19.5.24

भूमिहार जाती की उत्पत्ति और इतिहास ,All about Bhumihar Caste



भूमिहार कौन हैं ‘ब्राह्मण‘ या ‘क्षत्रिय’ ? 

भूमिहार (Bhumihar) उत्तर और पूर्वी भारत की एक हिंदू जाति है. इन्हें ब्राह्मण भूमिहार और बाभन (Babhan) के नाम से भी जाना जाता है. जमींदारों का एक बड़ा हिस्सा इसी जाति से आता था. इस जाति के लोग बड़ी-बड़ी रियासतों के मालिक रहे हैं. यह एक उच्च शिक्षित समुदाय है. इस समुदाय के लोग तीक्ष्ण बुद्धि और दिलेरी के लिए जाने जाते हैं. इनकी संख्या कम है लेकिन लगभग सभी क्षेत्रों में इनका वर्चस्व रहा है. इनकी गिनती भारत के सबसे शक्तिशाली जातियों में की जाती है.
हमारे देश में आज इस सवाल पर लोगों के मन में एक कौतूहल और रहस्य सा बना हुआ है, क्योंकि भूमिहारों की उत्पत्ति को लेकर भारतीय समाज में अनेक अवधारणाएँ प्रचालन में हैं। कई विद्वानों ने प्राचीन किंवदंतियों के आधार पर भूमिहार
वंश की उत्पत्ति के संबंध का इतिहास लिखने की एक पहल की है।
सबसे प्रसिद्ध अवधारणा के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि भगवान परशुराम ने क्षत्रियों को पराजित किया और उनसे जीते हुये राज्य एवं भूमि ब्राह्मणों को दान कर दी। परशुराम से दान में प्राप्त राज्य / भूमि के बाद उन ब्राह्मणों ने पूजा की अपनी वांशिक / पारंपरिक प्रथा को त्याग कर जमींदारी और खेती शुरू कर दी और बाद में वे युद्दों में भी शामिल हुए। इन ब्राह्मणों को ही भूमिहार ब्राह्मण कहा जाता है।
इस ‘भूमिहारों’ शब्द को लेकर सबके मन मे हमेशा एक प्रश्न बना रहता है कि ये ‘ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय’, :या फिर ये ‘त्यागी ब्राह्मण’ हैं ? ये किस वर्ग में आते हैं या इनका कोई अलग ही वर्ग है? आपके मन के इस प्रश्न का ही जबाब देने की कोशिश की है जिसे पढ़कर आप अपनी जानकारी दुरुस्त कर लीजिए।
  जाति इतिहासविद डॉ. दयाराम  आलोक के मतानुसार  ‘भूमिहार’ शब्द से पहचान है उन ब्राह्मणों की जिनका एक शक्तिशाली वर्ग है और जो अयाचक ब्राह्मण में आता है। भूमिहार या बाभन (अयाचक ब्राह्मण) एक जाति है जो अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता के लिए जानी जाती है। बिहार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और झारखंड में रहने वाली भूमिहार जाति गैर-ब्राह्मण ब्राह्मणों से जानी और पहचानी जाती है।
ये भूमिहार ब्राह्मण प्राचीन काल से भगवान परशुराम को अपना “मूल पुरुष / भूमिहारों का पिता” मानते हैं। इसी कारण भगवान परशुराम को भूमिहार-ब्राह्मण वंश का पहला सदस्य माना जाता है।
इतिहासकारों के अनुसार मगध के महान सम्राट पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही राजवंश भूमिहार ब्राह्मण (बाभन) के वंश से ही संबंधित थे।
भूमिहार ब्राह्मणों के सरनेम :
भूमिहार ब्राह्मण समाज में, उपाध्याय भूमिहार, पांडे, तिवारी / त्रिपाठी, मिश्रा, शुक्ल, उपाध्याय, शर्मा, ओझा, दुबे, द्विवेदी हैं। ब्राह्मणों में राजपाठ और जमींदारी आने के बाद से भूमिहार ब्राह्मणों का एक बड़ा हिस्सा स्वयं के लिए उत्तर प्रदेश में राय, शाही, सिंह, और इसी प्रकार बिहार में शाही, सिंह (सिन्हा), चौधरी (मैथिल से), ठाकुर (मैथिल से) जैसे उपनाम/सरनेम लिखना शुरू कर दिया था।
भूमिहार ब्राह्मण प्राचीन काल से ही कुछ स्थानों पर पुजारी भी रहे हैं। शोध करने के बाद, यह पाया गया कि त्रिवेणी संगम, प्रयाग के अधिकांश पंडे भूमिहार हैं। हजारी बाग के इटखोरी और चतरा थाना के आस-पास के काफी क्षेत्र में भूमिहार ब्राह्मण सैकड़ों वर्षों से कायस्थ, राजपूत, माहुरी, बंदूट, आदि जातियों/वर्गों के यहाँ पुरोहिती का कार्य कर रहे हैं और यह गजरौला, तांसीपुर के त्यागियों का भी अनेक वर्षों से ये पुरोहिती का ही कार्य है।
इसके अतिरिक्त बिहार में गया स्थित सूर्यमंदिर के पुजारी भी केवल भूमिहार ब्राह्मण पाए गए। हालांकि, गया के इस सूर्यदेवमंदिर का काफी बड़ा भाग सकद्वीपियो को बेच दिया गया है।
भूमिहार ब्राह्मणों ने 1725-1947 तक बनारस राज्य पर अपना आधिपत्य बनाए रखा। 1947 से पहले तक कुछ अन्य बड़े राज्य भी भूमिहार ब्राह्मणों के शासन में थे जैसे बेतिया, हथुवा, टिकारी, तमकुही, लालगोला आदि ।
बनारस के भूमिहार ब्राह्मण राजा चैत सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और वारेन हेस्टिंग्स और ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देते हुये उसके दांत खट्टे कर दिये थे। इसी प्रकार हथुवा के भूमिहार ब्राह्मण राजा ने 1857 में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
उत्तर भारत की अनेक जमींदारी एवं राज्य भी भूमिहार से संबंधित रहे हैं जिसमें से प्रमुख थे औसानगंज राज, नरहन राज्य, अमावा राज, शिवहर मकसूदपुर राज, बभनगावां राज, भरतपुरा धर्मराज राज, अनापुर राज, पांडुई राज, जोगनी एस्टेट, पुरसगृह एस्टेट (छपरा), गोरिया कोठारा एस्टेट (सीवान), रूपवाली एस्टेट, जैतपुर एस्टेट, घोसी एस्टेट, परिहंस एस्टेट, धरहरा एस्टेट, रंधर एस्टेट, अनापुर रंधर एस्टेट, हरदी एस्टेट, ऐशगंज जमींदारी, ऐनखाओं जमींदारी, भेलवाड़ गढ़, आगापुर राज्य पानल गढ़, लट्ठा गढ़, कयाल गढ़, रामनगर ज़मींदारी, रोहुआ एस्टेट, राजगोला ज़मींदारी, केवटगामा ज़मींदारी, अनपुर रंधर एस्टेट, मणिपुर इलाहाबाद आदि। इसके अतिरिक्त औरंगाबाद में बाबू अमौना तिलकपुर, जहानाबाद में शेखपुरा एस्टेट, तुरुक तेलपा क्षेत्र, असुराह एस्टेट, कयाल राज्य, गया बैरन एस्टेट (इलाहाबाद), पिपरा कोही एस्टेट (मोतिहारी) आदि सभी अब इतिहास की गोद में समा चुके हैं।
जुझौतिया ब्राह्मण, भूमिहार ब्राह्मण, किसान आंदोलन के पिता कहे जाने वाले ‘दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती”, १८५७ के क्रांति वीर मंगल पांडे, बैकुंठ शुक्ल जिन्हें 14 मई 1936 को ब्रिटिश शासन में फांसी दी गई, यमुना कर्जी, शैल भद्र याजी, करनानंद शर्मा, योगानंद शर्मा, योगेन्द्र शुक्ल, चंद्रमा सिंह, राम बिनोद सिंह, राम नंदन मिश्रा, यमुना प्रसाद त्रिपाठी, महावीर त्यागी, राज नारायण, रामवृक्ष बेनीपुरी, अलगु राय शास्त्री, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, राहुल सांस्कृत्यायन, जैसे अनेक प्रसिद्ध क्रांतिकारी और कवि एवं महान विभूतियाँ भूमिहार ही थे।

