाना जाता है बेलदार' एक ऐतिहासिक रूप से हिंदू/राजपुत जाति है जो मूल रूप से उत्तरी भारत से है और अब देश के कई अन्य हिस्सों में निवास करती है |
बेलदार जाति बिहार में लोनिया (चौहान), बिंद, बेलदार और नोनिया समुदाय से संबंधित है।
 2022 के सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में नोनिया जाति की जनसंख्या 25 लाख है। बेलदार जाति की जनसंख्या लगभग 5 लाख है।
 यह समुदाय पारंपरिक रूप से उत्तर भारत के मूल निवासी हैं, और ओढ़ समुदायों के समान हैं, जो पश्चिम भारत के मूल निवासी हैं। 
वे केवट समुदाय के साथ भी समान वंश का दावा करते हैं, जो खुद को ओढ़ के रूप में संदर्भित करते हैं।महाराष्ट्र में, बेलदार मुख्य रूप से औरंगाबाद, नासिक, बीड, पुणे, अमरावती, अकोला, यवतमाल, अहमदनगर, शोलापुर, कोल्हापुर, सांगली, सतारा, रत्नागिरी और मुंबई शहर के जिलों में पाए जाते हैं। 
बेलदार लगभग पाँच शताब्दियों पहले राजस्थान से आकर बसने का दावा करते हैं। यह समुदाय पूरी तरह से अंतर्जातीय विवाह करता है, और इसमें कई बहिर्जातीय कबीले शामिल हैं।
 उनके मुख्य वंश चपुला, नरोरा, हैं 
 वे राज्य द्वारा सड़कों के निर्माण में नियोजित हैं। आम तौर पर, पूरे परिवार निर्माण उद्योग में भाग लेते हैं। कई बेलदार खानाबदोश हैं, जो निर्माण स्थलों पर काम की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं। कुछ बेलदार फल और सब्ज़ियाँ बेचने का काम भी करते हैं 
बेलदारों का काम ज़मीन खोदना, जोतना, कुआं खोदना, खनन करना वगैरह होता है. बेलदारों को अकुशल मज़दूर भी कहा जाता है.
 यह समुदाय पूरी तरह से भूमिहीन है. पारंपरिक रूप से यह राजमिस्त्री का काम करते हैं. जीवन यापन के लिए यह फल और सब्जी बेचने तथा ईट भट्ठों में भी काम करते हैं. उत्तर प्रदेश में यह अभी भी मुख्य रूप से अपने राजमिस्त्री का काम करते हैं और निर्माण उद्योग (Construction Industry) में कार्यरत हैं. महाराष्ट्र में यह राजमिस्त्री के साथ-साथ काफी संख्या में ईट भट्ठों में ईट बनाने का कार्य करते हैं. 
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में इन्हें अनुसूचित जाति (Scheduled Caste, SC) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 
. बेलदार समुदाय के लोग यह दावा करते हैं कि लगभग 5 शताब्दी पहले वह राजस्थान से आकर महाराष्ट्र में बस गए. बेलदार समाज अनेक कुलो में विभाजित है, जिनमें प्रमुख हैं-खरोला, गोराला, चपुला, छपावर, जेलवार, जाजुरे, नरौरा, तुसे, दवावर, पन्नेवार, फातारा, महोर, बसनीवार, बहर होरवार और उदयनवार. यह हिंदी, मराठी और बेलदारी भाषा बोलते हैं. आपस में यह बेलदारी भाषा बोलते हैं, जबकि बाहरी लोगों के साथ मराठी और हिंदी भाषा बोलते हैं.
बेलदारों के कई बहिर्विवाही गोत्र हैं जैसे हसु, मंगरिया, मुरही, बेहतर, गोंड, जीबुटट, कंटियाल आदि.
बेलदारों के अपने लोकगीत और लोक-कथाएँ हैं.
बेलदारों की मुख्य दो भाषाएँ कन्नड़ और हिन्दी हैं.
वर्तमान हिन्दू समाज मे बेलदार  जाति व्यवस्था के चौथे स्तर अर्थात  शूद्रों का हिस्सा हैं.
बेलदारों की कई ज़रूरतें हैं, जैसे कि अच्छे स्कूल, नए काम के कौशल सीखने की ज़रूरत, आधुनिक चिकित्सा तक पहुँच की ज़रूरत.
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12.3.25

भारतीय उपमहाद्वीप का इस्लामी इतिहास/Muslim history of Indian sub continent

भारतीय उपमहाद्वीप का इस्लामी इतिहास का विडियो :डॉ.आलोक 


इस्लाम भारतीय उपमहाद्वीप का एक प्रमुख मजहब हैं।  इस्लाम का व्यापक फैलाव सातवी शताब्दी के अंत में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण और बाद के मुस्लिम शासकों के द्वारा हुआ। इस प्रान्त ने विश्व के कुछ महान इस्लामिक साम्राज्यों के उत्थान एवं पतन को देखा है। सातवी शतब्दी से लेकर सन १८५७ तक विभिन्न इस्लामिक साम्राज्यों ने भारत, पाकिस्तान एवं दुसरे देशों पर गहरा असर छोड़ा है।

