30.6.16

स्वामी विवेकानन्द के आदर्श वचन

*उठो, जागो और तब तक रुको नहीं जब तक मंज़िल प्राप्त न हो जाये।
*जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो - उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो - वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।
*तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।
*ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्धि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं - इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।
*ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।
*मानव - देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव - देह तथा इस जन्म में ही *हम इस सापेक्षिक जगत से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं - निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।
*जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हज़ारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
*जो महापुरुष प्रचार - कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है - अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत को शिक्षा प्रदान करता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।
*मुक्ति - लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है ? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।

*मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो - उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।
*पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।
*सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र - सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
*सन्न्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु सन्न्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। सन्न्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे - धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।
*हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वान! डरो मत; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मैं तुम्हें दिखाता हूँ!
*बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे - मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो - यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं - इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
*किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
*लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युगमे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
*वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिद्धि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो - व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं।
*मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना। इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।
*जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों- दो क्यों न रहें- परवाह नहीं परन्तु जितने हों, सम्पूर्ण शुद्धचरित्र हों।
*शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष, निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो - सारा धर्म इसी में है।
*शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का
अध्ययन मन लगाकर करो।
*बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु - प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी।
'जब तक जीना, तब तक सीखना' - अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
*जिस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, क्योंकि अनन्त काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है एवं सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है।
पवित्रता, दृढता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ।
*'पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न' के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं।

*साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना - यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे - माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे।
*बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरु में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है।
महाशक्ति का तुममें संचार होगा - कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ।
*बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही।
धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लड़ो! रुपये - पैसे के व्यवहार में शुद्ध भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हें सफलता मिलेगी।
*जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः।
*ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो - संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो।
पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे *बढ़ो, तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।
*यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।
*यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
*गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है।
*बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरु तथा ईश्वर में विश्वास - ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी - तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।
*किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है।
*किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
*क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खडा होकर कार्य करना चहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
*आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ - इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।
*न टालो, न ढूँढों - भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेजें, उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है।
शक्ति और विश्वास के साथ लगे रहो। सत्यनिष्ठा, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लडो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है।
*एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे।

*मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।
*जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी (श्री रामकृष्ण के वाणी) के बीच पूर्ण रूप से निमग्न पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शान्ति की वर्षा करने वाली है, तो मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगता है। ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की बात है।
'*बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए' - यहि मेरा धर्म है। "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः - यही मेरा धर्म है।"
*हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है - उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते हैं। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।
*यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्त्व नहीं देंगे, किन्तु ज्यों ही तुम उस कार्य को बन्द कर दो, वे तुरन्त (ईश्वर न करे) तुम्हें बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे - स्नेहियों द्वरा सदा ठगे जाते हैं।
*न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुद्ध जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म - साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होंने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होंने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्र ब्रह्मानुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए 


पर्याप्त होंगे।
*यही रहस्य है। योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, "जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसी का प्रचार करना है। जगत में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता।
*जो सबका दास होता है, वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है।
*अकेले रहो, अकेले रहो। जो अकेला रहता है, उसका किसी से विरोध नहीं होता, वह किसी की शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है।
*मेरी दृढ़ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है?
तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कूद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उद्धार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नहीं चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो। इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दुनिया को छान डालो! अफ़सोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते
श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। - प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनिया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फ़तह! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले! ....बड़े - बड़े बह गये, अब गड़रिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) ...धीरे - धीरे सब होगा।
*मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसी को श्री
रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषयों में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है - "हाथी चले बाज़ार में, कुत्ता भोंके हज़ार, साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता।
*अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा - ठहरो - धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है - तुमसे कहता हूँ देखना - कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो - बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दूसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनका ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बड़े-बड़े जहाज़ डूब जाते हैं पूरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उनकी कृपा से सब ठीक हो जायेगा।
*नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त:करण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो - प्राणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते - यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चों, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।

यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है - वह कितना ही फटा - पुराना क्यों न हो - तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड़म्बना की बात क्या हो सकता है?
*प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफ़ान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता।
*मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन, जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? ... जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवास करने वालों, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालों, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृद्धिगत कूडा - कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करने वाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? ...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी-गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी - जान से तडप रहे हो - यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्त्वाकांक्षा है। जिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्ड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ' रोटी दो, रोटी दो ' चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड - मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनों। *कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखों, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? यदि 'हाँ' तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखों; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है -- मस्तिष्क वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है...
*एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है - वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यदृष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म - जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, केवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया।
*वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज़्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडों कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम ! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतीक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो।[2]
*हर अच्‍छे, श्रेष्‍ठ और महान कार्य में तीन चरण होते हैं, प्रथम उसका उपहास उड़ाया जाता है, दूसरा चरण उसे समाप्‍त या नष्‍ट करने की हद तक विरोध किया जाता है और तीसरा चरण है, स्‍वीकृति और मान्‍यता, जो इन तीनों चरणों में बिना विचलित हुये अडिग रहता है, वह श्रेष्‍ठ बन जाता है और उसका कार्य सर्व स्‍वीकृत होकर अनुकरणीय बन जाता है।