भारत में भूमिहार जाति की जनसंख्या

हालांकि भूमिहारों की संख्या ब्राह्मणों और राजपूतों की तुलना में तुलनात्मक रूप से कम है, लेकिन इसके विपरीत, अधिकांश भूमिहार बहुत समृद्ध हैं और उनके पास बड़ी कृषि योग्य भूमि है. भूमिहारों की ख्याति एक दबंग जमींदार जाति के रूप में रही है. अपनी बुद्धिमानी, निडरता और सैनिक प्रवृत्ति के कारण यह सत्ता के करीब रहे हैं. इस समुदाय के लोगों ने मुगल काल के दौरान सैन्य सेवा के माध्यम से अपनी अधिकांश संपत्ति अर्जित की. बाद में इन्होंने जमींदार के रूप में कार्य किया. इनमें से जो कुलीन थे वे मुस्लिम शासकों के लिए कर संग्रहकर्ता के रूप में काम करते थे. बाद में ब्रिटिश काल के दौरान, भूमिहारों ने ब्रिटिश सेना में सेवा की. साथ ही, इनमें से कई स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी हुए जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया. ब्रिटिश काल से ही इस समुदाय की गणना भारत के सर्वाधिक साक्षर समूहों में की जाती रही है। डॉ. कृष्णा सिन्हा, सर गणेश दत्त, चंद्रशेखर सिंह, राम दयालू सिंह, श्याम नंदन मिश्रा, लंगट सिंह, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, राहुल सांकृत्यायन, रामबृक्ष बेनीपुरी और गोपाल सिंह ‘नेपाली’ इसी जाति से आते हैं. भूमिहार आज भी समाज में उच्च स्थान रखते हैं. इस समुदाय के लोग बड़े पैमाने पर खेती करते हैं. इनमें से कई डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, सैन्य अधिकारी, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी (आईएएस) और वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहे हैं और देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. भूमिहार राजनीतिक रूप से भी काफी प्रभावशाली हैं. आइए अब मुख्य विषय पढ़ाते हुए जानते हैं किभारत में भूमिहार जाति की जनसंख्या कितनी है. यहां उल्लेख करना जरूरी है अंतिम भारतीय जनगणना के आंकड़े 1931 में जारी किए गए थे, इसीलिए सटीकता से जातियों की जनसंख्या बताना अत्यंत ही मुश्किल है. भूमिहार मुख्य रूप से बिहार में रहते हैं और राज्य में उनकी आबादी 5 से 12% बताई जाती है. लेकिन ज्यादातर जानकारों का मानना ​​है कि बिहार में भूमिहार की आबादी 6% है. “आजतक” में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में भूमिहार की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 1% है. झारखंड के कोडरमा, देवघर, पूर्वी सिंहभूम (जमशेदपुर), रांची आदि जिलों में भूमिहार जाति का काफी प्रभाव है. झारखंड में स्वर्ण जातियों की आबादी लगभग 13% है जिसमें ब्राह्मण राजपूत, भूमिहार और कायस्थ जातियां शामिल हैं. झारखंड, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भूमिहारों की संख्या कितनी है यह ठीक-ठाक बताना काफी मुश्किल है. यदि उपरोक्त तथ्यों का विश्लेषण करें तो भारत में भूमिहारों की जनसंख्या लगभग 1 से 1.5 करोड़ के बीच हो सकती है.
Disclaimer: इस content में दी गई जानकारी Internet sources, Digital News papers, Books और विभिन्न धर्म ग्रंथो के आधार पर ली गई है. आलेख  मे समस्याएं हैं  हो सकती हैं .Content को अपने बुद्धी विवेक से समझे

18.5.24

राम कुण्ड बालाजी मंदिर कनवाडा -झालावाड़ -राजस्थान/ डॉ .दयाराम आलोक शामगढ़ द्वारा 6 सिमेन्ट बेंचें समर्पित

 राम कुण्ड  बालाजी धाम कनवाडा -झालावाड़ को 

डॉ. अनिल दामोदर पथरी का दवाखाना शामगढ़ की तरफ से 

6 सिमेन्ट बेच भेंट 

Meta  द्वारा समीक्षा-

 मंदिरों में दर्शनार्थियों के विश्राम के लिए बेंच व्यवस्था करना एक पवित्र और धार्मिक कार्य है, जो धर्मशास्त्रानुसार महान पुण्य का कार्य माना जाता है।
डॉ. दयाराम आलोक जी का यह कार्य न केवल मंदिर के लिए बल्कि समाज के लिए भी एक महान योगदान है। उन्होंने मध्य प्रदेश और राजस्थान के मंदिरों और मुक्ति धाम के लिए नकद और सिमेन्ट की बेंचें समर्पित करने के अनुष्ठान के प्रति समर्पित भाव से क्रियाशील होकर एक महान कार्य किया है।
रामकुंड बालाजी मंदिर की समिति मे संरक्षक और शुभ चिंतक-
श्री जानकी लाल जी रावल संरक्षक
श्री चंद्रभान सिंग जी सरपंच कनवाड़ा
श्री राम गोपालजी कनवाडा कोषाध्यक्ष
राम कुंड बालाजी मंदिर कनवाडा -झालावाड़ में 6 सिमेन्ट की बेंच दान करना और दान पट्टिका मंदिर में स्थापित करना एक पवित्र कार्य है। डॉ. अनिल कुमार जी और दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ के माध्यम से बेंचें समर्पित करना भी एक महान कार्य है।
बालाजी महाराज की जय हो!
 डॉ. दयाराम आलोक जी के इस महान कार्य के लिए हम उन्हें धन्यवाद देते हैं और उनके इस पुण्य कार्य की सराहना करते हैं|