इस्लामी शासकों और इस्लामी आक्रमणकारियों के कारण भारतीय महाद्वीप को अनेक प्रकार से क्षति हुई। पूरा भारतीय समाज लगभग १००० वर्ष तक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता रहा और अन्ततः सफल हुआ। किन्तु १००० वर्षों में भारत धीरे-धीरे पश्चिमी दुनिया की तुलना में ज्ञान-विज्ञान में पिछड़ गया।

भारत में इस्लाम धर्म का प्रवेश 7वीं शताब्दी में हुआ था. अरब व्यापारियों के ज़रिए यह धर्म भारत आया था. इस्लाम धर्म के आने के बाद, भारत में कई मुस्लिम साम्राज्य बने.
इस्लाम के प्रवेश के पहले बोद्ध एवं हिंदू धर्म उपमहाद्वीप के प्रमुख धर्म थे। मध्य एशिया और आज के पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में बोद्ध धर्म शताब्दियों से फल फूल रहा था। खास कर के सिल्क रुट या रेशम मार्ग के किनारे इसका व्यापक फैलाव था।

सिन्ध प्रान्त

छठवी शतबदी के प्रारम्भ में सिंध फारस साम्राज्य के आधीन था। सन ६४३ में रशिदुन साम्राज्य ने अपने इस्लामिक राज्य के विस्तार के लिए सात सेनाएं साम्राज्य के सात कोनो में भेजी। इसमे से एक सेना फारस सामराज्य से सिंध प्रान्त के कुछ भाग को जीत कर लौटी। इस्लामिक सेनाएं सबसे पहले खलीफ उमर के नेतृत्व में सन ६४४ में सिंध पहुची. सन ६४४ में ही हाकिम इब्न अम्र, शाहब इब्न मखारक और अब्दुल्लाह इब्न उत्बन की सेन्य टुकडियों ने सिन्धु नदी के पश्चिमी किनारे पर एक युद्ध में सिंध के राज रसील के ऊपर विजय प्राप्त की। खलीफ उमर के शासन में सिन्धु नदी ही रशिदुन साम्राज्य की सीमा बन गई और इस्लामिक साम्राज्य उसके पार नहीं आया। खलीफ उमर की मृत्यु के पश्चात फारस साम्राज्य के अन्य प्रान्तों की तरह सिंध में भी विद्रोह हो गया। नए खलीफ उस्मान ने भी सिंध की दयनीय हालत को देखते हुए सेना को सिन्धु नदी को पार न करने का आदेश दिया। बाद के खलीफ अली ने भी सिंध के अन्दर प्रवेश करने में कोई ख़ास रूचि नहीं दिखाई।    

  बलूचिस्तान प्रान्त

सन ६५४ तक बलूचिस्तान का वह भाग जो की आज के पाकिस्तान में हैं रशिडून साम्राज्य के अन्दर आ गया था। खलीफ अली के समय तक पूरा बलूचिस्तान प्रान्त रशिडून साम्राज्य के आधीन हो चूका था। बाद के सत्ता संगर्ष में बलूचिस्तान में एक साम्राज्य शासन नहीं रहा।
ऐतिहासिक इस्लामी दस्तावेज फतह-नामा-सिंध के अनुसार सन ७११ में दमस्कुस के उम्म्यद खलीफ ने सिंध एवं बलूचिस्तान के लिए दो असफल अभियान भेजे। इन अभियानों का उद्देश्य देय्बुल (आज के कराची के नजदीक) के निकट समुंदरी लुटेरे जो की अरबी व्यपारी जहाजों को लूट लेते थे उन्हें सबक सिखाना था। यह आरोप लगाया गया की सिंध के राजा आधीर इन लुटेरो को शरण दे रहे थे। तीसरे अभियान का नेतृत्व १७ साल के मुहम्मद बिन कासिम के हाथों में था उसने सिंध एवं बलूचिस्तान को जीतते हुए उत्तर में मुल्तान तक आपना राज्य स्थापित किया। सन ७१२ में कासिम की सेना ने आज के हैदराबाद सिंध में राजा दाहिर की सेना के ऊपर विजय प्राप्त की।
कुछ ही सालों में कासिम को बग़दाद वापस भेज दिया गया जिसके बाद इस्लामी साम्राज्य दक्षिण एशिया में सिंध और दक्षिणी पंजाब तक ही सिमित रह गया
अरब मुस्लिमों एवं बाद के मुस्लिम शासकों के सिंध एवं पंजाब में आने से दक्षिण एशिया में राजनेतिक रूप से बहुत बड़ा परिवर्तन आया और जिसने आज के पाकिस्तान एवं उपमहाद्वीप में इस्लामी शासन की नींव रखी।
भारत में इस्लाम धर्म के आने का इतिहास:
अरब व्यापारी सातवीं शताब्दी में भारत आए और मालाबार तट पर बस गए.
अरब व्यापारियों ने ही भारत में पहली मस्जिद बनवाई थी.
मोहम्मद बिन कासिम ने 712 ईस्वी में भारत पर पहला सफल आक्रमण किया था.
11वीं-12वीं शताब्दी में गजनवी और घुरिदों के आक्रमण के बाद इस्लाम पंजाब और उत्तर भारत में पहुंचा.
मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की.
इसी दौरान फारस से कई मुसलमान भारत आए और यहां बस गए.
भारत में ज़्यादातर मुसलमान सुन्नी हैं.
भारत में शिया मुस्लिम आबादी का लगभग 15% हिस्सा है.
भारत में इस्लाम धर्म और संस्कृति का प्रसार गुलाम वंश की स्थापना के बाद बढ़ा.
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10.3.25