स्वामी विवेकानन्द  का अमेरिका के शिकागो शहर मे  भाषण का विडियो

आचार्य श्री राम शर्मा के उपदेश वचन



आचार्य श्रीराम शर्मा के उपदेश

*इस संसार में प्यार करने लायक़ दो वस्तुएँ हैं-एक दुख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।
संपदा को जोड़-जोड़ कर रखने वाले को भला क्या पता कि दान में कितनी मिठास है।
*जीवन में दो ही व्यक्ति असफल होते हैं- एक वे जो सोचते हैं पर करते नहीं, दूसरे जो करते हैं पर सोचते नहीं।
*मानसिक बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है कि हृदय को घृणा से और मन को भय व चिन्ता से मुक्त रखा जाय।
मनुष्य कुछ और नहीं, भटका हुआ देवता है।
*असफलता यह बताती है कि सफलता का प्रयत्न पूरे मन से नहीं किया गया।
*जैसी जनता, वैसा राजा। प्रजातन्त्र का यही तकाजा॥
*केवल वे ही असंभव कार्य को कर सकते हैं जो अदृष्य को भी देख लेते हैं।
*नहीं संगठित सज्जन लोग। रहे इसी से संकट भोग॥
*मनुष्य की वास्तविक पूँजी धन नहीं, विचार हैं।
*प्रज्ञा-युग के चार आधार होंगे - समझदारी, इमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी।
*मनःस्थिति बदले, तब परिस्थिति बदले।
*संसार का सबसे बडा दिवालिया वह है जिसने उत्साह खो दिया।
*समाज के हित में अपना हित है।
*सुख में गर्व न करें, दुःख में धैर्य न छोड़ें।
*उसी धर्म का अब उत्थान, जिसका सहयोगी विज्ञान॥
*बड़प्पन अमीरी में नहीं, ईमानदारी और सज्जनता में सन्निहित है।
*जो बच्चों को सिखाते हैं, उन पर बड़े खुद अमल करें तो यह संसार स्वर्ग बन जाय
*विनय अपयश का नाश करता हैं, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अंत करता है।
*जब तक व्‍यक्ति असत्‍य को ही सत्‍य समझता रहता है, तब तक उसके मन में सत्‍य को जानने की जिज्ञासा उत्‍पन्‍न नहीं होती है।
*अवसर तो सभी को जिन्‍दगी में मिलते हैं, किंतु उनका सही वक्‍त पर सही तरीके से इस्‍तेमाल कुछ ही कर पाते हैं।
वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है ।
धनवान नहीं चारित्र्यवान ही सुख पाते है ।
विकास की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य के अहंकारपूर्ण विचार है ।
बहादुरी का अर्थ है – हिम्मत भरी साहसिकता, निर्भिकता, पुरुषार्थ परायणता ।
स्वाध्याय और सत्संग में जितना अधिक समय लगाया जाता है, उतनी ही कुविचारो से सुरक्षा बन पड़ती है ।
: आचार्य सफलताये अपने ही पुरुषार्थ और परिश्रम का फल होती है ।
आत्म प्रशंसा तथा बडबोलेपन में लगा मनुष्य कोई ठोस कार्य नहीं कर सकता ।
: तीव्र इच्छाशक्ति के बिना कोई महत्वपूर्ण वस्तु प्राप्त नहीं होती ।
असफलता केवल यह सिद्ध कराती है कि सफलता का प्रयत्न पुरे मन से नहीं हुआ । :
मनुष्य की दुर्बलता से बढाकर और कोई बुराई नहीं ।











28.6.16

रवीद्र नाथ टैगोर के अनमोल वचन




१*"प्रसन्न रहना बहुत सरल है, लेकिन सरल होना बहुत कठिन है।"
"सिर्फ तर्क करने वाला दिमाग एक ऐसे चाक़ू की तरह है जिसमे सिर्फ ब्लेड है। यह इसका प्रयोग करने वाले को घायल कर देता है।"
"A mind all logic is like a knife all blade. It makes the hand bleed that uses it."-
२*"फूल की पंखुड़ियों को तोड़ कर आप उसकी सुंदरता को इकठ्ठा नहीं करते। "
"By plucking her petals, you do not gather the beauty of the flower."-e
३*"मौत प्रकाश को ख़त्म करना नहीं है; ये सिर्फ भोर होने पर दीपक बुझाना है।"
"Death is not extinguishing the light; it is only putting out the lamp because the dawn has come."
४* "मित्रता की गहराई परिचय की लम्बाई पर निर्भर नहीं करती।"-
"Depth of friendship does not depend on length of acquaintance."-
५*"प्रत्येक शिशु यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।"
"Every child comes with the message that God is not yet discouraged of man."
६*"जो कुछ हमारा है वो हम तक तभी पहुचता है जब हम उसे ग्रहण करने की क्षमता विकसित करते हैं। "
"Everything comes to us that belongs to us if we create the capacity to receive it."-
७*"आस्था वो पक्षी है जो भोर के अँधेरे में भी उजाले को महसूस करती है।"
"Faith is the bird that feels the light when the dawn is still dark."
८*"वे लोग जो अच्छाई करने में बहुत ज्यादा व्यस्त होते है, स्वयं अच्छा होने के लिए समय नहीं निकाल पाते।"-
"He who is too busy doing good finds no time to be good."-


९*"कलाकार प्रकृति का प्रेमी है अत: वह उसका दास भी है और स्वामी भी।"
१०*"मैंने स्वप्न देखा कि जीवन आनंद है. मैं जागा और पाया कि जीवन सेवा है. मैंने सेवा की और पाया कि सेवा में ही आनंद है."
"I slept and dreamt that life was joy. I awoke and saw that life was service. I acted and behold, service was joy."
११*"यदि आप सभी गलतियों के लिए दरवाजे बंद कर देंगे तो सच बाहर रह जायेगा।"
"If you shut the door to all errors, truth will be shut out.
१२* "कला के मध्यम से व्यक्ति खुद को उजागर करता है अपनी वस्तुओं को नहीं। "
"In Art, man reveals himself and not his objects."-






भगवान बुद्ध के उपदेश




भगवान गौतम बुद्ध प्राणी हिंसा के सख्त विरोधी थे। उन्होंने 'उच्चाशयन, महाशयन' का निषेध किया है, यह सोचकर उस समय षड्वर्गीय भिक्षु सिंहचर्म, व्याघ्रचर्म, चीते का चर्म- इन तीन महाचर्मों को धारण करते थे और चारपाई के हिसाब से भी काटकर रखते थे। चारपाई के भीतर भी बिछाते थे और बाहर भी। लोग देखकर हैरान हुए। भगवान से यह बात कही।
भगवान्‌ बोले- 'भिक्षुओं! महाचर्मों को, सिंह, बाघ और चीते के चर्म को नहीं धारण करना चाहिए। जो धारण करे, उसे दुक्कट (दुष्कृत) का दोष होता है।'
बुद्ध भगवान ने अनेक प्रकार से प्राणी हिंसा की निंदा और उसके त्याग की प्रशंसा की है। उन्होंने कहा है कि कोई भी चर्म नहीं धारण करना चाहिए। जो धारण करे, उसे दुक्कट का दोष होता है।
अहिंसा के बारे में बुद्ध के उपदेश इस प्रकार हैं :-
* जैसे मैं हूँ, वैसे ही वे हैं, और 'जैसे वे हैं, वैसा ही मैं हूं। इस प्रकार सबको अपने जैसा समझकर न किसी को मारें, न मारने को प्रेरित करें।
* जहां मन हिंसा से मुड़ता है, वहां दुःख अवश्य ही शांत हो जाता है।
* अपनी प्राण-रक्षा के लिए भी जान-बूझकर किसी प्राणी का वध न करें।
* मनुष्य यह विचार किया करता है कि मुझे जीने की इच्छा है मरने की नहीं, सुख की इच्छा है दुख की नहीं। यदि मैं अपनी ही तरह सुख की इच्छा करने वाले प्राणी को मार डालूं तो क्या यह बात उसे अच्छी लगेगी? इसलिए मनुष्य को प्राणीघात से स्वयं तो विरत हो ही जाना चाहिए। उसे दूसरों को भी हिंसा से विरत कराने का प्रयत्न करना चाहिए।