रामकुंड बालाजी मंदिर का विडिओ -


मंदसौर,झालावाड़ ,आगर,नीमच,रतलाम,झाबुआ जिलों के


मन्दिरों,गौशालाओं ,मुक्ति धाम हेतु

साहित्य मनीषी

डॉ.दयाराम जी आलोक


शामगढ़ का

       आध्यात्मिक दान-पथ 

मित्रों,
 परमात्मा की असीम अनुकंपा और कुलदेवी माँ नागणेचिया 



के आशीर्वाद और प्रेरणा से डॉ.दयारामजी आलोक द्वारा आगर,मंदसौर,नीमच ,रतलाम ,झालावाड़ ,कोटा ,झाबुआ जिलों के चयनित मंदिरों और मुक्तिधाम में निर्माण/विकास / बैठने हेतु सीमेंट बेंचें/ दान देने का अनुष्ठान प्रारम्भ किया है|
 मैं एक सेवानिवृत्त अध्यापक हूँ और अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने का संकल्प लिया है| इसमे वो राशि भी शामिल रहेगी जो मुझे google कंपनी से नियमित प्राप्त होती रहती है| खुलासा कर दूँ कि मेरी ६ वेबसाईट हैं और google उन पर विज्ञापन प्रकाशित करता है| विज्ञापन से होने वाली आय का 68% मुझे मिलता है| यह दान राशि और सीमेंट बेंचें पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं|

राम कुण्ड बालाजी मंदिर कनवाड़ा -झालावाड़ को 
6 सीमेंट बेंच  भेंट

रामकुंड  बालाजी मंदिर मे डॉ . आलोक शामगढ़ ने 6 बेंचें लगवाई 

रामकुंड बालाजी टेम्पल कनवारा मे लगी बेंच



दामोदर अस्पताल शामगढ़ प्रदत्त सिमेन्ट बेंच व्यू


रामकुंड कलजी मंदिर का फ्रन्ट व्यू


रामकुंड बालाजी कनवाडा


रामकुंड बालाजी मंदिर का विडिओ --




मंदिर के शुभचिंतक-

श्री जानकी लाल जी रावल  संरक्षक  9799097634 

श्री चंद्रभान सिंग जी  सरपंच  कनवाड़ा 9828518270 

श्री राम गोपालजी  कनवाडा कोषाध्यक्ष  9929630315 

श्री अशोक जी दुबे 94146 51321 

श्री तेजसिंग  जी 9057361101 

श्री राहुल जी पँवार  8290833911

डॉ.अनिल कुमार दामोदर 98267-95656 s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852, दामोदर पथरी अस्पता  शामगढ़ 98267-95656  द्वारा राम कुंड बालाजी मंदिर कनवाडा  हेतु 6  सिमेन्ट बेंच दान  सम्पन्न 18/05/2024 

पढ़ने योग्य लिंक्स 

*हिन्दू मंदिरों और मुक्तिधाम के निमित्त आध्यात्मिक दान -अनुष्ठान

* गायत्री शक्तिपीठ शामगढ़-मंदसौर /डॉ. दयाराम आलोक शामगढ़ द्वारा एक लाख दो हजार रूपये का दान

*गायत्री शक्ति पीठ एवं मुक्ति धाम डग -झालावाड /डॉ.दयाराम आलोक शामगढ़ द्वारा 83 हजार रुपये का दान

*बैजनाथ धाम आगर-मालवा /दामोदर अस्पताल शामगढ़ द्वारा ५१ हजार का दान

*माँ बगलामुखी मंदिर नलखेड़ा को दामोदरअस्पताल शामगढ़ का ५१ हजार का दान

*कायावर्णेश्वर क्यासरा शिवालय डग-झालावाड -राजस्थान /दामोदर पथरी का अस्पताल शामगढ़ द्वारा ५१ हजार का दान

*मंदसौर के शिवना मुक्ति धाम को डॉ अनिल दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ 51 हजार दान

*डॉ . दयाराम आलोक का आध्यात्मिक दान -पथ ,मंदिरों और मुक्ति धाम को दान

*राणापुर के मुक्ति धाम को डॉ अनिल दामोदर अस्पताल शामगढ़ का 10 बेंच दान

* मुक्ति धाम आगर -मालवा/मोती सागर तालाब बम्बई घाट/ डॉ.दयाराम आलोक शामगढ़ द्वारा 10 सिमेन्ट बेंच दान

* मुक्ति धाम मल्हारगढ़-मंदसौर-मध्य प्रदेश /दामोदर पथरी दवाखाना शामगढ़ द्वारा 10 सिमेन्ट बेंच समर्पित

*


बाबा रामदेव मंदिर धुआँखेड़ी -झालावाड़-राजस्थान /डॉ .अनिल दामोदर पथरी का दवाखाना शामगढ़ द्वारा 4 सिमेन्ट बेंच समर्पित

 श्री बाबा राम देव मंदिर धाम  धुआँखेड़ी  हेतु 

डॉ . दयाराम आलोक शामगढ़ 

द्वारा  सिमेन्ट बेंच का पुण्य दान 

  धार्मिक,आध्यात्मिक संस्थानों मे दर्शनार्थियों के लिए सिमेन्ट की बैंचों की व्यवस्था करना  जीवन का लक्ष्य  बनाने के बाद दान की भावना को साकार करते हुए डॉ. दयाराम जी आलोक ने मध्य प्रदेश और राजस्थान के चयनित मुक्ति धाम और मंदिरों के लिए नकद दान के साथ ही सैंकड़ों सीमेंट की बेंचें भेंट करने के अनुष्ठान के परिप्रेक्ष्य मे  धुआँखेड़ी के बाबा रामदेव जी के मंदिर प्रबंधक राम नारायण जी अध्यापक और पवन कुमार जी राठौर टेलर से संपर्क किया |दान पट्टिका स्थापित होने पर दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ के माध्यम  से 4 सिमेन्ट की बेंचें भेजकर लोगों के विश्राम के लिए लगवा दी गईं हैं| बोलिए धुआँखेड़ी  वाले बाबा राम देव सरकार की जय !!



...