जांगिड़ ब्राह्मणों की उत्पत्ति और गौरवशाली इतिहास | History of Jangid Brahman caste

जांगिड़ ब्राह्मणों की उत्पत्ति और गौरवशाली इतिहास विडिओ 




भारत एक बहुत बड़ा देश है. जहां विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं. इन सबसे ही समाज का निर्माण होता है. सभी धर्म और जातियों का अपना अपना पुराना इतिहास रहा है. जांगिड़ ब्राह्मण समाज का भी अपना एक पुराना इतिहास रहा है. जांगिड़ समुदाय भारत में ब्राह्मण जाति से संबंधित है. स समुदाय के लोग बढ़ईगीरी और फर्नीचर से संबंधित व्यवसाय से जुड़े हुए होते हैं. इसके अलावा जांगिड़ ब्राह्मण समुदाय पेंटिंग और सजावटी मूर्तियों को बनाने का काम भी करते हैं.
जांगिड़ जाति ब्राहमण जाति हैं और यह जाति अंगिराऋषि  से संबंधित हैं । दिग्विजयी प्रतापी होने के कारण वह जांगिड़ कहलाये । अंगिरा ऋषि के आश्रम जांगल देश मे थे इसलिये अंगिरस स्थान जांगिड कहलाया है । आदि शिल्पाचार्य भुवन पुत्र विश्वकर्मा अंगिराऋषि के वंश के होने के कारण जंगिड़  कहलाये।
 मान्यता है कि अगिराऋषि आपने आश्रम में रहते थे तथा उनका आश्रम जांगल देश में था, जिसके कारण अंगिरा ऋषि की संतान स्थान के नाम के आधार पर जांगिड कहलाए. 
इसके अलावा ऐसी भी मान्यता है कि आदि शिल्पाचार्य भुवन पुत्र विश्वकर्मा देवों के शिल्पी होने के कारण जांगिड़ कहलाये. 
कुछ लोगों द्वारा जांगिड़ समाज के ब्राह्मण होने पर सवाल भी उठाए जाते हैं, लेकिन ऐसे कई प्रमाण है जिनसे पता चलता है कि जांगिड़ समाज ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखता है. 
जांगिड़ ब्राह्मणों का इतिहास ब्रह्मर्षि अंगिरा से जुड़ा है. ये ब्राह्मण समुदाय की एक उपजाति है. 
जांगिड़ ब्राह्मण, भारत के हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, चंडीगढ़, गुड़गांव, नोएडा, जम्मू-कश्मीर, और पंजाब में पाए जाते हैं.
ये लोग ब्राह्मण बनने की भी कोशिश करते हैं तथा आरक्षण का भी लाभ लेना चाहते हैं।
सुथार जाति के लोग जांगिड़ ब्राह्मण नहीं होते. हालांकि, सुथार जाति के लोग अपने आप को जांगिड़ घोषित कर लेते हैं
जांगिड़ समाज के कई गोत्र हैं, जिनमें से एक गोत्र कुलरिया है. कुलरिया गोत्र की कुलदेवी मां चामुंडा हैं.
जांगिड़, भारत का एक ब्राह्मण समुदाय है. ये ब्रह्मर्षि अंगिरा की संतान हैं. जांगिड़ समाज के लोग वास्तुशिल्प कार्य, लकड़ी के काम, जहाज़ निर्माण, और लकड़ी के फ़र्नीचर बनाने में विशेषज्ञ हैं. आजकल, जांगिड़ समाज के लोग पेंटिंग के लिए भी जाने जाते हैं.
आमतौर पर गांव में इनके व्यवसाय को खाती के नाम से भी जाना जाता है. कुछ लोगों का मानना है कि खाती एक जाति होती है. लकड़ी के व्यवसाय से जुड़ा होने के कारण जांगिड़ समुदाय को खाती भी कहा जाता है. लेकिन खाती शब्द जाति से संबंधित ना  होकर व्यवसाय से संबंधित माना जाता है.
जांगिड़ समाज के लोग, विश्वकर्मा समुदाय की श्रेष्ठ जातियों में गिने जाते हैं.
जांगिड़ समाज के लोग, पूरे उत्तर भारत में पाए जाने वाले अन्य ब्राह्मण समुदायों के समान हैं.
जांगिड़ ब्राह्मणों के कई गोत्र हैं, जिनमें से कुछ ये हैं: भारद्वाज, अत्रि, वत्स, गौतम. 
जांगिड़ मूल रूप से बढ़ई को ही कहते हैं इनको  हरियाणा में धीमान बढ़ई के नाम से जाना जाता है
जांगड़ा ब्राह्मणों ने वेद पढ़ने और मंदिरों में पूजा करने जैसे ब्राह्मणों के पारंपरिक काम  के बजाय कृषि, इंजीनियरिंग, बढ़ईगीरी, पेंटिंग आदि जैसे व्यवसायों को अपनाया था। वे अन्य ब्राह्मण समुदायों की तरह जनेऊ नामक पवित्र धागा पहनते हैं और वृंदावन के मंदिरों में शिक्षा और दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं जहां केवल ब्राह्मणों को शिक्षा दी जाती है। जिन जांगड़ा ब्राह्मणों को वेदों, पुराणों का ज्ञान है, वे अपने नाम के आगे पंडित भी लगाते हैं। वे भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते हैं और इसलिए कभी-कभी वे विश्वकर्मा या विश्व ब्राह्मण या खाती के सरनेम से भी जाने जाते हैं