* वैरियों के प्रति वैररहित होकर, अहा! हम कैसा आनंदमय जीवन बिता रहे हैं, वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर विहार कर रहे हैं!
* पहले तीन ही रोग थे- इच्छा, क्षुधा और बुढ़ापा। पशु हिंसा के बढ़ते-बढ़ते वे अठ्‍ठान्यवे हो गए। ये याजक, ये पुरोहित, निर्दोष पशुओं का वध कराते हैं, धर्म का ध्वंस करते हैं। यज्ञ के नाम पर की गई यह पशु-हिंसा निश्चय ही निंदित और नीच कर्म है। प्राचीन पंडितों ने ऐसे याजकों की निंदा की है।
पहले ब्राह्मण यज्ञ में गाय का हनन नहीं करते थे। जैसे माता, पिता, भ्राता और दूसरे बंधु-बांधव, वैसे ही ये गाएं हमारी परम मित्र हैं। ये अन्न, बल, वर्ण और सुख देने वाली हैं। किन्तु मनुष्य भोगों को देखकर कालांतर में ये ब्राह्मण भी लोभग्रस्त हो गए, उनकी नियत बदल गई।
मंत्रों को रच-रचकर वे इक्ष्वाकु (ओक्काक) राजा के पास पहुंचे और उसके धन-ऐश्वर्य की प्रशंसा करके उसे पशु-यज्ञ करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने उससे कहा- जैसे पानी, पृथ्वी, धन और धान्य प्राणियों के उपभोग की वस्तुएं हैं, उसी प्रकार ये गाएं भी मनुष्यों के लिए उपभोग्य हैं, अतः तू यज्ञ कर।
तब उन ब्राह्मणों से प्रेरित होकर रथर्षभ राजा ने लाखों निरपराध गायों का यज्ञ में हनन किया, जो बेचारी न पैर से मारती हैं, न सींग से, जो भेड़ की नाई सीधी और प्यारी हैं, और जो घड़ा-भर दूध देती हैं, उनके सींग पकड़कर राजा ने शस्त्र से उनका वध किया। यह देखकर देव, पितर, इंद्र, असुर और राक्षस चिल्ला उठे- अधर्म हुआ, जो गाय के ऊपर शस्त्र गिरा।







20.6.16

वेदों का महत्त्व


वेदों का महत्त्व

                                                           

   
-स्वामी जयदीश्वरानन्द सरस्वती
  जैसे दही में मक्खन, मनुष्यों में ब्राह्मण, ओषधियों में अमृत, नदियों में गंगा और पशुओं में गौ श्रेष्ठ है, ठीक इसी प्रकार समस्त साहित्य में वेद सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।….
  वेद ईश्वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मानवमात्र के कल्याण के लिए दिया गया था। वेद वैदिक-संस्कृति के मूलाधार हैं। वे शिक्षाओं के आगार और ज्ञान के भण्डार हैं। वेद संसाररूपी सागर से पार उतरने के लिए नौकारूप हैं। वेद में मनुष्य जीवन की सभी प्रमुख समस्याओं का समाधान है। वेद सांसारिक तापों से सन्तप्त लोगों के लिए शीतल प्रलेप हैं, अज्ञानान्धकार में पड़े हुए मनुष्यों के लिए वे प्रकाश स्तम्भ हैं, भूले-भटके लोगों को वे सन्मार्ग दिखाते हैं, निराशा के सागर में डूबनेवालों के लिए वे आशा की किरण हैं, शोक से पीड़ित लोगों को वे आनन्द एवं उल्लास का सन्देश प्रदान करते हैं, पथभ्रष्टों को कर्तव्य का ज्ञान प्रदान करते हैं, अध्यात्मपथ के पथिकों को प्रभु-प्राप्ति के साधनों का उपदेश देते हैं। संक्षेप में वेद अमूल्य रत्नों के भण्डार हैं।….
  वेद धर्म की मूल पुस्तक है। वेद वैदिक विज्ञान, राष्ट्रधर्म, समाज-व्यवस्था, पारिवारिक-जीवन, वर्णाश्रम-धर्म, सत्य, प्रेम, अहिंसा, त्याग आदि को दर्पण की भाँति दिखाता है।….
  जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वेद न पढ़कर अन्य किसी शास्त्र वा कार्य में परिश्रम करता है, वह जीते-जी अपने कुलसहित शीघ्र शूद्र हो जाता है।                                                            
(मनु0 २.१६८)

  वेद के मर्मज्ञ और रहस्यवेत्ता महर्षि मनु ने अपने ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर वेद की गौरव-गरिमा का गान किया है। वे लिखते हैं-‘ ‘सर्वज्ञानमयो हि सः।’ वेद सब विद्याओं के भण्डार हैं।                                                      
(मनु. २.७)
वेद में कौन-कौन से विज्ञान भरे हुए हैं?    
  वेद पितर, देव और मनुष्य सबके लिए सनातन मार्गदर्शक नेत्र के समान है। वेद की महिमा का पूर्णरूपेण प्रतिपादन करना अथवा उसे पूर्णतया समझना अत्यन्त कठिन है। चारों वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम, भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। यह सनातन (नित्य) वेदशास्त्र ही सब प्राणियों का धारण और पोषण करता है, इसलिए मैं इसे मनुष्यों के लिए भवसागर से पार होने के लिए परम साधन मानता हूँ।                                                        
(मनु. १२.९४.९७.९९)
मनुजी ने तो यहाँ तक लिखा है-तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करे, वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है।
(मनु0 २.१६६)
‘जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता है, वह नरक (दुःखविशेष) को प्राप्त होता है।’
(मनु0 ६.३७)
‘क्रम से चारों वेदों का, तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके, अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।’                                                                      
(मनु0 ३.२)
आज यदि महर्षि मनु का विधान लागू हो जाए तो सारे विवाह अयोग्य, अनुचित (unfit) हो जाएँ। महर्षि मनु ईश्वर को न माननेवाले को नास्तिक नहीं कहते, अपितु वेदनिन्दक को नास्तिक की उपाधि से विभूषित करते हैं।….
  वैशेषिकदर्शन में कहा है-
  तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।।
                                                                                                        -वै0 १0-१.३
  अर्थात् ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं।
  एक अन्य स्थान पर वेद की महिमा का वर्णन इस प्रकार है।
                                                               
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।
अर्थात् वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है।                                                                                                           
-वै0 ६.१.१
उसमें सृष्टिक्रम-विरूद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं, अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है।
  सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है -
 
  वेद पौरूषेय-पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरूषेयत्व सिद्ध ही है।
                                                                                -सांख्य ५.४६
                                                                               
वेद अपौरूषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।
                                                                                -सांख्य ५.५९
  ….ईश्वर शास्त्र = वेद का कारण है। अर्थात् वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है।
                                                                                -वेदान्त १.१.३
इस सूत्र पर शंकराचार्य का भाष्य पठनीय है। हम यहाँ उसका हिन्दी रूपान्तर दे रहे हैं-
  ‘ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनानेवाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके ऐसा सम्भव नहीं है।’ ….
       
  मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है-
चोदनालक्षणोर्थो धर्मः।।
  अर्थात् जिसके लिए वेद की आज्ञा हो, वह धर्म और जो वेदविरूद्ध हो वह अधर्म है।
                                                                                -मीमांसा १.१.३
नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्।।
  अर्थात् शब्द नित्य है, नाश रहित है, क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है, वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता।
-मीमांसा १.३.१८
इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं।
ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्त्व का प्रदर्शन करनेवाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहाँ हम केवल तैत्तिरीब्राह्मण ३.१0.११.३ की एक आख्यायिका देना पर्याप्त समझते हैं।
  ‘‘ महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ३00 वर्षपर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा-‘‘यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगेॽ भरद्वाज ने उत्तर दिया-मैं उस आयु को भी ब्रह्मण धर्म का पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्ठी भरकर भरद्वाज से कहा-‘‘ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं, इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। ‘अनन्ता वै वेदाः’ वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने ३00 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। ३00 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्ठी ज्ञान प्राप्त किया है।’’
        ब्रह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्त्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है।
        महर्षि वाल्मीकि ने ब्राह्मणों के मुख से वेद का गौरव इस प्रकार व्यक्त कराया है-

या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी।….
-वा0 रा0 अयो0 ५४.२४.२५
  जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर रहे थे, उस समय अनेक ब्राह्मणों ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर श्रीराम से कहा था- हे वत्स ! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की ओर ही लगा रहता था, अब उस ओर न लग आपकी वन-यात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन जो वेद है वह तो हमारे हृदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पतिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी।
रामायण के पश्चात् अब महाभारत में वेद के गौरव-विषयक विचारों का अवलोकन कीजिए। वेद की गौरव-गरिमा का गान करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
‘सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।’
-महा. शान्ति २३२.२४
  अर्थ सहित वेदाध्ययन के महत्तव पर बल देते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
‘जो वेद और शास्त्रों को कण्ठस्थ करने में तत्पर है, परन्तु उनके अर्थ से अनभिज्ञ है, उसका कण्ठस्थ करना व्यर्थ ही है। जो ग्रन्थ के तात्पर्य को नहीं समझता, वह ग्रन्थ को रटकर मानों उसका बोझ ही ढोता है, परन्तु जो अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढ़ता है, उसका पढ़ना ही सार्थक है।’
          -महा. शान्ति ३0५.१३.१४
  इसी तथ्य को महर्षि यास्क ने इस प्रकार प्रकट किया है- स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योडर्थम्।
योडर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमष्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।।                           
  अर्थात् जो मनुष्य वेद पढ़कर उसके अर्थों को नहीं जानता, वह भारवाही पशु अथवा वृक्ष के ठूँठ के समान है, परन्तु जो अर्थ को जाननेवाला है, वह उस पवित्र ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचकर परम पवित्र होता है। वह कल्याण का भागी होता है और अन्त में दुःखरहित मोक्ष-सुख को प्राप्त होता है।
-निरूक्त १.१८
  पाठकगण! इस संदर्भ का यह अर्थ मत लगाइए कि हमें अर्थ नहीं आते, अतः पढ़ने से छुट्टी मिल गई। ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परमधर्म है।’ प्रतिदिन वेदपाठ कीजिए। न पढ़ने से पढ़ना उत्तम है लीजिए इस विषय में महर्षि दयानन्द के विचार पढ़िए-
‘‘अर्थज्ञानसहित पढ़ने से ही परमोत्तम फल की प्राप्ति होती है, परन्तु न पढ़नेवाले से तो पाठमात्र-कर्त्ता भी उत्तम होता है। जो शब्दार्थ के विज्ञानसहित अध्ययन करता है वह उत्तमतर है, जो वेदों का अध्ययन कर उनके अर्थों को जानकर शुभ गुणों का ग्रहण और उत्तम कर्मों का आचरण करते हुए सर्वोपकारी होता है वह उत्तमोत्तम है।’’
                 -ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठनविषयः
पाठकों ने मन्वादिस्मृतियों में, ब्राह्मणग्रन्थों एवं इतिहासग्रन्थों में वेद के गौरव-विषयक विचार पढ़े। अब हम पुराणों के कुछ स्थल प्रस्तुत करना चाहते हैं। पुराण भी वेद की महिमा से भरे हुए हैं। श्रीमद्भागवत का कथन है-
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।
वेदो नारायणः साक्षात्स्वयंभूरिति शुश्रुम।।
        अर्थात् जो वेद में कहा है वही धर्म है और जो वेद के विरूद्ध है वही अधर्म है। वेद साक्षात् नारायणस्वरूप हैं, क्योंकि वे (भगवान् के श्वासमात्र) से स्वयं प्रकट हुए हैं, ऐसा हमने सुना है।
                                                                                -भा0पु0 ६.१.४0
        अब कूर्मपुराण का एक वचन देखिए-
एकतस्तु पुराणानि सेतिहासानि कृत्स्नशः।
एकत्र परमं वेदमेतदेवातिरिच्यते।।
        अर्थात् एक ओर इतिहाससहित सम्पूर्ण पुराण और एक ओर परम वेद-इनमें वेद ही परम हैं, महान् हैं, श्रेष्ठ हैं।
                                                                        -कूर्म0 उ0 ४६.१२९
        देवीभागवत पुराण में वेद का महत्त्व इन शब्दों में प्रकट किया गया है-
सर्वथा वेद एवासौ धर्ममार्गप्रमाणकः….।
        अर्थात् धर्म के विषय में वेद ही प्रमाण है। जो कुछ वेद अविरूद्ध एवं वेदानुकूल है वही प्रामाणिक है, अन्य नहीं। जो वेद को छोड़कर दूसरे ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता है, उसके लिए यमलोक में कुण्ड तैयार हैं, अर्थात् वह यमलोक में जलकुण्डों में गिरता है।
-देवी भाग. ११.१.२६.२७
वेद की महिमा महान् है। मानव बुद्धि और उसका सीमित ज्ञान वेद की महिमा का बखान करने में असमर्थ हैं, अतः अन्त में गरूड़पुराण की सम्मति देकर हम इस प्रसगं को समाप्त करना चाहते हैं।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवः केषवात् परः।।
        अर्थात् मैं दुहाई देकर और भुजा उठाकर सत्य-सत्य कहता हूँ कि वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है और केशव = परमात्मा से बढ़कर कोई देव नहीं है।                            
-गरुड़० बर्० का० १०१ॱ५५