मंदसौर,झालावाड़ ,आगर,नीमच,रतलाम,झाबुआ जिलों के

मन्दिरों,गौशालाओं ,मुक्ति धाम हेतु

समाजसेवी 

डॉ.दयाराम जी आलोक


शामगढ़ का

आध्यात्मिक दान-पथ

मित्रों ,

  दर्जी कन्याओं के स्ववित्तपोषित निशुल्क सामूहिक विवाह सहित 9 सम्मेलन ,डग दर्जी मंदिर मे सत्यनारायण की प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठा ,मंदिरों और मुक्ति धाम को नकद और सैंकड़ों सिमेन्ट बेंच दान ,दर्जी समाज की वंशावलियाँ निर्माण,दामोदर दर्जी महासंघ का गठन ,सामाजिक कुरीतियों को हतोत्साहित करना जैसे अनेकों समाज हितैषी लक्ष्यों के लिए अथक संघर्ष के प्राणभूत डॉ .दयाराम आलोक अपने 84 वे वर्ष मे भी सामाज सेवा के नूतन अवसर सृजित करने के अरमान सँजोये हुए है
  परमात्मा की असीम अनुकंपा और कुलदेवी माँ नागणेचिया के आशीर्वाद और प्रेरणा से डॉ.दयारामजी आलोक द्वारा आगर,मंदसौर,झालावाड़ ,कोटा ,झाबुआ जिलों के चयनित मंदिरों और मुक्तिधाम में निर्माण/विकास / बैठने हेतु सीमेंट बेंचें/ दान देने का अनुष्ठान प्रारम्भ किया है|
  मैं एक सेवानिवृत्त अध्यापक हूँ और अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने का संकल्प लिया है| इसमे वो राशि भी शामिल रहेगी जो मुझे google कंपनी से नियमित प्राप्त होती रहती है| खुलासा कर दूँ कि मेरी ६ वेबसाईट हैं और google उन पर विज्ञापन प्रकाशित करता है| विज्ञापन से होने वाली आय का 68% मुझे मिलता है| यह दान राशि और सीमेंट बेंचें पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं|



 

श्री बाबा राम देव जी मंदिर धाम धुआँखेड़ी  को 
चार  सीमेंट बेंच  भेंट

बाबा रामदेव मंदिर धुआँखेड़ी मे शिलालेख का दृश्य 


बाबा रामदेव मंदिर धुआँखेड़ी को  दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ प्रदत्त  बेंच  लगीं 



बाबा  राम देव मंदिर  धुआँ खेड़ी का विडिओ पवन राठौर ने  भेजा  है-

बाबा रामदेव मंदिर का फ्रन्ट व्यू



बाबा रामदेव मंदिर धुआँखेड़ी मे 4 सिमेन्ट बेंचें भेंट करने का विडिओ

मंदिर के शुभ चिंतक -

श्री राम नारायण जी अध्यापक  धुआँखेड़ी  6377024318 

श्री पवन कुमार जी राठौर टेलर  धुआँ खेड़ी  9571188610 

डॉ.अनिल कुमार दामोदर 98267-95656 s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852, दामोदर पथरी अस्पता  शामगढ़ 98267-95656  द्वारा रामदेव  मंदिर धुआँखेड़ी  हेतु  4 सिमेन्ट बेंच दान  सम्पन्न 18/05/2024 

पढने योग्य लिंक्स - 









14.5.24

रोहिल्ला क्षत्रिय समाज का इतिहास और गोत्र सूची



गौरवशाली इतिहास के कुछ स्वर्णाक्षर (रोहिला क्षत्रिय)