जांगिड़ समाज की कुलदेवी कौन हैं?

जांगिड़ समाज की कुलदेवी मां चामुंडा हैं. जांगिड़ समाज के कुलरिया गोत्र की कुलदेवी मां चामुंडा हैं. जैसलमेर ज़िले के गोगादे गांव के पास मां चामुंडा का मंदिर है
जांगिड़ ब्राह्मणों के लिए अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा का गठन किया गया था. इसकी शुरुआत डॉ. इंद्रमणि शर्मा ने की थी.
 जंगिड़  ब्राह्मण लोगों मे निम्न विशेषताएं आम तौर पर उल्लेखनीय हैं 
चोरी नहीं करते
देशद्रोह नहीं करते
अपराधों में संलिप्त नहीं रहते
गुण्डागर्दी नहीं जानते
मेहनत करके खाते हैं
कभी अपने धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म नहीं अपनाया
ई समाज मे पैसे की या योग्यता की कोई कमी नहीं है 
भारत 7.5 करोड़ जांगिड़ हैं। यह संख्या बहुत बड़ी है।
Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे।

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जैन धर्म की उत्पत्ति और गौरव शाली इतिहास ?History of origin of Jain Dharm

जैन धर्म में राम कौन हैं?

राम जैन धर्म में 63 शलाका पुरुषों (अत्यधिक पूजनीय) में से एक हैं। जैन धर्म में राम को आठवां बलभद्र माना जाता है। रावण और लक्ष्मण के बीच युद्ध के बाद, राम एक जैन ऋषि बन गए। और अंततः राम को महाराष्ट्र के तुंगीगिरी में निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हुआ, जैसा कि रामायण के निर्वाण कांड में वर्णित है

जैन धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार कौन सा है?

पर्युषण पर्व जैनियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है।

महावीर जी के गुरु कौन थे?

सच तो यह है कि महावीर जैन जी ने कोई गुरु नहीं बनाया। उन्होंने किसी से दीक्षा नहीं ली तथा मनमानी पूजा करते थे। यह पूजा पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में मना की गई है।

जैन धर्म में महिलाओं की क्या स्थिति है?

जैन दर्शन में नारी के माता के रूप को सम्मान प्राप्त था। इस दर्शन में 24वें तीर्थंकरों में से 19वें तीर्थंकर के रूप में मल्लीनाथ नामक स्त्री का नाम लिए जाता था। वही दूसरी ओर नारी को काम वासना का साधन और मोक्ष प्राप्ति मे बाधक बताते हुए त्यागने योग्य भी कहा गया है

क्या जैन हिंदू भगवान को मानते हैं?

हिन्दु धर्म भगवान के अवतारवाद को मान्य करता है और उन्हींको सृष्टि का रचियता मानता है। इनकी पूजा पद्धति जैनों से अलग प्रकार की है। जैन अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। जैन दर्शन के अनुसार एक बार सभी कर्मो का क्षय करके कोई भी भगवान बन सकता है
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