        वेद संस्कृत-साहित्य के मुकुटमणि हैं, वैदिक संस्कृति और सभ्यता का मूलाधार हैं, इसीजिए वैदिक विचारकों ने दर्शन और स्मृतिकारों ने, इतिहास और पुराणकारों ने वेद की महिमा के गीत गाये हैं ऐसा नहीं समझना चाहिए। वेद के वेदत्व और उसकी सर्वागंपूर्णता पर न केवल भारतीय विद्वान अपितु पाश्चात्य जगत् भी मोहित एवं मुग्ध् है। जिन्होंने विमल वैदिक ज्ञान के अन्वेषण में अपना समय, श्रम और शक्ति व्यय की है, उन सभी व्यक्तियों ने वेद के अलौकिक ज्ञान की प्रशंसा की है। यहाँ कुछ सम्तियाँ दी जाती हैं-
        प्रो0 हीरेन  (Prof. Heeren) महोदय लिखते हैं-
       The Vedas stand alone in their solitary splendor serving as beacon of Divine Light for the onword march of humanity.                             
-Historical Researches
         
                अर्थात् जिस प्रकार वेद देदीप्यमान हैं, इस प्रकार अन्य कोई ग्रन्थ नहीं चमकता। वे मनुष्यमात्र की उन्नति और प्रगति के लिए दिव्य प्रकाश स्तम्भ का काम देते हैं।
        लार्ड मोर्ले ने घोषणा की-       
        What is found in the Vedas exists nowhere else.
                                                                   -The Nineteenth Century and after
          अर्थात् जो कुछ वेदों में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है।  १४ जुलाई १८८४ को पेरिस में आयोजित अन्तर्राष्ट्रिय साहित्य संघ (International Literary Association) के समक्ष निबन्ध पढ़ते हुए फ्रांस देशीय विद्वान् लेओ देल्बो (Mons. Leon Delbos) ने कहा था-
The Rigveda is the most sublime conception of the great highway of humanity.
                 -हरिबिलास शारदा लिखित Hindu Superiority
        ….उबिनगन विश्वविद्यालय के प्रो0 पाल थीमा ने २६ वीं अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य सभा (26th International Congress of Orientalists) में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था-
        The Vedas are noble documents-not only of value and pride to India but to the entire humanity because in them we see man attempting to lift himself above the earthly existence.
          अर्थात् वेद वे पवित्र ग्रन्थ हैं जो न केवल भारतवर्ष के लिए अपितु समस्त संसार के लिए मूल्यवान् हैं, क्योंकि हम उनमें मनुष्य को संसारिकता से ऊपर उठने (मोक्ष प्राप्त करने) का यत्न करते हुए पाते हैं।
        प्रसिद्ध आइरिश कवि और दार्षनिक डा0 जेम्स क्युजन अपनी पुस्तक Path to Peace (शान्ति का मार्ग) में लिखते हैं-
        On that (Vedic) ideal alone, with its inclusiveness which absorbs and annihilates the causes of antagonisms, its sympathy which wins hatred away from itself, it is possible to rear a new earth in the image and likeness of the eternal heavens.
अर्थात् उस वैदिक आदर्श का अनुकरण करते हुए ही, जो सार्वभौम होने के कारण विरोध के कारणों को नष्ट करता है, जो सहानुभूति से घृणा को जीत लेता है, यह सम्भव है कि पृथिवी को पुनः स्वर्गधाम बनाया जा सके।
        थ्योरो नामक अमेरिकन विद्वान् के मुख से वेद की महिमा इन शब्दों में निस्सरित हुई थी-
        What extracts from the Vedas, I have read. They fall on me like the light of a higher and purer luminary which describes a loftier course through a purer stratum-free from particulars, simple, universal, the Vedas contain a sensible account of God.
          अर्थात् मैंने वेदों के जो उद्धरण पढ़े हैं, वे मुझपर एक उच्च, पवित्र प्रकाशपुन्ज की भाँति पड़े हैं। वेद एक उत्कृष्ट मार्ग का वर्णन करते हैं। वेदों के उपदेश सरल, सार्वभौम हैं और जाति तथा देश के इतिहास से रहित हैं। उनमें ईश्वर-विषयक युक्तियुक्त विचार हैं।
        श्री डबल्यू0 डी0 ब्राऊन (W.D. Brown) महोदय ने वैदिक धर्म के विषय में निम्न उद्गार व्यक्त किये हैं-   
        It (Vedic Religion) recognizes but one God. It is a thoroughly scientific religion, where religion and science meet hand in hand. Here theology is based upon science and philosophy.
         
        अर्थात् वैदिकधर्म केवल एक ईश्वर का प्रतिपादन करता है। यह एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है, जहाँ धर्म और विज्ञान साथ-साथ चलते हैं। वेदों के धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान और दर्शन पर आधारित हैं।
        वेदों में वैज्ञानिक आविष्कारों की सत्ता स्वीकार करते हुए अमरीकी महिला हृीलर विलौक्स ने लिखा-
        We have all heard and read about the ancient religion of India. It is the land of the great Vedas-the most remarkable works containing not only religious ideas for a perfect life, but also facts which all the science has since proved true. Electricity, Redium, Electorns, Airships all seem to be known to the seers who found the Vedas.
-Sublimity of the Vedas
         