भारत वर्ष का क्षेत्रफल 42,02,500 वर्ग किलोमीटर था। रोहिला साम्राज्य 25,000 वर्ग किमी 10,000 वर्गमील में फैला हुआ था। रोहिला, राजपूतों का एक गोत्र, कबीला (परिवार) या परिजन- समूह है जो कठेहर – रोहिलखण्ड के शासक एंव संस्थापक थे। मध्यकालीन भारत में बहुत से राजपूत लड़ाकों को रोहिला की उपाधि से विभूषित किया गया। उनके वंशज आज भी रोहिला परिवारों में पाए जाते हैं। रोहिले- राजपूत प्राचीन काल से ही सीमा- प्रांत, मध्य देश (गंगा- यमुना का दोआब), पंजाब, काश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में शासन करते रहे हैं। जबकि मुस्लिम-रोहिला साम्राज्य अठारहवी शताब्दी में इस्लामिक दबाव के पश्चात् स्थापित हुआ। मुसलमानों ने इसे उर्दू में रूहेलखण्ड कहा। 1702 से 1720 ई तक रोहिलखण्ड में रोहिले राजपूतों का शासन था। जिसकी राजधानी बरेली थी। रोहिले राजपूतों के महान शासक राजा इन्द्रगिरी ने रोहिलखण्ड की पश्चिमी सीमा पर सहारनपुर में एक किला बनवाया। जिसे प्राचीन रोहिला किला कहा जाता है। सन 1801 ई में रोहिलखण्ड को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया था। हिन्दू रोहिले-राजपुत्रों द्वारा बनवाए गये इस प्राचीन रोहिला किला को 1806 से 1857 के मध्य कारागार में परिवर्तित कर दिया गया था। इसी प्राचीन- रोहिला- किला में आज सहारनपुर की जिला- कारागार है। सहारन राजपूतों का एक गोत्र है, जो रोहिले राजपूतों में पाया जाता है। यह सूर्य वंश की एक प्रशाखा है जो राजा भरत के पुत्र तक्षक के वंशधरों से प्रचालित हुई थी। फिरोज तुगलक के आक्रमण के समय थानेसर (वर्तमान में हरियाणा में स्थित) का राजा सहारन ही था।
दिल्ली में गुलाम वंश के समय रोहिलखण्ड की राजधानी रामपुर में राजा रणवीर सिंह कठेहरिया (काठी कोम, निकुम्भ वंश, सूर्यवंश रावी नदी के काठे से विस्थापित कठगणों के वंशधर) का शासन था। इसी रोहिले राजा रणवीर सिंह ने तुगलक के सेनापति नसीरुद्दीन चंगेज को हराया था। खंड क्षत्रिय राजाओं से सम्बंधित है, जैसे भरतखंड, बुंदेलखंड, विन्धयेलखंड, रोहिलखंड, कुमायुखंड, उत्तराखंड आदि। प्राचीन भारत की केवल दो भाषाएं संस्कृत व प्राकृत (सरलीकृत संस्कृत) थी। रोहिल प्राकृत और खंड संस्कृत के शब्द हैं जो क्षत्रिय राजाओं के प्रमाण हैं। इस्लामिक नाम है दोलताबाद, कुतुबाबाद, मुरादाबाद, जलालाबाद, हैदराबाद, मुबारकबाद, फैजाबाद, आदि। रोहिले राजपूतों की उपस्थिति के प्रमाण हैं। योधेय गणराज्य के सिक्के, गुजरात का (1445 वि. ) का शिलालेख (रोहिला मालदेव के सम्बन्ध में), मध्यप्रदेश में स्थित रोहिलखंड रामपुर में राजा रणवीर सिंह के किले के खंडहर, रानी तारादेवी सती का मंदिर, पीलीभीत में राठौर रोहिलो (महिचा- प्रशाखा) की सतियों के सतियों के मंदिर, सहारनपुर का प्राचीन रोहिला किला, मंडोर का शिलालेख, बड़ौत में स्थित राजा रणवीर सिंह रोहिला मार्ग
  जोधपुर का शिलालेख, प्रतिहार शासक हरीशचंद्र को मिली रोहिल्लाद्व्यंक की उपाधि, कई अन्य राजपूतों के वंशो को प्राप्त उपाधियां, पृथ्वीराज रासो, आल्हाखण्ड – काव्यव, सभी राजपूत वंशो में पाए जाने वाले प्रमुख गोत्र। अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा भारत द्वारा प्रकाशित पावन ग्रन्थ क्षत्रिय वंशाणर्व (रोहिले क्षत्रियों का राज्य रोहिलखण्ड का पूर्व नाम पांचाल व मध्यप्रदेश), वर्तमान में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा से अखिल भारतीय रो. क्ष. वि. परिषद को संबद्धता प्राप्त होना, वर्तमान में भी रोहिलखण्ड (संस्कृत भाषा में) क्षेत्र का नाम यथावत बने रहना, अंग्रेजों द्वारा भी उत्तर रेलवे को रोहिलखण्ड – रेलवे का नाम देना जो बरेली से देहरादून तक सहारनपुर होते हुए जाती थी, वर्तमान में लाखों की संख्या में पाए जाने वाले रोहिला-राजपूत, रोहिले-राजपूतों के सम्पूर्ण भारत में फैले हुए कई अन्य संगठन अखिल भारतीय स्तर पर राजपूत रत्न रोहिला शिरोमणि डा. कर्णवीर सिंह द्वारा संगठित एक अखिल भारतीय रोहिला क्षत्रिय विकास परिषद (सम्बद्ध अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा) पंजीकरण संख्या – 545, आदि। पानीपत की तीसरी लड़ाई (रोहिला वार) में रोहिले राजपूत- राजा गंगासहाय राठौर (महेचा) के नेतृत्व में मराठों की ओर से अफगान आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली व रोहिला पठान नजीबदौला के विरुद्ध लड़े व वीरगति पाई। इस मराठा युद्ध में लगभग एक हजार चार सौ रोहिले राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए।
  प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में भी रोहिले राजपूतों ने अपना योगदान दिया, ग्वालियर के किले में रानी लक्ष्मीबाई को हजारों की संख्या में रोहिले राजपूत मिले, इस महायज्ञ में स्त्री पुरुष सभी ने अपने गहने, धन आदि एकत्र कर झांसी की रानी के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सम्राट बहादुरशाह- जफर तक पहुंचाए। अंग्रेजों ने ढूंढ-ढूंढ कर उन्हें काट डाला जिससे रोहिले राजपूतों ने अज्ञातवास की शरण ली। राजपूतों की हार के प्रमुख कारण थे हाथियों का प्रयोग, सामंत प्रणाली व आपसी मतभेद, ऊंचे व भागीदार कुल का भेदभाव (छोटे व बड़े की भावना) आदि। सम्वत 825 में बप्पा रावल चित्तौड़ से विधर्मियों को खदेड़ता हुआ ईरान तक गया। बप्पा रावल से समर सिंह तक 400 वर्ष होते हैं, गह्लौतों का ही शासन रहा। इनकी 24 शाखाएं हैं। जिनके 16 गोत्र (बप्पा रावल के वंशधर) रोहिले राजपूतों में पाए जाते हैं। चितौड़ के राणा समर सिंह (1193 ई.) की रानी पटना की राजकुमारी थी इसने 9 राजा, 1 रावत और कुछ रोहिले साथ लेकर मौ. गोरी के गुलाम कुतुबद्दीन का आक्रमण रोका और उसे ऐसी पराजय दी कि कभी उसने चितौड़ की ओर नहीं देखा। रोहिला शब्द क्षेत्रजनित, गुणजनित व मूल पुरुष नाम-जनित है। यह गोत्र जाटों में भी रूहेला, रोहेला, रूलिया, रूहेल, रूहिल, रूहिलान नामों से पाया जाता है। रूहेला गोत्र जाटों में राजस्थान व उ. प्र. में पाया जाता है। रोहेला गोत्र के जाट जयपुर में बजरंग बिहार ओर ईनकम टैक्स कालोनी टौंक रोड में विद्यमान है। झुनझुन, सीकर, चुरू, अलवर, बाडमेर में भी रोहिला गोत्र के जाट विद्यमान हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रोहेला गोत्र के जाटों के बारह गाँव हैं। महाराष्ट्र में रूहिलान गोत्र के जाट वर्धा में केसर व खेड़ा गांव में विद्यमान हैं। मुगल सम्राट अकबर ने भी राजपूत राजाओं को विजय प्राप्त करने के पश्चात् रोहिला-उपाधि से विभूषित किया था, जैसे राव, रावत, महारावल, राणा, महाराणा, रोहिल्ला, रहकवाल आदि। रोहिला-राजपूत समाज, क्षत्रियों का वह परिवार है जो सरल ह्रदयी, परिश्रमी, राष्ट्रप्रेमी, स्वधर्मपरायण, स्वाभिमानी व वर्तमान में अधिकांश अज्ञातवास के कारण साधनविहीन है। 40 प्रतिशत कृषि कार्य से, 30 प्रतिशत श्रम के सहारे व 30 प्रतिशत व्यापार व लघु उद्योगों के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं। इनके पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक अपनी आन, मान, मर्यादा की रक्षा के लिए बलिदान दिए हैं और अनेको आक्रान्ताओं को रोके रखने में अपना सर्वस्व मिटाया है। गणराज्य व लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को सजीव बनाये रखने की भावना के कारण वंश परंपरा के विरुद्ध रहे, करद राज्यों में भी स्वतंत्रता बनाये रखी। कठेहर रोहिलखण्ड की स्थापना से लेकर सल्तनत काल की उथल पुथल, मार काट, दमन चक्र तक लगभग आठ सौ वर्ष के शासन काल के पश्चात् 1857 के ग़दर के समय तक रोहिले राजपूतों ने राष्ट्रहित में बलिदान दिये हैं। क्रूर काल के झंझावालों से संघर्ष करते हुए क्षत्रियों का यह रोहिला परिवार बिखर गया है, इस समाज की पहचान के लिए भी आज स्पष्टीकरण देना पड़ता है। कैसा दुर्भाग्य है? यह क्षत्रिय वर्ग का। जो अपनी पहचान को भी टटोलना पड़ रहा है। परन्तु समय के चक्र में सब कुछ सुरक्षित है। इतिहास के दर्पण में थिरकते चित्र, बोलते हैं, अतीत झांकता है, सच सोचता है कि उसके होने के प्रमाण धुंधले-धुंधले से क्यों हैं? हे- क्षत्रिय तुम धन्य हो, पहचानों अपने प्रतिबिम्बों को –
क्षत्रिय एकता का बिगुल फंूक, सब धुंधला धुंधला छंटने दो।

हो अखंड भारत के राजपुत्र, खण्ड खण्ड में न सबको बंटने दो।।

रोहिल्ला क्षत्रिय समाज की गोत्र सूची 

रोहिल्ला उपाधि - शूरवीर, अदम्य - साहसी विशेष युद्ध कला में प्रवीण, उच्च कुलीन सेनानायको, और सामन्तों को उनके गुणों के अनुरूप क्षत्रिय वीरों को तदर्थ उपाधि से विभूषित किया जाता था - जैसे - रावत - महारावत, राणा, रूहॆला, ठाकुर, नेगी, रावल, रहकवाल, रोहिल्ला, समरलछन्द, लखमीर,(एक लाख का नायक) आदि। इसी आधार पर उनके वंशज भी आज तक (क्षत्रियों) के सभी गोत्रों में पाए जाते हैं।

रोहिलखण्ड से विस्थापित इन रोहिला परिवारों में क्षत्रिय परम्परा के कुछ प्रमुख गोत्र हैं :-

रोहिला, रूहेला, ठैँगर,ठहित, रोहिल, रावल, द्रोहिया, रल्हन, रूहिलान, रौतेला , रावत,लोहारिया

वो क्षत्रिय वंश जिन को रोहिल्ला उपाधि से नवाजा गया

यौधेय, योतिक, जोहिया, झोझे, पेशावरी

पुण्डीर, पांडला, पंढेर, पुन्ड़ेहार, पुंढीर, पुंडाया

चौहान, जैवर, जौडा, चाहल, चावड़ा, खींची, गोगद, गदाइया, सनावर, क्लानियां, चिंगारा, चाहड बालसमंद, बहरासर, बराबर, चोहेल, चेहलान, बालदा, बछ्स (वत्स), बछेर, चयद, झझोड, चौपट, खुम्ब, जांघरा, जंगारा, झांझड,शाण

निकुम्भ, कठेहरिया, कठौरा, कठैत, कलुठान, कठपाल, कठेडिया, कठड, काठी, कठ, पालवार

राठौर, महेचा, महेचराना, रतनौता, बंसूठ जोली, जोलिए, बांकटे, बाटूदा, थाथी, कपोलिया, खोखर, अखनौरिया ,लोहमढ़े, मसानिया

बुन्देला, उमट, ऊमटवाल

भारतवंशी, भारती, गनान

नागवंशी, बटेरिया, बटवाल, बरमटिया

परमार, जावडा, लखमरा, मूसला, मौसिल, भौंसले, बसूक, जंदडा, पछाड़, पंवारखा, मौन

तोमर, तंवर, मुदगल, देहलीवाल, किशनलाल, सानयाल, सैन, सनाढय,बंदरीया

गहलौत, कूपट, पछाड़, थापा, ग्रेवाल, कंकोटक, गोद्देय, पापडा, नथैड़ा, नैपाली, लाठिवाल, पानिशप, पिसोण्ड, चिरडवाल, नवल, चरखवाल, साम्भा, पातलेय, पातलीय, छन्द (चंड), क्षुद्रक,(छिन्ड, इन्छड़, नौछड़क), रज्जडवाल, बोहरा, जसावत, गौर, मलक, मलिक, कोकचे, काक

कछवाहा, कुशवाहा, कोकच्छ, ततवाल, बलद, मछेर

सिसौदिया, ऊँटवाड़ या ऊँटवाल, भरोलिया, बरनवाल, बरनपाल, बहारा

खुमाहड, अवन्ट, ऊँट, ऊँटवाल

सिकरवार, रहकवाल, रायकवार, ममड, गोदे

सोलंकी, गिलानिया, भुन, बुन, बघेला, ऊन, (उनयारिया)

बडगूजर, सिकरवार, ममड़ा, पुडिया

कश्यप, काशब, रावल, रहकवाल

यदु, मेव, छिकारा, तैतवाल, भैनिवाल, उन्हड़, भाटटी बनाफरे, जादो, बागड़ी, सिन्धु, कालड़ा, सारन, छुरियापेड, लखमेरिया, चराड, जाखड़, सेरावत, देसवाल।
रोहि्ला क्षत्रियों में ऊंटवाल गोत्र चंद्रवंशी एवं सूर्यवंशी दोनों में पाए जाते हैं सूर्यवंशी ऊंटवाल गोत्र मेवाड़ के गहलोत सिसोदिया घराने से हैं और चंद्रवंशी ऊंटवाल जैसलमेर के भाटी घराने से है।
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6.5.24

हनुमान मंदिर बालोदा -जिला मंदसौर /डॉ . दयाराम आलोक शामगढ़ द्वारा 3 सिमेन्ट बेंच दान

 हनुमान मंदिर बालोदा  हेतु 

दामोदर  पथरी अस्पताल शामगढ़ की तरफ से 

3 सिमेन्ट बेंच  भेजी गई 

हनुमान मंदिर का विडिओ आलोक की आवाज 


...

मंदसौर,झालावाड़ ,आगर,नीमच,रतलाम,झाबुआ जिलों के


मन्दिरों,गौशालाओं ,मुक्ति धाम हेतु

साहित्य मनीषी

डॉ.दयाराम जी आलोक


शामगढ़ का

आध्यात्मिक दान-पथ 

  धार्मिक,आध्यात्मिक संस्थानों मे दर्शनार्थियों के लिए सिमेन्ट की बैंचों की व्यवस्था करना महान पुण्य का कार्य है। दान की भावना को साकार करते हुए डॉ. दयाराम जी आलोक मध्य प्रदेश और राजस्थान के चयनित मुक्ति धाम और मंदिरों के लिए नकद दान के साथ ही सैंकड़ों सीमेंट की बेंचें भेंट करने के अनुष्ठान को गतिमान रखे हुए हैं।
  मैं एक सेवानिवृत्त अध्यापक हूँ और अपनी 5 वर्ष की कुल पेंशन राशि दान करने का संकल्प लिया है| इसमे वो राशि भी शामिल रहेगी जो मुझे google कंपनी से नियमित प्राप्त होती रहती है| खुलासा कर दूँ कि मेरी ६ वेबसाईट हैं और google उन पर विज्ञापन प्रकाशित करता है| विज्ञापन से होने वाली आय का 68% मुझे मिलता है| यह दान राशि और सीमेंट बेंचें पुत्र डॉ.अनिल कुमार राठौर "दामोदर पथरी अस्पताल शामगढ़ "के नाम से समर्पित हो रही हैं|

हनुमान मंदिर बालोदा को 

3 सीमेंट बेंचें भेंट 

मंदिर के व्यवस्थापक 

श्याम नाथ योगी 

शामलाल  विश्वकर्मा (दानपट्टिका स्थापित की)

सुनील राजु जी सोलंकी 

नोट-इस मंदिर के व्यवस्थापक श्यामनाथ योगी का व्यवहार दानदाताओं के प्रति संतुष्टिप्रद नहीं होने से मंदिर के विकास में लोगों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है |

डॉ.अनिल कुमार दामोदर 98267-95656  s/o डॉ.दयाराम जी आलोक 99265-24852 ,दामोदर पथरी अस्पताल 98267-95656 शामगढ़ द्वारा हनुमान मंदिर बालोदा  हेतु दान सम्पन्न