        अर्थात् हमने प्राचीन भारत के धर्म के विषय में पढ़ा और सुना है। यह उन महान् वेदों की भूमि है जो अद्भुत ग्रन्थ हैं। इनमें न केवल जीवनोपयोगी धार्मिक तत्त्वों का ही वर्णन है, अपितु उन तथ्यों का भी प्रतिपादन है, जिन्हें विज्ञान ने सत्य सिद्ध किया है। विद्युत, रेडियम, एलक्ट्रोन्स तथा विमान आदि सभी वस्तुएँ वेदों के द्रष्टा ऋषियों को ज्ञात प्रतीत होती हैं।
        अपने त्रयी-चतुष्टय’में प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् पं0 सत्यव्रत सामश्रमी ने भी लिखा है-‘वेदों में सारे विज्ञान सूक्ष्मरूप से विद्यमान हैं।’
        बड़ौदा में यन्त्रसर्वस्व’नामक एक हस्तलिखित ग्रन्थ मिला है जिसके लेखक महर्षि भरद्वाज हैं। इन ग्रन्थ के ‘‘‘वैमानिक-प्रकरण’ में लिखा कि ‘वेदों के आधार पर ही इस ग्रन्थ को बनाया गया है।’
        प्रसिद्ध पारसी विद्वान् फर्दून दादा चानजी वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
        The Veda is a book of knowledge and wisdom comprising the Book of Nature, the Books of Religion, the Book of Prayers, the Book of Morals and so on. The word ‘ ‘Veda’ means wit, wisdom, knowledge and truly the Veda is condensed wit, wisdom and knowledge.                                                  
- Philosophy of Zoroastrianism
 अर्थात् वेद ज्ञान की पुस्तक है। इसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार आदि विषयों की पुस्तकें सम्मिलित हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान और वस्तुतः वेद ज्ञान-विज्ञान से ओत-प्रोत हैं।
        फ्राँस के प्रसिद्ध विद्वान् वाल्टेयर का मत है-
‘केवल इसी देन (यजुर्वेद) के लिए पश्चिम पूर्व का ऋणी रहेगा।’
        फ्राँस देश के अन्य विद्वान् जैकालियट ने अपने ग्रन्थ The Bible in India में लिखा है-
        Astonishing fact! the Hindu Revelation (Veda) is of all revelations the only one whose ideas are in perfect harmony with Modern Science as it proclaims the slow and gradual formation of the world.                                
-The Bible in India Vol.II
       अर्थात् कितनी आश्चर्यजनक सच्चाई है। सम्पूर्ण ईश्वरीय ज्ञानों में हिन्दुओं का ईश्वरीय ज्ञान वेद ही ऐसा है, जिसके विचार वर्त्तमान विज्ञान से पूर्णरूपेण मिलते हैं, क्योंकि वेद भी विज्ञानानुसार जगत् की मन्द और क्रमिक रचना का प्रतिपादन करते हैं।
        ईसाई पादरी मौरिस फ़िलिप (Rev. Moris Philip) ने भी वेद को ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-
        The conclusion, therefore, is inevitable viz, that the development of religious thought in India has been uniformly downward, and not upward, deterioration and not evolution. We are justified, therefore, in concluding that the higher and pure conceptions of the Vedic Aryans were the results of a primitive Divine Revelation.
                                                                             -The Teachings of the Vedas
                  अर्थात् अतः हमारे लिए इस परिणाम पर पहुँचना अनिवार्य है कि भारत में धार्मिक विचारों का विकास नहीं हुआ, अपितु हृास ही हुआ है, उत्थान नहीं अपितु पतन ही हुआ। इसलिए हम यह परिणाम निकालने में न्यायशील हैं कि वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर् विचार एक प्रारम्भिक ईश्वरीय-ज्ञान का परिणाम थे।
        अन्त में जे0 मास्करों (J.Mascaro M.A) की सम्मति उद्धृत कर हम आगे बढ़ेंगे। वेद की तुलना आत्मा के हिमालय से करते हुए वे लिखते हैं-
        If a Bible of India were compiled …………the Veda the Upanishads and the Bhagvad Gita would rise above the rest like Himalayas of the spirit of man.
                                                                                       -The Himalyas of the Soul
       अर्थात् यदि भारत की कोई बाइबल संकलित की जाए तो उसमें वेद, उपनिषदें और भगवद्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान सबसे ऊपर उठे हुए ग्रन्थ होंगे।
        ये तो हुए कुछ निष्पक्ष विचारकों के निष्पक्ष विचार, परन्तु अनेक पाश्चात्य ईसाई लेखकों ने अपना जीवन और जवानी वेदों के सम्बन्ध में खोज करने में इसलिए लगा दी कि वे वेद के गौरव को नष्ट करके बाइबल के महत्त्व और गौरव को प्रदर्शित कर सकें। ऐसे लेखकों में मैक्समूलर अग्रगण्य है। मैक्समूलर ने ऋग्वेद की भूमिका में स्वयं ही लिखा है कि उन्हें २५ वर्ष तो केवल इसके लिखने में ही लगे, फिर छपवाने में २0 वर्ष और लगे। इस ग्रन्थ को प्रकाशित कराने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने नौ लाख रूपये दिये, किन्तु उससे भी कार्य पूरा नहीं हुआ।
        एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आखिर मैक्समूलर ने यह सब-कुछ क्यों किया? उत्तर है वेद के गौरव और महत्त्व को घटाने के लिए। यह हमारी अपनी कपोलकल्पना नहीं है। यह बात मैक्समूलर के जीवन और पत्रों (Life and Letters of Max Mullar) से सिद्ध है।
        मैक्समूलर राथ का सहपाठी था। अपने गुरू की छाप के अतिरिक्त २८ दिसम्बर १८५५ की मैकाले की भेंट ने भी उस पर पूर्ण प्रभाव डाला था। मैकाले एक घण्टे तक उसे भारत-विरोधी विचार देता रहा। उस भेंट के पश्चात् मैक्समूलर लिखता है-
        I went back to Oxford as a sadder and wiser man.
 अर्थात् मैं गम्भीर और बुद्धिमान् बनकर आक्सफोर्ड वापस लौटा।
        बस, अब क्या था। उसने वेद के विषय में विषवमन करना आरम्भ कर दिया। उसने घोषणा की-
        “Large number of Vedic hymns are childish in extreme, tedious, low, common place.”                        
                   -Chips from a German Workshop
         