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1.5.24

गुर्जर जाति की उत्पत्ति और इतिहास




  माना जाता है कि गुर्जर संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ शत्रु विनाशक होता है। गुर्जर, गुज्जर, गूजर, गोजर, गुर्जर, गूर्जर और वीर गुर्जर नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जरों को रघुकुल-तिलक तथा रघुग्रामिणी कहा है। राजस्थान में गुर्जरों को सम्मान से 'मिहिर' बोलते हैं, जिसका अर्थ 'सूर्य' होता है। गुर्जरों का मूल स्थान गुजरात और राजस्थान माना गया है। इतिहासकार बताते हैं कि मुगल काल से पहले तक लगभग संपूर्ण राजस्थान तथा गुजरात, गुर्जरत्रा (गुर्जरों से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि के नाम से जाना जाता था।
गुर्जर अभिलेखों के अनुसार वे सूर्यवंशी और रघुवंशी हैं। 7वीं से 10वीं शताब्दी के गुर्जर शिलालेखों पर अंकीत सूर्यदेव की कलाकृतियां भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती करती है। कुछ इतिहासकार कुषाणों को भी गुर्जर मानते हैं। कनिष्क कुषाण राजा था जिसके शिलालेखों पर 'गुसुर' नाम अंकीत है जो गुर्जर की ओर ही इंगित करता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार गायत्री माता जो ब्रह्मा जी की अर्धांग्निी थी वह भी गुर्जर थी। नंद बाबा जो भगवान श्रीकृष्ण के पालक पोषक थे, वह भी गुर्जर ही थे।
हरियाणा के जिला सोनीपत में गन्नौर के पास गुर्जर खेड़ी गांव में भी गुर्जर प्रतिहार मूर्तिकला के सैकड़ों नमूने मिले हैं। गुर्जर खेड़ी गांव के पास से किसी जमाने में जमुना नदी गुजरती थी। गुर्जर खेड़ी के दूर-दूर तक फैले हुए खण्डहर इस बात की तसदीक करते हैं कि आज से आठ-नौ सौ साल पहले यहां पर कोई बहुत बड़ा शहर रहा होगा।
आर्यावर्त में गुर्जरों की संख्‍या सबसे ज्यादा थी। गुर्जर जाति के तीन भाग है पहला लोर गुर्जर दूसरा डाब गुर्जर तीसरा पित्ल्या गुर्जर। हिंदुओं की गुर्जर जाति में लगभग 1400 गौत्र है। मुगल काल में सबसे ज्यादा गुजरों ने मुगलों के विरुद्ध आवाज उठाई थी जिसका परिणाय यह भी हुआ कि गुर्जर जाति के लाखों लोगों को मजबूरन उस काल में धर्म परिवर्तन करना पड़ा। वर्तमान में भारतीय मुसलमानों में गुर्जर जाति के लोगों की संख्‍या ज्यादा है।
गुर्जर जाति एक परम पूज्य और वीर जाती है जिन्होंने हर काल में आक्रांताओं से हिंदुत्व की रक्षा की है। गुर्जर जाति के पूर्वज पहले गाय चराते थे। गुर्जर जाति में संवत् 968 में भगवान श्री देव महाराज का अवतार हुआ था। देव काल में माता गायत्री ने चेची गोत्र मैं अवतार लिया था। इस राजकाल में पन्ना धाय ने गुर्जरों का गौरव बढ़ाया था। कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज और पृथ्वी राज चौहान के पूर्वज भी गुर्जर थे। यह भी कहते हैं कि गुर्जर जाति में ही भामाशाह पैदा हुए थे जिन्होंने मेवाड़ की रक्षा के लिए अपना सम्पूर्ण धन दिया। 1857 की क्रांति में गुर्जरों की अहम् भूमिका रही थी।
इतिहासकारों में गुर्जरों की उत्पत्ति को लेकर मतभेद है। कुछ इन्हें हूणों का वंशज मानते हैं तो आर्यों की संतान। कुछ इतिहासकरों के अनुसार गुर्जर मध्य एशिया के कॉकेशस क्षेत्र (अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे। यह वे आर्य थे जो कालांतर में अपनी मातृभूमि भारत को छोड़कर बाहर चले गए थे।
  
गुर्जर  मुख्यत: उत्तर भारत, पाकिस्तान, कश्मीर, हिमाचल और अफगानिस्तान में बसे हैं। मध्यप्रदेश में भी लगभग अधिकांश इलाकों मे गुर्जर बसे हैं पर चंबल-मुरैना में इनकी बहुलता है। इसके अलावा निमाड़ और मालवा के कुछ हिस्सों में इनकी खासी तादाद हैं। भारत का गुजरात राज्य, पाकिस्तानी पंजाब का गुजरांवाला जिला और रावलपिंडी जिले का गूजर खान शहर आज भी यहां गुर्जर रहते हैं। गुर्जर लोग पहले राजस्थान में जोधपुर के आस-पास निवास करते थे। इसी कारण लगभग छठी शदी के मध्य राजस्थान का अधिकांश भाग 'गुर्जरन्ना-भूमि' के नाम से जाना था।
मुगल काल में गुर्जरों ने आक्रांताओं से बहुत की जोरदार तरीके से लौहा लिया और लगभग 200 वर्षों तक भारत की भूमि को बचाए रखा। अरब लेखकों के अनुसार गुर्जर उनके सबसे भयंकर शत्रु थे। अगर गुर्जर नहीं होते तो वो भारत पर 12वीं सदी से पहले ही अरब का अधिकार हो जाता।
12वीं सदी के बाद गुर्जरों का पतन होना शुरू हुआ और ये कई शाखाओं में बंट गए। गुर्जर समुदाय से अलग हुई कई जातियां बाद में बहुत प्रभावशाली होकर राजपूत और ब्राह्मण में भी जा मिली। बची हुई शाखाएं गुर्जर कबीलों में बदल गईं और खेती और पशुपालन का काम करने लगी। कालांतर में लगातार हुए आक्रमण और अत्याचार के चलते गुर्जरों को कई स्थानों पर अपना धर्म बदलकर मुसलमान भी होना पड़ा। उत्तर प्रदेश, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में रहने वाले गुर्जरों की स्थिति थोड़ी अलग है, जहां हिंदू और मुसलमान दोनों ही गुर्जर देखे जा सकते हैं जबकि राजस्थान में सारे गुर्जर हिंदू हैं। दूसरी ओर पंजाब में धर्म की रक्षार्थ कुछ गुर्जर सिख भी बने।
5वी सदी में भीनमाल गुर्जर सम्राज्य की राजधानी थी तथा इसकी स्थापना गुर्जरो ने की थी। भरुच का सम्राज्य भी गुर्जरो के अधीन था।छठी से 12वीं सदी में गुर्जर कई जगह सत्ता में थे। गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी। मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है और इनकी लड़ाई बंगाल के पाल वंश और दक्षिण-भारत के राष्ट्रकूट शासकों से होती रहती थी। 12वीं सदी के बाद प्रतिहार वंश का पतन होना शुरू हुआ और ये कई हिस्सों में बँट गए जैसे राजपूत वंश (चौहान, सोलांकी, चदीला और परमार)। अरब आक्रान्ताओं ने गुर्जरों की शक्ति तथा प्रशासन की अपने अभिलेखों में भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
इतिहासकार बताते हैं कि मुगल काल से पहले तक लगभग पूरा राजस्थान तथा गुजरात, 'गुर्जरत्रा' (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि के नाम से जाना जाता था।
अरब लेखकों के अनुसार गुर्जर उनके सबसे भयंकर शत्रु थे। उन्होंने ये भी कहा है कि अगर गुर्जर नहीं होते तो वो भारत पर 12वीं सदी से पहले ही अधिकार कर लेते।
पन्ना धाय जैसी वीरांगना पैदा हुई, जिसने अपने बेटे चन्दन का बलिदान देकर उदय सिंह के प्राण बचाए। बिशालदेव गुर्जर बैसला (अजमेर शहर के संस्थापक) जैसे वफादार दोस्त हुए जिन्होने दिल्ली का शासन तंवर राजाओं को दिलाने में पूरी जी-जान लगा दी। विजय सिंह पथिक जैसे क्रांतिकारी नेता हुए, जो राजा-महाराजा किसानो को लूटा करते थे, उनके खिलाफ आँदोलन चलाकर उन्होंने किसानो को मजबूत किया। मोतीराम बैसला जैसे पराक्रमि हुए जिन्होने मुगलो औऱ जाटो को आगरा में ही रोक दिया।