        अर्थात् वैदिक सूक्तों की अत्यधिक संख्या बचपन अथवा मूर्खता की पराकाष्ठा से पूर्ण, नीरस और तुच्छ विचारों से भरी है।
        मैक्समूलर ने समय-समय पर अपने मित्रों और सम्बन्धियों को जो पत्र लिखें हैं, उनसे उसके मनोगत विचारों का पता चलता है। यहाँ हम कुछ पत्र उद्धृत करना चाहते हैं।
        १८६६ में उसने अपनी पत्नी को लिखा-
        I hope, I shall finish the work and I feel convinced, though I shall not live to see it, yet this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India and on the growth of their religion and to show them what the root is, I feel sure, it is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.
       अर्थात् मुझे आशा हैं, मैं उस कार्य (वेदों के सम्पादन) को पूर्ण कर दूँगा। यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित नहीं रहूँगा, परन्तु मुझे पूर्ण निश्चय है कि मेरा यह वेदों का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों के आत्मविकास पर एक वज्र-प्रहार होगा। वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को दिखा देना, उससे पिछले तीन सहस्त्र वर्षो में जो कुछ निकला हैं, उसको मूलसहित उखाड़ फेंकने का सबसे उत्तम तरीका है।
        १६ दिसम्बर १८६८ को उसने तत्कालीन भारत के मन्त्री ड्यूक आफ आर्गायल (Duke of Argyle) को लिखा-
        The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be.
          अर्थात् भारत के प्राचीन धर्म का नाश तो अब सुनिश्चित है यदि अब ईसाइयत उसका स्थान ग्रहण न करे तो यह किसका दोष होगा?
        एक पत्र में उसने अपने पुत्र को लिखा-
        Would you say that any one sacred book is superior of all others in the world? It may sound prejudiced but taking all in all, I say the New Testament. After that I should place the Koran, which in its moral teachings is hardly more than a later edition the New Testament, then would follow the Old Testament, the Southern Buddhist Tripitaka, the Laote King of Laotize, the Kings of Confucious, the Veda and the Avesta. There is no doubt however, that the ethical teaching is for more prominent in the Old and New Testament than in any other sacred Book. Therein lies the distinctiveness of the Bible. Other sacred books are generally collections of whatever was remembered of ancient times.
अर्थात् क्या तुम कहोगे कि संसार में कोई ऐसी पवित्र पुस्तक है जो सबसे श्रेष्ठ है? यह बात पक्षपातपूर्ण हो सकती है फिर भी मैं कहूँगा कि नव-व्यवस्था सर्वोत्तम है। उसके पश्चात् मैं कुरआन को रक्खूँगा, जो अपनी सदाचार सम्बन्धी शिक्षाओं में नव-व्यवस्था का ही अनुवाद है। इनके पश्चात् प्राचीन व्यवस्था, तत्पश्चात् बौद्धों का त्रिपिटक, तत्पश्चात् वेद और अन्त में अवेस्ता। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि प्राचीन और नव-व्यवस्था की सदाचार-सम्बन्धी शिक्षाएँ अन्य पवित्र ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसी बात में बाइबल का महत्त्व है। अन्य पवित्र ग्रन्थ तो प्राचीनकाल की स्मृतियों का संकलनमात्र हैं।
        कितने खेद की बात है कि मैक्समूलर ने वेद को बाइबल और कुरआन से भी घटिया बताया है जबकि वेद की तुलना में शेष पुस्तकें नगण्य ही हैं। मैक्समूलर के ये विचार उसकी अज्ञानता के परिचायक हैं। वस्तुतः उसने सभ्यसमाज की दृष्टि में वेदों के महत्त्व को कम करने के लिए ही ऐसे विचार व्यक्त किये हैं।
        मैक्समूलर के एक परम स्नेही ई0बी0 पुसे (E.B.Pussey) ने उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने लिखा-
        “Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India…..”
          अर्थात् आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के प्रयत्न में नवयुग लानेवाला सिद्ध होगा।
        मैक्समूलर की भाँति मोनियर विलियम्स का उद्देश्य भी पवित्र न था। वे अपने संस्कृत-इंगलिश कोष’की भूमिका में लिखते हैं-
        ‘‘ ‘‘मेरे समालोचक और कुछ स्पष्टवादी मित्र इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कोष और व्याकरण लिखने के शुष्क कार्य में क्यों लगाया है? उसके समाधान में मैं कहना चाहूँगा-
        That the special object of his (Boden’s) munificent bequest was to promote the translation of the Scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion……Surely then it need not be thought surprising, if following in the footsteps of my venerated master, I have made it the chief aim of my personal life to provide facilities for the translation of our sacred Scriptures into Sanskrit.
        अर्थात् बोडन महोदय के उदार दान का प्रमुख उद्देश्य ईसाइयों के धर्मग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद कराना था, जिससे उसके देशवासी भारतीयों को ईसाई बनाने में अग्रसर हो सकें। ऐसी स्थिति में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है यदि मैंने अपने आदरणीय स्वामी के पदचिहृों पर चलते हुए अपने जीवन का मुख्योद्देश्य अपने पवित्र ग्रन्थों का संस्कृत अनुवाद करने के साधन जुटाने में लगा दिया है।
        ग्रिफ़िथ महोदय ने चारों वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। उनका उद्देश्य भी वेद के गौरव को बढ़ाना नहीं था। उन्होंने प्रायः सायण, महीधर और उव्वट आदि का ही अनुकरण किया है। उनके अनुवाद को पढ़कर किसी भी व्यक्ति को वेदों के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती। यहाँ दिग्दर्शननार्थ केवल एक मंत्र प्रस्तुत करते हैं।
        ग्रिफ़िथ महोदय ने… मन्त्र (ऋ0 १0.११७.३) का अर्थ इस प्रकार किया है-
I saw the Herdsman, him who never resteth,
Approaching and departing on his path –ways,
He clothed in gathered and diffusive splendor,
Within the worlds continually travels.
       