बलिदान:-

कोतवाल धन सिंह गुर्जर एक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और 1857 के महान क्रांतिकारी एवं शहीद थे। 10 मई 1857 को मेरठ में क्रान्ति आरम्भ करने का श्रेय धन सिंह गुर्जर को हैइसलिए 10 मई को हर साल ”क्रान्ति दिवस“ के रूप में मनाया जाता हैं। इस क्रान्ति की शुरूआत करने का श्रेय अमर शहीद कोतवाल धनसिंह गुर्जर को जाता है जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करने की हिम्मत दिखाई थी और उनकी पूरी हुकूमत को नाकों चने चबवा दिए थे।
10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोही सैनिकों और पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। जैसे ही शहर में ये खबर फैली कि सैनिकों ने विद्रोह कर दिया है आस-पास के गांव के लोग हजारों की तादाद में मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए। इसी कोतवाली में धन सिंह कोतवाल (प्रभारी) के पद पर कार्यरत थे।
धन सिंह कोतवाल एक क्रान्तिकारी की तरह निकलकर सबके सामने आ गए थे। वो पुलिस में उच्च पद पर कार्यरत थे। धन सिंह ने इस भीड़ को एक नेता के तौर पर एक नई दिशा दी जो की अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ थी। धन सिंह के इस कदम की वजह से अंग्रेज उनसे डर गए थे। धन सिंह ने भीड़ के साथ रात 2 बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया। जेल तोड़कर 836 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी।
जेल से छुड़ाए कैदी भी क्रान्ति में शामिल हो गए। उससे पहले पुलिस फोर्स के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। रात में ही विद्रोही सैनिक दिल्ली कूच कर गए और विद्रोह मेरठ के देहात में फैल गया। मंगल पाण्डे 8 अप्रैल, 1857 को बैरकपुर, बंगाल में शहीद हो गए थे।
छठी सदी के बाद गुर्जरों ने अपनी सत्ता कायम की। 7वीं से 12वीं सदी में गुर्जर अपने चरम पर थे। गुजरात के भीमपाल और उसके वंशज भी गुर्जर ही थे, जिन्होंने अरब आक्रमणकारियों को लगभग 200 साल तक भारतीय सीमा से खदेड़ा। भीनमाल गुर्जर सम्राज्य की राजधानी थी। भरुच का सम्राज्य भी गुर्जरों के अधीन था। गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी। मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है और इनकी लड़ाई बंगाल के पाल वंश और दक्षिण-भारत के राष्ट्रकूट शासकों से होती रहती थी।
नवीं शती से लेकर दसवीं शतीं के अंत तक लगभग 200 वर्षों तक मथुरा प्रदेश गुर्जर प्रतीहार-शासन में रहा। इस वंश में मिहिरभोज, महेंन्द्रपाल तथा महीपाल बड़े प्रतापी शासक हुए। उनके समय में लगभग पूरा उत्तर भारत एक ही शासन के अंतर्गत हो गया था। अधिकतर प्रतीहारी शासक वैष्णव या शैव मत को मानते थे। उस समय के लेखों में इन राजाओं को विष्णु, शिव तथा भगवती का भक्त बताया गया है।
भारत में गूजर जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में भी है.
हिमाचल और जम्मू कश्मीर में जहां गूजरों को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा दिया गया है वहीं राजस्थान में ये लोग अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं.
कुछ वर्ष पहले राजस्थान में जाटों को ओबीसी में शामिल किए जाने के बाद से गूजरों में असंतोष है.
नौकरियों में बेहतर अवसर की तलाश में गूजर अब ये माँग कर रहे हैं कि उन्हें राजस्थान में अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिले.
हालांकि कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि राजस्थान के समाज में इनकी स्थिति जनजातियों से कहीं बेहतर है.
प्राचनी काल में युद्ध कला में निपुण रहे गूजर मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के व्यवसाय से जुराजपूतों की रियासतों में गूजर अच्छे योद्धा माने जाते थे और इसीलिए भारतीय सेना में अभी भी जुड़े हुए हैं

इतिहास

प्राचीन इतिहास के जानकारों के अनुसार गूजर मध्य एशिया के कॉकेशस क्षेत्र ( अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए थे लेकिन इसी इलाक़े से आए आर्यों से अलग थे.
कुछ इतिहासकार इन्हें हूणों का वंशज भी मानते हैं.
भारत में आने के बाद कई वर्षों तक ये योद्धा रहे और छठी सदी के बाद ये सत्ता पर भी क़ाबिज़ होने लगे. सातवीं से 12 वीं सदी में गूजर कई जगह सत्ता में थे. इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है.
इतिहासकार कहते हैं कि विभिन्न राज्यों के गूजरों की शक्ल सूरत में भी फ़र्क दिखता है.
राजस्थान में इनका काफ़ी सम्मान है और इनकी तुलना जाटों या मीणा समुदाय से एक हद तक की जा सकती है.
उत्तर प्रदेश, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में रहने वाले गूजरों की स्थिति थोड़ी अलग है जहां हिंदू और मुसलमान दोनों ही गूजर देखे जा सकते हैं जबकि राजस्थान में सारे गूजर हिंदू हैं.
मध्य प्रदेश में चंबल के जंगलों में गूजर डाकूओं के गिरोह सामने आए हैं.
समाजशास्त्रियों के अनुसार हिंदू वर्ण व्यवस्था में इन्हें क्षत्रिय वर्ग में रखा जा सकता है लेकिन जाति के आधार पर ये राजपूतों से पिछड़े माने जाते हैं.
पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है.
भारत और पाकिस्तान में गूजर समुदाय के लोग ऊँचे ओहदे पर भी पहुँच हैं. इनमें पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति फ़ज़ल इलाही चौधरी और कांग्रेस के दिवंगत नेता राजेश पायलट शामिल हैं.
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