अर्थात् मैंने एक ग्वाले को देखा जो अपने मार्ग पर आता और जाता हुआ कभी विश्राम नहीं लेता। कभी फटे-पुराने कपड़ों में और कभी सुन्दर वस्त्रों में वह संसार में नित्य गमन करता है।
        ग्रिफिथ महोदय ने पादटिप्पणी में  Herdsman का अर्थ Sun सूर्य दिया है जो तीन काल में भी असम्भव है। गोपा का अर्थ तो सूर्य हो सकता है Herdsman का कदापि नहीं। Herdsman का अर्थ तो ग्वाला ही होगा। यदि हर्डज्मैन का अर्थ सूर्य भी मान लिया जाए तो प्रश्न यह है कि सूर्य के वस्त्र कौन-से हैं?
        वेदों के महत्त्व को कम करने के लिए ही इन ईसाई लेखकों ने इस प्रकार के अर्थ किये हैं। अनेक भारतीय विद्वान् भी उनका अन्धानुकरण करते हैं। वेदों को बच्चों की बिलबिलाहट और गड़रियों के गीत सिद्ध करने के लिए ही ऐसे दूषित अर्थ किये गये हैं। हम इस मन्त्र का ठीक अर्थ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं-
  आत्म-साधना में लीन किसी योगी की घोषणा है-मैंने सीधे और उलटे मार्गों से विचरण करनेवाले अविनाशी, इन्द्रियों के स्वामी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है। वह आत्मा अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम दशाओं को धारण करता हुआ लोकों में बारबार आता रहता है।
        मन्त्र में कितने महान् और उदात्त विचार हैं! गो का अर्थ इन्द्रिय भी होता है। इन्द्रियों को स्वामी होने से आत्मा गोपा है। वह कर्म करने में स्वतन्त्र होने के कारण उलटे और सीधे जिस भी मार्ग में चाहे गमन कर सकता है। अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और निकृष्ट शरीरों को धारण करते हुए वह बार-बार संसार में जन्म लेता है।
        मैक्डानल द्वारा लिखित वैदिक रीडर (Vedic Reader) आज प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। इसे पढ़कर विद्यार्थियों में वेद के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती। इस रीडर में वेदमन्त्रों के अटकलपच्चू और अशुद्ध अनुवाद दिये गये हैं। मन्त्र की शिक्षा क्या है यह तो किसी भी मन्त्र से स्पष्ट ही नहीं होता है। यहाँ हम अग्नि-सूक्त के प्रथम मन्त्र (ऋ0 १.१.१) पर ही कुछ विवेचन करते हैं-
        मैक्डानल महोदय ने इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार किया है-
        I magnify Agni the domestic priest, the divine ministrant of the sacrifice, the invoker, best bestower of treasure.
अर्थात् मैं गृह्य-पुरोहित अग्नि का वर्णन करता हूँ जो यज्ञ का दिव्य प्रबन्धक है, जो प्रार्थनीय और धनों को देनेवाला है।….
        जिस समय वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति पर चारों ओर से भीषण कुठाराघात हो रहे थे, भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर अन्धकार की घनघोर घटाएँ छाई हुई थीं, उस समय उन अविद्या-अन्धकार की घटाओं को चीरते हुए, एक दिव्यालोक का प्रकाश बिखेरते हुए महर्षि दयानन्द भारतीय रंगमंच पर अवतीर्ण हुए। महर्षि दयानन्द ने वेद के गम्भीर अध्ययन, मनन और चिन्तन के पश्चात् जोरदार शब्दों में एक घोषणा की- ‘‘‘वेदों की ओर लौटो’(Back to the Vedas) उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा-‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।’
        महर्षि दयानन्द के भाष्य को पढ़कर उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलि प्रस्तुत करते हुए योगी अरविन्द घोष ने कहा था-
        “ In the matter of Vedic interpretation, I am convinced that whatever may be the final complete interpretation, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ignorance and age long misunderstanding, his was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He has found the keys of the doors that time had closed and broke the seals of the imprisoned fountains.”
       अर्थात् वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या चाहे कोई भी हो, दयानन्द का, उपयुक्त शैली के प्रथम आविष्कारक के रूप में सदा सम्मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और भ्रम के मध्य में यह उसी की दिव्य दृष्टि थी, जिसने सत्य का अन्वेषण कर उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। जिन वेदों के द्वार को समय ने बन्द कर रक्खा था उनकी चाबियों को उसने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को तोड़कर फेंक दिया।
        वेद की प्रशंसा करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी लिखते हैं-
        ‘‘वेदों के सम्बन्ध में हिन्दुओं की यह धारणा है कि वे प्राचीन काल में किसी व्यक्तिविशेष की रचना अथवा ग्रन्थमात्र नहीं हैं। वे उसे ईश्वर की अनन्त ज्ञानराशि मानते हैं, जो किसी समय व्यक्त और किसी समय अव्यक्त रहती है। टीकाकार सायणाचार्य ने एक स्थान पर लिखा है, ‘यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् निर्ममे’-जिसने वेदज्ञान के प्रभाव से सारे जगत् की सृष्टि की है। वेद के रचयिता को कभी किसी ने नहीं देखा। इसलिए इसकी कल्पना करना भी असम्भव है। ऋषि लोग उन मन्त्रों अथवा शाश्वत नियमों के मात्र अन्वेषक थे। उन्होंने आदिकाल से स्थित ज्ञानराशि वेदों का साक्षात्कार किया था। ये वेद ही हमारे एकमात्र प्रमाण हैं और इन पर सबका अधिकार है। क्या तुम हमें वेद में ऐसा कोई प्रमाण दिखला सकते हो, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि वेद में सबका अधिकार नहीं है? पुराणों में अवश्य लिखा है कि वेद की अमुक शाखा में अमुक जाति का अधिकार है या अमुक अंश सतयुग के लिए और अमुक अंश कलियुग के लिए है, किन्तु ध्यान रखों, वेद में इस प्रकार का कोई ज़िक्र नहीं है, ऐसा केवल पुराणों में ही है। क्या नौकर कभी अपने मालिक को आज्ञा दे सकता है? स्मृति, पुराण, तन्त्र-ये सब वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वेद का अनुमोदन करते हैं। ऐसा न होने पर उन्हें अविश्वसनीय मानकर त्याग देना चाहिए, किन्तु आजकल हम लोगों ने पुराणों को वेद की अपेक्षा श्रेष्ठ समझ रक्खा है। मैं वह दिन शीघ्र देखना चाहता हूँ…जब बच्चे, बूढ़े और स्त्रियाँ वेद-अर्चना का शुभारम्भ करेंगे।
वेदों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धान्तों में मेरा विश्वास नहीं है। वेदों का समय वह आज कुछ निश्चित करते हैं और कल उसे बदलकर फिर एक हज़ार वर्ष पीछे घसीट ले जाते हैं। पुराणों के विषय में हम ऊपर कह आये हैं कि वे वहीं तक ग्राह्य हैं जहाँ तक वेदों का समर्थन करते हैं। पुराणों में ऐसी अनेक बातें हैं। जिनका वेदों के साथ मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए पुराणों में लिखा है कि कोई व्यक्ति दस हज़ार वर्ष तक और कोई दूसरे बीस ह़जार वर्ष तक जीवित रहे, किन्तु वेदों में लिखा है-षतायुर्वै पुरूषः। इनमें से हमारे लिए कौन सा मत स्वीकार्य है? निश्चय ही वेद।                                 
-विवेकानन्द साहित्य भाग ५. पृ0 ३४४-३४६
        महर्षि दयानन्द के सिंहनाद का प्रभाव मैक्समूलर पर भी पड़ा। वेद के सम्बन्ध में उसके मन्तव्य और धारणाएँ परिवर्तित हुई। फलस्वरूप वेद की प्रशंसा करते हुए उसने लिखा-
        Whatever the Vedas may be called they are to us unique and priceless guides in opening before over eyes tombs of thought richer in relics than the royal tombs of Egypt and more ancient and primitive in thought than the oldest hymns of Babylonian and Accadian poets.
                                                                   -Six Systems of Indian Philosophy P.34
अर्थात् वेद चाहे जो कुछ भी हों वे हमारे लिए अद्वितीय और बहुमूल्य मार्गदर्शक हैं, क्योंकि वे हमारे समक्ष विचारों की ऐसी राशि प्रस्तुत करते हैं जो मिस्र के राजकीय स्मारक-चिन्हों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। वेद बेबीलोनियन और अकेडियन कवियों की प्राचीनतम कविताओं से बहुत प्राचीन हैं।
        एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा-
        The Rigveda is the most ancient book of the Aryan………..the sacred hymns of the Brahmans stand unparalled in the literature of the whole world and their preservation might be called miraculous.
         
अर्थात् ऋग्वेद आर्यजगत् की प्राचीनतम पुस्तक है। ब्राह्मणग्रन्थों की ऋचाएँ संसार के साहित्य में अपूर्व हैं तथा उनके संरक्षण की विधि को अद्भुत कहा जा सकता है।
        इतना ही नहीं उन्होंने वेद को ईश्वरीयज्ञान भी स्वीकार किया। उन्होंने लिखा-
        If there is a God who has created heaven and earth, it will be unjust on his part if he deprives millions of souls, born before Moses, of his divine knowledge. Reason and comparative study of religions declare that God gives his divine knowledge to mankind from his first appearance on earth.
                                                                                                -Science of Religion
        द्युलोक और पृथिवीलोक का निर्माता यदि कोई ईश्वर है तो यह उसके लिए अन्यायपूर्ण बात होगी यदि वह मूसा से पूर्व उत्पन्न लोगों को अपने दिव्यज्ञान से वञ्चित रखता है। तर्क और धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात स्पष्ट है कि प्रभु मनुष्य के पृथिवी पर प्रादुर्भाव के समय ही उसे अपना दिव्यज्ञान प्रदान करता है।